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20161202

भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष का प्रतीक सिंहस्थ कुंभ पर्व - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sinhasth - Kumbh Mahaparv Prof. Shailendra Kumar Sharma

अक्षर वार्ता: सिंहस्थ विशेषांक, संपादकीय

संस्कृति की सत्ता अखंड और अविच्छेद्य सत्ता है किन्तु अलग अलग दृष्टियों से देखने पर वह परस्पर भिन्न दृष्टिगोचर होती है। भारतीयों ने इस अखंड संस्कृति की साधना के लिए अनादि काल से जो यात्रा की है उसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से अभिहित करते हैं। सिंधु के आसपास के क्षेत्र से लेकर सुदूर पूर्व तक और हिमालय से लेकर दक्षिण में सेतु तक और यही नहीं काल प्रवाह में देश देशांतर तक फैले भारतवासियों ने जिन जीवन मूल्यों, विचारों, दृष्टियों और नियमों की संरचना, प्रसार और निरंतर उन्नयन किया है, उन्हीं का जैविक सुमेल है भारतीय संस्कृति। युग-युगीन उज्जयिनी अपने समूचे अर्थ में भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। शास्त्र और विद्या की यह विलक्षण रंग-स्थली है। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जयिनी निरंतर निरत रही है।

भारत में विकसित अनेक दार्शनिक संप्रदायों और पंथों की प्रमुख केन्द्र रही है तीर्थभूमि  उज्जयिनी। सुदूर अतीत से चली आ रही तीर्थाटन की परंपरा मनुष्य को व्यापक सृष्टि के साथ जोड़ने का कार्य करती है। तीर्थयात्रा बाहर के साथ भीतर की भी यात्रा है। इसीलिए पुराणकारों ने सत्य, क्षमा, दान, अन्तःकरण की शुद्धता से सम्पन्न मानसतीर्थ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। यदि भीतर का भाव शुद्ध न हो तो यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, शास्त्र का अध्ययन आदि सब अतीर्थ हो जाते हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, इस्लाम आदि विविध मतों की दृष्टि से उज्जयिनी का स्थान समूचे भारत के चुनिंदा तीर्थक्षेत्रों में सर्वोपरि रहा है। पुराणोक्त द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा इक्यावन शक्तिपीठों में से एक-एक उज्जैन में ही अवस्थित हैं। ऐसा संयोग वाराणसी, वैद्यनाथ जैसे कुछ तीर्थों के अतिरिक्त दुर्लभ है।
उज्जैन स्थित महाकाल वन शैव उपासना का प्राचीनतम क्षेत्र है। इसी तरह यहाँ शक्ति पूजा की परम्परा के सूत्र पुराण-काल के पूर्व से उपलब्ध होते हैं। प्राचीन गढ़कालिका क्षेत्र में उत्खनन से प्राप्त मृण्मूर्ति पर अंकित बालक लिए माँ से स्पष्ट होता है कि यहाँ मातृदेवी के रूप में शक्ति की उपासना का प्रचलन कम से कम 2200 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था। उज्जयिनी की मुद्रा में अंकित दो स्त्री आकृति सहित अनेक पुरातत्त्वीय प्रमाण सिद्ध करते हैं कि किसी न किसी रूप में देवी की पूजा यहाँ प्रचलित थी। सुदूर अतीत से चली आ रही शैव, शाक्त, वैष्णव आदि से जुड़ी उपासना की परंपराएँ गुप्त एवं परमार काल तथा अद्यावधि नए नए रूपों में आकार लेती दिखाई देती हैं।

स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड के अनुसार उज्जयिनी में प्रत्येक कल्प में देवता, तीर्थ और औषधि की बीज रूप (आदि रूप) वस्तुओं का पालन होता है। यह पुरी सबका संरक्षण करने में समर्थ है। इसलिए इसका नाम अवन्तीपुरी कहा गया।
   
      देवतीर्थौषधिबीजभूतानां चैव पालनम्।
      कल्पे कल्पे च यस्यां वै तेनावन्ती पुरी स्मृता।

सांस्कृतिक ऐक्य का बोध देने वाले पर्व कुंभ की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उसमें उज्जैन के शिप्रा तट पर होने वाले सिंहस्थ महापर्व का अपना विशिष्ट स्थान है। पुराण प्रसिद्ध देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन के अनंतर रत्नों का वितरण शिप्रा तट पर स्थित महाकाल वन में हुआ था। शिप्रा लौकिक और अलौकिक दोनों दृष्टियों से आनंदविधान करती है। स्कन्दपुराण के अनुसार स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण और देवतार्चा की दृष्टि से शिप्रा अत्यंत महिमाशाली है। विशिष्ट खगोलीय स्थिति में प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ होने वाला सिंहस्थ इन कार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर देता है।
भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष के प्रतीक कुंभ पर्व ने पिछली शताब्दियों में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद एक विराट लोक पर्व के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखा है। इसमें समय समय पर परिष्कार और बदलाव के सूत्र भी प्रभावकारी रहे हैं। कभी यह शास्त्रोक्त तीर्थ-स्नान और दान-पुण्य का अवसर था। कालान्तर में इसमें विभिन्न सम्प्रदाय के साधु-सन्तों के अखाड़ों की भी सक्रिय भागीदारी होने लगी। मध्यकालीन संकट के दौर में इस पर्व के समक्ष कई चुनौतियाँ भी उभरीं, किन्तु आधुनिक काल तक आते-आते इसमें साधु संतों की व्यापक भागीदारी, राजकीय व्यवस्था और लोक विस्तार इन सभी आयामों में परिवर्तन के सूत्र दिखाई देते हैं। वतर्मान में इस महापर्व ने विश्वप्रसिद्ध विराट मेले का रूप धारण कर लिया है, जिसमें एक साथ लाखों की संख्या में तीथर्यात्रियों और पर्यटकों का सैलाब उमड़ता है। देश-विदेश में कुंभ मेले जैसा दूसरा उदाहरण नहीं है, जो एक साथ धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रेरक हो और अपनी संपूर्णता में लोकमंगल एवं लोकरंजन को सिद्ध करता हो।

पर्वोत्सव परंपरा के मध्य सुमेरु का रूप लिए कुम्भ पर्व एक साथ कई कोणों से विमर्श का अवसर देता है। उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय ने सिंहस्थ से जुड़े विविध पक्षों को लेकर समग्र दृष्टिकोण से शोध की दिशा में सार्थक पहल की है। इसके अंतर्गत इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति, साहित्य, समाज, दर्शन, पर्यावरण, अर्थतंत्र आदि के परिप्रेक्ष्य में अनुसंधानपरक अध्ययन का संकल्प लिया है। इसी तरह प्रबंधन, पर्यावरण, सूचना तकनीकी जैसे कई पक्षों से जुड़े संस्थान और अध्येता भी सिंहस्थ का गहन अध्ययन करेंगे। अक्षर वार्ता परिवार ने इस मौके पर मौन तीर्थ सेवार्थ फाउंडेशन एवं राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के सहकार से सार्वभौमिक मूल्यों के प्रसार में साहित्य, संस्कृति और धर्म-अध्यात्म की भूमिका पर अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का संकल्प लिया है। उज्जयिनी का सिंहस्थ सर्वमंगल के शाश्वत संदेश को चरितार्थ करे, यही आत्मीय कामना है।   


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com                                                           
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल 
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन),  डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह, मुम्बई,  मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ भेरूलाल मालवीय, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये।
(आवरण: Mohan Bairagi/ Sandip Rashinkar)



20161130

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान और संचार के माध्यम के रूप में हिंदी

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बने हिंदी
अक्षर वार्ता: हिंदी विश्व विशेषांक, संपादकीय

ज्ञान मानव विकास का हमराह रहा है। इसी ज्ञान का व्यवस्थित और सुस्पष्ट रूप विज्ञान है। मानव सभ्यता की अविराम यात्रा के आधार में विज्ञान की महती भूमिका है। सुदूर अतीत से होते आ रहे वैज्ञानिक शोध हमारे वर्तमान और भावी जीवन के निर्धारक बनते आ रहे हैं। अनेक शाखा - प्रशाखाओं में विस्तृत विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को सुगम बनाने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इस क्षेत्र में होने वाले नित-नए आविष्कारों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़ा साहित्य हिन्दी सहित सभी जनभाषाओं में सुलभ हो। विशेष तौर पर आम जीवन से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सूचनाओं को आम व्यक्ति की भाषा में उपलब्ध करवाना जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सहज संचार के लक्ष्य को तभी साकार किया जा सकता है।
इस दिशा में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है, किन्तु उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों पर यद्यपि हिन्दी में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन अधिकांश पुस्तकों में गुणवत्ता का अभाव है। पुस्तकों में स्तरीय सामग्री विरले ही मिलती है। विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक लेखन कम ही हुआ है और संदर्भ ग्रंथ भी नगण्य हैं। लोकप्रिय विज्ञान के लिए लिखा तो बहुत कुछ किया जा रहा है, लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बद्ध सरल - सुबोध साहित्य, जो जन साधारण की समझ में आ सके, ऐसे लेखन की न्यूनता है। जनसंचार माध्यम, विशेष तौर पर समाचार पत्रों में विज्ञान संबंधी सूचनाओं और लेखों का अभाव सा है। इंटरनेट पर आज हिन्दी में विज्ञान और तकनीकी से जुडी गुणवत्तापूर्ण सामग्री अत्यंत सीमित है। इसे विकसित करने की आवश्यकता है। सामान्यतया विषय विशेषज्ञों की हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में लेखन के प्रति रुचि नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं- भाषागत कठिनाई, वैज्ञानिक जगत की घोर उपेक्षा, हिन्दी में लिखे आलेखों, शोधपत्रों को प्रस्तुत करने के लिए मंचों का अभाव, प्रकाशन की असुविधा आदि।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षण के लिए आवश्यक वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का हिन्दी में अब अभाव नहीं है। समस्या तब गहरा जाती है, जब विज्ञान लेखक इनका समुचित उपयोग नहीं करते हैं। यहाँ तक कि तमाम लेखक स्वयं नित नए शब्द गढ़ रहे होते हैं। इस अराजक स्थिति के कारण वैज्ञानिक पुस्तकों की भाषा का मानकीकरण नहीं हो पा रहा है। किसी भी भाषा की शब्दावली कितनी ही समृद्ध क्यों न हो, उसकी सार्थकता व्यवहार से ही हो सकती है। हिन्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक शोधपत्रों और आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए अंग्रेजी के समकक्ष विज्ञान मंचों की स्थापना की आवश्यकता है। आज ऐसे राष्ट्रीय मंचों का अभाव है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार, सम्मेलन आयोजित कर सकें और विज्ञान के बहुपृष्ठी चित्रात्मक शोधपत्रों का संकलन - प्रकाशन कर सकें। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को सरल भाषा में समझना और समझाना बहुत जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार का काम सिर्फ सूचना देना भर  नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करना है। इस प्रकार को दृष्टि को जन भाषा में वैज्ञानिक साहित्य को उपलब्ध कराए बगैर विकसित किया जाना सम्भव नहीं है।
राष्ट्र की प्रगति मे तकनीक क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वास्तविक प्रगति के लिये इंजीनियर का राष्ट्र की मूल धारा से जुडा होना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी ओर आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का माध्यम अंग्रेजी बनी हुई है। इस तरह हम अपने वैज्ञानिकों और अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर उन्हें न केवल जन सामान्य एवं देश के जमीनी यथार्थ से दूर कर रहे हैं, वरन् हम अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिकों को पश्चिम का रास्ता भी दिखा रहे हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड दी तो हम दुनिया से कट जाएंगे। किंतु क्या चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान जैसे देश वैज्ञानिक प्रगति में किसी भी देश से पीछे है। क्या ये राष्ट्र दुनिया से कटे हुये हैं। इन देशों में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी शिक्षा उनके अपनी राष्ट्रभाषा में होती है। वास्तव में वैश्विक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संपर्क के लिये केवल कुछ बड़े राष्ट्रीय संस्थानों और केवल कुछ वैज्ञानिकों और अभियंताओं का दायित्व होता है जो उस स्तर तक पहुंचते हुए आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। किंतु हम व्यर्थ ही असंख्य विद्यार्थियों को उनके जीवन के कई अमूल्य वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने मे व्यस्त रखते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना मे भारत से कही अधिक संख्या मे इंजीनियर तथा वैज्ञानिक विदेशों में जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का बहुत बड़ा कारण उनका अंग्रेजी में शिक्षण भी है। हिंदी को कठिन बताने के लिये कुछ जटिल और हास्यास्पद उदाहरण दिए जाते हैं, जो व्यर्थ हैं। हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः कई वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्द देवनागरी लिपि में लिखते हुए हिंदी में सहज ही अपनाये जा सकते हैं। अनेक राज्यों की ग्रंथ अकादमियां हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य प्रकाशित करती हैं, किंतु इन ग्रन्थों का उपयोग अपेक्षानुरूप नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण बहुत कम छप पाते हैं। अधिसंख्य विश्वविद्यालयो में तकनीकी शिक्षा की माध्यम भाषा अंग्रेजी ही है। राष्ट्रभाषा हिंदी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती है। विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यदि हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत करेगा, वहीं हम जन - जन में वैज्ञानिक दृष्टि का प्रसार करने में समर्थ होंगे। यही हिंदी भारतीय ग्रामों और नगरों के वास्तविक उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक का लाभ पहुंचाएगी। भारतेन्दु ने दशकों पहले इस बात का संकेत कर दिया था:
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
जाहिर है भूमंडलीकरण के दौर में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र की उपलब्धियों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब हिन्दी को सम्पूर्ण रूप से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बनाया जाएगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com
                                                             
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)।
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह (मुंबई), डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया (उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई/वाराणसी),  डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
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