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20200529

सन्त कबीर : आज के संदर्भ में - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sant Kabir : In Today's Context

आज क्यों ज्यादा याद आते हैं कबीर

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

मानवीय जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है- चहुँ ओर व्यापती असहजता। उसी के चलते कई तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं का प्रसार होता आ रहा है। भारत की अछोर कवि माला के अद्वितीय कवि कबीर इस संकट से भली - भांति परिचित थे, इसीलिए वे व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन में सहज होने की पुकार लगाते हैं। आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः का वैदिक सूक्त कबीर के यहां चरितार्थ हुआ है। वे भी ऋषियों की भाँति इस बात का संदेश देते हैं कि हमारे लिए सब ओर से कल्याणकारी विचार आएं।

मध्यकालीन अराजकता और सामंती परिवेश में असहजता का कोई प्रतिपक्ष रचता है तो वह कबीर ही है। कबीर का व्यक्तित्व और कर्तृत्व अत्यंत सहज है, किन्तु जब वे देखते हैं कि संसारी जीव सहजता के मार्ग से बहुत दूर चले आए हैं, तब वे क्रांति चेतना से संपृक्त हो आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं। आज के असहजता से भरे विश्व में उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ती जा रही है। वे सहजता के साथ सत्य और सदाचरण पर विशेष बल देते हैं : 

सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहावै सोइ॥  

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय सांच है, ताके हिरदय आप।।


भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति का बहुआयामी विस्तार भक्ति काल में हुआ, जो अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। देश के विविध क्षेत्रों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश भक्त कवि पहले की भक्तिपरक गीति परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी। 

देशव्यापी भक्ति आंदोलन और भक्ति - दर्शन सर्वसमावेशी है। इसने 'सर्वे प्रपत्ति अधिकारिणः' के सूत्र को मैदानी तौर पर साकार करने में महती भूमिका निभाई है। सदियों से सामाजिक जकड़न, असमानता और पुरोहितवाद से मुक्ति की राह खोली। देश के सभी भागों के भक्तगण विविध वर्ग और जातियों से आए थे, किन्तु वे सभी एक सूत्र में बंधे थे और समूचे समाज को इसी का सन्देश देते रहे। फिर उनके लिए मन ही तीर्थ था और मन ही ईश्वर का वास स्थान।

मध्यकाल में दक्षिण भारत के आलवार संतों ने जिस भक्ति आंदोलन का प्रवर्तन किया था, उसके स्वर से स्वर मिलते हुए भक्तों और संतों ने भारत के सुदूर अंचलों तक विस्तार देने में महती भूमिका निभाई। दक्षिण से उत्तर भारत की ओर प्रवाहित भक्ति आंदोलन ने शेष भारत के विविध अंचलों पर गहरा प्रभाव डाला। यह प्रभाव भक्ति की लोक-व्याप्ति, सहज जीवन-दर्शन, सामाजिक समरसता के प्रसार, जनभाषाओं के विस्तार जैसे कई स्तरों पर दिखाई देता है। देश के विभिन्न स्थानों पर हुए भक्तों की महिमा की अनुगूँज उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सुनाई देती है। यहाँ तक कि उनके अनेक समकालीन और परवर्ती भक्तों ने ऐसे भक्तों को भक्ति के प्रादर्श के रूप में महिमान्वित किया। इन लोगों ने क्षेत्र, भाषा और वर्ग की दीवारों को समाप्त करने में अविस्मरणीय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र के अनेक भक्त-कवियों ने न केवल मराठी में भक्तिपरक काव्य की रचना की, हिंदी साहित्य को भी अपनी भक्ति-रचनाओं से समृद्ध किया। नामदेव तो एक तरह से उत्तरी भारत की संत-परम्परा के आदिकवि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र से चलकर सम्पूर्ण देश की यात्रा की और भक्ति का पथ प्रशस्त किया। इस परम्परा को स्वामी रामानन्द, कबीर, नानक, रैदास, सेन, पीपा, मीरा आदि ने आगे बढ़ाया। स्वामी रामानन्द के द्वादश भागवतों में प्रमुख- सन्त कबीर, सन्त रैदास, सन्त पीपाजी, सन्त सेनजी आदि गुरुभाई थे, जिनका दीर्घावधि तक साथ रहा। वे भी नामदेव की महिमा को मुक्त कंठ से गाते हैं। स्वयं सन्त कबीर वर्णन करते हैं:

सन्तन के सब भाई हरजी
जाती बरन कुल जानत नाहीं लोग के चतुराई
शबरी जात भिलीनी होती बेर तोर के लाई।
प्रीती जान वांका फल खात तीनरू लोक बढ़ाई।।
करमा कौन आचरण किनी हरि सो प्रीती लगाई।
छप्पन भोग की आरोगे पहिले खिचरी खाई।।
नामा पीपा और रोहिदास उन्होंने प्रीती लगाई।
सेन भक्त को संशय मेट्यो, आप भये हरि नाई।
 सहस्र अठासी ऋषि मुनि होत, तबहु न संख बाजे। 
 कहत कबीर सुपचके आये संख्या भगत होय गाते॥  

भक्तिकाल भारत के अंतर - ब्राह्य पुनर्जागरण का काल है, जहाँ एक साथ समूचे देश में वर्ग, सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र की हदबंदियों को तोड़कर पूरे समाज को समरस बनाने का महत् कार्य भक्तों-संतों ने किया था।  भक्ति की लोक-गंगा को विशिष्ट गति और लय से बाँधते हुए उसका पाट चौड़ा करने का कार्य जिन रचनाकारों ने किया है, उनमें महाराष्ट्र सहित अनेक क्षेत्रों के भक्तों-संतों का अनुपम स्थान है। भक्ति कभी साधन रही है, किन्तु संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, कबीर, रैदास, गुरुनानक देव, रामदास, एकनाथ, तुकाराम, तुलसी, मीरा आदि के लिए यह सिद्धि का पर्याय रही है। वस्तुतः पंचम पुरुषार्थ के रूप में महिमान्वित भक्ति के सामने बड़े-बड़े दार्शनिक मतवाद विवश हो जाते हैं। 

नाभादास ने अपने भक्तमाल के दो छप्पयों में कबीर के विषय में महत्त्वपूर्ण संकेत किए हैं। वे रामानन्द के जग मंगलकारी शिष्यों में कबीर की परिगणना कुछ इस तरह करते हैं:
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियौ।
अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि।
पीपा भामानन्द रैदास धना सेन सुरसरि की धरहरि।।
औरों शिष्य प्रशिष्य एक तैं एक उजागर।
जग मंगल आधार भक्ति दशधा के आगर।।
बहुत काल वपु धारिकै प्रणत जनत को पार दियौ। श्री रामानन्द रघुनाथ . . .  



कबीर के साहित्य में उनके अपने समय की ही नहीं, काल प्रवाह में उभरती अनेक विसंगतियों से मुकाबले का रास्ता साफ नजर आता है।  इसीलिए वे जितने अपने समय में प्रासंगिक थे, उससे कम आज नहीं होंगे। कबीर की पीड़ा में समूचे समाज की पीड़ा समाहित है, जिसके बिना कोई भी कवि बड़ा कवि नहीं बन सकता है:

सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।। 

लोक की पीड़ा से त्रस्त कबीर ऐसे जीवन मूल्यों की तलाश का प्रयास करते हैं, जिनके द्वारा आदमी-आदमी को विभाजित करने वाली दीवारों को ध्वस्त किया जा सके। मानवनिर्मित वर्ण, जाति, धर्म, रंग, नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े हुई मानवीय एकता का पुनर्वास हो जा सके। प्रेम, सत्य, अहिंसा, विनय, करुणा, कृतज्ञता, समर्पण, आत्मगौरव जैसे उदात्त मूल्यों की पुनर्स्थापना हो, जिनकी आवश्यकता प्रत्येक देश और काल के समाज को बनी रहेगी। कबीर की दृष्टि में प्रेम की पीड़ा में ही सभी प्रकार के विलगाव और विभेद की औषधि है। विश्वव्यापी हिंसा, परस्पर भेद, अशांति, युद्ध के बीच कबीर इसीलिए बार बार याद आते हैं। 
कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥






दृष्टि से ही सृष्टि बनती है, सृष्टि से दृष्टि नहीं बनती। कबीर की कविता इस बात का उदाहरण है। वैसे तो सामान्य परिस्थितियों में ही कबीर याद आते हैं, लेकिन विभीषिका के दौर में वे और अधिक याद आते हैं। वे लगातार ऐसे मूल्यों की खोज करते हैं जो अमानवीयता,  असमानता और विभेद को नष्ट करें। जीवन दृष्टि के विकास में किसी कवि या संत का क्या महत्त्व होता है, यह कबीर के नजदीक आने से स्पष्ट होता है।

कबीर एक ओर विसंगतियों से भरे समाज के आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं, तो दूसरी ओर उसी समाज के प्रति स्नेह के रहते उसे नए रूप में ढालने का उपक्रम भी करते हैं। इस दृष्टि से कबीर के प्रतिपाद्य को दो भागों में देखा जा सकता है, पहला रचनात्मक और दूसरा आलोचनात्मक। रचनात्मक हिस्से में वे नीतिज्ञ हैं। इस रूप में वे मानव मात्र को सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, संतोष, उदारता जैसे गुणों को अंगीकार करने का मार्ग सुझाते हैं। आलोचनात्मक हिस्से में वे समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड, जातिप्रथा, मिथ्याडंबर, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का खंडन करते हैं। उन्होंने मानवीय सभ्यता से जुड़े प्रायः सभी क्षेत्रों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी बात निर्भीकता से कही। हिंदुओं और मुसलमानों को उनके पाखण्ड के लिए फटकार लगाई। साथ ही उन्हें सच्चे मानव धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे समस्त प्रकार की भ्रांतियों को निस्तेज करते हैं-

सेवैं सालिगराँम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़े काला कापड़ा, नाँव धरावैं सेत॥

जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेविया, यों जग चल्या निरास॥

तीरथ त सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि॥

कबीर दुनियाँ देहुरै, सीस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तूँ ताही सौ ल्यौ लाइ॥

भारतीय लोकतंत्र की स्थापना में कबीर प्रतिबिंबित हैं। भारतीय संविधान में कबीर सहित भारतीय मध्यकालीन संतों की आत्मा बसती है। हमारा संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधारों पर टिका हुआ है। यह तीनों परस्पर पूरक है, अंतरावलम्बी हैं। इनमें से कोई एक भी कमजोर होगा तो शेष दोनों भी कमजोर हो जाएंगे। पहले कबीर ने इन्हें आगे बढ़ाया, फिर महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर इन्हें आगे बढ़ाते हैं। कबीर का संघर्ष व्यर्थ नहीं गया है, उनके अपने समय में और परवर्ती समय पर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा है। वे आज ज्यादा याद आते हैं।

(यह आलेख भारतीय विचार मंच नागपुर एवं अक्षर वार्ता अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका द्वारा आयोजित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रस्तुत प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा के व्याख्यान पर आधारित है।)

20200525

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Book Review by Shailendra Kumar Sharma

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sanskrit Natya – Mimansa – Padmashri Dr. Keshavrao Musalgaonkar | Book Review by Shailendrakumar Sharma  

नाट्य के विविध आयामों की मीमांसा का सार्थक उद्यम :

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विश्व वाङ्मय और कला परम्पराओं को भारत का अमूल्य योगदान है। यह ग्रंथ केवल नाट्य पर ही केंद्रित नहीं है, वरन समस्त कलाओं, यथा नृत्य, संगीत, शिल्प, विविधविध ललित कलाओं के लिए मूलाधार है। भरतमुनि स्वयं ग्रंथारम्भ में इस बात की ओर संकेत करते हैं :
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृष्यते॥ (नाट्यशास्त्र, 1-116)
अर्थात् कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग, कोई कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में दिखाई न देता हो।
  
नाट्यशास्त्र से प्रसूत ज्ञानधारा को आत्मसात करते हुए संस्कृत नाट्य के विविध अंगों के मंथन का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है, पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगांवकर द्वारा प्रणीत बृहद् ग्रन्थ  - संस्कृत नाट्य मीमांसा। इस ग्रंथ में लेखक ने एक मीमांसक की दृष्टि से भारतीय नाट्यशास्त्र की मूलभूत विशेषताओं को आकलित और व्याख्यायित करने का सार्थक उपक्रम किया है।
पुस्तक के लेखक पं केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर भारतीय विद्या के विशिष्ट समाराधक के रूप में जाने जाते हैं। उनके इस ग्रंथ का प्रधान उद्देश्य है कि भारतीय नाट्य कला के मूल तत्त्व पाठकों के समक्ष उभरकर आ सकें। इस दृष्टि से उन्होंने पाश्चात्य नाट्य कला के साथ भारतीय नाट्य कला के साम्य एवं वैषम्य को प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया है। ग्रंथ का शीर्षक साभिप्राय है। मीमांसा का तात्पर्य है-  पूजितविचारवचनो हि मीमांसा शब्द: अर्थात् वेदार्थ विचार। भारतीय दर्शन परंपरा में मीमांसा दर्शन का महत्त्व वेदों के अध्ययन के उपरांत निश्चायक अर्थ की प्राप्ति कराने में है। इस दृष्टि से संस्कृत नाट्य मीमांसा ग्रंथ भरत द्वारा प्रस्तुत पंचम वेद नाट्यशास्त्र का विचार प्रस्तुत करने में सन्नद्ध है। लेखक की दृष्टि में,  “प्रत्येक दर्शन परम प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिए एक विशिष्ट मार्ग का अवलंबन करता है।  ‘दर्शन’ शब्द में जो दृश् धातु है, उसका अर्थ ज्ञान सामान्य होता है।  ‘दृश्यते  अनुसंधीयते  पदार्थानां  मूलतत्त्वमनेन इति दर्शनम्  अर्थात् पदार्थों के मूल तत्त्व का अनुसंधान जिसके द्वारा किया जाए, वही (मीमांसा) दर्शन है। संस्कृत नाट्य मीमांसा से भी मेरा यही तात्पर्य है। उसी दार्शनिक प्रक्रिया का अवलंबन कर भारतीय नाट्य का मूल तत्त्व - परम तत्त्व को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।“ इस उद्देश्य की सिद्धि में ग्रंथ समर्थ रहा है।



ग्रन्थ का प्रथम अध्याय विषय प्रवेश के रूप में है। लेखक ने मनोयोगपूर्वक नाट्य कला और नाट्यशास्त्र, संस्कृति एवं कला का स्वरूप - विमर्श किया है।  ग्रंथकार की दृष्टि में नाट्य - क्रिया एक कला है और नाट्यशास्त्र एक कला का शास्त्र है। कला नाट्याभिनय को सर्वांग सुंदर बनाने में सहयोग देती है। वस्तुतः नाट्यकला रस के उन्मीलन की प्रधान सहायिका है। इसके अभाव में नाट्य अथवा काव्य अपनी यथार्थता सिद्ध नहीं कर सकता। कला शून्य अभिनय में शब्दांकित नाट्य वस्तु केवल वार्ता मात्र रह जाती है। या यों कहिए कि रसोद्रेकशक्ति के अभाव में वह अकाव्य होने से त्याज्य होती है। इसीलिए आचार्य भामह ने ऐसी वार्ता मात्र को  अकाव्य माना है।“ लेखक की दृष्टि में नाटक में अभिनय की प्राणरूपा कला का वही स्थान है जो काव्य के लालित्य में कैशिकी का है।

लेखक ने संस्कृति और कला के विषय में पर्याप्त मीमांसा की है। वे शैवागमों के आलोक में कला को महामाया के चिन्मय विलास और उसकी सम्मूर्तन शक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं। कला शब्द की उत्पत्ति कल् धातु से मानी गई है, जिसका तात्पर्य है सुंदर-मधुर-कोमल या सुख प्रदान करने वाला। कं आनंदं लाति इति कला - यह अर्थ भी देखने में आता है। लेखक के अनुसार भरत के पूर्व कला शब्द का अर्थ ललित कला में प्रयुक्त नहीं हुआ है। कला के वर्तमान अर्थ का द्योतक शब्द भरत से पूर्व शिल्प शब्द था। लेखक ने भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि से कला की परिभाषाओं पर पर्याप्त विचार किया है। साथ ही कला का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। लेखक की दृष्टि में कला का आधारभूत सिद्धांत है - सामंजस्य -अनेकता में एकता की स्थापना। अन्तर्वृत्तियों का समन्वय करने के कारण यह प्रक्रिया अपने आप में सुखद होती है - इसे ही कला - सृजन या सौंदर्य की सृष्टि का आनंद कहते हैं।

ग्रंथकार ने दूसरे अध्याय में दृश्य काव्य के महत्त्व, संस्कृत नाटकों की सुदीर्घ परंपरा, नाट्य उद्गम, नाट्यवेद एवं किंवदंतियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। तृतीय अध्याय भरतमुनि और उनके नाट्यशास्त्र पर केंद्रित है। इस अध्याय में लेखक ने नाट्यशास्त्र के रचनाकाल, नाट्य वेद के अंग, भरत के पूर्ववर्ती आचार्यों और उत्तरवर्ती नाट्य ग्रंथों की चर्चा की है। यह अध्याय नाट्यशास्त्र की अंतर्वस्तु पर मंथन करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।  लेखक ने भारतीय आचार्यों की दृष्टि से अनुकरण सिद्धांत, अभिनय मीमांसा, प्रेक्षागृह, मत्तवारणी, जर्जर, नाट्यशास्त्र के लक्ष्यीभूत प्रेक्षक, नाटक एवं लोक जीवन आदि का गम्भीरता से निरूपण किया है। इस अध्याय में नाट्यधर्मी और लोकधर्मी रूढ़ियाँ एवं उनके अंतर्संबंध, नाट्य के विविध अलंकार  एवं उद्देश्यों की पड़ताल की गई है। 

ग्रंथ का एक अध्याय दशरूपक विधान पर एकाग्र है। इसके अंतर्गत नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी एवं प्रहसन का निरूपण किया गया है। यहीं पर उपरूपक के भेदों की चर्चा की गई है।
पुस्तक के पंचम अध्याय में नाट्य कथा के प्रमुख आधारों की चर्चा की गई है। इसके अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, बृहत्कथा, इतिहास, लोक कथा आदि का निरूपण किया गया है। डॉ मुसलगांवकर ने नाट्य रूढ़ियों, संविधानक रचना, कथावस्तु के भेद, मुख, प्रतिमुख आदि संधियों, विविधविध अर्थ प्रकृतियों, अवस्थाओं आदि का निरूपण किया है।

षष्ठ अध्याय में लेखक ने नाट्य के पात्रों की चर्चा की है। इसके अंतर्गत नायक, प्रति नायक, पीठमर्द एवं सहायक पात्रों में विदूषक, विट, चेट, मंत्री आदि का निरूपण किया गया है। नायिका और उनकी सहायिकाओं की चर्चा भी इस अध्याय में की गई है। लेखक ने विविध वृत्तियों और भरत वाक्य का स्वरूप विमर्श भी किया है।
सप्तम अध्याय नाट्य रस पर केंद्रित है। इसमें लेखक ने अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद का पर्याप्त विश्लेषण किया है। रस उन्मीलन के संबंध में विभिन्न मतों की चर्चा ग्रंथकार ने की है। इनमें लोल्लट  का उत्पत्तिवाद, शंकुक का अनुमितिवाद, भट्टनायक का भुक्तिवाद और अभिनवगुप्त का व्यक्तिवाद समाहित हैं।

अष्टम अध्याय संकलनत्रय पर केंद्रित है। इसमें स्थल-काल और कार्य के नियम का निरूपण लेखक ने किया है। संस्कृत नाट्य और ग्रीक नाटक की तुलना तथा संस्कृत नाट्य साहित्य में दुःखान्त नाटकों के अभाव की चर्चा पर्याप्त महत्त्व की है।

संस्कृत नाटकों की साज-सज्जा का निरूपण नवें अध्याय में किया गया है। लेखक ने द्वादश काव्य योनियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, जो इस प्रकार हैं- श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, प्रमाण विद्या, समय विद्या, राज्यसिद्धांतत्रयी  (अर्थशास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र), लोक विरचना एवं प्रकीर्णक। ग्रंथ का दसवां अध्याय संस्कृत नाटकों के अपकर्ष और उसके कारणों पर केंद्रित है।  

पुस्तक में डॉक्टर मुसलगांवकर ने भारतीय नाट्यशास्त्र की दृष्टि से नाट्य ग्रथन की रूढ़ियों पर भी पर्याप्त मंथन किया है। इसके अंतर्गत नांदी, पूर्वरंग, प्रस्तावना, नाट्य वस्तु एवं कृतिकार का परिचय, कुछ दृश्यों का निषेध, सूत्रधार - नटी का प्रयोग, भरत वाक्य आदि बातें संस्कृत नाटकों में समान रूप से दिखाई देती हैं। संस्कृत के नाटककारों ने नाट्यशास्त्र द्वारा प्रस्तुत सिद्धांतों और नियमों को बड़ी ही सावधानी से अपने नाटकों में प्रयुक्त किया है। परिणामतः परवर्ती आचार्यों ने अपने लक्षण ग्रंथों में उन्हें पर्याप्त उद्धृत किया है। परिशिष्ट के अंतर्गत पर्याप्त रेखाचित्र दिए गए हैं। एक परिशिष्ट संस्कृत नाट्य की विशिष्टताओं पर केंद्रित है

संस्कृत नाट्य परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है। इसीलिए नाट्य के विविधविध पक्षों को लेकर व्यापक मंथन सम्भव हो सका है। यह ग्रन्थ नाट्य के सभी महत्त्वपूर्ण आयामों को समेटता है। इस दृष्टि से ग्रन्थ को अपने विषय क्षेत्र की एक उपलब्धि कहा जा सकता है। नाटक के जिज्ञासुओं, आस्वादकों और विद्यार्थियों के साथ समकालीन भारतीय रंगमंच के प्रयोगकर्ताओं को इस ग्रंथ का लाभ लेना चाहिए।

पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगांवकर

1928 में ग्वालियर में जन्मे ग्रंथकार डॉ मुसलगांवकर ने अपने पिता और गुरु पं महामहोपाध्याय सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और मीमांसा तथा पं महामहोपाध्याय हरि रामचन्द्र शास्त्री दिवेकर से काव्यशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वे विगत लगभग छह दशकों से लेखनरत हैं। 

मीमांसकों की परंपरा के संवाहक पं मुसलगांवकर जी ने अब तक तीस से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। संस्कृत नाट्य मीमांसा - दो खण्डों में, रस मीमांसा, नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, कालिदास मीमांसा, आधुनिक संस्कृत काव्य परम्परा, संस्कृत महाकाव्य की परंपरा जैसे गम्भीर ग्रंथों से आपने संस्कृत वाङ्मय को समृद्ध किया है। इसके साथ ही अनेकानेक टीकाओं और विवेचनात्मक ग्रन्थों से जिज्ञासुजनों और शोधकर्ताओं की राह को सुगम बनाया है। इनमें प्रमुख हैं - शिशुपालवधमहाकाव्यम्, हर्षचरितम्, दशरूपकम्, नैषधीयचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, रघुवंशम् आदि। उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान डॉ वी वी मिराशी कृत ग्रंथ भवभूति का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनके द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका का लाभ अनेक विद्यार्थी ले रहे हैं। डॉ मुसलगांवकर अब भी लेखन कार्य में जुटे हुए हैं। उनके द्वारा योगसूत्र पर सविवेचन भाष्य पूर्णता पर है, जिसके 2000 से अधिक पृष्ठ वे हाथ से लिख चुके हैं। इसका प्रकाशन चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी से होगा। शास्त्रीजी के ग्रन्थ दुनियाभर के ग्रंथालयों में उपलब्ध हैं। उनके सुपुत्र डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर स्वयं अनेक ग्रन्थों के प्रणयनकर्ता और मीमांसक हैं।

डॉ. मुसलगांवकर जी को संस्कृत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक सम्मान और उपाधियों से विभूषित किया गया है। उन्हें वर्ष 2018 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया। उन्हें अब तक प्राप्त पुरस्कारों में प्रमुख हैं: संस्कृत के क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार, राष्ट्रीय कालिदास सम्मान, राजशेखर सम्मान, विद्वत्भूषण सम्मान, काशी, उप्र सरकार का विश्वभारती सम्मान आदि। डॉ. मुसलगांवकर बतौर शिक्षक अनेक दशकों तक स्कूली शिक्षा से जुड़े रहे, मगर उनका विपुल लेखन आज कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। उन्हें संस्कृत के क्षेत्र में नवीन व्याख्या शैली के लिए जाना जाता है। 

संस्कृत नाट्य – मीमांसा
पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर
परिमल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली


- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

20200522

हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम – डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा

हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम – सम्पा. डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

मालवी कविता के प्रतिनिधि स्वर को सहेजती पुस्तक : भूमिका से 

समकालीन भारतीय कविता को लेकर प्रायः यह चिंतातुर स्वर सुनने में आता है कि कविता लोक सामान्य से दूर होती जा रही है। इसके पीछे एक प्रमुख कारण रहा है कि कथ्य, विचार और भाषा - सभी स्तरों पर कविता का लोक, लोक कविता या यूँ कहें समूची लोकधारा से परे होता जा रहा है। इस विलगाव के रहते कथित शिष्ट साहित्य में जटिलता और रूपवादी रुझान उभार पर हैं। देश के विभिन्न अंचलों की बोलियों में रची जा रहीं कविताएँ इस तरह के संकटों से प्रायः मुक्त रही हैं। अन्य आंचलिक बोलियों की तरह भारत के हृदय प्रदेश मालवा की सुगंध और मार्दव को समेटे मालवी की समकालीन कविता का यहाँ की भूमि, जन और संस्कृति से गहरा रिश्ता है, जो उसे वैशिष्ट्य देता है।

मालवी के स्तरीय काव्य मंचों की जो तस्वीरें मेरे मनोमस्तिष्क पर अंकित हैं, उसके सबसे आभामय चेहरों में एक हैं - श्री हरीश निगम (3 मई 1928)। मालव माटी से जुड़ी उनकी सरस अभिव्यक्तियाँ, कर्ण मधुर आवाज, लयपूर्ण गायकी और जीवन के सामान्य से सामान्य क्रियाकलापों और दृश्यों में कविता के कथ्य को खोज लेने की उनकी जन्मजात क्षमता - यह सब मुझे निरंतर आकृष्ट करते रहे हैं। प्रायः समस्त मालवी प्रेमियों की तरह मैं भी उनका श्रोता और दर्शक पहले रहा हूँ, पाठक बाद में। तब से लेकर अब तक लोक मन में उनकी गहरी प्रतिष्ठा को मैंने देखा - महसूस किया है। उनकी छवि लोक जीवन के अत्यंत समर्थ और भावुक हृदय कवि के रूप में लोकमानस में अंकित है। मालवी कविता के प्रमुख स्तम्भ श्री हरीश निगम की चर्चित काव्य कृतियाँ हैं - कुसुम कुंज (1958), हरियालो आंचल (1961 एवं 1980), हिरना सांवली (1982), अपरंच (2004) आदि। उन्होंने संस्कृत - हिंदी की अनेक कृतियों के मालवी रूपांतर किए, जिनमें प्रमुख हैं- भास का स्वप्नवासवदत्ता (सपना में रानी), शूद्रक का मृच्छकटिक (गारा की गाड़ी), तुलसी के रामचरितमानस का नाट्य रूपांतर लोकमानस राम आदि। लोक संस्कृति पर केंद्रित पत्रिका सांझी के संपादक के रूप में उन्होंने अनेक विशेषांक निकाले, जिनमें प्रमुख हैं - भर्तृहरि विशेषांक, तुलसी विशेषांक, लोक संस्कृति विशेषांक, लोक कथा विशेषांक, भेराजी विशेषांक, तुलसी पंचशती विशेषांक, सिंहस्थ विशेषांक आदि।
श्री निगम के काव्य का स्वाभाविक स्वर शृंगार और हास्य - व्यंग्य का रहा है, जिसमें उन्होंने मालवा के आंतरिक राग और उल्लास को काव्यमय निष्पत्ति दी है। उनका यह स्वर एक सजग कवि के रूप में समय-समय पर परिवर्तित - विस्तारित भी होता रहा। चीन या पाकिस्तान से युद्ध का दौर रहा हो या श्रम और निर्माण की नई तस्वीरें गढ़ने का वक्त, कविवर श्री निगम उत्कट चेतनाशीलता के साथ अपने युग का नमक अदा करते रहे। कवि और आस्वादक के बीच बढ़ती संवादहीनता के दौर में भी उन्होंने अपने लोकधर्मी काव्य के माध्यम से साहित्य के लोकमंगल विधान और कांतासम्मित उपदेश जैसे प्रयोजनों को सिद्ध कर दिखाया। 

श्री हरीश निगम लोक मन और लोक छवि के रचनाकार हैं। इसलिए उनके काव्य का वैशिष्ट्य सहज और सामान्य हो जाने में है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार सच्चा कवि वह है, जिसे लोक हृदय की पहचान हो। श्री निगम ऐसे ही कवि हैं, जिन्होंने लोक हृदय के अपार एवं अद्भुत सागर का अवगाहन किया है और उसकी अतल गहराइयों से शब्दार्थ एवं संवेदना रूपी रत्न लाकर साहित्य जगत् को सोपे हैं। कवि की चिंता लोक की चिंता है और कवि का सुख लोक का सुख। यही वजह है कि श्री निगम की कविता की परिव्याप्ति में लोक जीवन के हास – अश्रु, उल्लास - संघर्ष, प्रेम – विरह - सभी कुछ समाहित हैं, वही राष्ट्र जीवन की समस्याएँ भी अनछुई नहीं रही हैं। श्री निगम का मालवा के लोक जीवन से तादात्म्य संबंध है। इसी लोक जीवन से उन्होंने शब्दों का चयन किया है, बिंबों और प्रतीकों को आत्मसात किया है और उसी से छंद और लय प्राप्त किए हैं। उनकी कविताएं आधुनिक होने के बावजूद वाचिक परंपरा से गहरे जुड़ी हैं। 

प्रसिद्ध रचना हरियालो आँचल में मालवा की रंगत को उन्होंने कुछ इस तरह शब्दों में ढाला है: 
दिल्ली तो देखी ली रानी, म्हारे साते चाल वो।
भारत माता का हिरदा में जड्यो रतन सो मालवो।

मालवा सहित मध्यप्रदेश की लोक परम्पराएँ यहाँ पूरी धज के साथ उतरती हैं :
आल्हा - उदल, ताल, ठुमरी, नौटंकी और ब्रह्मानंद। 
गरबा, माच, राम की लीला हुइरिया हे स्वर्गीय आनंद। 
चंद्रसखी का भाव गीत में बाजे कितरा साज वो 
नानी बई का मामेरा में बाजे कितरा साज वो। 
रामदेव को ब्याव गवई रियो, भर्यो हुओ चौपाल वो 
भारत माता का हिरदा में जड्यो रतन सो मालवो।
  
इस कविता को पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास ने मालवा की जीवती - जागती झाँकी कहा है :  मेघदूत में जिस तरा हर जगे को वर्णन उना स्थान की खास विशेषता के अपने सामने लई दे है। उनी तरेज हरीश जी की कविता तीर्थ यात्रा में अपना साथ लई जावे हे  प्रत्येक स्थान का वर्णन सरस, मनोहारी और सजीव बनी गयो हे। फिर मालवी को अपनो मीठोपन  ऊ में दूध में शक्कर की तरे घुली मिली के और भी रसमय बनई दियो हे।  पूरी कविता मालव प्रदेश की जीवती जागती झांकी है।

उनकी एक प्रसिद्ध रचना है जिसमें उन्होंने ग्राम बाला के सौंदर्य और गतिमयता को ध्वनि - संगीत और प्रकृति के हृदयग्राही वातावरण के साथ एक रूप कर दिया है: 

गोरड़ी चले मन मोरड़ी चले
रुनक - झुनक बिछिया पे ताल है बजे,
सांवरा की बंसरी पर ख्याल है बजे।
दिवला से बात मिले, तरुवर से पात मिले,
छलिया को प्यार देख, आज है छले, गोरड़ी चले।

आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था आई और पुरानी परिपाटी समाप्त होने लगी। शोषण और दमन के प्रतीक ढहने लगे, तब उन्होंने जागीरदारी प्रथा पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी लिखी : 

जागीरदार की गयी जागीरी, गयो मूँछ को ताव
अब पड़ेगा मालूम ठाकर लूण, तेल, लकड़ी का भाव।
मोटा-मोटा पोत्या बाँधा, कम्मर में खूँसी तलवार,
छोरा-छोरी खाए जलेबियाँ, गिरवे है आखो घर बार। 

डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम


मालवी कवि श्री हरीश निगम इस देश के हरियाले आँचल अर्थात् मालवा के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने हरियालो आँचल नाम से एक सुदीर्घ कविता लिखी है, जो देश भर में बहुचर्चित - बहुप्रशंसित रही है। इस कृति में उन्होंने कालिदास के मेघदूत की शृंखला में नई प्रयोगधर्मिता के साथ मालवा की छवि को कल्पनाकुशल ढंग से अंकित किया है। यह छवि मात्र नैसर्गिक या सांस्कृतिक ही नहीं है, उसमें बहुत सारे आयाम अनायास ही समाहित हो गए हैं। इन सारे आयामों को कवि ने एक हरकारे (संदेशवाहक) के रूप में देशवासियों तक संप्रेषित करने के लिए समर्थ प्रयास किया। इसके अतिरिक्त अन्य गीत और कविताओं के माध्यम से भी उन्होंने स्वतंत्र भारत के संवर्धन, सुरक्षा, सद्भाव और सुसंगति के लिए भी जन - जन तक सरस संदेश पहुंचाए हैं, हरियाली आंचल के कर्मनिष्ठ हरकारा बनकर। उनके हरकारा रूप में कालिदास से लेकर कबीर तक और निराला से लेकर नवीन तक अनेक संदेशदाता कवियों की छवियों को महसूस किया जा सकता है।

भारत के लोक सांस्कृतिक परिदृश्य को देखें तो मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति की उत्कृष्टता पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास, डॉ श्याम परमार, डॉ चिंतामणि उपाध्याय, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ प्रह्लादचंद्र जोशी आदि के व्यापक प्रयत्नों से स्थापित तथ्य बन गई है। इधर मालवी की नई रचनाधर्मिता के मूल्यांकन - समीक्षण का अभाव सुधीजनों को खटकता रहा। इस दृष्टि से मालवी के प्रतिनिधि कवि श्री हरीश निगम के विविधायामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पुस्तक की योजना तैयार हुई, जो डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक हरियाले आंचल का हरकारा हरीश निगम के रूप में आपके सम्मुख है।

पुस्तक में पद्मभूषण सूर्यनारायण व्यास, पद्मभूषण डॉ शिवमंगलसिंह सुमन, श्री गोपालदास नीरज, सुल्तान मामा, डॉ चिंतामणि उपाध्याय, श्री बालकवि बैरागी, श्री मदनमोहन व्यास, डॉ शिव शर्मा, डॉ प्रभातकुमार भट्टाचार्य, श्री बटुक चतुर्वेदी, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ श्यामसुंदर निगम, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, डॉ शिवसहाय पाठक, आचार्य श्री निवास रथ, डॉ मोहन गुप्त आदि की टिप्पणियाँ और संस्मरण संकलित हैं।

सुधी साहित्यकार डॉ प्रहलादचंद्र जोशी, डॉ शिवकुमार मधुर, श्री नटवरलाल स्नेही, श्री राजशेखर व्यास, श्री रामरतन ज्वेल, श्री हरिनारायण व्यास, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, श्री मोहन सोनी, डॉ शिव चौरसिया, डॉ विष्णु भटनागर, श्री नरहरि पटेल, श्री चंद्रशेखर दुबे, श्री ललितनारायण उपाध्याय, प्रो हरीश प्रधान, अशोक वक्त, डॉ पूरन सहगल, डॉ विनय कुमार पाठक, डॉ भगीरथ बड़ोले, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, श्री बसंत निरगुणे,  श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय, डॉ जगदीशचंद्र शर्मा, डॉ हरीशकुमार सिंह, श्री वेद हिमांशु, डॉ रश्मिकांत व्यास, डॉ विलास गुप्ते, श्री झलक निगम, डॉ विवेक चौरसिया, श्रीमती उर्मिला निरखे, श्रीमती जयश्री भटनागर, डॉ राजी अशोक, श्रीमती मंजू निगम, श्री प्रदीप बैस, सीमा निगम आदि के आलेख, संस्मरण एवं टिप्पणियां इस पुस्तक में समाहित हैं। 

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम
संपादक : डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा
ऋषि मुनि प्रकाशन

20200520

पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय : कालमुखी तीर्थ के लोकोन्मुखी देवता -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Padmashri Pt. Ramnarayan Upadhyay : People oriented Deity of Kalmukhi Tirtha - Prof. Shailendra Kumar Sharma

कालमुखी तीर्थ के लोकोन्मुखी देवता : पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma  
 भारतीय लोक साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, संचयन और अनुशीलन की  परंपरा में पद्मश्री पंडित रामनारायण उपाध्याय (जन्म 20 मई 1918) का नाम अविस्मरणीय है। वे लोक मनीषी श्री रामनरेश त्रिपाठी, पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, विश्वनाथ काशीनाथ राजवड़े, श्रीधर व्यंकटेश केतकर, साने गुरुजी, डॉ सत्येंद्र, श्री देवेंद्र सत्यार्थी, डॉ  कृष्णदेव उपाध्याय,  डॉ श्याम परमार आदि की परंपरा के समर्थ संवाहक थे। लोक मनीषी पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष के समापन समारोह के अवसर को उनकी परम्परा के सार्थवाह श्री शिशिर उपाध्याय और परिवारजनों ने अविस्मरणीय बना दिया था। 20 मई 2018 को रामा दादा की जन्मस्थली कालमुखी, खंडवा में हुआ यादगार आयोजन आज भी चलचित्र की भाँति स्मृति पटल पर अंकित है, जिसमें देश के विभिन्न अंचलों के संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार और ग्रामवासी और परिवारजन बड़ी संख्या में जुटे थे। भाई शिशिर उपाध्याय, हेमन्त उपाध्याय और परिवारजनों ने पं उपाध्याय जी की कर्मभूमि साहित्य कुटीर के सामने एक गली के मुहाने पर खुला मंच बनाया था, जिसके तीनों ओर आबाल वृद्ध शाम ढलते ही जुटने लगे थे और देर रात तक लोक हृदय सम्राट पं उपाध्याय जी की यादों में डूबते - उतरते रहे। 

पण्डित उपाध्याय की जन्मशती की पूर्णाहुति के अवसर पर डॉ सुमन मनोहर चौरे ने रामा दादा की स्मृतियों में गोता लगाकर अनेक संस्मरण सुनाए। डॉ पूरन सहगल, प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ सुरेश कुशवाह, श्री शिशिर उपाध्याय ने दीपदीपन किया और दादा के संस्मरणों, व्यक्तित्व और कृतित्व के पृष्ठों को पलटा। अनेक लोक सर्जकों के संवाद और सम्मान का यह मौका अनूठा बन गया था। सभी लोग उस दिन दादा की कर्मस्थली कालमुखी को लोक तीर्थ के रूप में पा रहे थे, जिसका लोकोन्मुखी देवता आसमान में बिखरी चाँदनी के बीच मुस्कुरा रहा था।



दादा को लोक पर कार्य करने की प्रेरणा लोक में प्रचलित एक गणगौर गीत की दो पंक्तियों से मिली थी:
शुक्र को तारो रे ईश्वर ऊँगी रह्यो
तेकी मखsटीकी घड़ाओ।
शुक्र का तारा आसमान में चमक रहा है, उसकी मुझे बिंदी घड़वा दो।
विराट शृंगार की यह कल्पना उन्हें मुग्ध कर गई थी। फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। उन्होंने निमाड़ लोकांचल में बिखरे ऐसे ही अनेक मणि - माणिक्य जुटाए, जो आज भारतीय लोक विरासत पर गर्व का अवसर देते हैं।

पं उपाध्याय सही मायने में पृथ्वी पुत्र थे, ‘माता भूमि पुत्रोsहं पृथिव्याः’ को साकार करने वाले। उनके लिए लोक साहित्य कामधेनु की तरह है, वहाँ जिस कामना के वशीभूत होकर जाएँ, वह सहज प्राप्त हो जाता है। उनके लिए लोक गीत मनोभावनाओं का कोमल इतिहास है। जैसे हर व्यक्ति का खास व्यक्तित्व होता है उसी तरह हर लोक गीत का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है और वह अपने लिए विशिष्ट स्थान चाहता है।

वे भाषा की अमरता के उपासक हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा है कि एक - एक शब्द मार्कण्डेय की आयु लिए बैठा है। उपाध्याय जी उसे साक्षात् करते हैं। शब्द कोश तो बनाते ही हैं, वर्गीकृत रूप में शब्द भंडार भी सहेजते हैं। उनकी दृष्टि में जैसे हम लोग समूह में रहते हैं, वैसे ही शब्द भी समूह में रहते हैं, अंतर्क्रिया करते हैं। इस आधार पर उन्होंने शब्दों का वर्गीकरण कर अक्षय शब्द सम्पदा को सहेजा है।
निमाड़ और निमाड़ी को केंद्र में रखते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देश के लोक का प्रत्यक्षीकरण किया है। उनकी दृष्टि में लोक साहित्य, लोक मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का महाकाव्य है।

लोक संस्कृति के बदलते स्वरूप को लेकर भी उन्होंने विचार किया है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि लोक साहित्य में युग के अनुकूल अपने को ढालने और नए युग के मार्गदर्शन की क्षमता होती है। वे किसान से कहते हैं, तुम तो सजीव साहित्य के निर्माता हो। वे लोक की अजस्र शक्ति के विश्वासी थे, इसीलिए इन शक्ति स्रोतों की खोज में तल्लीन रहे, अपने लेखन के जरिये उसकी खोज का आह्वान करते रहे।

दादा ने लोक संस्कृति के अंतरप्रांतीय अध्ययन की राह खोली। रामा दादा ने पूरे देश के विभिन्न अंचलों के लोक साहित्य का अध्ययन किया एवं स्पष्ट किया कि बेटी की बिदाई का दर्द सभी लोक भाषाओं में एक सा है। उनकी विवेचनाओं में निमाड़ के साथ गुजरात, अवध, मिथिला, गढ़वाल - सब एक दूसरे से हिलेमिले दिखाई देते हैं। मालवा के साथ निमाड़ का रिश्ता बनाते हुए उन्होंने बहुत सुंदर रूपक रचा है, मालवी को यदि हम बाग - बगीचों में पली शकुंतला कहें तो निमाड़ी अरण्य वनों में से अपनी राह बनाने वाली सीता की तरह है। इसीलिए निमाड़ी में श्रम और संघर्ष प्रधान गीतों का प्राधान्य है। निमाड़ी जन की संघर्षशीलता को उन्होंने भीषण गर्मी के बीच मुस्कुराते पलाश के फूलों से तौला है। इसी चेतना को वे सब जगह देखते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रहार करती एक लोक लघुकथा को वे सुनाते हैं, जिस पर जितनी टिप्पणी की जाए, कम ही होगी। 

“न्हार न बकरी सी पूछ्यो
क्यों री बकरी मांस खायगा?
बकरी न कह्यो, म्हारो ज बची जाय तो भोत छे।“


उपाध्याय की दृष्टि में, सूरज सी रेत ज्यादा तपज, या फिर तू आदमी छै की तैसिलदार, या फिर गरीब का छोरा खs सरग पर बिगार और फिर उधई का वावल्ला मs भुजंग आदि, ये सब कहावतें निमाड़ के आम जन का भोगा हुआ यथार्थ ही तो हैं। उन्हें गांधी से जुड़े निमाड़ी लोक गीतों में निमाड़ वासियों की आशा के स्वर सुनाई देते हैं : 
ई खोटी पैसों नी खरी चांदी आयs।
ई हवा अन्धौळ नी गांधी आय।।

लोक भाषा, साहित्य एवं संस्कृति पर शोध के लिए प्रचुर सामग्री उन्होंने जुटाई थी, जो नए अनुसंधान कर्ताओं के लिए आज भी उपादेय है। शब्द भंडार, लोकोक्ति - मुहावरे, पहेली संचयन, लोक गीत और कथा संग्रह, हिंदी में प्रकाशित लोक साहित्य की सूची, मेलों की सूची, निमाड़ के तीर्थ, सन्त परम्परा, सन्तों के जन्म स्थान और  समाधियों की परिचयात्मक सूची - यह सब मिलकर शोध के लिए कई नवीन दिशाओं को खोलते हैं।

उन्होंने निमाड़ का जीवन रस संचित किया है। लोक विश्वास, लोक नाट्य, नृत्य, लोक अनुष्ठान, लोकाचार, क्या नहीं सहेजा उन्होंने। सहेज कर उसके मर्म को उद्घाटित भी किया है। उनकी रचनाओं में निमाड़ भरे पूरेपन के साथ धड़कता है। पं उपाध्याय ने हिंदी जगत् को निमाड़ी लोक साहित्य, संस्कृति और इतिहास से परिचित कराने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उनकी प्रमुख कृतियों में व्यंग्य, ललित निबन्ध, रूपक, रिपोर्ताज, लघु कथाएँ, संस्मरण आदि विधाओं में 30 से अधिक पुस्तकें शामिल हैं। हम तो बाबुल तेरे बाग की चिड़िया (लोक साहित्य), निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास , जब निमाड़ गाता है (लोक साहित्य), लोक साहित्य समग्र (लोक साहित्य), बक्शीशनामा, धुँधले काँच की दीवार, नाक का सवाल, मुस्कराती फाइलें, गँवईं मन और गाँव की याद, दूसरा सूरज आदि व्यंग्य संकलन हैं। जनम-जनम के फेरे (ललित निबन्ध), मृग के छौने (गद्य रूपक), जिनकी छाया भी सुखकर है तथा जिन्हें भूल न सका (संस्मरण), कथाओं की अंतर्कथा, चिट्ठी, मामूली आदमी आदि उल्लेखनीय हैं। 
रामा दादा एवं डॉ सुमन जी जैसे साहित्यकारों ने विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वाचनालय को अपना सद्साहित्य, प्राचीन ग्रंथ और अखबार देकर समृद्ध किया था। उनके साथ अंतरंग संवाद का अवसर मुझे गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के माध्यम से मिला था। जहाँ कहीं लोक का मन हास और अश्रु के साथ स्पंदित होगा, रामा दादा वही मौजूद रहेंगे।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन मध्यप्रदेश

20200518

कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

असमाप्त लिप्सा और दोहन से उपजे कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रो शर्मा का व्याख्यान : 

शोध धारा शोध पत्रिका, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान, उरई, उत्तर प्रदेश एवं भारतीय शिक्षण मंडल, कानपुर प्रान्त के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के समापन दिवस पर  व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। यह संगोष्ठी वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और भारत राष्ट्र : चुनौतियां संभावनाएं और भूमिका पर केंद्रित थी। 



संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि वर्तमान विश्व मनुष्य की असमाप्त लिप्सा और अविराम दोहन से उपजे संकट को झेल रहा है। अंध वैश्वीकरण, असीमित उपभोक्तावाद और अति वैयक्तिकता की कोख से उपजे कोविड - 19 संकट ने भारतीय मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली की प्रासंगिकता को पुनः नए सिरे से स्थापित कर दिया है। मनुष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। प्रकृति के साथ स्वाभाविक रिश्ता बनाते हुए अक्षय विकास के मार्ग पर चलकर ही इस संकट से उबरा जा सकता है। कोई भी महामारी तात्कालिक नहीं होती, उसके दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। इस दौर में उपजे बड़ी संख्या में विस्थापन, भूख, बेरोजगारी और बेघर होने के संकट को सांस्थानिक और सामुदायिक प्रयासों से निपटना होगा। अभूतपूर्व विभीषिका के बीच यह सुखद है कि हम भारतीय जीवन शैली, पारिवारिकता और सामुदायिक दृष्टि के अभिलाषी हो रहे हैं।

व्याख्यान सत्र के वक्तागण गोरखपुर के प्रो सच्चिदानंद शर्मा, पर्यावरण वेत्ता एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के वनस्पति विज्ञान विभाग के आचार्य डॉ अनिलकुमार द्विवेदी एवं डॉ संतोषकुमार राय, झांसी थे। 

प्रारम्भ में संगोष्ठी संयोजक डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने अतिथि परिचय एवं स्वागत भाषण दिया।

संचालन डॉ श्रवणकुमार त्रिपाठी ने किया। रिपोर्ट का वाचन डॉ नमो नारायण एवं डॉ अतुल प्रकाश बुधौलिया, उरई एवं आभार प्रदर्शन डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने किया। 



डॉ राजेश चन्द्र पांडेय
संपादक शोध पत्रिका शोध धारा एवं 
शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान
उरई, उत्तर प्रदेश

20200515

मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास - सम्पादक हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ हरीश प्रधान

मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास : सम्पा हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ हरीश प्रधान
Malav Sut Pt. Suryanarayan Vyas : Edited by Harish Nigam, Dr Shailendra kumar Sharma, Dr Harish Pradhan 

पं सूर्यनारायण व्यास के विलक्षण अवदान को सहेजती एक पुस्तक 

पुण्यश्लोक पं सूर्यनारायण व्यास ( 2 मार्च 1902 ई. - 22 जून 1976 ई.) विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे साथ कई रूपों - प्राच्यविद्या विद्, साहित्य मनीषी, इतिहासकार, सर्जक, पत्रकार, ज्योतिर्विद् और राष्ट्रीय आंदोलन के अनन्य स्तम्भ के रूप में सक्रिय रहे। महाकालेश्वर के समीपस्थ उनका निवास भारती भवन क्रांतिकारियों से लेकर संस्कृतिकर्मियों की गतिविधियों का केंद्र रहा। पं व्यास जी के विविधायामी अवदान पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास’ साहित्यकार श्री हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं डॉ हरीश प्रधान के सम्पादन में प्रकाशित हुई थी।



लोकमानस अकादमी एवं साँझी पत्रिका द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक के प्रथम खंड में पंडित सूर्यनारायण व्यास के व्यक्तित्व और विविधमुखी अवदान पर केंद्रित महत्वपूर्ण आलेखों का समावेश किया गया है। इस खंड के प्रमुख लेखक हैं -  कविवर डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, पुरातत्त्ववेत्ता श्री विष्णु श्रीधर वाकणकर, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, श्री परिपूर्णानंद वर्मा, आचार्य श्रीनिवास रथ, श्री बालकवि बैरागी, डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय, पंडित व्यास के सुपुत्र श्री राजशेखर व्यास, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ प्रहलादचंद्र जोशी, डॉ शिव चौरसिया, इब्बार रब्बी, श्री हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, श्री मोहन सोनी, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, श्री परमात्मानंद पांडेय, श्री रमेश निर्मल, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ रश्मिकांत व्यास, श्री राजपाल आर्य, शिवनारायण उपाध्याय शिव, अभिमन्यु डिब्बेवाला, डॉ विवेक चौरसिया आदि। 

दूसरे खंड में पंडित व्यास की कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है। इनमें उनके चर्चित व्यंग्य आंखों देखी अपनी मौत, मूर्ति का मसला, अपनी आत्मकथा लिखना चाहता हूं - - - पर, कविता यह हिमशैल हमारा है आदि का समावेश किया गया है। इस खंड से स्पष्ट दिखाई देता है कि दशकों पहले हिंदी व्यंग्य को समर्थ बनाने में पं व्यास जी के प्रयत्न आज रंग ला रहे हैं। 

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास Book of Shailendra Kumar Sharma 



अनवरत यात्रा : सूर्योदय से सूर्यास्त तक के माध्यम से डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय एवं श्री राजशेखर व्यास ने पंडित व्यास जी की जीवन यात्रा के पड़ावों और उनके अवदान का रूपांकन किया है। श्री राजशेखर व्यास ने अपने लेख एक पत्र जिसने एक शहर बनाया के माध्यम से पंडित जी द्वारा स्थापित एवं संपादित मासिक पत्र विक्रम के अवदान की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है, जी हां, विक्रम नाम से सुशोभित यह मासिक पत्र उज्जैन से प्रकाशित हुआ था और न केवल प्रकाशित हुआ था, अपितु तत्कालीन मासिक सरस्वती, चांद, माधुरी, हंस, विश्वमित्र के स्तर से विक्रम का कोई भी अंक उन्नीस नहीं होता था। विक्रम के जन्म का श्रेय स्वर्गीय पांडेय बेचन शर्मा उग्र को दिया जाता है, जो 1942 में उज्जयिनी के भास्कर स्वर्गीय पंडित सूर्यनारायण व्यास के आवास भारती भवन में आकर ठहरे थे। उज्जैन उनको भा गया था। व्यास जी के एक मित्र सुपरिचित कन्हैयालाल चौरसिया का प्रेस था। चौरसिया जी प्रायः भारती भवन आते रहते थे। एक रोज अचानक पत्र की चर्चा चल पड़ी। वार्तालाप के दौरान चौरसिया जी उग्र जी से बहुत प्रभावित हुए और पत्र निकालने को राजी हो गए। व्यास जी संरक्षक बने, संपादक उग्र जी एवं संचालक चौरसिया जी बने और इस तरह अप्रैल 1942 को प्रथम अंक का प्रकाशन हुआ। इस लेख में श्री राजशेखर व्यास ने विक्रम में पं व्यास जी के सोलह पृष्ठीय संपादकीय की चर्चा की है, वहीं इस पत्र के संघर्षों, प्रेरणाओं और योगदान को बड़ी मार्मिकता से उद्घाटित किया है। 




प्रख्यात कवि डॉ शिवमंगल सिंह सुमन ने अपने लेख पुण्यश्लोक  प्रियदर्शी पंडित सूर्यनारायण व्यास  में पंडित व्यास की बहुमुखी प्रतिभा की चर्चा की है। उन्होंने ठीक ही लिखा है, जैसे जैसे समय बीत रहा है, लगता है कि व्यास जी के बिना उज्जयिनी की कल्पना नहीं की जा सकती। इस पुण्यतीर्थ के वे प्रबुद्ध प्रचेतस थे, रामझरोखे में बैठकर हरसिद्धि प्राप्ति में आने वालों का दर्शन करने वाले। मालव भूमि के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ऐसा एक प्रहरी सदियों बाद अवतरित हुआ था। आज का विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर और कालिदास स्मृति मंदिर के अप्रतिहत अनुष्ठान के प्रतीक हैं। कौन जान पाएगा कि  अवंती जनपद के स्वर्णिम अतीत को वर्तमान में ढालने के उसने क्या-क्या सपने संजोए थे।  प्रथम अखिल भारतीय कालिदास समारोह के ऐतिहासिक अधिवेशन का पुण्य पर्व आज भी प्रभात के सपने की स्मृति में सजीव बना हुआ है। पुष्यमित्र शुंग के बाद शायद ही ऐसी यज्ञ की वेदी इस भूमि में अवतरित हुई हो। अद्भुत दृश्य था, जब भारत का चक्रवर्ती सम्राट राष्ट्रपति राजेंद्रप्रसाद अपनी गरिमा के समस्त विधि - विधानों को भूलकर महर्षि व्यास की पीठ को नमन करने पहुंच गया था। 





पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर ने व्यास जी : अनेक मुखड़े - सभी उज्जवल निबन्ध के माध्यम से उनके जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला है। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी ने पंडित व्यास से जुड़े कुछ भीगे संस्मरण प्रस्तुत किए हैं। आचार्य श्रीनिवास रथ, डॉ बसंतीलाल बम,  डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ प्रह्लादचंद्र जोशी, श्री परिपूर्णानंद वर्मा, बालकवि बैरागी, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी आदि ने व्यास जी के बहुआयामी व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरणों को अपने आलेखों में प्रस्तुत किया है। मालवी कवि श्री हरीश निगम ने मालवी भाषा और साहित्य के उन्नायक के रूप में पंडित व्यास के योगदान की चर्चा की है। डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा ने पंडित व्यास के व्यंग्य विनोद लेखन के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला है।




पुस्तक के संपादक डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा ने मालवा की पत्रकारिता और विक्रम संपादक पंडित सूर्यनारायण व्यास  आलेख के माध्यम से  पंडित व्यास के  पत्रकारिता  कर्म  पर सविस्तार प्रकाश डाला है। डॉ शर्मा के अनुसार यद्यपि भारत में पत्रकारिता का आगमन पश्चिम की देन है, किंतु शीघ्र ही यह सैकड़ों वर्षों की निद्रा में सोये भारत की जाग्रति का माध्यम सिद्ध हुई। विश्वजनीन सूचना-संचार के इस विलक्षण माध्यम ने पिछली दो शताब्दियों में अद्भुत प्रगति की है। वहीं भारतीय परिदृश्य में देखें, तो हमारी जातीय चेतना के अभ्युदय, आधुनिक विश्व के साथ हमकदमी, स्वातंत्र्य की उपलब्धि और राजनैतिक-सामाजिक चेतना के प्रसार में हिन्दी पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। पत्रकारिता और साहित्य की परस्परावलंबी भूमिका और दोनों की समाज के प्रतिबिम्ब के रूप में स्वीकार्यता आधुनिक भारत का अभिलक्षण बन कर उभरी है, तो उसके पीछे जो स्पष्ट कारण नज़र आता है, वह है महनीय व्यक्तित्वों की साहित्य एवं पत्रकारिता के बीच स्वाभाविक चहलकदमी। ऐसे साहित्यिकों की सुदीर्घ परम्परा में विविधायामी कृतित्व के पर्याय पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास (1902 - 1976 ई.) का नाम अविस्मरणीय है, जिन्होंने देश के हृदय अंचल ‘मालवा’ की पुरातन और गौरवमयी नगरी उज्जैन से ‘विक्रम’ मासिक के सम्पादन-प्रकाशन के माध्यम से पत्रकारिता की ऊर्जा को समर्थ ढंग से रेखांकित किया। पं व्यास की पत्रकारिता की उपलब्धि अपने नगर, अंचल और राष्ट्र के पुनर्जागरण और सांस्कृतिक अभ्युदय से लेकर हिन्दी पत्रकारिता को नए तेवर, नई भाषा और नए औजारों से लैस करने में दिखाई देती है, जहाँ पहुँचकर राजनीति, साहित्य, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच की भेदक रेखाएँ समाप्त हो गईं। लगभग छह दशक पहले मालवा की हिन्दी पत्रकारिता के खास स्वभाव को गढ़ने से लेकर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आज उसकी अलग पहचान को निर्धारित करवाने में पं. व्यासजी और उनके ‘विक्रम’ की विशिष्ट भूमिका रही है।




डॉ शिव चौरसिया, शिवनारायण उपाध्याय शिव, अभिमन्यु डिब्बेवाला और मोहन सोनी ने अपनी कविताओं के माध्यम से पंडित व्यास जी को काव्यांजलि दी है। इस पुस्तक में श्री राजशेखर व्यास द्वारा उपलब्ध करवाए गए पं व्यास जी के अनेक दुर्लभ चित्र संजोए गए हैं। वस्तुतः व्यास जी की जन्मशती पर विविध प्रकल्पों के माध्यम से प्रसिद्ध लेखक और मीडिया विशेषज्ञ पं राजशेखर व्यास ने पितृ ऋण से अधिक राष्ट्र ऋण चुकाने का कार्य किया था। पण्डित व्यास जी के सम्बंध में ठीक ही कहा जाता है कि उनके जैसे वे ही थे। 




पुस्तक: मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास

सम्पादक: श्री हरीश निगम, डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा एवं डॉ. हरीश प्रधान
प्रकाशक: लोक मानस अकादेमी एवम् साँझी पत्रिका

20200512

स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. मोहन बैरागी

स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम - संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. मोहन बैरागी 

Stri Vimarsh : Parampra Aur Naveen Ayam - Prof. Shailendrakumar Sharma, Dr. Mohan Bairagi

संपादकीय :
स्त्री विमर्श महज एक बौद्धिक विमर्श नहीं है, यह व्यापक सामाजिक - सांस्कृतिक - वैचारिक परिवर्तन का माध्यम है। यह इस बात की ओर तीखा संकेत करता है कि यह दुनिया स्त्री के लिए शायद नहीं बनी है और अब स्त्री इसे फिर से बनाना चाहती है। पुरुषवर्चस्ववादी समाज के बीच विलम्ब से ही सही, स्त्री विमर्श को मुकम्मल जगह मिल गई है। समकालीन चैंतनिक परिदृश्य  में यह विमर्श एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बन गया है। साहित्य और संस्कृति के फलक पर इसकी व्याप्ति जहाँ विचारोत्तेजक रही, वहीं निरंतर जटिल होती सामाजिक - आर्थिक संरचना के बरअक्स इसके कई नए आयाम उभरे हैं।

यह तय बात है कि आज भारतीय समाज में सदियों पुरानी नारी स्थिति से पर्याप्त अंतर आ गया है, किन्तु यह भी सच है कि भारतीय समाज के वैचारिक दायरे में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आ सका है। नारी के उद्विकास को पुरुष वर्चस्ववादी समाज ने स्वीकारना भले ही शुरू कर दिया है, किंतु उसकी समस्याएँ कई नए रूप-रंगों में ढलकर सामने आ रही हैं।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक स्त्री विमर्श परम्परा और नवीन आयाम Book of Shailendra Kumar Sharma 

वैश्विक परिदृश्य में स्त्रियों के संघर्ष और सशक्तीकरण की दिशा में व्यापक प्रयास हुए हैं। इधर भारत में पुनर्जागरण के दौर में स्त्री अधिकारों के प्रति व्यापक सजगता प्रारंभ हुई, वहीं राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागिता के साथ समानांतर शैक्षिक और सांस्कृतिक बदलाव में स्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आधुनिक भारतीय परिप्रेक्ष्य में अनेक स्त्री रत्नों ने व्यापक प्रयास किए, जिनमें सावित्रीबाई फुले, रमाबाई आंबेडकर, एनीबेसेंट,  काशीबाई कानिटकर, भगिनी निवेदिता, भीकाजी कामा, कुमुदिनी मित्रा, लीलावती मित्रा, कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि उल्लेखनीय हैं।

स्त्री विमर्श : परम्परा और नवीन आयाम पुस्तक में स्त्री विमर्श के विविध सरोकारों पर अन्तरानुशासनिक दृष्टि से गम्भीर पड़ताल हुई है। नारी विमर्श को लेकर साहित्यिक, सांस्कृतिक, समाजवैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, दार्शनिक आदि अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। इस पुस्तक के माध्यम से यह पड़ताल भी सम्भव हुई है कि समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में नारी जीवन से जुड़ी विद्रूपताओं और विसंगतियों के विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर मुखरित हैं। विवेचना के केंद्र में कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोरा, नासिरा शर्मा, कमल कुमार, मेहरून्निसा परवेज, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता आदि का कथा साहित्य रहा है। स्त्री कविता में नारी के अंतर्बाह्य संघर्ष और परिवर्तनकारी प्रयत्नों की आहट को इस पुस्तक में महसूस किया जा सकता है। पुरुष रचनाधर्मिता के परिप्रेक्ष्य में नारी विमर्श के स्वर भी इस पुस्तक में मुखरित हुए हैं।

पुस्तक में यू.एस.ए. की विदुषी डॉ. अम्बा सारा कॉडवेल ने अपने विशेष आलेख 'Shakti and Shakta' के माध्यम से भारत में शक्ति पूजा की परम्परा एवं अनेक दर्शनों के आलोक में नारी विमर्श के विविध आयामों की गम्भीर पड़ताल की है। उन्होंने माना है कि भारत में शक्ति रूप में नारी के महत्त्व और उसके प्रभाव की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। यह संपूर्ण विश्व में अद्वितीय है। दक्षिण एशियाई धर्मों में देवी की उदात्त और सुंदर छबियों को जन्म मिला, जिन्हें दुनिया ने कभी नहीं देखा था। उन्हें हम अत्यधिक रहस्यात्मक और सशक्त कह सकते हैं। मिनिएचर पेंटिंग, मूर्ति शिल्प आदि अनेक माध्यमों से दुर्गा, काली, सीता, राधा आदि की महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। शैव और शाक्त दर्शनों के माध्यम से देवी आराधना के कई रूप प्रकट होते हैं, जहाँ स्त्री को विद्या, विजय, आनन्द और सृजन के स्रोत के रूप में महिमा मिली है।

पुस्तक में स्त्री विमर्श की परंपरा को नए आयामों में रूपांतरित होते हुए देखा जा सकता है। स्त्री विमर्श  पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ मुखर होने के बाद  अब व्यापक मनुष्यता की दिशा में गतिशील है। और यह स्त्रियों के लंबे संघर्ष से ही संभव हो सका है।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

20200510

मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Malvi Language and Literature : Prof. Shailendra Kumar Sharma

मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

Malvi Bhasha Aur Sahitya:
Prof. Shailendrakumar Sharma

पुस्तक समीक्षा: डॉ श्वेता पंड्या

Book Review : Dr. Shweta Pandya 

मालवी भाषा एवं साहित्य के इतिहास की नई दिशा 

लोक भाषा, लोक साहित्य और संस्कृति का मानव सभ्यता के विकास में अप्रतिम योगदान रहा है। भाषा मानव समुदाय में परस्पर सम्पर्क और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। इसी प्रकार क्षेत्र-विशेष की भाषा एवं बोलियों का अपना महत्त्व होता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़े विशाल वाङ्मय में मालवा प्रदेश, अपनी मालवी भाषा, साहित्य और संस्कृति के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यहाँ की भाषा एवं लोक-संस्कृति ने  अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव डालते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। मालवी भाषा और साहित्य के विशिष्ट विद्वानों में डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। प्रो. शर्मा हिन्दी आलोचना के आधुनिक परिदृश्य के विशिष्ट समीक्षकों में से एक हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं के साथ-साथ मालवी भाषा, लोक एवं शिष्ट साहित्य और संस्कृति की परम्परा को आलोचित - विवेचित करने का महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक प्रयास किया है। उनकी साहित्य-समीक्षा में सुस्पष्ट व्यावहारिक विश्लेषण भी दृष्टिगोचर होता है, जो निश्चित रूप से  सार्थक साहित्य दृष्टि के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

मालवी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवी भाषा और साहित्य का अप्रतिम स्थान है। इस पुस्तक के मुख्य सम्पादक एवं लेखक डॉ.  शैलेन्द्रकुमार शर्मा हैं। उनके साथ सम्पादन सहयोग डॉ. दिलीपकुमार चौहान एवं डॉ. अजय गौतम ने किया है। इसका प्रकाशन मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल द्वारा किया गया है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवी भाषा और साहित्य Book of Shailendra Kumar Sharma

इस पुस्तक की शताधिक पृष्ठीय सुविस्तृत भूमिका में डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा मालवी भाषा और साहित्य के प्रत्येक पहलू पर विस्तृत विवेचन किया गया है।  प्रथम भाग के अन्तर्गत मालवी भाषा की प्रमुख विशेषताओं, भेद – प्रभेद, मालवी साहित्य के इतिहास, प्रमुख धाराओं और साहित्यकारों के अवदान पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय भाग के अन्तर्गत मालवी के प्रख्यात कवियों के वैशिष्ट्य निरूपण के साथ उनकी प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है।

कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली - भाषा, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं एवं प्रत्येक वर्ष लगभग दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह समस्या मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों के साथ भी है। इनके प्रयोक्ताओं की कमी होती जा रही है। इस समस्या के निराकरण हेतु इस पुस्तक की रचना की गई है अर्थात् हमारी भाषा एवं साहित्य-संस्कृति से पाठक और शिक्षार्थी लाभान्वित हों, वे उससे परिचित हों, इसी उद्देश्य से लेखक डॉ शर्मा ने इस पुस्तक का सृजन किया है।

पुस्तक का विषय मालवी भाषा और साहित्य अपने आप में पर्याप्त गुरु गम्भीर है। डॉ शर्मा ने विषय-विवेचन की दृष्टि से प्रथम खण्ड को इन शीर्षकों में विभाजित किया है - मालवा और मालवी, मालवी: उद्भव और विकास, मालवी और उसकी उपबोलियाँ, निमाड़ और निमाड़ी, मालवी साहित्य का इतिहास, नाट्य साहित्य, गद्य साहित्य, निमाड़ी साहित्य की विकास यात्रा इत्यादि। विवेचन के ये शीर्षक विवेच्य विषय की व्यापकता का आभास देते हैं।

मालवी भाषा, साहित्य और उसका इतिहास के अन्तर्गत सर्वप्रथम मालवा और मालवी को लेकर विवेचन किया है। यहाँ डॉ शर्मा ने मालवा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘माल’ शब्द से बताई है। मालवा के परिचय को जनश्रुति के अनुसार कबीर के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया है -

‘देश मालवा गहन, गम्भीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर।’

मालवा क्षेत्र के विस्तार को लोक में चर्चित उक्ति के माध्यम से नदियों के प्रवाह क्षेत्र के आधार पर निरूपित किया गया है :
 इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान।
 दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

इसका विस्तार मध्यप्रदेश और राजस्थान के लगभग बाईस जिलों में बताया गया है। साथ ही मालवी भाषा एवं इसकी सहोदरा निमाड़ी भाषा का प्रयोग करने वाले सभी जिलों, जैसे-वर्तमान में मालवी भाषा का प्रयोग, मध्यप्रदेश के उज्जैन सम्भाग के नीमच, मन्दसौर, रतलाम, उज्जैन, देवास, आगर एवं शाजापुर जिलों; भोपाल संभाग के सीहोर, राजगढ़, भोपाल, रायसेन और विदिशा जिलों; इंदौर संभाग के धार, इंदौर, हरदा, झाबुआ, अलीराजपुर जिले ; ग्वालियर संभाग के गुना जिले, राजस्थान के झालावाड़, प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा एवं चित्तौड़गढ़ आदि जिलों के सीमावर्ती क्षेत्रों में होता है। इनके अलावा कुछ जिलों में मालवी के साथ बुंदेली, निमाड़ी एवं जनजातीय बोलियों के मिश्रित रूप प्रचलित हैं। मालवी की सहोदरा निमाड़ी भाषा का प्रयोग बड़वानी, खरगोन, खण्डवा, हरदा और बुरहानपुर जिलों में उल्लेखित किया गया है। मालवा-निमाड़ क्षेत्र को मानचित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। निमाड़ शब्द की व्युत्पत्ति, भाषा एवं संस्कृति की दृष्टि से मालवी और निमाड़ी का अन्तः सम्बन्ध भी बताया है। विभिन्न कालों में परिस्थितियों में परिवर्तन के बावजूद मालवा के लोकजीवन और लोकमानस में मालवीपन की अक्षुण्णता को जीवन्त बताते हुए मालवी भाषा को अपने आप में एक विलक्षण भाषा के रूप में स्थापित किया है। प्रो शर्मा ने मालवी लोक-संस्कृति, लोक-परम्पराएँ, मालवा क्षेत्र में विविध ज्ञान और कला रूपों के विकास, लोक-साहित्य इत्यादि के आधार पर इसका महत्त्व एवं मालवी लोक भाषा और संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन में किए गए प्रयत्नों की विवेचना की है। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के ‘माच’ का विशिष्ट स्थान प्रतिपादित बताते हुए इसके वैशिष्ट्य और परम्परा के साथ ही मालवी साहित्य की परम्परा को समृद्ध करने वाले साहित्यकारों का उल्लेख किया गया है।

 प्रो शर्मा ने मालवी: उद्भव और विकास शीर्षक के अन्तर्गत वर्तमान मालवी का उद्भव क्रमशः आवन्ती एवं पैशाची प्राकृत तथा आवन्ती एवं पैशाची अपभ्रंश के मिश्रित रूप से बताया है। मालवी भाषा का उद्भव 700 ई. के आसपास से माना  है। मालवी का क्रम विकास तालिका के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। विभिन्न युगों में अन्य भाषाओं का मालवी भाषा पर प्रभाव तथा हिन्दी भाषा से इसकी समृद्धि का निरूपण किया गया है। मालवी और उसकी उपबोलियाँ शीर्षक के अन्तर्गत केन्द्रीय या आदर्श मालवी, सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी या दशपुरी, उमठवाड़ी, भीली सभी उपबोलियों के रूप का परिचय देते हुए इनकी व्याकरणिक विशेषताओं का भी उदाहरण सहित विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

निमाड़ और निमाड़ी शीर्षक के अंतर्गत निमाड़ क्षेत्र के नामकरण को लेकर विभिन्न मान्यताओं को उद्धृत किया है। इस क्षेत्र का विस्तार- खण्डवा, बुरहानपुर, खरगोन, बड़वानी और हरदा जिलों में बताया है। यहाँ पर विभिन्न शासकों के आधिपत्य का भी वर्णन किया है। निमाड़ी भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ और विशेष रूप से मालवी एवं निमाड़ के पुरुषवाची, क्रिया रूप आदि की तुलना तीनों कालों में तालिका द्वारा स्पष्ट की है।

मालवी साहित्य का इतिहास शीर्षक के अन्तर्गत मालवी साहित्य के इतिहास को तीन भागों प्राचीनकाल (700 ई. से 1350 ई.), मध्यकाल (1351 ई. से 1850 ई.) एवं आधुनिक काल (1851 ई. से निरन्तर) में विभाजित किया है। प्राचीन युगीन मालवी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों में सिद्ध, नाथ एवं जैन काव्यधारा का लोकव्यापी विस्तार स्पष्टतः परिलक्षित किया गया है, जैसे- मुनि देवसेन के दर्शनसार, महाकवि स्वयंभू के स्वयंभूछन्द, महाकवि धनपाल के पाइअलच्छी इत्यादि ग्रन्थों में मालवी भाषा से साम्य रखते हुए दोहों तथा डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित द्वारा किए गए इन दोहों के मालवी रूपान्तर भी प्रस्तुत किए हैं।
प्रो शर्मा के अनुसार मालवी का मध्ययुगीन काव्य भक्ति एवं दर्शन के सूत्रों से आप्लावित था। इस दौर में निर्गुण-सगुण भक्तिधारा का प्रवाह तथा उत्तर मध्यकाल में शृंगारपरक काव्यधारा का प्रवाह बताया है। इस युग में मालवी में भक्ति काव्य की धारा प्रबल रूप लेती हुई दर्शाई गई है,  जिसका महत्त्व भारतीय चिन्तनधारा के परिप्रेक्ष्य के साथ जुड़ने तथा उसे लोक-व्याप्ति और विस्तार देने में भी परिलक्षित किया गया है। साथ ही यहाँ के सन्तों पर अनेक तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों, नाथपंथियों, निर्गुण भक्त कवियों तथा मत-मतान्तरों का प्रभाव बताया है। इसी युग में निर्गुणोपासक के रूप में संत कवि पीपाजी, सगुण भक्ति काव्यधारा को समृद्ध करने में चन्द्रसखी और शृंगारपरक काव्य सृजन के लिए रानी रूपमती के अप्रतिम योगदान को उदाहरण सहित विस्तार से उद्घाटित किया है।

आधुनिक काल में श्री नारायण व्यास ने मालवी में रामायण की रचना की थी। पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास ने स्वयं मालवी में लेखन किया और इसकी प्रगति के लिए निरंतर सक्रिय रहे। पन्नालाल शर्मा ‘नायाब’ ने मालवी में एकांकी एवं कविताएं रचीं। मालवी कवि एवं गीतकारों में प्रमुख रूप से आनन्दराव दुबे, पूनमचन्द सोनी, गिरवरसिंह भँवर, नरेन्द्रसिंह तोमर, हरीश निगम, मदनमोहन व्यास, बालकवि बैरागी, नरहरि पटेल, सुल्तान मामा, पुखराज पांडे, मोहन सोनी, डॉ शिव चौरसिया, जगन्नाथ विश्व, झलक निगम, नरेंद्र श्रीवास्तव नवनीत, मनोहरलाल कांठेड़, परमानन्द शर्मा अमन, हास्य-व्यंग्यपरक काव्यधारा में भावसार बा, प्रकृतिपरक खण्डकाव्य के रचनाकार डॉ. राजेश रावल ‘सुशील’, मालवी में रेडियो नाटक और सामयिक लेख लिखने वाले वरिष्ठ कवि सतीश श्रोत्रिय, मालवी गीत-गज़ल के साथ-साथ मुक्त छंद और हाइकू में भी सिद्धहस्त बंसीधर बंधु, अशोक आनन, डॉ देवेंद्र जोशी आदि,  मालवी हाइकू के आरम्भकर्ता सतीश दुबे एवं इसे समृद्ध करने वाले रचनाकारों में ललिता रावल और रामप्रसाद सहज इत्यादि मालवी के प्रख्यात कवियों एवं साहित्यकारों की रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की है, जिनसे इन रचनाकारों का मालवी भाषा को विशिष्ट अवदान ज्ञात होता है। उपर्युक्त साहित्यकारों के अतिरिक्त शताधिक मालवी रचनाकारों, मालवा क्षेत्र में रहकर शोध करने वाले अध्येताओं एवं गद्यकारों का भी उल्लेख समीक्षक डॉ शर्मा ने किया है।

नाट्य-साहित्य शीर्षक के अन्तर्गत मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक-नाट्य ‘माच’ को माना है। यह लोक-नाट्य, लोकरंजन और लोकमंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। इसकी उत्सभूमि उज्जैन एवं इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान लेखक ने प्रतिपादित किया है। माच के प्रवर्तक गुरु गोपाल जी हैं। इनके द्वारा प्रणीत लोकप्रिय खेलों में गोपीचन्द, प्रहलाद चरित्र और हीर-रांझा का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त माच परम्परा को आगे बढ़ाने वाले गुरुओं के नाम के साथ ही इनके द्वारा निर्मित माच के नाम भी उद्धृत किए गए हैं, जैसे- गुरु बालमुकुन्द जी- गेंन्दापरी, राजा हरिश्चन्द्र, रामलीला, ढोला मारूनी, राजा भरथरी आदि; गुरु रामकिशन जी- मधुमालती, पुष्पसेन, विक्रमादित्य, सिंहासन बत्तीसी, गोपीचन्द आदि; श्री सिद्धेश्वर सेन- राजा रिसालू, प्रणवीर तेजाजी, राजा भरथरी, सत्यवादी हरिश्चन्द्र इत्यादि। इस प्रकार लोक-नाट्य ‘माच’ का विस्तृत विवेचन किया गया है।

गद्य-साहित्य शीर्षक के अन्तर्गत आधुनिक युग में मालवी गद्य के पुरोधा के रूप में पन्नालाल नायाब का नाम विशेष रूप से एकांकी विधा में अविस्मरणीय योगदान के लिए उद्घाटित किया है। पुस्तक में मालवी के कई गद्यकारों द्वारा कहानी, लघुकथा, निबन्ध, उपन्यास इत्यादि विधाओं के विकास में विशिष्ट भूमिका निभाने का उल्लेख मिलता है। मालवी में आधुनिक कथा-साहित्य के  विकास पर विस्तार से चर्चा करते हुए मालवी गद्य को श्रीनिवास जोशी के अद्वितीय अवदान को प्रतिपादित किया है। पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास के मालवी काव्य एवं गद्य तथा श्रीनिवास जोशी की कथा परम्परा को आगे बढ़ाने वाले साहित्यकारों में चन्द्रशेखर दुबे, ललिता रावल, डॉ. पूरन सहगल, डॉ. तेजसिंह गौड़, विश्वनाथ पोल, अरविन्द नीमा ‘जय’, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, रचनानन्दिनी सक्सेना, सतीश श्रोत्रिय, राधेश्याम परमार ‘बन्धु’ इत्यादि का उल्लेख किया है। इन रचनाकारों ने  उपन्यास, कहानी, कविता, लघुकथा, व्यंग्य, प्रहसन, निबन्ध, समीक्षा आदि विधाओं में सक्रिय भूमिका निभाई है। साथ ही मालवी भाषा में लेख, टिप्पणी, अनुवाद तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख उपलब्ध होने का उल्लेख किया है। मालवी भाषा, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में योगदान देने वाले एवं मालवी में वैचारिक और समीक्षात्मक निबन्ध की प्रगति में योगदान देने वाले सुधी विद्वानों के नाम भी उल्लेखित किए हैं।

निमाड़ी साहित्य शीर्षक को लेकर निमाड़ी भाषा के शुरूआती रचनाकारों में सन्त लालनाथ गीर (1400 ई. के आसपास), सन्त जगन्नाथ गीर (1440 ई. के आसपास), सन्त ब्रह्मगीर (1470 ई. के आसपास) एवं सन्त मनरंगगीर (सन् 1500 ई. के आसपास), सन्त कवि सिंगाजी इत्यादि की रचनाओं से उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवियों का उल्लेख किया है। आधुनिक युग में निमाड़ी लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास से परिचित करवाने के लिए पं. रामनारायण उपाध्याय के योगदान का विशेष रूप से उल्लेख किया है। निमाड़ी कविता, निमाड़ी अनुवाद, व्यंग्यात्मक कविता, गीत, निमाड़ी-हिन्दी शब्दकोश, निमाड़ी व्याकरण एवं निमाड़ी में पद्यानुवाद करने वाले सभी विद्वानों के योगदान पर प्रकाश डाला गया है।

स्वातंत्र्योत्तर दौर में निमाड़ी साहित्य को अनेक कवि, गद्यकार और शोधकर्ताओं ने समृद्ध किया है, उनमें गौरीशंकर शर्मा गौरीश, प्रभाकर दुबे, बाबूलाल सेन, जगदीश विद्यार्थी, ललितनारायण उपाध्याय, गेंदालाल जोशी ‘अनूप’, वसन्त निरगुणे, डॉ. श्रीराम परिहार, शिशिर उपाध्याय, जगदीश जोशीला, कुंवर उदयसिंह अनुज, सदाशिव कौतुक, हेमन्त उपाध्याय, प्रमोद त्रिवेदी पुष्प इत्यादि का विभिन्न विधाओं में योगदान बताते हुए अनेक समकालीन निमाड़ी कवियों के नाम उल्लेखित किए हैं। अन्त में स्वयं का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक के द्वितीय भाग में संत पीपा, संत सिंगाजी, आनन्दराव दुबे, मदनमोहन व्यास, मोहन सोनी, बालकवि बैरागी, भावसार बा, नरहरि पटेल, शिव चौरसिया एवं श्रीनिवास जोशी आदि रचनाकारों के अवदान एवं उनकी चयनित रचनाओं का समावेश किया गया है।

प्रस्तुत पुस्तक में मालवी भाषा, साहित्य एवं इतिहास का जैसा बहुआयामी, विशद, गम्भीर और वस्तुनिष्ठ विवेचन दिखाई देता है, वैसा मालवी साहित्य विषयक किसी अन्य पुस्तक में  उपलब्ध नहीं है। मालवी भाषा और साहित्य के विविध पक्षों पर चर्चा करते हुए एवं स्थान-स्थान पर प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग करते हुए  डॉ. शर्मा अपने मौलिक एवं गम्भीर चिन्तन का परिचय देते हैं। डॉ. शर्मा की अतिसूक्ष्म विश्लेषण पद्धति ने इसे मालवी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में स्थापित कर दिया है।

दो भागों में विभक्त यह पुस्तक मालवी  साहित्य से सम्बद्ध समस्त पक्षों का न सिर्फ अन्वेषण करती है, वरन् तर्कपूर्ण ढंग से उसका समग्र भी मूर्त कर देती है। मालवी भाषा और साहित्य विषय के विवेचन हेतु लेखक द्वारा अपेक्षित सभी शीर्षकों पर विस्तार से चर्चा की गई है।  लेखक मालवी भाषा और साहित्य के सभी पक्षों पर महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए विषय के साथ न्याय करने में  पूर्णतः सफल रहे हैं।

लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने पुस्तक को सरल एवं सरस स्वरूप प्रदान करने की दृष्टि से परिनिष्ठित खड़ी बोली एवं मुहावरों, दोहों एवं कहावतों में मालवी भाषा का भी प्रयोग किया है तथा स्थान स्थान पर वर्णनात्मक, विवरणात्मक एवं विश्लेषणात्मक शैली का प्रयोग करते हुए अपनी पुस्तक को सरस एवं आकर्षण स्वरूप में उपस्थित कर दिया है।

इस पुस्तक की मुख्य उपलब्धि मालवी भाषा को अपने आप में एक विलक्षण भाषा के रूप में स्थापित करना है। पुस्तक के अन्त में मूल्यवान सन्दर्भ ग्रन्थ सूची दी गई है, जो पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए दिशा-निर्देश का कार्य करेगी। इसमें मालवी भाषा और उसके साहित्य के विभिन्न आयामों को लेकर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जो इस क्षेत्र के सभी पक्षों को उजागर करता है। मालवी भाषा के प्रख्यात रचनाकारों के अवदान और उनके उत्कृष्ट काव्य को इस पुस्तक के माध्यम से आस्वाद कर पाना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

पुस्तक का नाम : मालवी भाषा और साहित्य
लेखक एवं सम्पादक : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी,
              भोपाल
मालवी भाषा और साहित्य : शैलेंद्रकुमार शर्मा

20200505

देवनागरी विमर्श - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

देवनागरी विमर्श : एक विश्वकोशीय उपक्रम

सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 

Devnagari Vimarsha : Edited by Shailendrakumar Sharma 

भारतीय लिपि परम्परा में देवनागरी की भूमिका अन्यतम है। सुदूर अतीत में ब्राह्मी इस देश की सार्वदेशीय लिपि थी, जिसकी उत्तरी और दक्षिणी शैलियों से कालांतर में भारत की विविध लिपियों का सूत्रपात हुआ। इनमें से देवनागरी को अनेक भाषाओं की लिपि बनने का गौरव मिला। देवनागरी के उद्भव-विकास से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी के साथ हमकदमी तक समूचे पक्षों को समेटने का प्रयास है डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- देवनागरी विमर्श। देवनागरी लिपि के विविध पक्षों को समाहित करने का यह एक लघु विश्वकोशीय उपक्रम है।



शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक देवनागरी विमर्श Book of Shailendra Kumar Sharma

                 



















पुस्तक में लेखक एवं संपादक डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा का मन्तव्य है कि भाषा की वाचिक क्षणिकता को शाश्वतता में परिणत करने का लिखित माध्यम ‘लिपि’ मनुष्य द्वारा आविष्कृत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आविष्कारों में से एक है। भारतीय सन्दर्भ में देखें तो ब्राह्मी की विकास यात्रा से उपजी देवनागरी लिपि पिछली एक सहस्राब्दी से भारत के अधिसंख्यक निवासियों की भाषाओं की स्वाभाविक लिपि बनी हुई है। संस्कृत जैसी प्राचीन भाषाओें के साथ ही हिन्दी, मराठी, कोंकणी, नेपाली आदि आधुनिक भाषाओं तथा अनेक जनजातीय एवं लोक बोलियों को एक सूत्र में पिरोने की दृष्टि से देवनागरी का महत्त्व निर्विवाद बना हुआ है, वहीं देश की ऐसी अनेक लिपियों से देवनागरी के सहगोत्रजा भगिनीवत् सम्बन्ध हैं, जो ब्राह्मी और प्राचीन देवनागरी से उपजी हैं। पिछली दो-ढाई शताब्दियों में रोमन की षड्यंत्री दावेदारी के बावजूद देवनागरी निर्विकल्प और विकासशील बनी हुई है।

वैसे तो देवनागरी का अतीत बहुत पुराना है, किंतु पिछली एक सदी में देवनागरी ने जो यात्रा तय की है, वह उसके पहले की कई शताब्दियों में संभव नहीं थी। पिछली शती नागरी के समक्ष कई चुनौतियों को लेकर आई थी, जिनमें एक सार्वजनीन लिपि के रूप में रोमन को स्थापित करने के प्रयास को देखा जा सकता है। इसके विपरीत स्वाधीनता आंदोलन के उपकरणों में देवनागरी लिपि को स्थान देकर राष्ट्र नायकों ने इसकी महत्ता को रेखांकित किया था। अंततः विजय देवनागरी की ही हुई और उसे आजादी मिलने के बाद संविधान के अनुच्छेद 343 (एक) के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी की लिपि के रूप में अंगीकृत किया गया। वैसे तो राजकाज में देवनागरी की उपस्थिति सदियों से रही है, किंतु स्वाधीनता प्राप्ति के अनंतर इसमें एक नया मोड़ उपस्थित हुआ। आज तो यह देश की अनेक भाषाओं लोक एवं जनजातीय मूल्यों के साथ हमकदम होती हुई गतिशील बनी हुई है।

उच्चारणानुसारी लेखन की दृष्टि से ब्राह्मी मूल की लिपियों का अपना विशेष महत्त्व है, जिनमें से देवनागरी का तो संस्कृत जैसी परिष्कृत भाषा का शताब्दियों से संग साथ रहा है। फलतः उसमें उन तमाम ध्वनियों को वैज्ञानिक ढंग से लिप्यंकित करने की सामर्थ आ गई है, जो किसी भी अन्य लिपि के दायरे में नहीं आ पाते। फिर देवनागरी में अन्य भाषाओं से आगत ध्वनियों को भी लिप्यंकित करने के लिए समय-समय पर नए-नए लिपि चिह्न जुड़ते रहे हैं। ऐसे वर्णों में ड़, ढ़ और विदेशी भाषाओं में प्रचलित वर्णों में क़, ख़ जैसे नुक्ता युक्त ध्वनियों को देखा जा सकता है, जो संस्कृत में उपलब्ध नहीं हैं।

देवनागरी विमर्श पुस्तक को चार खण्डों में विभक्त किया गया है – भारतीय पुरा लिपि इतिहास और देवनागरी की विकास यात्रा; विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी का प्रयोग : स्थिति एवं संभावनाएं; सूचना प्रौद्योगिकी, भारतीय भाषाएं और विश्व लिपि देवनागरी तथा राष्ट्रीय भावात्मक एकता और देवनागरी लिपि। इस पुस्तक की संरचना में नागरी लिपि परिषद्, राजघाट, नई दिल्ली और कालिदास अकादेमी के सौजन्य-सहकार में मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र की महती भूमिका रही है। पुस्तक का संपादन डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा ने किया है और सम्पादन-सहकार संस्कृतविद् डॉ जगदीश शर्मा, साहित्यकार डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा, डॉ संतोष पण्ड्या और डॉ मोहसिन खान का है। यह ग्रन्थ प्रख्यात समालोचक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (4 जनवरी 1929 - 30 मार्च 2009) को समर्पित है। आवरण-आकल्पन कलाविद् अक्षय आमेरिया Akshay Ameria का है।


देवनागरी विमर्श
सम्पादक डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा
मालव नागरी लिपि अनुसंधान केंद्र, उज्जैन

आवरण - आकल्पन अक्षय आमेरिया Akshay Ameria



On google books :
Contributed articles on Devanagari script, presented at the Rāshṭrīya Nāgarī Lipi Saṅgoshṭhī, held at Ujjain in 2003, organized by Mālava Nāgarī Lipi Anusandhāna Kendra, Ujjaina, and Kālidāsa Akādemī, Ujjaina, sponsored by Nāgarī Lipi Parishad.

देवनागरी विमर्श पुस्तक का परिचय इस लिंक पर उपलब्ध है :

20200502

आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता / संपादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

आवरण - आकल्पन : Akshay Ameria
हिंदी एवं संस्कृत के कवि एवं शास्त्रज्ञ पण्डित नित्यानन्द शास्त्री कृत रामकथापरक काव्यों का विशिष्ट महत्त्व है। आलोचक और लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता आधुनिक राम काव्य परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण कृति रामकथा कल्पलता और शास्त्री जी की अन्य कृतियों की समीक्षा और अनेक दृष्टियों से विश्लेषण का प्रयास है। यहाँ पुस्तक की सम्पादकीय भूमिका के अंश प्रस्तुत हैं :

साहित्य मनीषी और सर्जकों की सुदीर्घ परंपरा भारतवर्ष का गौरव रही है। हमारे यहाँ ऐसे कई रचनाकार हुए हैं, जिन्हें कवि - आचार्य की संज्ञा दी गई है। वे कवि होने के पहले आचार्य भी हैं, इसीलिए उनकी सर्जना में शास्त्रज्ञता और कवित्व दोनों का संयोग वर्तमान है। बीसवीं शती के उल्लेखनीय रचनाकार नित्यानंद शास्त्री (1889 - 1961 ई.) एक कुशल शास्त्रज्ञ के साथ सर्जक भी थे। वे कवि - आचार्य की विरल होती परंपरा के सच्चे संवाहक थे। संस्कृत और हिंदी - दोनों में समान दक्षता से काव्य सर्जन उन्होंने किया। राघव और मारुति को उन्होंने विषमार्थ सिंधु को पार करने के लिए अवलंब माना था। इसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण काव्य ग्रंथों की रचना के माध्यम से की। इनमें श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्, रामकथा कल्पलता, हनुमद्दूतम्, मारुतिस्तवः आदि प्रमुख हैं। राम की मूलकथा के रूप में वाल्मीकि रामायण सदा उनके दृष्टि पथ में रही है। इस ग्रंथ के प्रति उनका अविचल श्रद्धा भाव श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् के माध्यम से प्रकट हुआ है, शाब्दिक रूप से ही नहीं, उसकी शैली और वर्ण्य के अनुसरण के रूप में भी। पंडित शास्त्री जी का यह महाकाव्य भाव, भाषा और शिल्प के अनेकानेक रत्नों से समृद्ध है। इस रूप में वह अपनी संज्ञा को सार्थक करता है। संस्कृत काव्य जगत् में शास्त्री जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनके हिंदी महाकाव्य रामकथा कल्पलता को बीसवीं शती के रामकाव्य परंपरा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने संस्कृत चित्रकाव्य परंपरा की सुवास जनभाषा में उतारने का चुनौतीपूर्ण और श्रम साध्य प्रयत्न किया है।


शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता Book of Shailendra Kumar Sharma


रामकथा हर युग, हर परिवेश के लिए कांक्षित फल देने वाली है, उसे कल्पलता का गौरव ऐसे ही नहीं मिला है। स्वयं शास्त्री जी के लिए भी वह अपनी संज्ञा सार्थक कर गई है। कवि ने वाल्मीकि रामायण को उपजीव्य रूप में लेने के बावजूद कई नए प्रसंग, नई कल्पनाओं का समावेश कथा प्रवाह में किया है। ये प्रसंग रंजक होने के साथ ही कवि के कौशल का आभास देते हैं। कवि अपने युग परिवेश से विमुख नहीं है। उन्हें जहां अवसर मिला है, रामकथा के प्रवाह में अपने समय और समाज को भी अंकित करते चलते हैं। गांधी युग के इस रचनाकार ने स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन के स्पंदन को महसूस किया था और उसी ने उन्हें भारतभूमि के नव गौरव - गान के लिए प्रेरित किया। इसीलिए वे गा उठते हैं - हमें हैं मान भारत का। नल – नील, हनुमान आदि तो जैसे उनके समकालीन सेनानी हों, इसीलिए ठीक सेतु बंध के बीच भारत की महिमा गाते हुए दिखाई देते हैं:

अहा! ये पाद प्यारे हैं, जलधि जल से पखारे हैं।
मनोरथ सिद्ध सारे हैं, हमें हैं मान भारत का।
अहो! वीरो! उठो, आओ, कमर कस काम जुट जाओ।
जयश्री को लिवा लाओ, हमें हैं मान भारत का।

नित्यानंद शास्त्री ने पहले राम के चरित्र का अंकन संस्कृत महाकाव्य श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् के माध्यम से किया था। उसके बाद लोगों ने कृति के हिंदी पद्यानुवाद के लिए आग्रह किया, तब वे उसके स्थान पर स्वतंत्र काव्य रचना के लिए तत्पर हो गए और रामकथा कल्पलता का सृजन संभव हुआ। उनका विचार था, मुझे उस समय इस बात का पूरा अनुभव हो चुका था कि संस्कृत के श्लेषादि जटिल विषय को हिंदी पद्यानुवाद यथावत समझा नहीं सकता। श्लेष के वैशिष्ट्य को संस्कृत काव्य में उतारने में उनकी कुशलता जगह-जगह दिखाई देती है। किंतु वे यह भी स्वीकार करते हैं कि हिंदी में संस्कृत के कई श्लिष्ट पदों का आशय नहीं निकल सकता और बिना उनके प्रयोग के मूल भाव की रक्षा नहीं हो सकती। ऐसे में उन्होंने हिंदी की प्रकृति के आधार पर युक्तियुक्त मार्ग अपनाया है। आचार्य शास्त्री के लिए संस्कृत में काव्य सृजन अत्यंत सहज था, लेकिन वे यह भी स्वीकार करते हैं कि सर्वसामान्य के लिए वह कविता तभी अर्थपूर्ण हो सकती है, जब उसे हिंदी में प्रस्तुत किया जाए। रामकथा कल्पलता की सर्जना और हनुमद्दूतम् के हिंदी पद्यानुवाद के पीछे उनकी यही दृष्टि काम कर रही थी। पंडित शास्त्री टकसाली भाषा में निष्णात थे। वे शब्दों को मात्र गढ़ते ही नहीं थे, उन्हें प्रयोग संस्पर्श भी देते थे। मात्र रामकथा कल्पलता के नवनिर्मित शब्दों का कोश बना लिया जाए तो वह स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है। परंपरागत और नए सभी प्रकार के छंदों पर उनकी गहरी पकड़ थी। अपने हिंदी महाकाव्य को एकरसता से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने छंद परिवर्तन की तकनीक का इस्तेमाल किया है। जहां कहीं उन्हें युक्तिसंगत प्रतीत हुआ, उन्होंने छंदों के चरण विशेष में अक्षरों द्वारा उन छन्दों के लक्षण भी प्रस्तुत कर दिए हैं। वे छन्दों का नियोजन प्रसंग और विषय के अनुरूप करने में सिद्धहस्त थे। मध्यकालीन दौर में विकसित हुए कई काव्य रूपों और नए प्रयोगों में आचार्य शास्त्री विशेष पटु थे। उनकी यह पटुता स्थान - स्थान पर परिलक्षित होती है। आशु कवित्व से लेकर समस्या पूर्ति और चित्रकाव्य तक उनके विलक्षण कौशल का परिचय हमें उनकी कृतियों में मिलता है। रामकथा कल्पलता जहां उनके लिए भक्तिपरकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है,  वहीं वे राम के लोकरंजनकारी आख्यान को जनमानस में प्रसारित करने के लिए इस दिशा में प्रवृत्त हुए। सर्वहित और अमंगलनिवारण से लेकर अलौकिक आनंद और मोक्ष जैसे प्रयोजनों तक के फैलाव को समेटती है उनकी कविता।

पंडित शास्त्री जी के कई ग्रंथ वर्षों पूर्व श्री वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई एवं अन्य संस्थानों से प्रकाशित हुए थे। उन पर अध्येताओं ने पर्याप्त कार्य भी किया, किंतु कालांतर में उनकी उपलब्धता न रही। ऐसे में उनके दौहित्र श्री ओमप्रकाश आचार्य ने ग्रंथों के पुनः प्रकाशन का बीड़ा उठाया। देवर्षि कलानाथ शास्त्री, जयपुर और पूर्व राजदूत डॉ वीरेंद्र शर्मा, दिल्ली ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।  कोलकाता में स्थापित आचार्य नित्यानंद स्मृति संस्कृत शिक्षा एवं शोध संस्थान पंडित शास्त्री जी के अवदान पर पुनर्विचार का अवसर दे रहा है।

इस पुस्तक में महाकवि शास्त्री जी के संक्षिप्त जीवन वृत्त और रचना संसार को समाहित करते हुए उनके महाकाव्य रामकथा कल्पलता के विविधायामी समीक्षण - विश्लेषण पर केंद्रित सामग्री सँजोई गई है। इस महाकाव्य के रचना सौष्ठव, कथा  उद्भावना, रसवत्ता, संवाद योजना, प्रमुख चरित्र, भक्ति तत्व आदि के साथ ही कृति के सांस्कृतिक, दार्शनिक, सामाजिक संदर्भों पर भी महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किए गए हैं। इन सभी आलेखों से कृति की व्याप्ति और विस्तार, अंतर्वस्तु और संरचना, शक्ति और सीमाओं का आकलन संभव हो सका है। इस दृष्टि से सभी विद्वान लेखकों के प्रति हम प्रणत हैं। शास्त्री जी की महत्वपूर्ण कृतियों श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्, श्री दधीचि चरित, बालकृष्ण नक्षत्रमाला आदि पर केंद्रित आलेख भी इसमें समाहित किए गए हैं।
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता
 संपादक : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रकाशक : आचार्य नित्यानंद स्मृति संस्कृत शिक्षा एवं शोध संस्थान, कोलकाता

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