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20201213

कालिदास मीमांसा : पुस्तक समीक्षा - प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा | Kalidas Mimansa : Book Review Prof. Shailendra Kumar Sharma

कालिदास मीमांसा : महाकवि के रचना विश्व पर दृष्टिपूर्ण मंथन

- प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा


संपूर्ण भारतीय साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य में महाकवि कालिदास अद्वितीय रचनाकार के रूप में सुस्थापित हैं। वे अनेक शताब्दियों से देश के असंख्य कवियों को अजस्र प्रेरणा दे रहे हैं। क्या व्यक्ति और परिवार जीवन, क्या समाज जीवन, क्या राष्ट्र जीवन और क्या विश्व जीवन -  महाकवि की दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं है। कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास: ऐसे ही नहीं कहा गया और उनकी चर्चा के बाद  अनामिका को सार्थक होना ही था। सदियों से उनके साहित्य का मंथन विश्व के अनेक मनीषियों ने अपनी - अपनी दृष्टियों से किया है। इसी शृंखला में महाकवि के विराट रत्नराशिमय साहित्य सागर और काव्य सौंदर्य के अध्ययन - आकलन - विश्लेषण की दिशा में यशस्वी विद्वान पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगाँवकर का ग्रन्थ कालिदास मीमांसा महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बना है। पुस्तक का सुरुचिपूर्ण संपादन उनके सुपुत्र डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर ने किया है। लेखक ने इस बृहद् ग्रंथ के माध्यम से पूरी परम्परा में अनन्य महाकवि के गुणों का अन्वेषण और उसके साहित्य सागर में मग्न होकर बिखरे हुए रत्नों को ढूंढ निकालने का अथक परिश्रम किया है और इसमें वे सफल भी रहे हैं।


                  पुस्तक : कालिदास मीमांसा

लेखक - पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगाँवकर

संपादक – डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर


ग्रन्थ के संपादकीय में डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर ने कालिदास और कालिदासीय काव्य की मीमांसा की जरूरत की ओर सार्थक संकेत किया है -  जो अध्येता काव्य की सतह पर ही संतरण करता है तथा उसके अंतर में पैठने की योग्यता नहीं रखता वह कथमपि अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण निर्वाह नहीं कर सकता। किसी भी कवि कर्म की दृढ़ परीक्षा किए बिना, , मार्मिक मीमांसा किए बिना, किसी काव्य के गुण दोष का पूर्णज्ञान हमें नहीं हो सकता। ….. मीमांसा की भी इसलिए आवश्यकता है कि सामान्य कवि तथा महाकवि के कर्म का अंतर स्पष्टतः ज्ञात हो सके और इसी कार्य के संपादन की योग्यता से व्यक्ति ही आलोचक का गौरवपूर्ण पद प्राप्त कर सकता है। ग्रंथकार पद्मश्री मुसलगांवकर आलोचक की इस कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरे हैं। 


महाकवि कालिदास की रचना शक्ति के वैशिष्ट्य को कई आलंकारिकों, कवियों और सुभाषितकारों ने विविध रूपों में प्रतिपादित किया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से डॉ मुसलगांवकर ने उस महनीय परंपरा से स्वयं को जोड़ते हुए रस, ध्वनि, रीति, अलंकार आदि के महत्त्वपूर्ण उदाहरणों के साक्ष्य पर कालिदास की अनुपम साहित्यिक उपलब्धियों की पड़ताल की है। आचार्य दंडी ने मधुद्रव से लिप्त, महाकवि की निर्विषया वाणी और वैदर्भी रीति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। ग्रंथकार भी उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए कहता है, कालिदास उन महाकवियों में से हैं, जिनकी कोयल के शब्द के समान कर्णेन्द्रिय को सुख देने वाली, रस - अलंकार आदि से युक्त, चमत्कार पैदा करने वाली उक्तियों से अथवा कविता समूहों से विभूषित मुखों में सरस्वती अपनी वीणा बजाती सी सदैव शोभित होती है।


लेखक ने प्रारंभिक अनुच्छेद महाकवित्व कितना सुकर, कितना दुष्कर! के माध्यम से कविता रूपी तपश्चर्या पर खरे उतरे कालिदास के वैशिष्ट्य का हृदयग्राही निरूपण किया है। लेखक ने कालिदास को द्रष्टा और स्रष्टा के रूप में परखा है तो उनके क्रांतिदर्शत्व की भी पड़ताल की है। भारतीय काव्यशास्त्राचार्यों की दृष्टि में कवि के लिए दर्शन और वर्णन दोनों ही अत्यंत आवश्यक गुण हैं। उनका कथन है कि द्रष्टा होने पर भी कोई व्यक्ति तब तक कवि नहीं हो सकता, जब तक वह अपने प्रातिभचक्षु से अनुभूत दर्शन को कमनीय शब्दों में प्रकट नहीं करता। क्योंकि कवि - कर्म में दर्शन और वर्णन दोनों का ही समन्वय रहता है। लेखक ने कालिदास के काव्य से कतिपय उदाहरणों के साक्ष्य पर प्रतिपादित किया है कि अनुरूप अर्थ का अर्थ के अनुरूप शब्द प्रयोग करने की योग्यता महाकवि कालिदास में होने से ही वे आज अखिल विश्व के सहृदय पाठकों के कंठाभरण बने हुए हैं। उनके काव्यों में शब्द और अर्थ दोनों की अन्यूनानतिरिक्त परस्पर स्पर्धापूर्वक मनोहारिणी श्लाघनीय स्थिति देखने को मिलती है। निश्चित ही उस आस्वादमय - रस - भावरूप अर्थतत्व को प्रवाहित करने वाली कालिदास की वाणी उसके अलौकिक, प्रतिभासमान, प्रतिभा (अपूर्ववस्तु निर्माणक्षमा प्रज्ञा) के वैशिष्ट्य को प्रकट करती है। इसीलिए नानाविध कवि परंपराशाली इस संसार में कालिदास आदि दो - तीन अथवा पाँच – छह ही महाकवि गिने जाते हैं। आचार्य आनंदवर्धन के इस हृदयोद्गार का समर्थन लोचनकार आचार्य अभिनव गुप्त ने भी किया है। अभिव्यक्तेन स्फुरता प्रतिभाविशेषेन निमित्तेन  महाकवित्वगणनेति यावत् अर्थात् अभिव्यक्त या स्फुरित होते हुए प्रतिभा - विशेषरूप निमित्त से महाकवित्व की गणना (महाकवियों में गणना) होती है। 


लेखक की दृष्टि में कालिदास के महाकवि होने का एक कारण और है, उनका ऋषि तुल्य क्रांतदर्शित्व। सच्चा कवि क्रांतदर्शी होता है - कवयः क्रांतदर्शिनः। व्यक्तिविवेककार महिमभट्ट के साक्ष्य पर डॉ मुसलगांवकर संकेत करते हैं कि इने गिने भाग्यशालियों की परंपरा में कालिदास को ही पांक्तेय होने का गौरव आज तक प्राप्त है, जिनकी क्रांतिदर्शिता की जड़ें सहस्रों वर्षों की राष्ट्रीय - सांस्कृतिक परंपरा में गहराई तक गई हुई होती हैं और तद्जन्य होने वाली राष्ट्र की समग्रचेतना को अभिव्यक्ति देने की कला पर उनका विलक्षण अधिकार होता है। 


कालिदास के समय को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है। लेखक डॉ मुसलगांवकर ने उनका आविर्भाव काल चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध या पांचवी शताब्दी के आरंभ को माना है। कालिदास के नाम और उनके जीवन से जुड़े विभिन्न गल्पों की सच्चाई पर भी लेखक ने पर्याप्त मंथन किया है। यहां लेखक का स्पष्ट आग्रह है कि कृती पाठक अन्वेषण करने जैसी बेकार बातों में उलझना नहीं चाहते और नहीं हम उन्हें उलझाना चाहते हैं और हमारे अभीष्ट कवि को भी यह रुचिकर नहीं है। कृतीपाठक को छककर कालिदास की कविता - कामिनी के सौंदर्य - रस का पान कराना चाहते हैं। फिर लेखक ने विक्रमोर्वशीय के पुरूरवा - विदूषक के संवाद के साक्ष्य पर निष्कर्ष निकाला है कि  कालिदास स्वयं कृती को ही धन्य मानते हैं। यहीं पर डॉ मुसलगांवकर ने तत्त्वान्वेषण की विडम्बना से मुक्त होने का आग्रह किया है, कवियों की डांट फटकार के बावजूद दुनिया से तत्त्वान्वेषण का कारोबार बंद नहीं हो गया है, वह आज भी निरंतर गतिशील है। निश्चय ही इससे कवि की अंतरात्मा को कष्ट होता होगा। इसलिए हम भी इस तत्त्वान्वेषण के झगड़े में न पड़कर इतना ही कहना चाहते हैं कि कवि के गुप्तकालीन काव्यों में तरलित होती हुई उसकी प्रतिभा को देखकर भी उसे न पहचानने का कोई बहाना न करें इसी से उसे संतोष होगा। 


ग्रंथ का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय कविता कामिनी के शृंगार पर केंद्रित है। लेखक ने यहाँ ऐसे तमाम विषयों का उल्लेख किया है, जिनका कवि ने अपनी कविता कामिनी के शृंगार के लिए उपयोग किया है। लेखक ने अनेक प्रसंगों के साक्ष्य पर उनकी बहुज्ञता प्रतिपादित की है। उदाहरण के लिए उदात्त आदि स्वरों के उल्लेख, अश्वमेध यज्ञ, अध्यात्मविद्या की ओर प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि कालिदास की व्युत्पत्ति वेद और वेदांग में बड़ी गहरी है। इसी तरह कालिदास स्मृतियों द्वारा प्रस्तुत राजधर्म, योगशास्त्र द्वारा प्रतिपादित ध्यान, आसन आदि, मीमांसाशास्त्रीय न्याय एवं धर्म के वास्तविक स्वरूप के निरूपण में भी निष्णात हैं। यहीं पर लेखक ने अनेकविध उदाहरणों से महाकवि कालिदास की सांख्यशास्त्र, न्याय एवं वैशेषिक दर्शन, गृह्यसूत्र, राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, सामुद्रिक शास्त्र, संगीत, चित्रकला, इतिहास एवं भूगोल में गति का सविस्तार परिचय दिया है। 


लेखक ने महाकवि की कला सम्बन्धी मान्यताओं का भी सविस्तार निरूपण किया है। लेखक की दृष्टि में महाकवि कालिदास की कला विषयक मान्यताएं त्रिकालाबाधित और सार्वत्रिक मान्यता प्राप्त की हुई हैं। कला सृजन में विनिवेशन, अन्यथाकरण और अन्वयन की महिमा से कालिदास न केवल अवगत थे, वरन उनके लेखन से स्पष्ट संकेत मिलता है कि वे स्वयं बड़े कलानिष्णात थे। इसी प्रकार विभिन्न रचनाओं में भावाभिनिवेश, भावानुप्रवेश और यथालिखितानुभाव जैसे शब्दों का अर्थपूर्ण प्रयोग चित्रकला, नृत्य और अभिनय कला के क्षेत्र में कालिदास की विशेषज्ञता को सिद्ध करता है।


लेखक ने कालिदास की सातों रचनाओं ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और शाकुन्तल के वैशिष्ट्य की विशद पड़ताल इस ग्रंथ में की है। इन रचनाओं से जुड़ा हुआ कोई भी महत्वपूर्ण पक्ष लेखक की आंखों से ओझल नहीं है। चाहे ऋतुसंहार में अनुस्यूत महाकवि की मार्मिक निरीक्षण सृष्टि और उज्ज्वल नैसर्गिक प्रतिभा हो, चाहे मेघदूत की कलात्मक चारुता और मेघाच्छन्न प्रकृति के साथ प्राणिमात्र के अद्भुत रहस्यमय सम्बन्धों का अंकन या फिर कुमारसंभव के माध्यम से कालिदास द्वारा अपने जीवन दर्शन को विस्तृत कथा फलक पर अंकित करने का समर्थ प्रयत्न हो अथवा रघुवंश के माध्यम से राग और विराग, भोग और त्याग का संतुलित चित्र अंकित करने का प्रयास – ये सभी पहलू इस ग्रंथ में सहज ही उद्घाटित हो गए हैं। इसी प्रकार ग्रंथकार ने कालिदास की नाट्यत्रयी को उनकी नाट्य कला के क्रमशः विकासमान होने के क्रम में दिखाया है। वे लिखते हैं,  मालविकाग्निमित्रम् में कवि की नाट्यकला का अंकुर प्रस्फुटित होकर विक्रमोर्वशीय में वह पुष्पित होता हुआ अभिज्ञानशाकुंतल में पूर्ण रूप से संस्कृत नाट्यकला के मधुरतम फल के रूप में परिणत हुआ है। तीनों नाटकों की संविधानक रचना, पात्र – स्वभाव चित्रण, रस व्यंजना आदि की गम्भीर विवेचना इस ग्रंथ की उपलब्धि है। 


लेखक की दृष्टि में कालिदास का काव्य उत्तरकालीन सभी काव्यों से, सभी काव्य - क्षेत्रों में, अतिशय (बढ़ा – चढ़ा) है - किं बहुना अतिशेते सर्वमतो विशिष्ट:, इसलिए उनका काव्य विशिष्ट है। एक प्रकार से वे अपने काव्यप्रभाव से उन उत्तरवर्ती कवियों पर शासन करते हैं, इसलिए वे शिष्टकृत् भी हैं - शिष्टं शासनं तत् करोतीति शिष्टकृत्, काव्य कवि की आत्मा से प्रसूत होने से एक प्रकार से वह आत्मजन्मा होता है। (आत्मनो जन्म यस्य) उन दोनों में अभेद होता है। उसका काव्य कवि की चैतन्यमूर्ति होती है। दोनों एकाकार होते हैं। जब वह समाधिस्थ होता है, उसकी चित्तवृत्ति बाह्य विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। ऐसी दशा में कहां कवि कालिदास और कहां उसका प्रसूत काव्य। द्वैतभावना से मुक्त।


इस ग्रन्थ के माध्यम से लेखक ने स्थान स्थान पर कतिपय विद्वानों की सीमाबद्ध मान्यताओं का भी तर्कपूर्वक खंडन किया है। जैसे एक मान्यता रही है कि कालिदास कवि हैं, नाटककार नहीं। लेखक की दृष्टि में संस्कृत साहित्य का यह शलाका पुरुष मूर्धन्य नाटककार तथा कवि दोनों ही है। इसकी पुष्टि विक्रमोर्वशीय और शाकुंतल में रचित कथावस्तु विनियोग द्वारा हो जाती है। उन्होंने जीवन के गत्यात्मक चित्र का निर्वाह बड़ी कुशलता से किया है। इस दृष्टि से उत्तरकालीन विशाखदत्त नाटककार ही उनके समकक्ष प्रतीत होता है। भवभूति को जिन्होंने दांपत्य जीवन के आदर्श बीज को करुण रस से सींच कर उत्तररामचरित में पल्लवित किया है, नाटकीय दृष्टि से सफल नाटककार नहीं कहा जा सकता। महाकवि कालिदास की एक नाटककार के रूप में सफलता की वजह है कि वे अपने कवित्व के भार से नाटक की कथावस्तु को कहीं भी आक्रांत कर, गतिहीन नहीं करते हैं। विक्रमोर्वशीय के चतुर्थ अंक में अनुस्यूत पुरूरवा की भावात्मक उक्तियाँ भी प्रसंग के अनुरूप ही हैं, क्योंकि वहां पुरूरवा की विक्षिप्त दशा का संकेत देना कवि का अभीष्ट है।

परवर्ती साहित्य पर  महाकवि कालिदास के प्रभाव का भी पर्याप्त निरूपण इस ग्रंथ में किया गया है। भवभूति, हर्ष, राजशेखर, बिल्हण, माघ जैसे अनेक रचनाकारों ने कालिदास के दाय को किसी न किसी रूप में अंगीकार किया है। 


कालिदासीय साहित्य के सूक्ष्म पर्यालोचन के आधार पर लेखक ने संकेत दिया है कि महाकवि  ने अनेक शास्त्रों का अध्ययन तथा विविध विषयों का सूक्ष्म अवलोकन कर व्युत्पन्नता प्राप्त कर ली थी। धर्म, दर्शन, राजतंत्र, शिक्षा, नाट्यकला, चित्रकला आदि अनेक विषयों पर उन्होंने मननपूर्वक तद्विषयक अपने मत को निर्धारित करके अपने ग्रंथों में उनका यथास्थान उपयोग किया है। लेखक ने उनके काव्य में अंतर्निहित समन्वयवादी दृष्टिकोण को अनेक उदाहरणों के साक्ष्य पर स्पष्ट किया है। महाकवि कालिदास के लोकचरित्र, राजा और राजधर्म, यज्ञ कर्म, शिक्षा, व्रत - नियम, प्रसाधन, कहावतों, उक्ति वैचित्र्य आदि अनेक पक्षों की विशद चर्चा ग्रन्थकार ने की है। 


ग्रंथकार ने प्रारंभ में आचार्य श्रीनिवास रथ और डॉ विंध्येश्वरीप्रसाद मिश्र विनय द्वारा प्रणीत महाकवि कालिदास पर केंद्रित दो रचनाओं क्रमशः कालिदास कविता एवं नन्वहं कालिदासो ब्रवीमि को प्ररोचना के रूप में प्रस्तुत किया है, जो महाकवि की महिमा का सरस अनुकीर्तन करती हैं। 


ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट में लेखक ने कालिदास के विश्वप्रसिद्ध सुभाषितों का संचयन किया है, जो काव्य रसिकों कालिदास साहित्य के जिज्ञासुओं और शोधकर्ताओं के लिए उपादेय सिद्ध होंगे। 



विगत लगभग छह दशकों से लेखनरत ग्रंथकार डॉ मुसलगांवकर ने अपने पिता और गुरु पं महामहोपाध्याय सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और मीमांसा तथा पं महामहोपाध्याय हरि रामचन्द्र शास्त्री दिवेकर से काव्यशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वे मीमांसकों की परंपरा के समर्थ  संवाहक हैं। उन्होंने तीस से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है, जिनमें प्रमुख हैं संस्कृत नाट्य मीमांसा - दो खण्डों में, रस मीमांसा, नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, आधुनिक संस्कृत काव्य परम्परा, संस्कृत महाकाव्य की परंपरा, कालिदास मीमांसा आदि। इसके साथ ही उन्होंने अनेकानेक टीकाओं और विवेचनात्मक ग्रन्थों से जिज्ञासुजनों और शोधकर्ताओं को महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध करवाई है। इनमें प्रमुख हैं - शिशुपालवधमहाकाव्यम्, हर्षचरितम्, दशरूपकम्, नैषधीयचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, रघुवंशम् आदि। उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान डॉ वी वी मिराशी कृत ग्रंथ भवभूति का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनके द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका का लाभ अनेक विद्यार्थी ले रहे हैं। उनका योगसूत्र पर सविवेचन भाष्य पूर्णता पर है, जिसके 2000 से अधिक पृष्ठ वे हाथ से लिख चुके हैं। इसका प्रकाशन चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी से होगा।  उनके यशस्वी सुपुत्र डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर स्वयं अनेक ग्रन्थों के प्रणयनकर्ता और मीमांसक हैं।


समग्रतः डॉ मुसलगांवकर का ग्रंथ कालिदास मीमांसा महाकवि के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करने में तो सफल है ही, कई नवीन स्थापनाओं के लिए भी उल्लेखनीय बन पड़ा है। लेखक ने कालिदास को भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों के आलोक में देखा परखा है और उनकी रचनात्मक उपलब्धियों की बहुविध मीमांसा कर एक नई दिशा का भी सन्धान किया है। कालिदास साहित्य के जिज्ञासुओं से लेकर विशेषज्ञों तक सभी इस पुस्तक से लाभन्वित होंगे, ऐसी आशा व्यर्थ नहीं होगी। 


पुस्तक : कालिदास मीमांसा

लेखक : डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर 

संपादक : डॉ. राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर

प्रकाशक : चौखंबा संस्कृत संस्थान, वाराणसी 

मूल्य :  रुपए 525

पृष्ठ :  324 

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प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा 
आचार्य एवं अध्यक्ष 
हिंदी अध्ययनशाला 
कुलानुशासक 
विक्रम विश्वविद्यालय 
उज्जैन मध्य प्रदेश

20200525

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Book Review by Shailendra Kumar Sharma

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sanskrit Natya – Mimansa – Padmashri Dr. Keshavrao Musalgaonkar | Book Review by Shailendrakumar Sharma  

नाट्य के विविध आयामों की मीमांसा का सार्थक उद्यम :

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विश्व वाङ्मय और कला परम्पराओं को भारत का अमूल्य योगदान है। यह ग्रंथ केवल नाट्य पर ही केंद्रित नहीं है, वरन समस्त कलाओं, यथा नृत्य, संगीत, शिल्प, विविधविध ललित कलाओं के लिए मूलाधार है। भरतमुनि स्वयं ग्रंथारम्भ में इस बात की ओर संकेत करते हैं :
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृष्यते॥ (नाट्यशास्त्र, 1-116)
अर्थात् कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग, कोई कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में दिखाई न देता हो।
  
नाट्यशास्त्र से प्रसूत ज्ञानधारा को आत्मसात करते हुए संस्कृत नाट्य के विविध अंगों के मंथन का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है, पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगांवकर द्वारा प्रणीत बृहद् ग्रन्थ  - संस्कृत नाट्य मीमांसा। इस ग्रंथ में लेखक ने एक मीमांसक की दृष्टि से भारतीय नाट्यशास्त्र की मूलभूत विशेषताओं को आकलित और व्याख्यायित करने का सार्थक उपक्रम किया है।
पुस्तक के लेखक पं केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर भारतीय विद्या के विशिष्ट समाराधक के रूप में जाने जाते हैं। उनके इस ग्रंथ का प्रधान उद्देश्य है कि भारतीय नाट्य कला के मूल तत्त्व पाठकों के समक्ष उभरकर आ सकें। इस दृष्टि से उन्होंने पाश्चात्य नाट्य कला के साथ भारतीय नाट्य कला के साम्य एवं वैषम्य को प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया है। ग्रंथ का शीर्षक साभिप्राय है। मीमांसा का तात्पर्य है-  पूजितविचारवचनो हि मीमांसा शब्द: अर्थात् वेदार्थ विचार। भारतीय दर्शन परंपरा में मीमांसा दर्शन का महत्त्व वेदों के अध्ययन के उपरांत निश्चायक अर्थ की प्राप्ति कराने में है। इस दृष्टि से संस्कृत नाट्य मीमांसा ग्रंथ भरत द्वारा प्रस्तुत पंचम वेद नाट्यशास्त्र का विचार प्रस्तुत करने में सन्नद्ध है। लेखक की दृष्टि में,  “प्रत्येक दर्शन परम प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिए एक विशिष्ट मार्ग का अवलंबन करता है।  ‘दर्शन’ शब्द में जो दृश् धातु है, उसका अर्थ ज्ञान सामान्य होता है।  ‘दृश्यते  अनुसंधीयते  पदार्थानां  मूलतत्त्वमनेन इति दर्शनम्  अर्थात् पदार्थों के मूल तत्त्व का अनुसंधान जिसके द्वारा किया जाए, वही (मीमांसा) दर्शन है। संस्कृत नाट्य मीमांसा से भी मेरा यही तात्पर्य है। उसी दार्शनिक प्रक्रिया का अवलंबन कर भारतीय नाट्य का मूल तत्त्व - परम तत्त्व को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।“ इस उद्देश्य की सिद्धि में ग्रंथ समर्थ रहा है।



ग्रन्थ का प्रथम अध्याय विषय प्रवेश के रूप में है। लेखक ने मनोयोगपूर्वक नाट्य कला और नाट्यशास्त्र, संस्कृति एवं कला का स्वरूप - विमर्श किया है।  ग्रंथकार की दृष्टि में नाट्य - क्रिया एक कला है और नाट्यशास्त्र एक कला का शास्त्र है। कला नाट्याभिनय को सर्वांग सुंदर बनाने में सहयोग देती है। वस्तुतः नाट्यकला रस के उन्मीलन की प्रधान सहायिका है। इसके अभाव में नाट्य अथवा काव्य अपनी यथार्थता सिद्ध नहीं कर सकता। कला शून्य अभिनय में शब्दांकित नाट्य वस्तु केवल वार्ता मात्र रह जाती है। या यों कहिए कि रसोद्रेकशक्ति के अभाव में वह अकाव्य होने से त्याज्य होती है। इसीलिए आचार्य भामह ने ऐसी वार्ता मात्र को  अकाव्य माना है।“ लेखक की दृष्टि में नाटक में अभिनय की प्राणरूपा कला का वही स्थान है जो काव्य के लालित्य में कैशिकी का है।

लेखक ने संस्कृति और कला के विषय में पर्याप्त मीमांसा की है। वे शैवागमों के आलोक में कला को महामाया के चिन्मय विलास और उसकी सम्मूर्तन शक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं। कला शब्द की उत्पत्ति कल् धातु से मानी गई है, जिसका तात्पर्य है सुंदर-मधुर-कोमल या सुख प्रदान करने वाला। कं आनंदं लाति इति कला - यह अर्थ भी देखने में आता है। लेखक के अनुसार भरत के पूर्व कला शब्द का अर्थ ललित कला में प्रयुक्त नहीं हुआ है। कला के वर्तमान अर्थ का द्योतक शब्द भरत से पूर्व शिल्प शब्द था। लेखक ने भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि से कला की परिभाषाओं पर पर्याप्त विचार किया है। साथ ही कला का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। लेखक की दृष्टि में कला का आधारभूत सिद्धांत है - सामंजस्य -अनेकता में एकता की स्थापना। अन्तर्वृत्तियों का समन्वय करने के कारण यह प्रक्रिया अपने आप में सुखद होती है - इसे ही कला - सृजन या सौंदर्य की सृष्टि का आनंद कहते हैं।

ग्रंथकार ने दूसरे अध्याय में दृश्य काव्य के महत्त्व, संस्कृत नाटकों की सुदीर्घ परंपरा, नाट्य उद्गम, नाट्यवेद एवं किंवदंतियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। तृतीय अध्याय भरतमुनि और उनके नाट्यशास्त्र पर केंद्रित है। इस अध्याय में लेखक ने नाट्यशास्त्र के रचनाकाल, नाट्य वेद के अंग, भरत के पूर्ववर्ती आचार्यों और उत्तरवर्ती नाट्य ग्रंथों की चर्चा की है। यह अध्याय नाट्यशास्त्र की अंतर्वस्तु पर मंथन करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।  लेखक ने भारतीय आचार्यों की दृष्टि से अनुकरण सिद्धांत, अभिनय मीमांसा, प्रेक्षागृह, मत्तवारणी, जर्जर, नाट्यशास्त्र के लक्ष्यीभूत प्रेक्षक, नाटक एवं लोक जीवन आदि का गम्भीरता से निरूपण किया है। इस अध्याय में नाट्यधर्मी और लोकधर्मी रूढ़ियाँ एवं उनके अंतर्संबंध, नाट्य के विविध अलंकार  एवं उद्देश्यों की पड़ताल की गई है। 

ग्रंथ का एक अध्याय दशरूपक विधान पर एकाग्र है। इसके अंतर्गत नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी एवं प्रहसन का निरूपण किया गया है। यहीं पर उपरूपक के भेदों की चर्चा की गई है।
पुस्तक के पंचम अध्याय में नाट्य कथा के प्रमुख आधारों की चर्चा की गई है। इसके अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, बृहत्कथा, इतिहास, लोक कथा आदि का निरूपण किया गया है। डॉ मुसलगांवकर ने नाट्य रूढ़ियों, संविधानक रचना, कथावस्तु के भेद, मुख, प्रतिमुख आदि संधियों, विविधविध अर्थ प्रकृतियों, अवस्थाओं आदि का निरूपण किया है।

षष्ठ अध्याय में लेखक ने नाट्य के पात्रों की चर्चा की है। इसके अंतर्गत नायक, प्रति नायक, पीठमर्द एवं सहायक पात्रों में विदूषक, विट, चेट, मंत्री आदि का निरूपण किया गया है। नायिका और उनकी सहायिकाओं की चर्चा भी इस अध्याय में की गई है। लेखक ने विविध वृत्तियों और भरत वाक्य का स्वरूप विमर्श भी किया है।
सप्तम अध्याय नाट्य रस पर केंद्रित है। इसमें लेखक ने अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद का पर्याप्त विश्लेषण किया है। रस उन्मीलन के संबंध में विभिन्न मतों की चर्चा ग्रंथकार ने की है। इनमें लोल्लट  का उत्पत्तिवाद, शंकुक का अनुमितिवाद, भट्टनायक का भुक्तिवाद और अभिनवगुप्त का व्यक्तिवाद समाहित हैं।

अष्टम अध्याय संकलनत्रय पर केंद्रित है। इसमें स्थल-काल और कार्य के नियम का निरूपण लेखक ने किया है। संस्कृत नाट्य और ग्रीक नाटक की तुलना तथा संस्कृत नाट्य साहित्य में दुःखान्त नाटकों के अभाव की चर्चा पर्याप्त महत्त्व की है।

संस्कृत नाटकों की साज-सज्जा का निरूपण नवें अध्याय में किया गया है। लेखक ने द्वादश काव्य योनियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, जो इस प्रकार हैं- श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, प्रमाण विद्या, समय विद्या, राज्यसिद्धांतत्रयी  (अर्थशास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र), लोक विरचना एवं प्रकीर्णक। ग्रंथ का दसवां अध्याय संस्कृत नाटकों के अपकर्ष और उसके कारणों पर केंद्रित है।  

पुस्तक में डॉक्टर मुसलगांवकर ने भारतीय नाट्यशास्त्र की दृष्टि से नाट्य ग्रथन की रूढ़ियों पर भी पर्याप्त मंथन किया है। इसके अंतर्गत नांदी, पूर्वरंग, प्रस्तावना, नाट्य वस्तु एवं कृतिकार का परिचय, कुछ दृश्यों का निषेध, सूत्रधार - नटी का प्रयोग, भरत वाक्य आदि बातें संस्कृत नाटकों में समान रूप से दिखाई देती हैं। संस्कृत के नाटककारों ने नाट्यशास्त्र द्वारा प्रस्तुत सिद्धांतों और नियमों को बड़ी ही सावधानी से अपने नाटकों में प्रयुक्त किया है। परिणामतः परवर्ती आचार्यों ने अपने लक्षण ग्रंथों में उन्हें पर्याप्त उद्धृत किया है। परिशिष्ट के अंतर्गत पर्याप्त रेखाचित्र दिए गए हैं। एक परिशिष्ट संस्कृत नाट्य की विशिष्टताओं पर केंद्रित है

संस्कृत नाट्य परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है। इसीलिए नाट्य के विविधविध पक्षों को लेकर व्यापक मंथन सम्भव हो सका है। यह ग्रन्थ नाट्य के सभी महत्त्वपूर्ण आयामों को समेटता है। इस दृष्टि से ग्रन्थ को अपने विषय क्षेत्र की एक उपलब्धि कहा जा सकता है। नाटक के जिज्ञासुओं, आस्वादकों और विद्यार्थियों के साथ समकालीन भारतीय रंगमंच के प्रयोगकर्ताओं को इस ग्रंथ का लाभ लेना चाहिए।

पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगांवकर

1928 में ग्वालियर में जन्मे ग्रंथकार डॉ मुसलगांवकर ने अपने पिता और गुरु पं महामहोपाध्याय सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और मीमांसा तथा पं महामहोपाध्याय हरि रामचन्द्र शास्त्री दिवेकर से काव्यशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वे विगत लगभग छह दशकों से लेखनरत हैं। 

मीमांसकों की परंपरा के संवाहक पं मुसलगांवकर जी ने अब तक तीस से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। संस्कृत नाट्य मीमांसा - दो खण्डों में, रस मीमांसा, नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, कालिदास मीमांसा, आधुनिक संस्कृत काव्य परम्परा, संस्कृत महाकाव्य की परंपरा जैसे गम्भीर ग्रंथों से आपने संस्कृत वाङ्मय को समृद्ध किया है। इसके साथ ही अनेकानेक टीकाओं और विवेचनात्मक ग्रन्थों से जिज्ञासुजनों और शोधकर्ताओं की राह को सुगम बनाया है। इनमें प्रमुख हैं - शिशुपालवधमहाकाव्यम्, हर्षचरितम्, दशरूपकम्, नैषधीयचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, रघुवंशम् आदि। उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान डॉ वी वी मिराशी कृत ग्रंथ भवभूति का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनके द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका का लाभ अनेक विद्यार्थी ले रहे हैं। डॉ मुसलगांवकर अब भी लेखन कार्य में जुटे हुए हैं। उनके द्वारा योगसूत्र पर सविवेचन भाष्य पूर्णता पर है, जिसके 2000 से अधिक पृष्ठ वे हाथ से लिख चुके हैं। इसका प्रकाशन चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी से होगा। शास्त्रीजी के ग्रन्थ दुनियाभर के ग्रंथालयों में उपलब्ध हैं। उनके सुपुत्र डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर स्वयं अनेक ग्रन्थों के प्रणयनकर्ता और मीमांसक हैं।

डॉ. मुसलगांवकर जी को संस्कृत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक सम्मान और उपाधियों से विभूषित किया गया है। उन्हें वर्ष 2018 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया। उन्हें अब तक प्राप्त पुरस्कारों में प्रमुख हैं: संस्कृत के क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार, राष्ट्रीय कालिदास सम्मान, राजशेखर सम्मान, विद्वत्भूषण सम्मान, काशी, उप्र सरकार का विश्वभारती सम्मान आदि। डॉ. मुसलगांवकर बतौर शिक्षक अनेक दशकों तक स्कूली शिक्षा से जुड़े रहे, मगर उनका विपुल लेखन आज कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। उन्हें संस्कृत के क्षेत्र में नवीन व्याख्या शैली के लिए जाना जाता है। 

संस्कृत नाट्य – मीमांसा
पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर
परिमल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली


- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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