पेज

20201030

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ | प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews | Prof. Shailendra Kumar Sharma

मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी - आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।  


उनके उपन्यास और कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। 


मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती हैं। उनकी कहानियों में आधुनिक जीवन का कोई-न-कोई विशिष्ट पहलू उजागर हुआ है। राकेश मुख्यतः आधुनिक शहरी जीवन के कथाकार हैं, लेकिन उनकी संवेदना का दायरा मध्यवर्ग तक ही सीमित नहीं है। निम्नवर्ग भी पूरी जीवन्तता के साथ उनकी कहानियों में मौजूद है। इनके कथा-चरित्रों का अकेलापन सामाजिक संदर्भो की उपज है। वे अपनी जीवनगत जद्दोजहद में स्वतंत्र होकर भी सुखी नहीं हो पाते, लेकिन जीवन से पलायन उन्हें स्वीकार नहीं। वे जीवन-संघर्ष की निरंतरता में विश्वास रखते हैं। पात्रों की इस संघर्षशीलता में ही लेखक की रचनात्मक संवेदना आश्चर्यजनक रूप से मुखर हो उठती है। हम अनायास ही प्रसंगानुकूल कथा-शिल्प का स्पर्श अनुभव करने लगते हैं, जो अपनी व्यंगात्मक सांकेतिकता और भावाकुल नाटकीयता से हमें प्रभावित करता है। इसके साथ ही लेखक की भाषा भी जैसे बोलने लगती है और अपने कथा-परिवेश को उसकी समग्रता में धारण कर हमारे भीतर उतर जाती है।

कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है। जीविकोपार्जन के लिये वे अध्यापन कार्य से संपृक्त रहे। वे कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक भी रहे। 'अषाढ़ का एक दिन' और 'आधे अधूरे' के रचनाकार के नाते 'संगीत नाटक अकादमी' से पुरस्कृत सम्मानित किए गए। उनका निधन जनवरी 1972 को नयी दिल्ली में हुआ।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं :

उपन्यास : अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल।
कहानी संग्रह : क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस
तथा अन्य कहानियाँ।
नाटक : आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, पैर तले की ज़मीन

शाकुंतल, मृच्छकटिक (अनूदित नाटक)

अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक, रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक (एकांकी)

बक़लम खुद, परिवेश (निबन्ध)

आखिरी चट्टान तक (यात्रावृत्त)

एकत्र (अप्रकाशित-असंकलित रचनाएँ)

बिना हाड़-मांस के आदमी (बालोपयोगी कहानी-संग्रह)

 मोहन राकेश रचनावली (13 खंड)।



आधे अधूरे - मोहन राकेश सम्पूर्ण के लिए लिंक

Adhe Adhure - Mohan Rakesh  


Adhe Adhure


आधे अधूरे समीक्षा - मोहन राकेश नोट्स पीडीएफ के लिए लिंक 

Adhe Adhure - Mohan Rakesh Notes PDF 

आधे अधूरे - मोहन राकेश समीक्षा पीडीएफ | Adhe Adhure - Mohan Rakesh Review PDF


आधे अधूरे समीक्षा

आधे अधूरे मोहन राकेश का एक चर्चित नाटक है। मोहन राकेश वैसे तो कथा, उपन्यास, संस्मरण के क्षेत्र में भी महारत रखते थे। किंतु, नाटकों के लिए ही ज्यादा याद किये जाते हैं। आधुनिक युग में मराठी, बांग्ला, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनेक चर्चित नाटककार हुए हैं। हिंदी में नाटककार कहते ही ज़हन में पहला नाम मोहन राकेश का ही उभरता है। मोहन राकेश ने इस नाटक के माध्यम से चार दीवार और छत से पूर्ण होनेवाले घर के भीतर की अपूर्णता व्यक्त की है। मनुष्य के मन का अधूरापन ही समस्त विसंगतियों की जड़ है।

आधे अधूरे : मनुष्य के आधे अधूरेपन की त्रासदी 

मोहन राकेश जी का यह नाटक अपने पहले मंचन (1969) से ही चर्चित रहा है। तब से अब तक अलग-अलग निर्देशकों और कलाकारों द्वारा इसका सैकडों बार मंचन हो चुका है और आज भी यह उतना ही प्रशंसित है। निर्देशकों के अनुसार यह रंगमंचीय दृष्टि से तो उपयुक्त है ही, इसका कथानक भी समकालीन जीवन की विडम्बना को सार्थक ढंग से व्यक्त करता है, जो बदलते परिवेश में भी प्रासंगिक है। दरअसल नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश या उसके कुछ समकालीन जिस 'आधुनिक भावबोध'  की बात कर रहे थे, वह 'विकास' की विषमता या नगरीकरण की विषमता के कारण, कुछ क्षेत्रों में अभी 'हाल' की घटना लगती है। भौगोलिक विषमता और 'विकास' के पहुंच की सीमा के कारण यदि तब यह सब लोगों की 'हकीकत' नहीं थी तो आज भी कई हिस्से इससे अछूते हो सकते हैं। बहरहाल लेखक यह चिंता नही करता कि उसकी रचना में व्यक्त 'सच' सबका 'सच' हो।




आधे–अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव–खंड को मूर्त करता है। इसके लिए हिंदी के जीवंत मुहावरे को पकड़ने की सार्थक, प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन, उनका क्रम, उनका संयोजन सबकुछ ऐसा है, जो बहुत संपूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यही शक्ति और उच्चारित ध्वनि–समूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य–रचना बंद और खुले, दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाए रख सकी। 


यह नाटक, एक स्तर पर स्त्री–पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज“ है, दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य–रचना मानवीय संतोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिंदगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् चरित्र निभाए जाने की दिलचस्प रंगयुक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में कहें तो आधे–अधूरे समकालीन जिन्दगी का पहला सार्थक हिंदी नाटक है । इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।





मोहन राकेश कहानी से नाटक की तरफ आये थे, मगर उनकी संवेदना और भावबोध का क्षेत्र लगभग वही रहा, महानगरीय जीवन के अलगाव, अजनबियत, एकाकीपन,,अतृप्त आकांक्षा आदि जो औद्योगीकरण के फलस्वरूप 'ग्रामीण जीवन' से 'नगरीय जीवन' मे संक्रमण से तीव्रता से प्रकट हुए थे। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि यह आजादी के बाद के महानगरीय जीवन के लक्षण हैं।


आधे अधूरे के कथानक के केन्द्र में एक मध्यमवर्गीय परिवार है, जिसमें पति-पत्नी के अलावा उनके दो बेटियां और एक बेटा है। अन्य पात्रों में तीन और पुरुष हैं। नाटक की सम्पूर्ण घटनाएं एक कमरे में घटित होती हैं, हालाकि संवाद से सम्पूर्ण परिवेश और उसका द्वंद्व उभर आता है। इस नाटक की 'केंद्रीय' चिंता क्या है?एक  'सामान्य' पाठक जब नाटक के आखिर तक (क्लाइमेक्स) पहुंचता है, तो उसे महसूस होता है; और लेखक भी इशारा (संवाद से) कर देता है कि दुनिया मे 'पूर्ण' कोई नही है; सब 'आधे-अधूरे' हैं। पूर्णता की तलाश बेमानी है। मनुष्य की महत्वाकांक्षा असीम है जो दुनिया के यथार्थ से हरदम मेल नही खाती, यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब आर्थिक सक्षमता पर्याप्त न हो। आदमी जो भी है, अपने खूबियों और कमियों के साथ है। सम्बन्धों का निर्वहन इस स्वीकार बोध के साथ ही सम्भव है,अन्यथा जीवन घसीटते गुजरता है। अवश्य अन्य परिस्थितियां नकारात्मक हो तो इसकी तीव्रता को बढ़ा देती हैं।


नाटक की केंद्रीय चरित्र सावित्री पढ़ी-लिखी, महत्वाकांक्षी, कामकाजी महिला है। वह जीवन को भरपूर जीना चाहती है, मगर ऐसा हो नही पा रहा है। इसका एक कारण, जो बहुत हद तक सही भी है, खराब आर्थिक स्थिति है। उसके अकेली नौकरी से पूरा घर चल रहा है। पति व्यवसाय में असफल होकर 'निकम्मा' हो गया है। बेटा पढ़ाई में असफल तो है ही कामचोर भी है; उस पर भी वह उसके लिए लगातार 'प्रयास' करती है। बड़ी बेटी 'लव मैरिज' कर भी सुखी नही है। छोटी बेटी की 'जरूरतें' पूरी नही हो पा रही हैं। ऐसे में उसका (सावित्री) खीझना, असहज महसूस करना स्वाभाविक भी लगता है। मानो उसकी अपनी जिंदगी खो सी गयी है। इससे उसके अंदर एक अतृप्ति का भाव पैदा होता है; और वह इसके 'तृप्ति' के चाह में कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है; मगर उसको 'तृप्ति' मिलती नही। वह द्वंद्व में जीती है। उसका एक मन घर से जुड़ता है तो दूसरा मन घर से दूर होना चाहता है। मगर समस्या यह भी है कि वह 'अतृप्त' तब भी थी जब सब कुछ ठीक ठाक था; आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पति का व्यवसाय भी चल रहा था। तब उसे शिकायत थी कि पति(महेन्द्रनाथ) के माता-पिता उसे (महेन्द्रनाथ) को अपनी जिंदगी नही जीने दे रहें है; उसे अपने गिरफ्त में रखना चाहते हैं। फिर कुछ समय बाद यह शिकायत महेन्द्रनाथ के दोस्तों पर प्रतिस्थापित हो गया कि वे उसको 'बर्बाद' कर रहे हैं। यानी समस्या की जड़ कहीं और है।


समस्या ख़ुद सावित्री के अंदर है, जिसे जुनेजा अच्छी तरह से उद्घाटित करता है। वह पुरुष में जिस 'पूर्णता' की कामना करती है; दरअसल जीवन मे वैसा होता ही नहीं। वह एक आदमी में 'सब कुछ' चाहती है; और न पाकर उसका उपहास करती है। उसकी 'कमजोरी' पर कभी खीझती है; कभी व्यंग्य करती है। मगर वह कभी एक पल के लिये नही सोच पाती कि समस्या की जड़ वह खुद है। शुरुआत में दर्शक की सहानुभूति उसके पक्ष में जाती है; वह वैवाहिक जीवन में पति से प्रताड़ित भी हुई है, आज वह पूरे घर के खर्च का निर्वहन कर रही है। लेकिन जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ता है;एक दूसरा सच भी स्पष्ट होने लगता है, जिसका सार जुनेजा के इस वक्तव्य में है, "असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करती कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली.उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा-कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें इन  किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती।


नाटक के अन्य पात्र देखा जाय तो इस 'केंद्रीय संवेदना' की सघनता को बढ़ाते हैं। सावित्री का पति महेन्द्रनाथ एक बेरोजगार व्यक्ति है; लगभग उपेक्षित; कोई उसकी परवाह नही करता। सावित्री की नज़र में एक 'रीढ़हीन' व्यक्ति, जो अपना निर्णय नहीं ले सकता। लेकिन किसी समय वह घर का 'प्रमुख' भी था; व्यवसाय में असफलता ने उसे बेरोजगार कर दिया है। हालांकि इस असफलता में घर मे किये गए उसके 'अनाप-शनाप' खर्च भी कारण रहा है, लेकिन इसकी किसी को परवाह नही. अवश्य महेन्द्रनाथ की अपनी मानवीय कमजोरियां हैं, लेकिन सावित्री की बार-बार उलाहना और व्यंग्य ने उसे कहीं अधिक कमजोर बना दिया है और हीनताबोध से ग्रसित हो गया है। वह एक तरह से प्रताड़ित और डरा हुआ है, इसलिए वह किसी पुरुष के घर आने पर कोई न कोई बहाना बनाकर बाहर चला जाता है, उस पर भी विडम्बना यह आरोप की उसमे किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं।


बड़ी बेटी बिन्नी मनोज से प्रेम विवाह करती है, जो वस्तुतः उसकी माँ सावित्री का 'प्रेमी' था। वह भी लगभग उसी द्वंद्व से ग्रसित। दोनों एक- दूसरे को समझ नही पा रहे। सब कुछ ठीक होकर भी कुछ ठीक नही है। कहीं कुछ गड़बड़ है; मगर गड़बड़ क्या है? वह कहती भी है "वजह सिर्फ हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है" या फिर " वह कहता है कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नही रहने देती।" छोटी लड़की किन्नी भी भी अपने उम्र  से कुछ अधिक बर्ताव करती है। किसी के प्रति उसके अंदर सम्मान दिखाई नही देता। बेटा अशोक भी अपनी कोई जवाबदारी नही समझता। सावित्री के 'क्रियाकलापों' से वह असन्तुष्ट जरूर है, मगर खुद अपना 'विचलन' उसे दिखाई नही देता। सभी किसी न किसी 'मनोग्रंथि' से ग्रसित लगते हैं।


कुल मिलाकर पूरे घर के वातावरण में  अस्वाभाविकता, अलगाव, असंतुष्टि, व्याप्त है। कोई किसी को जानकर भी जानता नहीं। यह त्रासदी क्या एक विशिष्ट परिवार भर का है?दरअसल यह द्वंद्व पूरे मध्यमवर्ग का है, जहां बहुत सी आशाएँ, जरूरतें, सपने पूरे न होने पर घनीभूत होकर इस द्वंद्व और भी बढ़ा देते हैं। अभाव के आँच में सम्बन्धों के डोर टूटने लगते हैं। मगर अभाव ही इसका एकमात्र कारण नही है। हम सब इस बात को न स्वीकार पाने के लिए अभिशप्त हैं कि 'पूरा' कोई नहीं है सब 'आधे-अधूरे' हैं।



20201025

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा आलोचना भूषण सम्मान से अलंकृत

 

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा आलोचना भूषण सम्मान से अलंकृत



प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग 
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय,
उज्जैन [म.प्र.] 456 010





















विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को आलोचना के क्षेत्र में किए गए अविस्मरणीय योगदान के लिए राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास [भारत] एवं यू॰ एस॰ एम॰ पत्रिका द्वारा अखिल भारतीय स्तर के आलोचना भूषण सम्मान से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मान संस्था द्वारा हिन्दी भवन , गाजियाबाद में आयोजित बीसवें अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अंतर्गत राष्ट्रस्तरीय नामित सम्मान अलंकरण समारोह में पूर्व केन्द्रीय मंत्री , भारत सरकार एवं राज्यपाल, तमिलनाडु और असम डॉ॰ भीष्मनारायण सिंह एवं पूर्व सांसद डॉ॰ रत्नाकर पांडे के कर-कमलों से अर्पित किया गया। इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें सम्मान-पत्र, स्मृति चिह्‌न, पुस्तकें एवं उत्तरीय अर्पित किए गए। इस महत्त्वपूर्ण समारोह में पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं शिक्षाविद डॉ॰ सरोजिनी महिषी, वरिष्ठ नृतत्वशास्त्री पद्मश्री डॉ॰ श्यामसिंह शशि, लोकसभा टी॰ वी॰ के वरिष्ठ अधिकारी डॉ॰ ज्ञानेन्द्र पांडे ,संस्था के संयोजक श्री उमाशंकर मिश्र आदि सहित पंद्रह से अधिक राज्यों के भारतीय भाषा प्रेमी एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

प्रो. शर्मा विगत ढाई दशकों से आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध एवं लेखन में निरंतर सक्रिय है। देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनके आठ सौ से अधिक समीक्षाएँ एवं आलेख प्रकाशित हुए हैं। 

उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित तीस से अधिक ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं-शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास, हरियाले आँचल का हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। 

प्रो. शर्मा को देशभर की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, अखिल भारतीय राजभाषा सम्मान,शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि प्रमुख हैं।







शक्ति उपासना : प्रतीकार्थ और चिंतन - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

सृष्टि का कोई भी कण अछूता नहीं है शक्ति से – प्रो शर्मा 

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ शक्ति आराधना के प्रतीकार्थ और चिंतन पर गहन मंथन   


प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के विद्वान वक्ताओं ने भाग लिया। यह संगोष्ठी शक्ति उपासना : प्रतीकार्थ और चिंतन पर केंद्रित थी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद् डॉ जी डी अग्रवाल, इंदौर, प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री शरद चन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, डॉ अनिता मांदिलवार, डॉ अशोक सिंह, मुंबई, शिवा लोहारिया, जयपुर एवं महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शिक्षाविद डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर ने की।




लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि भारतीय चिंतन परंपरा और लोक व्यवहार में शक्ति के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण विचार उपलब्ध हैं। शक्ति से सृष्टि का कोई भी कण अछूता नहीं है। कारण वस्तु में कार्य के उत्पादन में उपयोगी अपृथक् धर्म विशेष होता है, उसे शक्ति के रूप में मान्यता मिली है। शक्ति आराधना के विशिष्ट दार्शनिक आधार हैं। अधिकांश भारतीय दर्शनों में  सृष्टि के मूल तत्त्वों के बीच शक्ति की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई है। कार्यों की अनंतता के कारण शक्ति की भी अनंतता मानी गई है। शाक्त दर्शन और लोक मान्यता के अनुसार शक्ति सर्वव्यापक और सर्वोपरि है। मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति बिना शक्ति की कृपा से संभव नहीं है। भारत में सदियों से नगर, ग्राम, दुर्ग, वन, पर्वत, द्वार आदि सभी प्रमुख स्थानों पर देवी उपासना के साक्ष्य मिलते हैं। वस्तुतः शक्ति एक ही है, किंतु उपासकों के दृष्टि भेद से शक्ति के नाम और रूपों में भेद पाया जाता है। 





मुख्य अतिथि श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि भारतीय संस्कृति में नारी का सम्मान उसके विशिष्ट गुण और संस्कारों के कारण होता आ रहा है। मातृ शक्ति के त्याग, तपस्या और साधना से ही यह संपूर्ण सृष्टि संचालित है। शक्ति आराधना का विशिष्ट आध्यात्मिक महत्त्व है।




विशिष्ट अतिथि डॉ प्रभु चौधरी ने कहा कि नवरात्रि शक्ति आराधना का अद्वितीय पर्व है। शक्ति साधना के अनेक आयाम हैं, जिनमें व्रत, उपवास, अनुष्ठान, यज्ञ आदि का विशेष महत्व है। गायत्री आदि वैदिक मंत्रों के जाप से इष्ट फल की सिद्धि होती है।




अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉक्टर भरत शेणकर, अहमदनगर ने कहा कि शक्ति आराधना की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इसमें परिवेश और  युगानुकूल परिवर्तन होता रहा है।




विशिष्ट अतिथि प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, डॉ अशोक सिंह, मुंबई, डॉक्टर शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ अनिता मांदिलवार एवं डॉ सुनीता चौहान, मुंबई ने देवी आख्यान और उपासना से जुड़े विभिन्न प्रसंगों और उनके मर्म की चर्चा की।


विशिष्ट अतिथि डॉ जी डी अग्रवाल, इंदौर ने मधुर स्वर में आई रे आई दुर्गा महारानी शेर पर होकर सवार गीत की प्रस्तुति की।



अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ आशीष नायक, रायपुर डॉक्टर समीर सैयद, अहमदनगर, डॉ सुवर्णा जाधव, मुंबई,  डॉक्टर कामिनी बल्लाल,  रश्मि चौबे, आगरा, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ लता जोशी, मुंबई, डॉ श्वेता पंड्या आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे। 




प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ रश्मि चौबे ने की। संस्था का परिचय एवं प्रतिवेदन डॉ लता जोशी, मुंबई ने प्रस्तुत किया।  


आयोजन की संकल्पना एवं स्वागत भाषण डॉ प्रभु चौधरी की ने दिया।


राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का संचालन डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने किया। आभार प्रदर्शन संस्था के शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने किया। 











संयुक्त राष्ट्र दिवस और वसुधैव कुटुम्बकम् - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

वसुधैव कुटुंबकम् की उदात्त भावभूमि के अनुरूप है संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 

संयुक्त राष्ट्र दिवस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कवि सम्मेलन 

भारत नॉर्वेजियन सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम, द्विभाषी पत्रिका स्पाइल दर्पण एवं वैश्विका द्वारा संयुक्त राष्ट्र दिवस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। आयोजन के प्रमुख अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार एवं विद्वान डॉ मोहनकांत गौतम, नीदरलैंड, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा और केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली के सहायक निदेशक डॉक्टर दीपक पांडे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार और संस्था के अध्यक्ष श्री सुरेशचन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने की। इस मौके पर नॉर्वेजीय लेखिका सिगरीड मैरी ने विश्व बंधुत्व को समर्पित सुमधुर गीत की प्रस्तुति की।









कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए नीदरलैंड के वरिष्ठ साहित्यकार एवं नृतत्वशास्त्री श्री मोहनकांत गौतम ने कहा कि दुनिया आज कई समस्याओं से जूझ रही है। उनसे मुक्त होने के लिए व्यापक प्रयास जारी हैं। भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थायी सदस्यता मिले, इसके लिए गम्भीर प्रयासों की आवश्यकता है। 



मुख्य वक्ता लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना वसुधैव कुटुंबकम् की उदात्त भावभूमि के अनुरूप है। दुनिया में एकजुटता और भाईचारा बेहद मायने रखता है। संयुक्त राष्ट्र दिवस इस बात की ओर याद दिलाता है। कोविड 19 के दौरान यूएन ने इस पर विशेष ध्यान दिया है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से पूरी दुनिया को सचेत होना होगा। साथ ही आर्थिक असमानता से मुक्ति की राह खोजनी  होगी। इस दौर में बाल स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दों पर भी व्यापक पैमाने पर प्रयास जरूरी हैं। युद्ध मुक्त दुनिया के निर्माण, मानव अधिकारों के संरक्षण, लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने, अंतरराष्ट्रीय कानूनी प्रक्रिया के पालन के साथ सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए प्रयत्न अविस्मरणीय हैं। प्रो शर्मा ने वरिष्ठ कवि श्री शरद आलोक के संग्रह लॉकडाउन से संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के अनुरूप चुनिन्दा काव्य पँक्तियाँ सुनाईं। 





अध्यक्षीय उद्बोधन वरिष्ठ साहित्यकार एवं मीडिया विशेषज्ञ श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र दिवस अहिंसा, विश्व शांति, मानव अधिकार और स्वास्थ्य के प्रादर्शों को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है। इसमें सभी देशों और विचारधाराओं के लोग हिस्सेदार बनें। अंतरराष्ट्रीय संकटों से मुक्ति और अक्षय विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।




डॉ. दीपक पाण्डेय, नई दिल्ली ने अपने वक्तव्य में कहा कि संयुक्त राष्ट्र बेहद मजबूत संगठन है, जिसमें दुनिया के लगभग 200 देशों से जुड़े हुए हैं। भारत प्रारंभ से ही संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सदैव योगदान देता रहा है। विश्व शांति की स्थापना के लिए प्रारम्भ से ही भारत सहयोग देता आ रहा है। 





कवि सम्मेलन में मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट के संस्थापक डॉ रामनिवास मानव, नारनौल, इलाश्री जायसवाल, नोएडा, प्रो नजीब बेगम, चेन्नई, जया वर्मा, लन्दन, डॉ विक्रम सिंह, विनोद कालरा, ऋचा पांडेय, लखनऊ आदि ने अपनी कविताओं से विश्व शांति और समानता का संदेश दिया।



कार्यक्रम की शुरुआत में डॉ सत्येन्द्र कुमार सेठी ने आयोजन की संकल्पना एवं स्वागत भाषण दिया। 


प्रारंभ में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस से मंगलाचरण श्री  सुरेशचन्द्र शुक्ल शरद आलोक ने प्रस्तुत किया।


डॉ सत्येन्द्र कुमार सेठी ने संगोष्ठी का संचालन किया। आभार प्रदर्शन श्री सुरेशचन्द्र शुक्ल शरद आलोक ने किया।
















20201017

एपीजे अब्दुल कलाम : शक्ति संपन्न और आत्मनिर्भर भारत के परिप्रेक्ष्य में - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण के लिए डॉ कलाम ने व्यापक संकल्पना दी – प्रो. शर्मा 

भारतरत्न एपीजे अब्दुल कलाम : शक्ति संपन्न और आत्मनिर्भर भारत के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी


प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा भारतरत्न एपीजे अब्दुल कलाम :  शक्ति संपन्न और आत्मनिर्भर भारत के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के प्रमुख अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार और अनुवादक श्री शरद चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। अध्यक्षता शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। विशिष्ट अतिथि  साहित्यकार डॉ अर्चना झा, हैदराबाद, डॉक्टर मंजू रूस्तगी, चेन्नई एवं संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने विचार व्यक्त किए। 





प्रमुख अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार और अनुवादक श्री शरद चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि भारतरत्न डॉ एपीजे अब्दुल कलाम आदर्श जीवन जीने वाले महान व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने शिक्षकीय कर्म को सर्वोपरि महत्व दिया है। 




मुख्य वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि आत्मनिर्भर और शक्ति संपन्न राष्ट्र के निर्माण के लिए डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने व्यापक संकल्पना दी थी। वे दूरद्रष्टा वैज्ञानिक और विचारक थे। उनकी दृष्टि में यदि हम विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है। वे विज्ञान को मानवता के लिए एक खूबसूरत उपहार मानते थे, इसलिए हमें इसे विकृत नहीं करना चाहिए। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अत्यंत सादगी और सहजता के साथ जिया। वे सर्वस्वीकार्य राष्ट्रपति के रूप में सम्मानित हुए। वे करोड़ों लोगों के देश के रूप में सोचने की बात करते हैं। उनकी दृष्टि अत्यंत मानवीय संवेदनाओं पर आधारित थी।  उन्होंने समाज के वंचित और पीड़ित वर्ग के लोगों की चिंता की। आम आदमी भी तकनीक का लाभ ले, इस दिशा में वे प्रयत्नशील बने रहे।




डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की दृष्टि में यदि हमें आत्मविश्वास के साथ जीना है तो आत्मनिर्भर बनना होगा। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा, अनुसंधान और राष्ट्र की सेवा में अर्पित किया। डॉ कलाम के जयंती का अवसर वाचन प्रेरणा दिवस और विद्यार्थी दिवस के रूप में बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। कलाम साहब बेहद संवेदनशील थे। उन्हें बच्चों से बातचीत और रुद्रवीणा वादन पसन्द था। उनकी दृष्टि में सपने वे सच्चे होते हैं जो हमें नींद नहीं आने देते हैं। उन्होंने भारतीयों के जनमानस में आत्म गौरव का भाव जगाया था। ग्रंथों के पठन पाठन का संदेश उन्होंने दिया, जिसकी प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है।



आयोजन में डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व और योगदान पर विभिन्न वक्ताओं ने प्रकाश डाला। इनमें डॉ अर्चना झा, हैदराबाद, डॉ मंजू रुस्तगी, चेन्नई, डॉ निसार फारूकी, उज्जैन, डॉ अनीता मांदिलबार, रायपुर, श्रीमती श्वेता गुप्ता, कोलकाता, डॉक्टर वंदना तिवारी, मुम्बई, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ भरत शेणकर, सीमा निगम, रायपुर, सुनीता चौहान, मुम्बई, डॉ मुक्ता कौशिक आदि प्रमुख थे।





संस्था के अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने संगोष्ठी की प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का परिचय दिया।


स्वागत भाषण डॉ लता जोशी, मुंबई ने दिया। अतिथि परिचय डॉ आशीष नायक रायपुर ने दिया।



कार्यक्रम में श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मधुकर देशमुख, डॉ अमित शर्मा, ग्वालियर, डॉ वीरेंद्र मिश्रा, इंदौर, अशोक भागवत, पूर्णिमा कौशिक, डॉ शैल चंद्रा, राम शर्मा, डॉ रश्मि चौबे,  डॉक्टर मुक्ता कौशिक आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे।


संचालन संस्था की राष्ट्रीय महिला इकाई की महासचिव डॉ रश्मि चौबे ने किया। अंत में आभार श्री अनिल ओझा, इंदौर ने प्रकट किया।



















20201015

नई शिक्षा नीति : साहित्य और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

संस्कृति संरक्षण और संवर्धन को लेकर आत्म सजग करेगी नई शिक्षा नीति – प्रो. शर्मा 

नई शिक्षा नीति 2020 : साहित्य और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी

प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा नई शिक्षा नीति  2020 : साहित्य और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के प्रमुख अतिथि शिक्षाविद् श्री ब्रजकिशोर शर्मा थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि  वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार और अनुवादक श्री शरद चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, संयुक्त संचालक, शिक्षा श्री मनीष वर्मा, इंदौर एवं संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने विचार व्यक्त किए। अध्यक्षता डॉ जी डी अग्रवाल ने की।




मुख्य वक्ता लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि श्रेष्ठ साहित्य और कलाओं के साथ विद्यार्थियों को जोड़ने की जिम्मेदारी  शैक्षिक संस्थानों की है। नई शिक्षा नीति साहित्य और संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिए के लिए आत्म सजग करेगी। देश के शिक्षालयों का दायित्व है कि  अपने इतिहास, संस्कृति और साहित्य के प्रति गौरव का भाव जागृत करें। वास्तविक शिक्षा मनुष्य को संकीर्ण दायरे से मुक्त करती है। भारतीय शिक्षा परम्परा मूल्यकेंद्रित जीवन दृष्टि को आधार में लिए हुए हैं। देश की बहुत बड़ी आबादी शिक्षा से संबंध रखती है। नई शिक्षा नीति में सूचना और ज्ञान से आगे जाकर प्रज्ञा और सत्य की खोज पर बल दिया गया है। वैचारिक चिंतन के साथ रचनात्मक कल्पना शक्ति का विकास नई शिक्षा नीति के आधार में है। इस दिशा में कला, साहित्य और संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमें सभी स्तरों की पाठ्य सामग्री में विज्ञान और गणित के समान भाषाओं, साहित्य, जीवन मूल्य और संस्कृति को महत्त्व देना होगा।








प्रवासी साहित्यकार और अनुवादक श्री शरद चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो ने कहा कि संपूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति को विशेष सम्मान से देखा जाता है। हमें अपनी संस्कृति और साहित्यिक परंपरा के प्रति गौरव का भाव होना चाहिए। शैक्षिक संस्थाओं में कला और साहित्य के प्रति गहन अभिरुचि उत्पन्न करने के प्रयास होने चाहिए। 



मुख्य अतिथि श्री ब्रजकिशोर शर्मा, उज्जैन ने कहा कि शिक्षा सर्वांगीण विकास करती है। साहित्य सुख-दुख के अनुभव के स्पंदन को प्रकट करने का काम करता है। मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने का कार्य शिक्षा करती है। इस दिशा में भाषा, साहित्य और संस्कृति की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।



साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि शिक्षा का मूल उद्देश्य है विद्यार्थी अपने देश, समाज और संस्कृति को लेकर आत्म गौरव करें। संस्कार और संस्कृति के बिना शिक्षा मात्र व्यवसाय बन कर रह जाती है। हमारे विद्यार्थियों को विदेशी शिक्षा संस्थानों के व्यामोह से मुक्त होना होगा।


अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ जी डी अग्रवाल, इंदौर ने कहा कि शिक्षा प्रणाली में साहित्य और जीवन मूल्य की विशेष भूमिका होनी चाहिए। शिक्षकों को विद्यार्थियों के मध्य भारतीय अस्मिता, अस्तित्व और गौरव को स्थापित करना होगा। राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना जैसी संस्थाएं शिक्षकों में अंतर्निहित प्रतिभा को प्रकट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। 



संयुक्त संचालक शिक्षा श्री मनीष वर्मा, इंदौर ने कहा कि नई शिक्षा नीति में भाषाओं के अध्ययन पर विशेष बल दिया गया है। आने वाले समय में पूर्व प्राथमिक स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी स्कूल - दोनों अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। 


प्रारंभ में आयोजन की रूपरेखा एवं अतिथि परिचय राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने दिया।


युवा कवि श्रीराम शर्मा परिंदा, मनावर ने अपने चुनिंदा मुक्तकों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।

 

सरस्वती वंदना सुनयना सोहनी ने की। स्वागत भाषण डॉ लता जोशी, मुंबई ने दिया।


कार्यक्रम में डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, डॉ लता जोशी, श्री अनिल ओझा, इंदौर, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ वीरेंद्र मिश्रा, इंदौर, अशोक भागवत, डॉ शैल चंद्रा, राम शर्मा, डॉ रश्मि चौबे,  डॉक्टर मुक्ता कौशिक, डॉ श्वेता पंड्या  आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे।


संचालन श्रीमती रागिनी शर्मा ने किया। अंत में आभार श्री अनिल ओझा, इंदौर ने प्रकट किया।




Featured Post | विशिष्ट पोस्ट

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : वैचारिक प्रवाह से जोड़ती सार्थक पुस्तक | Mahatma Gandhi : Vichar aur Navachar - Prof. Shailendra Kumar Sharma

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : पुस्तक समीक्षा   - अरविंद श्रीधर भारत के दो चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में  सबसे...

हिंदी विश्व की लोकप्रिय पोस्ट