शब्द शक्ति के क्षेत्र का एक सार्थक ग्रन्थ
आलोचक एवं लेखक डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा की पुस्तक शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी काव्यशास्त्र की विस्तृत भूमिका आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी द्वारा लिखी गई थी। यह भूमिका हिन्दी आलोचना के सांप्रतिक परिदृश्य में सार्थक प्रतिपक्ष रचती है। नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली से प्रकाशित इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका यहाँ प्रस्तुत है :
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शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक शब्द शक्ति सम्बन्धी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिंदी काव्यशास्त्र |
कुछ शोध-प्रबंध केवल उपाधि प्राप्त करने के लिए और उसके
ब्याज से व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होने के लिए लिखे जाते हैं। फलतः इस अंधकार
युग में भी कुछ प्रबंध नक्षत्रों की भाँति साहित्याकाश में अपना आलोकमय अस्तित्त्व
बना लेते हैं। यह तभी होता है जब सारस्वत उपलब्धि के लिए गहरी निष्ठा और अपेक्षित
श्रम तथा समर्पण हो। शोध ज्ञात से अज्ञात दिशा या क्षेत्र में मान्य अर्जित
उपलब्धि और स्थापनाओं का दूसरा नाम है। ऐसे प्रयास सारस्वत यात्रा में कुछ जोड़ते
हैं। ऐसे विरल प्रबंधों में डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा का ग्रंथ ‘शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा
तथा हिन्दी काव्यशास्त्र ’ एक उल्लेख्य प्रबंध है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतीय रस पद्धति और शब्द-शक्ति
विवेचन को व्यावहारिक आलोचना के लिए सर्वोच्च उपकरण माना है। डॉ शैलेन्द्रकुमार
शर्मा का यह प्रबंध इसी शब्द शक्ति के क्षेत्र का एक सार्थक प्रयास है। इस चुनौती
भरे क्षेत्र में शोध करने का संकल्प लेना अपने आप में उल्लेख्य है। शोध का विषय
है- ‘शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिंदी काव्यशास्त्र’। विषय अपने आप में पर्याप्त गुरु गंभीर है। विषय-विवेचन इन बिन्दुओं में
विभाजित है- शक्ति और शब्द शक्ति विषयक भारतीय चिन्तन,
भारतीय चिन्तन
में अभिधा, लक्षणा, तात्पर्य तथा व्यंजना का विचार,
साहित्यशास्त्र
में शब्दशक्तिपरक विवेचन, पाश्चात्य भाषा विज्ञान और शब्द शक्ति,
शैली विज्ञान
और शब्द शक्ति, पौरस्त्य एवं पाश्चात्य चिन्तन में शब्दशक्तिपरक विवेचन का
तुलनात्मक विश्लेषण, रचनाओं के संदर्भ में शब्दशक्ति संबंधी चिन्तन का उपयोग तथा
उपसंहार। विवेचन के ये बिंदु विवेच्य की व्यापकता का आभास देते हैं।
कार्य कारण से होता है,
पर अशक्त कारण
से नहीं। कुछ लोग मानते हैं कि कारण ही कार्य के निष्पादन में पर्याप्त है,
यदि प्रतिबंधक
न हो। कारण में कार्य संपादिका के रूप में उससे अतिरिक्त ‘शक्ति’ की कल्पना निरर्थक है। प्रतिबंधकाभाव युक्त कारण ही कार्य
निष्पादन में सक्षम है। पर भारतीय चिन्तन इस तर्क से असहमत है। प्रतिबंधक का अभाव
और अंकुरण में पर्याप्त कारण के बावजूद यदि बीज में अंकुरित होने की शक्ति न हो तो
अंकुरणात्मक कार्य कथमपि संभव न होगा। दग्धबीज अशक्त होता है- शक्तिहीन होता है-
इसीलिए वह अंकुरित नहीं होता। निष्कर्ष यह कि ‘शक्ति’ की स्वतंत्र सत्ता है- भारतीय चिन्तन में वह जड़ भी है और
चिन्मयी भी।
जिस प्रकार अन्यविध कार्य के प्रति कारण का शक्ति सम्पन्न
होना आवश्यक है, उसी प्रकार शब्दबोध से होने वाले अर्थबोध रूप कार्य के लिए
भी कारणीभूत शब्द को शक्ति सम्पन्न होना चाहिए। प्रयुक्त शब्दबोध अर्थबोध तभी करा
सकता है, जब उसमें तदनुरूप शक्ति हो। यही शब्द की शक्ति है। माना गया
है ‘अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थः’- प्रमाणान्तर से अलभ्य अर्थ ही शब्द का अर्थ होता है और वह
शब्द की शक्ति से मिलता है।
व्यवहार में देखा जाता है कि नियत व्यक्ति को नियत समय के
बाद ही नियत शब्द से नियत अर्थ का बोध होता है। इस नियम का कारण है- नियत शब्द का
नियत अर्थ में व्यवहार द्वारा गृहीत संबंध। यही संबंध शब्द की शक्ति है। यद्यपि इस
शक्ति का ग्रहण कई स्रोतों से होता है- व्याकरण,
उपमान,
कोश,
आप्तवाक्य,
व्यवहार,
सिद्ध पद
सान्निध्य तथा वाक्य शेष- पर व्यवहार इनमें सबसे पहले और सर्वशिरोमणि है। व्यवहार
में उत्तम वृद्ध के प्रयोग से मध्यम वृद्ध द्वारा अर्थबोधपूर्वक कार्यान्वयन देखकर
बालक- व्युत्पित्सु बालक- अन्वय व्यतिरेक से साक्षात् संकेतित में अर्थ ग्रहण करता
है। संकेत कहाँ गृहीत होता है- इसमें पर्याप्त विवाद है,
पर सामान्यतः
वैयाकरणों का ही मत साहित्य में समादृत है। वे उपहित व्यक्ति में नहीं,
अपितु उपाधि
में ही संबंध ग्रह मानते हैं। उपहित में संबंध ग्रह मानने पर आनन्त्य और व्यभिचार,
जैसे दोष
प्रसक्त होते हैं। उपाधियाँ चार हैं- जाति, गुण, क्रिया और यदृच्छा। शास्त्र और व्यवहार में वाचक-शक्ति
सम्पन्न वाचक-शब्द से यही चतुर्विध सामान्य अर्थ मिलते हैं। वाचक और वाच्य का यह
नियत संबंध ही अमिधा शक्ति है।
साहित्यशास्त्रियों ने काव्य में वाचक शब्द से प्राप्त होने
वाले अर्थ को विशिष्ट या बिम्बात्मक कहा है। शब्द की एक ही शक्ति अभिधा है,
ऐसा मानने
वाला महिम भट्ट कहता है कि वाच्यार्थ दो प्रकार का होता है- सामान्य और विशिष्ट।
विशिष्ट रूप वाच्यार्थ एकमात्र प्रत्यक्षगोचर,
फलतः अशेष
विशेषताओं से मण्डित होता है। काव्य का वाच्यार्थ भी ऐसा ही होता है। शब्द सुनकर
स्मृति में उभरा हुआ अर्थ प्रतिभा शक्ति से चित्रित होकर बिंबात्मक या विशिष्ट हो
जाता है। वही भावदीप्ति या सौंदर्य संवेदन में सक्षम होता है। व्यंजना के पश्चात्
आनन्दवर्धन मानते हैं- ‘वाच्यानाञ्च काव्य प्रतिभासमानानां यद्रूपं तत्तु ग्राह्य
विशेषाभेदेनैव प्रतीयते’- अर्थात् काव्य में प्रतिभा समान वाच्यार्थ प्रत्यक्षग्राह्य
विशेषताओं से मण्डित होकर प्रतीत होता है। महिम भट्ट भी ‘तत्त्वोक्ति कोश’ नामक ग्रंथ में कहते हैं-
विशिष्टमस्य
यद् रूपं तत्प्रत्यक्षैकगोचरः
स एव
सर्वशब्दानां गोचरः प्रतिभाभुवाम्।।
अर्थ अपने विशिष्ट रूप में
प्रत्यक्षायमाण होता है। कवि प्रतिभाप्रसूत वही अर्थ काव्योचितशब्द (वाचक शब्द) का
अर्थ माना जाता है।
शब्द की दूसरी शक्ति है- लक्षणा। शास्त्रों में इसकी चर्चा
विभिन्न रूपों में मिलती है। प्राचीन चिन्तक मानते हैं-
अभिधेयाविनाभूत
प्रतीतिर्लक्षणा मता
अर्थात् वाच्यार्थ संबंद्ध
अर्थ की प्रतीति लक्षणा है। नव्यचिंतक इसमें अरुचि प्रदर्शित करते हुए ‘संबंधात्मा’ ही मानना चाहते हैं- ‘शक्य सम्बन्धो हि लक्षणा’-
शक्यार्थ
संबंध ही लक्षणा है। यह एक अनुगत पक्ष है जो अभिधा में भी उपलब्ध है। ऊपर मीमांसक
और नैयायिकों का मत प्रस्तुत किया गया है। वैयाकरण शिरोमणि नागेश भट्ट का पक्ष है-
‘शक्यादशक्योपस्थितिर्लक्षणा’
वाच्य से
संबद्ध इतर अर्थ की स्मृति ही लक्षणा है। इस मत पर पक्ष-विपक्ष भी हैं। इस पक्ष
में लाक्षणिक पद स्मारक हो सकते हैं, अनुभावक नहीं। मीमांसक लक्षणा और गौणीवृत्ति के स्वरूप पर
अलग-अलग विचार करते हैं, साथ ही परिभाषित भी। मीमांसकों ने तरह-तरह से गौणी को
परिभाषित किया है। विश्वेश्वर भट्ट ने तो प्रतीतिपरक परिभाषा से हटकर संबंधपरक
परिभाषा दी है- ‘‘सादृश्यरूपशक्यार्थसंबंधो गौणी’’-
अर्थात्
गौणीवृत्ति सादृश्य रूप शक्यार्थ का संबंध है। यह एक प्रकार से न्याय सम्मत लक्षणा
से भिन्न नहीं मानते। मीमांसक अमिधा को प्रशस्त और लक्षण को जघन्यवृत्ति मानते
हैं। मीमांसकों का नैयायिकों से एक और वैशिष्ट्य है। नैयायिक इसे (लक्षणा को)
पदगतवृत्ति मानते हैं जबकि मीमांसक वाक्यगत भी मानते हैं। अतः ‘शक्य संबंध’ की जगह वे ‘बोध्यसंबंध’ को लक्षणा कहना चाहते हैं। पद के अर्थ की तरह वाक्य का अर्थ
भी बोध्य है। अतः शक्य की जगह बोध्य कहने से पदार्थ और वाक्यार्थ दोनों का समावेश
हो सकेगा। प्राचीन वैयाकरण तो अप्रसिद्ध अमिधा में ही लक्षणा को अंतर्भुक्त मानते
थे- पर नागेश प्रभृति नव्यवैयाकरण इसकी स्वतंत्र प्रतिष्ठा करते हैं। वे कहते हैं-
स्वज्ञाप्यसंबंधेनोद्बुद्ध
शक्ति संस्कारतो बोधे लक्षणा
यह समास में शक्ति न मानने
वाले व्यपेक्षावादियों का पक्ष है। पक्ष-विपक्ष करते हुए अंततः नागेश ने यही माना
है-
शक्ततावच्छेदकारोपो
हि लक्षणा
अर्थात् असाधारण धर्म का
आरोप ही लक्षणा है। कारण इसी आरोपित धर्म के बल से अभिमत अर्थ की उपत्ति होती है।
इस प्रकार लक्षणा पर शास्त्रों में प्रभूत विचार मिलते हैं।
जहाँ तक साहित्यशास्त्र का संबंध है- वह तो सभी विद्याओं का
निःस्पन्द है। फलतः उसमें यदि सभी की सुरभि मिले तो आश्चर्य क्या है ?
इन पर मीमांसा
और न्याय दर्शनों का प्रभाव है। नव्य वैयाकरणों के आने तक इनके अपने विचार निश्चित
हो गये थे। अंतः उनका प्रभाव नगण्य ही है। आनंदवर्धन से पूर्व शब्द शक्ति पर
सामान्य रूप से विचार होता आ रहा था, पर आनन्दवर्धन ने उस पर जमकर विचार किया। सामान्यतः लक्षणा
के पर्याय रूप में ‘भक्ति’ का प्रयोग मिलता है, जिसका अभिनव गुप्त ने अनेकधा अर्थ किया है। आनन्दवर्धन ‘भक्ति’ या ‘लक्षणा’ को गुणवृत्ति कहते हैं और ‘गुण’ के अनेक अर्थों में धर्म और ‘अमुख्य’ को लेकर अपना विचार प्रस्तुत करते हैं। शब्द से मिलने वाले
मुख्य अर्थ के अतिरिक्त दो और अर्थ हैं- अमुख्य अर्थात् लक्ष्य और व्यंग्य। इस
लक्ष्य अर्थ को देने वाली- लक्ष्य अर्थात् अमुख्य अर्थ को देने वाली वृत्ति
गुणवृत्ति है। गुण अर्थात् साधारण धर्म के आधार पर अन्य शब्द की वृत्ति तो
गुणवृत्ति है ही अमुख्य अर्थ में उपयोगी शब्द की वृत्ति भी गुणवृत्ति है।
अभिनवगुप्त ने भी ‘लोचन’ में इसे दुहराया है। इस गुणवृत्ति के दो भेद हैं- अभेदोपचार
रूप और लक्षणा। आनन्दवर्धन पहले को उपचार रूप भी कहते हैं। दूसरे को तो लक्षणा
कहते ही हैं। आगे चलकर मम्मट ने सब व्यवस्थित कर दिया। वे अमुख्यार्थ समर्पक
अमुख्य वृत्ति को लक्षणा कहते हैं और सादृश्य तथा सादृश्येतर संबंध से प्रयोजनवती
के शुद्धा और गौणी नाम देकर अवान्तर भेद करते हैं। मम्मट सूत्र में बोलते हैं - पर
पण्डितराज ने स्पष्ट ही ‘शक्य संबंध’ को लक्षणा कहा है।
शब्द से मिलने वाले अमुख्य अर्थ द्विविध हैं- लक्ष्य और
व्यंग्य। लक्ष्य अर्थ की समर्पिका वृत्ति लक्षणा है- जिसके लिए मुख्यार्थबाध और
रूढि़ तथा प्रयोजन में अन्यतर की अपेक्षा होती है। साथ ही यह भी शर्त है कि वह
मुख्यार्थ से संबंद्ध हो। अभिधा संकेत - सापेक्ष है और लक्षणा मुख्यार्थ बाध,
तद्योग और
रूढि़ तथा प्रयोजन में अन्यतर-सापेक्ष। लक्ष्येतर अमुख्य अर्थ है- व्यंग्य।
इस लक्ष्येतर अमुख्य अर्थ व्यंग्य का बोध कराने वाली वृत्ति
व्यंजना है। व्यंजना का सामान्यतः अर्थ माना जाता है- प्रकाशन। अंधकार में दीप घर
का प्रकाशन करता है- अव्यक्त की अभिव्यक्ति भी प्रकाशन ही है। यह प्रकाशन शक्ति
प्रकाश्य के अनुरूप भिन्न-भिन्न होती है। दीप ही प्रकाशन नहीं करता है,
चेष्टा भी
प्रकाशन करती है। यही नहीं राग भी रसों का प्रकाशन करते हैं। तमाम ज्योतिःपिण्ड भी
प्रकाशक ही तो हैं, प्रकाशक मात्र प्रकाशन काल में प्रकाश्य से पृथक् अपनी सत्ता रखते हैं।
ऐसे प्रकाशकों की दूसरी संज्ञा ज्ञापक भी है। कारण के दो प्रकार हैं- ज्ञापक और
कारक। ज्ञापक सिद्धार्थ का प्रकाशन करते हैं और कारक असिद्ध अर्थ का। पहला अपने
कार्य से सदा पृथक् स्थिति रखता है जबकि दूसरा कार्य में समाहित हो जाता हैं।
प्रकृत में व्यंजना के जिस रूप का विचार किया जा रहा है- वह शब्द की एक शक्ति है।
उसकी परिभाषा होगी-
प्रमाणान्तर से अप्राप्त,
किंतु शब्द
प्रमाण से प्राप्त उस अर्थ के प्रति किया गया व्यापार व्यंजना है जो शब्द की अभिधा,
लक्षणा और
तात्पर्यवृत्ति से उपलब्ध न हुआ हो। यह अर्थ प्रतिभा सम्पन्न ग्राहक को ही मिलता
है। दूसरे जिस सामग्री (वाच्य या लक्ष्य) से दूसरी प्रतीति होती है- वह वक्ता,
बोद्धव्य के
वैशिष्ट्य से भी मण्डित होती है।
महिमभट्ट शब्द से प्राप्त साक्षात् संकेतित अर्थ में ही
शब्द की शक्ति मानते हैं और उसे अमिधा कहते हैं। जहाँ एक अर्थ से दूसरा अर्थ मिलता
है- वहाँ नियत-संबंध सापेक्षता के कारण अनुमान प्रमाण की स्थिति मानते हैं। पर
व्यंग्य अर्थ वाच्य, लक्ष्य तथा व्यंग्य- तीनों प्रकार के अर्थों से संबद्ध होकर
प्राप्त होने पर भी अनुमान प्रमाण लभ्य नहीं है। अनुमान में निरुपहित सामग्री का
अनुमेय से उपयोग होता है- व्यंजना स्थल में सोपहित। अतः व्यंजना की गतार्थता
अनुमान से संभव नहीं है।
यह व्यंजना भी द्विविध है- एकार्थक स्थल में अर्थ मात्र से
अन्वय-व्यतिरेक रखने के कारण आर्थी और अनेकार्थक शब्द प्रयोग स्थलों में शब्द के
साथ अन्वय व्यतिरेक रखने के कारण शाब्दी। अनेकार्थक शब्द प्रयोग के स्थानों में
विनियमक के अभाव में सभी अर्थों की एकबारगी उपस्थिति हो जाती है। फिर संयोगादि के
कारण अमिधा का प्राकरणिक अर्थ में नियमन हो जाता है। तदनन्तर अप्राकरणिक अर्थोपयोगी
पदार्थ की पुनः प्रतीति व्यंजना से ही होती है। यही शाब्दी व्यंजना है।
इनके अतिरिक्त तात्पर्य नामक एक और वृत्ति की भी चर्चा मिलती
है। मीमांसा दर्शन में इसका अनेकत्र अनेक रूपों में उल्लेख मिलता है। एक पक्ष तो
अभिहितान्वयवादी मीमांसकों का है। वे मानते हैं कि वाक्यार्थ में उन्हीं अर्थों का
समावेश माना जा सकता है जिनकी उपस्थिति शब्द या पद की किसी वृत्ति से होती है।
वाक्यार्थ में पदार्थ की प्रतीति तो पद की शक्ति से हो जाती है,
पर एक पदार्थ
का दूसरे पदार्थ से संबंध रूप वाक्यार्थ भी किसी वृत्ति से आना चाहिए- यही वृत्ति
तात्पर्य है। अपदार्थ वाक्यार्थ उसी का विषय है।
तीन रूपों में उसकी चर्चा और मिलती है। एक है- ‘यत्परः शब्दः स शब्दार्थः’-
इस धारणा के
अनुसार शब्द का तात्पर्य केवल अदग्धदहनन्याय से विधेयांश में ही होता है,
वही
तात्पर्यार्थ है। दूसरा पक्ष है- ‘सोऽयमिषोरिव दीर्घ दीर्घतरो व्यापारः’
इसका पक्ष यह
है कि जिस प्रकार वेग युक्त छोड़ा हुआ वाण चर्म,
वक्ष और प्राण
का विदारण और हरण एक ही व्यापार से कर लेता है- शब्द भी एक ही व्यापार से (तथाकथित
वाच्य, लक्ष्य एवं व्यंग्य) सभी प्रकार के अर्थों का बोध करा सकता
है। पर यह दृष्टांत असंगत है। कारण, वाण का व्यापार अशक्त भाव से काम करता है,
जबकि शब्द की
शक्ति ज्ञात भाव से काम करती है। तीसरा वर्ग (दशरूपककार आदि) कहता है कि तात्पर्य
की कोई सीमा नहीं है- वह जहाँ तक जायेगा
वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द का वह तात्पर्यार्थ ही होगा। अतः वाच्य,
लक्ष्य तथा
व्यंग्य आदि सभी अर्थ तात्यार्यार्थ ही हैं। पर यह पक्ष भी ठीक नहीं है। तात्पर्य
की अपेक्षा व्यंजना का क्षेत्र व्यापक है। अतः यदि एक को दूसरे में गतार्थ करना हो
तो तात्पर्य को ही व्यंजना में गतार्थ करना चाहिए। शास्त्र में शब्द की और
शक्तियों- भावकत्व, भोजकत्व तथा रसना- की भी चर्चा है- पर उनका विस्तार यहाँ
अनपेक्षित है।
आलोच्य कृत्ति में डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने प्राचीन और
आधुनिक काल में हुए शब्द शक्ति विवेचन का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। प्राचीन
से यहाँ आशय उत्तर-मध्यकाल या रीतिकाल से है। इस काल में अनेकांग या सर्वांगनिरूपक
आचार्यों ने शब्द शक्ति पर अपने विचार रखे हैं- पर वे कृत का पिष्टपेषण करते रहे
हैं और उसमें भी न वह व्यवस्था है और न ही सुस्पष्टता। अभिधा,
लक्षणा,
तात्पर्य या
व्यंजना कोई भी शक्ति हो- कुछ न कुछ त्रुटियाँ अवश्य हैं। जहाँ नया कहने का प्रयास
हुआ है, वह भी क्षोदक्षम नहीं है। भिखारीदास जैसे आचार्य जाति,
गुण,
क्रिया और
यदृच्छा का उदाहरण गलत देते हैं। अनेकार्थक शब्द प्रयोग के स्थलों में परम्परा
शाब्दी व्यंजना का निरूपण करती है- ये लोग संयोगादि जैसे एक अर्थ में अभिधा के
नियमन की बात करके शांत हो जाते हैं, भिखारीदास ने कहा है-
अनेकार्थहू
शब्द में, एक अर्थ की भक्ति।
तिहि वाच्यारथ
को कहै, सज्जन अभिधा सक्ति।।
हाँ,
कविराजा
मुरारीदीन, बिहारी भट्ट प्रभृति आचार्य अवश्य परम्परा सम्मत शाब्दी
व्यंजना की बात करते हैं।
लक्षणा शक्ति के स्वरूप पर चलते ढंग से कुछ कह दिया गया है।
भेद के संदर्भ में कुछ नवोद्भावनाएँ हैं- पर वे विचारणीय और चिन्त्य हैं। देव को
ही लें
शुद्ध लक्षना
है, लक्षना में लक्षना है
शुद्ध लक्षना
है, लक्षणा में अमिधा कहौं।
शुद्ध लक्षना
है, व्यंजना में लक्षना कहौं।
तात्परजारथ
मिलत भेद बारह-
पदारथ अनन्त
सबदारथ मते छहौं।
शास्त्र की अपेक्षा यह सब प्रहेलिका ज्यादा है। यद्यपि टीका
लिख कर कुछ समझाने की कोशिश की है और मैंने भी समझने की कोशिश की है- पर कुछ साफ
निकलता नहीं। इसी प्रकार लक्षणा के भेद-प्रभेद में भी कुछ नई बातें कही गई हैं,
पर उनसे कोई
खास व्युत्पत्ति अर्जित नहीं होती। रही बात व्यंजना की - सो उसका स्वरूप विवेचन तो
कहीं लक्षित नहीं होता- भेद-प्रभेद अवश्य कहे गए हैं। मम्मट द्वारा किए गए प्रभेद पर
एक की टिप्पणी है कि यह सब भेद के लिए भेद है- उनका सोदाहरण भावगमन अबोध्य है।
आधुनिक चिन्तकों में शब्द शक्ति पर पं. रामचन्द्र शुक्ल ने
कुछ कह कर नये ढंग से सोचने की प्रेरणा अवश्य दी। उन्होंने कहा कि काल की रमणीयता
वाच्यार्थ में है- चाहे वह योग्य और उपपन्न हो या अयोग्य और अनुपपन्न। लक्षणा और
व्यंजना इसे योग्य और उपपन्न होने में सहायक होती है। अन्यथा वाच्यार्थ प्रलाप बन
कर रह जाएगा। एक बात और कही और वह यह कि वस्तु व्यंजना तथा अलंकार व्यंजना यदि
व्यंजनागम्य मानना है तो रस- भावादि असंलक्ष्यक्रम व्यंजना से मिल ‘रसना’ व्यापार या इसी तरह किसी भिन्न व्यापार का विषय माना जाना
चाहिए।
डा. नगेन्द्र ने व्यंजना के विषय में एक नई बात कही और वह
यह कि व्यंजना वह शक्ति है जो कल्पना को उकसाती है। पर ये सारी उद्भावनाएँ सर्वथा
स्वीकार्य नहीं हैं।
छायावादी रचनाकारों में प्रसाद जी ने ‘छाया’ का अर्थ लावण्य मानकर इसे प्रतीयमान (ध्वनि) गर्भ ही बताया
है। उन्होंने कहा ही- “ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, उपचार वक्रता तथा अनुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएँ
हैं।’’
छायावादोत्तर चिन्तन में तो काव्यशास्त्र की जरूरत पर ही
प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया गया। शब्द शक्ति के संदर्भ में अज्ञान का विद्रूप
विजृम्भण है। एक आलोचकम्मन्य सज्जन कहते हैं- “साहित्यशास्त्र आलोचना नहीं है।’’
उनका मतलब है
कि वह कुछ है ही नहीं। ऐसे लोगों को न तो भारतीय दर्शन का ज्ञान है और न साहित्यशास्त्र का। उन्हें
इनसे नफरत है। वे पश्चिमी दर्शन और साहित्यचिन्तन के प्रेमी हैं- उसी की नाम माला
जपते रहते हैं। व्यापक अर्थ में विश्वभर का साहित्यचिन्तन,
यदि वह
व्यवस्थित है तो साहित्य का शास्त्र ही है। वह रचना को देखने- परखने की चेतना देता
है अथवा निसर्गजात आलोचनात्मक चेतना को निखारता है। ‘नहीं’ के साथ जो ‘है’ का पक्ष नहीं रखता वह मूलतः विध्वंसक वृत्ति का चिन्तक है।
रामचन्द्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी की पंक्ति में रखे जाने का वे स्वप्न देखते
हैं- पर हैं उद्वाहु वामन।
मति अति रंक मनोरथ राऊ
सम्प्रति पाश्चात्य चिन्तन की ओर भी दृष्टिपात करना चाहिए।
पैगम्बरी या सामी मत के क्रिश्चियन और इसलामी संस्कृति के संक्रमण से भारतीय
संस्कृति की संवाहिनी भाषा में भी कुछ नया संक्रान्त किया। मुहावरों की प्रचुरता
इसलामी साहित्य की भाषा की देन मानी जाय तो क्रिश्चियन संस्कृति की संवाहिका आंग्ल
भाषा की देन लाक्षणिक चपलता की संक्रान्ति को देना होगा। छायावाद और छायावादोत्तर
काव्यभाषा में यह संक्रान्ति और वैयक्तिक प्रयोगों की प्रचुरता दृष्टिगोचर होने
लगी। तभी से यह भी कहा जाने लगा कि अब भारतीय साहित्यशास्त्र का शक्ति विवेचन
नाकामयाब होता जा रहा है। इनके लिए अंगूर खट्टे हो गए। रामचन्द्र शुक्ल के लिए
मीठे थे, उन्होंने उसे समझा, समझने की निष्ठापूर्वक कोशिश की और भावी पीढ़ी को निर्देश
भी दिया कि वे इस दिशा में सोचते रहे। आचार्य का यह निर्देश धरा ही रह गया और
घोषणा की जाने लगी ‘साहित्यशास्त्र की जरूरत ! साहित्यशास्त्र आलोचना
(सैद्धान्तिक) नहीं। इनमें कहीं न कहीं और जगह से आती आवाज है। अस्तु।
योरुपीय चिन्तन ने कई करवटें बदली हैं- एक युग था
प्लेटो-अरस्तू की अकादमी का - जो ‘रैशनलिस्ट’ था। परवर्ती मध्यकाल क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में श्रद्धा
और विश्वास का बुद्धि विरोधी युग था। नवजागरण में अकादमी की रैशनेलिटी ने फिर जोर
पकड़ा और ‘विज्ञान’ का प्रभाव जमा। इसने प्रौद्योगिकी को जन्म दिया। पूँजीवादी
शक्तियाँ प्रभावी और अदम्य हो उठीं। इन सबका प्रभाव जीवन और साहित्य पर पड़ना
स्वाभाविक था। प्रत्येक राष्ट्र के चिन्तन पर उसकी अपनी छाप उभरने लगी- वह क्षेत्र
चाहे साहित्यशास्त्र का हो, भाषा विज्ञान का हो या शैली विज्ञान का।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग से कुछ पूर्व तक योरुपीय
साहित्यशास्त्र का संबंध मुख्य रूप से परम्पराग्रस्त एवं रूढ़ विषयों- जैसे,
शब्दों का
चुनाव, रीति रचना आदि से ही था। फलतः साहित्यशास्त्र के सूक्ष्म
प्रश्न अछूते ही रह गए। व्यवहार में उनका अवतार कतई न हो सका। फिर भी आरंभिक
वाद-विवादों में कुछ ऐसा है, जिनसे सूक्ष्मतत्त्वों का संबंध स्थिर किया जा सकता है।
काव्य के आधार शब्द हैं। काव्य शब्दों का उपयोग इस तरह से
करता है कि उसकी सहायता से हमारे भाषा और विचार हमारी कल्पना में इन्द्रियोत्तेजक
अनुभवों के रूप में नाचने लगते हैं। रचना कौशल द्वारा काव्य,
भाषा को
आतंरिक अनुभव के समशील होने के लिए विवश कर
देता है। भाषा की यह शक्ति कविता में अधिक दृष्टिगोचर होती है। कविता भाषा
में आंतरिक अनुभव का प्रतिरूप देती है और इस उद्देश्य को वह शब्दों के अर्थ तत्त्व
एवं संगीत तत्त्व के मेल से पूर्ण करती है।
पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का विचार है कि शब्दों के दो तरह
के अर्थ हैं- Grammatical
and emotive सरल और प्रतीयमान। यह सरल अर्थ अभिधेय अर्थ है,
जिसे हम कोश
में पाते हैं। काव्य में सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है,
परंतु वह
शब्दों के असरल मूल्यों पर अधिक एकाग्र होती है। इस असरल की परिधि में लक्ष्य और
व्यंग्य अर्थों का समावेश संभव है। शब्दों का असरल या काव्यात्मक मूल्य उनके अर्थ
की असामान्य योग्यता के अतिरिक्त कोई दूसरी चीज नहीं है। यह असामान्य योग्यता
विशिष्ट साहचर्यों के संदर्भ में व्यंजित होती है। शब्द को मूल्य देने में कवि उस
शब्द को उसके सरल अर्थ से हटाकर उसे ऐसे अर्थ का व्यंजक करता है,
जिससे वह शब्द
वैयक्तिक शक्ति या विशिष्ट जान पा पाता है। शब्दों के मूल्य का स्रोत है-अनुभव।
अरस्तू ने कवियों को यह संम्मति दी है कि उन्हें अपने वाक्यांश को Strange रूप देना चाहिए,
ताकि उससे
लोकोत्तर आनंद मिले। कुंतक या महिम भट्ट ने जिस वक्रता की बात की है उसकी अनुगूंज
अरस्तू के इस वक्तव्य में स्पष्ट है That deviates from the ordinary. काव्योचित शब्दों के चुनाव की
बात कुन्तक या आनंदवर्धन आदि सभी ने की है। लांजाइनस का भी पक्ष है कि कविता उसी
को कहते हैं, जो हर्षोन्माद पैदा करे। वह जिस औदात्य को काव्य का मर्म
मानता है, उसकी पहचान यही है कि वह प्रसाद एवं प्रभाव का वास्तविक
उपस्थापक हो। विट, आयरनी, ह्यूमर एवं सेटायर में भी व्यंजना काम करती है। प्रतीकवाद
जिन प्रतीकों की पक्षधरता करता है, वे व्यंजक ही हैं। काव्यभाषा पर सभी विचार करते हैं।
रिचर्ड्स भी काव्यभाषा पर विचार करते हुए मानता है कि काव्य में हम जिस अर्थ से
प्रभावित होते हैं, उस अर्थ तक पहुँचने के लिए जिनकी सहायता ली जानी चाहिए,
वे हैं Sense, feeling, tone तथा Intention। रामचन्द्र शुक्ल तीसरे को व्यंजक सामग्री में अन्तर्भुक्त करते हैं।
इनका शिष्य एम्प्सन जिन सात प्रकार की अस्पष्टताओं का गहन विवेचन करता हुआ व्यंजना
की ही तमाम प्रविधियों की ओर संकेत करता है। कला का मनोवैज्ञानिक चिन्तन भी हुआ
है। इसमें Suggestiveness पर भी विचार हुआ है। Suggestiveness की चर्चा अवरक्राम्बे स्पष्ट ही करता है। यह तो स्पष्ट ही व्यंजना है।
अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद के संदर्भ में भी इसकी संभावना जगती है।
निष्कर्ष यह कि पाश्चात्य काव्यशास्त्र भी काव्य के लोकोत्तर प्रभाव और
सौंदर्यसंवेदन के अनुरूप प्रयुक्त काव्यभाषा पर विविध प्रकार से विचार करता है और
इस उद्देश्य की पूर्ति भाषा में प्रयुक्त समर्थ शब्दों द्वारा ही संभव है। यह सामर्थ्य
ही तो शब्द की शक्ति है। वहाँ स्पष्टतः अभिधा,
लक्षणा तथा
व्यंजना और तात्पर्य की चर्चा हो या न हो, पर सामथ्र्य और उसे उपयुक्त शब्दों में रहने की बात कहकर
शब्द शक्ति के इर्द-गिर्द वैचारिक यात्रा अवश्य हुई है।
जहाँ तक भाषा विज्ञान का संबंध है- अर्थ विज्ञान के अन्तर्गत
शब्द शक्तियों का संदर्भ तब आता है, जब अर्थपरिवर्तन के प्रकारों की चर्चा होती है। आलोच्य
ग्रंथ में इस पक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। कहा गया है ‘विचित्रःशब्दशक्तयः’ उसका विस्मयावह रूप इस अर्थ परिवर्तन में स्पष्ट रूप से
देखने को मिलता है।
भाषा विज्ञान और शैली विज्ञान पर देश-भेद से उसकी चिन्तन
प्रकृति के अनुरूप विविधविध प्रस्तुतियाँ हुई हैं। डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने उन
सबको समेटने का प्रयास किया है। शैली के सामान्यतः चार रूप चर्चा में आते हैं। चयन
या विचलन, सादृश्य, समांतरता और अग्र प्रस्तुति। यहाँ भी काव्य भाषा की
काव्योचित शैली पर गंभीर विचार हो रहा है, जिसमें शब्द सामथ्र्य पर बल दिया गया है। यही शब्द सामथ्र्य
शक्ति का नामान्तर है। इस सामथ्र्य पर प्रकाश विकीर्ण करने का अपने ढंग का यहाँ
नया आयाम खोला गया है। इसकी असाधारण विशेषता इसकी वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक पद्धति है।
नव लेखन वाले रचना के विश्लेषण में इसे अपर्याप्त मानते हैं। इसकी चर्चा बाद में
की जाएगी। सामान्य भाषा भी सोद्देश्य प्रयुक्त होती है,
परंतु
काव्यभाषा एक अतिरिक्त सर्जनात्मक सोद्देश्यता होती है। सामान्य भाषाशास्त्र के
सिद्धान्तों द्वारा भी इसकी खोज की जाती है, पर वह पर्याप्त नहीं पड़ता। अतः एक अलग प्रायोगिक शास्त्र
प्रतिपादित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। शैली विज्ञान इसी की पूर्ति के लिए
सत्तासादन करता है। व्याकरण की दृष्टि से क्या संगत है,
क्या असंगत-
शैली विज्ञान में यह कम महत्त्व रखता है, महत्त्व रखता है इस माने में कि विभिन्न विकल्पों के बीच
में से उचित और अनुरूप विकल्प का विधान क्यों किया गया ?
शैली विज्ञान
इसकी साभिप्रायता के लिए कुछ निश्चित सिद्धान्त निर्धारित करता है। भारतीय
काव्यशास्त्र के विभिन्न मतवाद भाषा की ही विशेषताओं के विश्लेषण पर बल देते हैं।
विगत दशक में आधुनिक भाषा विज्ञान में अर्थ के ऊपर विशेष बल
देने की प्रवृत्ति सामने उभरी है और सतही संरचना तथा भीतरी संरचना के बीच तालमेल
स्थापित करने वाले भाषाई सूत्रों की तलाश शुरू हुई है। उसने पश्चिम में
काव्यशास्त्र को ऐसा नया मोड़ दिया है जो निरा बाह्य रूपवादी नहीं है और न वह जीवन
निरपेक्ष है। इसे क्रोचे के काव्यदर्शन से संबद्ध नहीं किया जा सकता। इसमें सोवियत
संघ, चेकोस्लोवाकिया, इंग्लैंड, अमेरिका आदि सभी प्रमुख भाषाशास्त्र के केन्द्रों के विचारक
काव्यभाषा के विश्लेषण के द्वारा काव्यार्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं और
काव्यभाषा के विभिन्न स्तरों (अर्थ, वाक्य, पद, रूप, वर्ण) पर ऊपरी और भीतरी संबंधों के तनावों का अध्ययन करके
किसी भी काव्यकृति में निहित छंद (छिपी हुई लयात्मकता को ध्वनि से अधिक अर्थ के
रूप में) को स्थापित करने का यत्न कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति अब हिन्दी संस्थान तथा
राष्ट्रीय शिक्षा संस्थानों में आ गई है। भारतीय दृष्टि काव्य को सिद्ध वस्तु नहीं,
व्यापार या
प्रक्रिया मानती है। कुन्तक तदर्थ वक्रत्वव्यापार और ध्वनिप्रस्थान ध्वननव्यापार
में काव्यत्व देखता है। इस प्रकार भाषा विज्ञान और शैली विज्ञान के इन अनुशासनों
में अपने ढंग से काव्यार्थ का विश्लेषण होता है,
जिसमें भाषा सामर्थ्य
(क्षमता या शक्ति) का विवेचन होता रहता है।
समीक्षा पर काव्येतर या साहित्यशास्त्रेतर अनुशासनों के
बढ़ते आक्रमण को देखकर समीक्षा का नया प्रस्थान कृति केन्द्रित प्रस्थान है। यह
अपने ही भीतर प्रयुक्त सौंदर्य के उपकरणों के सहारे काव्यालोचन को सर्जनात्मक
बनाता है। ‘नई समीक्षा’ में यह सामान्य सिद्धान्त खोजने का प्रयास है कि कविता को
रूपायित करने वाली आधारभूत वस्तु क्या है ? इस रास्ते पर चलने वाले समीक्षक मानते हैं कि आधुनिक
साहित्य चिन्तन की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह अर्थ को एक और स्थिर रूप में न
मानकर बहुस्तरीय तथा विकसनशील मानता है। शैली विज्ञान से अर्थ विकसित नहीं होता,
एक निर्धारित
दिशा में चलकर बँध जाता है। आधुनिक आलोचना अर्थ और अनुभव की सूक्ष्म अद्वैत
प्रक्रिया को समझने का उपक्रम है। उनका विचार है कि परम्परित काव्यशास्त्र से
आधुनिक साहित्यचिन्तन की यह प्रक्रिया गुणात्मक रूप से भिन्न है। मतलब भारतीय
काव्यशास्त्र भी इस यात्रा में बहुत पीछे पड़ गया है।
इस प्रकार जब हम पौरस्त्य और पाश्चात्य काव्य चिन्तन के
विविधविध प्रयासों का तुलनात्मक आकलन करते हैं तो पाते हैं कि उभय देशीय चिन्तन
काव्यार्थ को अपने ढंग से समझने-समझाने और विकसनशील करने की दिशा में सक्रिय और
गतिशील है। हिन्दी नवलेखन के समीक्षक साहित्य की सर्जनात्मक समीक्षा में काव्य
शास्त्र, भाषाशास्त्र, शैली विज्ञान आदि को अपर्याप्त बताते हुए शुक्लजी द्वारा
प्रस्तावित संश्लिष्ट बिंब विधान को सर्वोच्च प्रतिमान निरूपित करते हैं। सब लोग
क्या भूल जाते हैं- इसकी याद वे दिलाते हैं, पर स्वयम् वे यह भूल जाते हैं कि काव्य की व्याख्या में
शब्द शक्ति का अवलंब लेना कितना आवश्यक है। अपने चिन्तन के अनुरूप पड़ने वाले
शुक्लजी के संश्लिष्ट बिंबविधान को तो रेखांकित किया गया,
परंतु उन्हीं
के द्वारा सुस्पष्ट विवेचन के लिए अपेक्षित शब्द शक्तियों के गहन विवेचन और उसके
संचार की उपेक्षा कर दी गई। फलतः उनका फतवा सामने आ जाता है कि काव्यालोचन में
भारतीय काव्यशास्त्र गैर जरूरी और अप्रासंगिक है। ध्वनि सिद्धान्त भी अभीष्ट अर्थ
और अनुभव के अद्वैत तक नहीं पहुँचाता। काव्यचिन्तन के क्षेत्र में यह दुर्भागय की
बात है कि शब्दसामथ्र्य या शब्द शक्ति के व्यवस्थित विवेचन का दरवाजा ही बंद कर
दिया गया और अंगूर खट्टे हैं- कहकर उसकी उपेक्षा कर दी गई।
आयुष्मान् डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने संकल्प तो लिया कि ‘शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी
काव्यशास्त्र’ शीर्षक विषय लेकर मंथन कर यह तथ्य साहित्य चिन्तकों के
समक्ष रखा जाए कि सब तरफ साहित्य मंथन के नाम पर जो हो रहा है,
उसमें शब्द
शक्ति की क्या दशा है ? आज नए चिन्तन में उसमें न तो कुछ जोड़ा जा रहा है और न ही
उसका सहारा लेकर काव्य का विश्लेषण हो रहा है। यदि साहित्य चिन्तक इस दिशा में
सक्रिय हों तो व्याख्या जगत् का गड़बडझाला निःशेष हो जाए। डा. शर्मा को एतदर्थ
हार्दिक बधाइयाँ।
-राममूर्ति त्रिपाठी
2, स्टेट बैंक कालोनी,
देवास रोड, उज्जैन (म.प्र.)
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आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी |
http://www.hindibook.com/index.php?p=sr&Uc=HB-30496
शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी काव्यशास्त्र। डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ISBN 81-214-0313-8
Shabd Shakti Sambandhi Bhartiya Aur Pashchatya Avdharnatatha Evam Hindi Kavyashastra | Kumar Shailendra Sharma
Binding: HB | Language: hindi |ISBN 81-214-0313-8
List Price: 600.00 P 536
Subjects: Criticism
प्रकाशक: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली