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20210619

महारानी लक्ष्मीबाई और अन्य वीरांगनाएँ : इतिहास एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Maharani Laxmibai and other Brave Women: in the Vontext of History and Culture - Prof. Shailendra Kumar Sharma

विश्व सभ्यता को देशभक्ति का महान संदेश दिया है महारानी लक्ष्मीबाई ने – प्रो. शर्मा 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ भारत की वीरांगनाएँ : इतिहास एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन  


सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया।  संगोष्ठी भारत की वीरांगनाएँ : इतिहास एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। आयोजन के विशिष्ट अतिथि प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, साहित्यकार डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मुंबई, साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ सुनीता मंडल, कोलकाता, डॉक्टर संगीता इंगले, पुणे, प्रतिभा मगर, पुणे, डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। अध्यक्षता प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने किया। 







मुख्य अतिथि साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि महारानी लक्ष्मीबाई ने स्त्रियों के आत्म स्वाभिमान की रक्षा के लिए अद्वितीय प्रयास किया, जिससे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। प्रत्येक भारतवासी को देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले वीरों के स्मृति स्थलों पर जाकर मत्था टेकने जाना चाहिए। लक्ष्मीबाई को याद करना देश और नारी की अस्मिता के साथ जुड़ना है। वे स्त्रियों को देश की आजादी के साथ पारस्परिक एकता का संदेश देकर गई हैं। 




विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने व्याख्यान देते हुए कहा कि भारत की स्वतंत्रता, स्वदेश के प्रति अनुराग और स्वाभिमान को जगाने के लिए अनेक वीरांगनाओं ने बलिपथ को चुना था, उनमें महारानी लक्ष्मीबाई की शहादत अद्वितीय हैं।  लक्ष्मीबाई ने संपूर्ण विश्व सभ्यता को देशभक्ति की सर्वोपरिता का महान संदेश दिया है। उन्होंने भारतवासियों की सुप्त चेतना को जाग्रत करने का काम किया था। देश की आजादी की पुकार उनके अंतर्मन की आवाज थी। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी, किंतु उनके द्वारा जाग्रत की गई चिंगारी बुझी नहीं। वह नए दौर में राष्ट्र भक्तों के हाथों में ज्वाला बन कर भड़की। उन्होंने वीर शिवाजी की शौर्य गाथाओं से प्रेरणा ली थी और नए दौर में अपने महान कार्यों से सिद्ध कर दिखाया। अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते हुए उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थीं। वे रणचण्डी के रूप में दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं। उनके अपूर्व शौर्य और वीरता की गाथा को सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता में बहुत मार्मिक ढंग से उतारा है।




कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि भारत की आजादी का इतिहास महान वीरांगनाओं के बिना अधूरा है। उन्होंने रूढ़ पुरुषवादी धारणाओं को ध्वस्त किया। देश के लिए प्राणार्पण करने वाली महारानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में स्त्रियां बड़ी संख्या में थीं, जिसे उन्होंने दुर्गा दल नाम दिया था। उन्होंने अंग्रेजों को अपनी दृढ़ता और विद्रोही चेतना का लोहा मनवाया।




विशिष्ट अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ऑस्लो, नॉर्वे ने कहा कि लक्ष्मीबाई के चरित्र को सुनकर हृदय में जोश उत्पन्न हो जाता है। उन्होंने जो मार्ग दिखाया है, आज उसके अनुरूप चलने की आवश्यकता है। स्त्रियों को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में अवसर मिलने चाहिए। वे राष्ट्रीय चेतना जगाकर गई हैं। उन्हें सदैव याद किया जाएगा।




डॉ सुनीता मंडल, कोलकाता ने कहा कि वीरांगनाओं को याद कर अतीत की प्राणधारा पुनर्जीवित हो जाती है। लक्ष्मीबाई के कार्यों को देश के जन-जन के हृदय में उतारने की आवश्यकता है, तभी हमारा राष्ट्र सुरक्षित रह सकेगा।

राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि महारानी लक्ष्मीबाई ने अपूर्व पराक्रम का परिचय दिया था। उनकी परंपरा इतिहास के पृष्ठों में ही समाप्त नहीं हुई। वे आज भी राष्ट्रप्रेम का प्रतीक बनकर हमारे मध्य जीवित हैं।



डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मुंबई ने कहा कि लक्ष्मीबाई भारतीय वसुंधरा को गौरव प्रदान करने वाली महान वीरांगना थीं। वे अपने महान उद्देश्य के प्रति सचेत, निष्ठावान और कर्तव्यपरायण रहीं। उनका पराक्रम सदैव अविस्मरणीय रहेगा।




डॉ प्रतिभा मगर, पुणे ने कहा कि वीरांगनाओं के मध्य जीजामाता या जिजाऊ का अविस्मरणीय योगदान रहा है। वे बालपन से ही शूरवीर और कुशाग्र बुद्धिमती थीं। ममता और न्याय की वे साक्षात देवी थीं। उन्होंने शिवाजी जैसे तेजस्वी पुत्र को संस्कार देकर भारत भूमि के लिए एक नए युग का सूत्रपात किया।


डॉ सविता इंगले, पुणे ने कहा कि भारत भूमि ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मर मिटने वाले अनेक अमर वीरों को जन्म दिया है। लक्ष्मीबाई ने कोमल हृदय की मनु से शौर्यवान महारानी तक लंबी यात्रा तय की। उन्होंने महिलाओं के लिए व्यायामशाला बनाई थी, जहां युद्ध कौशल सिखाया जाता था। वे भारत की सभ्यता और संस्कृति के लिए समर्पित थीं। लक्ष्मीबाई महिला सशक्तीकरण का श्रेष्ठ उदाहरण हैं।


डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर ने कहा कि एक वीरांगना के रूप में लक्ष्मीबाई का योगदान सर्वोपरि रहा है। वे अंग्रेजों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करती रहीं। वे शौर्य की पराकाष्ठा थीं। उनकी राष्ट्रभक्ति को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

आयोजन में अल्पा मेहता, भुवनेश्वरी जायसवाल, कृष्णा श्रीवास्तव ने महारानी लक्ष्मीबाई के पराक्रम पर केंद्रित कविताएं सुनाईं।



प्रारंभ में संगोष्ठी की प्रस्तावना संस्था के महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की।

सरस्वती वंदना पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने की। स्वागत भाषण एवं अतिथि परिचय डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने प्रस्तुत किया। 


आयोजन में डॉ विमल चंद्र जैन, इंदौर, डॉ रीना सुरड़कर, डॉ सुनीता मंडल, कोलकाता, डॉ सुषमा कोंडे, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, प्रतिभा मगर, पुणे, भुवनेश्वरी जायसवाल, श्रीमती गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद आदि सहित अनेक साहित्यकार, शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


संगोष्ठी का संचालन डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने किया।






20201013

देवशिल्पी विश्वकर्मा और उनका अवदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

प्राचीन भारतीय विज्ञान की समृद्ध परम्परा से जुड़ने का प्रयत्न करें 

देवशिल्पी विश्वकर्मा पूजन और उनके व्यापक अवदान पर केंद्रित सारस्वत संगोष्ठी  

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी - एसओआईटी में भगवान विश्वकर्मा पूजन और सारस्वत संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह अकादमिक  संगोष्ठी देवशिल्पी विश्वकर्मा और उनके व्यापक अवदान पर केंद्रित थी। आयोजन के मुख्य अतिथि कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय थे। विशिष्ट अतिथि कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, शासकीय  अभियांत्रिकी महाविद्यालय के प्रो. संजय वर्मा एवं डीएफओ श्री पंड्या थे।

 


संगोष्ठी के मुख्य अतिथि कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय ने कहा कि भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में शिल्पज्ञ विश्वकर्मा जी का अद्वितीय योगदान है। अपने इतिहास को लेकर हमें गौरव का भाव होना चाहिए। भारत में प्राचीन काल से तक्षशिला, उज्जयिनी, नालन्दा जैसे महत्त्वपूर्ण विद्या केंद्र रहे हैं। दुनिया में निर्यात का एक चौथाई भाग भारत से निर्यात किया जाता था। हमारी तकनीक अत्यंत समृद्ध रही है। नए दौर में समाज में श्रम के महत्त्व को जानना होगा। वास्तु, धातु विद्या, रसायन विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में हमें प्राचीन भारतीय विज्ञान की परम्परा से जुड़ना होगा। भारतीय मनीषा द्वारा किए गए शून्य के आविष्कार पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान टिका हुआ है। नदियों को जोड़ने की दिशा में आज विचार किया जा रहा है। प्राचीन काल में भगीरथ ने गंगा के उद्गम और विराट जलधारा को तैयार किया। भगवान शिव ने जल संरक्षण का उदाहरण प्रस्तुत किया था। रसायन विद्या के क्षेत्र में संजीवनी बूटी जैसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। हेड ट्रांसप्लांट के उदाहरण भी प्राचीन ग्रंथों में  मिलते हैं। हमें ब्रिटिश राज से उपजी गुलाम मानसिकता से मुक्त होना होगा।  


विशिष्ट अतिथि कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि भगवान विश्वकर्मा इस सृष्टि की परम अभियांत्रिकी के पुरोधा हैं। भारतीय परंपरा मानती है कि उन्होंने इस विराट ब्रह्मांड का शिल्पन किया है। वैदिक मान्यता है कि विश्व में जो कुछ भी दृश्यमान है, उसके रचयिता विश्वकर्मा हैं। शिल्प उनका श्रेष्ठतम कर्म है। उनसे जुड़े अनेक साहित्यिक साक्ष्यों का संकेत है कि वे यंत्रों के अधिष्ठाता, नगरों, भवनों और आभूषणों के परिकल्पक के साथ अत्यंत शक्तिशाली आयुधों के आविष्कारक हैं। भारतीयों ने सदियों से शिल्प कर्म को उच्च स्थान दिया है, जिसके कारण दुनिया को चकित कर देने वाले असंख्य निर्माण भारत में हुए। राजा भोज के काल में मालवा क्षेत्र में विज्ञान और तकनीक का व्यापक विकास हुआ। उस दौर में समरांगण सूत्रधार जैसे अनेक ग्रन्थ लिखे गए। पुरातन विज्ञान के अध्ययन के साथ शिक्षक एवं विद्यार्थी स्वयं के ज्ञान को निरंतर अद्यतन करते रहें।




प्रो संजय वर्मा ने कहा कि भगवान विश्वकर्मा ने अनेक नगरों का नियोजन किया।  भारतीय परंपरा में उनकी शिल्पज्ञ के रूप में मान्यता रही है। आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए प्राचीन ज्ञान विज्ञान के साथ जुड़ने के लिए प्रयास करें। हमें विभिन्न यंत्रों, दवाइयों का आयात कम कर आत्मनिर्भर बनना होगा। सीखने को आतुर छात्र और सिखाने के लिए समर्पित शिक्षक से ही शिक्षा का स्तर बेहतर हो सकता है। 




संगोष्ठी के प्रारम्भ में भगवान विश्वकर्मा और यंत्र का पूजन किया गया। 


संस्थान के निदेशक डॉ डी डी बेदिया ने कुलपति प्रोफेसर पांडे एवं अतिथियों का स्वागत पुष्पगुच्छ अर्पित कर किया।


अकादमिक संगोष्ठी की संकल्पना संस्थान के निदेशक डॉ डी डी बेदिया ने प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि भगवान विश्वकर्मा जी का योगदान देव शिल्पी के रूप में सुविख्यात है। उनके अविस्मरणीय कार्यों से हमें टेक्नो मैनेजमेंट की प्रेरणा लेनी चाहिए।


डीएफओ श्री पंड्या ने कहा कि नए कार्य के लिए मौलिकता जरूरी है। कल्पनाशीलता और रचनात्मकता से नया कार्य सम्भव होता है।


कार्यक्रम में डॉ कमलेश दशोरा, डॉ स्वाति दुबे, डॉ राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर आदि सहित संस्थान के अनेक शिक्षक, कर्मचारी, विद्यार्थी एवं प्रबुद्ध जन उपस्थित थे। 


इस अवसर पर संस्थान परिसर में वट, नीम और पीपल की पौध त्रिवेणी का रोपण कुलपति प्रोफेसर पांडे एवं अतिथियों ने किया। संस्थान के शिक्षकों, कर्मचारियों और विद्यार्थियों द्वारा एक सौ ग्यारह पौधों का रोपण परिसर में किया गया।


कार्यक्रम का संचालन राशि चौरसिया एवं प्रतिभा सराफ ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ विष्णु कुमार सक्सेना ने किया।












20161202

भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष का प्रतीक सिंहस्थ कुंभ पर्व - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sinhasth - Kumbh Mahaparv Prof. Shailendra Kumar Sharma

अक्षर वार्ता: सिंहस्थ विशेषांक, संपादकीय

संस्कृति की सत्ता अखंड और अविच्छेद्य सत्ता है किन्तु अलग अलग दृष्टियों से देखने पर वह परस्पर भिन्न दृष्टिगोचर होती है। भारतीयों ने इस अखंड संस्कृति की साधना के लिए अनादि काल से जो यात्रा की है उसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से अभिहित करते हैं। सिंधु के आसपास के क्षेत्र से लेकर सुदूर पूर्व तक और हिमालय से लेकर दक्षिण में सेतु तक और यही नहीं काल प्रवाह में देश देशांतर तक फैले भारतवासियों ने जिन जीवन मूल्यों, विचारों, दृष्टियों और नियमों की संरचना, प्रसार और निरंतर उन्नयन किया है, उन्हीं का जैविक सुमेल है भारतीय संस्कृति। युग-युगीन उज्जयिनी अपने समूचे अर्थ में भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। शास्त्र और विद्या की यह विलक्षण रंग-स्थली है। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जयिनी निरंतर निरत रही है।

भारत में विकसित अनेक दार्शनिक संप्रदायों और पंथों की प्रमुख केन्द्र रही है तीर्थभूमि  उज्जयिनी। सुदूर अतीत से चली आ रही तीर्थाटन की परंपरा मनुष्य को व्यापक सृष्टि के साथ जोड़ने का कार्य करती है। तीर्थयात्रा बाहर के साथ भीतर की भी यात्रा है। इसीलिए पुराणकारों ने सत्य, क्षमा, दान, अन्तःकरण की शुद्धता से सम्पन्न मानसतीर्थ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। यदि भीतर का भाव शुद्ध न हो तो यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, शास्त्र का अध्ययन आदि सब अतीर्थ हो जाते हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, इस्लाम आदि विविध मतों की दृष्टि से उज्जयिनी का स्थान समूचे भारत के चुनिंदा तीर्थक्षेत्रों में सर्वोपरि रहा है। पुराणोक्त द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा इक्यावन शक्तिपीठों में से एक-एक उज्जैन में ही अवस्थित हैं। ऐसा संयोग वाराणसी, वैद्यनाथ जैसे कुछ तीर्थों के अतिरिक्त दुर्लभ है।
उज्जैन स्थित महाकाल वन शैव उपासना का प्राचीनतम क्षेत्र है। इसी तरह यहाँ शक्ति पूजा की परम्परा के सूत्र पुराण-काल के पूर्व से उपलब्ध होते हैं। प्राचीन गढ़कालिका क्षेत्र में उत्खनन से प्राप्त मृण्मूर्ति पर अंकित बालक लिए माँ से स्पष्ट होता है कि यहाँ मातृदेवी के रूप में शक्ति की उपासना का प्रचलन कम से कम 2200 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था। उज्जयिनी की मुद्रा में अंकित दो स्त्री आकृति सहित अनेक पुरातत्त्वीय प्रमाण सिद्ध करते हैं कि किसी न किसी रूप में देवी की पूजा यहाँ प्रचलित थी। सुदूर अतीत से चली आ रही शैव, शाक्त, वैष्णव आदि से जुड़ी उपासना की परंपराएँ गुप्त एवं परमार काल तथा अद्यावधि नए नए रूपों में आकार लेती दिखाई देती हैं।

स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड के अनुसार उज्जयिनी में प्रत्येक कल्प में देवता, तीर्थ और औषधि की बीज रूप (आदि रूप) वस्तुओं का पालन होता है। यह पुरी सबका संरक्षण करने में समर्थ है। इसलिए इसका नाम अवन्तीपुरी कहा गया।
   
      देवतीर्थौषधिबीजभूतानां चैव पालनम्।
      कल्पे कल्पे च यस्यां वै तेनावन्ती पुरी स्मृता।

सांस्कृतिक ऐक्य का बोध देने वाले पर्व कुंभ की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उसमें उज्जैन के शिप्रा तट पर होने वाले सिंहस्थ महापर्व का अपना विशिष्ट स्थान है। पुराण प्रसिद्ध देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन के अनंतर रत्नों का वितरण शिप्रा तट पर स्थित महाकाल वन में हुआ था। शिप्रा लौकिक और अलौकिक दोनों दृष्टियों से आनंदविधान करती है। स्कन्दपुराण के अनुसार स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण और देवतार्चा की दृष्टि से शिप्रा अत्यंत महिमाशाली है। विशिष्ट खगोलीय स्थिति में प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ होने वाला सिंहस्थ इन कार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर देता है।
भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष के प्रतीक कुंभ पर्व ने पिछली शताब्दियों में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद एक विराट लोक पर्व के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखा है। इसमें समय समय पर परिष्कार और बदलाव के सूत्र भी प्रभावकारी रहे हैं। कभी यह शास्त्रोक्त तीर्थ-स्नान और दान-पुण्य का अवसर था। कालान्तर में इसमें विभिन्न सम्प्रदाय के साधु-सन्तों के अखाड़ों की भी सक्रिय भागीदारी होने लगी। मध्यकालीन संकट के दौर में इस पर्व के समक्ष कई चुनौतियाँ भी उभरीं, किन्तु आधुनिक काल तक आते-आते इसमें साधु संतों की व्यापक भागीदारी, राजकीय व्यवस्था और लोक विस्तार इन सभी आयामों में परिवर्तन के सूत्र दिखाई देते हैं। वतर्मान में इस महापर्व ने विश्वप्रसिद्ध विराट मेले का रूप धारण कर लिया है, जिसमें एक साथ लाखों की संख्या में तीथर्यात्रियों और पर्यटकों का सैलाब उमड़ता है। देश-विदेश में कुंभ मेले जैसा दूसरा उदाहरण नहीं है, जो एक साथ धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रेरक हो और अपनी संपूर्णता में लोकमंगल एवं लोकरंजन को सिद्ध करता हो।

पर्वोत्सव परंपरा के मध्य सुमेरु का रूप लिए कुम्भ पर्व एक साथ कई कोणों से विमर्श का अवसर देता है। उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय ने सिंहस्थ से जुड़े विविध पक्षों को लेकर समग्र दृष्टिकोण से शोध की दिशा में सार्थक पहल की है। इसके अंतर्गत इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति, साहित्य, समाज, दर्शन, पर्यावरण, अर्थतंत्र आदि के परिप्रेक्ष्य में अनुसंधानपरक अध्ययन का संकल्प लिया है। इसी तरह प्रबंधन, पर्यावरण, सूचना तकनीकी जैसे कई पक्षों से जुड़े संस्थान और अध्येता भी सिंहस्थ का गहन अध्ययन करेंगे। अक्षर वार्ता परिवार ने इस मौके पर मौन तीर्थ सेवार्थ फाउंडेशन एवं राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के सहकार से सार्वभौमिक मूल्यों के प्रसार में साहित्य, संस्कृति और धर्म-अध्यात्म की भूमिका पर अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का संकल्प लिया है। उज्जयिनी का सिंहस्थ सर्वमंगल के शाश्वत संदेश को चरितार्थ करे, यही आत्मीय कामना है।   


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com                                                           
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल 
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
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प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह, मुम्बई,  मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ भेरूलाल मालवीय, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये।
(आवरण: Mohan Bairagi/ Sandip Rashinkar)



20161122

दुर्गादास राठौड़: स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का अमृत राग - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात।
- प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा

माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास।
मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।।
आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास।
सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।।

भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाटी सेंकता है। वे अपने युग में जीवन्त किंवदंती बन गए थे, आज भी उसी रूप में लोक कण्ठहार बने हुए हैं। 

दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंतसिंह के मंत्री आसकरण जी के पुत्र थे। उनका सम्बन्ध राठौड़ों की  करणोत शाखा से था। आसकरण मारवाड़  के शासक गजसिंह और उनके पुत्र जसवंतसिंह के प्रिय रहे और प्रधान पद तक पहुँचे। उनके तीन पुत्र थे- खेमकरण, जसकरण और दुर्गादास।  दुर्गादास की माता नेतकुंवर अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं। दुर्गादास का जन्म श्रावन शुक्ल चतुर्दशी विक्रम संवत् 1695 को सालवां कल्ला में और उनका पालन पोषण जोधपुर से दूर लुणावा नामक ग्राम में हुआ।


पिता आसकरण की भांति किशोर दुर्गादास में भी वीरता कूट- कूट कर भरी थी। सन् 1655 की घटना है, जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राजकीय राईका (ऊंटों का चरवाहा) लुणावा में आसकरण जी के खेतों में घुस गए। किशोर दुर्गादास के विरोध करने पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, वीर दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर त्वरित गति से उस राज राईका की गर्दन उड़ा दी। इस बात की सूचना महाराज जसवंत सिंह के पास पहुंची तो वे उस वीर को देखने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को दुर्गादास को लाने का आदेश दिया। दरबार में महाराज उस वीर की निर्भीकता देख अचंभित रह गए। दुर्गादास ने कहा कि मैंने अत्याचारी और दंभी राईका को मारा है, जो महाराज का भी सम्मान नहीं करता है और किसानों पर अत्याचार करता है। आसकरण ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भयता से स्वीकारते देखा तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुआ कि यह आसकरण का पुत्र है। घटना की वास्तविकता को जानकर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और तलवार भेंट कर अपनी सेना में शामिल कर लिया।

दुर्गादास ने सन् 1658, 16 अप्रैल को मालवा के धरमाट के युद्ध में महाराजा के साथ भाग लिया, जो दारा शिकोह और औरंगजेब के मध्य लड़ा गया था। जसवंतसिंह बादशाह शाहजहाँ के कृपापात्र होने के कारण दारा की ओर से लड़ा। इस युद्ध में दुर्गादास ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया था, उन्हें घायल अवस्था में जोधपुर पहुंचाया गया। दारा को क्रमशः धरमाट, सामूगढ़ और दोराई में पराजित कर औरंगजेब ने पिता शाहजहाँ की सत्ता हथिया ली। कालांतर में महाराजा जसवंत सिंह दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब से मैत्री स्थापित हुई और वे प्रधान सेनापति बने। फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी। वह हमेशा जोधपुर को हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था। सन् 1659 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ हुए विद्रोह को दबाने के लिए जसवंत सिंह को भेजा गया। दो वर्ष तक विद्रोह को दबाने के बाद जसवंत सिंह काबुल (अफ़गानिस्तान) में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही 1678 ई. में वीर गति को प्राप्त हुए। उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था। औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुए मारवाड़ में अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न किया। औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा। देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया। लोग भय और आतंक के कारण शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे। उन्होंने जज़िया कर भी लगा दिया। राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था। ऐसे संकटकाल में कुँवर अजीतसिंह के संरक्षक बने। दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी शासकअजीतसिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया। दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए। औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा। यही नहीं उसने दुर्गादास और अजीतसिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी।इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीतसिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे। दुर्गादास जहां राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी। कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी। ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बर्छी कराल-काल की तरह रणांगण में नरमुंडों का ढेर लगा देती थी।

मारवाड़ के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए जो मुग़ल रणनीति तैयार हुई थी, उसे साकार होना दुर्गादास राठौड़ जैसे महान् स्वातन्त्र्य वीर, योद्धा और मंत्री के रहते कैसे सम्भव था? बहुत रक्तपात के बाद भी मुग़ल सेना सफल न हो सकी। अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर औरंगजेब ने अजीतसिंह की हत्या की ठान ली, औरंगजेब के षड्यंत्र को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और अपने साथियों की मदद से स्वांग रचाकर अजीतसिंह को दिल्ली से निकाल लाये। वे अजीतसिंह के पालन पोषण की समुचित व्यवस्था के साथ जोधपुर राज्य के लिए होने वाले औरंगजेब द्वारा जारी षड्यंत्रों के खिलाफ निरंतर लोहा लेते रहे। अजीतसिंह के बड़े होने के बाद राजगद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता और स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी, औरंगजेब की ताकत और प्रलोभन दुर्गादास को डिगा न सके। जोधपुर की स्वतंत्रता के लिए दुर्गादास ने लगभग पच्चीस सालों तक संघर्ष किया, किंतु अपने मार्ग से च्युत नहीं हुए। उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को न केवल चुनौती दी, कई बार औरंग़ज़ब को युद्ध में पीछे हटाकर संधि के लिए मजबूर भी किया। उन्होंने छापामार युद्ध भी लड़े और निरन्तर मारवाड़ के कल्याण के लिए शक्ति संचय करते रहे। मारवाड़ के मुक्ति संग्राम के वे सबसे बड़े नायक थे। उनके पराक्रम से औरंगजेब बेनूर हो जाता था और दिल्ली भी भयाक्रांत हो जाती थी, आज भी लोक स्मृति में ये प्रसंग सप्राण बने हुए हैं।

दुरगो आसकरण रो, नित उठ बागा जाये
अमल औरंग रो उतारे, दिल्ली धड़का खाए।
दिल्ली दलदल मेंह, आडियो रथ अगजीत रौ।
पाछोह इक पल मेंह, कमधज दुर्गे काढियो।।
संतति साहरी, गत सांहरी ले गयो।
रंग दंहूँ राहांरी, बात उबारी आसवात।।
रण दुर्गो रुटेह, त्रिजडअ सिर टूटे तुरत।
लाठी घर लूटेह, आलम रो उठै अमल।।
ओरंग इक दिन आखियो, तने बालोह कांइ दुरगेश।
खग वालिह वालोह प्रभु, वालोह मरुधर देश।।

उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है,  जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियां सेंकते हुए दिखाया गया है। डा. नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य दुर्गादास में इस घटना का चित्रण किया है,

तखत औरंग झल आप सिकै, सूर आसौत सिर सूर सिकै, 
चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां,  सैला असवारां अन्न सिकै।।

अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है। आसकरण के शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है अर्थात् तप रहा है। घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है। थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है। न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की। घोड़े पर चढ़े हुए ही भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं।

दुर्गादास राठौड़ गहरे साहित्यानुरागी ही नहीं थे,उन्होंने स्वयं डिंगल काव्य रचनाएँ भी की थीं। उन्होंने कई कवियों को आश्रय भी दिया। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा। ऐसी मान्यता है कि कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ महाराज अजीतसिंह के कान भर दिए थे, जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे,  इसे देखकर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना उचित समझा और वे मालवा चले गए, वहीं  उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे।दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे, परंतु उनके उज्ज्वल चरित्र की महिमा इतनी ऊंची है किवे कितने ही भूपालों से ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया:

धन धरती मरुधरा धन पीली परभात। 
जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात।।

अर्थात् दुर्गादास तुम्हारे जन्म से मरुधरा धन्य हो गई। वह प्रभात धन्य हो गया और वह मांझल रात भी धन्य हो गई जिस रात्रि में तुमने जन्म लिया।

वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 को पुण्य नगरी उज्जैन में हुआ और अन्तिम संस्कार उनकी इच्छानुसार उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर किया गया था, जहाँ स्थापित उनकी मनोहारी छत्रीआज भी भारत के इस अमृत पुत्र की कीर्ति का जीवन्त प्रतीक बनी हुई है। इस स्मारक की वास्तुकला राजपूत शैली में है तथा एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। लाल पत्थर से निर्मित इस छत्री पर दशावतार, मयूर आदि को अत्यंत कलात्मकता के साथ उकेरा गया है। आसपास का परिदृश्य प्राकृतिक  सुषमा से भरपूर है, इसलिए यह स्मारक एक छोटे से रत्न की तरह चमकता है। दुर्गादास की इस पावन देवली पर दुर्गादास जयन्ती आयोजन के साथ ही समय समय अनेक देशप्रेमी मत्था टेकने के लिए आते हैं।

वरिष्ठ लोक मनीषी डॉ पूरन सहगल ने मालव भूमि पर बसे लोक समुदाय के मध्य आज भी जीवित दुर्गादास राठौड़ से जुड़े वाचिक साहित्य के संकलन - सम्पादन का संकल्प लिया, जो पूर्ण हो गया है। इस संकलन में संचित दुर्गादास जी विषयक सामग्री कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है, वहीं लोक के कोण से उनकी छबि को नए आलोक में देखने का अवसर प्रदान करती है। वीर दुर्गादास राठौड़ के अवदान को लेकर पूर्व में अनेक प्रकाशन अस्तित्व में आए हैं, यथा: जगदीशसिंह गेहलोत कृत इतिहास ग्रंथ वीर दुर्गादास राठौड़, इतिहासकार डॉ रघुवीरसिंह कृत इतिहास ग्रंथ राठौड़ दुर्गादास,सुखवीरसिंह गेहलोत कृत इतिहास ग्रंथ स्वतन्त्रता प्रेमी दुर्गादास राठौड़, विट्ठलदास धनजी भाई पटेल कृत गुजराती उपन्यास वीर दुर्गादास अथवा मारू सरदारो, प्रेमचंद कृत वीर दुर्गादास, द्विजेन्द्रलाल राय कृत बांग्ला नाटक दुर्गादास (हिन्दी अनुवाद रूपनारायण पांडेय), हरिकृष्ण प्रेमी कृत नाटक आन का मान, प्रहलादनारायण मिश्र की पुस्तकराठौड़ वीर दुर्गादास, नारायणसिंह शिवाकर की  राजस्थानी में निबद्ध वीर दुर्गादास सतसई आदि। इनके अलावा रामरतन हालदार, पं विश्वेश्वरनाथ रेउ,डॉ रामसिंह सोलंकी आदि ने भी उनके चरित्र को ऐतिहासिक दृष्टि से आकार दिया है। डॉ पूरन सहगल का यह प्रयास इन सबसे अलहदा है, जहां मालवा अंचल की वाचिक परंपरा में मौजूद इस महान योद्धा की पावन गाथा और अन्य नवीन सामग्री सर्वप्रथम प्रकाश में आ गई है।  

इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने दुर्गादास जी के अवदान को लेकर ठीक ही कहा है, "उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ़ हृदय को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमें राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी।" दुर्गादास ने अपूर्व पराक्रम, बलिदानी भावना, त्यागशीलता, स्वदेशप्रेम और स्वाधीनता का न केवल प्रादर्श रचा, वरन् उसे जीवन और कार्यों से साक्षात् भी कराया। उनके जैसे सेनानी के अभाव में न भारत की संस्कृति और सभ्यता रक्षा संभव थी और न ही आजाद भारत की संकल्पना संभव। कविवर केसरीसिंह बारहठ की यह प्रार्थना निरन्तर साकार होती रहे, तब निश्चय ही राष्ट्र को कोई भी शक्ति परतन्त्रता की बेड़ियों में कदापि जकड़ा न सकेगी :
देविन को ऐसी शक्ति दीजिये कृपानिधान।
दुर्गादास जैसे माता पूत जनिबो करै।।
                                


प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010






20150819

जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती है लोक-संस्कृति

अक्षर वार्ता July 2015: सम्पादकीय
(आवरण: बंसीलाल परमार )
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादकीय विविध लोकभिव्यक्तियों के अध्ययन, अनुसन्धान और नवाचार को लेकर सजगता की दरकार करता है।..
लोक-साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा काल-प्रवाह में बाधित भले ही हो जाए, कभी सूखती नहीं है। लोक-कथा, गीत, गाथा, नाट्य, संगीत, चित्र सहित विविध लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। विकास के नए प्रतिमान एक जैसेपन को बढ़ाते हैं, इसके विपरीत लोक-साहित्य और संस्कृति एक जैसेपन और एकरसता के विरुद्ध हैं। मनुष्य की सजर्नात्मक सम्भावनाएँ साहित्य एवं विविध कला-माध्यमों में प्रतिबिम्बित होती आ रही हैं। इनमें शब्दमयी अभिव्यक्ति का माध्यम ‘साहित्य’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ‘शब्द’ ही मनुष्य की अनन्य पहचान है, जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। शब्दार्थ केन्द्रित अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से लोक द्वारा रचा गया साहित्य अपनी संवेदना और शिल्प में विशुद्धता और मौलिकता की आंच से युक्त होने के कारण अपना विशिष्ट प्रभाव रचता है, जो कथित आभिजात्य साहित्य द्वारा सम्भव नहीं है। लोक-साहित्य मानव समुदाय की विविधता और बहुलता को गहरी रागात्मकता के साथ प्रकट करता है, वहीं देश-काल की दूरी के परे समस्त मनुष्यों में अंतर्निहित समरसता और ऐक्य को प्रत्यक्ष करता है।
वस्तुतः लोक से परे कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। समस्त लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह लोक-संस्कृति से मुक्त कोई भी नहीं है। कोई स्वीकार करे, न करे, उसे पहचाने, न पहचाने,  सभी की अपनी कोई न कोई लोक-संस्कृति होती है। उसका प्रभाव कई बार इतना सूक्ष्म-तरल और अंतर्यामी होता है कि उसे देख-परख पाना बेहद मुश्किल होता है, किन्तु असंभव नहीं। लोक-जीवन में परम्परा और विकास न सिर्फ साथ-साथ अस्तित्वमान रहते हैं, वरन् एक दूसरे पर भी निर्भर करते हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति इन दोनों की अन्योन्यक्रिया का जैविक साक्ष्य देते हैं।
लोक-साहित्य सहित लोक की विविधमुखी अभिव्यक्तियों को आधार देती हुई लोक-संस्कृति का स्वरूप अत्यंत व्यापक और विपुलतासम्पन्न है। लोक-साहित्य और संस्कृति तमाम प्रकार के परिवर्तन और विकास के बावजूद अपने अंदर की कई चीजों को बचाये रखते हैं, कभी रूपांतरित करके तो कभी अंतर्लीन करके। सूक्ष्मता से विचार करें तो हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह और क्रियाओं के तादात्म्य को प्रत्यक्ष करता है। यही वह विचारणीय बिंदु है जो लोक-साहित्य, संस्कृति के साथ इतिहास और मानव-शास्त्र का जैविक सम्बन्ध रचता है।
भारत में लोक साहित्य और संस्कृति कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत, आदिम या पुरातन नहीं हैं। वे सतत वर्तमान हैं, जीवन का अविभाज्य अंग हैं। भारत के हृदय अंचल मालवा का लोक-साहित्य और विविध परम्पराएँ भी इन्हीं अर्थों में अपने भूगोल और पर्यावरण का अनिवार्य अंग हैं। मालवी लोक-संस्कृति की विलक्षणता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यह अंचल सहस्राब्दियों से शास्त्र, इतिहास और संस्कृति की अनूठी रंगस्थली रहा है। इनके साथ यहाँ की लोक-संस्कृति की अन्तःक्रिया निरंतर चलती चली आ रही है। यहाँ कभी शास्त्रों ने लोक परम्परा को आधार दिया है तो कभी लोकाचार ने शास्त्र का नियमन किया है, उसको व्यवहार्य बनाया है। यह बात देश के प्रायः अधिकांश भागों की लोक-संस्कृति में देखी-समझी जा सकती है।
लोक में व्याप्त व्रत-पर्व-उत्सवों को कई बार महज धार्मिक अनुष्ठान या रूढ़ि के रूप में देखा जाता है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये सभी पुराख्यान, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। उदाहरण के लिए मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व और उससे जुड़ा लोक-साहित्य सही अर्थों में भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति, परम्परा और लोक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम दृष्टांत है। फिर यह काल के अविराम प्रवाह से अनछुआ भी नहीं है। इसमें परिवर्तन और विकास की आहटें भी सुनी जा सकती हैं। संजा पर्व में हम देखते हैं कि उसमें चित्रित आकृतियों में शास्त्रोक्त स्वस्तिक (सात्या) और सप्तऋषि तो आते ही हैं, छाबड़ी (डलिया), घेवर, घट्टी जैसे लोक प्रतीकों का भी अंकन होता है। काल-प्रवाह में इससे सम्बद्ध लोक-साहित्य और भित्ति-चित्रों में नए-नए बिम्ब भी संपृक्त होते जा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मालवा सहित किसी भी क्षेत्र की लोक-संस्कृति को नितांत बौद्धिक विमर्श से हटकर यहाँ के लोकजीवन के साथ सहज और जैविक अन्तःक्रिया के रूप में देखा-समझा जाए। तभी अध्ययन, शोध और नवाचार में उसके निहितार्थ उजागर होंगे और फिर उसका जीवन और पर्यावरण-बोध हमारे आज और कल के लिए भी कारगर सिद्ध होगा।
वर्तमान में लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में नित-नूतन अनुसंधान की संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। मानव जीवन के इन सचल क्षेत्रों में शोध की अभिनव प्रविधियों को लेकर जागरूकता की दरकार है। तभी हम शोध में स्तरीयता, मौलिकता और गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। इस दिशा में आपके रचनात्मक योगदान और प्रतिक्रियाओं का ‘अक्षर वार्ता’ में स्वागत है।
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20130324

श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकाल - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकालेश्वर

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्‌।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वंदे महाकालमहासुरेशम्‌॥

सुपूज्य और दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित उज्जयिनी के महाकालेश्वर की महिमा अनुपम है। सज्जनों को मुक्ति प्रदान करने के लिए ही उन्होंने अवंतिका में अवतार धारण किया है। ऐसे महाकाल महादेव की उपासना न जाने किस सुदूर अतीत से अकालमृत्यु से बचने और मंगलमय जीवन के लिए की जा रही है। शिव काल से परे हैं, वे साक्षात्‌ कालस्वरूप हैं। उन्होंने स्वेच्छा से पुरुषरूप धारण किया है, वे त्रिगुणस्वरूप और प्रकृति रूप हैं। समस्त योगीजन समाधि अवस्था में अपने हृदयकमल के कोश में उनके ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं। ऐसे परमात्मारूप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से ही अनादि उज्जयिनी को पूरे ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा मिली है। पुरातन मान्यता के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में तीन लिंगों को सर्वोपरि स्थान मिला है – आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर और इस धरा पर महाकालेश्वर।

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम्‌।
भूलोके च महाकालोः लिंगत्रय नमोस्तुते॥


शिव की उपासना अनेक सहस्राब्दियों से चली आ रही है और शिवलिंग के रूप में उनका अर्चन संभवतः सबसे प्राचीन प्रतीकार्चन है। वैदिक वाङ्‌मय के रुद्र ही परवर्ती काल में शिव के रूप में लोक में बहुपूजित हुए, जो अघोर और फिर घोर से भी घोरतर रूप लिए थे। उज्जयिनी अति प्राचीनकाल से शैव धर्म से जुड़े दर्शन, पूजा पद्धति और कला परम्पराओं का मुख्य केंद्र है। शिवाराधना के विकास में इस क्षेत्र का विशिष्ट योगदान रहा है। शैव धर्म की चार धाराओं- शैव, कालानल, पाशुपत और कापालिक का संबंध न्यूनाधिक रूप से उज्जैन, औंकारेश्वर, मंदसौर सहित समूचे मालवांचल से रहा है। पुराणों से संकेत मिलता है कि उज्जयिनी पाशुपतों की पीठ स्थली रही है। शंकर दिग्विजय के अनुसार यहाँ कापालिक निवास करते थे। महाकालेश्वर यहाँ के अधिष्ठाता देवता है। इनका ज्योतिर्लिंग दक्षिणामूर्ति होने से तांत्रिक साधना का दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। उज्जैन के महाकाल वन का तांत्रिक परम्परा में विशिष्ट स्थान है। स्कंदपुराण के अवंती खंड के अनुसार साधना की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी पाँच स्थल - श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ और वन यहीं हैं-

श्मशानमूषरं क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पंचैकत्र न लभ्यंते महाकालवनाद्‌ ऋते।। 

प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जयिनी यदि नाभिदेश है तो भूलोक के प्रधान पूज्यदेव महाकाल हैं। सृष्टि का प्रारंभ उन्हीं से हुआ है-कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः। वस्तुतः भगवान्‌ महाकाल की प्रतिष्ठा और महिमा से जुड़े अनेक पौराणिक आख्यान मिलते हैं, जिनसे अवंती क्षेत्र में शैव धर्म की प्राचीनता के संकेत मिलते हैं। शिवपुराण के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल के प्रथम चरण में हिरण्याक्ष की विजययात्रा के दौरान उसके सेनापति दूषण ने अवंती पर आक्रमण किया था। उस समय उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। पुरोहितों ने इस संकट के निवारण के लिए भगवान्‌ शिव की पूजा की सलाह दी, तब राजा ने स्वयं शिवजी का चमत्कार एक ग्वाले की शिवभक्ति में प्रत्यक्ष देखा। ग्वाला जहाँ शिव की पूजा किया करता था। वहीं वैदिक अनुष्ठानपूर्वक शिव मंदिर की स्थापना करवाई गई। संभवतः वही भगवान महाकालेश्वर के देवालय की स्थापना का प्रथम दिन था। विभिन्न युगों की गणना के आधार पर यह समय आज से करीब ग्यारह हजार नौ सौ वर्ष पहले अनुमानित है। त्रेता युग में सम्राट भरत के मित्र चित्ररथ अवंती क्षेत्र के राजा थे। भरत की चौथी पीढ़ी के राजा रन्तिदेव ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया था। त्रेतायुग में अयोध्या में राजा हरिश्चंद्र हुए थे, उनसे कुछ ही समय बाद महेश्वर (माहिष्मती) में हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन जैसे प्रतापी सम्राट हुए, जो सहस्रबाहु के नाम से प्रख्यात हैं। उन्हीं के सौ पुत्रों में से एक आवंत या अवंती थे, जिनके नाम पर यह क्षेत्र अवंती कहलाया। त्रेतायुग में राम के पुत्र कुश स्वयं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए अवंतिका में आए थे।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने महाकालेश्वर का पूजन किया था। महाकालेश्वर की प्राचीनता को लेकर अनेक पौराणिक, साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं, जो शैव साधना की दृष्टि से इस स्थान की महिमाशाली स्थिति को रेखांकित करते हैं। महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, इसीलिए उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने से 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है। पुराणों का संकेत साफ है-'प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी।' मृत्युलोक के स्वामी महाकाल इस नगरी के तब से ही अधिष्ठाता हैं, जब सृष्टि का समारंभ हुआ था। उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल तो स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं- 'नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः... इत्येषा तैत्तिरीश्रुतिः।' महाकाल का उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण सहित अनेकानेक पुराण एवं प्राचीन ग्रंथों में सहज ही उपलब्ध है। भागवत में उल्लेख मिलता है कि श्रीकृष्ण, बलराम और मित्र सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण कर स्वघर लौटने के पूर्व गुरुवर के साथ जाकर महाकाल की भक्ति भावनापूर्वक पूजा की थी। उन्होंने एक सहस्र कमल शिव जी के सहस्रनाम के साथ अर्पित किए थे।

पुराणकाल में तो महाकालेश्वर की विशिष्ट महिमा थी ही, पुराणोत्तर दौर में प्रद्योत युग, मौर्य युग, शुंग, शक, विक्रमादित्य, सातवाहन, गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार, परमार, मुगल, मराठा आदि सभी युगों में वे बहुलोकपूजित रहे हैं। विभिन्न युगों में उज्जैन में विकसित कला परम्पराएँ भी शैव धर्म के विविधायामी रूपांतर का साक्ष्य देती आ रही हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की रत्नसभा के अनूठे रत्न महाकवि कालिदास (प्रथम शती ई. पू.) ने अपनी प्रिय नगरी उज्जयिनी और महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उनके समय में यह पुण्य नगरी अपार वैभव और सौंदर्य से मंडित थी। इसीलिए वे इसे स्वर्ग के कांतिमान खण्ड के रूप में वर्णित करते हैं- 'दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्‌'। कालिदास के पूर्व भी यह नगरी अवन्ती या मालव क्षेत्र की प्रमुख नगरी थी ही, इसे राजधानी होने का भी गौरव मिला हुआ था। यहाँ सम्राट का राजप्रसाद भी था, कालिदास ने जिसके महाकाल मंदिर से अधिक दूर न होने का केत किया है-'असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।' उज्जयिनी के राजभवन और हवेलियाँ भी दर्शनीय थे, जिनके आकर्षण में मेघदूत को बाँधने की कोशिश स्वयं कालिदास ने की है।

कालिदास के समय उज्जयिनी शैव मत का प्रमुख केन्द्र थी। महाकवि के समय से शताब्दियों पूर्व से ही इस नगरी में शैव साधना एवं शैव स्थलों की प्रतिष्ठा रही थी। इसके अनेक पौराणिक साहित्यिक, पुरातात्त्विक एवं मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं। महाकवि कालिदास ने भी शैव मत की प्रतिष्ठा की दृष्टि से उज्जयिनी की महिमा को विशेष तौर पर रेखांकित किया है। उनके काल में उज्जयिनी की पहचान महाकाल मंदिर और क्षिप्रा से जुड़ी हुई थी। लोकमानस में महाकाल की प्रतिष्ठा तीनों लोकों के स्वामी और चण्डी के पति के रूप में थी। उनका मंदिर घने वृक्षों से भरे-पूरे महाकाल वन के मध्य में था। वनवृक्षों की शाखाएँ बहुत ऊपर तक फैली हुई थीं। मंदिर का परिसर सुविस्तृत था, जिसके आँगन में सायंकाल को महाकाल के अर्चन एवं संध्या आरती के बाद नृत्यांगनाओं का नर्तन होता था। उन नर्तकियों के पैरों की चाल के साथ-साथ मेखलाएँ झनझनाती रहती थीं। उनके हाथों में रत्न जटित हत्थियों वाले चँवर रहते थे। नर्तन-पूजन के पश्चात्‌ वे मंदिर से बाहर निकलती थीं। मंदिर के अन्दर शिव-कथा पर आधारित प्रस्तर-शिल्प भी थे। महाकाल मंदिर में साँझ की पूजा विशेष महिमाशाली मानी जाती थी। उस समय नगाड़ों के गर्जन के साथ महाकालेश्वर की सुहावनी आरती होती थी। उधर महाकाल वन के वृक्षों पर साँझ की लालिमा छा जाती थी, जो श्रद्धालुओं को मोहित कर देती थी। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस प्रसंग को रेखांकित किया है -

महाकाल मंदिरेर माझे
तखन गंभीरमन्द्रे संध्यारति बाजे।

महाकाल की पूजा पद्धति का संकेत भी कालिदास साहित्य में प्राप्त होता है। रघुवंश तथा मेघदूत से ज्ञात होता है कि महाकाल के सुप्रसिद्ध मंदिर में पशुपति शिव की प्रतिमा रही। सन्ध्या के समय उस पर धूप आ जाने से ऐसा लगता है, मानो उसने गजचर्म पहन लिया हो। इससे स्पष्ट है कि मंदिर में महाकाल की प्रतिमा इस प्रकार प्रतिष्ठित थी कि उस पर संध्या का प्रकाश पड़ता था। या तो वह प्रतिमा बिना छत के देवायतन में प्रतिष्ठित थी अथवा पूर्व-पश्चिम में गर्भगृह ऐसा खुला था कि भीतर की प्रतिमा पर पूरी धूप आती रहती थी। मेघदूत का एक श्लोक तो स्पष्ट संकेत करता है कि महाकाल मंदिर में नृत्य करते शिवजी की अनेक भुजाओं वाली प्रमुख प्रतिमा थी जिसे भवानी भक्तिपूर्वक निहार रही हैं।

पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।
नृत्यारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेह्णवां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या॥

कालिदास नीललोहित से मुक्ति की कामना भी करते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड (अध्याय-2) में नीललोहित का स्वरूप दिया गया है। तदनुसार उसमें पाँच मुख, दस भुजा, पन्द्रह आँखें, साँप की यज्ञोपवीत, जटा, चन्द्र और सिंहचर्म का वस्त्र बताया गया है। यह रूप महाकाल पशुपति का नहीं है। नटराज शिव की उज्जैन से प्राप्त आठवीं शती की एक खण्डित प्रतिमा ग्वालियर में सुरक्षित है। किन्तु कालिदास से यह प्रतिमा सदियों बाद बनी। कालिदास के युग में महाकाल की प्रतिमा रही, यह बृहत्कथा के संस्करणों से भी पुष्ट होता है। उसमें एक व्यक्ति महाकाल प्रतिमा के घुटनों पर सिर टिकाकर रोता है। उसमें महाकाल के हाथों की भी चर्चा है। मेघदूत में शिवलिंग का संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु ज्योतिर्लिंग अवश्य रहा होगा। पौराणिक परम्परा इस बात की बार-बार पुष्टि करती है।

गुप्त और हर्षवर्धन युग (335-848 ई.) में भी उज्जयिनी शैव मत का एक प्रमुख केन्द्र रही। महाकवि वाण ने अपनी कादम्बरी में उल्लेख किया है कि यहाँ महाकाल स्वरूप में शिव की आराधना की जाती है। यहाँ शंकर के अनेक मंदिर थे तथा प्रमुख चौराहों पर भी शिवलिंग स्थापित थे। यहाँ पर आधिपत्य रखने वाले यशोवर्धन, हर्षवर्धन जैसे अनेक शासक शिव के उपासक थे। हर्षवर्धन किसी भी सैनिक अभियान के पूर्व नील-लोहित शिव की पूजा किया करता था। यहाँ शिव के साथ शक्ति की पूजा का भी समन्वय रहा है।गुप्त युग में महाकाल मंदिर अत्यंत प्रशस्त और भव्य था। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के अनेक मंदिर थे। मंदिरों पर स्वर्ण-कलश और श्वेत पताकाएँ सुशोभित होती थीं। उनकी भित्तियों पर देव, दानव, सिद्ध, गंधर्व आदि के चित्र बने थे। यहाँ शिव की कामदेव के रूप में भी पूजा की जाती थी।

महाकाल वन जहाँ देश - दुनिया के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है, वहीं एक दौर में यहाँ आक्रांताओं ने हमले भी किए। एक मान्यता के अनुसार 1235 ई. के आसपास आततायी शासकों ने मालवा पर हमले के दौरान उज्जैन को भी लूटा था। महाकाल मंदिर में भी लूट-खसोट की गई थी, जिसका उल्लेख अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है। परवर्ती काल में यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सद्‌भावना का केन्द्र भी बना। अनेक मुस्लिम शासकों ने महाकाल सहित उज्जैन के विभिन्न मंदिरों में पूजा-प्रबंध के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई। शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सहित एक दर्जन मुस्लिम शासकों की ऐसी सनदें मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शाही खजाने से महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों में पूजा आदि के लिए मदद की थी। देश के प्रमुख मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रदीप्त रहने वाला दीपक) लगाने की प्रथा रही है। उसका निर्वाह महाकाल मंदिर में आज भी हो रहा है। इस परम्परा के निमित्त 1061 हिजरी में सम्राट आलमगीर ने चार सेर घी रोजाना जलाने के लिए एक सनद के माध्यम से राशि स्वीकृत की थी, जो धार्मिक सहिष्णुता का नायाब उदाहरण है।

मराठाकाल में राणोजी शिंदे के दीवान रामचंद्र बाबा सुखटनकर (या शेणवी) ने उज्जयिनी में धार्मिक पुनर्जागरण किया। उन्होंने 1730 के आसपास महाकाल के वर्तमान मंदिर, रामघाट, पिशाचमुक्तेश्वर घाट आदि का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार पुराणोक्त चौरासी महादेव तथा अनेक शाक्त तथा शैव स्थलों के जीर्णोद्धार या नवीन प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य भी मराठाकाल में संभव हुआ। सिंधिया राज्य के संस्थापक महादजी ने महाकाल मंदिर और उसके पुजारी वर्ग का आस्थापूर्वक पोषण किया। भोज, ग्वालियर, होल्कर राज्य के राजवंशियों की ओर से महाकालेश्वर के पूजन आदि के लिए निरंतर सहायता प्राप्त होती रही थी।

वर्तमान महाकालेश्वर मंदिर एवं परिसर सुविस्तृत, विशाल और अलग-अलग युगों की कला संपदा को सहेजे हुए है। महाकाल के दक्षिण मूर्ति शिवलिंग की विस्तीर्ण रजत निर्मित जलाधारी अत्यंत कलामय और नागवेष्टित निर्मित हुई है। शिवजी के सम्मुख नंदी की पाषाणमूर्ति धातुपत्रवेष्टित विशाल प्रतिमा है। गर्भगृह में पश्चिम की ओर गणेश जी, उत्तर की ओर भगवती पार्वती और पूर्व में कार्तिकेय की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में निरंतर दो नंदादीप तेल एवं घी के प्रज्वलित रहते हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए पुरातन गलियारे के साथ ही अब विशाल सभागारयुक्त गलियारे बन गए हैं, जहाँ एक साथ सैकड़ों लोग दर्शन-आरती का आनंद ले सकते हैं महाकालेश्वर के ठीक ऊपरी भाग में ओंकारेश्वर की प्रतिमा है तथा सबसे ऊपरी तल पर नागचन्द्रेश्वर की। नागचंद्रेश्वर के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही होते हैं।

महाकालेश्वर परिसर में वृद्धकालेश्वर (जूना महाकाल), राम-जानकी, अवंतिका देवी, अनादिकल्पेश्वर, साक्षी गोपाल, स्वप्नेश्वर महादेव, सिद्धि विनायक, हनुमान, लक्ष्मी-नृसिंह आदि सहित अनेक लघु मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में विशाल कोटितीर्थ कुंड भी है, पुराणों में जिसकी बड़ी महिमा वर्णित है। कुंड के चहुँ ओर अनेक शिव मंदरियाँ हैं, जो इस स्थान के कला वैभव को बहुगुणित करती आ रही हैं। महाकाल मंदिर तथा आसपास के अन्य मंदिरों में परमारकालीन शिलालेख लगे हुए है जिनमें राजाभोज, उदयादित्य, नरवर्मन, निर्वाणनारायण, विज्जसिंह आदि राजाओं के भग्न शिलालेख प्राप्त हुए है। एक शिलालेख गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का भी है, जिसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ जिसकी स्मृति में यह अभिलेख मंदिर में लगवाया होगा। परमारकाल की अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ मंदिर क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं, जिनमें शेषशायी विष्णु, गरुडासीन विष्णु, उमा-महेश, कल्याण सुंदर, शिव-पार्वती, नवग्रह, अष्टदिक्‌पाल, पंचाग्नि तप करती पार्वती, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। पूर्व में यहाँ परमार राजाओं की प्रतिमाएँ भी लगी हुई थीं जिनमें से एक वर्तमान में विक्रम कीर्ति मंदिर स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।

महाकाल मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले शिव पर चिताभस्म का लेपन किया जाता है। यह पूजा महिम्नस्तोत्र के 'चिताभस्मालेपः' श्लोक के अनुरूप होती है। इस पूजा हेतु किसी विशिष्ट चिताभस्म की निरंतर प्रज्वलित रहने वाली अग्नि से योजना की जाती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः प्रातः आठ बजे, मध्याह्‌न में और सायंकाल के समय महाकाल की पूजा, शृंगार आदि किया जाता है। रात्रि में 10 बजे शयन आरती होती है। विभिन्न व्रत, पर्व और उत्सवों के समय महाकालेश्वर मंदिर का परिसर असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था की विशेष केन्द्र बन जाता है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के चार और भादौ मास के दो सोमवार पर निकलने वाली सवारियाँ देश-दुनिया के भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। इन सवारियों का मूल भाव यही है कि महाकाल राजाधिराज हैं और वे उज्जयिनी की मुखय सड़कों पर निकलकर प्रजा का हाल-चाल जानते हैं। इसी प्रकार की सवारियाँ कार्तिक मास में निकलती हैं। दशहरा पूजन के लिए महाकाल नए उज्जैन में पहुँचते हैं। महाशिवरात्रि, हरिहर मिलाप, रक्षाबंधन, वैशाख मास, नागपंचमी जैसे अनेक पर्वोत्सव भी इस मंदिर को विशेष आभा देते हैं। बारह वर्षों में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के समय लाखों श्रद्धालु महाकालेश्वर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं।

महाकाल कालगणना के अधिष्ठाता देव भी है। खगोलशास्त्रीय दृष्टि से उज्जयिनी का महत्त्व सुदूर अतीत से बना हुआ है। इसी स्थान से कर्क रेखा गुजरती है, जो भू-मध्य रेखा को काटती है। इसी दृष्टि से उज्जैन को पृथ्वी और कालगणना का केन्द्र माना गया है। क्षिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। यह स्थान महाकाल मंदिर से अधिक दूर नहीं है। स्पष्ट है कि महाकाल पृथ्वी के केन्द्र बिन्दु पर स्थित हैं और वे ही कालगणना के प्रमुख यंत्र 'शंकु यंत्र' के मूल स्थान हैं।

श्लोक से लोक तक सभी की आस्था का केन्द्र हैं महाकालेश्वर। लोक और लोकोत्तर सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्तगण अपनी-अपनी इच्छा उनके सम्मुख रखते हैं और उनकी पूर्ति के लिए मानवलोकेश्वर महाकाल का भंडार कभी रिक्त नहीं होता है।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
हिंदी विभागाध्यक्ष एवं 
कुलानुशासक
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

महाकाल लोक






महाकाल लोक : 
पुराणोक्त महाकाल वन क्षेत्र में  नवनिर्मित महाकाल लोक 900 मीटर से अधिक लंबा निर्माण है, जो पुरातन रुद्र सागर के चारों ओर फैला हुआ है। उज्जैन स्थित विश्वप्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के आसपास के क्षेत्र के पुनर्विकास की परियोजना के अंतर्गत रुद्र सागर को पुनर्जीवित किया गया है। महाकाल लोक में 108 स्तंभों का निर्माण किया गया है। वीथी में प्रवेश के लिए दो भव्य द्वार- नंदी द्वार और पिनाकी द्वार बनाए गए हैं। यह वीथी मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाती है तथा मार्ग में मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है। कभी पुराणों से लेकर महाकवि कालिदास ने मेघदूत में महाकाल वन की परिकल्पना को जिस सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया था,  शताब्दियों के बाद उसे साकार रूप दे दिया गया है। पहले चरण के निर्माण में लगभग 316 करोड़ रुपये की लागत आई है। यह पूरी योजना  856 करोड़ रुपये की है।






Shri Mahakaleshwar Jyotirling Ujjain श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन 



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