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20180125

जीवनानुभवों की संक्षिप्त - सुगठित, किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है लघुकथा : प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा | Interview with Prof. Shailendra Kumar Sharma

समालोचक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा से सन्तोष सुपेकर का साक्षात्कार


प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendrakumar Sharma
(समीक्षक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डा शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र एवं भारतीय भक्ति साहित्य केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। तीन दशकों से आलोचना, निबंध-लेखन, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय प्रो शर्मा ने पैंतीस से अधिक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन किया है। शोध स्तरीय पत्रिकाओं और ग्रन्थों में आपके 300 से अधिक शोध एवं समीक्षा निबंधों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 800 से अधिक कला एवं रंगकर्म समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा जाने-माने समीक्षक एवं लघुकथा के अध्येता हैं। सम्प्रति विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिन्दी विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष  के रूप में कार्यरत हैं।  प्रस्तुत है, वरिष्ठ लघुकथाकार और कवि संतोष सुपेकर द्वारा लघुकथा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनसे की गई बातचीत।) 

संतोष सुपेकर : सहस्रों वर्ष लम्बी लघुकथा परम्परा में इस विधा की शर्तें कमोबेश तय हो चुकने के बावजूद, डॉ. गोपाल राय द्वारा लिखित ‘हिन्दी कहानी का इतिहास’ में लघुकथा को कथा-साहित्य के नौ पदों में से एक स्वीकारने जैसी उपलब्धि के बाद भी एक विधा के रूप में लघुकथा को स्थान देने या न देने के प्रश्न क्यों उठते रहते हैं?


शैलेंद्रकुमार शर्मा :  लघुकथा एक स्वतंत्र और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हमारे वृहत् जीवनानुभवों की संक्षिप्त, सुगठित किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति का नाम लघुकथा है। यह वर्णन या विवरण के बजाय संश्लेषण में विश्वास करने वाली साहित्यिक विधा है, जिसकी परिणति प्रायः विस्फोटक होती है। बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते इस विधा ने नए-नए अनुभव क्षेत्रों और अभिव्यक्तिगत आयामों को छूते हुए अपनी विलक्षण पहचान बना ली है। शैलीगत परिमार्जन के बाद लघुकथा का स्वरूप अब और अधिक स्पष्ट और सुसंयत होता जा रहा है। ऐसे दौर में लघुकथाकारों का दायित्व भी बढ़ा है। उन्हें लघुकथा परम्परा में आए बदलावों को लक्षित कर अपनी पहचान बनानी होगी। इसके साथ सम्पादकों का भी दायित्व बनता है कि वे उन्हीं लघुकथाओं को स्थान दें, जो इसकी परम्परा को समृद्ध करती हैं। अन्यथा कमजोर लघुकथाओं के लेखन/प्रकाशन से यह प्रश्न बारम्बार उभरता रहेगा कि इसे स्वतंत्र विधा माना जाये या नहीं? कभी बिहारी के दोहों  के लिए कहा गया था, ‘‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर।’’ यह बात आज की लघुकथाओं पर खरी उतर रही है। इसे शुभ संकेत माना जा सकता है।



सन्तोष सुपेकर Santosh Supekar
संतोष सुपेकर : ‘लघुकथा’ शब्द का नामकरण कब और कैसे हुआ? बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखी गईं लघुकथाएँ क्या ‘लघुकथा’ नाम से ही प्रकाशित होती थीं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  दृष्टांत, नीति या बोध कथा के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से होता आ रहा है। मूलतः दृष्टांतों के रूप में लघुकथाएँ विकसित हुईं। इस प्रकार के दृष्टांत नैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। नैतिकतापरक लघुकथाओं में हम पंचतंत्र, हितोपदेश, महाभारत, बाइबिल, जातक, ईसप आदि की कथाओं को रख सकते हैं। इसी प्रकार धार्मिक दृष्टांतों के रूप में भी देश-विदेश में लघुकथाओं के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। इधर आधुनिक युग में ‘लघुकथा’ नामकरण काफी बिलंब से हुआ है, किन्तु यह तय बात है कि इस नए अवतार में लघुकथा ने शताब्दियों की यात्रा दशकों में तय कर ली है।

‘लघुकथा’ शब्द मूल रूप में अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ का सीधा अनुवाद है, किन्तु इसके तौल का एक और शब्द ‘कहानी’ हिन्दी में रूढ़ हो चुका है। इधर कहानी और लघुकथा- दोनों अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। लघुकथा को कहानी का सार या संक्षिप्त रूप मानना उचित नहीं होगा। लघुकथा बनावट और बुनावट में कहानी से अपना स्वतंत्र अस्तित्व और महत्व रखती है। 

आधुनिक काल में हिन्दी लघुकथा की शुरूआत सन् 1900 के आसपास मानी जा सकती है। माखनलाल चतुर्वेदी की ‘बिल्ली और बुखार’ को पहली लघुकथा माना जा सकता है। इस शृंखला में माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ते चले गए। सप्रे जी के विशिष्ट अवदान को दृष्टिगत रखते हुए उनके जन्मदिवस पर 19 जून को लघुकथा दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रेमचंद ने अपने सृजन के उत्कर्ष काल में कई लघुकथाएँ लिखीं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो सखियाँ, जादू आदि। प्रसाद की गुदड़ी के लाल, अघोरी का मोह, करुणा की विजय, प्रलय, प्रतिमा, दुखिया, कलावती की शिक्षा आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण हैं। बंगला साहित्य में भी टैगोर, बनफूल ने महत्वपूर्ण लघुकथाएँ रचीं हैं। हिन्दी में सुदर्शन, रावी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, रांगेय राघव आदि ने मार्मिक लघुकथाएँ लिखीं। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए - उपेन्द्रनाथ अश्क,  रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकान्त वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. सतीश दुबे, सतीश राठी, जगदीश कश्यप, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. कृष्ण कमलेश, चित्रा मुद्गल, मालती जोशी, कमल गुप्त, विक्रम सोनी, भगीरथ, युगल, रमेश बतरा, डॉ. श्यामसुंदर व्यास, पारस दासोत, विक्रम सोनी, मुकेश शर्मा, सूर्यकांत नागर, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, मधुदीप गुप्ता, सुरेश शर्मा, माधव नागदा, डॉ योगेंद्रनाथ शुक्ल, योगराज प्रभाकर, सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’, अरविंद नीमा, मीरा जैन, कांता राय, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, राजेन्द्र देवधरे दर्पण आदि। युवा लघुकथाकारों के जुड़ने से यह सिलसिला आज भी जारी है। 

हाल के दौर में सुधी कथाकार मधुदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनके संयोजन-सम्पादन में लघुकथा के सृजन-आलोचन की अविराम शृंखला पड़ाव और पड़ताल अनेक खण्डों में और प्रमुख लघुकथाकारों के प्रतिनिधि संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इसमें मुझे भी एक समीक्षक के रूप में सहभागी  बनने का अवसर मिला है। 

सुधी लघुकथाकार और सम्पादक श्री सतीश राठी विगत कई दशकों से क्षितिज के माध्यम से लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। 

शुरुआती दौर में लघुकथा जैसी स्वतंत्र संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा ‘कहानी’ से बिलगाव बताने के लिए प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने ‘लघुकथा’ के अतिरिक्त नई संज्ञाएं या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे मिनी कहानी, मिनीकथा, कथिका, अणुकथा, कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि; लेकिन ये संज्ञाएँ पानी के बुलबुले के समान बहुत कम समय में निस्तेज हो गईं।

संतोष सुपेकर : आपने कहीं कहा है कि अतिशय स्पष्टीकरण लघुकथा की मारक क्षमता को कम करता है। अपने इस कथन के संदर्भ में लघुकथा के आकार पर प्रकाश डालें। यह भी बताएँ कि क्या रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक को सोचने के लिए छोड़ दिया जाए, अलिखित?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही मितकथन लघुकथा की अपनी मौलिक पहचान है। अतिशय स्पष्टीकरण या वर्णन के लिए लघुकथा में अवकाश नहीं है। आकार की दृष्टि से लघुकथा को शब्द या पृष्ठों की गणना में बाँधना संभव नहीं है। अनुभूति की सघनता, शब्दों की मितव्ययता, सुगठित बनावट और लघुता-इसे विलक्षण बनाती है। वैसे तो लघुकथा के लिए कोई सुनिश्चित फार्मूला बनाना इसके साथ अन्याय होगा, फिर भी यह तय बात है कि रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक के लिए छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा।

संतोष सुपेकर : ऐसा कहा गया है कि लघुकथा का शीर्षक तो दूर पहाड़ी पर बने मंदिर के समान होना चाहिए। इस संदर्भ में लघुकथा में शीर्षक की भूमिका पर अपने विचार बताएँ। 

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा के शीर्षक की अपनी विलक्षण भूमिका होती है। कहीं यह उसके मूल मर्म को संप्रेषित करता है, तो कहीं उसके संदेश को। कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा के कथ्य का विस्तार करता है। इसका शीर्षक देना अपने आप में चुनौती भरा काम है। इसमें सर्जक से अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा होती है।

संतोष सुपेकर : एक कथ्य, जो लघुकथा में माध्यम बनता है, कहानी में अपना प्रभाव खो देता है, आप क्या कहना चाहेंगे?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही किसी भी विधा या रूप का रचाव कथ्य की जरूरतों पर निर्भर करता है। इसलिए जो कथ्य लघुकथा के अनुरूप होता है, वह कहानी या किसी भी दूसरी विधा में जाकर अपना प्रभाव खो देगा।

संतोष सुपेकर : प्रेमचंद के अनुसार अतियथार्थवाद निराशा को जन्म देता है। आज की लघुकथाओं में छाया अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश कर रहा है?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  आज की लघुकथाएँ हमारे वैविध्यपूर्ण जीवनानुभवों को मूर्त कर रही हैं। आज का पाठक सभी प्रकार की लघुकथाओं से गुजरते हुए अपनी संवेदनाओं का विकास करता है। केवल निराश होने जैसी कोई बात नहीं है। 

संतोष सुपेकर : डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार लघुकथा एक लेखकहीन विधा है। क्या लघुकथाकार को हमेशा रचना में अनुपस्थित ही होना चाहिए? 

शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथा को लेखकहीन विधा कहना उचित नहीं है। एक ही कथ्य को लघुकथा में दर्ज करने का हर लेखक का अपना ढंग होता है। श्रेष्ठ लघुकथाओं में लेखक की उपस्थिति सहज ही महसूस की जा सकती है।

संतोष सुपेकर : फ्लैश/कौंध रचनाओं (चौंकाने वाली) को कुछ विद्वान अगंभीर लघुकथा लेखन मानते हैं, जबकि कुछ इसके पक्ष में हैं। हरिशंकर परसाईं ने एक साक्षात्कार में कहा था कि लघुकथा में चरम बिंदु का महत्व होना ही चाहिए, आपकी राय?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  चौंकाने वाली लघुकथाएँ भी समकालीन लघुकथा लेखन को एक खास पहचान देती हैं। इन्हें अगंभीर लेखन मानना उचित नहीं है। लघुकथा में चरम या समापन बिन्दु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इससे लघुकथा का निहितार्थ असरदार ढंग से पाठक तक पहुँचता है।

संतोष सुपेकर : लघुकथा में क्या पद्यात्मक पंक्तियों की गुंजाइश है? ऐसी आवश्यकता महसूस हो तो लेखक क्या करे?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  लेखकीय आवश्यकता के अनुरूप या अन्य प्रकार के प्रयोगों के लिए लघुकथा में पर्याप्त गुंजाइश है। ये सारे प्रयोग अंततः लघुकथा की सम्प्रेषणीयता में साधन ही बन सकते हैं, यही इनकी सार्थकता है।

संतोष सुपेकर : लघुकथा को और सशक्त होने के लिए क्या आवश्यक मानते हैं- संकलनों का प्रकाशन, समीक्षा गोष्ठियों, लघुकथा सम्मेलनों का आयोजन, रचनात्मक आन्दोलन या कुछ और?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  वर्तमान दौर में लघुकथाएँ बड़े पैमाने पर लिखी जा रही हैं। कुछ रचनाकार इसे बेहद आसान रास्ते के रूप में चुन रहे हैं। इसीलिए कई ऐसी रचनाएँ भी आ रही हैं, जिन्हें लघुकथा कहना उचित नहीं लगता है। वे महज हास-परिहासनुमा संवाद या किस्सों से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इसलिए जरूरी है कि लघुकथा सृजन की कार्यशालाएँ समय-समय पर आयोजित हों, जहाँ इस विधा से जुड़े वरिष्ठ सर्जक और विद्वान भी जुटें। श्रेष्ठ रचनात्मकता के लिए महज आंदोलनधर्मिता से कुछ नहीं  हो सकता है। इसके लिए गंभीर प्रयास जरूरी हैं। लघुकथा कार्यशाला, परिसंवाद, समीक्षा गोष्ठी, सम्मेलन और प्रकाशन-इन सभी की सार्थक भूमिका हो तो बात बने।

संतोष सुपेकर : कथ्य चयन, कथ्य विकास तथा भाषा-शैली क्या कहानी की तुलना में लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की माँग करते हैं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  कथ्य चयन, उसका विकास और अभिव्यक्ति के उपादान-सभी दृष्टियों से लघुकथा क्षणों में बँटे जीवन के कोमल और खुरदरे यथार्थ की निर्लेप और संक्षिप्त अभिव्यक्ति होती है। इसलिए थोड़े में बहुत कहने की जिम्मेदारी एक लघुकथाकार की होती है। कहानीकार इससे मुक्त हो सकता है, लघुकथाकार नहीं।

संतोष सुपेकर : श्रेष्ठ विधा वही है जो कागज पर खत्म होने के बाद पाठक के मस्तिष्क में प्रारम्भ हो और उसे सोचने के लिए विवश करे। इस कथन के मद्देनजर विषयवस्तु का दोहराव क्या लघुकथा के विकास में बाधक बन रहा है?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही लघुकथा के सामने एक बड़ी चुनौती उसके दीर्घकालीन और सघन प्रभाव से जुड़ी हुई है। लघुकथाकारों को अपने अनुभव क्षेत्र को विस्तार देते हुए सृजनरत रहना चाहिए अन्यथा विषयवस्तु का दोहराव लघुकथा के विकास में बाधक बना रहेगा।

संतोष सुपेकर : हिंदी लघुकथा के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा का भविष्य अधिक उज्ज्वल है। समय के अभाव और जनसंचार माध्यमों के अकल्पनीय विस्तार के बीच लघुकथा के लिए पर्याप्त स्पेस अब भी बना हुआ है। इस स्पेस को पहचानकर लघुकथाकार उसका बेहतर उपयोग करेंगे, ऐसी आशा व्यर्थ न होगी। 

संतोष सुपेकर : प्रतीकात्मक लघुकथाओं पर अपने विचार बताएँ?

शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथाओं में प्रतीकों की विशिष्ट भूमिका होती है। सार्थक प्रतीक-प्रयोग से रचनाकार अपनी रचना को देशकाल के कैनवास पर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य दे सकता है।


-प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
-संतोष सुपेकर, 31, सुदामा नगर, उज्जैन (म.प्र.)

(यह विशेष साक्षात्कार लघुकथाकार श्री उमेश महादोषी के संपादन में प्रकाशित अविराम साहित्यिकी के लघुकथा विशेषांक के लिए लिया गया था, जिसके अतिथि संपादक सुधी साहित्यकार श्री बलराम अग्रवाल थे।)

20150523

फार्मूलाबद्ध लेखन से परे युगल की लघुकथाएँ - प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी लिए युगल की लघुकथाएँ
              प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा समकालीन साहित्य की एक अनिवार्य और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो गई है। नई सदी में यह सामाजिक बदलाव को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विशेष तौर पर मूल्यों के क्षरण के दौर में अनेक लघुकथाकार तीखा शर- संधान कर रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सजग क्रियाशीलता और प्रतिबद्धता से लघुकथा की अन्य विधाओं से विलक्षणता को न सिर्फ सिद्ध कर दिखाया है, वरन उससे आगे जाकर वे निरंतर नए अनुभवों के साथ नई सौंदर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं। लघुकथा विशद जीवनानुभवों की सुगठित, सघन, किन्तु तीव्र अभिव्यक्ति है। यह कहानी का सार या संक्षिप्त रूप न होकर बुनावट और बनावट में स्वायत्त है। यह ब्योरों में जाने के बजाय संश्लेषण से ही अपनी सार्थकता पाती है।एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके आण्विक कलेवर में 'यद्पिंडे तद्ब्रह्मांडे' के सूत्र को साकार कर सकता है। वह वामन चरणों से विराट को मापने का दुरूह कार्य अनायास कर जाता है।

वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टांत के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से जारी है, किन्तु इसे साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठा हाल के दौर में ही मिली । नए आयामों को छूते हुए इस विधा ने सदियों की यात्रा दशकों में कर ली है। प्रारंभिक तौर पर माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कई प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इस विधा के गठन में अपनी समर्थ भूमिका निभाई । फिर तो कई लोग जुडने लगे और यह एक स्वतंत्र विधा का गौरव प्राप्त करने में कामयाब हुई। शुरूआती दौर में इसकी कोई मुकम्मल संज्ञा तो नहीं थी, कालांतर में इस संज्ञा को व्यापक स्वीकार्यता मिल गई। यद्यपि समय – समय पर कई संज्ञाएँ भी अस्तित्व में आईं,  किन्तु वे स्थिर न रह सकीं।     
     
बिहार की सृजन उर्वरा भूमि के रत्न,  वरिष्ठ कथाकार युगल जी (जन्म : 17 अक्टूबर, 1925 निधन : 26 अगस्त, 2016) ने लघुकथा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम देर से ही बनाया, किन्तु वे लघुकथा के विधागत गठन में योगदान देने वाले प्रमुख सर्जकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने अपने रचना काल के चार दशक उपन्यास, पूरी तरह कहानी, नाटक, कविता जैसी विविध विधाओं के सृजन को दिए। फिर 1985-86 के आसपास लघुकथा पर विशेष फोकस किया। तब तक विधा के नाम और आकार से जुड़ी बहस थम चुकी थी। तब से वे अन्य माध्यमों के साथ- साथ लघुकथाओं के सृजन को भी बेहद संजीदगी और निष्ठा से लेते रहे। उन्होंने तीन उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तीन नाटक, दो कविता संग्रह और दो निबंध संग्रहों के साथ पाँच लघुकथा संग्रह दिए हैं। वे महज बंद कमरों में बैठकर रचना करने वाले लेखक नहीं हैं। उन्होंने जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जो भी देखा-भोगा, उसे लघुकथाओं के जरिये साकार कर दिखाया है। लघुकथा के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रणीत संचयन - उच्छवास, फूलों वाली दूब, गरम रेत, जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई और पड़ाव के आगे पर्याप्त चर्चित और प्रशंसित रहे हैं।    
लघुकथाकार युगल Laghukatha kar Yugal


लघुकथा के क्षेत्र में फार्मूलाबद्ध लेखन बड़ी सीमा के रूप में दिखाई दे रहा है, वहीं युगल जी उसे निरंतर नया रूपाकार देते आ रहे। उनकी लघुकथाओं में इस विधा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी लघुकथाओं में प्रतीयमान अर्थ की महत्ता निरंतर बनी हुई है। भारतीय साहित्यशास्त्र में ध्वनि को काव्यात्मा के रूप प्रतिष्ठित करने के पीछे ध्वनिवादियों की गहरी दृष्टि रही है। वे जानते थे कि शब्द का वही अर्थ नहीं होता है जो सामान्य तौर पर हम देखते-समझते हैं। साहित्य में निहित ध्वनि तत्व तो घंटा अनुरणन रूप है, जिसका बाद तक प्रभाव बना रहता है। अर्थ की इस ध्वन्यात्मकता को युगल जी ने अनायास ही साध लिया था। उनकी अनेक लघुकथाएँ इस बात का साक्ष्य देती हैं।

युगल जी की निगाहें  कथित आधुनिक सभ्यता में मानव मूल्यों के क्षरण पर निरंतर बनी रही है। इसी परिवेश में कथित सभ्य समाज के अंदर बैठे आदिम मनोभावों को उनकी लघुकथा ‘जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई' पैनेपन के साथ प्रत्यक्ष करती है। मेले में खबर उड़ती है कि द्रौपदी चीरहरण खेल में द्रौपदी की भूमिका में युवा पंचमबाई उतरेंगी और दुःशासन द्वारा उसका चीरहरण यथार्थ रूप में मंचित होगा। रंगशाला में दर्शकों की भीड़ उमड़ आती है। अंततः द्रौपदी तो नग्न नहीं होती है, किन्तु वहाँ जुटे दर्शक जरूर नग्न हो जाते हैं। कभी मेलों – ठेलों में दिखाई देने वाली यह आदिम मनोवृत्ति आज के दौर में भी निरंतर बनी हुई है।

पारिवारिक सम्बन्धों का छीजना युगल जी को अंदर तक झकझोर देता है। उनकी लघुकथा 'विस्थापन' घरेलू वातावरण में दिवंगतों की तसवीरों के विस्थापन के बरअक्स इंसानी रिश्तों के विस्थापन की त्रासदी को जीवंत कर देती है। एक और लघुकथा तीर्थयात्रा में माँ की यह यात्रा अंतिम यात्रा में बदल जाती है, किन्तु बेटा संवेदनशून्य बना रहता है।

युगल जी ने जनतंत्र के राजतंत्र में बदल जाने की विडम्बना को अपनी कई लघुकथाओं का विषय बनाया है।  जनतंत्र शीर्षक रचना पब्लिक स्कूल में समाज अध्ययन की कक्षा में पढ़ते बच्चों के साथ शिक्षक के संवादों के जरिये हमारे सामने गहरा प्रश्न छोड़ जाती है कि क्या हम आजादी के दशकों बाद भी राजतंत्र से इंच भर दूर आ पाये हैं। चेहरे बदल गए हैं, किन्तु सत्ता का चरित्र जस का तस बना हुआ है।

बागड़ ही जब खेत को खाने लगे तो आस किससे की जाए? इस बात को वे पैनेपन के साथ उभारते हैं। आश्रय शीर्षक लघुकथा में बलात्कृता को सुरक्षित आश्रय में रख  दिया जाता है, किन्तु वह वहाँ भी महफूज नहीं रह पाती है। अंततः  आश्रय स्थल ही उसका मृत्यु स्थल सिद्ध होता है। उनकी एक और लघुकथा ‘पुलिस' रक्षकों के ही भक्षक बन जाने की भयावह स्थिति का बयान है ।

उनकी ‘पेट का कछुआ' एक अलग अंदाज की चर्चित लघुकथा है, जहाँ लेखक की आँखों देखी घटना रचना का कलेवर लेकर आती है। बन्ने के पेट में कछुआ है। उसके इलाज के लिए पहले तो उसके पिता चंदा जुटाने के लिए तत्पर हो जाते हैं, फिर यही कार्य व्यवसाय बन जाता है। बेटे के पेट के कछुए से पिता के पेट की भूख का कछुआ जीत जाता है।

उनकी लघुकथाएँ सर्वव्यापी सांप्रदायिकता पर तीखा प्रहार करती हैं । मुर्दे शीर्षक लघुकथा में मुर्दाघर में रखे मुर्दे भी कौम की बात करते दिखाये गए हैं। वहीं पर आया एक समाजसेवी भी अपनी कौम को ध्यान में रखे हुए है, फिर किसकी बात की जाए? एक गहरा प्रश्न युगल जी छोड़ जाते हैं। ‘नामांतरण’ लघुकथा में लेखक ने मानवीय सम्बन्धों के बीच धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप को बड़ी शिद्दत से उभारा है।    अंध धार्मिकता के प्रसार के बावजूद युगल जी समाज के उन हिस्सों की ओर भी संकेत करते हैं, जहाँ अब भी संभावनाएं शेष हैं। ‘कर्फ्यू की वह रात’ इसी प्रकार की लघुकथा है, जहाँ एक माँ धर्म या जाति के नाम पर जारी भेदों को निस्तेज कर जाती है।       
   
युगल जी की लघुकथाओं में निरंतर नए प्रयोग करते रहे। उन्होंने प्रारम्भिक दौर में प्रतीक, मिथक आदि को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया , जो धीरे – धीरे ट्रेंड बन गया। उनके यहाँ पूर्वांचल की स्थानीयता का चटक रंग यहाँ-वहाँ उभरता हुआ दिखाई देता है, वहीं वे सहज, किन्तु बेहद गहरे प्रतीकों की योजना से बरबस ही हमारा ध्यान खींच लेते हैं। युगल जी मानते थे कि लघुकथा विचार, दृष्टि और प्रेरणा के सम्प्रेषण में एक तराशी हुई विधा है। यही तराश उनकी लघुकथाओं की शक्ति है और उन्हें इस सृजन धारा में विलक्षण बनाती है।

प्रो॰ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन [म.प्र.] 456 010

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