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20161225

शिपावरा: मानवीय सभ्यता की पुरातन स्थली - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

शिपावरा:  शिप्रा-चंबल संगम पर मानवीय सभ्यता की पुरातन स्थली
प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

पुरातन काल से भारतभूमि के प्रमुख तीर्थ क्षेत्रों में अवन्ती क्षेत्र, शिप्रा और महाकालेश्वर की महिमा का गान स्थान-स्थान पर हुआ है। अपनी पुरातनता, पवित्रता एवं मोक्षदायी स्वभाव  के कारण भारत की प्रमुख नदी-मातृकाओं में प्रसिद्ध ‘शिप्रा’ युगों-युगों से लोक-आस्था का केंद्र बनी हुई है। शिप्रा का उद्गम मध्यप्रदेश के महू नगर से लगभग 11 मील दूर स्थित कांकर बर्डी पहाड़ी से हुआ है। यह मालवा में लगभग 120 मील की यात्रा करती हुई चम्बल (चर्मण्यवती) में मिल जाती है। महाकवि कालिदास ने शिप्रा, चर्मण्यवती और गंभीर का सरस वर्णन ‘मेघदूत’ में किया है। शिप्रा अपने उद्गम से संगम तक खान, गंभीर, ऐन, गांगी और लूनी को समाहित करती हुई चम्बल में अंतर्लीन हो जाती है। शिप्रा की कई सहायक नदियों का उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है, यथा गंधवती, नीलगंगा, ख्याता, फाल्गु, सरस्वती, खगर्ता, कौशिकी, सोमवती या चंद्रभागा आदि, जिनमें से अधिकांश या तो लुप्तप्राय हैं या संकटग्रस्त। शिप्रा और चम्बल का संगम स्थल शिपावरा या सिपावरा के नाम से सुप्रसिद्ध है, जो सीतामऊ (जिला-मन्दसौर) और आलोट (जिला-रतलाम) के मध्य में है। वहाँ पहुँचकर शिप्रा अपने प्रवाह की विपुलता से चम्बल में संगमित होने की तत्परता और उछाह को प्रकट करती है।

रतलाम जिले की आलोट तहसील के अर्न्तगत शिपावरा ग्राम ( स्थिति- 23.908  उत्तरी अक्षांश, 75.483 पूर्वी देशांतर) से करीब आधा किमी दूर शिप्रा एवं चम्बल नदी का संगम है। यह स्थान सिपावरा के नाम से भी जाना जाता है। पहले यह गाँव संगम के समीप स्थित था, जिसके साक्ष्य विपुल पुरासामग्री से युक्त विशाल टीले से मिलते हैं। शिपावरा में प्रागैतिहासिक काल से लेकर परमार और मराठा काल तक की पुरा-सम्पदा के महत्त्वपूर्ण प्रमाण उपलब्ध हैं, जो इस सुरम्य प्राकृतिक-धार्मिक स्थान की युग-युगांतर में व्याप्त महिमाशाली स्थिति को प्रतिबिम्बित करते हैं।    

शिप्रा का पावन तट अनेक सहस्राब्दियों से मानवीय सभ्यता का क्रीड़ा स्थल रहा है। यजुर्वेद में ‘शिप्रे अवेः पयः’ के द्वारा शिप्रा का स्मरण हुआ है। निरुक्त में ‘शिप्रा कस्मात्’ इस प्रश्न को उपस्थित करके उत्तर दिया गया है ‘शिवेन पातितं यद् रक्तं तत्प्रभवति, तस्मात्।' अर्थात् शिप्रा क्यों कही जाती है? इसका उत्तर था शिवजी द्वारा जो रक्त गिराया गया, वही यहाँ अपना प्रभाव दिखला रहा है, नदी के रूप मे बह रहा है, अतः यह शिप्रा है। प्राचीन ग्रन्थों में शिप्रा और सिप्रा- दोनों नाम प्रयुक्त हुए हैं। इनकी व्युत्पत्तियाँ क्रमशः इस प्रकार हैं ‘शिवं प्रापयतीति शिप्रा’ और ‘सिद्धिं प्राति पूरयतीति सिप्रा।' और कोशकारों ने सिप्रा का एक  अर्थ करधनी भी किया है। तदनुसार यह नदी उज्जयिनी के तीन ओर से बहने के कारण करधनीरूप मानकर भी सिप्रा नाम से मण्डित हुई। उन दोनों नामों को साथ इसे क्षिप्रा भी कहा जाता है। यह उसके जल प्रवाह की द्रुतगति से सम्बद्ध प्रतीत होता है।

अवन्ती क्षेत्र के विश्व-कोश के रूप में विख्यात स्कन्दपुराण में शिप्रा नदी का बड़ा माहात्म्य बतलाया है। यथा
नास्ति वत्स ! महीपृष्ठे शिप्रायाः सदृशी नदी।
यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्तिः कच्चिदासेवितेन वै।।

चित्रकार : संदीप राशिनकर

अर्थात् हे वत्स ! इस भू-मण्डल पर शिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है। क्योंकि जिसके तीर पर कुछ समय रहने से  तथा स्मरण, स्नान-दानादि करने से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

शिप्रा के कई नाम हैं, जैसे ज्वरघ्नी, अमृतोद्भवा, कल्पनाशिनी, कामधेनु-समुद्भवा, त्रैलोक्यपावनी, विष्णुदेहोद्भवा आदि। इन संज्ञाओं से जुड़ी शिप्रा की उत्पत्ति के संबंध में कई कथाएँ वर्णित है। जैसे यह विष्णुदेहोद्भवा है, एक कथा में कहा गया है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा  काटने पर उनका रक्त गिरकर बहने से यह नदी के रूप प्रवाहित हुई। इसीलिये ‘विष्णुदेहात् समुत्पन्ने शिप्रे ! त्वं पापनाशिनी’ के माध्यम से शिप्रा की स्तुति की गई है। शिप्रा को गंगा भी कहा गया है। पंचगंगाओं में एक गंगा शिप्रा भी मान्य हुई है। अवन्तिका को विष्णु का पदकमल कहा है और गंगा विष्णुपदी है, इसलिये भी शिप्रा को गंगा कहना नितान्त उपयुक्त है। कालिकापुराण में वर्णित शिप्रा की उत्पत्ति-कथा के अनुसार, मेधातिथि द्वारा अपनी कन्या अरुन्धती के विवाहदृसंस्कार के समय महर्षि वसिष्ठ को कन्यादान का संकल्प अर्पण करने के लिये शिप्रासर का जल लिया गया था,  उसी के गिरने से शिप्रा नदी बह निकली बतलाई है। शिप्रा का अतिपुण्यमय क्षेत्र भी पुराणों में दिखाया है : 

शिव सर्वत्र पुण्योस्ते ब्रह्महत्यापहारिणी।
अवन्तयां सविशेषेण शिप्रा ह्युत्तरवाहिनी।।
तथा संगम नीलगंगाया यावद् गन्धवती नदी।
तयोर्मध्ये तु सा शिप्रा देवानामपि दुर्लभा।।

शिप्रा नदी वैसे तो सर्वत्र पुण्यमयी है, ब्रह्म-हत्या के पाप का निवारण करनेवाली है, किन्तु उज्जयिनी में उत्तरवाहिनी होने पर और भी विशिष्ट हो जाती है। नीलगंगा के संगम से गन्धवती के बीच जो क्षिप्रा बहती है वह देवों के लिए भी दुर्लभ है। इसलिए क्षिप्रा के नाम- स्मरण का महत्व भी प्रतिपादित है।

शिप्रा शिप्रेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुच्यते सर्वपापेभ्य शिवलोकं स गच्छति।।
अर्थात सौ योजन (चार सौ कोस) दूर से भी यदि कोई शिप्रा शिप्रा ऐसा स्मरण करता है तो वह सब पापों से छूट जाता है और शिवलोक को प्राप्त करता है।

प्राचीन काल से ही नदी तट प्राणिजगत के नैसर्गिक वासस्थान रहे हैं। भारतीय शास्त्रों में आध्यात्मिक साधना के लिए नदी तटों का आश्रय उत्तम माना जाता है। ऋषि-मुनि, साधकगण सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते हुए ऐसी पवित्र नदियों के तटों पर अपने आश्रमादि बनाकर उपासना करते थे। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड में शिप्रा के वर्णन के अतिरिक्त इसके तटों पर बने हुए तीर्थस्थलों (घाटों) की भी महिमा बतलाई है। पिशाचमुक्तेश्वर तीर्थ के समीप शिप्रा मन्दिर अतिप्राचीन काल से रहा है। रामघाट, नृसिंहघाट आदि अपनी महिमा बनाए हुए हैं तथा वहाँ स्थित विभिन्न देवालय भी अपनी महत्ता रखते है। शिप्रा के दूसरी ओर बने घाट और दत्त अखाड़े का भी विशिष्ट महत्व है। उज्जयिनी शिप्रा के उत्तरवाहिनी होने पर पूर्वीतट पर बसी है। ओखलेश्वर से मंगलनाथ तक यह पूर्ववाहिनी हैं। सिद्धवट और त्रिवेणी में स्नान- दानादि करने की विशेष महिमा मानी गई है। शिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। स्पष्ट है कि कालगणना की दृष्टि से भी शिप्रातट की महिमाशाली स्थिति रही है।

शिप्रा और चंबल के पावन संगम पर स्थित ‘शिपावरा’ अत्यंत रमणीय स्थल है। दिल्ली-मुंबई रेल-लाइन पर स्थित विक्रमगढ़-आलोट स्टेशन से यह लगभग 25 किमी दूर स्थित है। आलोट से कराड़िया, बरखेड़ा कलाँ और मोरिया होकर शिपावरा पहुँचा जा सकता है। एक रास्ता आलोट से विक्रमगढ़, खजूरी देवड़ा, रजला और मोरिया होकर शिपावरा जाता है।

शिपावरा पाँच हजार वर्ष पुरातन सभ्यता के अवशेषों को समेटे हुए है। 1992 ईस्वी में सुधी पुराविद् डॉ. श्यामसुंदर निगम के मार्गदर्शन में मेरे द्वारा शिपावरा क्षेत्र को लेकर किए गए समन्वेषण में विपुल पुरासामग्री का अनुशीलन किया गया था। इस कार्य में शिक्षाविद श्री कैलाशचंद्र दुबे, कलामनीषी श्री रमेश सोनगरा और विवेक नागर सहभागी बने थे। 1990-97 के दौर में डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा आलोट-सोंधवाड़ क्षेत्र की कई प्रागैतिहासिक बस्तियों के समन्वेषण की राह खुली थी, जिनमें कलस्या, धरोला, गुलबालोद, कराड़िया, शिपावरा आदि प्रमुख हैं। उस दौरान शिपावरा संगम के समीपस्थ टीले से  मानवीय सभ्यता के अनेक स्तरों के पुरा साक्ष्य मिले थे।

शिपावरा में नवपाषाण और ताम्राश्मयुगीन सभ्यता के अवशेष बड़ी संख्या में प्राप्त होते हैं, जिनका समय 2000 से 3000 ई. पू. अनुमानित है। यहाँ से प्राप्त पुरावशेषों में अनेक प्रकार के लघु औजार यथा- क्रोड, लुनेट फलक, माइक्रो लिथ के साथ ही मनके, मृद्भांड, बीट्स आदि प्रमुख हैं, जो इस स्थल पर विकसित सभ्यता के हड़प्पाकालीन सभ्यता के समकालीन होने को प्रमाणित करते हैं। उल्लेखनीय है कि शिप्रा तट पर स्थित पुरास्थल महिदपुर में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा करवाए गए उत्खनन में विपुल मात्रा में लघुपाषाण से ताम्राश्मयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले थे, वहीं प्राचीन स्वर्णाभूषण की भी प्राप्ति हुई थी, जो मालवा में अब तक हुए पुरान्वेषण में अद्वितीय है। शिपावरा के समीपस्थ टीले के संरक्षण की आवश्यकता है, वहीं यहाँ पुरातात्विक उत्खनन की अपार संभावनाएं हैं।                

शिपावरा स्थित शिप्रा-चंबल संगम पर मंदिर और समाधियाँ बनी हुई हैं। यहाँ एक शिव मंदिर है, जहां दीपेश्वर महादेव पूजित हैं। ऐसी मान्यता है कि यहाँ बड़ी मात्रा में मिट्टी के दीपक निकलते रहे हैं। इसलिए यह संज्ञा पड़ी। यहाँ परमारकाल के खंडित अभिलेख के साथ देवालयों के भग्नावशेष यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। कुछ अवशेषों का उपयोग घाट और नए मंदिरों के निर्माण में किया गया है। संगम-तट पर नाथपंथी साधुओं की समाधियाँ निर्मित हैं, जिनकी लोक-मानस में ‘जीवित समाधि’ के रूप में प्रतिष्ठा मिली हुई है। यहाँ रियासतकालीन शिकारगाह भी बना हुआ है, जिसका प्रयोग जावरा के नवाब किया करते थे। पुराविद डॉ.  अजीत रायजादा के अनुसार- नदी के तट के घाट और मंदिरों का पुनर्निर्माण मराठा काल में हुआ। पुनर्निर्माण में परमारकालीन मंदिरों के अवशेषों का प्रयोग किया गया है।  यत्र-तत्र लगे परमार स्थापत्य एवं मूर्तिकला के कारण इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। (Art, Archaeology and History of Ratlam, Sharada Prakashan, Delhi 1992] p104) शिपावरा में मकरसंक्रांति, महाशिवरात्रि, गुरु पूर्णिमा जैसे विशेष पर्वों पर बड़ी संख्या में धर्मालुजन जुटते हैं और स्नान-दान का पुण्यार्जन करते हैं।  

शिपावरा के समीप बरखेड़ा कलाँ से उत्तर दिशा में लगभग दो किमी दूर चम्बल नदी के मध्य में जोगनीया माता जी का प्राकृतिक कुंड़ है। यहाँ सिंह पर सवार दुर्गा की प्रतिमा स्थापित है, जो जोगनीया माता के नाम से लोक-आस्था का प्रतीक बनी हुई है। ऐसी मान्यता है कि जोगनीया माता सभी भक्तों की मनोकामनायें पूरी करती हैं। यहाँ प्रति रविवार भक्तों की भीड़ उमड़ती है। नवरात्रि में यहाँ विशेष पूजा-अनुष्ठान होते हैं, जिसमें हजारों की संख्या में भक्तगण सम्मिलित होते हैं।

स्पष्ट है कि शिप्रा आकार-प्रवाह में लघु होकर भी सदियों से लोक-आस्था से लेकर पौराणिक-साहित्यिक संदर्भों में महत्त्वशाली बनी हुई है। आखिर क्यों न हो, वह सदियों से प्रतिकल्पा उज्जयिनी और अवन्ती परिक्षेत्र की अमृतसंभवा बनी हुई है। उसके तट पर स्थित पुण्यफलदायी तीर्थों के मध्य ‘शिपावरा’ एक अनन्य पुरास्थली के रूप में युगों-युगों से बहती शिप्रा की कथा को कल-कल स्वरों में निनादित कर रहा है।

                                                                  

डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक        
विक्रम विश्वविद्यालय,  उज्जैन (म.प्र.)


रेखांकन : संदीप राशिनकर






रेखांकन : संदीप राशिनकर



20161202

भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष का प्रतीक सिंहस्थ कुंभ पर्व - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sinhasth - Kumbh Mahaparv Prof. Shailendra Kumar Sharma

अक्षर वार्ता: सिंहस्थ विशेषांक, संपादकीय

संस्कृति की सत्ता अखंड और अविच्छेद्य सत्ता है किन्तु अलग अलग दृष्टियों से देखने पर वह परस्पर भिन्न दृष्टिगोचर होती है। भारतीयों ने इस अखंड संस्कृति की साधना के लिए अनादि काल से जो यात्रा की है उसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से अभिहित करते हैं। सिंधु के आसपास के क्षेत्र से लेकर सुदूर पूर्व तक और हिमालय से लेकर दक्षिण में सेतु तक और यही नहीं काल प्रवाह में देश देशांतर तक फैले भारतवासियों ने जिन जीवन मूल्यों, विचारों, दृष्टियों और नियमों की संरचना, प्रसार और निरंतर उन्नयन किया है, उन्हीं का जैविक सुमेल है भारतीय संस्कृति। युग-युगीन उज्जयिनी अपने समूचे अर्थ में भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। शास्त्र और विद्या की यह विलक्षण रंग-स्थली है। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जयिनी निरंतर निरत रही है।

भारत में विकसित अनेक दार्शनिक संप्रदायों और पंथों की प्रमुख केन्द्र रही है तीर्थभूमि  उज्जयिनी। सुदूर अतीत से चली आ रही तीर्थाटन की परंपरा मनुष्य को व्यापक सृष्टि के साथ जोड़ने का कार्य करती है। तीर्थयात्रा बाहर के साथ भीतर की भी यात्रा है। इसीलिए पुराणकारों ने सत्य, क्षमा, दान, अन्तःकरण की शुद्धता से सम्पन्न मानसतीर्थ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। यदि भीतर का भाव शुद्ध न हो तो यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, शास्त्र का अध्ययन आदि सब अतीर्थ हो जाते हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, इस्लाम आदि विविध मतों की दृष्टि से उज्जयिनी का स्थान समूचे भारत के चुनिंदा तीर्थक्षेत्रों में सर्वोपरि रहा है। पुराणोक्त द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा इक्यावन शक्तिपीठों में से एक-एक उज्जैन में ही अवस्थित हैं। ऐसा संयोग वाराणसी, वैद्यनाथ जैसे कुछ तीर्थों के अतिरिक्त दुर्लभ है।
उज्जैन स्थित महाकाल वन शैव उपासना का प्राचीनतम क्षेत्र है। इसी तरह यहाँ शक्ति पूजा की परम्परा के सूत्र पुराण-काल के पूर्व से उपलब्ध होते हैं। प्राचीन गढ़कालिका क्षेत्र में उत्खनन से प्राप्त मृण्मूर्ति पर अंकित बालक लिए माँ से स्पष्ट होता है कि यहाँ मातृदेवी के रूप में शक्ति की उपासना का प्रचलन कम से कम 2200 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था। उज्जयिनी की मुद्रा में अंकित दो स्त्री आकृति सहित अनेक पुरातत्त्वीय प्रमाण सिद्ध करते हैं कि किसी न किसी रूप में देवी की पूजा यहाँ प्रचलित थी। सुदूर अतीत से चली आ रही शैव, शाक्त, वैष्णव आदि से जुड़ी उपासना की परंपराएँ गुप्त एवं परमार काल तथा अद्यावधि नए नए रूपों में आकार लेती दिखाई देती हैं।

स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड के अनुसार उज्जयिनी में प्रत्येक कल्प में देवता, तीर्थ और औषधि की बीज रूप (आदि रूप) वस्तुओं का पालन होता है। यह पुरी सबका संरक्षण करने में समर्थ है। इसलिए इसका नाम अवन्तीपुरी कहा गया।
   
      देवतीर्थौषधिबीजभूतानां चैव पालनम्।
      कल्पे कल्पे च यस्यां वै तेनावन्ती पुरी स्मृता।

सांस्कृतिक ऐक्य का बोध देने वाले पर्व कुंभ की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उसमें उज्जैन के शिप्रा तट पर होने वाले सिंहस्थ महापर्व का अपना विशिष्ट स्थान है। पुराण प्रसिद्ध देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन के अनंतर रत्नों का वितरण शिप्रा तट पर स्थित महाकाल वन में हुआ था। शिप्रा लौकिक और अलौकिक दोनों दृष्टियों से आनंदविधान करती है। स्कन्दपुराण के अनुसार स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण और देवतार्चा की दृष्टि से शिप्रा अत्यंत महिमाशाली है। विशिष्ट खगोलीय स्थिति में प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ होने वाला सिंहस्थ इन कार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर देता है।
भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष के प्रतीक कुंभ पर्व ने पिछली शताब्दियों में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद एक विराट लोक पर्व के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखा है। इसमें समय समय पर परिष्कार और बदलाव के सूत्र भी प्रभावकारी रहे हैं। कभी यह शास्त्रोक्त तीर्थ-स्नान और दान-पुण्य का अवसर था। कालान्तर में इसमें विभिन्न सम्प्रदाय के साधु-सन्तों के अखाड़ों की भी सक्रिय भागीदारी होने लगी। मध्यकालीन संकट के दौर में इस पर्व के समक्ष कई चुनौतियाँ भी उभरीं, किन्तु आधुनिक काल तक आते-आते इसमें साधु संतों की व्यापक भागीदारी, राजकीय व्यवस्था और लोक विस्तार इन सभी आयामों में परिवर्तन के सूत्र दिखाई देते हैं। वतर्मान में इस महापर्व ने विश्वप्रसिद्ध विराट मेले का रूप धारण कर लिया है, जिसमें एक साथ लाखों की संख्या में तीथर्यात्रियों और पर्यटकों का सैलाब उमड़ता है। देश-विदेश में कुंभ मेले जैसा दूसरा उदाहरण नहीं है, जो एक साथ धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रेरक हो और अपनी संपूर्णता में लोकमंगल एवं लोकरंजन को सिद्ध करता हो।

पर्वोत्सव परंपरा के मध्य सुमेरु का रूप लिए कुम्भ पर्व एक साथ कई कोणों से विमर्श का अवसर देता है। उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय ने सिंहस्थ से जुड़े विविध पक्षों को लेकर समग्र दृष्टिकोण से शोध की दिशा में सार्थक पहल की है। इसके अंतर्गत इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति, साहित्य, समाज, दर्शन, पर्यावरण, अर्थतंत्र आदि के परिप्रेक्ष्य में अनुसंधानपरक अध्ययन का संकल्प लिया है। इसी तरह प्रबंधन, पर्यावरण, सूचना तकनीकी जैसे कई पक्षों से जुड़े संस्थान और अध्येता भी सिंहस्थ का गहन अध्ययन करेंगे। अक्षर वार्ता परिवार ने इस मौके पर मौन तीर्थ सेवार्थ फाउंडेशन एवं राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के सहकार से सार्वभौमिक मूल्यों के प्रसार में साहित्य, संस्कृति और धर्म-अध्यात्म की भूमिका पर अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का संकल्प लिया है। उज्जयिनी का सिंहस्थ सर्वमंगल के शाश्वत संदेश को चरितार्थ करे, यही आत्मीय कामना है।   


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
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डॉ मोहन बैरागी
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(आवरण: Mohan Bairagi/ Sandip Rashinkar)



20161130

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान और संचार के माध्यम के रूप में हिंदी

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बने हिंदी
अक्षर वार्ता: हिंदी विश्व विशेषांक, संपादकीय

ज्ञान मानव विकास का हमराह रहा है। इसी ज्ञान का व्यवस्थित और सुस्पष्ट रूप विज्ञान है। मानव सभ्यता की अविराम यात्रा के आधार में विज्ञान की महती भूमिका है। सुदूर अतीत से होते आ रहे वैज्ञानिक शोध हमारे वर्तमान और भावी जीवन के निर्धारक बनते आ रहे हैं। अनेक शाखा - प्रशाखाओं में विस्तृत विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को सुगम बनाने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इस क्षेत्र में होने वाले नित-नए आविष्कारों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़ा साहित्य हिन्दी सहित सभी जनभाषाओं में सुलभ हो। विशेष तौर पर आम जीवन से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सूचनाओं को आम व्यक्ति की भाषा में उपलब्ध करवाना जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सहज संचार के लक्ष्य को तभी साकार किया जा सकता है।
इस दिशा में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है, किन्तु उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों पर यद्यपि हिन्दी में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन अधिकांश पुस्तकों में गुणवत्ता का अभाव है। पुस्तकों में स्तरीय सामग्री विरले ही मिलती है। विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक लेखन कम ही हुआ है और संदर्भ ग्रंथ भी नगण्य हैं। लोकप्रिय विज्ञान के लिए लिखा तो बहुत कुछ किया जा रहा है, लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बद्ध सरल - सुबोध साहित्य, जो जन साधारण की समझ में आ सके, ऐसे लेखन की न्यूनता है। जनसंचार माध्यम, विशेष तौर पर समाचार पत्रों में विज्ञान संबंधी सूचनाओं और लेखों का अभाव सा है। इंटरनेट पर आज हिन्दी में विज्ञान और तकनीकी से जुडी गुणवत्तापूर्ण सामग्री अत्यंत सीमित है। इसे विकसित करने की आवश्यकता है। सामान्यतया विषय विशेषज्ञों की हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में लेखन के प्रति रुचि नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं- भाषागत कठिनाई, वैज्ञानिक जगत की घोर उपेक्षा, हिन्दी में लिखे आलेखों, शोधपत्रों को प्रस्तुत करने के लिए मंचों का अभाव, प्रकाशन की असुविधा आदि।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षण के लिए आवश्यक वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का हिन्दी में अब अभाव नहीं है। समस्या तब गहरा जाती है, जब विज्ञान लेखक इनका समुचित उपयोग नहीं करते हैं। यहाँ तक कि तमाम लेखक स्वयं नित नए शब्द गढ़ रहे होते हैं। इस अराजक स्थिति के कारण वैज्ञानिक पुस्तकों की भाषा का मानकीकरण नहीं हो पा रहा है। किसी भी भाषा की शब्दावली कितनी ही समृद्ध क्यों न हो, उसकी सार्थकता व्यवहार से ही हो सकती है। हिन्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक शोधपत्रों और आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए अंग्रेजी के समकक्ष विज्ञान मंचों की स्थापना की आवश्यकता है। आज ऐसे राष्ट्रीय मंचों का अभाव है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार, सम्मेलन आयोजित कर सकें और विज्ञान के बहुपृष्ठी चित्रात्मक शोधपत्रों का संकलन - प्रकाशन कर सकें। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को सरल भाषा में समझना और समझाना बहुत जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार का काम सिर्फ सूचना देना भर  नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करना है। इस प्रकार को दृष्टि को जन भाषा में वैज्ञानिक साहित्य को उपलब्ध कराए बगैर विकसित किया जाना सम्भव नहीं है।
राष्ट्र की प्रगति मे तकनीक क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वास्तविक प्रगति के लिये इंजीनियर का राष्ट्र की मूल धारा से जुडा होना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी ओर आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का माध्यम अंग्रेजी बनी हुई है। इस तरह हम अपने वैज्ञानिकों और अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर उन्हें न केवल जन सामान्य एवं देश के जमीनी यथार्थ से दूर कर रहे हैं, वरन् हम अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिकों को पश्चिम का रास्ता भी दिखा रहे हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड दी तो हम दुनिया से कट जाएंगे। किंतु क्या चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान जैसे देश वैज्ञानिक प्रगति में किसी भी देश से पीछे है। क्या ये राष्ट्र दुनिया से कटे हुये हैं। इन देशों में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी शिक्षा उनके अपनी राष्ट्रभाषा में होती है। वास्तव में वैश्विक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संपर्क के लिये केवल कुछ बड़े राष्ट्रीय संस्थानों और केवल कुछ वैज्ञानिकों और अभियंताओं का दायित्व होता है जो उस स्तर तक पहुंचते हुए आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। किंतु हम व्यर्थ ही असंख्य विद्यार्थियों को उनके जीवन के कई अमूल्य वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने मे व्यस्त रखते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना मे भारत से कही अधिक संख्या मे इंजीनियर तथा वैज्ञानिक विदेशों में जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का बहुत बड़ा कारण उनका अंग्रेजी में शिक्षण भी है। हिंदी को कठिन बताने के लिये कुछ जटिल और हास्यास्पद उदाहरण दिए जाते हैं, जो व्यर्थ हैं। हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः कई वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्द देवनागरी लिपि में लिखते हुए हिंदी में सहज ही अपनाये जा सकते हैं। अनेक राज्यों की ग्रंथ अकादमियां हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य प्रकाशित करती हैं, किंतु इन ग्रन्थों का उपयोग अपेक्षानुरूप नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण बहुत कम छप पाते हैं। अधिसंख्य विश्वविद्यालयो में तकनीकी शिक्षा की माध्यम भाषा अंग्रेजी ही है। राष्ट्रभाषा हिंदी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती है। विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यदि हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत करेगा, वहीं हम जन - जन में वैज्ञानिक दृष्टि का प्रसार करने में समर्थ होंगे। यही हिंदी भारतीय ग्रामों और नगरों के वास्तविक उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक का लाभ पहुंचाएगी। भारतेन्दु ने दशकों पहले इस बात का संकेत कर दिया था:
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
जाहिर है भूमंडलीकरण के दौर में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र की उपलब्धियों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब हिन्दी को सम्पूर्ण रूप से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बनाया जाएगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com
                                                             
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)।
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह (मुंबई), डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया (उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई/वाराणसी),  डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरुलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये।


20161128

जीवन के शाश्वत, किन्तु अनुत्तरित प्रश्नों के बीच कैलाश वाजपेयी की कविता भर्तृहरि : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

कैलाश वाजपेयी  की कविता: भर्तृहरि
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
जीवन के शाश्वत, किन्तु अनुत्तरित प्रश्नों के बीच राजयोगी भर्तृहरि से संवाद करती कैलाश वाजपेयी  की इस कविता को पढ़ना-सुनना विलक्षण अनुभव देता है। कैलाश वाजपेयी  (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) अछोर कविमाला के अनुपम रत्न हैं। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था। उनकी प्रमुख कृतियों में 'संक्रांत', 'देहात से हटकर', 'तीसरा अंधेरा', 'सूफीनामा', 'भविष्य घट रहा है', 'हवा में हस्ताक्षर', 'शब्द संसार', 'चुनी हुई कविताएँ', 'भीतर भी ईश्वर' आदि प्रमुख हैं। 

कैलाश वाजपेयी की कविताओं में जहां एक ओर अपने समय और समाज से संवादिता दिखाई देती है, वहीं वे निजी सुख-दुख, हर्ष - पीड़ा के साथ दार्शनिक प्रश्नों को अभिव्यक्ति देते हैं। श्री वाजपेयी ने जहां एक ओर भारतीय दर्शन, इतिहास और पुराख्यानों के साथ वैचारिक रिश्ता बनाया था, वहीं वे पश्चिम से आने वाली चिंतन धाराओं से भी मुठभेड़ करते रहे। 

व्यक्ति और समाज की सापेक्षता को उन्होंने कभी ओझल न होने दिया। वे लिखते हैं-  मेरा ऐसा मानना रहा है कि व्यक्ति और समाज बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद की तरह ओतप्रोत है। रचनाकार व्यक्ति भी है समाज भी। समाज उसे क्या क्या नहीं देता - सभी कुछ समाज की ही देन है, तब भी जहां तक आंतरिकता का प्रश्न है वहां रचनाकार बहुत अकेला है। प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्ति समाज अथवा विचारधाराओं का साधन मात्र है? तब फिर उसके निजत्व का क्या किया जाए? देखा यह गया है कि विचारधाराएं जाने अनजाने व्यक्ति को एक कठपुतली की तरह नचाने लगती  हैं। परिणाम यह होता है कि रचना के क्षेत्र में स्वतः स्फूर्ति आंतरिक बेमानी होने लगती है। दूसरे दर्जे की कला को अधिक महत्व मिलने लगता है। पंथपरकता अथवा विचारधाराओं ने इस दृष्टि से कलाओं को गंभीर क्षति पहुंचाई है। समाज का अर्थ है पारस्परिक प्रेम संबंध। मगर हम यदि अपने आसपास निगाह दौड़ा कर देखें तो पाएंगे कि हम आपस में तरह-तरह से विभक्त हैं। एक ही समाज में रहते हुए अपने अपने विश्वासों, अपनी धारणाओं के कारण, हर उस व्यक्ति के प्रति विद्वेष रखते हैं जो हमारी मान्यताओं के विपरीत स्वतंत्रचेता है, अपने ढंग से रचना है (संक्रांत की भूमिका से)। जाहिर है कैलाश वाजपेयी की ये चिंताएं आज भी बरकरार हैं।

उन्होंने दिल्ली दूरदर्शन के लिए कबीर, सूरदास, जे कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर फिल्में भी बनाई थीं। स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित नाटक 'युवा संन्यासी' उनका प्रसिद्ध नाटक है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में उल्लेखनीय हैं- हिंदी अकादमी सम्मान, वर्ष 2000 में एसएस मिलेनियम अवॉर्ड, वर्ष 2002 में प्रतिष्ठित व्यास सम्मान, वर्ष 2005 में ह्यूमन केयर ट्रस्ट अवॉर्ड, वर्ष 2008 में अक्षरम् का विश्व हिन्दी साहित्य शिखर सम्मान आदि। मेरी  प्रिय कविताओं में से एक भर्तृहरि का आस्वाद लीजिए : 


भर्तृहरि / कैलाश वाजपेयी

चिड़ियाँ बूढ़ी नहीं होतीं
मरखप जाती हैं जवानी में
ज़्यादा से ज़्यादा छह-सात दिन
तितली को मिलते हैं पंख
इन्हीं दिनों फूलों की चाकरी
फिर अप्रत्याशित
झपट्टा गौरेया का
एक ही कहानी है
खाने या खाए जाने की
तुम सहवास करो या आलिंगन राख का
भर्तृहरि! देही को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई दूसरी पृथ्वी भी नहीं है

भर्तृहरि! यों ही मत खार खाओ शरीर पर
यही यंत्र तुमको यहाँ तक लाया है
भर्तृहरि! यह लो एक अदद दर्पण
चूरचूर कर दो
प्रतिबिंबन तब भी होगा ही होगा
भर्तृहरि! अलग से बहाव नहीं कोई
असल में हम खुद ही बहाव हैं
लगातार नष्ट होते अनश्वर
अभी-अभी भूख, पल भर तृप्ति, अभी खाद
भर्तृहरि! हममें हर दिन कुछ मरता है
शेष को बचाए रखने के वास्ते
मौसम बदलता है भीतर
भर्तृहरि! तुमने मरता नहीं देखा प्यासा कोई
वह पैर लेता है, आमादा
पीने को अपना ही ख़ून
भर्तृहरि! तुमने मरुथल नहीं देखा
भर्तृहरि समय का मरुथल क्षितिजहीन है
और वहाँ पर ‘वहाँ’ जैसा कुछ भी नहीं
भर्तृहरि! भाषा की भ्रांति समझो
सूर्य नहीं, हम उदय अस्त हुआ करते हैं
युगपत् उगते मुरझते
भर्तृहरि! भाषा का पिछड़ापन समझो
जो भी हैं बंधन में पशु है
निसर्गतः फर्क नहीं कोई
राजा और गोभी में
छाया देता है वृक्ष आँख मूँदकर
सुनता है, धड़ पर, चलते आरे की
अर्रर्र, किस भाषा में रोता है पेड़
भर्तृहरि! तुमने उसकी सिसकी सुनी?

भर्तृहरि! तुम्हीं नहीं, सबको तलाश है
उस फूल की
जो भीतर की ओर खिलता है
भर्तृहरि! लगने जब लगता है
मिला अभी मिला
आ रही है सुगंध
दृश्य बदल जाता है।

(फ़ोटो भरत तिवारी Bharat Tiwari सौजन्य विकिपीडिया)


श्री कैलाश वाजपेयी को 18 अगस्त 2013, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यक्रम में अपनी कविता 'भर्तृहरि' का पाठ करते हुए यूट्यूब पर भी देखा जा सकता है। लिंक है: 
Watch "Bhartrihari भर्तृहरि Poem by Kailash Vajpeyi" on YouTube




20161127

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय लोक नाट्य परम्परा की समृद्धि का साक्ष्य देता है माच

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृद्धि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका साहित्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाणी के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृतिप्रेमियों के समग्र प्रयासों की दरकार है। भारत के हृदय अंचल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा भारत का हृदय अंचल है तो इसकी सांस्कृतिक राजधानी है उज्जैन। उज्जैन कला के अधिष्ठाता शिव और सर्व-कला-रत्न श्रीकृष्ण की नगरी है। इसी नगरी को लोक नाट्य माच के जन्म का श्रेय जाता है। आज का मालवा सम्पूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए है। इसकी सीमा रेखा के संबंध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है जिसके अनुसार चम्बल, बेतवा और नर्मदा नदियों से घिरे भू-भाग को मालवा की सीमा मानना चाहिए-
 
इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। 
दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

मालवा का लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का विशिष्ट स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक नाट्य माच है, जो अपनी सुदीर्घ परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मंच बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृद्ध माच सम्पूर्ण नाट्य (टोटल थियेटर) की सम्भावनाओं को मूर्त करता है। लोकमानस की सहज अभिव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्दोलित करता आ रहा है। माच शब्द संस्कृत के मंच शब्द का ही परिवर्तित रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुक्ताकाशी रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाते हैं । संगीत, नृत्य, पाठ, अभिनय और बोलों  की अन्तः क्रिया माच को एक सम्पूर्ण नाट्य या यूँ कहें टोटल थियेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामाजिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दर्शन होते हैं। माच के दर्शकों में भी एक खास ढंग की रसिकता देखी जा सकती है। इसके दर्शक महज दर्शक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी दिखाई देती है। माच के क्षेत्र में उज्जैन में अनेक घराने बने, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊर्जा, नई गति दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामकिशन जी, गुरु राधाकिशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शर्मा, सिद्धेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्नीलाल जी, अनिल पांचाल आदि का माच के खेलों के सृजन और मंचन की परम्परा को आगे बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इतिहास और लोकाख्यानों में निहित उच्च आदर्श, प्रणय और लोक मंगल की भावभूमि को समाहित करता आ रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध माच के खेलों ने लोक के अंदाज में तीखा प्रतिकार किया है। आधुनिक रंगमंच पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने आ रहे हैं। यह लोकविधा अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।

माच की उत्सभूमि उज्जैन मानी जाती है। लगभग दो सौ से अधिक वर्षों से माच मालवा का प्रमुख लोकनाट्य बना हुआ है। इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। मालवा क्षेत्र में प्रचलित गरबी गीत, ढारा-ढारी के खेल, तुर्रा कलंगी, नकल-स्वांग की प्रवृत्ति, गम्मत, हाजरात विद्या आदि को माच के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण मानने वालों में डा. शिवकुमार मधुर का प्रमुख नाम है। मालवा के इन लोक कला रूपों में अन्तर्निहित तत्त्वों जैसे-नृत्य, गान एवं अभिनय, आध्यात्मिकता, नकल-स्वांग प्रवृत्ति, निर्गुणी भक्ति के तत्त्व, पुरुषों द्वारा स्त्री पात्रों की भूमिका सहित अनेक रंग व्यवहार आदि माच में आज भी मौजूद हैं। डा. मधुर के अनुसार- ढारा-ढारी के खेलों से अभिनय, गर्बा-उत्सव से संगीत, तुर्राकलंगी से काव्य-गायन और स्वांग-नकल प्रदर्शनों से अभिनय, हास-परिहास, चुटीले व्यंग्य एवं जनमनोरंजन के तत्त्व जुटाकर माचकारों ने इस नई रंग शैली को पनपाया।

राजस्थान में प्रचलित ख्याल का प्रभाव भी माच के खेलों में दिखाई देता है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. रघुवीरसिंह ने ख्यालों को माचों का जनक कहा है। माच की शैली के आरम्भकर्ता गुरु गोपालजी को माना जाता है, जो मूलतः राजस्थान के रहने वाले थे और बाद में मालवा में बस गए थे। ऐसा माना जाता है कि गुरु गोपाल जी ने मालवा क्षेत्र में राजस्थान के ख्याल जैसा कोई नाट्य रूप न पाकर स्थानीय संगीत और लोककला रूपों के समावेश से माच की शुरूआत की, जो परम्परा से क्रमशः परिष्कृत, संरक्षित और संवर्धित होता गया।

माच शब्द का सम्बन्ध संस्कृत मूल मंच से है। इस मंच शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचलित परिवर्तित रूप मिलते हैं। उदाहणार्थ-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मंच के समानार्थी भाव बोध को ही व्यक्त करता है। माच गुरु सिद्धेश्वर सेन माच की व्युत्पत्ति के पीछे सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी ने सम्भवतः कृषि की रक्षा के लिए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, जिस पर चढ़कर स्त्री या पुरुष आवाज आदि के माध्यम से नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और फिर नाटक-प्रदर्शन के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी मचान की आकृति एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मंच का नाम माच दे दिया होगा। कालान्तर में यही नाम प्रचलित हो गया। वस्तुतः माच के मंच और मचान में पर्याप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अधिक ऊँचा बनाया जाता था कि उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन दिनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्य ही रहती है।

माच के आदि प्रवर्तक गुरु गोपाल जी के अलावा माच परम्परा को गुरु बालमुकुन्दजी, गुरु रामकिशनजी, गुरु भैरवलालजी, गुरु राधाकिशनजी, गुरु कालूरामजी, गुरु फकीरचन्दजी, गुरु शिवजीराम, गुरु चुन्नीलाल, श्री सिद्धेश्वर सेन, श्यामदास चक्रधारी आदि ने आगे बढ़ाया और अनेक खेलों का लेखन एवं प्रदर्शन किया। माच के विभिन्न गुरुओं के बीच नये-नये माच के निर्माण एवं प्रदर्शन की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। विभिन्न माच गुरुओं द्वारा मालवी में रचे गए लगभग सवा सौ अधिक माच के खेल मिलते हैं, जिन्हें डा. मधुर ने सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा है - धार्मिक और पौराणिक कथानक,  शौर्य कथाएँ, प्रेमाख्यान और सामाजिक कथानक।

इन सभी प्रकार के खेलों में जीवन की विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति के साथ ही कहीं मानव मन की सुकोमल भावनाओं के रागात्मक सन्दर्भों को व्यक्त किया गया है,तो कहीं साहसी और वीर चरित्रों को, कहीं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है,तो कहीं सामयिक समस्याओं से टकराने की कोशिश। विविधायामी जीवन सन्दर्भों की अभिव्यक्ति के साथ ही उच्चतम मूल्यों की सिद्धि माच की केन्द्रीय प्रवृत्ति रही है, जो कहीं पौराणिक तो कहीं ऐतिहासिक, कहीं लोक-प्रसिद्ध तो कहीं काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से मूर्त होती है।

भारत की समृद्ध नाट्य परम्परा की जीवंतता और निरंतरता को आधार देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान लोक-नाट्यों का ही रहा है। लोकमानस की अभिव्यंजना के लिए उपलब्ध विविध माध्यमों में से लोक-नाट्य ही अपनी तीव्र रसवत्ता और सहज सम्प्रेषणीयता के भाषागत अन्तर के बावजूद एक अन्तः सूत्र में जुड़े दिखाई देते है। लोकमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति इन सारे लोक-नाट्य रूपों को एकसूत्र में जोड़ती दिखाई देती है। यह स्वाभाविक उनकी जटिल बौद्धिकता से विहीन भावात्मकता से उपजती है, जो कथानक, संवाद, गीत-संगीत, नृत्य, प्रदर्शन-शैली, रंग-शिल्प, भाषा आदि सभी स्तरों पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से मालवा क्षेत्र का लोक-नाट्य रूप माच भारत के अन्य लोक नाट्यों रूपों से अलग नहीं है। उसमें भी वहीं लोकरंजता के अनुकूल संगीत, नृत्यमूलक अभिनय एवं प्रदर्शन के तत्त्व, धार्मिकता के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, लोककथामूलक और प्रेमाख्यानपरक कथानकों की बहुलता तथा शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसमूलक अतिरंजित भावप्रवणता और तल्लीनता मौजूद है, जो भारत के अन्य लोकनाट्य रूपों जैसे नौटंकी, ख्याल,भवई,तमाशा, करियाला आदि में मिलते हैं। वस्तुतः इन सभी की सौन्दर्य दृष्टि संस्कृत नाटकों की भांति रसमूलक ही है। इसी तरह इन लोकनाट्य रूपों में वैयक्तिक संघर्ष के स्थान पर व्यक्ति एवं समूह के अन्तः सम्बन्धों की पहचान तथा जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरकर एक तरह के संतुलन की दशा  में दर्शकों को ले जाने की प्रवृत्ति मौजूद है, जिसमें कहीं लोकमंगल की सिद्धि होती है तो कहीं कारुणिक अन्त के बावजूद लोकादर्श की स्थापना। माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी (1773-1842 ई.) से लेकर आज तक सृजनरत माचकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने माच के लगभग डेढ़ सौ खेलों का प्रणयन किया है। बीसवीं शती के शुरूआती दशकों में माच ही मालवा का प्रतिनिधि रंगमंच था जिसके प्रदर्शनों में रात-रात भर सैकड़ों दर्शकों की भीड़ जुटी रहती थी। यद्यपि पिछली शताब्दी के ढलते-ढलते माच की लोकप्रियता एवं प्रदर्शनों में कुछ कमी आई है फिर भी इसके संरक्षण  विस्तार और नवाचारी प्रयोगों द्वारा माच गुरुओं ने इसे आज जीवंत बनाए रखा है।


डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफेसर एवं  हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)


माच से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण वीडियो यूट्यूब चैनल पर देखें - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा













                                    









20161126

मध्यप्रदेश के पक्षी : एक विश्वकोशीय कार्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Birds of Madhya Pradesh: An Encyclopedic Work - Prof. Shailendra Kumar Sharma

मध्य प्रदेश के पक्षी : एक विश्वकोशीय कार्य - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा 
Birds of Madhya Pradesh: An Encyclopedic Work - Prof. Shailendra Kumar Sharma

विज्ञान ज्ञान का ही सुव्यवस्थित रूप है। यह मानव सभ्यता की अविराम यात्रा का आधार रहा है। न जाने किस सुदूर अतीत से होती आ रहीं वैज्ञानिक गवेषणाएँ हमारे वर्तमान और भावी जीवन की निर्धारक बनी हैं। अनेकानेक शाखा-प्रशाखाओं में विस्तृत विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को सुगम बनाने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इस क्षेत्र में होने वाले नित-नए आविष्कारों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब वैज्ञानिक साहित्य हिन्दी सहित सभी जनभाषाओं में सुलभ हो। विशेष तौर पर आम जीवन से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सूचनाओं को आम व्यक्ति की भाषा में उपलब्ध करवाना अनिवार्य है। तभी विज्ञान-संचार के लक्ष्य को साकार किया जा सकता है। वरिष्ठ प्राणी वैज्ञानिक डॉ जे पी एन पाठक का हाल ही में प्रकाशित ग्रन्थ ‘मध्यप्रदेश के पक्षी’ अपने अध्ययन क्षेत्र में विश्वकोशीय भूमिका के साथ अवतरित हुआ है। यह महाकाय और बहुरंगी ग्रन्थ डॉ. पाठक की वर्षों की शोध-साधना का साकार प्रतिबिम्ब है। जब विश्वभाषा के रूप में अपनी जगह बनाती हिंदी में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में स्तरीय ग्रंथों की कमी को लेकर चिंता के स्वर उभरते हों, तब डॉ पाठक का यह ग्रन्थ एक नई ज़मीन तैयार करता है।

डॉ पाठक ने सही अर्थों में मशहूर पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली के अभियान को आगे बढ़ाया है, जिनकी पुस्तक ‘बुक ऑफ़ इंडियन बर्ड्स’ 1941 ई. में प्रथम प्रकाशन से लेकर आज तक इस क्षेत्र में मील का पत्थर बनी हुई है। डॉ. पाठक से हिन्दी में मौलिक विज्ञान लेखन और अनुवाद को लेकर मेरा गहन विचार-मंथन होता आ रहा है। वे हिन्दी के बेहद सजग विज्ञान लेखक हैं और वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली से लंबे समय से मुठभेड़ करते आ रहे हैं। जब उन्होंने देखा कि हम पक्षियों के प्राकृतिक क्रियाकलापों को लेकर चर्चा तो बहुत करते हैं, किन्तु जब बात उन पर केन्द्रित किसी प्रामाणिक हिन्दी ग्रंथ की आती है, तो मौन रह जाना पड़ता है। डॉ. पाठक ने इस गहरे मौन को तोड़ने का साहस किया है। जो कार्य बड़े-बड़े संस्थान नहीं कर सकते, वह पक्षियों के अनूठे दीवाने डॉ. पाठक ने कर दिखाया है।

इस बृहद् ग्रंथ में मध्यप्रदेश के 338 प्रकार के पक्षियों की सचित्र-प्रामाणिक जानकारी दी गई है। इनमें स्थानीय और प्रवासी, उड़न और जलीय,बड़े और छोटे [पैसेराइन] – सभी प्रकार के पाखी हैं। डॉ. पाठक ने शुरुआत में पक्षियों की संरचना और लक्षण दिये हैं, जो पक्षियों के अभिज्ञान में सहायक हैं। साथ ही राष्ट्रीय पार्कों, पक्षियों की उत्पत्ति, उनके प्रवास सहित विभिन्न राज्यों के प्रतीक पक्षियों का विवरण दिया है। विश्वास किया जा सकता है कि यह ग्रन्थ पक्षी निहारकों और अध्यापकों के साथ ही विद्वानों और शोधकर्ताओं के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। इस पुस्तक के लिए फ़ोटोग्राफ्स डॉ. पाठक के सुशिष्य ललित चौधरी ने जुटाए हैं। ग्रन्थ के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए डॉ. पाठक के साथ मध्यप्रदेश राज्य जैवविविधता बोर्ड, भोपाल की जितनी प्रशंसा की जाए कम ही होगी।

कविवर भवानीप्रसाद मिश्र ने भारत के हृदय पटल पर स्थित सतपुड़ा के जंगल को कभी अपनी रम्य रचना में उकेरा था, यह ग्रंथ उसका रोचक साक्ष्य देता है।

लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
 लताओं के बने जंगल।

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ग्रंथ- मध्यप्रदेश के पक्षी
लेखक- डॉ. जे. पी. एन . पाठक
फोटोग्राफ्स- ललित चौधरी
प्रकाशन- मध्यप्रदेश राज्य जैवविविधता बोर्ड,भोपाल

वेबसाइट http://www.mpsbb.nic.in/
प्रथम संस्करण 2014 ई
आवरण- ‘दूधराज’ म प्र का राज्य पक्षी, सौजन्य- वन विभाग
पृष्ठ 372+40


प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी अध्ययनशाला
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

 

20161122

दुर्गादास राठौड़: स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का अमृत राग - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात।
- प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा

माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास।
मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।।
आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास।
सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।।

भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाटी सेंकता है। वे अपने युग में जीवन्त किंवदंती बन गए थे, आज भी उसी रूप में लोक कण्ठहार बने हुए हैं। 

दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंतसिंह के मंत्री आसकरण जी के पुत्र थे। उनका सम्बन्ध राठौड़ों की  करणोत शाखा से था। आसकरण मारवाड़  के शासक गजसिंह और उनके पुत्र जसवंतसिंह के प्रिय रहे और प्रधान पद तक पहुँचे। उनके तीन पुत्र थे- खेमकरण, जसकरण और दुर्गादास।  दुर्गादास की माता नेतकुंवर अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं। दुर्गादास का जन्म श्रावन शुक्ल चतुर्दशी विक्रम संवत् 1695 को सालवां कल्ला में और उनका पालन पोषण जोधपुर से दूर लुणावा नामक ग्राम में हुआ।


पिता आसकरण की भांति किशोर दुर्गादास में भी वीरता कूट- कूट कर भरी थी। सन् 1655 की घटना है, जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राजकीय राईका (ऊंटों का चरवाहा) लुणावा में आसकरण जी के खेतों में घुस गए। किशोर दुर्गादास के विरोध करने पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, वीर दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर त्वरित गति से उस राज राईका की गर्दन उड़ा दी। इस बात की सूचना महाराज जसवंत सिंह के पास पहुंची तो वे उस वीर को देखने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को दुर्गादास को लाने का आदेश दिया। दरबार में महाराज उस वीर की निर्भीकता देख अचंभित रह गए। दुर्गादास ने कहा कि मैंने अत्याचारी और दंभी राईका को मारा है, जो महाराज का भी सम्मान नहीं करता है और किसानों पर अत्याचार करता है। आसकरण ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भयता से स्वीकारते देखा तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुआ कि यह आसकरण का पुत्र है। घटना की वास्तविकता को जानकर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और तलवार भेंट कर अपनी सेना में शामिल कर लिया।

दुर्गादास ने सन् 1658, 16 अप्रैल को मालवा के धरमाट के युद्ध में महाराजा के साथ भाग लिया, जो दारा शिकोह और औरंगजेब के मध्य लड़ा गया था। जसवंतसिंह बादशाह शाहजहाँ के कृपापात्र होने के कारण दारा की ओर से लड़ा। इस युद्ध में दुर्गादास ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया था, उन्हें घायल अवस्था में जोधपुर पहुंचाया गया। दारा को क्रमशः धरमाट, सामूगढ़ और दोराई में पराजित कर औरंगजेब ने पिता शाहजहाँ की सत्ता हथिया ली। कालांतर में महाराजा जसवंत सिंह दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब से मैत्री स्थापित हुई और वे प्रधान सेनापति बने। फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी। वह हमेशा जोधपुर को हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था। सन् 1659 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ हुए विद्रोह को दबाने के लिए जसवंत सिंह को भेजा गया। दो वर्ष तक विद्रोह को दबाने के बाद जसवंत सिंह काबुल (अफ़गानिस्तान) में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही 1678 ई. में वीर गति को प्राप्त हुए। उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था। औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुए मारवाड़ में अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न किया। औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा। देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया। लोग भय और आतंक के कारण शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे। उन्होंने जज़िया कर भी लगा दिया। राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था। ऐसे संकटकाल में कुँवर अजीतसिंह के संरक्षक बने। दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी शासकअजीतसिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया। दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए। औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा। यही नहीं उसने दुर्गादास और अजीतसिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी।इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीतसिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे। दुर्गादास जहां राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी। कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी। ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बर्छी कराल-काल की तरह रणांगण में नरमुंडों का ढेर लगा देती थी।

मारवाड़ के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए जो मुग़ल रणनीति तैयार हुई थी, उसे साकार होना दुर्गादास राठौड़ जैसे महान् स्वातन्त्र्य वीर, योद्धा और मंत्री के रहते कैसे सम्भव था? बहुत रक्तपात के बाद भी मुग़ल सेना सफल न हो सकी। अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर औरंगजेब ने अजीतसिंह की हत्या की ठान ली, औरंगजेब के षड्यंत्र को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और अपने साथियों की मदद से स्वांग रचाकर अजीतसिंह को दिल्ली से निकाल लाये। वे अजीतसिंह के पालन पोषण की समुचित व्यवस्था के साथ जोधपुर राज्य के लिए होने वाले औरंगजेब द्वारा जारी षड्यंत्रों के खिलाफ निरंतर लोहा लेते रहे। अजीतसिंह के बड़े होने के बाद राजगद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता और स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी, औरंगजेब की ताकत और प्रलोभन दुर्गादास को डिगा न सके। जोधपुर की स्वतंत्रता के लिए दुर्गादास ने लगभग पच्चीस सालों तक संघर्ष किया, किंतु अपने मार्ग से च्युत नहीं हुए। उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को न केवल चुनौती दी, कई बार औरंग़ज़ब को युद्ध में पीछे हटाकर संधि के लिए मजबूर भी किया। उन्होंने छापामार युद्ध भी लड़े और निरन्तर मारवाड़ के कल्याण के लिए शक्ति संचय करते रहे। मारवाड़ के मुक्ति संग्राम के वे सबसे बड़े नायक थे। उनके पराक्रम से औरंगजेब बेनूर हो जाता था और दिल्ली भी भयाक्रांत हो जाती थी, आज भी लोक स्मृति में ये प्रसंग सप्राण बने हुए हैं।

दुरगो आसकरण रो, नित उठ बागा जाये
अमल औरंग रो उतारे, दिल्ली धड़का खाए।
दिल्ली दलदल मेंह, आडियो रथ अगजीत रौ।
पाछोह इक पल मेंह, कमधज दुर्गे काढियो।।
संतति साहरी, गत सांहरी ले गयो।
रंग दंहूँ राहांरी, बात उबारी आसवात।।
रण दुर्गो रुटेह, त्रिजडअ सिर टूटे तुरत।
लाठी घर लूटेह, आलम रो उठै अमल।।
ओरंग इक दिन आखियो, तने बालोह कांइ दुरगेश।
खग वालिह वालोह प्रभु, वालोह मरुधर देश।।

उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है,  जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियां सेंकते हुए दिखाया गया है। डा. नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य दुर्गादास में इस घटना का चित्रण किया है,

तखत औरंग झल आप सिकै, सूर आसौत सिर सूर सिकै, 
चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां,  सैला असवारां अन्न सिकै।।

अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है। आसकरण के शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है अर्थात् तप रहा है। घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है। थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है। न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की। घोड़े पर चढ़े हुए ही भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं।

दुर्गादास राठौड़ गहरे साहित्यानुरागी ही नहीं थे,उन्होंने स्वयं डिंगल काव्य रचनाएँ भी की थीं। उन्होंने कई कवियों को आश्रय भी दिया। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा। ऐसी मान्यता है कि कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ महाराज अजीतसिंह के कान भर दिए थे, जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे,  इसे देखकर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना उचित समझा और वे मालवा चले गए, वहीं  उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे।दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे, परंतु उनके उज्ज्वल चरित्र की महिमा इतनी ऊंची है किवे कितने ही भूपालों से ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया:

धन धरती मरुधरा धन पीली परभात। 
जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात।।

अर्थात् दुर्गादास तुम्हारे जन्म से मरुधरा धन्य हो गई। वह प्रभात धन्य हो गया और वह मांझल रात भी धन्य हो गई जिस रात्रि में तुमने जन्म लिया।

वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 को पुण्य नगरी उज्जैन में हुआ और अन्तिम संस्कार उनकी इच्छानुसार उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर किया गया था, जहाँ स्थापित उनकी मनोहारी छत्रीआज भी भारत के इस अमृत पुत्र की कीर्ति का जीवन्त प्रतीक बनी हुई है। इस स्मारक की वास्तुकला राजपूत शैली में है तथा एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। लाल पत्थर से निर्मित इस छत्री पर दशावतार, मयूर आदि को अत्यंत कलात्मकता के साथ उकेरा गया है। आसपास का परिदृश्य प्राकृतिक  सुषमा से भरपूर है, इसलिए यह स्मारक एक छोटे से रत्न की तरह चमकता है। दुर्गादास की इस पावन देवली पर दुर्गादास जयन्ती आयोजन के साथ ही समय समय अनेक देशप्रेमी मत्था टेकने के लिए आते हैं।

वरिष्ठ लोक मनीषी डॉ पूरन सहगल ने मालव भूमि पर बसे लोक समुदाय के मध्य आज भी जीवित दुर्गादास राठौड़ से जुड़े वाचिक साहित्य के संकलन - सम्पादन का संकल्प लिया, जो पूर्ण हो गया है। इस संकलन में संचित दुर्गादास जी विषयक सामग्री कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है, वहीं लोक के कोण से उनकी छबि को नए आलोक में देखने का अवसर प्रदान करती है। वीर दुर्गादास राठौड़ के अवदान को लेकर पूर्व में अनेक प्रकाशन अस्तित्व में आए हैं, यथा: जगदीशसिंह गेहलोत कृत इतिहास ग्रंथ वीर दुर्गादास राठौड़, इतिहासकार डॉ रघुवीरसिंह कृत इतिहास ग्रंथ राठौड़ दुर्गादास,सुखवीरसिंह गेहलोत कृत इतिहास ग्रंथ स्वतन्त्रता प्रेमी दुर्गादास राठौड़, विट्ठलदास धनजी भाई पटेल कृत गुजराती उपन्यास वीर दुर्गादास अथवा मारू सरदारो, प्रेमचंद कृत वीर दुर्गादास, द्विजेन्द्रलाल राय कृत बांग्ला नाटक दुर्गादास (हिन्दी अनुवाद रूपनारायण पांडेय), हरिकृष्ण प्रेमी कृत नाटक आन का मान, प्रहलादनारायण मिश्र की पुस्तकराठौड़ वीर दुर्गादास, नारायणसिंह शिवाकर की  राजस्थानी में निबद्ध वीर दुर्गादास सतसई आदि। इनके अलावा रामरतन हालदार, पं विश्वेश्वरनाथ रेउ,डॉ रामसिंह सोलंकी आदि ने भी उनके चरित्र को ऐतिहासिक दृष्टि से आकार दिया है। डॉ पूरन सहगल का यह प्रयास इन सबसे अलहदा है, जहां मालवा अंचल की वाचिक परंपरा में मौजूद इस महान योद्धा की पावन गाथा और अन्य नवीन सामग्री सर्वप्रथम प्रकाश में आ गई है।  

इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने दुर्गादास जी के अवदान को लेकर ठीक ही कहा है, "उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ़ हृदय को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमें राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी।" दुर्गादास ने अपूर्व पराक्रम, बलिदानी भावना, त्यागशीलता, स्वदेशप्रेम और स्वाधीनता का न केवल प्रादर्श रचा, वरन् उसे जीवन और कार्यों से साक्षात् भी कराया। उनके जैसे सेनानी के अभाव में न भारत की संस्कृति और सभ्यता रक्षा संभव थी और न ही आजाद भारत की संकल्पना संभव। कविवर केसरीसिंह बारहठ की यह प्रार्थना निरन्तर साकार होती रहे, तब निश्चय ही राष्ट्र को कोई भी शक्ति परतन्त्रता की बेड़ियों में कदापि जकड़ा न सकेगी :
देविन को ऐसी शक्ति दीजिये कृपानिधान।
दुर्गादास जैसे माता पूत जनिबो करै।।
                                


प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010






20160925

महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि: ग्रन्थ समीक्षा

भारतीय ज्ञान परम्परा के औदात्य को समर्पित सार्थक उपक्रम / ग्रन्थ समीक्षा
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा  Shailendrakumar Sharma
विश्व सभ्यता के अनन्य केंद्र रूप में उज्जयिनी का नाम सुविख्यात है। शास्त्र और विद्या की विलक्षण रंग-स्थली रही है यह नगरी। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जैन न जाने किस सुदूर अतीत से निरंतर निरत  है। अपने समूचे अर्थ में यह पुरातन नगरी भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। ऐसी विलक्षण नगरी के विख्यात ज्योतिर्विद् पं आनन्दशंकर व्यास के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेश दीक्षित, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित एवं डॉ जगन्नाथ दुबे के सुधी संयोजन एवम् सम्पादन में सद्यः प्रकाशित ग्रन्थ महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में आया है।
शिक्षा, संस्कृति जैसे महनीय कार्य से जुड़े महत्वपूर्ण विचारों, परम्पराओं और लेखन को समर्थ मंच और दिशा देने की दृष्टि से पण्डितप्रवर आनन्दशंकर व्यास विविधायामी गतिविधियों के साथ विगत अनेक वर्षों से सन्नद्ध हैं। यह विशेष प्रसन्नता का विषय है कि उनके इस ग्रन्थ का बीजांकुरण और प्रकाशन सम्पूर्ण भारत को संस्कृति, सभ्यता और विविध ज्ञानानुशासनों के प्रति गहरे दायित्वबोध से जोड़ने वाली पुरातन नगरी उज्जैन से ही हुआ है, जो महर्षि सान्दीपनि और श्रीकृष्ण के आदर्श गुरु - शिष्य सम्बन्ध की साक्षी है।
पं व्यास के परिवार द्वारा नव संवत्सरारम्भ, पंचांग प्रकाशन, गुरु पूर्णिमा उत्सव सहित विभिन्न प्रकल्प अनेक दशकों से निरंतर जारी हैं। यह परिवार संस्कृतिकर्म में नवोन्मेषी सक्रियता से अपनी अलग पहचान रखता है। पं व्यास द्वारा महर्षि सान्दीपनि एवम् श्रीकृष्ण के चरित को केंद्र में रखते हुए गुरु शिष्य परम्परा के प्रति सम्मान के साथ ही भारतीय विद्या की महनीयता को रेखांकित करने की दृष्टि से किए जा रहे प्रयत्नों की शृंखला में यह प्रकाशन अभिनव उपलब्धि बना है।
इस बृहद् ग्रन्थ का प्रथम खण्ड सान्दीपनि एवम् कृष्ण के बहाने भारतीय शिक्षा परम्परा के प्रादर्शों को रूपांकित करता है। मनुष्य की अविराम यात्रा में ज्ञान की महिमामयी उपस्थिति रही है। इसी दृष्टि से ज्ञान की अनादि और अखंडित परंपरा को समर्पित विलक्षण पर्व गुरु पूर्णिमा का भारतीय परम्परा में विशिष्ट स्थान रहा है। यह गुरु के व्याज से ज्ञान की उपासना का पर्व है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा तक आते-आते भारतभूमि न्यूनाधिक रूप से शुरूआती बारिश से भीग जाती है। ऐसे अमल-मनोरम मौसम में गुरु की भक्ति का पर्व गुरु पूर्णिमा आता है, जिस दिन गुरु पूजा का विधान है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता और फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति,  भक्ति और योग-शक्ति प्राप्त करने की सामर्थ्य मिलती है। ग्रन्थ के पहले खण्ड में गुरु तत्व महिमा,  गुरु पूर्णिमा और गुरु शिष्य परम्परा पर महत्वपूर्ण सामग्री संजोई गई है। भारतीय परंपरा में गुरु की महिमाशाली स्थिति सुस्थापित तथ्य है,जिसे इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर रेखांकित किया गया है। गुरु शब्द के व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ को लेकर शास्त्रों में पर्याप्त विचार हुआ है। गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी।  बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।  गुरु को परिभाषित किया गया है- ‘गृणाति उपदिशति वेदशास्त्राणि यद्वा गीर्यते स्तूयते शिष्यवर्गे।‘ अर्थात गुरु वह है जो वेदशास्त्रों का गृणन या उपदेश करता है तथा जो शिष्यवर्ग द्वारा स्तुत होता है। मनुष्य जन्म से अनगढ़ होता है, जो उसे सुसंस्कृत बनाता है, वह गुरु है। प्रथम गुरु माता-पिता हैं तो गुरु स्वयं दूसरे माता-पिता की भूमिका निभाते हैं। यास्क ने निरुक्त में बड़ी सुंदर उपमा दी है- सत्य की कुरेदनी से कानों को कुरेदकर जो अमृत भरे, वही गुरु है। गुरु की भूमिका कुम्हार की तरह है, जो अंदर से सहाय देता है और बाहर से चोट मार कर हमारी खोट को निकलता है, कबीर वचन है-
गुरु कुम्हार सिख घट्ट है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहाय दे, बाहर मारे चोट ।।        
ग्रन्थ के इसी भाग में सान्दीपनि एवम् कृष्ण के चरित, शिक्षा प्रणाली, विविधविध कलारूप, काल गणना परम्परा, पुरातन शिक्षा सिद्धांत, आश्रम आदि के साथ ही उज्जयिनी की ज्ञान परम्परा और यहाँ के विद्यारत्न, ज्योतिर्लिंग श्री महाकालेश्वर की महिमा, स्तोत्र आदि का समावेश किया गया है। वेदभूमि से लेकर मोक्षभूमि तक उज्जैन ने सुदीर्घ यात्रा तय की है, जिसका महिमांकन इस ग्रन्थ में अनेक मनीषियों ने किया है। इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति, ज्ञान विज्ञान, साहित्य आदि की समृद्धता में इस परिक्षेत्र के योगदान की चर्चा इस खण्ड की उपलब्धि बनी है।
द्वितीय खण्ड शिक्षा पर केंद्रित है। इस खण्ड में प्राचीन एवम् अर्वाचीन शिक्षा पद्धति सहित विद्यार्जन के विविध पहलुओं पर स्तरीय आलेखों का संचय किया गया है। ग्रन्थ में अनेक स्वनामधन्य विद्वानों के आलेखों को स्थान मिला  है, वहीं कुछ धरोहर लेख भी समाहित किए गए हैं। स्वामी करपात्री जी महाराज, पं संकर्षण व्यास, स्वामी महेश्वरानंद सरस्वती, पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, आचार्य श्रीनिवास रथ, डॉ ब्रजबिहारी निगम, रोचक घिमिरे व्यास, प्रो रहसबिहारी निगम, डॉ श्यामसुंदर निगम,  देवर्षि कलानाथ शास्त्री, पं आनन्दशंकर व्यास, डॉ रुद्रदेव त्रिपाठी, डॉ शिवनन्दन कपूर, डॉ पुरु दाधीच, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ दयानन्द भार्गव, डॉ घनश्याम पाण्डेय, डॉ केदारनारायण जोशी,  डॉ केदारनाथ शुक्ल,  डॉ विन्ध्येश्वरीप्रसाद मिश्र, डॉ बालकृष्ण शर्मा, डॉ श्रीकृष्ण मुसलगाँवकर, स्वामी भक्तिचारु, डॉ जगन्नाथ दुबे, डॉ श्रीकृष्ण जुगनू, डॉ शिव चौरसिया प्रभृति विद्वानों के आलेख इस ग्रंथ की समृद्धि के सूचक हैं। लगभग सवा सौ आलेखों का संचयन और सम्पादन निश्चय ही श्रमसाध्य कार्य था। इसके लिए संपादकों और लेखकों की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी।
पंचांग प्रकाशन विभाग, बड़ा गणेश, उज्जैन से प्रकाशित इस ग्रन्थ में जहां भारतीय ज्ञान परम्परा से जुड़े अनेक नवीन तथ्य और विचार उद्घाटित हुए हैं, वहीं कई पूर्वोपलब्ध तथ्यों की अभिनव पहचान और पड़ताल भी हुई है। पं व्यास ने अपने आद्य पुरुष महर्षि सांदीपनि की स्मृति को प्रणामांजलि अर्पित करने के लिए लगभग डेढ़ दशक पूर्व इस ग्रंथ के प्रकाशन का संकल्प लिया था, जो बड़े ही सुंदर रूप में साकार हो गया है। वस्तुतः इस प्रकार के महनीय प्रयत्नों से ही उज्जयिनी का गौरववर्धन होता है और वह अपनी प्रतिकल्पा रूप को साकार करती है।

ग्रन्थ : महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि
सम्पादक: पं आनन्दशंकर व्यास, रमेश दीक्षित, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ जगन्नाथ दुबे
प्रकाशक: पंचांग प्रकाशन विभाग, बड़ा गणेश, उज्जैन
प्रथम संस्करण विक्रम संवत 2073
पृष्ठ 448 एवम्  बहुरंगी प्लेट्स 26

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा                                      
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010
मोबा :098260-47765
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com



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