कालिदास मीमांसा : महाकवि के रचना विश्व पर दृष्टिपूर्ण मंथन
- प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
संपूर्ण भारतीय साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य में महाकवि कालिदास अद्वितीय रचनाकार के रूप में सुस्थापित हैं। वे अनेक शताब्दियों से देश के असंख्य कवियों को अजस्र प्रेरणा दे रहे हैं। क्या व्यक्ति और परिवार जीवन, क्या समाज जीवन, क्या राष्ट्र जीवन और क्या विश्व जीवन - महाकवि की दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं है। कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास: ऐसे ही नहीं कहा गया और उनकी चर्चा के बाद अनामिका को सार्थक होना ही था। सदियों से उनके साहित्य का मंथन विश्व के अनेक मनीषियों ने अपनी - अपनी दृष्टियों से किया है। इसी शृंखला में महाकवि के विराट रत्नराशिमय साहित्य सागर और काव्य सौंदर्य के अध्ययन - आकलन - विश्लेषण की दिशा में यशस्वी विद्वान पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगाँवकर का ग्रन्थ कालिदास मीमांसा महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बना है। पुस्तक का सुरुचिपूर्ण संपादन उनके सुपुत्र डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर ने किया है। लेखक ने इस बृहद् ग्रंथ के माध्यम से पूरी परम्परा में अनन्य महाकवि के गुणों का अन्वेषण और उसके साहित्य सागर में मग्न होकर बिखरे हुए रत्नों को ढूंढ निकालने का अथक परिश्रम किया है और इसमें वे सफल भी रहे हैं।
पुस्तक : कालिदास मीमांसा
लेखक - पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगाँवकर संपादक – डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर |
ग्रन्थ के संपादकीय में डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर ने कालिदास और कालिदासीय काव्य की मीमांसा की जरूरत की ओर सार्थक संकेत किया है - जो अध्येता काव्य की सतह पर ही संतरण करता है तथा उसके अंतर में पैठने की योग्यता नहीं रखता वह कथमपि अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण निर्वाह नहीं कर सकता। किसी भी कवि कर्म की दृढ़ परीक्षा किए बिना, , मार्मिक मीमांसा किए बिना, किसी काव्य के गुण दोष का पूर्णज्ञान हमें नहीं हो सकता। ….. मीमांसा की भी इसलिए आवश्यकता है कि सामान्य कवि तथा महाकवि के कर्म का अंतर स्पष्टतः ज्ञात हो सके और इसी कार्य के संपादन की योग्यता से व्यक्ति ही आलोचक का गौरवपूर्ण पद प्राप्त कर सकता है। ग्रंथकार पद्मश्री मुसलगांवकर आलोचक की इस कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरे हैं।
महाकवि कालिदास की रचना शक्ति के वैशिष्ट्य को कई आलंकारिकों, कवियों और सुभाषितकारों ने विविध रूपों में प्रतिपादित किया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से डॉ मुसलगांवकर ने उस महनीय परंपरा से स्वयं को जोड़ते हुए रस, ध्वनि, रीति, अलंकार आदि के महत्त्वपूर्ण उदाहरणों के साक्ष्य पर कालिदास की अनुपम साहित्यिक उपलब्धियों की पड़ताल की है। आचार्य दंडी ने मधुद्रव से लिप्त, महाकवि की निर्विषया वाणी और वैदर्भी रीति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। ग्रंथकार भी उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए कहता है, कालिदास उन महाकवियों में से हैं, जिनकी कोयल के शब्द के समान कर्णेन्द्रिय को सुख देने वाली, रस - अलंकार आदि से युक्त, चमत्कार पैदा करने वाली उक्तियों से अथवा कविता समूहों से विभूषित मुखों में सरस्वती अपनी वीणा बजाती सी सदैव शोभित होती है।
लेखक ने प्रारंभिक अनुच्छेद महाकवित्व कितना सुकर, कितना दुष्कर! के माध्यम से कविता रूपी तपश्चर्या पर खरे उतरे कालिदास के वैशिष्ट्य का हृदयग्राही निरूपण किया है। लेखक ने कालिदास को द्रष्टा और स्रष्टा के रूप में परखा है तो उनके क्रांतिदर्शत्व की भी पड़ताल की है। भारतीय काव्यशास्त्राचार्यों की दृष्टि में कवि के लिए दर्शन और वर्णन दोनों ही अत्यंत आवश्यक गुण हैं। उनका कथन है कि द्रष्टा होने पर भी कोई व्यक्ति तब तक कवि नहीं हो सकता, जब तक वह अपने प्रातिभचक्षु से अनुभूत दर्शन को कमनीय शब्दों में प्रकट नहीं करता। क्योंकि कवि - कर्म में दर्शन और वर्णन दोनों का ही समन्वय रहता है। लेखक ने कालिदास के काव्य से कतिपय उदाहरणों के साक्ष्य पर प्रतिपादित किया है कि अनुरूप अर्थ का अर्थ के अनुरूप शब्द प्रयोग करने की योग्यता महाकवि कालिदास में होने से ही वे आज अखिल विश्व के सहृदय पाठकों के कंठाभरण बने हुए हैं। उनके काव्यों में शब्द और अर्थ दोनों की अन्यूनानतिरिक्त परस्पर स्पर्धापूर्वक मनोहारिणी श्लाघनीय स्थिति देखने को मिलती है। निश्चित ही उस आस्वादमय - रस - भावरूप अर्थतत्व को प्रवाहित करने वाली कालिदास की वाणी उसके अलौकिक, प्रतिभासमान, प्रतिभा (अपूर्ववस्तु निर्माणक्षमा प्रज्ञा) के वैशिष्ट्य को प्रकट करती है। इसीलिए नानाविध कवि परंपराशाली इस संसार में कालिदास आदि दो - तीन अथवा पाँच – छह ही महाकवि गिने जाते हैं। आचार्य आनंदवर्धन के इस हृदयोद्गार का समर्थन लोचनकार आचार्य अभिनव गुप्त ने भी किया है। अभिव्यक्तेन स्फुरता प्रतिभाविशेषेन निमित्तेन महाकवित्वगणनेति यावत् अर्थात् अभिव्यक्त या स्फुरित होते हुए प्रतिभा - विशेषरूप निमित्त से महाकवित्व की गणना (महाकवियों में गणना) होती है।
लेखक की दृष्टि में कालिदास के महाकवि होने का एक कारण और है, उनका ऋषि तुल्य क्रांतदर्शित्व। सच्चा कवि क्रांतदर्शी होता है - कवयः क्रांतदर्शिनः। व्यक्तिविवेककार महिमभट्ट के साक्ष्य पर डॉ मुसलगांवकर संकेत करते हैं कि इने गिने भाग्यशालियों की परंपरा में कालिदास को ही पांक्तेय होने का गौरव आज तक प्राप्त है, जिनकी क्रांतिदर्शिता की जड़ें सहस्रों वर्षों की राष्ट्रीय - सांस्कृतिक परंपरा में गहराई तक गई हुई होती हैं और तद्जन्य होने वाली राष्ट्र की समग्रचेतना को अभिव्यक्ति देने की कला पर उनका विलक्षण अधिकार होता है।
कालिदास के समय को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है। लेखक डॉ मुसलगांवकर ने उनका आविर्भाव काल चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध या पांचवी शताब्दी के आरंभ को माना है। कालिदास के नाम और उनके जीवन से जुड़े विभिन्न गल्पों की सच्चाई पर भी लेखक ने पर्याप्त मंथन किया है। यहां लेखक का स्पष्ट आग्रह है कि कृती पाठक अन्वेषण करने जैसी बेकार बातों में उलझना नहीं चाहते और नहीं हम उन्हें उलझाना चाहते हैं और हमारे अभीष्ट कवि को भी यह रुचिकर नहीं है। कृतीपाठक को छककर कालिदास की कविता - कामिनी के सौंदर्य - रस का पान कराना चाहते हैं। फिर लेखक ने विक्रमोर्वशीय के पुरूरवा - विदूषक के संवाद के साक्ष्य पर निष्कर्ष निकाला है कि कालिदास स्वयं कृती को ही धन्य मानते हैं। यहीं पर डॉ मुसलगांवकर ने तत्त्वान्वेषण की विडम्बना से मुक्त होने का आग्रह किया है, कवियों की डांट फटकार के बावजूद दुनिया से तत्त्वान्वेषण का कारोबार बंद नहीं हो गया है, वह आज भी निरंतर गतिशील है। निश्चय ही इससे कवि की अंतरात्मा को कष्ट होता होगा। इसलिए हम भी इस तत्त्वान्वेषण के झगड़े में न पड़कर इतना ही कहना चाहते हैं कि कवि के गुप्तकालीन काव्यों में तरलित होती हुई उसकी प्रतिभा को देखकर भी उसे न पहचानने का कोई बहाना न करें इसी से उसे संतोष होगा।
ग्रंथ का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय कविता कामिनी के शृंगार पर केंद्रित है। लेखक ने यहाँ ऐसे तमाम विषयों का उल्लेख किया है, जिनका कवि ने अपनी कविता कामिनी के शृंगार के लिए उपयोग किया है। लेखक ने अनेक प्रसंगों के साक्ष्य पर उनकी बहुज्ञता प्रतिपादित की है। उदाहरण के लिए उदात्त आदि स्वरों के उल्लेख, अश्वमेध यज्ञ, अध्यात्मविद्या की ओर प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि कालिदास की व्युत्पत्ति वेद और वेदांग में बड़ी गहरी है। इसी तरह कालिदास स्मृतियों द्वारा प्रस्तुत राजधर्म, योगशास्त्र द्वारा प्रतिपादित ध्यान, आसन आदि, मीमांसाशास्त्रीय न्याय एवं धर्म के वास्तविक स्वरूप के निरूपण में भी निष्णात हैं। यहीं पर लेखक ने अनेकविध उदाहरणों से महाकवि कालिदास की सांख्यशास्त्र, न्याय एवं वैशेषिक दर्शन, गृह्यसूत्र, राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, सामुद्रिक शास्त्र, संगीत, चित्रकला, इतिहास एवं भूगोल में गति का सविस्तार परिचय दिया है।
लेखक ने महाकवि की कला सम्बन्धी मान्यताओं का भी सविस्तार निरूपण किया है। लेखक की दृष्टि में महाकवि कालिदास की कला विषयक मान्यताएं त्रिकालाबाधित और सार्वत्रिक मान्यता प्राप्त की हुई हैं। कला सृजन में विनिवेशन, अन्यथाकरण और अन्वयन की महिमा से कालिदास न केवल अवगत थे, वरन उनके लेखन से स्पष्ट संकेत मिलता है कि वे स्वयं बड़े कलानिष्णात थे। इसी प्रकार विभिन्न रचनाओं में भावाभिनिवेश, भावानुप्रवेश और यथालिखितानुभाव जैसे शब्दों का अर्थपूर्ण प्रयोग चित्रकला, नृत्य और अभिनय कला के क्षेत्र में कालिदास की विशेषज्ञता को सिद्ध करता है।
लेखक ने कालिदास की सातों रचनाओं ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और शाकुन्तल के वैशिष्ट्य की विशद पड़ताल इस ग्रंथ में की है। इन रचनाओं से जुड़ा हुआ कोई भी महत्वपूर्ण पक्ष लेखक की आंखों से ओझल नहीं है। चाहे ऋतुसंहार में अनुस्यूत महाकवि की मार्मिक निरीक्षण सृष्टि और उज्ज्वल नैसर्गिक प्रतिभा हो, चाहे मेघदूत की कलात्मक चारुता और मेघाच्छन्न प्रकृति के साथ प्राणिमात्र के अद्भुत रहस्यमय सम्बन्धों का अंकन या फिर कुमारसंभव के माध्यम से कालिदास द्वारा अपने जीवन दर्शन को विस्तृत कथा फलक पर अंकित करने का समर्थ प्रयत्न हो अथवा रघुवंश के माध्यम से राग और विराग, भोग और त्याग का संतुलित चित्र अंकित करने का प्रयास – ये सभी पहलू इस ग्रंथ में सहज ही उद्घाटित हो गए हैं। इसी प्रकार ग्रंथकार ने कालिदास की नाट्यत्रयी को उनकी नाट्य कला के क्रमशः विकासमान होने के क्रम में दिखाया है। वे लिखते हैं, मालविकाग्निमित्रम् में कवि की नाट्यकला का अंकुर प्रस्फुटित होकर विक्रमोर्वशीय में वह पुष्पित होता हुआ अभिज्ञानशाकुंतल में पूर्ण रूप से संस्कृत नाट्यकला के मधुरतम फल के रूप में परिणत हुआ है। तीनों नाटकों की संविधानक रचना, पात्र – स्वभाव चित्रण, रस व्यंजना आदि की गम्भीर विवेचना इस ग्रंथ की उपलब्धि है।
लेखक की दृष्टि में कालिदास का काव्य उत्तरकालीन सभी काव्यों से, सभी काव्य - क्षेत्रों में, अतिशय (बढ़ा – चढ़ा) है - किं बहुना अतिशेते सर्वमतो विशिष्ट:, इसलिए उनका काव्य विशिष्ट है। एक प्रकार से वे अपने काव्यप्रभाव से उन उत्तरवर्ती कवियों पर शासन करते हैं, इसलिए वे शिष्टकृत् भी हैं - शिष्टं शासनं तत् करोतीति शिष्टकृत्, काव्य कवि की आत्मा से प्रसूत होने से एक प्रकार से वह आत्मजन्मा होता है। (आत्मनो जन्म यस्य) उन दोनों में अभेद होता है। उसका काव्य कवि की चैतन्यमूर्ति होती है। दोनों एकाकार होते हैं। जब वह समाधिस्थ होता है, उसकी चित्तवृत्ति बाह्य विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। ऐसी दशा में कहां कवि कालिदास और कहां उसका प्रसूत काव्य। द्वैतभावना से मुक्त।
इस ग्रन्थ के माध्यम से लेखक ने स्थान स्थान पर कतिपय विद्वानों की सीमाबद्ध मान्यताओं का भी तर्कपूर्वक खंडन किया है। जैसे एक मान्यता रही है कि कालिदास कवि हैं, नाटककार नहीं। लेखक की दृष्टि में संस्कृत साहित्य का यह शलाका पुरुष मूर्धन्य नाटककार तथा कवि दोनों ही है। इसकी पुष्टि विक्रमोर्वशीय और शाकुंतल में रचित कथावस्तु विनियोग द्वारा हो जाती है। उन्होंने जीवन के गत्यात्मक चित्र का निर्वाह बड़ी कुशलता से किया है। इस दृष्टि से उत्तरकालीन विशाखदत्त नाटककार ही उनके समकक्ष प्रतीत होता है। भवभूति को जिन्होंने दांपत्य जीवन के आदर्श बीज को करुण रस से सींच कर उत्तररामचरित में पल्लवित किया है, नाटकीय दृष्टि से सफल नाटककार नहीं कहा जा सकता। महाकवि कालिदास की एक नाटककार के रूप में सफलता की वजह है कि वे अपने कवित्व के भार से नाटक की कथावस्तु को कहीं भी आक्रांत कर, गतिहीन नहीं करते हैं। विक्रमोर्वशीय के चतुर्थ अंक में अनुस्यूत पुरूरवा की भावात्मक उक्तियाँ भी प्रसंग के अनुरूप ही हैं, क्योंकि वहां पुरूरवा की विक्षिप्त दशा का संकेत देना कवि का अभीष्ट है।
परवर्ती साहित्य पर महाकवि कालिदास के प्रभाव का भी पर्याप्त निरूपण इस ग्रंथ में किया गया है। भवभूति, हर्ष, राजशेखर, बिल्हण, माघ जैसे अनेक रचनाकारों ने कालिदास के दाय को किसी न किसी रूप में अंगीकार किया है।
कालिदासीय साहित्य के सूक्ष्म पर्यालोचन के आधार पर लेखक ने संकेत दिया है कि महाकवि ने अनेक शास्त्रों का अध्ययन तथा विविध विषयों का सूक्ष्म अवलोकन कर व्युत्पन्नता प्राप्त कर ली थी। धर्म, दर्शन, राजतंत्र, शिक्षा, नाट्यकला, चित्रकला आदि अनेक विषयों पर उन्होंने मननपूर्वक तद्विषयक अपने मत को निर्धारित करके अपने ग्रंथों में उनका यथास्थान उपयोग किया है। लेखक ने उनके काव्य में अंतर्निहित समन्वयवादी दृष्टिकोण को अनेक उदाहरणों के साक्ष्य पर स्पष्ट किया है। महाकवि कालिदास के लोकचरित्र, राजा और राजधर्म, यज्ञ कर्म, शिक्षा, व्रत - नियम, प्रसाधन, कहावतों, उक्ति वैचित्र्य आदि अनेक पक्षों की विशद चर्चा ग्रन्थकार ने की है।
ग्रंथकार ने प्रारंभ में आचार्य श्रीनिवास रथ और डॉ विंध्येश्वरीप्रसाद मिश्र विनय द्वारा प्रणीत महाकवि कालिदास पर केंद्रित दो रचनाओं क्रमशः कालिदास कविता एवं नन्वहं कालिदासो ब्रवीमि को प्ररोचना के रूप में प्रस्तुत किया है, जो महाकवि की महिमा का सरस अनुकीर्तन करती हैं।
ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट में लेखक ने कालिदास के विश्वप्रसिद्ध सुभाषितों का संचयन किया है, जो काव्य रसिकों कालिदास साहित्य के जिज्ञासुओं और शोधकर्ताओं के लिए उपादेय सिद्ध होंगे।
समग्रतः डॉ मुसलगांवकर का ग्रंथ कालिदास मीमांसा महाकवि के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करने में तो सफल है ही, कई नवीन स्थापनाओं के लिए भी उल्लेखनीय बन पड़ा है। लेखक ने कालिदास को भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों के आलोक में देखा परखा है और उनकी रचनात्मक उपलब्धियों की बहुविध मीमांसा कर एक नई दिशा का भी सन्धान किया है। कालिदास साहित्य के जिज्ञासुओं से लेकर विशेषज्ञों तक सभी इस पुस्तक से लाभन्वित होंगे, ऐसी आशा व्यर्थ नहीं होगी।
पुस्तक : कालिदास मीमांसा
लेखक : डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर
संपादक : डॉ. राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर
प्रकाशक : चौखंबा संस्कृत संस्थान, वाराणसी
मूल्य : रुपए 525
पृष्ठ : 324