पेज

20160925

महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि: ग्रन्थ समीक्षा

भारतीय ज्ञान परम्परा के औदात्य को समर्पित सार्थक उपक्रम / ग्रन्थ समीक्षा
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा  Shailendrakumar Sharma
विश्व सभ्यता के अनन्य केंद्र रूप में उज्जयिनी का नाम सुविख्यात है। शास्त्र और विद्या की विलक्षण रंग-स्थली रही है यह नगरी। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जैन न जाने किस सुदूर अतीत से निरंतर निरत  है। अपने समूचे अर्थ में यह पुरातन नगरी भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। ऐसी विलक्षण नगरी के विख्यात ज्योतिर्विद् पं आनन्दशंकर व्यास के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेश दीक्षित, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित एवं डॉ जगन्नाथ दुबे के सुधी संयोजन एवम् सम्पादन में सद्यः प्रकाशित ग्रन्थ महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में आया है।
शिक्षा, संस्कृति जैसे महनीय कार्य से जुड़े महत्वपूर्ण विचारों, परम्पराओं और लेखन को समर्थ मंच और दिशा देने की दृष्टि से पण्डितप्रवर आनन्दशंकर व्यास विविधायामी गतिविधियों के साथ विगत अनेक वर्षों से सन्नद्ध हैं। यह विशेष प्रसन्नता का विषय है कि उनके इस ग्रन्थ का बीजांकुरण और प्रकाशन सम्पूर्ण भारत को संस्कृति, सभ्यता और विविध ज्ञानानुशासनों के प्रति गहरे दायित्वबोध से जोड़ने वाली पुरातन नगरी उज्जैन से ही हुआ है, जो महर्षि सान्दीपनि और श्रीकृष्ण के आदर्श गुरु - शिष्य सम्बन्ध की साक्षी है।
पं व्यास के परिवार द्वारा नव संवत्सरारम्भ, पंचांग प्रकाशन, गुरु पूर्णिमा उत्सव सहित विभिन्न प्रकल्प अनेक दशकों से निरंतर जारी हैं। यह परिवार संस्कृतिकर्म में नवोन्मेषी सक्रियता से अपनी अलग पहचान रखता है। पं व्यास द्वारा महर्षि सान्दीपनि एवम् श्रीकृष्ण के चरित को केंद्र में रखते हुए गुरु शिष्य परम्परा के प्रति सम्मान के साथ ही भारतीय विद्या की महनीयता को रेखांकित करने की दृष्टि से किए जा रहे प्रयत्नों की शृंखला में यह प्रकाशन अभिनव उपलब्धि बना है।
इस बृहद् ग्रन्थ का प्रथम खण्ड सान्दीपनि एवम् कृष्ण के बहाने भारतीय शिक्षा परम्परा के प्रादर्शों को रूपांकित करता है। मनुष्य की अविराम यात्रा में ज्ञान की महिमामयी उपस्थिति रही है। इसी दृष्टि से ज्ञान की अनादि और अखंडित परंपरा को समर्पित विलक्षण पर्व गुरु पूर्णिमा का भारतीय परम्परा में विशिष्ट स्थान रहा है। यह गुरु के व्याज से ज्ञान की उपासना का पर्व है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा तक आते-आते भारतभूमि न्यूनाधिक रूप से शुरूआती बारिश से भीग जाती है। ऐसे अमल-मनोरम मौसम में गुरु की भक्ति का पर्व गुरु पूर्णिमा आता है, जिस दिन गुरु पूजा का विधान है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता और फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति,  भक्ति और योग-शक्ति प्राप्त करने की सामर्थ्य मिलती है। ग्रन्थ के पहले खण्ड में गुरु तत्व महिमा,  गुरु पूर्णिमा और गुरु शिष्य परम्परा पर महत्वपूर्ण सामग्री संजोई गई है। भारतीय परंपरा में गुरु की महिमाशाली स्थिति सुस्थापित तथ्य है,जिसे इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर रेखांकित किया गया है। गुरु शब्द के व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ को लेकर शास्त्रों में पर्याप्त विचार हुआ है। गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी।  बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।  गुरु को परिभाषित किया गया है- ‘गृणाति उपदिशति वेदशास्त्राणि यद्वा गीर्यते स्तूयते शिष्यवर्गे।‘ अर्थात गुरु वह है जो वेदशास्त्रों का गृणन या उपदेश करता है तथा जो शिष्यवर्ग द्वारा स्तुत होता है। मनुष्य जन्म से अनगढ़ होता है, जो उसे सुसंस्कृत बनाता है, वह गुरु है। प्रथम गुरु माता-पिता हैं तो गुरु स्वयं दूसरे माता-पिता की भूमिका निभाते हैं। यास्क ने निरुक्त में बड़ी सुंदर उपमा दी है- सत्य की कुरेदनी से कानों को कुरेदकर जो अमृत भरे, वही गुरु है। गुरु की भूमिका कुम्हार की तरह है, जो अंदर से सहाय देता है और बाहर से चोट मार कर हमारी खोट को निकलता है, कबीर वचन है-
गुरु कुम्हार सिख घट्ट है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहाय दे, बाहर मारे चोट ।।        
ग्रन्थ के इसी भाग में सान्दीपनि एवम् कृष्ण के चरित, शिक्षा प्रणाली, विविधविध कलारूप, काल गणना परम्परा, पुरातन शिक्षा सिद्धांत, आश्रम आदि के साथ ही उज्जयिनी की ज्ञान परम्परा और यहाँ के विद्यारत्न, ज्योतिर्लिंग श्री महाकालेश्वर की महिमा, स्तोत्र आदि का समावेश किया गया है। वेदभूमि से लेकर मोक्षभूमि तक उज्जैन ने सुदीर्घ यात्रा तय की है, जिसका महिमांकन इस ग्रन्थ में अनेक मनीषियों ने किया है। इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति, ज्ञान विज्ञान, साहित्य आदि की समृद्धता में इस परिक्षेत्र के योगदान की चर्चा इस खण्ड की उपलब्धि बनी है।
द्वितीय खण्ड शिक्षा पर केंद्रित है। इस खण्ड में प्राचीन एवम् अर्वाचीन शिक्षा पद्धति सहित विद्यार्जन के विविध पहलुओं पर स्तरीय आलेखों का संचय किया गया है। ग्रन्थ में अनेक स्वनामधन्य विद्वानों के आलेखों को स्थान मिला  है, वहीं कुछ धरोहर लेख भी समाहित किए गए हैं। स्वामी करपात्री जी महाराज, पं संकर्षण व्यास, स्वामी महेश्वरानंद सरस्वती, पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, आचार्य श्रीनिवास रथ, डॉ ब्रजबिहारी निगम, रोचक घिमिरे व्यास, प्रो रहसबिहारी निगम, डॉ श्यामसुंदर निगम,  देवर्षि कलानाथ शास्त्री, पं आनन्दशंकर व्यास, डॉ रुद्रदेव त्रिपाठी, डॉ शिवनन्दन कपूर, डॉ पुरु दाधीच, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ दयानन्द भार्गव, डॉ घनश्याम पाण्डेय, डॉ केदारनारायण जोशी,  डॉ केदारनाथ शुक्ल,  डॉ विन्ध्येश्वरीप्रसाद मिश्र, डॉ बालकृष्ण शर्मा, डॉ श्रीकृष्ण मुसलगाँवकर, स्वामी भक्तिचारु, डॉ जगन्नाथ दुबे, डॉ श्रीकृष्ण जुगनू, डॉ शिव चौरसिया प्रभृति विद्वानों के आलेख इस ग्रंथ की समृद्धि के सूचक हैं। लगभग सवा सौ आलेखों का संचयन और सम्पादन निश्चय ही श्रमसाध्य कार्य था। इसके लिए संपादकों और लेखकों की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी।
पंचांग प्रकाशन विभाग, बड़ा गणेश, उज्जैन से प्रकाशित इस ग्रन्थ में जहां भारतीय ज्ञान परम्परा से जुड़े अनेक नवीन तथ्य और विचार उद्घाटित हुए हैं, वहीं कई पूर्वोपलब्ध तथ्यों की अभिनव पहचान और पड़ताल भी हुई है। पं व्यास ने अपने आद्य पुरुष महर्षि सांदीपनि की स्मृति को प्रणामांजलि अर्पित करने के लिए लगभग डेढ़ दशक पूर्व इस ग्रंथ के प्रकाशन का संकल्प लिया था, जो बड़े ही सुंदर रूप में साकार हो गया है। वस्तुतः इस प्रकार के महनीय प्रयत्नों से ही उज्जयिनी का गौरववर्धन होता है और वह अपनी प्रतिकल्पा रूप को साकार करती है।

ग्रन्थ : महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि
सम्पादक: पं आनन्दशंकर व्यास, रमेश दीक्षित, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ जगन्नाथ दुबे
प्रकाशक: पंचांग प्रकाशन विभाग, बड़ा गणेश, उज्जैन
प्रथम संस्करण विक्रम संवत 2073
पृष्ठ 448 एवम्  बहुरंगी प्लेट्स 26

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा                                      
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010
मोबा :098260-47765
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com



20150819

जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती है लोक-संस्कृति

अक्षर वार्ता July 2015: सम्पादकीय
(आवरण: बंसीलाल परमार )
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादकीय विविध लोकभिव्यक्तियों के अध्ययन, अनुसन्धान और नवाचार को लेकर सजगता की दरकार करता है।..
लोक-साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा काल-प्रवाह में बाधित भले ही हो जाए, कभी सूखती नहीं है। लोक-कथा, गीत, गाथा, नाट्य, संगीत, चित्र सहित विविध लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। विकास के नए प्रतिमान एक जैसेपन को बढ़ाते हैं, इसके विपरीत लोक-साहित्य और संस्कृति एक जैसेपन और एकरसता के विरुद्ध हैं। मनुष्य की सजर्नात्मक सम्भावनाएँ साहित्य एवं विविध कला-माध्यमों में प्रतिबिम्बित होती आ रही हैं। इनमें शब्दमयी अभिव्यक्ति का माध्यम ‘साहित्य’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ‘शब्द’ ही मनुष्य की अनन्य पहचान है, जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। शब्दार्थ केन्द्रित अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से लोक द्वारा रचा गया साहित्य अपनी संवेदना और शिल्प में विशुद्धता और मौलिकता की आंच से युक्त होने के कारण अपना विशिष्ट प्रभाव रचता है, जो कथित आभिजात्य साहित्य द्वारा सम्भव नहीं है। लोक-साहित्य मानव समुदाय की विविधता और बहुलता को गहरी रागात्मकता के साथ प्रकट करता है, वहीं देश-काल की दूरी के परे समस्त मनुष्यों में अंतर्निहित समरसता और ऐक्य को प्रत्यक्ष करता है।
वस्तुतः लोक से परे कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। समस्त लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह लोक-संस्कृति से मुक्त कोई भी नहीं है। कोई स्वीकार करे, न करे, उसे पहचाने, न पहचाने,  सभी की अपनी कोई न कोई लोक-संस्कृति होती है। उसका प्रभाव कई बार इतना सूक्ष्म-तरल और अंतर्यामी होता है कि उसे देख-परख पाना बेहद मुश्किल होता है, किन्तु असंभव नहीं। लोक-जीवन में परम्परा और विकास न सिर्फ साथ-साथ अस्तित्वमान रहते हैं, वरन् एक दूसरे पर भी निर्भर करते हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति इन दोनों की अन्योन्यक्रिया का जैविक साक्ष्य देते हैं।
लोक-साहित्य सहित लोक की विविधमुखी अभिव्यक्तियों को आधार देती हुई लोक-संस्कृति का स्वरूप अत्यंत व्यापक और विपुलतासम्पन्न है। लोक-साहित्य और संस्कृति तमाम प्रकार के परिवर्तन और विकास के बावजूद अपने अंदर की कई चीजों को बचाये रखते हैं, कभी रूपांतरित करके तो कभी अंतर्लीन करके। सूक्ष्मता से विचार करें तो हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह और क्रियाओं के तादात्म्य को प्रत्यक्ष करता है। यही वह विचारणीय बिंदु है जो लोक-साहित्य, संस्कृति के साथ इतिहास और मानव-शास्त्र का जैविक सम्बन्ध रचता है।
भारत में लोक साहित्य और संस्कृति कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत, आदिम या पुरातन नहीं हैं। वे सतत वर्तमान हैं, जीवन का अविभाज्य अंग हैं। भारत के हृदय अंचल मालवा का लोक-साहित्य और विविध परम्पराएँ भी इन्हीं अर्थों में अपने भूगोल और पर्यावरण का अनिवार्य अंग हैं। मालवी लोक-संस्कृति की विलक्षणता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यह अंचल सहस्राब्दियों से शास्त्र, इतिहास और संस्कृति की अनूठी रंगस्थली रहा है। इनके साथ यहाँ की लोक-संस्कृति की अन्तःक्रिया निरंतर चलती चली आ रही है। यहाँ कभी शास्त्रों ने लोक परम्परा को आधार दिया है तो कभी लोकाचार ने शास्त्र का नियमन किया है, उसको व्यवहार्य बनाया है। यह बात देश के प्रायः अधिकांश भागों की लोक-संस्कृति में देखी-समझी जा सकती है।
लोक में व्याप्त व्रत-पर्व-उत्सवों को कई बार महज धार्मिक अनुष्ठान या रूढ़ि के रूप में देखा जाता है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये सभी पुराख्यान, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। उदाहरण के लिए मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व और उससे जुड़ा लोक-साहित्य सही अर्थों में भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति, परम्परा और लोक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम दृष्टांत है। फिर यह काल के अविराम प्रवाह से अनछुआ भी नहीं है। इसमें परिवर्तन और विकास की आहटें भी सुनी जा सकती हैं। संजा पर्व में हम देखते हैं कि उसमें चित्रित आकृतियों में शास्त्रोक्त स्वस्तिक (सात्या) और सप्तऋषि तो आते ही हैं, छाबड़ी (डलिया), घेवर, घट्टी जैसे लोक प्रतीकों का भी अंकन होता है। काल-प्रवाह में इससे सम्बद्ध लोक-साहित्य और भित्ति-चित्रों में नए-नए बिम्ब भी संपृक्त होते जा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मालवा सहित किसी भी क्षेत्र की लोक-संस्कृति को नितांत बौद्धिक विमर्श से हटकर यहाँ के लोकजीवन के साथ सहज और जैविक अन्तःक्रिया के रूप में देखा-समझा जाए। तभी अध्ययन, शोध और नवाचार में उसके निहितार्थ उजागर होंगे और फिर उसका जीवन और पर्यावरण-बोध हमारे आज और कल के लिए भी कारगर सिद्ध होगा।
वर्तमान में लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में नित-नूतन अनुसंधान की संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। मानव जीवन के इन सचल क्षेत्रों में शोध की अभिनव प्रविधियों को लेकर जागरूकता की दरकार है। तभी हम शोध में स्तरीयता, मौलिकता और गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। इस दिशा में आपके रचनात्मक योगदान और प्रतिक्रियाओं का ‘अक्षर वार्ता’ में स्वागत है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com     डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरूलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com



Featured Post | विशिष्ट पोस्ट

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : वैचारिक प्रवाह से जोड़ती सार्थक पुस्तक | Mahatma Gandhi : Vichar aur Navachar - Prof. Shailendra Kumar Sharma

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : पुस्तक समीक्षा   - अरविंद श्रीधर भारत के दो चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में  सबसे...

हिंदी विश्व की लोकप्रिय पोस्ट