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20200424

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-शृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालो।



सुमन जी संग शैलेंद्रकुमार शर्मा 

बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

बसंती हवा

केदारनाथ अग्रवाल


हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

        सुनो बात मेरी -
        अनोखी हवा हूँ।
        बड़ी बावली हूँ,
        बड़ी मस्तमौला।
        नहीं कुछ फिकर है,
        बड़ी ही निडर हूँ।
        जिधर चाहती हूँ,
        उधर घूमती हूँ,
        मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

        जहाँ से चली मैं
        जहाँ को गई मैं -
        शहर, गाँव, बस्ती,
        नदी, रेत, निर्जन,
        हरे खेत, पोखर,
        झुलाती चली मैं।
        झुमाती चली मैं!
        हवा हूँ, हवा मै
        बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

        पहर दो पहर क्या,
        अनेकों पहर तक
        इसी में रही मैं!
        खड़ी देख अलसी
        लिए शीश कलसी,
        मुझे खूब सूझी -
        हिलाया-झुलाया
        गिरी पर न कलसी!
        इसी हार को पा,
        हिलाई न सरसों,
        झुलाई न सरसों,
        हवा हूँ, हवा मैं
        बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
- केदारनाथ अग्रवाल




20170505

पलायन-पथ से परे प्रवृत्ति का अमर राग : शिवमंगलसिंह सुमन - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

कविवर श्री शिवमंगलसिंह सुमन को याद करते हुए
- प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
यह स्वर्ग नर्क विवेचना
मन का अनोखा कृत्य है।
है सत्य केवल एक गति
बाकी समस्त अनित्य है। (प्रलय सृजन)



कविवर शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ (1915-2002 ई.) के नाम-रूप का स्मरण आते ही औदात्य का एक विराट बिम्ब आकार लेता है। बहुत कम रचनाकारों को इस तरह जीवंत किंवदंती होने का सौभाग्य मिला है, सुमन जी उस विलक्षण कविमाला के अनूठे रत्न हैं। उनकी इस किंवदंती छबि को कहीं-कहीं असहजता से भी लिया गया, किन्तु यह समस्या हिन्दी जगत के कथित आभिजात्य वर्ग की है, जिसके लिए इस तरह की उदात्त और जनप्रिय छबि संदेहकारी रही है। वे तमाम प्रकार की असहमतियों और विसंवादों के बीच सहज संवाद के कवि हैं। उन्होंने अपना समूचा जीवन उत्कट मानवता और अविराम सर्जना को अर्पित किया था। वस्तुतः उनके रचनामय व्यक्तित्व के माध्यम से हम लगभग सात-आठ दशकों के वैश्विक युग-जीवन से जैविक संवाद का विरल अनुभव पाते हैं। उनकी रचनाओं में हमारे  समाज, साहित्य, संवेदना और चिंतन का इतिहास सजीव-सप्राण हो जाता है।

अपनी सुदीर्घ कविता ‘सांसों का हिसाब’ में वे जीवन के अविराम प्रवाह के बीच मनुष्य होने और उस रूप में बिताए सार्थक क्षणों का लेखा-जोखा मांगते हैं,
तुमने जितनी रासें तानी, मोड़ी हैं
तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं
उनका हिसाब दो और करो रखवाली
कल आने वाला है साँसों का माली
कितनी साँसों की अलकें धूल सनी हैं
कितनी साँसों की पलकें फूल बनी हैं?

काल की निरवधि के बीच उभरते ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्नों और परिवर्तन-चक्र को बाँधता कवि उस मुहाने पर ले जाता है, जहाँ जिंदगी को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है:

तुम समझे थे तुम सचमुच में जीते हो
तुम ख़ुद ही देखो भरे या कि रीते हो
जीवन की लज्जा है तो अब भी चेतो
जो जंग लगी उनको ख़राद पर रेतो
जितनी बाक़ी हैं सार्थक उन्हें बना लो
पछताओ मत आगे की रक़म भुना लो
अब काल न तुमसे बाज़ी पाने पाये
अब एक साँस भी व्यर्थ न जाने पाये
तब जीवन का सच्चा सम्मान रहेगा
यह जिया न अपने लिए मौत से जीता
यह सदा भरा ही रहा न ढुलका रीता

एक अविराम-अडिग पथिक के रूप में गतिशील बने रहने में ही सुमन जी का जीवन-संदेश आकार लेता है। गति का आस्वाद वह क्या जाने जिसका जीवन अचल हो,

साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

सुमन जी धारा के नहीं, उसके प्रतिरोध के कवि हैं। वे आजीवन नियति के आगे पराजित और संकल्पों को समर्पित करते मनुष्य को उसके विरुद्ध टकराने का आह्वान करते हैं,

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है। (हिल्लोल से)

सुमन जी ने ‘महादेवी की काव्य साधना’ और ‘गीति काव्य: उद्गम और विकास और हिन्दी में उसकी परंपरा’ जैसे विषयों पर प्रतिमानी शोध किया था। उनके कई मर्म-मधुर गीत इस परंपरा में बहुत कुछ नया जोड़ते हैं। उनकी एक चर्चित गीति-रचना देखिए, जहाँ प्रणय का राग नई उड़ान भरता दिखाई देता है-  

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।
देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आंधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।

एक ओर प्रणय का संदेश सुनाती प्रिया, दूसरी ओर बाँहें पसारे आहत-जन, सुमन जी अपनी राह पूरे आत्मविश्वास के साथ चुनते हैं,

चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहें पसारे,
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचना कापुरुषता
मुंह दिखने योग्य रखेंगी न मुझको स्वार्थपरता।

उन्हें जीवन-प्रवाह के वे पक्ष कभी आंदोलित नहीं कर सके, जो या तो कल्पना-लोक में ले जाते रहे हों या पलायन-पथ पर। कवि सुमन का अमृत स्वर हमें ऐसे गान में डुबोता है, जहाँ प्रवृत्ति में ही जीवन सार्थकता पा सकता है, निष्क्रिय निवृत्ति में नहीं,

यह मन की बातें गढ़-गढ़ कर
मैं क्या पाऊँगा पढ़ पढ़ कर
मुझको दो ऐसे गान सिखा
मैं मिट जाऊँ गाते गाते
मुझको यह पाठ नहीं भाते
क्या शिक्षा का उपयोग यहाँ
है हाय हाय का शोर यहाँ
मेरी आँखों के आगे तो
जगती के सुख दुख मँडराते
मुझको यह पाठ नहीं भाते

- प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
(व्यक्ति चित्र: कलागुरु श्री रामचन्द्र भावसार/ माध्यम: तैलरंग)


20170501

विश्व शांति और साहित्य

अभ्यास मण्डल की व्याख्यान शृंखला में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा


विगत लगभग छह दशकों से अध्ययन एवम् चेतना प्रसार सहित व्यापक सरोकारों को लेकर सक्रिय इंदौर की अनन्य संस्था अभ्यास मण्डल की व्याख्यान शृंखला में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के व्याख्यान का मौका यादगार रहा। विश्व शांति और साहित्य पर व्याख्यान में उनका कहना था, ग्लोबल बर्ल्ड में देशों के बीच दूरियां कम हुई हैं, लेकिन दिलों के बीच दूरियां बढ़ी हैं। आज दुनिया ने इतने हथियार  इकट्ठे कर लिए हैँ कि एक साथ कई पृथ्वियों को नष्ट किया जा सकता हैं। ऐसे अंधकार भरे समय में एक साहित्यकार ही विश्व शान्ति और दिलों में दूरियों को कम कर सकता है।

साहित्यकारों  ने हर काल खंड में विश्व शांति की कामना की है और अपनी रचनाओं में भी स्थान दिया। प्रकाश और अंधकार की लड़ाई तो प्राचीन काल से चली आ रही है और हमेशा ही साहित्यकारों ने अंधकार के ख़िलाफ़ लिखते हुए प्रकाश के पक्ष में अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है। महाभारत में चाहे वेद व्यास रहे हों या वर्तमान दौर के रचनाकार सभी ने युद्ध, हिंसा, आतंक और विद्वेष के खिलाफ आवाज़ उठाई है। 

समाज आराधक श्री मुकुंद कुलकर्णी  ने 1957 ई के आसपास अपने कुछ साथियों के साथ अभ्यास मण्डल की नींव रखी थी, जो आज इंदौर सहित मालवा की पहचान है। व्याख्यान के बाद 56 वीं व्याख्यानमाला के फोल्डर का विमोचन हुआ। इस मौके पर सर्वश्री आनन्दमोहन माथुर, शशीन्द्र जलधारी, संस्थाध्यक्ष शिवाजी मोहिते, सचिव परवेज़ खान, सुरेश उपाध्याय, डॉ हरेराम वाजपेयी, सदाशिव कौतुक, अरविन्द ओझा,  प्रवीण जोशी, डॉ पल्लवी आढ़ाव, मालासिंह ठाकुर, मनीषा गौर, तपन भट्टाचार्य, डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रमेशचन्द्र पण्डित, पुष्पारानी गर्ग, प्रदीप नवीन आदि सहित अनेक सुधीजनों से भेंट का आत्मीय प्रसंग बना। 

इस मौके का भास्कर कवरेज और कुछ फ़ोटोग्राफ्स। सौजन्य: अभ्यास मण्डल@Parvez Khan






20161128

जीवन के शाश्वत, किन्तु अनुत्तरित प्रश्नों के बीच कैलाश वाजपेयी की कविता भर्तृहरि : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

कैलाश वाजपेयी  की कविता: भर्तृहरि
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
जीवन के शाश्वत, किन्तु अनुत्तरित प्रश्नों के बीच राजयोगी भर्तृहरि से संवाद करती कैलाश वाजपेयी  की इस कविता को पढ़ना-सुनना विलक्षण अनुभव देता है। कैलाश वाजपेयी  (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) अछोर कविमाला के अनुपम रत्न हैं। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था। उनकी प्रमुख कृतियों में 'संक्रांत', 'देहात से हटकर', 'तीसरा अंधेरा', 'सूफीनामा', 'भविष्य घट रहा है', 'हवा में हस्ताक्षर', 'शब्द संसार', 'चुनी हुई कविताएँ', 'भीतर भी ईश्वर' आदि प्रमुख हैं। 

कैलाश वाजपेयी की कविताओं में जहां एक ओर अपने समय और समाज से संवादिता दिखाई देती है, वहीं वे निजी सुख-दुख, हर्ष - पीड़ा के साथ दार्शनिक प्रश्नों को अभिव्यक्ति देते हैं। श्री वाजपेयी ने जहां एक ओर भारतीय दर्शन, इतिहास और पुराख्यानों के साथ वैचारिक रिश्ता बनाया था, वहीं वे पश्चिम से आने वाली चिंतन धाराओं से भी मुठभेड़ करते रहे। 

व्यक्ति और समाज की सापेक्षता को उन्होंने कभी ओझल न होने दिया। वे लिखते हैं-  मेरा ऐसा मानना रहा है कि व्यक्ति और समाज बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद की तरह ओतप्रोत है। रचनाकार व्यक्ति भी है समाज भी। समाज उसे क्या क्या नहीं देता - सभी कुछ समाज की ही देन है, तब भी जहां तक आंतरिकता का प्रश्न है वहां रचनाकार बहुत अकेला है। प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्ति समाज अथवा विचारधाराओं का साधन मात्र है? तब फिर उसके निजत्व का क्या किया जाए? देखा यह गया है कि विचारधाराएं जाने अनजाने व्यक्ति को एक कठपुतली की तरह नचाने लगती  हैं। परिणाम यह होता है कि रचना के क्षेत्र में स्वतः स्फूर्ति आंतरिक बेमानी होने लगती है। दूसरे दर्जे की कला को अधिक महत्व मिलने लगता है। पंथपरकता अथवा विचारधाराओं ने इस दृष्टि से कलाओं को गंभीर क्षति पहुंचाई है। समाज का अर्थ है पारस्परिक प्रेम संबंध। मगर हम यदि अपने आसपास निगाह दौड़ा कर देखें तो पाएंगे कि हम आपस में तरह-तरह से विभक्त हैं। एक ही समाज में रहते हुए अपने अपने विश्वासों, अपनी धारणाओं के कारण, हर उस व्यक्ति के प्रति विद्वेष रखते हैं जो हमारी मान्यताओं के विपरीत स्वतंत्रचेता है, अपने ढंग से रचना है (संक्रांत की भूमिका से)। जाहिर है कैलाश वाजपेयी की ये चिंताएं आज भी बरकरार हैं।

उन्होंने दिल्ली दूरदर्शन के लिए कबीर, सूरदास, जे कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर फिल्में भी बनाई थीं। स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित नाटक 'युवा संन्यासी' उनका प्रसिद्ध नाटक है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में उल्लेखनीय हैं- हिंदी अकादमी सम्मान, वर्ष 2000 में एसएस मिलेनियम अवॉर्ड, वर्ष 2002 में प्रतिष्ठित व्यास सम्मान, वर्ष 2005 में ह्यूमन केयर ट्रस्ट अवॉर्ड, वर्ष 2008 में अक्षरम् का विश्व हिन्दी साहित्य शिखर सम्मान आदि। मेरी  प्रिय कविताओं में से एक भर्तृहरि का आस्वाद लीजिए : 


भर्तृहरि / कैलाश वाजपेयी

चिड़ियाँ बूढ़ी नहीं होतीं
मरखप जाती हैं जवानी में
ज़्यादा से ज़्यादा छह-सात दिन
तितली को मिलते हैं पंख
इन्हीं दिनों फूलों की चाकरी
फिर अप्रत्याशित
झपट्टा गौरेया का
एक ही कहानी है
खाने या खाए जाने की
तुम सहवास करो या आलिंगन राख का
भर्तृहरि! देही को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई दूसरी पृथ्वी भी नहीं है

भर्तृहरि! यों ही मत खार खाओ शरीर पर
यही यंत्र तुमको यहाँ तक लाया है
भर्तृहरि! यह लो एक अदद दर्पण
चूरचूर कर दो
प्रतिबिंबन तब भी होगा ही होगा
भर्तृहरि! अलग से बहाव नहीं कोई
असल में हम खुद ही बहाव हैं
लगातार नष्ट होते अनश्वर
अभी-अभी भूख, पल भर तृप्ति, अभी खाद
भर्तृहरि! हममें हर दिन कुछ मरता है
शेष को बचाए रखने के वास्ते
मौसम बदलता है भीतर
भर्तृहरि! तुमने मरता नहीं देखा प्यासा कोई
वह पैर लेता है, आमादा
पीने को अपना ही ख़ून
भर्तृहरि! तुमने मरुथल नहीं देखा
भर्तृहरि समय का मरुथल क्षितिजहीन है
और वहाँ पर ‘वहाँ’ जैसा कुछ भी नहीं
भर्तृहरि! भाषा की भ्रांति समझो
सूर्य नहीं, हम उदय अस्त हुआ करते हैं
युगपत् उगते मुरझते
भर्तृहरि! भाषा का पिछड़ापन समझो
जो भी हैं बंधन में पशु है
निसर्गतः फर्क नहीं कोई
राजा और गोभी में
छाया देता है वृक्ष आँख मूँदकर
सुनता है, धड़ पर, चलते आरे की
अर्रर्र, किस भाषा में रोता है पेड़
भर्तृहरि! तुमने उसकी सिसकी सुनी?

भर्तृहरि! तुम्हीं नहीं, सबको तलाश है
उस फूल की
जो भीतर की ओर खिलता है
भर्तृहरि! लगने जब लगता है
मिला अभी मिला
आ रही है सुगंध
दृश्य बदल जाता है।

(फ़ोटो भरत तिवारी Bharat Tiwari सौजन्य विकिपीडिया)


श्री कैलाश वाजपेयी को 18 अगस्त 2013, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यक्रम में अपनी कविता 'भर्तृहरि' का पाठ करते हुए यूट्यूब पर भी देखा जा सकता है। लिंक है: 
Watch "Bhartrihari भर्तृहरि Poem by Kailash Vajpeyi" on YouTube




20150806

विराट भारतीय चेतना के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

विराट भारतीय चेतना के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
मैथिलीशरण गुप्त विराट भारतीय चेतना के रचनाकार थे। राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने में राष्ट्रकवि गुप्त जी की अविस्मरणीय भूमिका रही है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रप्रेम को जगाने के साथ ही अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध प्रतिरोध की ताकत पैदा की। वे आलोचकों के सामने सदैव चुनौती बने रहे, जिन्होंने उन्हें अपने पूर्व निश्चित साँचों में बांधने की कोशिश की। उनकी दृष्टि में भारत केवल भूखंड नहीं है, वह साक्षात परमेश्वर की मूर्ति है। उनके लिए भारत एक भाव का नाम है: 

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥



राष्ट्रीय चेतना को सामाजिक चेतना से अलग करके देखना उचित नहीं है। गुप्त जी ने नारी सशक्तीकरण को भी उतना ही महत्त्व दिया है, जितना राष्ट्रोत्थान को। वे एक और अखण्ड राष्ट्रीयता के प्रादर्श को रचते हैं। जब देश को भाषा, क्षेत्र, जाति, संप्रदाय आदि के आधार पर विभाजित करने के प्रयास किए जा रहे हों, तब मैथिलीशरण गुप्त का काव्य हमारा सही मार्गदर्शन करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने मौलिक चिंतन बंद कर दिया है। गुप्त जी हमें सभी प्रकार से जगाने आए थे। 

(श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति द्वारा इंदौर में आयोजित समारोह में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को याद करते हुए वक्तव्य के अंश और विभिन्न अख़बारों की कटिंग्स के साथ साभार प्रस्तुत हैं।)








                                                 



20150524

यथास्थिति नहीं, परिवर्तन की पक्षधर हैं दिनकर सोनवलकर की कविताएँ - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

परिवर्तन की पक्षधरता और दिनकर सोनवलकर का काव्य 

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा


स्वतंत्रता के बाद की हिंदी कविता  में समाज और व्यवस्था से जुड़े व्यंग्य की व्याप्ति और विस्तार के लिए दिनकर सोनवलकर (24 मई 1932 – 7 नवम्बर 2000) का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वे अत्यंत सरल - निश्छल स्वभाव के धनी थे। उनकी कविताएं भी उनके स्वभाव के अनुरूप पारदर्शी हैं। सहज - तरल प्रतीक और बिम्बों की अजस्र माला से बुनी उनकी कविताओं ने साठ के दशक से ही अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया था। फिर सत्तर से नब्बे के दशक तक वे देश के तमाम मंचों और पत्र पत्रिकाओं में छाए रहे। शीशे और पत्थर का गणित, अ से असभ्यता, इकतारे पर अनहद राग, दीवारों के खिलाफ सहित एक दर्जन से अधिक काव्य संग्रहों के रचनाकार और अनुवादक श्री सोनवलकर जी की कविताओं में एक साथ जीवन बोध, व्यंग्य बोध और मूल्य बोध का त्रिवेणी संगम हुआ है।

कविता एक अन्वेषण में उन्होंने लिखा है-

कविता
कोई लबादा तो नहीं
कि ओढ़कर फिरते रहो
और न कोई आवरण
कि स्वयं को छिपाते रहो।
यह कोई पिस्तौल नहीं
कि लुक छिप कर चलाते रहो
और न अंडरग्राउंड केबिन
कि युद्ध से खुद को बचाते रहो।
यह कोई माउथपीस नहीं
कि पार्टी के नारे गुंजाते रहो
और न कोई मठ
कि उपदेश का अमृत पिलाते रहो।
कविता तो बस
ऐसे कुछ क्षण हैं-
जिनमें डूब कर
हम ख़ुद को
तरोताज़ा और
जिंदा महसूस करते हैं।

सुविख्यात कवि, संगीतकार और मनीषी प्रो. दिनकर सोनवलकर ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर हिंदी कविता को बगैर किसी वाद या पन्थ विशेष के अंधानुकरण के मनुष्य के अंतरबाह्य बदलाव का माध्यम बनाया था। उनकी कविताओं में समय और समाज के यथार्थ का बहुकोणीय रूपांकन मिलता है। उनकी कविताएँ यथास्थिति नहीं, परिवर्तन की पक्षधर हैं। उनकी कई लघु, किन्तु मर्मवेधी काव्य-पंक्तियाँ आज भी उनके पाठकवर्ग के मन में पैबस्त हैं। उनके साथ आत्मीय सान्निध्य का सौभाग्य मुझे मिला है, वह अमिट और अविस्मरणीय है।

वे एक समूचे कवि थे। गोष्ठियों से लेकर बड़े बड़े काव्य मंचों तक उनके काव्य-पाठ की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती थी, वहीं मर्ममधुर कण्ठ से दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के सरस गायन का आस्वाद रसिकों के लिए यादगार अनुभव होता था। 

दिनकर सोनवलकर की स्मृति में समारोह की रूपरेखा बनाते हुए मैंने सुझाया कि उनके जीवन और व्यक्तित्व पर केंद्रित वृत्तचित्र के निर्माण के साथ उनकी कविताओं में मौजूद संगीत-नृत्य की संभावनाओं को तलाशा जाए। उनके कविमना सुपुत्र प्रतीक सोनवलकर ने तत्काल इन्हें मूर्त रूप देने का संकल्प ले लिया। इसी दिशा में नृत्य रूपक सविनय समर्पित है।

वस्तुतः कविताओं का दृश्यीकरण अनेक चुनौतियाँ देता आ रहा है। विशेष तौर पर मुक्त छन्द की रचनाओं को नृत्य- रूपक में ढालना और मुश्किल रहा है। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि दिनकर सोनवलकर ने स्वयं कहा है, "संगीत है मेरा जीवन, साहित्य मेरा तन मन।" फिर उनकी रचनाओं में मौजूद आंतरिक लय स्वयं नृत्य -रूपक के लिए आधारभूमि दे देती है।
इस प्रस्तुति के लिए सोनवलकर जी की विविध रंगों की कविताएँ चुनी गई हैं। प्रयास रहा है कि उनका काव्यत्व बाधित न हो, वरन् अपनी नूतन अर्थवत्ता के साथ ये रचनाएँ रसिकजनों तक पहुंचे। प्रतिभा संगीत कला संस्थान द्वारा प्रस्तुत इस नृत्य रूपक में नृत्य गुरु पद्मजा रघुवंशी के निर्देशन में कथ्य और संवेदना की अनुरूपता में बहुवर्णी नृत्य संरचनाएँ की गई हैं। कहीं कथक, कहीं ओडिसी, कहीं मालवी लोक शैली तो कहीं सालसा और समकालीन पाश्चात्य नृत्य शैलियों की बुनावट से कविताओं को तराश मिली  है। संगीत-मनीषी इन्दरसिंह बैस द्वारा निर्देशित संगीत-लय नियोजन में भी इसी वैविध्य का मधुर समावेश हुआ है। ध्वन्यांकन संयोजन जगरूपसिंह चौहान और तकनीकी परामर्श भूषण जैन का है।
कुल पौन घण्टे का यह नृत्य रूपक रसिकजनों को पसन्द आया। काव्य और कला के एक अनन्य समाराधक के प्रति आत्मीय कृतज्ञता के साथ यह नृत्य-संगीतांजलि अर्पित की है।

आत्मीय स्पर्श कविता में दिनकर सोनवलकर लिखते हैं-

बड़ों के पाँव छूने का रिवाज़
इसलिए अच्छा है
कि उनके पैरों के छाले देखकर
और बिवाइयाँ छूकर
तुम जान सको
कि ज़िन्दगी उनकी भी कठिन थी
और कैसे-कैसे संघर्षों में चलते रहे हैं वे।
बदले में
वे तुम्हें सीने से लगाते हैं
और सौंप देते हैं
अपनी समस्त आस्था, अपने अनुभव।
वह आत्मीय विद्युत- स्पर्श
भर देता है तुम्हारे भीतर
कभी समाप्त न होने वाली
एक विलक्षण ऊर्जा।
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन


क्या कोई चलेगा कवि पथ पर: जावरा के दिनकर सोनवलकर मार्ग पर कविमना प्रिय प्रतीक सोनवलकर के साथ यादगार छबि

































प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा

20130410

नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल

नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल पर आलेख अपनी माटी पर पढ़ सकते हैं....
                साहित्य की सत्ता मूलतः अखण्ड और अविच्छेद्य सत्ता है। वह जीवन और जीवनेतर सब कुछ को अपने दायरे में समाहित कर लेता है। इसीलिए उसे किसी स्थिर सैद्धांतिकी की सीमा में बाँधना प्रायः असंभव रहा है। साहित्य को देखने के लिए नजरिये भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, जो हमारी जीवन-दृष्टि पर निर्भर करते हैं। एक ही कृति को देखने-पढ़ने की कई दृष्टियाँ हो सकती हैं। उनके बीच से रचना की समझ को विकसित करने के प्रयास लगभग साहित्य-सृजन की शुरूआत के साथ ही हो गए थे। आदिकवि वाल्मीकि जब क्रौंच युगल के बिछोह के शोक से अनायास श्लोक की रचना कर देते हैं, तब उन्हें स्वयं आश्चर्य होता है कि यह क्या रचा गया  इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते साहित्य से जुड़े क्या, क्यों और कैसे जैसे प्रश्न अब भी ताजा बने हुए लगते हैं, तो यह आकस्मिक नहीं हैं।
     आज का दौर भूमण्डलीकरण और उसे वैचारिक आधार देने वाले उत्तर आधुनिक विमर्श और मीडिया की विस्मयकारी प्रगति का दौर है। इस दौर में साहित्य और उसके मूल में निहित संवेदनाओं के छीजते जाने की चुनौती अपनी जगह है ही, साहित्य और सामाजिक कर्म के बीच का रिश्ता भी निस्तेज किया जा रहा है। ऐसे में साहित्य की ओर से प्रतिरोध बेहद जरूरी हो जाता है। इधर साहित्य में आ रहे बदलाव नित नए प्रतिमानों और उनसे उपजे विमर्शों के लिए आधार बन रहे हैं। वस्तुतः कोई भी प्रतिमान प्रतिमेय से ही निकलता है और उसी प्रतिमान से प्रतिमेय के मूल्यांकन का आधार बनता है। फिर एक प्रतिमेय से निःसृत प्रतिमान दूसरे नव-निर्मित प्रतिमेय पर लागू करने पर मुश्किलें आना सहज है। पिछले दशकों में शीतयुद्ध की राजनीति ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कलाजगत् पर सहज ही देखा जाने लगा। इसी प्रकार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की वर्चस्वशाली उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पक्षों पर अपना असर जमाया। इनसे साहित्य का अछूता रह पाना कैसी संभव था? उत्तर आधुनिकता, फिर उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी दौर में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श , सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसी विविध विमर्श धाराएँ विकसित हुईं। केन्द्र के परे जाकर परिधि को लेकर नवविमर्श की जद्दोजहद होने लगी। ऐसे समय में मनुष्य और साहित्य की फिर से बहाली पर भी बल दिया जाने लगा। पिछले दो-तीन दशकों में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य, संस्कृति और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत् को मथा है। हिन्दी साहित्य में हाल के दशकों में उभरे प्रमुख विमर्शों में स्त्री विमर्शदलित विमर्श,  आदिवासी विमर्श,  वैश्वीकरण, बहुसांस्कृतिकतावाद  आदि को देखा जा सकता है। ये विमर्श साहित्य को देखने की नई दृष्टि देते हैं, वहीं इनका जैविक रूपायन रचनाओं में भी हो रहा है।-प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 

http://www.apnimaati.com/2013/04/blog-post_6939.html

20130313

नई सौंदर्य-दृष्टि से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है केदारनाथ सिंह ने

केदारनाथ सिंह: तात्कालिकता से परे की कविताएँ

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 


प्रख्यात कवि श्री केदारनाथ सिंह जी से काफी समय बाद उज्जैन में पिछले दिनों आयोजित 'प्रणति प्रभात' में हुई भेंट यादगार रही थी। वे वाराणसी में मेरे गुरुवर स्व. आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी और दिल्लीवासी समालोचक आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ बी.एच.यू. में एक ही कक्षा में साथ पढ़े थे। सप्तक काव्य के इस महनीय कवि ने एक नई सौंदर्य-दृष्टि से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है। उनकी कवितायें मुझे सदा से प्रभावित करती रही हैं । उनकी रचनाएँ किसी भी प्रकार के आंदोलन या धाराओं के साथ कुछ समय तक चलकर निश्शेष हो जाने वाली रचना नहीं हैं, यही उनकी सबसे बड़ी अर्थवत्ता भी है।
उनके कविता संग्रह ‘बाघ’ से एक रचना का आनंद लीजिये 'इस विशाल देश के'...
इस विशाल देश के

केदारनाथ सिंह

इस विशाल देश के
धुर उत्तर में
एक छोटा-सा खँडहर है
किसी प्राचीन नगर का जहाँ उसके वैभव के दिनों में
कभी-कभी आते थे बुद्ध कभी-कभी आ जाता था बाघ भी
दोनों अलग-अलग आते थे
अगर बुद्ध आते थे पूरब से तो बाघ क्या
कभी वह पश्चिम से आ जाता था
कभी किसी ऐसी गुमनाम दिशा से जिसका किसी को
आभास तक नहीं होता था
पर कभी-कभी दोनों का
हो जाता था सामना फिर बाघ आँख उठा
देखता था बुद्ध को
और बुद्ध सिर झुका
बढ़ जाते थे आगे
इस तरह चलता रहा।

केदार जी की 'बनारस' शीर्षक रचना अपने आप में अद्भुत है। उसका आस्वाद लीजिये...

बनारस
केदारनाथ सिंह

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे- ऊँचे स्तम्भ आग के स्तम्भ और पानी के स्तम्भ
धुऍं के खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!

श्री केदारनाथ सिंह जी के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा









केदारनाथ सिंह : जीवन परिचय और रचना संसार

जन्म : सात जुलाई 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में शिक्षा : बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1956 में हिंदी से एमए, 1964 में पीएचडी नौकरी : कई कॉलेजों में शिक्षण का काम किया। अंत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए प्रमुख कृतियां 
कविता संग्रह : अभी बिल्कुल नहीं, जमीन पक रही है, यहां से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, तालस्टाय और साइकिल 
आलोचना : कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार 
संपादन : ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)  सम्मान और पुरस्कार: ज्ञानपीठ पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान तीसरा सप्तक के लोकप्रिय कवि 1959 में प्रकाशित चर्चित कविता संग्रह तीसरा सप्तक के लोकप्रिय कवि केदारनाथ सिंह थे। अज्ञेय ने उनकी कविताओं को इसमें जगह दी थी और वह इसे चर्चा में आए थे। 

चंद्रकांत देवताले की कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता '

चन्द्रकान्त देवताले की चयनित कविताएँ
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 



साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले जी ने अपना अलग मुहावरा गढ़ा था।  श्री देवताले को उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ ' पर साहित्य अकादमी, दिल्ली का वर्ष 2012 का  साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि। उनकी प्रसिद्ध कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता ' देखिये।
  
माँ पर नहीं लिख सकता कविता 
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता

अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहां हर रोज चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं 
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!

- - - - 

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता/ चंद्रकांत देवताले  

तुम्हारी निश्चल आंखें 
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता 
ईथर की तरह होता है 
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें 
नुकीले पत्थरों -सी

दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो 
पहली कतार में मेरे लिए

मुझे माफ करना 
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था 
मेरी छाया के तले ही 
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी 
तुम्हारी 

अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो 
मैं खुश हूं सोचकर 

कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !

- - - - - - - - 
औरत / चन्द्रकान्त देवताले

वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंथ रही है?
गूंथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,

एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,

एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वस्त्र जागती
शताब्दियों से सोयी है,

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।

- - - - - - 

मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए/ चंद्रकांत देवताले 

मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को 
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम 
अपने देखने-भर के करिश्मे से 
कुछ तो है तुम्हारे भीतर 
जिससे अपने बियावान सन्नाटे को 
तुम सितार-सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में 

अपने असंभव आकाश में 
तुम आज़ाद चिड़िया की तरह खेल रही हो 
उसकी आवाज की परछाईं के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा 
आँखें खोल रहा हूँ गहरी धुँध में 

लगता है काल्पनिक खुशी का भी 
अंत हो चुका है 
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी 
तुम फूलों को नोंच रही हो 
मैं यहाँ दुख की सूखी आँखों पर 
पानी के छींटे मार रहा हूँ 

हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद 
जो भी हो 
उड़ रहा हूँ तुम्हारे खनकती आवाज के समुंदर  पर 
हंसध्वनि की तान की तरंगों के साथ 
जुगलबंदी कर रहे हैं 
मेरे फड़फड़ाते होंठ 
याद है न जितनी बार पैदा हुआ 
तुम्हें मैंने बैंजनी कमल कहकर ही पुकारा 
और अब भी अकेलेपन के पहाड़ से उतरकर 
मैं आऊंगी हमारी परछाईयों के ख़ुशबूदार 
गाते हुए दरख्त के पास 
मैं आता रहूँगा उजली रातों में 
चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा 
तुम्हारे लिए । 




 प्रो. चंद्रकांत देवताले के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


                                               डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
                                               आचार्य एवं कुलानुशासक
                                               विक्रम विश्वविद्यालय
                                                                                              उज्जैन (म.प्र.) 456 010

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