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20170121

नाट्य में सौंदर्यानुभूति, रंगालोचन एवं रंग-प्रशिक्षण के सवाल : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Interview on Aesthetics of Theater, Theater Criticism and Training | Interview with theater critic Dr. Shailendra Kumar Sharma by Dr. Shweta Pandya

रंग समीक्षा वही सार्थक, जो दर्शक और पाठक को समृद्ध करे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
रंग समीक्षक डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा से डॉ श्वेता पण्ड्या का साक्षात्कार 

Interview on Aesthetics of Theater, Theater Criticism and Training  

Interview with theater critic Dr. Shailendra Kumar Sharma by Dr. Shweta Pandya

(समालोचक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। आपने उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। सम्प्रति विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभाग के आचार्य, विभागाध्यक्ष, कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक के रूप में कार्यरत हैं। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डा शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। तीन दशकों से अधिक समय से आलोचना, निबंध-लेखन, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय प्रो शर्मा ने 35 से अधिक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन किया है। शोध स्तरीय पत्रिकाओं और ग्रन्थों में आपके 250 से अधिक शोध एवं समीक्षा निबंधों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 850 से अधिक कला एवं रंगकर्म समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। हिंदी रंगालोचन की परंपरा पर शोधरत श्वेता पंड्या द्वारा नाटक में सौन्दर्यानुभूति, रंगालोचन के प्रतिमान, अभिनय के बदलते आयाम, रंग प्रशिक्षण सहित कई प्रश्नों को लेकर डॉ शर्मा से लिया गया लंबा साक्षात्कार प्रस्तुत है )


साहित्य और कलारूप मनुष्य को विलक्षण पहचान देते हैं। साहित्य और संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकला, मूर्ति, स्थापत्य आदि विविधविध कलाओं में परस्परावलम्बन का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। ‘नाट्य’ को भारतीय साहित्य एवं कलारूपों में सर्वाधिक महत्त्व मिला है। नाटक नट अर्थात अभिनेता का प्रदर्शन व्यापार है। यह अभिनय आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य में से एक या अधिक के समावेश से हो सकता है। अतः नाट्य की परिभाषा होगी, “किसी स्थिति, प्रसंग या कथोपकथन का अभिनय के माध्यम से रसात्मक प्रत्यक्षीकरण नाट्य है।“ साहित्य एवं कला का सौंदर्यशास्त्र एक साथ दर्शन, मनोविज्ञान, समाजचिंतन का अंतर्भाव करता हुआ आगे बढ़ा है। यह कई बार नैतिकता के प्रश्नों से जुड़ा, वहीं कई लोगों ने इस पर आरोपित उपयोगितावाद का खंडन भी किया। भारत में एक अर्थ में नाट्य की चर्चा से ही सौंदर्यशास्त्र की नींव पड़ी है। नाट्य सौन्दर्य विषयक पर्याप्त मौलिक चिंतन के बावजूद आज हमारे यहाँ रंग प्रशिक्षण और रंग समीक्षा के विकास की दिशा में व्यापक प्रयत्नों की दरकार है।



भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के मुख्यतः दो भेद किये जाते हैं-  श्रव्यकाव्य और  दृश्यकाव्य। दृश्यकाव्य के अन्तर्गत रंगभूमि पर नटों अर्थात् अभिनेताओं द्वारा अभिनय किया जाना आवश्यक होता है। नटों द्वारा किया जाने वाला व्यापार ही है- ‘नाट्य’। भरतमुनि के शब्दों में ‘नाट्य’ में त्रैलोक्य के समस्त भावों का प्रस्तुतीकरण (अनुकीर्तन) होता है। (नाट्यशास्त्र, 1/107) वे कहते हैं- ‘मैंने जिस नाट्य का निर्माण किया है वह नाना प्रकार के भावों से समन्वित है, विविध प्रकार की अवस्थाएं इसमें हैं, और यह लोक चरित्र का अनुकरण करता है। (नाट्यशास्त्र, 1/115)  उनकी दृष्टि में इसका उद्देश्य इस प्रकार है- नाट्य दुःख से, थकावट से तथा शोक से पीडि़त दीन दुखियों के लिए विश्राम देने वाला होगा। नाट्य अपनी व्यापकता के कारण ही लोकरंजनकारी होता है। उसकी व्यापकता को भरतमुनि व्यक्त करते हैं-  अर्थात् जो नाट्य में न मिले ऐसा न तो कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला योग और न ही कोई कार्य हो सकता है। इस नाट्य में सभी शास्त्रों, सभी प्रकार के शिल्पों और विविध प्रकार के कार्यों का सन्निवेश होता है। इसलिए मैंने इस नाट्य की रचना की है। भरतमुनि नाट्य को लोक (प्रजाजन) का मनोविनोद कर्ता और लोकरंजनकारी भी कहते हैं। भरतमुनि नाट्य को वाङ्मय का सर्वश्रेष्ठ रूप मानते हैं। इन्हीं प्रसंगों में भरत ने रस की प्रधानता का स्पष्ट विधान किया है, जो किसी भी प्रकार के साहित्य की उत्कृष्टता का आधार होता है। भरतमुनि के अनुयायी धनंजय ने दशरूपकमें नाट्य की परिभाषा इस प्रकार दी है- अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्अर्थात् अवस्था की अनुकृति नाट्य है। इस परिभाषा में उन्होंने स्पष्टतः अभिनय को महत्त्व दिया है।

न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते।।
सर्वशास्त्राणि शिल्पानि कर्माणि विविधानि च।
अस्मिन्नाट्ये समेतानि तस्मादेतन्यमया कृतम्।। (नाट्यशास्त्र, 1/117)





भरतमुनि के अनुयायी धनंजय ने दशरूपकमें नाट्य की परिभाषा इस प्रकार दी है- अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्अर्थात् अवस्था की अनुकृति नाट्य है। इस परिभाषा में उन्होंने स्पष्टतः अभिनय को महत्त्व दिया है। नाट्यकी अवधारणा का पश्चिम के ड्रामाकी अवधारणा से पार्थक्य है। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल लिखते हैं- तात्त्विक दृष्टि से ही नाटक और ड्रामा में मूलभूत अन्तर ही नहीं, विरोध है। नाटक अवस्था की अनुकृति है-अर्थात् इसमें अवस्था की ऐसी प्रस्तुति (प्रदर्शन नहीं) है, जिसमें सारा बल कृतित्त्व पर है। ड्रामा, अवस्था नहीं, बल्कि प्रकृत को उसके सामने दर्पण रखकर उसमें सन्निहित नैतिकता के चेहरे को दिखाना है और उसकी वास्तविकता का मजाक करना है।वे निष्कर्षतः कहते हैं- हमारे नाटक में अनुकृति है तो पश्चिम के ड्रामा में इमीटेशनअर्थात् अनुकरण है। फलतः उनके ड्रामा में प्रस्तुति के स्थान पर प्रदर्शन का तत्त्व प्रबल है।  स्पष्ट है कि नाट्यको भारतीय साहित्य में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। रंगभूमि पर अभिनय द्वारा रचना या कृति की अवस्थाओं की अनुकृति नट या अभिनेता करता है और यही व्यापार नाट्य है जो अपनी व्यापकता और रसवत्ता के कारण लोकरंजनकारी और लोक का मनोविनोदकर्ता सिद्ध होता है। 

भरत नाट्यको मनुष्यों के कर्म को आधार देने वाला, हितकारी उपदेशों का जनक, धर्म, यश एवं आयु का संवर्धक, बुद्धि का विकास करने वाला निरूपित करके उसकी समग्र वाङ्मय में सर्वोपरिता सिद्ध करते हैं। ये अवधारणाएं नाट्यको एक ऐसे समग्र काव्य के रूप में सिद्ध करती हैं , जिसमें समस्त कलाओं का भी सहज ही अन्तर्भाव हो जाता है। प्रातिभ कला, नाट्य या साहित्य और लोक कला, नाट्य या साहित्य के रूप में प्रायः सभी कला एवं साहित्य रूपों के आयाम दिखाई देते हैं। जहाँ प्रातिभ कला में कर्ता की मौजूदगी सुस्पष्ट होती है, वहीं लोक कला में कर्ता का सामूहिक और समाहित मन अंतर्लीन हो जाता है। शिष्ट साहित्य के क्षेत्र में बार-बार उसकी सामयिकता से जुड़े प्रश्न उभरते हैं, किन्तु लोक कला और साहित्य सदैव सामयिक बने रहते हैं।


भारतीय रसशास्त्र सौंदर्यशास्त्र का पर्याय रहा है, जहां सौंदर्यानुभूति का प्रामाणिक विवेचन मिलता है। नाट्य एवं कला का आनंद ज्ञान के आनंद से बेहतर माना गया है तो उसके पीछे यह साफ दृष्टि रही है कि ज्ञान का आनंद खण्ड-खण्ड अनुभवों का संबंध-निर्धारण है, किन्तु नाट्य एवं कला का आनंद समग्रता का आनंद है। उसे ब्रह्मानन्द सहोदर या लोकोत्तर कहने के पीछे यही तात्पर्य है, अलौकिक बनाकर महिमामंडित करने की आकांक्षा नहीं है। नाट्य एवं कला की सार्थकता नव चेतना को उपजाने में है। वे आन्तरिक संतुलन और सामरस्य की सृष्टि करते हैं। यही वजह है कि आज असमाप्त आपाधापी के दौर में भी मनुष्य नाट्यानुभव या कलानुभव के क्षणों के लिए उत्कंठित रहता है। उससे उपजा आनन्द कंटकों और कष्टों को भी फूलों की तरह स्वीकार करना सिखाता है। वस्तुतः नाट्य एवं कला की इससे बेहतर भूमिका हो भी क्या सकती है।



नाट्य अपने मूल रूप में चाक्षुष यज्ञ है। दृश्यकाव्य रूप नाट्य केवल शब्दार्थ पर आधारित न होकर हमारी नेत्र और श्रवण इंद्रियों से भी ग्राह्य होता है। परिणामतः वहाँ शब्दार्थ सहित अनेक श्रव्य-दृश्य तत्त्व हमारी सौंदर्यानुभूति को जगाते हैं। साहित्य मूलतः शब्द-अर्थ पर आधारित माध्यम है। भारतीय परंपरा में शब्दार्थ के साहित्य को काव्य का गौरव मिला है- ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यं।’ (भामह) साथ ही ‘सहितस्य भावः इति साहित्यं’ कहकर सबकी हितकारी रचना की महिमा भी उसे मिली। इससे हटकर जब साहित्य को ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ (विश्वनाथ महापात्र) या ‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्द काव्यं’ (पंडितराज जगन्नाथ) के माध्यम से परिभाषित किया गया, तब दृश्यकाव्य रूप नाट्य भी दृष्टिपथ में दिखाई देता है। यहाँ आकर रसात्मकता और रमणीयता को श्रव्य और दृश्य-  दोनों प्रकार के काव्यों में निहित काव्यत्व का महत्त्वपूर्ण निकष स्वीकार किया जाने लगा। भरत ने नाट्य को दृष्टिगत रखते हुए बहुत पहले रस की स्थापना की थी, जो आगे चलकर समस्त प्रकार के काव्य का निकष बना। ‘तत्र विभावानुभावसंचारिसंयोगात् रसनिष्पत्तिः’ कहकर भरत नाट्य के माध्यम से स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से जन्य रससृष्टि का प्रादर्श रचते हैं, जो सार्वकालिक है। इसे आज की शब्दावली में सौंदर्यानुभूति कहा जा सकता है।

भारतीय मनीषा ‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः’ या ‘कवयति सर्वं जानाति सर्वं वर्णयतीति कविः’ कहकर काव्यकर्ता (नाटककार भी) की विलक्षण स्थिति को रेखांकित करती है। या फिर ‘कवयः निरंकुशाः’ कहकर उसे अपनी सृष्टि का नियामक माना गया है। दूसरी ओर ग्रीक चिंतक प्लेटो सृष्टि को मूल प्रत्यय का अनुकरण मानता है। उस सृष्टि के अनुकरणकर्ता के रूप में कवि को सत्य से दुगुना दूर ले जाने वाला, फलतः उसे बहिष्कार योग्य ठहराता है। अरस्तू ने प्लेटो से असहमति व्यक्त करते हुए कला को सीधे प्रकृति की अनुकृति माना। उसकी दृष्टि में वह हीन नहीं है। वह अनुकृति नहीं, सृजन है। विरेचन की अवधारणा के जरिये उन्होंने उस अनुकरण को अनुकर्ता और श्रोता- दोनों के लिए आनन्दकारी माना। यदि कर्ता के कोण से कोई भी रचना कल्पनामूलक अनुकरण है, तो आस्वादकर्ता के कोण से विरेचन का विषय फलतः तज्जन्य आनन्द प्राप्ति का साधन। अनुकरण और पुनरुत्पादन एक ही हैं। वस्तुतः सृजन पुनरुत्पादन नहीं है, वहाँ वैचित्र्य की सृष्टि होती है। यदि भारतीय दृष्टि से विचार करें तो अलंकार, रीति और वक्रोक्तिवाद कर्ता के कोण से काव्यात्मा की तलाश करते हुए दिखाई देते हैं, तो रस, ध्वनि और औचित्य आस्वादक के कोण से। पहला पक्ष अनुकरण से तो दूसरा पक्ष विरेचन के समतुल्य है। स्पष्ट है कि जब भाव की प्रेरणा से काव्य या कला आत्म प्रकाशन का साधन बनती है तभी अनुकरण सृजन बनता है।



सौंदर्य या लालित्य के आश्रय से व्यक्त होने वाली कलाएँ ललित कला (Fine arts) कहलाती हैं। अर्थात वह कला जिसके अभिव्यंजन में सुकुमारता और सौंदर्य की अपेक्षा हो और जिसकी सृष्टि मुख्यतः मनोविनोद के लिए हो। जैसे गीत, संगीत, नृत्य, नाट्य तथा विभिन्न प्रकार की चित्रकलाएँ। लालित्य की अनुभूति या सौंदर्यानुभूति का महत्त्वपूर्ण विवेचन भारतीय रसशास्त्र में हुआ है। ललित कला का लालित्य तत्व भारतीय दृष्टि से सौंदर्य का ही पर्याय है। मानवरचित सौंदर्य लालित्य है और जिससे हमें आस्वाद-सुख मिलता है वह ललित है, सुंदर है। लालित्यबोध या सौंदर्यबोध, आस्वादन सुख या रसानुभूति है। लालित्य का बोध ही रस की अनुभूति को जन्म देता है और इस अर्थ में सारा भारतीय रसशास्त्र, लालित्यशास्त्र या सौंदर्यशास्त्र का ही एक अंग है। सौन्दर्य की व्यक्तिनिष्ठ परिकल्पना की परिणति रस है। यह सौंदर्यानुभूति अलौकिक है। प्रीतिकर होने के साथ ही सर्वहितकारी है। यह सामान्य राग-द्वेष से मुक्त, साधारण ऐंद्रिय-मानसिक अनुभूति की अपेक्षा अधिक उदात्त है।


भारत में रसजन्य आनंद को सर्वोपरि महत्ता मिली है। यह रसानन्द योगियों के ब्रह्मानन्द के समान माना गया है। सौंदर्यानुभूति एक प्रकार की आनंदमयी चेतना है। इससे परम आह्लाद की अनुभूति होती है। यह सुख-दुख के सीमित दायरे के ऊपर की अवस्था है। सौंदर्य की अनुभूति, प्रक्रिया में ऐंद्रिय होकर भी, अपनी चरम परिणति में चिन्मय बन जाती है। नाट्य के आस्वाद के दौरान रसानुभूति के क्षणों में मनुष्य का सत्त्वप्रेरित मानस रसनिष्ठ आनंद का अनुभव करता है। आनंद के व्यापक स्वरूप में सौंदर्यानुभूति अंतर्निहित है। नाट्य का सौंदर्य साधारणीकरण में है, जिसे हमारे यहाँ विशेष महत्त्व मिला है। पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा के साथ भी यह सौन्दर्य-चेतना संपृक्त है। नाट्य, संगीत, वास्तु, चित्र, काव्य आदि के सौंदर्य का एक छोर अर्थ और काम से तो दूसरा छोर धर्म और मोक्ष से जुड़ा है। यह विविध जीवन-मूल्यों से प्रेरणा लेकर उन्हें और सरस बना कर आस्वादक को लौटाने का कार्य करता है।


भारतीय दृष्टि कला को आनन्दविधायिनी प्रक्रिया (कं अर्थात् आनंद लाति इति कला) के रूप में देखती है। इस दृष्टि से नाट्यकला दृश्यकाव्योचित आनंद का रचाव करने वाली सृष्टि है। उसकी रसानुभूति ही सौंदर्यानुभूति है। नाट्य सहित समस्त कलाएँ हमारी अन्तर्बाह्य सृष्टि का ही प्रतिरूप हैं, किन्तु यह प्रतिरूपण यथातथ्य न होकर सृष्टा की दृष्टि को ही प्रतिफलित करता है। कल्पना से प्रसूत कलारूपों में कर्ता की ही अभिव्यक्ति होती है। भाव को भौतिक धरातल पर लाना भारतीय कला का लक्षण है, नाट्य, नृत्य, चित्र, शिल्प, वास्तु आदि यही कार्य करते हैं। सौन्दर्यशास्त्र के अनुसार रस, अर्थ, छंद और रूप- ये चारों भारतीय कला के आधार हैं। बौद्ध ग्रन्थों में अनेकत्र रूप की छाया का उल्लेख किया गया है। प्रश्न उठता है कि चित्र कहाँ है, पट्ट पर है या रंग-पात्र में-


रंगे न विद्यते चित्रं न भूमौ न भाजने।
सत्त्वानां कर्षणार्थाय रंगैश्चित्रं विकल्पते।।

 चित्र, पट-भित्ति रंग-पात्र में नहीं है, वह तो चित्त की तरंगों में है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आभासवाद की शब्दावली में उत्पल का एक श्लोक भी इस दिशा में संकेत करता है, “उस कलानाथ को नमस्कार, जो बिना किसी उपादानों के साधन का आश्रय लिए बिना किसी फलक के अपनी शक्ति पर अपने आभास जगत का चित्र उपस्थित करता है।“ भारतीय कला में रूप की महत्ता इसी दृष्टि से है। यहाँ कला में लक्षण विद्या के आधार पर रूप की निर्मिति की जाती रही है। रूप ही तो सर्वत्र दिखाई देता है। चित्र शब्द का चित्त से निकट का संबंध है। मन के भावों को सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत करना कला है, नाट्य भी यही कार्य करता है। कला के माध्यम से चित्त के भावों को भौतिक पदार्थों पर अंकित किया जाता है। नाट्य में यही कार्य अभिनय, मंच व्यापार, रंग सामग्री आदि की सहायता से किया जाता है।



पश्चिमी विचार-जगत में एक दार्शनिक गतिविधि के तौर पर सौंदर्यशास्त्र की पृथक संकल्पना अट्ठारहवीं सदी में उभरी जब कलाकृतियों का अनुशीलन हस्तशिल्प से अलग करके किया जाने लगा। इसका नतीजा सिद्धांतकारों द्वारा ललित कला की अवधारणा के सूत्रीकरण में निकला। कलाशास्त्र, कला दर्शन, संवेदनशास्त्र जैसे कई पर्याय भी इसके लिए प्रचलन में रहे हैं। बॉमगार्टेन ने 1750 में एस्थेटिका लिख कर एक महत्त्वपूर्ण विमर्श का सूत्रपात किया था, जो इस शास्त्र का आधार बना। सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics) संवेदनात्मक-भावनात्मक गुण, धर्म और मूल्यों का अध्ययन है। सौंदर्यशास्त्र कला, संस्कृति और प्रकृति का प्रतिअंकन है। सौंदर्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र का एक अंग भी रहा है। इसे सौन्दर्यमीमांसा तथा आनन्दमीमांसा भी कहते हैं। सौन्दर्यशास्त्र वह शास्त्र है, जिसमें कलात्मक कृतियों, रचनाओं आदि से अभिव्यक्त होने वाला अथवा उनमें निहित रहने वाले सौंदर्य का तात्विक, दार्शनिक और मार्मिक विवेचन होता है। किसी सुंदर वस्तु को देखकर हमारे मन में जो आनन्ददायिनी अनुभूति होती है, उसके स्वभाव और स्वरूप का विवेचन तथा जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना इसका मुख्य उद्देश्य है। पश्चिम में सौन्दर्यशास्त्र के विकास में तत्त्व दर्शन, आचार-शास्त्र, और मनोविज्ञान की भूमिका रही है। वहाँ यह प्रायः दर्शनशास्त्र का अंग रहा है, किन्तु भारत में यह कुछ अपवादों को छोड़कर रसशास्त्र या काव्यशास्त्र में अंतर्निहित रहा है।


पश्चिम में एस्थेटिक मुख्यतः ऐंद्रिय सुख या प्रीति का वाचक रहा है, जो भारतीय दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। भारवि ने कहा है वसंति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुषु अर्थात  गुण वस्तु में नहीं होते, जिस प्रेम से वस्तु जुड़ी होती है, उसी के कारण पदार्थ गुणवान होते हैं। हमारे यहाँ ऐंद्रिय प्रीति का तिरस्कार नहीं है, परंतु नाट्य सहित समस्त साहित्य और कलाओं से जो प्रीति होती है, वह महज ऐंद्रिय नहीं होती है। ऐंद्रिय विषयों में रमती हुई सी वह प्रीति बहुत कुछ अतींद्रिय होती है। यही सौंदर्यानुभूति हमारे यहाँ रसानुभूति के रूप में मान्य है। सौंदर्य और रमणीयता हमारे यहाँ परस्पर समानार्थक रूप में प्रयुक्त होते आ रहे हैं। इसी रमणीयता या सौन्दर्य को माघ ने चिरनूतन आकर्षण का पर्याय माना, क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः अर्थात क्षण-प्रतिक्षण जो रूप नवता लिए हुए हो उस रूप या वस्तु को रमणीय कहा जा सकता है। पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य के निकष के रूप में इसी रमणीयता को मान्यता दी। हमारे यहाँ सौंदर्य या रमणीयता केवल चक्षुरिंद्रिय का विषय नहीं रहा, मन का विषय रहा है। 


पश्चिम में सौंदर्यशास्त्र के अंतर्गत कला, साहित्य और सुन्दरता से संबंधित प्रश्नों का विवेचन किया जाता रहा है। ज्ञान के दायरे से भिन्न इंद्रिय-बोध द्वारा प्राप्त होने वाले तात्पर्यों के लिए यूनानी भाषा में 'एस्तेतिको' शब्द है जिससे 'एस्थेटिक्स' की व्युत्पत्ति हुई। प्रकृति, कला और साहित्य से संबंधित क्लासिकल सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण विकसित हुआ। यह नज़रिया केवल कृति की सुन्दरता और कला-रूप से ही अपना सरोकार रखते हुए उसके राजनीतिक और संदर्भगत आयामों को विमर्श के दायरे से बाहर रखता है। लेकिन कला और साहित्य विवेचना की कुछ ऐसी पद्धतियाँ, जैसे मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र आदि भी हैं, जो कृतियों के तात्पर्य और उनकी रचना-प्रक्रिया के सामाजिक और ऐतिहासिक पहलुओं से संवाद स्थापित करती हैं। हमारे यहाँ जिस रसानुभूति की चर्चा की गई है, वह अत्यंत व्यापक सौंदर्यानुभूति है। वह कृति के सौंदर्य तक ही सीमित नहीं है, उसमें जीवन से जुड़े समस्त प्रकार के भाव और संदर्भगत आयाम समाहित हो जाते हैं।


यथास्थिति के निषेध में नाट्य सहित समस्त कलाओं से बेहतर कोई माध्यम नहीं है। जो जैसा है, उससे बेहतर बनाने का आदर्श कला को अलग पहचान देता है। इसीलिए ब्राह्मण ग्रंथों में विविध शिल्पों को आत्म-संस्कृति का साधन या फिर प्राणों की तरह महत्त्वपूर्ण और जीवन के लिए आवश्यक कहना आकस्मिक नहीं है। जीवन के उदात्तीकरण की दृष्टि से नाट्य सहित समस्त कलारूपों की महिमा पश्चिम में भी गाई गई है।


नाट्य सहित समस्त कलारूपों के अंतरंग प्रयोजनों के साथ बहिरंग प्रयोजनों को भी सभी ने स्वीकार किया है। आज यदि मनोरंजन एक उद्योग के रूप में विकसित हो रहा है, तो उसके पीछे जीविकोपार्जन की दृष्टि से नाट्य एवं कलाओं का महत्त्व सुस्पष्ट है। भारत जैसे विशाल देश में कृषि के समानान्तर यदि किसी और क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में लोग आजीविका की पूर्ति कर रहे हैं तो वह नाट्य, कला और शिल्प का क्षेत्र ही है। इन सभी क्षेत्रों में यहाँ हुए नितनूतन प्रयोग और अन्वेषण के पीछे यह बड़ा कारण रहा है। जीविका की चाह में नई पीढ़ी यदि हमारे अपने समय में विकसित, किन्तु क्रमशः रूढ़ होते जा रहे माध्यमों के पीछे दौड़ रही है, तो उसे और पीछे पलटकर देखना चाहिए। वहाँ कलामाध्यमों का भरा-पूरा संसार है, जो उसे बहुत कुछ दे सकता है। वस्तुतः नाट्य सहित सभी कलाओं का कौशल जीविका का स्रोत तो है ही, आनंद में भी निमग्न करता है।



हमारे यहाँ सौन्दर्य मूलतः चेतना से संपृक्त रहा है। आत्मा और देह का अभेद यहाँ के सौन्दर्य दर्शन के मूल में है। जिस तरह आत्मा की अभिव्यक्ति देह के रूप में होती है, उसी प्रकार चित्तत्त्व की अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला रूपों के माध्यम से होती है। रस, ध्वनि और रूप का संबंध नाट्य सहित समस्त साहित्य और कला रूपों में प्रत्यक्ष होता है। सौन्दर्य की अनुभूति आत्म तत्त्व और रूप तत्त्व- दोनों को समरस करती है। हमारी सौन्दर्य दृष्टि द्वन्द्वों से परे समरसता की दृष्टि है। अनुभूति के स्तर पर नाट्य एवं विविध कला रूप आनन्दरूप हैं तो अभिव्यक्ति के धरातल पर सौन्दर्यरूप। स्पष्ट है नाट्य की सौंदर्यानुभूति समग्र जीवन दर्शन के साथ समन्वित है। हमारे यहाँ सौंदर्य और नीति या धर्म को लेकर उस प्रकार का द्वंद्व कभी नहीं रहा, जो पश्चिम में बार-बार उभरता रहा है। उथला आदर्शवाद और उपयोगितावाद हमारे सौन्दर्य चिंतन की सीमा कभी नहीं बना।


आलोचना वस्तुतः किसी कृति की वस्तुनिष्ठ मीमांसा है, जो उसके गुण-दोषों को बताती है। एक आलोचक का दायित्त्व है कि वह सहृदयतापूर्वक कृति का आस्वाद ले और फिर उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करे। आलोचक का दायित्व तिहरा होता है। उसका एक दायित्व कृतिकार के प्रति होता है,  दूसरा कृति और तीसरा समाज के प्रति। वह लेखक का प्रेरक होता है। उसके साथ ही पाठक एवं लेखक के बीच सेतु का भी कार्य करता है। तीसरी ओर कृति के गुण-दोषों को बताता है। एक अभिनयात्मक कला के रूप में नाट्य की आलोचना रंगालोचना है, जो किसी नाट्य प्रदर्शन के प्रत्यक्ष आस्वाद के आधार पर की जाती है। सामान्य तौर पर नाट्य प्रदर्शन के गुण-दोषों का निरूपण रंगालोचना कहा जाता है, किन्तु वह इतना ही नहीं है। मेरी दृष्टि में नाट्य प्रस्तुति के परीक्षण या विश्लेषण को लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कला का नाम रंगालोचन है। यदि रंगमंच जीवन की आलोचना है, तो रंगालोचना उस आलोचना की आलोचना है। विशेषज्ञ मीडिया विविध कलानुशासनों को समाहित करने की चेष्टा करता है, रंगमंच की दुनिया से जुडी रंग समीक्षा इसका एक विशेष अंग है। रंगालोचना या रंगमंच समीक्षा, कला समीक्षा की एक विशिष्ट विधा के रूप में स्थापित है, जो प्रदर्शनकारी कला, जैसे नाट्य या नृत्य-नाट्य के सम्बन्ध में लिखी या कही जाती है।

रंग एवं कला समीक्षकों का लेखकों की जमात के बीच महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। रंग समीक्षक किसी अस्पष्ट सी कृति या प्रवृत्ति पर विश्लेषणात्मक और व्याख्यात्मक ढंग से विचार रखते हैं। पाठक इन विचारों के आधार पर कृति से जुड़े अपने विकल्प का चयन करता है। इसलिए पाठक की रुचि को संस्कार या दिशा देने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यहाँ तक कि उनके शब्द किसी रंग या कलाकृति के जीवन-मरण को निर्धारित कर सकते हैं।

रंगालोचक का लक्ष्य है- रंग-प्रदर्शन के प्रमुख तत्वों को लेकर अपनी बेहद ईमानदार और तटस्थ प्रतिक्रिया संक्षिप्त ढंग से प्रस्तुत करना। उसे कलाकार के अभिप्राय की पहचान इस बात को दृष्टिगत रखते हुए करनी होती है कि वह कार्य कितना सफल सिद्ध हुआ है और संस्कृति के व्यापक सन्दर्भ में एवं हमारी अपनी रुचि के लिए कितना प्रभावकारी होगा। रंगमंच की दुनिया में रंगालोचक के शब्द असरकारी होते हैं। किसी भी प्रस्तुति को लेकर की गई रंग समीक्षा उसके परवर्ती प्रदर्शनों में दर्शकों के रुझान के लिए आधार बन सकती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि कोई नकारात्मक समीक्षा किसी प्रदर्शन से दर्शकों को पूरी तरह विमुख कर दे।किसी भी रंगालोचक के लिए जरूरी है कि वह रंग परम्पराओं से न केवल परिचित हो वरन उनके प्रति आदर भी रखे। रंगकर्म में होने वाले नवाचारों से उसका जुड़ा होना आवश्यक है। रंगालोचक पाठक को सूचना एवं ज्ञान सम्पन्न बनाने के साथ ही उनके मानस को भी दिशा देते हैं। रंग समीक्षक को एक साथ कई चीजों का ध्यान रखना होता है, जैसे सन्तुलित उत्साह, आलोचकीय दूरीदृश्य की समझ, नवाचारों की ओर ध्यान, रंगकर्म को प्रोत्साहन, परम्परा के प्रति प्रणति भाव, नाट्यास्वाद की आकांक्षा आदि।रंग समीक्षक के नाते हमारी भूमिका है, जो भी हमारे समक्ष है उसका बगैर किसी पूर्वाग्रह के, ईमानदार और तटस्थ मूल्यांकन करना। आदर्श रंगालोचक को प्रतिभावान, सूचनासम्पन्न, संतुलित, विवेकपूर्ण और दृष्टिसम्पन्न होना चाहिए। दूसरी तरफ साधारण आलोचक इतिहास से अनभिज्ञ होते हैं। वे इस बात में विश्वास करते हैं कि उनका काम महज तीखी टिप्पणी या प्रतिक्रिया देना है। रंग-प्रदर्शन का मूल्यांकन अभिनय, आकल्पन, भाषा आदि की गुणवत्ता और सामान्य प्रभाव के आधार पर किया जाता है। यह भी जरूरी है कि विश्लेषण में विभिन्न रंगतत्वों को महत्त्व दिया जाए। साथ ही प्रदर्शन में सहभागी समूह के विभिन्न रंगकर्मियों के प्रयासों की पहचान और पड़ताल हो।
रंगकर्म या कला के क्षेत्र में जरूरी नहीं कि समूह का सोच काम आए। सामान्य जन का आस्वाद एक तरह से विरोधाभासी हो सकता है। अधिकांश लोग उत्कृष्टता या जटिलता की ओर आकर्षित हों, यह जरूरी नहीं। अतः जरूरी है कि रंगालोचक किसी रंग-प्रदर्शन को आवेशात्मक रूप में ले या न ले, उसकी प्रतिक्रिया यथासम्भव, अधिकाधिक अचूक और प्रभावकारी भाषा में होनी चाहिए।वर्तमान दौर में रंगकर्म के क्षेत्र में सोश्यल मीडिया की भागीदारी बढ़ रही है। कोई भी मंचन छोटा हो या जटिल, अजीब हो या नवाचारी, दर्शकों तक पहुँचाने के लिए यह माध्यम, पारम्परिक और अन्य माध्यमों की तुलना में अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है। चाहे प्रदर्शन के प्रति जनाकर्षण हो या विज्ञापन या मौखिक प्रचारइन सबके बीच रंगालोचक को अपनी बात कहनी होती है। कलाकार और दर्शक- दोनों के मध्य उन्हें अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाना होता है, भले ही कितनी ही चुनौतियाँ क्यों न हों। दोनों पक्षों से जुड़े दबावों के बावजूद सत्य पर टिके रहना ही हमारा परम कर्तव्य हो जाता है।

एक रंग समीक्षक समाचार-पत्र, पत्रिका, टेलीविजन या बेवसाइटों के लिए किसी नाट्य या अन्य प्रदर्शनकारी कला का विश्लेषण और लेखा-जोखा करता है। प्रायः इसके लिए किसी खास उपाधि या प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है, लेकिन उसे रंगमंच की विशेषताओं के साथ उसकी सामयिक प्रवृत्तियों से अच्छी तरह परिचित होना चाहिए और उसका सशक्त लेखकीय कौशल से सम्पन्न होना भी अनिवार्य है। कुछ समीक्षक पूर्णकालिक या शौकिया तौर पर किसी प्रकाशन से जुड़े होते हैं, जबकि कुछ फ्रीलांसर के रूप में अनुबन्ध के आधार पर कार्य करते हैं। अधिकांश बड़े अख़बार कला-रूपों को कवरेज़ देते हैं, जिसमें रंग समीक्षा का भी स्थान होता है। एक रंगालोचक नाटक का विश्लेषण मुख्य तौर पर लिखित रूप में करता है, जो मुद्रित या डिजिटल माध्यम से पाठकों तक पहुँचता है। इसके साथ ही रंग समीक्षक  का लेखन साहित्यिक व्याख्या के माध्यम से पाठकों के मानस में रंगमंच के प्रति सामान्य जागरूकता लाने में सहायक सिद्ध होता है। आलोचना के अन्य रूपों की तरह रंगालोचना में भी समीक्षक को एक दृष्टा के रूप में इसकी अपनी तकनीकी भाषा का प्रयोग करते हुए अपना मत प्रस्तुत करना होता है। रंग समीक्षक को एक लेखक के रूप में सुनिश्चित समयावधि का निर्वाह करने योग्य होना बेहद जरूरी है। साथ ही उसे एक साथ बहुविध लेखन योजनाओं पर सन्तुलन बनाते हुए खरा उतरना होता है। वह पेशेवर हो या शौकिया उसका लेखकीय जीवन निरन्तर आत्मप्रेरणा और अध्यवसाय पर टिका हुआ होता है।


रंग समीक्षा को हिंदी में यथोचित महत्त्व नहीं मिल पाया है। जब रंगमंच ही अपने अस्तित्व की तलाश में जुटा हो तो रंग समीक्षा का संकट समझा जा सकता है। आज देखा जा रहा है कि रंग समीक्षा कहीं प्रस्तुति विवरण बन रह जाती है तो कहीं ब्रोशर में दिए गए विवरण का पुनः कथन, दोनों ही स्थितियाँ दुर्भाग्यपूर्ण हैं।


हिंदी रंग समीक्षा रंगकर्मियों के लिए तो उत्साहवर्धक सिद्ध हुई है, किन्तु रंगमंच की ओर दर्शक उत्साहित हों, यह कम ही देखा जा रहा है। ऐसे में रंग समीक्षक का दायित्व बढ़ जाता है। समीक्षक को सेतु के रूप में भी काम करना होगा। उसे एक गम्भीर समीक्षक के साथ-साथ रंगकर्म और दर्शकों- दोनों के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभानी चाहिए। मैंने इस बात को सदैव दृष्टिगत रखने की कोशिश की है। कुछ लोगों ने मेरी समीक्षाओं में कहीं प्रशंसा का अतिरेक दिखाया भी तो मैंने उसकी चिंता नहीं की। रंग समीक्षक का बड़ा दायित्व रंगकर्म को बचाना है, मात्र तटस्थ बने रहना नहीं। विशेष तौर पर इस माध्यम में नव प्रवेशित रंगकर्मियों को यदि हम प्रोत्साहित नहीं करेंगे तो वे थियेटर से दूर होते चले जाएंगे।


रंग एवम् कला समीक्षा की भाषा का विकास हिंदी में विलम्ब से हुआ। यह अभी भी प्रक्रियाधीन दिखाई दे रही है। रंग समीक्षा में शब्दावली की समस्या रही है। अभी भी हम एक हद तक अनुवाद पर निर्भर बने हुए हैं, जबकि हमारी अपनी परम्परा में शास्त्र और लोक रंगमंच से जुडी समृद्ध शब्दावली है, किन्तु लगता है हमारा आत्मविश्वास खो सा गया है। आज जरूरत इस बात की है कि समीक्षा की भाषा की दृष्टि से हम आत्मनिर्भर बनें। जहाँ जरूरी हो पाश्चात्य शब्दावली से मूल या अनूदित शब्द ले सकते हैं, किन्तु उन्हीं पर पूर्ण निर्भरता उचित नहीं। कई बार नाट्य या नृत्य प्रदर्शन और कलाकृतियाँ सीधे आस्वादकों से संवाद कर रही होती है, वहीं कुछ मौकों पर उनकी समीक्षा विसंवाद या उलझाव की स्थिति पैदा कर देती है। इस प्रकार के वाग्जाल से रंग और कला समीक्षा को बचाने की जरूरत है। समीक्षा ऐसी हो जो दर्शक और पाठक को समृद्ध करे, उनकी समझ को विकसित करे।


नाट्य महज़ शब्दों में बँधा साहित्य नहीं है। वह न निरा साहित्य है और न निरा रंगमंच। वह दोनों का समावेशी रूप है। इसलिए रंग समीक्षक का दायित्व बढ़ जाता है। विविध प्रकार की रंग प्रस्तुतियों में समीक्षा के समान मानदंड प्रयोग में लाये जाएं, यह न तो उचित है  और न सम्भव। संस्कृत नाटक की रंग समीक्षा वैसी नहीं होगी, जो किसी लोक नाट्य प्रदर्शन की। यही बात पाश्चात्य शैली या नुक्कड़ या अन्य शैलियों के प्रदर्शनों पर लागू होती है। अतः जरूरी है कि प्रस्तुति के मिज़ाज के आधार पर रंग समीक्षा के मानदंड तय हों। मैंने अपनी समीक्षाओं में इस बात का ध्यान रखा है। नाट्यवस्तु और भाषा ही नहीं, प्रस्तुति के सम्पूर्ण पक्षों, यथा अभिनय, नृत्य, संगीत, दृश्यबंध, समग्र प्रभावान्विति आदि की समीक्षा जरूरी है। रंग समीक्षा खांचों में बाँटकर नहीं हो सकती है। आलोचक को नाट्यानुभूति और नाट्यभाषा- दोनों पर पकड़ रखनी होती है। एक पर अधिक बल समीक्षा का संतुलन बिगाड़ सकता है।


हिंदी रंगालोचन पर्याप्त समृद्ध है। इसे विकसित करने में नेमिचन्द्र जैन जैसे रंगालोचक का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने इस दिशा में अविस्मरणीय योगदान दिया है। हिंदी रंगालोचना के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं से बड़ी भूमिका समाचार पत्रों ने निभाई है। भारत में अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने कला-रंगमंच के लिए नियमित कॉलम और परिशिष्ट की शुरूआत की थी। हिंदी में जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, नईदुनिया, चौथा संसार, भास्कर, पत्रिका जैसे अख़बारों ने नियमित समीक्षा लेखन के अवसर जुटाए। पत्रिकाओं में धर्मयुग, कल्पना, सारिका, नटरंग, दिनमान, रविवार, कलावार्ता, कला समय आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।


कुछ अपवादों को छोड़कर रंग समीक्षा अब रंग वृत्तांत में बदल रही है। अख़बार के सम्पादक इन दिनों संवाददाता और छायाकार को प्रस्तुतियों में भेजकर या फिर ख़ुद संवाददाता महज दूरभाष पर आयोजकों से चर्चा कर नाट्य-प्रदर्शन की ख़बर या फ़ोटो-विवरण छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। ऐसे में विधिवत् रंगालोचना के अवसर कम होते जा रहे हैं। फिर भी कुछ वरिष्ठ और कुछ युवा एक ज़िद के रूप में इस दिशा में सक्रिय हैं। नेट और सोश्यल मीडिया पर भी इसकी उपस्थिति बनी हुई है। नए समीक्षकों के लिए जरूरी है कि वे थियेटर की व्यापक समझ के लिये तत्पर हों। रंगमंच के सर्वसमावेशी वैशिष्ट्य को जाने बग़ैर वे इस दिशा में सफल नहीं हो सकेंगे। समर्थ रंगालोचन के लिए गहरी संवेदनशीलता, नाट्यभाषा और रंग तकनीकों की समझ जरूरी है। फिर नाट्य या कला की परंपरा का ज्ञान भी आवश्यक है। किसी कृति का मूल्यांकन परंपरा के परिप्रेक्ष्य में हो तो हम अधिक वस्तुनिष्ठ निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं।  




नाट्य मूलतः अभिनय व्यापार है। नाट्यकर्म का सवार्धिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है- अभिनय, जहाँ एक कलाकार द्वारा जीवनानुभवों की पुन: प्रस्तुति होती है। अभिनय ही वह जरिया है, जिससे नाटक की मूल संवेदना दर्शकों तक पहुँचती है । इसके मूलार्थ ‘साक्षात्कारात्मक' रूप से नाट्य व्यापार को दर्शकों तक पहुंचाना या 'अभिनीयते इति अभिनय:' इन्हीं बातों की ओर इशारा करते हैं । फिर किसी सर्जक द्वारा नाटक की रचना अभिनीत करने के लिए ही तो की जाती है। अभिनेताओं को जिंदगी के अनुभवों की अधिकतम संभावनाओं को खोलना-खोजना होता है, इसीलिए नाट्य में एक कलाकार की साधना कई तरह की चुनौतियों से होकर गुजरती है ।


रंगमंच शब्द का प्रयोग मुख्य तौर पर नाट्य-प्रदर्शन के लिए प्रयुक्त मंच, भवन या स्थान के लिए होता है। किन्तु यह इसका स्थूल अर्थ है। रंगमंच स्थित्ति या घटनाओं  के नाटकीय प्रदर्शन के माध्यम से आनन्द में निमग्न करने की कला है। रंगमंच के समक्ष चुनौतियाँ हर दौर में रही है, भले ही इन चुनौतियों का रूप बदलता रहा हो। भरत ने जब नाट्यशास्त्र रचा तब भी ये थीं, फिर भी उन्होंने अपने तरीके से उनसे टकराने का साहस किया था। आज के रंगकर्मी अपने तरीके से उनसे जूझ रहे हैं। आधुनिक थियेटर के सामने पहले सिनेमा ने चुनौती दी, फिर नए-नए माध्यम उभरते चले गए। लोगों की रुचियाँ बदलीं, वे रंगमंच से दूर होते चले गए। फिर भी रंगमंच जीवित है तो इसका श्रेय उसकी ताकत बने हुए निष्ठावान रंगकर्मियों को जाता है। वस्तुतः रंगमंच का कोई विकल्प नहीं है। यह हर दौर में अस्तित्व में रहा है, सदा रहेगा।


हिंदी रंगकर्म पिछले तीन-चार दशकों की सघन सक्रियता के बावज़ूद उस गति को नहीं पा सका है, जो अपेक्षित थी। महज मनोरंजन का माध्यम माने जाने की विडम्बना से गुज़र रहा है आज का रंगकर्म। जबकि यह उसी प्रकार का गम्भीर और उत्तरदायी माध्यम है, जैसे कविता, कहानी या उपन्यास। हिंदी प्रदेशों में इससे जुडी सामाजिक मान्यताएँ तोड़ी जाएँ, यह जरूरी है। आज बड़े पैमाने पर कलाकार रंगकर्म को सिने या टेली जगत् की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं तो यह अकारण नहीं है। रंगकर्म को व्यावसायिक आधार चाहिए, तभी प्रतिभा पलायन रुकेगा। चुनौतियों के बावजूद कई रंगकर्मी तमाम आकर्षणों को छोड़कर रंग जगत् से जुड़े हुए हैं। यह बहुत बड़ी बात है। कई सिने कलाकार ऐसे भी हैं, जो रंगमंच से अपना रिश्ता बनाये रखना चाहते हैं। वे मौका मिलते ही रंगमंच पर आने में पीछे नहीं रहते हैं। किसी भी श्रेष्ठ कलाकार के लिये रंगमंच स्वयं को सम्पूर्णता में व्यक्त करने का सशक्त माध्यम होता है। रंगमंच कलाकार को पूर्ण अनुभव देता है, जहां उसका अभिनय और दर्शकों की प्रतिक्रिया- दोनों मिलकर एक वृत्त पूरा करते हैं। सिनेमा की तरह रंगमंच पर कोई रिटेक नहीं होता है और न खण्ड-खण्ड रंगानुभव। इसलिये सिनेमा या कोई अन्य माध्यम कभी रंगमंच की जगह नहीं ले सकेंगे।



आधुनिक दौर में नाट्य कला के अध्ययन, प्रशिक्षण और शिक्षण-तकनीक की दिशा में पर्याप्त प्रगति हुई है। वस्तुतः रंगमंचीय कला मानवता की सार्वभौम अभिव्यक्ति की कला है, जिसका रिश्ता विश्व के बहुत बड़े मानव समूहों से हैं। इसी दृष्टि से एक स्वायत अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना 1948 में की गई, जो इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट (यूनेस्को, पेरिस) के रूप में सुविख्यात है। इस संस्थान का उद्देश्य थियेटर कलाओं में ज्ञान और अभ्यास के वैचारिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देना है। इस संस्था द्वारा नृत्य रंगमंच, संगीत रंगमंच, तृतीय विश्व के रंगमंच, नये थियेटर आदि के साथ ही रंग-शिक्षण को भी प्रोत्साहित किया जाता है। आज विश्व के कई देशों में इस संस्था की शाखाएँ क्रियाशील हैं, जो रंग प्रशिक्षण और नवाचार की दिशा में उल्लेखनीय योगदान दे रही हैं।
भारत में भी रंग प्रशिक्षण के क्षेत्र में कई विश्वविद्यालय और स्वतंत्र संस्थान सक्रिय हैं। इनमें जयपुर, हैदराबाद, पुणे, मैसूर, बड़ौदा, आणंद, कोलकाता आदि नगरों में स्थापित विश्वविद्यालयों के नाट्य विभाग शामिल हैं। नाट्य-शिक्षण संस्थाओं में 1959 में नई दिल्ली में स्थापित और 1975 से स्वतंत्र रूप से कार्यरत राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी) का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यह संस्था रंगमंच के सिद्धांत और व्यवहार-दोनों पक्षों पर बल देती है। संस्था द्वारा ड्रामेटिक्स में तीन वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम संचालित किया जाता है, जिसके जरिये देश के कई ख्यातनाम रंगकर्मी तैयार हुए हैं। एन.एस.डी. के अलावा भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ, इंडियन माइम थियेटर, कोलकाता, श्रीराम सेंटर फॉर परफोंर्मिंग आर्टस, नई दिल्ली, रंगमंडल, भोपाल आदि भी लम्बे समय से थियेटर प्रशिक्षण में सक्रिय रहे हैं।


रंगकला और अभिनय के बदलते आयामों को दृष्टिगत रखते हुए भारत में सक्रिय प्रायः अधिकांश नाट्य प्रशिक्षण केंद्रों में भारतीय और पाश्चात्य-दोनों नाट्य सिद्धान्तों, रंग-तकनीकों एवं अभिनय-पद्धतियों के अध्यापन और प्रयोग पर बल दिया जाता है। वस्तुतः अभिनय प्रशिक्षण की शुरूआत में एक कलाकार के लिए जरूरी होता है कि वह खुद एक स्थिति विशेष का निर्माण करें। फिर किसी सहयोगी के साथ काम करते हुए समन्वय और संबंधों की समस्या का समाधान करें। इम्प्रोवाइजेशन में दक्षता हासिल करे, जिसमें पूर्व नियोजित स्थितियाँ नहीं होती हैं और यहीं पर अभिनेताओं की अनायासता और कथन-कौशल सामने आते हैं।



नाट्य में अभिनय ही सर्वोपरि है। अतः अन्य रंग तत्त्वों, यथा ध्वनि, आलोकन, संगीत, मंच सामग्री आदि की सार्थकता तभी है जब वे अभिनय को आधार देने में अपनी भूमिका निभाएँ। किसी भी अभिनेता को इन तमाम रंग तत्त्वों का न्यूनाधिक ज्ञान अवश्य होना चाहिए। तभी वह अपने अभिनय को समूचेपन के साथ प्रत्यक्ष कर पाएगा। कुछ लोग कह सकते हैं कि अभिनय को पढ़ा या सीखा नहीं जा सकता है। वस्तुतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं हैं। अभिनय कला का विधिवत् प्रशिक्षण अभिनेता को इस कला के विभिन्न आयामों से तो परिचित कराता ही है, वह अलग-अलग माध्यमों जैसे फिल्म, धारावाहिक आदि के जरिये देखे गए अभिनय की नकल या फिर टाइप्ड होने से भी बच सकता है। अभिनय की तैयारी के लिए विभिन्न प्रकार के व्यायामों और अभ्यासों से एक अभिनेता अपने शरीर और मन पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर सकता है, जिसके बिना एक चरित्र का सटीक निर्वाह संभव नहीं है।



भरत का नाट्यशस्त्र अभिनय कला की दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण सूत्रों को सँजोए हुए है। ताल, लय और भावों की समझ के साथ ही शरीर-क्रिया एवं गति को समायोजित करने में यह शास्त्र विशेष उपयोगी है। एक कलाकार स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के साथ ही अवस्थानुरूप अनुकृति एवं चारी विधान से नाट्यशास्त्र के चतुः आयामी अभिनय की समझ विकसित कर सकता है। आंगिक अभिनय में अंग संचलन की गति, अंग-उपांगों की चेष्टाएँ एवं मुद्राओं का अभ्यास महत्त्वपूर्ण है, जिन पर भरत ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। मनुष्य और मनुष्येतर प्रकृति या जीव की अलग-अलग गतियों का निरूपण भरत का नाट्यशास्त्र करता है। नृत्य के क्षेत्र में इसका अपना महत्त्व तो है ही एक अभिनेता भी इनके प्रयोग से अभिनय-कौशल प्राप्त कर सकता है। भरत ने वाचिक अभिनय में देश, काल और पात्र के अनुरूप भाषिक विधान किया है। भरत ने बलाघात, स्वरालाप, काकु, विराम, श्वास-प्रश्वास की क्रिया आदि को भी महत्त्व दिया है, जिनके सूक्ष्म व्यवहार से वाचिक अभिनय प्रभावशाली बन सकता है। आहार्य अभिनय में भरत ने वेशभूषा, अंग रचना, अलंकार आदि को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने पात्रों और देश-काल के भेद से विभिन्न प्रकार की मालाओं, वस्त्रों, केश-रचना, आभूषण, रूप सज्जा आदि का भी निरूपण किया है। सात्विक अभिनव अपेक्षाकृत अधिक परिश्रम और अभ्यास की अपेक्षा करता है, तभी प्रसंग के अनुरूप अनुभाव साकार हो सकते है। इस क्रियाओं में अंगों का स्थिर हो जाना, मुंह का रंग उड़ जाना, कंपन, आवाज का बदलाव आदि उल्लेखनीय हैं। अभिनय के ये आयाम दर्शक के मन के स्थायी को जाग्रत कर रस निष्पति तक ले जाते हैं।


बीसवीं शती के प्रारंभिक यूरोपीय अभिनय प्रशिक्षण स्कूलों में स्तानिस्लाव्स्की, मेयर होल्ड मिशेल चेखव आदि का विशेष महत्त्व है। इनके सिद्धांत और अनुप्रयोग एक कलाकार को मनोवैज्ञानिक एवं जैव-यांत्रिकीय तैयारी और कल्पनाशीलता को निखारने के लिए उपयोगी हैं। स्तानिस्लाव्स्की पद्धति में दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद के बोध के साथ ही भावनात्मक स्मृतियों पर एकाग्र कराया जाता है। कल्पनाशीलता, सम्प्रेषण कौशल और शारीरिक गतियों के विशेष अभ्यास इस पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ है। यह पद्धति एक पाठ को लेकर उसके उप पाठों को अन्वेषित करने पर भी बल देती है, तभी नाट्य-संवेदना गहनतर हो सकती है।

मेयर होल्ड की अभिनय पद्धति में जैव-यांत्रिकी पर विशेष बल है। शारीरिक संतुलन, गति और विचार, लयात्मक सजगता, सह अभिनेता और दर्शकों के साथ अनुक्रियात्मकता आदि इस पद्धति को वैशिष्ट्य देते हैं। चेखव ने अभिनेता के शरीर और मनोविज्ञान पर विशेष ध्यान दिया है। यह पद्धति बिम्बों की कल्पना और समावेशीकरण, नाट्य वातावरण और वैयक्तिक अनुभूति, मनौवैज्ञानिक भाव-भंगिमा आदि की समझ विकसित करती है। इस पद्धति में किसी प्रस्तुति की सृजन-प्रक्रिया के चार चरणों को देखा-समझा जाता है, जो इस प्रकार हैं-पाठ की पढ़ंत के माध्यम से नाटक के सामान्य वातावरण की समझ, नाटक के सामान्य वातावरण में प्रवेश, पूर्वाभ्यास और प्रस्तुति समंक, अन्तः प्रेरणा और विभाजित अन्तःकरण।

आधुनिक अभिनय में कुछ विशेष अभ्यासों पर बल दिया जाता है, जिनमें गति और क्रिया आधरित है अभ्यास, शारीरिक और भावात्मक स्तर पर खुलने के लिए क्रीडा एवं योग, कंठ अभ्यास, अवाचिक विस्तारण, संभाषण, पाठ विश्लेषण, अभिनेता और चरित्र के शरीर के बीच संबंध के जरिए चरित्र की निर्माण-प्रक्रिया दृश्य संरचना की समझ आदि महत्त्वपूर्ण हैं। मानसिक योग्यता के लिए एकाग्रता और निरीक्षण, स्मृति और पुनः स्मरण, तार्किकता, कल्पनाशीलता, भावानुभूति आदि से जुड़े हुए अभ्यासों पर भी बल दिया जाता है। इसी तरह विविधायामी सम्प्रेषण और क्रियाओं को लेकर इम्प्रोवाइजेशन या आशु अभिनय के नए-नए अवसर भी एक अभिनेता को बेहतर बनाते हैं। अभिनय में मनो-शारीरिक क्रिया का सर्वोपरि महत्त्व है, जो अनुभूतियों को मंच पर साक्षात् ले आती है। इसी तरह नाटक की समूह सरंचना में गति-अभिनटन की विशेष भूमिका होती है, जिसे सतत अभ्यास से ही साधा जा सकता है।

ब्रिटिश रंगकर्मी एडवर्ड हेनरी गार्डन क्रेग का चिंतन भी स्तानिस्लावस्की की तरह अस्वाभाविकता के विरोध में पनपा है, किन्तु उसे सरल-सपाट ढंग की स्वाभाविकता स्वीकार नहीं थी। क्रेग ने एक अभिनेता की तुलना कठपुतली से की है। उनके अनुसार कठपुतली मनुष्य से बेहतर है, जो अटपटे तर्कों और महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त होती है। क्रेग ने दृश्यबंधों पर भी पर्याप्त कार्य किया। उनकी अभिनय-पद्धति व्याख्यात्मक है, जिसमें अभिनेता चरित्र का यथावत् अभिनय न कर उसकी व्याख्या करता है।

रूस के रंगकर्मी मेयर होल्ड ने भी अभिनय के एक नये सिद्धांत को जन्म दिया, जो स्टायलाइज्ड या रीतिवादी अभिनय के रूप में प्रसिद्ध है। वे मानते हैं कि पारम्परिक थियेटर से दर्शक और अभिनेता के बीच के परदे को हटाये जाने की जरूरत है। उसके साथ ही उन्होंने तरह-तरह की चित्रावलियों और परदों का बहिष्कार कर दिया। वे कामेदिया देल आर्ते के प्रभाव नाटक में रीतिवादी अभिनय को लेकर आये, जहाँ निश्चित गतियों, प्रतीकों और घटना में अन्तर्निहित संयोजनों का अभिव्यंजनात्मक ढंग से प्रस्तुतीकरण होता है। यही रीतिवादी अभिनय बाद के दौर में अभिव्यंजनावाद में रूपान्तरित हुआ, जहाँ मुखौटों का प्रयोग भी किया जाता है। इस तरह प्राचीन रंगमंच की विशिष्ट युक्तियाँ नये रूप-रंग में लौटने लगीं और उनका महत्व भी स्वीकारा जाने लगा।

प्रख्यात रंगकर्मी बर्टोल्ट ब्रेख्त ने रंगमंच की प्रचलित रूढि़यों को तोड़कर एक नये ढंग के रंगमंच की परिकल्पना की, जहाँ अभिनय के एक नये सिद्धांत ने जन्म लिया। ब्रेख्त ने अभिव्यंजनावाद से शुरूआत की थी, बाद में वे तटस्थतावादी अभिनय-सिद्धांत के जनक बने। वे एक अभिनेता से अपेक्षा करते है कि वह किसी भी भूमिका को करते हुए अपने व्यक्तित्व को भी बनाये रखे। यानी एक अभिनेता दोहरी भूमिका में प्रस्तुत हो- स्वयं अभिनेता के रूप में भी और चरित्र के रूप में भी थी। इस तरह वह चरित्र के रूप में पूरी तरह विलीन न होकर अभिनय करता रहे। इसे वे महाकाव्योचित अभिनय कहते हैं। उनका तर्क है यह मूर्त और तथ्यात्मक प्रक्रिया किसी आरण के पीछे छिपी नहीं रहती। इसका तात्पर्य है अभिनेता खुद रंगमंच पर हमारे सामने खड़ा होकर दिखता है। वे तटस्थ या विलगाव प्रभाव (Alienation of Endistancement) तैयार करवाते हैं। उसके अनुसार दर्शक सिर्फ महसूस न करें, सोचने पर भी बाध्य हों। उन्होंने अलगाव या तटस्थता के लिये मुखौटे, संगीत, मुद्राभिनय जैसी कई  पारम्परिक रंग-युक्तियों के समावेश पर बल दिया।  वे अपेक्षा करते हैं कि अभिनेता यह निरन्तर दर्शाता चले कि वह चरित्र न होकर, उस चरित्र का अभिनय कर रहा है।
 पश्चिम में अभिनय की एक और प्रणाली विसंगतिमूलक या ऊल-जलूल अभिनय पद्धति के रूप में भी आई, जिसका संबंध एब्सर्ड थियेटर से है। यह रंगमंच मानकर चलता है कि जीवन की तमाम विसंगतियों को पेश करने में यथार्थवादी ढंग से काम नहीं चल सकता। उसे तो विसंगतिपूर्ण व्यवहार से ही बेहतर ढंग से दखाया जा सकता है। सेम्युअल बेकेट, आयनेस्को जैसे नाटककारों ने इस नाट्य-रूप से विसंगतिपूर्ण जीवन को सारहीन क्रम में जोड़कर निर्लिप्त ढंग से उसे पेश कर इस अभिनय-पद्धति को जन्म दिया था, जो स्वतंत्र या किसी न किसी रूप में अन्य रंगपद्धतियों में भी प्रयुक्त हो रही है।

वस्तुतः अभिनय के अन्दाज युग, रुचि और जरूरत के मुताबिक बदलते रहे हैं। विविध अभिनय-पद्धतियों में से किसी को भी अंतिम या सर्वोपरि नहीं कहा जा सकता। यह कलाकार और निर्देशकों की परिकल्पना पर ही निर्भर करता है कि वे किस तरह किसी एक या अधिक पद्धतियों का संयोग कर नाट्यानुभव को कितना धारदार और सटीक बना सकते हैं?


नाट्य समग्रता में विविधविध कलाओं के समाहार से निष्पन्न अनुपम कला है। उसकी व्याप्ति और विस्तार में कोई अन्य माध्यम उसके समकक्ष नहीं ठहरता है। हमारे यहाँ नाट्य की चर्चा से ही सौंदर्यशास्त्र की नींव पड़ी है। नाट्य के संदर्भ में जिस रसानुभूति की चर्चा हमारे यहाँ हुई है, वह अत्यंत व्यापक सौंदर्यानुभूति है। कृति के सौंदर्य तक ही सीमित न होकर वहाँ जीवन से जुड़े समस्त प्रकार के भाव और संदर्भगत आयाम समाहित हो जाते हैं। भारत में समर्थ रंगालोचन के विकास की राह तभी खुल सकती, जब आलोचक में गहन संवेदनशीलता के साथ ही नाट्यभाषा और रंग तकनीकों की व्यापक समझ हो। भारतीय परिप्रेक्ष्य में रंगालोचना एवं रंग प्रशिक्षण का क्षेत्र निरंतर विकसनशील बना हुआ है। इस दिशा में संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं।





डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन- 456 010
साक्षात्कार : डॉ. श्वेता पंड्या, 
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा

20161127

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

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भारतीय लोक नाट्य परम्परा की समृद्धि का साक्ष्य देता है माच

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृद्धि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका साहित्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाणी के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृतिप्रेमियों के समग्र प्रयासों की दरकार है। भारत के हृदय अंचल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा भारत का हृदय अंचल है तो इसकी सांस्कृतिक राजधानी है उज्जैन। उज्जैन कला के अधिष्ठाता शिव और सर्व-कला-रत्न श्रीकृष्ण की नगरी है। इसी नगरी को लोक नाट्य माच के जन्म का श्रेय जाता है। आज का मालवा सम्पूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए है। इसकी सीमा रेखा के संबंध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है जिसके अनुसार चम्बल, बेतवा और नर्मदा नदियों से घिरे भू-भाग को मालवा की सीमा मानना चाहिए-
 
इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। 
दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

मालवा का लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का विशिष्ट स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक नाट्य माच है, जो अपनी सुदीर्घ परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मंच बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृद्ध माच सम्पूर्ण नाट्य (टोटल थियेटर) की सम्भावनाओं को मूर्त करता है। लोकमानस की सहज अभिव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्दोलित करता आ रहा है। माच शब्द संस्कृत के मंच शब्द का ही परिवर्तित रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुक्ताकाशी रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाते हैं । संगीत, नृत्य, पाठ, अभिनय और बोलों  की अन्तः क्रिया माच को एक सम्पूर्ण नाट्य या यूँ कहें टोटल थियेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामाजिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दर्शन होते हैं। माच के दर्शकों में भी एक खास ढंग की रसिकता देखी जा सकती है। इसके दर्शक महज दर्शक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी दिखाई देती है। माच के क्षेत्र में उज्जैन में अनेक घराने बने, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊर्जा, नई गति दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामकिशन जी, गुरु राधाकिशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शर्मा, सिद्धेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्नीलाल जी, अनिल पांचाल आदि का माच के खेलों के सृजन और मंचन की परम्परा को आगे बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इतिहास और लोकाख्यानों में निहित उच्च आदर्श, प्रणय और लोक मंगल की भावभूमि को समाहित करता आ रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध माच के खेलों ने लोक के अंदाज में तीखा प्रतिकार किया है। आधुनिक रंगमंच पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने आ रहे हैं। यह लोकविधा अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।

माच की उत्सभूमि उज्जैन मानी जाती है। लगभग दो सौ से अधिक वर्षों से माच मालवा का प्रमुख लोकनाट्य बना हुआ है। इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। मालवा क्षेत्र में प्रचलित गरबी गीत, ढारा-ढारी के खेल, तुर्रा कलंगी, नकल-स्वांग की प्रवृत्ति, गम्मत, हाजरात विद्या आदि को माच के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण मानने वालों में डा. शिवकुमार मधुर का प्रमुख नाम है। मालवा के इन लोक कला रूपों में अन्तर्निहित तत्त्वों जैसे-नृत्य, गान एवं अभिनय, आध्यात्मिकता, नकल-स्वांग प्रवृत्ति, निर्गुणी भक्ति के तत्त्व, पुरुषों द्वारा स्त्री पात्रों की भूमिका सहित अनेक रंग व्यवहार आदि माच में आज भी मौजूद हैं। डा. मधुर के अनुसार- ढारा-ढारी के खेलों से अभिनय, गर्बा-उत्सव से संगीत, तुर्राकलंगी से काव्य-गायन और स्वांग-नकल प्रदर्शनों से अभिनय, हास-परिहास, चुटीले व्यंग्य एवं जनमनोरंजन के तत्त्व जुटाकर माचकारों ने इस नई रंग शैली को पनपाया।

राजस्थान में प्रचलित ख्याल का प्रभाव भी माच के खेलों में दिखाई देता है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. रघुवीरसिंह ने ख्यालों को माचों का जनक कहा है। माच की शैली के आरम्भकर्ता गुरु गोपालजी को माना जाता है, जो मूलतः राजस्थान के रहने वाले थे और बाद में मालवा में बस गए थे। ऐसा माना जाता है कि गुरु गोपाल जी ने मालवा क्षेत्र में राजस्थान के ख्याल जैसा कोई नाट्य रूप न पाकर स्थानीय संगीत और लोककला रूपों के समावेश से माच की शुरूआत की, जो परम्परा से क्रमशः परिष्कृत, संरक्षित और संवर्धित होता गया।

माच शब्द का सम्बन्ध संस्कृत मूल मंच से है। इस मंच शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचलित परिवर्तित रूप मिलते हैं। उदाहणार्थ-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मंच के समानार्थी भाव बोध को ही व्यक्त करता है। माच गुरु सिद्धेश्वर सेन माच की व्युत्पत्ति के पीछे सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी ने सम्भवतः कृषि की रक्षा के लिए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, जिस पर चढ़कर स्त्री या पुरुष आवाज आदि के माध्यम से नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और फिर नाटक-प्रदर्शन के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी मचान की आकृति एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मंच का नाम माच दे दिया होगा। कालान्तर में यही नाम प्रचलित हो गया। वस्तुतः माच के मंच और मचान में पर्याप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अधिक ऊँचा बनाया जाता था कि उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन दिनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्य ही रहती है।

माच के आदि प्रवर्तक गुरु गोपाल जी के अलावा माच परम्परा को गुरु बालमुकुन्दजी, गुरु रामकिशनजी, गुरु भैरवलालजी, गुरु राधाकिशनजी, गुरु कालूरामजी, गुरु फकीरचन्दजी, गुरु शिवजीराम, गुरु चुन्नीलाल, श्री सिद्धेश्वर सेन, श्यामदास चक्रधारी आदि ने आगे बढ़ाया और अनेक खेलों का लेखन एवं प्रदर्शन किया। माच के विभिन्न गुरुओं के बीच नये-नये माच के निर्माण एवं प्रदर्शन की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। विभिन्न माच गुरुओं द्वारा मालवी में रचे गए लगभग सवा सौ अधिक माच के खेल मिलते हैं, जिन्हें डा. मधुर ने सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा है - धार्मिक और पौराणिक कथानक,  शौर्य कथाएँ, प्रेमाख्यान और सामाजिक कथानक।

इन सभी प्रकार के खेलों में जीवन की विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति के साथ ही कहीं मानव मन की सुकोमल भावनाओं के रागात्मक सन्दर्भों को व्यक्त किया गया है,तो कहीं साहसी और वीर चरित्रों को, कहीं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है,तो कहीं सामयिक समस्याओं से टकराने की कोशिश। विविधायामी जीवन सन्दर्भों की अभिव्यक्ति के साथ ही उच्चतम मूल्यों की सिद्धि माच की केन्द्रीय प्रवृत्ति रही है, जो कहीं पौराणिक तो कहीं ऐतिहासिक, कहीं लोक-प्रसिद्ध तो कहीं काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से मूर्त होती है।

भारत की समृद्ध नाट्य परम्परा की जीवंतता और निरंतरता को आधार देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान लोक-नाट्यों का ही रहा है। लोकमानस की अभिव्यंजना के लिए उपलब्ध विविध माध्यमों में से लोक-नाट्य ही अपनी तीव्र रसवत्ता और सहज सम्प्रेषणीयता के भाषागत अन्तर के बावजूद एक अन्तः सूत्र में जुड़े दिखाई देते है। लोकमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति इन सारे लोक-नाट्य रूपों को एकसूत्र में जोड़ती दिखाई देती है। यह स्वाभाविक उनकी जटिल बौद्धिकता से विहीन भावात्मकता से उपजती है, जो कथानक, संवाद, गीत-संगीत, नृत्य, प्रदर्शन-शैली, रंग-शिल्प, भाषा आदि सभी स्तरों पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से मालवा क्षेत्र का लोक-नाट्य रूप माच भारत के अन्य लोक नाट्यों रूपों से अलग नहीं है। उसमें भी वहीं लोकरंजता के अनुकूल संगीत, नृत्यमूलक अभिनय एवं प्रदर्शन के तत्त्व, धार्मिकता के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, लोककथामूलक और प्रेमाख्यानपरक कथानकों की बहुलता तथा शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसमूलक अतिरंजित भावप्रवणता और तल्लीनता मौजूद है, जो भारत के अन्य लोकनाट्य रूपों जैसे नौटंकी, ख्याल,भवई,तमाशा, करियाला आदि में मिलते हैं। वस्तुतः इन सभी की सौन्दर्य दृष्टि संस्कृत नाटकों की भांति रसमूलक ही है। इसी तरह इन लोकनाट्य रूपों में वैयक्तिक संघर्ष के स्थान पर व्यक्ति एवं समूह के अन्तः सम्बन्धों की पहचान तथा जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरकर एक तरह के संतुलन की दशा  में दर्शकों को ले जाने की प्रवृत्ति मौजूद है, जिसमें कहीं लोकमंगल की सिद्धि होती है तो कहीं कारुणिक अन्त के बावजूद लोकादर्श की स्थापना। माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी (1773-1842 ई.) से लेकर आज तक सृजनरत माचकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने माच के लगभग डेढ़ सौ खेलों का प्रणयन किया है। बीसवीं शती के शुरूआती दशकों में माच ही मालवा का प्रतिनिधि रंगमंच था जिसके प्रदर्शनों में रात-रात भर सैकड़ों दर्शकों की भीड़ जुटी रहती थी। यद्यपि पिछली शताब्दी के ढलते-ढलते माच की लोकप्रियता एवं प्रदर्शनों में कुछ कमी आई है फिर भी इसके संरक्षण  विस्तार और नवाचारी प्रयोगों द्वारा माच गुरुओं ने इसे आज जीवंत बनाए रखा है।


डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफेसर एवं  हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)


माच से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण वीडियो यूट्यूब चैनल पर देखें - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा













                                    









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