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20170712

गजानन माधव मुक्तिबोध: एक रूपक - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

गजानन माधव मुक्तिबोध: एक रूपक
आलेख प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof Shailendrakumar Sharma

गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्मशती वर्ष पर आकाशवाणी के लिए तैयार किये गए विशेष रूपक का वीडियो रूपांतर यूट्यूब पर प्रस्तुत किया गया है। आकाशवाणी से प्रसारित इस रूपक का आलेख प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा का है।
साक्षात्कार: प्रो चंद्रकांत देवताले, प्रो प्रमोद त्रिवेदी, प्रो राजेन्द्र मिश्र, प्रो सरोज कुमार।
प्रस्तुति: सुधा शर्मा एवं जयंत पटेल।
वीडियो रूपान्तरण: प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा।
आभार: आकाशवाणी।
इस रूपक का वीडियो रूपांतर को यूट्यूब पर देखा जा सकता है: 



आधुनिक हिंदी कविता को कई स्तरों पर समृद्ध करते हुए नया मोड़ देने वाले रचनाकारों में गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। जन्मशताब्दी वर्ष पर मुक्तिबोध पर केंद्रित रूपक का प्रसारण आकाशवाणी, दिल्ली से  साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य भारती’ में हुआ था। इस रेडियो फ़ीचर का लेखन समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने किया है। रूपक में मुक्तिबोध के योगदान और रचनाओं के साथ उन पर केंद्रित वरिष्ठ साहित्यकारों के साक्षात्कार भी समाहित किए गए हैं। इनमें वरिष्ठ कवि प्रो चंद्रकांत देवताले, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी (उज्जैन), प्रो राजेन्द्र मिश्र और सरोज कुमार (इंदौर) शामिल हैं।

मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 को मध्य प्रदेश के श्योपुर कस्बे में हुआ था। उन्होंने स्कूली शिक्षा उज्जैन में रहकर प्राप्त की। 1935 में उज्जैन के माधव कॉलेज में पढ़ते हुए साहित्य लेखन आरंभ हुआ। उनकी आरंभिक कविताएँ माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘कर्मवीर’ सहित कई साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने बी. ए. की पढ़ाई इन्दौर के होल्कर कॉलेज से की थी। उनकी अधिकांश रचनाएँ 11 सितम्बर 1964 को निधन के बाद ही प्रकाशित हो सकीं। उनके कविता संग्रह हैं चांद का मुँह टेढ़ा है और भूरी भूरी खाक धूल, कहानी संग्रह हैं काठ का सपना, सतह से उठता आदमी तथा उपन्यास विपात्र भी चर्चित रहा है। उनकी आलोचना कृतियाँ में प्रमुख हैं- कामायनी: एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी। उनकी सभी रचनाएं 1980 में छह खंडों में प्रकाशित मुक्तिबोध रचनावली में संकलित हैं। मुक्तिबोध का सही मूल्यांकन उनके निधन बाद ही संभव हो पाया, लेकिन उनकी कविताएँ और विचार निरन्तर प्रेरणा देते आ रहे हैं।

मुक्तिबोध का उज्जैन से गहरा तादात्म्य था। सेंट्रल कोतवाली में आवास और माधव कॉलेज में अध्ययनरत रहे तार सप्तक के इस कवि का जन्मशती वर्ष मनाया गया। उज्जयिनी जैसे पुरातन नगर की कई छबियाँ उनकी कविताओं में नई अर्थवत्ता के साथ उतरी हैं। तार सप्तक के वक्तव्य में उन्होंने मालवा और उज्जैन को कुछ इस तरह याद किया है:

तार सप्तक/ गजानन माधव मुक्तिबोध / वक्तव्य

मालवे के विस्तीर्ण मनोहर मैदानों में से घूमती हुई क्षिप्रा की रक्त-भव्य साँझें और विविध-रूप वृक्षों की छायाएँ मेरे किशोर कवि की आद्य सौन्दर्य-प्रेरणाएँ थीं। उज्जैन नगर के बाहर का यह विस्तीर्ण निसर्गलोक उस व्यक्ति के लिए, जिसकी मनोरचना में रंगीन आवेग ही प्राथमिक है, अत्यन्त आत्मीय था।

उस के बाद इन्दौर में प्रथमतः ही मुझे अनुभव हुआ कि यह सौन्दर्य ही मेरे काव्य का विषय हो सकता है। इसके पहले उज्जैन में स्व. रमाशंकर शुक्ल के स्कूल की कविताएँ—जो माखनलाल स्कूल की निकली हुई शाखा थी- मुझे प्रभावित करती रहीं, जिनकी विशेषता थी बात को सीधा न रखकर उसे केवल सूचित करना। तर्क यह था कि वह अधिक प्रबल होकर आती है। परिणाम यह था कि अभिव्यंजना उलझी हुई प्रतीत होती थी। काव्य का विषय भी मूलतः विरह-जन्य करुणा और जीवन-दर्शन ही था। मित्र कहते हैं कि उनका प्रभाव मुझ पर से अब तक नहीं गया है। इन्दौर में मित्रों के सहयोग और सहायता से मैं अपने आन्तरिक क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और पुरानी उलझन-भरी अभिव्यक्ति और अमूर्त करुणा छोड़ कर नवीन सौन्दर्य-क्षेत्र के प्रति जागरूक हुआ। यह मेरी प्रथम आत्मचेतना थी। उन दिनों भी एक मानसिक संघर्ष था। एक ओर हिन्दी का यह नवीन सौन्दर्य-काव्य था, तो दूसरी ओर मेरे बाल-मन पर मराठी साहित्य के अधिक मानवतामय उपन्यास-लोक का भी सुकुमार परन्तु तीव्र प्रभाव था। तॉल्स्तॉय के मानवीय समस्या-सम्बन्धी उपन्यास—या महादेवी वर्मा ? समय का प्रभाव कहिए या वय की माँग, या दोनों, मैंने हिन्दी के सौन्दर्य-लोक को ही अपना क्षेत्र चुना; और मन की दूसरी माँग वैसे ही पीछे रह गयी जैसे अपने आत्मीय राह में पीछे रह कर भी साथ चले चलते हैं।

मेरे बाल-मन की पहली भूख सौन्दर्य और दूसरी विश्व-मानव का सुख-दुःख—इन दोनों का संघर्ष मेरे साहित्यक जीवन की पहली उलझन थी। इस का स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान मुझे किसी से न मिला। परिणाम था कि इन अनेक आन्तरिक द्वंद्वों के कारण एक ही काव्य-विषय नहीं रह सका। जीवन के एक ही बाजू को ले कर मैं कोई सर्वाश्लेषी दर्शन की मीनार खड़ी न कर सका। साथ ही जिज्ञासा के विस्तार के कारण कथा की ओर मेरी प्रवृत्ति बढ़ गयी।इस का द्वन्द्व मन में पहले से ही था। कहानी लेखन आरम्भ करते ही मुझे अनुभव हुआ कि कथा-तत्त्व मेरे उतना ही समीप है जितना काव्य। परन्तु कहानियों में बहुत ही थोड़ा लिखता था, अब भी कम लिखता हूँ। परिणामतः काव्य को मैं उतना ही समीप रखने लगा जितना कि स्पन्दन; इसीलिए काव्य को व्यापक करने की, अपनी जीवन-सीमा से उस की सीमा को मिला देने की चाह दुनिर्वार होने लगी। और मेरे काव्य का प्रवाह बदला।

मुक्तिबोध पर एकाग्र विशेष रूपक यहाँ प्रस्तुत है: प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा


















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