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20201103

वाल्मीकि : इतिहास और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

आदि कवि वाल्मीकि ने सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा पर बल दिया है – प्रो शर्मा 

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ आदि कवि वाल्मीकि : इतिहास और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन   

ओस्लो के साहित्यकार श्री शुक्ल ने नॉर्वेजियन भाषा में पाठ किया  रामायण के अंशों का


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश -दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ वक्ताओं ने भाग लिया। यह संगोष्ठी आदि कवि वाल्मीकि : इतिहास और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल, डॉ राजेन्द्र साहिल, लुधियाना, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने की।







लेखक और आलोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि आदिकवि वाल्मीकि की रामायण में जातीय स्मृतियों, इतिहास, संस्कृति और मानवीय मूल्यों का जीवन्त रूपांकन हुआ है। वाल्मीकि ने रामकथा के माध्यम से सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा पर बल दिया है। उनकी दृष्टि में सत्य ही संसार में ईश्वर है और धर्म भी उस सत्य  के ही आश्रित है। उन्होंने एक ऐसे उदात्त चरित्र को महाकाव्य के केंद्र में रखा है, जो लोगों को परस्पर प्रेम, बन्धुत्व और समरसता में बांध सके। उनकी मूल्य दृष्टि बहुत गहरी है। वे परिवार, मित्र, समाज और राज धर्म - सभी का प्रादर्श रचते हैं। उनका सन्देश है कि समस्त देश और कालों के लोग सुखी हों। वाल्मीकि रामायण में वर्णित अनेक स्थानों से जुड़े पुरातात्विक प्रमाण, ऐतिहासिक साक्ष्य और लोक अनुश्रुतियाँ उपलब्ध हैं। उन पर समग्रता से अनुसन्धान की आवश्यकता है। 




कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि वाल्मीकि सही अर्थों में विश्व कवि हैं। उनकी रामायण के माध्यम से विश्व में संस्कृत को गौरव मिला। उनकी रामायण का अनुवाद दुनिया के विभिन्न भाषाओं मैं होना चाहिए। श्री शुक्ल ने वाल्मीकि रामायण के प्रारंभिक श्लोकों का प्रथम बार नॉर्वेजियन भाषा में अनुवाद कर उनका पाठ  किया। 






विशिष्ट अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि वाल्मीकि ने राम कथा के माध्यम से आसुरी वृत्तियों और अनाचार के दमन और उन पर विजय का शाश्वत संदेश दिया है। वाल्मीकि रामायण के आधार पर दुनिया के अनेक देशों में राम काव्य लिखे गए हैं।








विशिष्ट अतिथि डॉ राजेंद्र साहिल, लुधियाना ने कहा कि आदि कवि वाल्मीकि का पंजाब के साथ गहरा संबंध रहा है। पंजाब की पांच नदियों के किनारे वैदिक सभ्यता का विकास हुआ है। पंजाब भारतीय संस्कृति का उद्गम केंद्र है। अमृतसर के समीप स्थित रामतीर्थ में वाल्मीकि का आश्रम था। वहीं रहकर लव और कुश का पालन पोषण हुआ और वहीं रहकर उन्होंने विद्यार्जन किया था। वाल्मीकि की रामायण से प्रेरणा लेकर पंजाबी में अनेक रामायण एवं राम पर केंद्रित रचनाएं लिखी गईं। गुरु गोविंद सिंह जी ने रामावतार जैसे महत्वपूर्ण काव्य की रचना की। 





प्रारम्भ में आयोजन की संकल्पना एवं स्वागत भाषण संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने देते हुए वाल्मीकि के योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने संस्था के उद्देश्य और भावी गतिविधियों का परिचय दिया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि वाल्मीकि का व्यक्तित्व सार्वभौमिक है। गोस्वामी तुलसीदास ने वाल्मीकि के जीवन के अनेक प्रसंगों का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने श्री राम और वाल्मीकि की भेंट का मार्मिक चित्रण अपने मानस में किया है।


साहित्यकार डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि वाल्मीकि की रामायण भविष्य के लिए महत्वपूर्ण संदेश देती है। यह ग्रंथ श्रेष्ठ समाज के निर्माण में अनेक सदियों से विशिष्ट भूमिका निभा रहा है।



राष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ शहाबुउद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, डॉ भरत शेणकर,  अहमदनगर, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉक्टर समीर सैयद, अहमदनगर, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ लता जोशी, मुंबई, डॉ ज्योति मईवाल, उज्जैन, डॉ राधा दुबे, डॉ प्रियंका द्विवेदी, प्रयागराज, डॉ अमित शर्मा, ग्वालियर, डॉ महेंद्र रणदा, पंढरीनाथ देवले आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे। 


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ लता जोशी मुंबई ने की। 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का संचालन संस्था सचिव डॉ रागिनी शर्मा, इंदौर ने किया। आभार प्रदर्शन संस्था के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉ शहाबुउद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने किया। 








20200424

कबीर वाणी में रावण का अंत

रावणान्त : कबीर वाणी में
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 
इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥
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लंका सा कोट समुद्र सी खाई।
तिह रावन घर खबरि न पाई।

क्या माँगै किछू थिरु न रहाई।
देखत नयन चल्यो जग जाई॥

इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥

चंद सूर जाके तपत रसोई।
बैसंतर जाके कपरे धोई॥

गुरुमति रामै नाम बसाई।
अस्थिर रहै कतहू जाई॥

कहत कबीर सुनहु रे लोई
राम नाम बिन मुकुति न होई॥

मैं (परमात्मा से दुनिया की) कौन सी चीज चाहूँ? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत् चलता जा रहा है।

जिस रावण का लंका जैसा किला था, और समुद्र जैसी (उस किले की रक्षा के लिए बनी हुई) खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।

जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र (बताए जाते हैं), उसके महलों में कहीं दीया-बाती जलता ना रहा।

(ये उस रावण का वर्णन है) जिसकी रसोई चंद्रमा और सूरज तैयार करते थे, जिसके कपड़े बैसंतर (वैश्वानर अग्नि) धोता था (भाव, जिस रावण के पुत्र - पौत्रों का भोजन पकाने के लिए दिन-रात रसोई तपती रहती थी और उनके कपड़े साफ करने के लिए हर वक्त आग की भट्ठियाँ जलती रहती थीं)।

अतः जो मनुष्य (इस नश्वर जगत् की ओर से हटा कर अपने मन को) सतगुरु की मति ले कर प्रभु के नाम में टिकाता है, वह सदा स्थिर रहता है, (इस जगत् माया की खातिर) भटकता नहीं है।

कबीर कहते हैं – सुनो, हे जगत के लोगो! प्रभु के नाम स्मरण के बिना जगत से मुक्ति सम्भव नहीं है।



कबीर वाणी में वर्णित रावण संबंधी प्रसंग बहुअर्थी हैं। लंका का अधिपति राक्षसराज रावण परम ज्ञानियों में से एक माना गया है। उसकी शिव उपासना एवं शिव को शीश अर्पित करके इष्ट फल की प्राप्ति की कथा लोक में बहुत प्रसिद्ध है। अपनी वासना, लोभ, मोह और अहंकार के कारण उसने रघुकुलनंदन राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, जो अंततः उसके विनाश का कारण बना। इस प्रकार रावण का व्यक्तित्व रचनाकारों के लिए विकारों के दुष्परिणामों को चित्रित करने के लिए महत्त्वपूर्ण रहा है।
 
संत नामदेव के शब्दों में

सरब सोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥
 
संत कबीर जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार जैसे विकारों से बचने का निरंतर उपदेश देते हैं। उनके समक्ष रावण जैसे परम ज्ञानी का अपने इन्हीं विकारों के कारण ध्वस्त होने का उत्तम उदाहरण है। कबीर रावण द्वारा जीव को मृत्यु की शाश्वतता का संकेत करते हुए उसे इन विकारों का त्याग करते हुए सद्पंथ पर चलने और ईश्वर की शरण में जाने का सन्देश देते हैं,

असंखि कोटि जाकै जमावली, रावन सैनां जिहि तैं छली।
ना कोऊ से आयी यह धन, न कोऊ ले जात।
रावन हूँ मैं अधिक छत्रपति, खिन महिं गए वितात।

कबीर ने अपने इष्ट के लिए लोक-प्रचलित विविध अवतारी नामों का प्रयोग भी किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य निर्गुण मत का प्रचार करना ही रहा है। कबीर ने रावण-प्रसंग में अपने इष्ट के लिए विशेषतः 'राम' शब्द का प्रयोग इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया है ।

एक हरि निर्मल जा का आर न पार 

लंका गढ़ सोने का भया । मुर्ख रावण क्या ले गया।
कह कबीर किछ गुण बिचार । चले जुआरी दोए हथ झार । 
मैला ब्रह्मा मैला इंद । रवि मैला मैला है चंद । 
मैला मलता एह संसार । एक हरि निर्मल जा का अंत ना पार । 
रहाऊ मैले ब्रह्मंड के ईस । मैले निस बासर दिन तीस । 
मैला मोती मैला हीर । मैला पउन पावक अर नीर ।
मैले शिव शंकरा महेस । मैले सिद्ध साधक अर भेख ।
मैले जोगी जंगम जटा सहेत । मैली काया हंस समेत ।
कह कबीर ते जन परवान । निर्मल ते जो रामहि जान ।

कबीर जी कहते हैं - सोने की लंका होते हुए भी मूर्ख रावण अपने साथ क्या लेकर गया ? अपने गुण पर कुछ विचार तो करो । वरना हारे हुए जुआरी की तरह दोनों हाथ झाड कर जाना होगा । ब्रह्मा भी मैला है । इंद्र भी मैला है । सूर्य भी मैला है। चाँद भी मैला है । यह संसार मैले को ही मल रहा है। अर्थात मैल को ही अपना रहा है । एक हरि ही है - जो निर्मल है । जिसका न कोई अंत है । और न ही उसकी कोई पार पा सकता है । ब्रह्मांड के ईश्वर भी मैले हैं । रात दिन और महीने के तीसों दिन मैले हैं । हीरे जवाहरात मोती भी मैले हैं । पानी हवा और आकाश भी मैले हैं । शिव महेश भी मैले हैं । सिद्ध लोग साधना करने वाले और भेष धारण करने वाले भी मैले हैं । जोगी जंगम और जटाधारी भी मैले हैं । यह तन हंस भी बन जाए । तो भी मैला है । कबीर कहते हैं - केवल वही कबूल हैं, जिन्होंने राम जी को जान लिया है ।

रावण रथी विरथ रघुवीरा : गोस्वामी तुलसीदास ने रावण के रथ के वैपरीत्य में विरथ श्री राम के रथ का आकल्पन किया है जिसके गहरे अर्थ हैं।

रावण रथी विरथ रघुवीरा। देख विभीषण भयऊं अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित स्नेहा।।
नाथ ना रथ नहीं तन पद त्राना। केहि विधि जीतब वीर बलवाना।।
सुनहुं सखा कह कृपा निधाना। ज्यों जय होई स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहिं रथ चाका। बल विवेक दृढ ध्वजा पताका।।
सत्य शील दम परहित घोड़े। क्षमा दया कृपा रजु जोड़े।।
ईस भजन सारथि सुजाना। संयम नियम शील मुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। यही सम कोउ उपाय ना दूजा।।
महाअजय संसार रिपु, जीत सकहि सो वीर।
जाके अस बल होहिं दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर।।

शौर्य और धीरज उस विजय रथ के चक्के हैं। बल, विवेक और दृढ़ता ध्वज पाताका हैं। सत्य, शील, दम और परहित चार घोड़े हैं और क्षमा, दया, कृपा त्रिगुण रस्सियां हैं। ईश्वर भजन उस रथ का सारथी है। संयम, नियम, शील आदि सहायक हैं। विप्र जनों और गुरुओं की पूजा हमारा अभेद्य कवच है। जिस वीर के पास ये सब है, उसे संसार का कोई भी योद्धा जीत नहीं सकता है।

अंततः विजय श्रीराम की हुई ...

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सृष्टि का कोई भी कण अछूता नहीं है शक्ति से – प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ शक्ति आराधना के प्रतीकार्थ और चिंतन पर गहन मंथन
नवरात्रि पर्व और विजयदशमी की आत्मीय स्वस्तिकामनाएँ 

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रावणान्त : कबीर वाणी में - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 
परमात्मा से दुनिया की कौन सी चीज चाहूँ? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत् चलता जा रहा है। जिस रावण का लंका जैसा किला था और समुद्र जैसी किले की रक्षा के लिए बनी हुई खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।


यूट्यूब लिंक

https://youtube.com/@ShailendrakumarSharma?feature=shared



Shailendrakumar Sharma

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी अध्ययनशाला
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी की प्रामाणिकता

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी श्लोक की सत्यता और प्रामाणिकता को लेकर समस्या मेरे सामने आती रही है।
यह श्लोक वाल्मीकि रामायण की कुछ पाण्डुलिपियों में मिलता है, और दो रूपों में मिलता है।

प्रथम रूप : निम्नलिखित श्लोक 'हिन्दी प्रचार सभा मद्रास' द्वारा 1930 में सम्पादित संस्करण में आया है : This sloka is seen in the edition published by Hindi Prachara Press, Madras in 1930 by T.R. Krishna chary, Editor and T. R. Vemkoba chary the publisher.
http://www.valmikiramayan.net/yuddha/sarga124/yuddhaitrans124.htm#Verse17
इसमें भारद्वाज, राम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
हिन्दी अनुवाद : "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।"
दूसरा रूप : इसमें राम, लक्ष्मण से कहते हैं-
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अनुवाद : " लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
फिर तो लोक में ऐसा परिव्याप्त हुआ कि बहु उद्धरणीय बन गया।
वाल्मीकीय रामायण का प्रामाणिक और समीक्षित संस्करण बड़ौदा से प्रकाशित है। उसमें, गीता प्रेस संस्करण एवं उत्तर भारत के अन्य संस्करणों में भी नहीं है।



प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendra kumar Sharma 

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