पेज
- मुखपृष्ठ
- मेरे प्रिय लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा - के एल जमड़ा | My Favorite Writer Prof. Shailendra Kumar Sharma - K L Jamda
- Sanskriti Vimarsh | संस्कृति विमर्श
- Ramcharit Manas me Vigyan | Vaigyanik Tatva | रामचरितमानस में विज्ञान | वैज्ञानिक तत्व
- Malvi Lok Sanskriti: Folklore मालवी लोक संस्कृति
- Youtube Channel of Prof. Shailendra Kumar Sharma | प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा का यूट्यूब चैनल | Youtube Channel on Music, Dance, Theater, Literature, Art and Culture
- e - content | Online Study Material - Hindi | Prof. Shailendra Kumar Sharma | ई - कंटेंट | ऑनलाइन अध्ययन सामग्री - हिंदी | प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
- Prof. Shailendra Kumar Sharma on Facebook | प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा फेसबुक पर
- Research Papers and Special Articles - Prof. Shailendra Kumar Sharma | प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के शोध पत्र और विशिष्ट आलेख
- इंटरनेट के दौर में शब्द- प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्म...
- मालवी भाषा और साहित्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा |...
- Book Reviews on the Books of Prof. Shailendra Kumar Sharma | प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा की पुस्तकों पर पुस्तक समीक्षा
20180525
20180125
जीवनानुभवों की संक्षिप्त - सुगठित, किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है लघुकथा : प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा | Interview with Prof. Shailendra Kumar Sharma
समालोचक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा से सन्तोष सुपेकर का साक्षात्कार
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा Prof. Shailendrakumar Sharma |
(समीक्षक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डा शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र एवं भारतीय भक्ति साहित्य केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। तीन दशकों से आलोचना, निबंध-लेखन, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय प्रो शर्मा ने पैंतीस से अधिक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन किया है। शोध स्तरीय पत्रिकाओं और ग्रन्थों में आपके 300 से अधिक शोध एवं समीक्षा निबंधों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 800 से अधिक कला एवं रंगकर्म समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा जाने-माने समीक्षक एवं लघुकथा के अध्येता हैं। सम्प्रति विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिन्दी विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं। प्रस्तुत है, वरिष्ठ लघुकथाकार और कवि संतोष सुपेकर द्वारा लघुकथा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनसे की गई बातचीत।)
शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथा एक स्वतंत्र और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हमारे वृहत् जीवनानुभवों की संक्षिप्त, सुगठित किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति का नाम लघुकथा है। यह वर्णन या विवरण के बजाय संश्लेषण में विश्वास करने वाली साहित्यिक विधा है, जिसकी परिणति प्रायः विस्फोटक होती है। बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते इस विधा ने नए-नए अनुभव क्षेत्रों और अभिव्यक्तिगत आयामों को छूते हुए अपनी विलक्षण पहचान बना ली है। शैलीगत परिमार्जन के बाद लघुकथा का स्वरूप अब और अधिक स्पष्ट और सुसंयत होता जा रहा है। ऐसे दौर में लघुकथाकारों का दायित्व भी बढ़ा है। उन्हें लघुकथा परम्परा में आए बदलावों को लक्षित कर अपनी पहचान बनानी होगी। इसके साथ सम्पादकों का भी दायित्व बनता है कि वे उन्हीं लघुकथाओं को स्थान दें, जो इसकी परम्परा को समृद्ध करती हैं। अन्यथा कमजोर लघुकथाओं के लेखन/प्रकाशन से यह प्रश्न बारम्बार उभरता रहेगा कि इसे स्वतंत्र विधा माना जाये या नहीं? कभी बिहारी के दोहों के लिए कहा गया था, ‘‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर।’’ यह बात आज की लघुकथाओं पर खरी उतर रही है। इसे शुभ संकेत माना जा सकता है।
सन्तोष सुपेकर Santosh Supekar |
संतोष सुपेकर : ‘लघुकथा’ शब्द का नामकरण कब और कैसे हुआ? बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखी गईं लघुकथाएँ क्या ‘लघुकथा’ नाम से ही प्रकाशित होती थीं?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : दृष्टांत, नीति या बोध कथा के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से होता आ रहा है। मूलतः दृष्टांतों के रूप में लघुकथाएँ विकसित हुईं। इस प्रकार के दृष्टांत नैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। नैतिकतापरक लघुकथाओं में हम पंचतंत्र, हितोपदेश, महाभारत, बाइबिल, जातक, ईसप आदि की कथाओं को रख सकते हैं। इसी प्रकार धार्मिक दृष्टांतों के रूप में भी देश-विदेश में लघुकथाओं के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। इधर आधुनिक युग में ‘लघुकथा’ नामकरण काफी बिलंब से हुआ है, किन्तु यह तय बात है कि इस नए अवतार में लघुकथा ने शताब्दियों की यात्रा दशकों में तय कर ली है।
‘लघुकथा’ शब्द मूल रूप में अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ का सीधा अनुवाद है, किन्तु इसके तौल का एक और शब्द ‘कहानी’ हिन्दी में रूढ़ हो चुका है। इधर कहानी और लघुकथा- दोनों अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। लघुकथा को कहानी का सार या संक्षिप्त रूप मानना उचित नहीं होगा। लघुकथा बनावट और बुनावट में कहानी से अपना स्वतंत्र अस्तित्व और महत्व रखती है।
आधुनिक काल में हिन्दी लघुकथा की शुरूआत सन् 1900 के आसपास मानी जा सकती है। माखनलाल चतुर्वेदी की ‘बिल्ली और बुखार’ को पहली लघुकथा माना जा सकता है। इस शृंखला में माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ते चले गए। सप्रे जी के विशिष्ट अवदान को दृष्टिगत रखते हुए उनके जन्मदिवस पर 19 जून को लघुकथा दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रेमचंद ने अपने सृजन के उत्कर्ष काल में कई लघुकथाएँ लिखीं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो सखियाँ, जादू आदि। प्रसाद की गुदड़ी के लाल, अघोरी का मोह, करुणा की विजय, प्रलय, प्रतिमा, दुखिया, कलावती की शिक्षा आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण हैं। बंगला साहित्य में भी टैगोर, बनफूल ने महत्वपूर्ण लघुकथाएँ रचीं हैं। हिन्दी में सुदर्शन, रावी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, रांगेय राघव आदि ने मार्मिक लघुकथाएँ लिखीं। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए - उपेन्द्रनाथ अश्क, रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकान्त वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. सतीश दुबे, सतीश राठी, जगदीश कश्यप, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. कृष्ण कमलेश, चित्रा मुद्गल, मालती जोशी, कमल गुप्त, विक्रम सोनी, भगीरथ, युगल, रमेश बतरा, डॉ. श्यामसुंदर व्यास, पारस दासोत, विक्रम सोनी, मुकेश शर्मा, सूर्यकांत नागर, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, मधुदीप गुप्ता, सुरेश शर्मा, माधव नागदा, डॉ योगेंद्रनाथ शुक्ल, योगराज प्रभाकर, सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’, अरविंद नीमा, मीरा जैन, कांता राय, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, राजेन्द्र देवधरे दर्पण आदि। युवा लघुकथाकारों के जुड़ने से यह सिलसिला आज भी जारी है।
हाल के दौर में सुधी कथाकार मधुदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनके संयोजन-सम्पादन में लघुकथा के सृजन-आलोचन की अविराम शृंखला पड़ाव और पड़ताल अनेक खण्डों में और प्रमुख लघुकथाकारों के प्रतिनिधि संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इसमें मुझे भी एक समीक्षक के रूप में सहभागी बनने का अवसर मिला है।
आधुनिक काल में हिन्दी लघुकथा की शुरूआत सन् 1900 के आसपास मानी जा सकती है। माखनलाल चतुर्वेदी की ‘बिल्ली और बुखार’ को पहली लघुकथा माना जा सकता है। इस शृंखला में माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ते चले गए। सप्रे जी के विशिष्ट अवदान को दृष्टिगत रखते हुए उनके जन्मदिवस पर 19 जून को लघुकथा दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रेमचंद ने अपने सृजन के उत्कर्ष काल में कई लघुकथाएँ लिखीं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो सखियाँ, जादू आदि। प्रसाद की गुदड़ी के लाल, अघोरी का मोह, करुणा की विजय, प्रलय, प्रतिमा, दुखिया, कलावती की शिक्षा आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण हैं। बंगला साहित्य में भी टैगोर, बनफूल ने महत्वपूर्ण लघुकथाएँ रचीं हैं। हिन्दी में सुदर्शन, रावी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, रांगेय राघव आदि ने मार्मिक लघुकथाएँ लिखीं। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए - उपेन्द्रनाथ अश्क, रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकान्त वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. सतीश दुबे, सतीश राठी, जगदीश कश्यप, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. कृष्ण कमलेश, चित्रा मुद्गल, मालती जोशी, कमल गुप्त, विक्रम सोनी, भगीरथ, युगल, रमेश बतरा, डॉ. श्यामसुंदर व्यास, पारस दासोत, विक्रम सोनी, मुकेश शर्मा, सूर्यकांत नागर, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, मधुदीप गुप्ता, सुरेश शर्मा, माधव नागदा, डॉ योगेंद्रनाथ शुक्ल, योगराज प्रभाकर, सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’, अरविंद नीमा, मीरा जैन, कांता राय, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, राजेन्द्र देवधरे दर्पण आदि। युवा लघुकथाकारों के जुड़ने से यह सिलसिला आज भी जारी है।
हाल के दौर में सुधी कथाकार मधुदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनके संयोजन-सम्पादन में लघुकथा के सृजन-आलोचन की अविराम शृंखला पड़ाव और पड़ताल अनेक खण्डों में और प्रमुख लघुकथाकारों के प्रतिनिधि संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इसमें मुझे भी एक समीक्षक के रूप में सहभागी बनने का अवसर मिला है।
सुधी लघुकथाकार और सम्पादक श्री सतीश राठी विगत कई दशकों से क्षितिज के माध्यम से लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
शुरुआती दौर में लघुकथा जैसी स्वतंत्र संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा ‘कहानी’ से बिलगाव बताने के लिए प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने ‘लघुकथा’ के अतिरिक्त नई संज्ञाएं या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे मिनी कहानी, मिनीकथा, कथिका, अणुकथा, कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि; लेकिन ये संज्ञाएँ पानी के बुलबुले के समान बहुत कम समय में निस्तेज हो गईं।
शुरुआती दौर में लघुकथा जैसी स्वतंत्र संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा ‘कहानी’ से बिलगाव बताने के लिए प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने ‘लघुकथा’ के अतिरिक्त नई संज्ञाएं या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे मिनी कहानी, मिनीकथा, कथिका, अणुकथा, कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि; लेकिन ये संज्ञाएँ पानी के बुलबुले के समान बहुत कम समय में निस्तेज हो गईं।
संतोष सुपेकर : आपने कहीं कहा है कि अतिशय स्पष्टीकरण लघुकथा की मारक क्षमता को कम करता है। अपने इस कथन के संदर्भ में लघुकथा के आकार पर प्रकाश डालें। यह भी बताएँ कि क्या रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक को सोचने के लिए छोड़ दिया जाए, अलिखित?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : निश्चय ही मितकथन लघुकथा की अपनी मौलिक पहचान है। अतिशय स्पष्टीकरण या वर्णन के लिए लघुकथा में अवकाश नहीं है। आकार की दृष्टि से लघुकथा को शब्द या पृष्ठों की गणना में बाँधना संभव नहीं है। अनुभूति की सघनता, शब्दों की मितव्ययता, सुगठित बनावट और लघुता-इसे विलक्षण बनाती है। वैसे तो लघुकथा के लिए कोई सुनिश्चित फार्मूला बनाना इसके साथ अन्याय होगा, फिर भी यह तय बात है कि रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक के लिए छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा।
संतोष सुपेकर : ऐसा कहा गया है कि लघुकथा का शीर्षक तो दूर पहाड़ी पर बने मंदिर के समान होना चाहिए। इस संदर्भ में लघुकथा में शीर्षक की भूमिका पर अपने विचार बताएँ।
शैलेंद्रकुमार शर्मा : किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा के शीर्षक की अपनी विलक्षण भूमिका होती है। कहीं यह उसके मूल मर्म को संप्रेषित करता है, तो कहीं उसके संदेश को। कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा के कथ्य का विस्तार करता है। इसका शीर्षक देना अपने आप में चुनौती भरा काम है। इसमें सर्जक से अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा होती है।
संतोष सुपेकर : एक कथ्य, जो लघुकथा में माध्यम बनता है, कहानी में अपना प्रभाव खो देता है, आप क्या कहना चाहेंगे?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : निश्चय ही किसी भी विधा या रूप का रचाव कथ्य की जरूरतों पर निर्भर करता है। इसलिए जो कथ्य लघुकथा के अनुरूप होता है, वह कहानी या किसी भी दूसरी विधा में जाकर अपना प्रभाव खो देगा।
संतोष सुपेकर : प्रेमचंद के अनुसार अतियथार्थवाद निराशा को जन्म देता है। आज की लघुकथाओं में छाया अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश कर रहा है?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : आज की लघुकथाएँ हमारे वैविध्यपूर्ण जीवनानुभवों को मूर्त कर रही हैं। आज का पाठक सभी प्रकार की लघुकथाओं से गुजरते हुए अपनी संवेदनाओं का विकास करता है। केवल निराश होने जैसी कोई बात नहीं है।
संतोष सुपेकर : डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार लघुकथा एक लेखकहीन विधा है। क्या लघुकथाकार को हमेशा रचना में अनुपस्थित ही होना चाहिए?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथा को लेखकहीन विधा कहना उचित नहीं है। एक ही कथ्य को लघुकथा में दर्ज करने का हर लेखक का अपना ढंग होता है। श्रेष्ठ लघुकथाओं में लेखक की उपस्थिति सहज ही महसूस की जा सकती है।
संतोष सुपेकर : फ्लैश/कौंध रचनाओं (चौंकाने वाली) को कुछ विद्वान अगंभीर लघुकथा लेखन मानते हैं, जबकि कुछ इसके पक्ष में हैं। हरिशंकर परसाईं ने एक साक्षात्कार में कहा था कि लघुकथा में चरम बिंदु का महत्व होना ही चाहिए, आपकी राय?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : चौंकाने वाली लघुकथाएँ भी समकालीन लघुकथा लेखन को एक खास पहचान देती हैं। इन्हें अगंभीर लेखन मानना उचित नहीं है। लघुकथा में चरम या समापन बिन्दु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इससे लघुकथा का निहितार्थ असरदार ढंग से पाठक तक पहुँचता है।
संतोष सुपेकर : लघुकथा में क्या पद्यात्मक पंक्तियों की गुंजाइश है? ऐसी आवश्यकता महसूस हो तो लेखक क्या करे?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : लेखकीय आवश्यकता के अनुरूप या अन्य प्रकार के प्रयोगों के लिए लघुकथा में पर्याप्त गुंजाइश है। ये सारे प्रयोग अंततः लघुकथा की सम्प्रेषणीयता में साधन ही बन सकते हैं, यही इनकी सार्थकता है।
संतोष सुपेकर : लघुकथा को और सशक्त होने के लिए क्या आवश्यक मानते हैं- संकलनों का प्रकाशन, समीक्षा गोष्ठियों, लघुकथा सम्मेलनों का आयोजन, रचनात्मक आन्दोलन या कुछ और?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : वर्तमान दौर में लघुकथाएँ बड़े पैमाने पर लिखी जा रही हैं। कुछ रचनाकार इसे बेहद आसान रास्ते के रूप में चुन रहे हैं। इसीलिए कई ऐसी रचनाएँ भी आ रही हैं, जिन्हें लघुकथा कहना उचित नहीं लगता है। वे महज हास-परिहासनुमा संवाद या किस्सों से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इसलिए जरूरी है कि लघुकथा सृजन की कार्यशालाएँ समय-समय पर आयोजित हों, जहाँ इस विधा से जुड़े वरिष्ठ सर्जक और विद्वान भी जुटें। श्रेष्ठ रचनात्मकता के लिए महज आंदोलनधर्मिता से कुछ नहीं हो सकता है। इसके लिए गंभीर प्रयास जरूरी हैं। लघुकथा कार्यशाला, परिसंवाद, समीक्षा गोष्ठी, सम्मेलन और प्रकाशन-इन सभी की सार्थक भूमिका हो तो बात बने।
संतोष सुपेकर : कथ्य चयन, कथ्य विकास तथा भाषा-शैली क्या कहानी की तुलना में लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की माँग करते हैं?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : कथ्य चयन, उसका विकास और अभिव्यक्ति के उपादान-सभी दृष्टियों से लघुकथा क्षणों में बँटे जीवन के कोमल और खुरदरे यथार्थ की निर्लेप और संक्षिप्त अभिव्यक्ति होती है। इसलिए थोड़े में बहुत कहने की जिम्मेदारी एक लघुकथाकार की होती है। कहानीकार इससे मुक्त हो सकता है, लघुकथाकार नहीं।
संतोष सुपेकर : श्रेष्ठ विधा वही है जो कागज पर खत्म होने के बाद पाठक के मस्तिष्क में प्रारम्भ हो और उसे सोचने के लिए विवश करे। इस कथन के मद्देनजर विषयवस्तु का दोहराव क्या लघुकथा के विकास में बाधक बन रहा है?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : निश्चय ही लघुकथा के सामने एक बड़ी चुनौती उसके दीर्घकालीन और सघन प्रभाव से जुड़ी हुई है। लघुकथाकारों को अपने अनुभव क्षेत्र को विस्तार देते हुए सृजनरत रहना चाहिए अन्यथा विषयवस्तु का दोहराव लघुकथा के विकास में बाधक बना रहेगा।
संतोष सुपेकर : हिंदी लघुकथा के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा का भविष्य अधिक उज्ज्वल है। समय के अभाव और जनसंचार माध्यमों के अकल्पनीय विस्तार के बीच लघुकथा के लिए पर्याप्त स्पेस अब भी बना हुआ है। इस स्पेस को पहचानकर लघुकथाकार उसका बेहतर उपयोग करेंगे, ऐसी आशा व्यर्थ न होगी।
संतोष सुपेकर : प्रतीकात्मक लघुकथाओं पर अपने विचार बताएँ?
शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथाओं में प्रतीकों की विशिष्ट भूमिका होती है। सार्थक प्रतीक-प्रयोग से रचनाकार अपनी रचना को देशकाल के कैनवास पर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य दे सकता है।
-प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
-संतोष सुपेकर, 31, सुदामा नगर, उज्जैन (म.प्र.)
(यह विशेष साक्षात्कार लघुकथाकार श्री उमेश महादोषी के संपादन में प्रकाशित अविराम साहित्यिकी के लघुकथा विशेषांक के लिए लिया गया था, जिसके अतिथि संपादक सुधी साहित्यकार श्री बलराम अग्रवाल थे।)
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
Featured Post | विशिष्ट पोस्ट
महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : वैचारिक प्रवाह से जोड़ती सार्थक पुस्तक | Mahatma Gandhi : Vichar aur Navachar - Prof. Shailendra Kumar Sharma
महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : पुस्तक समीक्षा - अरविंद श्रीधर भारत के दो चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में सबसे...
हिंदी विश्व की लोकप्रिय पोस्ट
-
स्वामी विवेकानंद : सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ‘‘ कई सदियों से तुम नाना ...
-
अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान : नई सम्भावनाएं - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा वर्तमान दौर ज्ञान-विज्ञान की विविधमुखी प्रगति के साथ अंतर-अनुशास...
-
स्कन्दगुप्त - जयशंकर प्रसाद : पाठ और समीक्षा Skandagupt - Jaishankar Prasad : Text and Review जयशंकर प्रसाद जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1890 - ...
-
मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 192...
-
रंग समीक्षा वही सार्थक , जो दर्शक और पाठक को समृद्ध करे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा रंग समीक्षक डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा से डॉ श्वेता ...
-
अग्निपथ : बच्चन जी की कालजयी कविता प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा अग्निपथ कविता का अर्थ आत्म शक्ति संपन्न मनुष्य का निर्माण करना है। हरिवंश...
-
हिन्दी कविता में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति : राष्ट्रीय काव्य धारा डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा वैसे तो ‘ वसुधैवकुटुम्बकम् ’ का सूत्र साहित्य ...
-
श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकालेश्वर प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्...
-
अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात। - प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास। म...
-
लोकपर्व होली : सरस गीत, संगीत और नृत्य प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा भारतीय पर्वोत्सवों की परंपरा में होली अपने उल्लासपूर्ण स्वभा...