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20200518

कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

असमाप्त लिप्सा और दोहन से उपजे कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रो शर्मा का व्याख्यान : 

शोध धारा शोध पत्रिका, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान, उरई, उत्तर प्रदेश एवं भारतीय शिक्षण मंडल, कानपुर प्रान्त के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के समापन दिवस पर  व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। यह संगोष्ठी वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और भारत राष्ट्र : चुनौतियां संभावनाएं और भूमिका पर केंद्रित थी। 



संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि वर्तमान विश्व मनुष्य की असमाप्त लिप्सा और अविराम दोहन से उपजे संकट को झेल रहा है। अंध वैश्वीकरण, असीमित उपभोक्तावाद और अति वैयक्तिकता की कोख से उपजे कोविड - 19 संकट ने भारतीय मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली की प्रासंगिकता को पुनः नए सिरे से स्थापित कर दिया है। मनुष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। प्रकृति के साथ स्वाभाविक रिश्ता बनाते हुए अक्षय विकास के मार्ग पर चलकर ही इस संकट से उबरा जा सकता है। कोई भी महामारी तात्कालिक नहीं होती, उसके दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। इस दौर में उपजे बड़ी संख्या में विस्थापन, भूख, बेरोजगारी और बेघर होने के संकट को सांस्थानिक और सामुदायिक प्रयासों से निपटना होगा। अभूतपूर्व विभीषिका के बीच यह सुखद है कि हम भारतीय जीवन शैली, पारिवारिकता और सामुदायिक दृष्टि के अभिलाषी हो रहे हैं।

व्याख्यान सत्र के वक्तागण गोरखपुर के प्रो सच्चिदानंद शर्मा, पर्यावरण वेत्ता एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के वनस्पति विज्ञान विभाग के आचार्य डॉ अनिलकुमार द्विवेदी एवं डॉ संतोषकुमार राय, झांसी थे। 

प्रारम्भ में संगोष्ठी संयोजक डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने अतिथि परिचय एवं स्वागत भाषण दिया।

संचालन डॉ श्रवणकुमार त्रिपाठी ने किया। रिपोर्ट का वाचन डॉ नमो नारायण एवं डॉ अतुल प्रकाश बुधौलिया, उरई एवं आभार प्रदर्शन डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने किया। 



डॉ राजेश चन्द्र पांडेय
संपादक शोध पत्रिका शोध धारा एवं 
शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान
उरई, उत्तर प्रदेश

20171128

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा विद्यासागर सम्मानोपाधि से विभूषित

विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में सम्मानित हुए प्रो.शर्मा

विनत सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति और हिन्दी के प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए विनम्र प्रयासों के लिए मुझे विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। इस मौके पर डॉ अनिल जूनवाल की खबर -

विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और हिन्दी के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि उज्जैन में गंगाघाट स्थित मौनतीर्थ में आयोजित विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में कुलाधिपति संत श्री सुमनभामानस भूषण’, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ योगेन्द्रनाथ शर्माअरुण’[रूड़की ], प्रतिकुलपति डॉ अमरसिंह वधान एवं कुलसचिव डॉ देवेन्द्रनाथ साह के कर-कमलों से अर्पित की गई । इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें सम्मान-पत्र, स्मृति चिह्‌न, पदक एवं साहित्य अर्पित किए गए। सम्मान समारोह की विशिष्ट अतिथि नोटिंघम [यू के] की वरिष्ठ रचनाकर जय वर्मा, प्रो नवीचन्द्र लोहनी [मेरठ] एवं डॉ नीलिमा सैकिया [असम] थे। इस अधिवेशन में देश-विदेश के सैंकड़ों संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

     प्रो. शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध,लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं । उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का  हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश – विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में थाईलैंड में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि प्रमुख हैं।
      प्रो. शर्मा को विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल,  पूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो. टी.आर. थापक, पूर्व कुलपति प्रो. नागेश्वर राव,  कुलसचिव डॉ. बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ राकेश ढंड , इतिहासविद्‌ डॉ. श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो गीता नायक, डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ. अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव 'नवनीत', श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक 'उत्तम', श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ. राजेश रावल सुशील, डॉ. अनिल जूनवाल, डॉ. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', राजेन्द्र नागर 'निरंतर', अक्षय अमेरिया, डॉ. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी।
                                                                         
                                                               डॉ. अनिल जूनवाल
संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन

                                                             मोबा ॰ 9827273668 







नई विधा में प्रकाशित युगल बैरागी की रपट

20170505

मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास

मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास

पुण्यश्लोक पं सूर्यनारायण व्यास ( 2 मार्च 1902 ई. - 22 जून 1976 ई.) के जन्मशताब्दी वर्ष पर हम लोगों के सम्पादन में प्रकाशित इस पुस्तक में उनके विविधायामी अवदान पर महत्त्वपूर्ण सामग्री के संचयन का सुअवसर मिला था। वे एक साथ कई रूपों - प्राच्यविद्या विद्, साहित्य मनीषी, इतिहासकार, सर्जक, पत्रकार, ज्योतिर्विद् और राष्ट्रीय आंदोलन के अनन्य स्तम्भ के रूप में सक्रिय रहे। महाकालेश्वर के समीपस्थ उनका निवास भारती भवन क्रांतिकारियों से लेकर संस्कृतिकर्मियों की गतिविधियों का केंद्र रहा। उनकी जन्मशती पर विविध प्रकल्पों के माध्यम से प्रसिद्ध लेखक और मीडिया विशेषज्ञ पं राजशेखर व्यास ने पितृ ऋण से अधिक राष्ट्र ऋण चुकाने का कार्य किया था।  पद्मभूषण पं व्यास जी की पावन स्मृति को नमन।    
   
 पुस्तक: मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास

सम्पादक: श्री हरीश निगम (मालवी के सुविख्यात कवि)
              डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
               डॉ. हरीश प्रधान

प्रकाशक: लोक मानस अकादेमी एवम् साँझी पत्रिका

इसी पुस्तक से प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के आलेख के अंश

यद्यपि भारत में पत्रकारिता का आगमन पश्चिम की देन है, किंतु शीघ्र ही यह सैकड़ों वर्षों की निद्रा में सोये भारत की जाग्रति का माध्यम सिद्ध हुई। विश्वजनीन सूचना-संचार के इस विलक्षण माध्यम ने पिछली दो शताब्दियों में अद्भुत प्रगति की है। वहीं भारतीय परिदृश्य में देखें, तो हमारी जातीय चेतना के अभ्युदय, आधुनिक विश्व के साथ हमकदमी, स्वातंत्र्य की उपलब्धि और राजनैतिक-सामाजिक चेतना के प्रसार में हिन्दी पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। पत्रकारिता और साहित्य की परस्परावलंबी भूमिका और दोनों की समाज के प्रतिबिम्ब के रूप में स्वीकार्यता आधुनिक भारत का अभिलक्षण बन कर उभरी है, तो उसके पीछे जो स्पष्ट कारण नज़र आता है, वह है महनीय व्यक्तित्वों की साहित्य एवं पत्रकारिता के बीच स्वाभाविक चहलकदमी। ऐसे साहित्यिकों की सुदीर्घ परम्परा में विविधायामी कृतित्व के पर्याय पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास (1902-1976 ई.) का नाम अविस्मरणीय है, जिन्होंने देश के हृदय अंचल ‘मालवा’ की पुरातन और गौरवमयी नगरी उज्जैन से ‘विक्रम’ मासिक के सम्पादन-प्रकाशन के माध्यम से पत्रकारिता की ऊर्जा को समर्थ ढंग से रेखांकित किया। उनकी पत्रकारिता की उपलब्धि अपने नगर, अंचल और राष्ट्र के पुनर्जागरण और सांस्कृतिक अभ्युदय से लेकर हिन्दी पत्रकारिता को नए तेवर, नई भाषा और नए औजारों से लैस करने में दिखाई देती है, जहाँ पहुँचकर राजनीति, साहित्य, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच की भेदक रेखाएँ समाप्त हो गईं। लगभग छह दशक पहले मालवा की हिन्दी पत्रकारिता के खास स्वभाव को गढ़ने से लेकर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आज उसकी अलग पहचान को निर्धारित करवाने में पं. व्यासजी और उनके ‘विक्रम’ की विशिष्ट भूमिका रही है।





मालवा का वसीयतनामा: पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास के हास्य व्यंग्य लेखन पर केंद्रित रेडियो रूपक 

पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास के हास्य - व्यंग्य लेखन पर केंद्रित रूपक ‘मालवा का वसीयतनामा’ का प्रसारण आकाशवाणी, दिल्ली से राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य भारती’ में 7 मार्च, बुधवार को रात्रि 10 बजे होगा। इसे देश के सभी आकाशवाणी केंद्रों पर सुना जा सकेगा। इस रेडियो फ़ीचर का लेखन समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने किया है। रूपक में पं व्यास के हास्य - व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में योगदान के साथ उन पर केंद्रित वरिष्ठ साहित्यकारों के विचार एवं साक्षात्कार भी समाहित किए गए हैं। वसीयतनामा पं व्यास जी का बहुचर्चित व्यंग्य संग्रह है, जिसका संपादन उनके सुपुत्र और दूरदर्शन एवं ऑल इंडिया रेडियो के अतिरिक्त महानिदेशक पं राजशेखर व्यास, नई दिल्ली ने किया है। रूपक में देश के प्रख्यात कवि एवं पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी के पं व्यास के व्यंग्य लेखन पर केंद्रित विचारों का समावेश किया गया है। वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रो शिव शर्मा, डॉ. पिलकेन्द्र अरोरा, श्री मुकेश जोशी के साक्षात्कार भी इस रूपक शामिल किए गए हैं। रूपक के प्रस्तुतकर्ता श्री जयंत पटेल एवं सुधा शर्मा हैं। 
उल्लेखनीय है कि उज्जैन स्थित सिंहपुरी में 2 मार्च 1902 को जन्मे व्यास जी विविधमुखी प्रतिभा के धनी थे। पंडित सूर्यनारायण व्यास का नाम लेते ही एक साथ कई रूप उभर आते हैं- साहित्यकार, पुराविद, इतिहासकार, क्रांतिकारी, व्यंग्यकार, संस्मरणकार, सम्पादक, पत्रकार, ज्योतिष और खगोल के उत्कृष्ट विद्वान। इन सभी रूपों में उनकी विशिष्ट पहचान रही है। उन्होंने 1919 में व्यंग्य लेखन की शुरुआत की। पं व्यास जी के व्यंग्य लेखन में मालवा धड़कता है। उनका पहला व्यंग्य–संग्रह व्यासाचार्य के नाम से ‘तू-तू मैं-मैं’ पुस्तक भवन, काशी से 1935 में प्रकाशित हुआ था। इसी विषय पर लगभग साठ साल बाद ‘तू—तू मैं-मैं’ धारावाहिक सेटेलाइट चैनल पर प्रसारित हुआ। यह संग्रह व्यास जी के जन्म शताब्दी वर्ष में 2001 में उनके सुपुत्र राजशेखर व्यास के संपादन में पुनः प्रकाशित हुआ। पं व्यास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण व्यंग्य संग्रह ‘वसीयतनामा’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ। यह संग्रह उनके सुपुत्र राजशेखर व्यास द्वारा संपादित है, जिसमें उन्होंने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में बिखरी व्यास जी की व्यंग्य रचनाओं का श्रमसाध्य संकलन किया। 

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 

पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास पर एकाग्र रूपक यूट्यूब पर देखा जा सकता है: प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा






20170501

विश्व शांति और साहित्य

अभ्यास मण्डल की व्याख्यान शृंखला में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा


विगत लगभग छह दशकों से अध्ययन एवम् चेतना प्रसार सहित व्यापक सरोकारों को लेकर सक्रिय इंदौर की अनन्य संस्था अभ्यास मण्डल की व्याख्यान शृंखला में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के व्याख्यान का मौका यादगार रहा। विश्व शांति और साहित्य पर व्याख्यान में उनका कहना था, ग्लोबल बर्ल्ड में देशों के बीच दूरियां कम हुई हैं, लेकिन दिलों के बीच दूरियां बढ़ी हैं। आज दुनिया ने इतने हथियार  इकट्ठे कर लिए हैँ कि एक साथ कई पृथ्वियों को नष्ट किया जा सकता हैं। ऐसे अंधकार भरे समय में एक साहित्यकार ही विश्व शान्ति और दिलों में दूरियों को कम कर सकता है।

साहित्यकारों  ने हर काल खंड में विश्व शांति की कामना की है और अपनी रचनाओं में भी स्थान दिया। प्रकाश और अंधकार की लड़ाई तो प्राचीन काल से चली आ रही है और हमेशा ही साहित्यकारों ने अंधकार के ख़िलाफ़ लिखते हुए प्रकाश के पक्ष में अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है। महाभारत में चाहे वेद व्यास रहे हों या वर्तमान दौर के रचनाकार सभी ने युद्ध, हिंसा, आतंक और विद्वेष के खिलाफ आवाज़ उठाई है। 

समाज आराधक श्री मुकुंद कुलकर्णी  ने 1957 ई के आसपास अपने कुछ साथियों के साथ अभ्यास मण्डल की नींव रखी थी, जो आज इंदौर सहित मालवा की पहचान है। व्याख्यान के बाद 56 वीं व्याख्यानमाला के फोल्डर का विमोचन हुआ। इस मौके पर सर्वश्री आनन्दमोहन माथुर, शशीन्द्र जलधारी, संस्थाध्यक्ष शिवाजी मोहिते, सचिव परवेज़ खान, सुरेश उपाध्याय, डॉ हरेराम वाजपेयी, सदाशिव कौतुक, अरविन्द ओझा,  प्रवीण जोशी, डॉ पल्लवी आढ़ाव, मालासिंह ठाकुर, मनीषा गौर, तपन भट्टाचार्य, डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रमेशचन्द्र पण्डित, पुष्पारानी गर्ग, प्रदीप नवीन आदि सहित अनेक सुधीजनों से भेंट का आत्मीय प्रसंग बना। 

इस मौके का भास्कर कवरेज और कुछ फ़ोटोग्राफ्स। सौजन्य: अभ्यास मण्डल@Parvez Khan






20150819

जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती है लोक-संस्कृति

अक्षर वार्ता July 2015: सम्पादकीय
(आवरण: बंसीलाल परमार )
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादकीय विविध लोकभिव्यक्तियों के अध्ययन, अनुसन्धान और नवाचार को लेकर सजगता की दरकार करता है।..
लोक-साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा काल-प्रवाह में बाधित भले ही हो जाए, कभी सूखती नहीं है। लोक-कथा, गीत, गाथा, नाट्य, संगीत, चित्र सहित विविध लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। विकास के नए प्रतिमान एक जैसेपन को बढ़ाते हैं, इसके विपरीत लोक-साहित्य और संस्कृति एक जैसेपन और एकरसता के विरुद्ध हैं। मनुष्य की सजर्नात्मक सम्भावनाएँ साहित्य एवं विविध कला-माध्यमों में प्रतिबिम्बित होती आ रही हैं। इनमें शब्दमयी अभिव्यक्ति का माध्यम ‘साहित्य’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ‘शब्द’ ही मनुष्य की अनन्य पहचान है, जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। शब्दार्थ केन्द्रित अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से लोक द्वारा रचा गया साहित्य अपनी संवेदना और शिल्प में विशुद्धता और मौलिकता की आंच से युक्त होने के कारण अपना विशिष्ट प्रभाव रचता है, जो कथित आभिजात्य साहित्य द्वारा सम्भव नहीं है। लोक-साहित्य मानव समुदाय की विविधता और बहुलता को गहरी रागात्मकता के साथ प्रकट करता है, वहीं देश-काल की दूरी के परे समस्त मनुष्यों में अंतर्निहित समरसता और ऐक्य को प्रत्यक्ष करता है।
वस्तुतः लोक से परे कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। समस्त लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह लोक-संस्कृति से मुक्त कोई भी नहीं है। कोई स्वीकार करे, न करे, उसे पहचाने, न पहचाने,  सभी की अपनी कोई न कोई लोक-संस्कृति होती है। उसका प्रभाव कई बार इतना सूक्ष्म-तरल और अंतर्यामी होता है कि उसे देख-परख पाना बेहद मुश्किल होता है, किन्तु असंभव नहीं। लोक-जीवन में परम्परा और विकास न सिर्फ साथ-साथ अस्तित्वमान रहते हैं, वरन् एक दूसरे पर भी निर्भर करते हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति इन दोनों की अन्योन्यक्रिया का जैविक साक्ष्य देते हैं।
लोक-साहित्य सहित लोक की विविधमुखी अभिव्यक्तियों को आधार देती हुई लोक-संस्कृति का स्वरूप अत्यंत व्यापक और विपुलतासम्पन्न है। लोक-साहित्य और संस्कृति तमाम प्रकार के परिवर्तन और विकास के बावजूद अपने अंदर की कई चीजों को बचाये रखते हैं, कभी रूपांतरित करके तो कभी अंतर्लीन करके। सूक्ष्मता से विचार करें तो हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह और क्रियाओं के तादात्म्य को प्रत्यक्ष करता है। यही वह विचारणीय बिंदु है जो लोक-साहित्य, संस्कृति के साथ इतिहास और मानव-शास्त्र का जैविक सम्बन्ध रचता है।
भारत में लोक साहित्य और संस्कृति कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत, आदिम या पुरातन नहीं हैं। वे सतत वर्तमान हैं, जीवन का अविभाज्य अंग हैं। भारत के हृदय अंचल मालवा का लोक-साहित्य और विविध परम्पराएँ भी इन्हीं अर्थों में अपने भूगोल और पर्यावरण का अनिवार्य अंग हैं। मालवी लोक-संस्कृति की विलक्षणता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यह अंचल सहस्राब्दियों से शास्त्र, इतिहास और संस्कृति की अनूठी रंगस्थली रहा है। इनके साथ यहाँ की लोक-संस्कृति की अन्तःक्रिया निरंतर चलती चली आ रही है। यहाँ कभी शास्त्रों ने लोक परम्परा को आधार दिया है तो कभी लोकाचार ने शास्त्र का नियमन किया है, उसको व्यवहार्य बनाया है। यह बात देश के प्रायः अधिकांश भागों की लोक-संस्कृति में देखी-समझी जा सकती है।
लोक में व्याप्त व्रत-पर्व-उत्सवों को कई बार महज धार्मिक अनुष्ठान या रूढ़ि के रूप में देखा जाता है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये सभी पुराख्यान, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। उदाहरण के लिए मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व और उससे जुड़ा लोक-साहित्य सही अर्थों में भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति, परम्परा और लोक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम दृष्टांत है। फिर यह काल के अविराम प्रवाह से अनछुआ भी नहीं है। इसमें परिवर्तन और विकास की आहटें भी सुनी जा सकती हैं। संजा पर्व में हम देखते हैं कि उसमें चित्रित आकृतियों में शास्त्रोक्त स्वस्तिक (सात्या) और सप्तऋषि तो आते ही हैं, छाबड़ी (डलिया), घेवर, घट्टी जैसे लोक प्रतीकों का भी अंकन होता है। काल-प्रवाह में इससे सम्बद्ध लोक-साहित्य और भित्ति-चित्रों में नए-नए बिम्ब भी संपृक्त होते जा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मालवा सहित किसी भी क्षेत्र की लोक-संस्कृति को नितांत बौद्धिक विमर्श से हटकर यहाँ के लोकजीवन के साथ सहज और जैविक अन्तःक्रिया के रूप में देखा-समझा जाए। तभी अध्ययन, शोध और नवाचार में उसके निहितार्थ उजागर होंगे और फिर उसका जीवन और पर्यावरण-बोध हमारे आज और कल के लिए भी कारगर सिद्ध होगा।
वर्तमान में लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में नित-नूतन अनुसंधान की संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। मानव जीवन के इन सचल क्षेत्रों में शोध की अभिनव प्रविधियों को लेकर जागरूकता की दरकार है। तभी हम शोध में स्तरीयता, मौलिकता और गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। इस दिशा में आपके रचनात्मक योगदान और प्रतिक्रियाओं का ‘अक्षर वार्ता’ में स्वागत है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com     डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरूलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com



20150516

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान के अपूर्व प्रसार का दौर -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान : नई सम्भावनाएं - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 

वर्तमान दौर ज्ञान-विज्ञान की विविधमुखी प्रगति के साथ अंतर-अनुशासनिक अध्ययन और अनुसंधान के अभूतपूर्व प्रसार का दौर है। ज्ञान की रूढ़ सीमाओं के पार कुछ नया बनाने और उन्हें विस्तार देने का महत्त्वपूर्ण नजरिया है- अंतर-अनुशासनात्मकता। अंतरानुशासनिक विशेषण का प्रयोग मुख्य तौर पर शैक्षिक हलकों में किया जाता है, जहां दो या दो से अधिक अनुशासनों के शोधकर्ताओं द्वारा अपने दृष्टिकोणों का समन्वय किया जाता है तथा सामने आई समस्या के बेहतर रूप से अनुकूलित समाधान के लिए उन दृष्टिकोणों को संशोधित किया जाता है। इसी तरह यह पद्धति वहाँ भी प्रयुक्त होती है, जब समूह शिक्षण पाठ्यक्रम के मामले में छात्रों को कई पारंपरिक अनुशासनों के संदर्भ में किसी एक विषय को समझने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, भूमि के उपयोग के विषय को जब विभिन्न अनुशासनों, जैसे जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगोल, राजनीति विज्ञान आदि की दृष्टि से जांचा-परखा जाता है, तब वह हर बार अलग ढंग से सामने आ सकता है। अंतरानुशासनिकता दो या अधिक अकादमिक अनुशासनों का किसी एक गतिविधि, जैसे शोध परियोजना, में संयोजन है। यह विषयों की सीमाओं को अतिक्रांत कर उनसे परे सोचते हुए कुछ नया रचने का उपक्रम है। यह नई उभरती जरूरतों और व्यवसायों के अनुरूप किसी अंतरानुशासनिक क्षेत्र से सम्बद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अकादमिक अनुशासनों या चिंतन के विभिन्न संप्रदायों की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ते हुए उसे एक संगठनात्मक इकाई में पर्यवसित करती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान की पद्धति ज्ञान की बुनियादी समझ को विकसित करने या समस्याओं को हल करने के लिए विशेष कारगर रहती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान दो या दो से अधिक अध्ययन क्षेत्रों या विशेष ज्ञान के निकायों के माध्यम से शोध की एक ऐसी पद्धति है, जहां टीमों या व्यक्तियों द्वारा विविध सूचनाओं, डेटा, तकनीक, उपकरण, दृष्टिकोणों और अवधारणाओं को एकीकृत किया जाता है। अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन को लेकर डबल्यू नेवेल द्वारा संपादित ‘एडवांसिंग इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज़' पुस्तक में जे. क्लेन और डबल्यू. नेवेल (1998) द्वारा दी गई इसकी परिभाषा कुछ इस तरह है, जो व्यापक रूप से उद्धृत भी की जाती है- “किसी प्रश्न का उत्तर खोजने या किसी समस्या के समाधान, अथवा किसी ऐसे विषय को लक्ष्य बनाने की प्रक्रिया अंतरानुशासनात्मक अध्ययन है, जहाँ उस प्रश्न, समस्या या विषय के अत्यधिक व्यापक या जटिल होने के कारण है, किसी एकल अनुशासन या पेशे से उसका समुचित रूप में समाधान नहीं हो पाता है। इसके माध्यम से हम अनुशासनात्मक दृष्टिकोणों को ग्रहण करते हैं और फिर अपेक्षाकृत कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण की निर्मिति करते हुए गहरी अंतर्दृष्टि को समाहित करते हैं।“ (पृ. 393-4) जाहिर है यह अध्ययन पद्धति ज्ञान-विज्ञान की जटिलता और व्यापकता को अपेक्षया सुगम बनाने में विशेष तौर पर कारगर सिद्ध हो सकती है। वैसे तो अंतरानुशासनिक अनुसंधान प्राचीन युग से होते आ रहे हैं, जिनके प्रमाण पूर्व और पाश्चात्य- उभयदेशीय संदर्भों में बिखरे पड़े हैं। किन्तु आधुनिक युग में अंतर-अनुशासनात्मक शोध की विविधमुखी प्रगति दिखाई दे रही है। इसके विकास के पीछे कई कारण आधार में रहे हैं। जैसे- समाज एवं प्रकृति की जटिलता, नित-नई सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकता, उन समस्याओं या प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा, जिसे किसी एक अनुशासन के अंतर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता है, नई तकनीक की सामर्थ्य और उससे प्राप्त सुविधाएं, विश्वयुद्धों के बाद सामाजिक कल्याण, आवास, जनसंख्या, अपराध आदि से जुड़े प्रश्नों और समस्याओं का हल निकालने के लिए आदि आदि। एक अन्य स्तर पर अंतरानुशासनात्मकता को अत्यधिक विशेषज्ञता के हानिकारक प्रभावों के लिए एक ठोस उपाय के रूप में भी देखा जाता रहा है। कहीं पर अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन किसी विषय विशेषज्ञ के बिना है और कहीं पर एकाधिक क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। निश्चय ही दोनों स्थितियों में फर्क होगा।जहां कई अंतरानुशासनिकों द्वारा कार्य किया जाता है, वहाँ जरूरी है कि विषय के विशेषज्ञगण अपने-अपने विषयों के पार देखने और नया करने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित रखें। वे सभी ज्ञानमीमांसीय रूप से अपनी अत्यधिक विशेषज्ञता को समस्याओं के नए समाधान प्राप्त करने पर खुद को केन्द्रित करते हुए अंतःविषय सहयोग में प्रभावी भूमिका निभाएँ। तभी शोध के परिणामों को विभिन्न विषयों के ज्ञान को अद्यतन करने के लिए प्रत्यार्पित किया जा सकता है। इसीलिए अनुशासनिकों और अंतरानुशासनिकों- दोनों को एक दूसरे के पूरक संबंध में देखा जा सकता है। वर्तमान में विविध ज्ञानानुशासनों और भाषा-साहित्य के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। सभी अध्ययन क्षेत्रों में अंतरानुशासनिक अनुसंधान सहित शोध की अद्यतन प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता उन्नयन के प्रादर्श को साकार कर पाने में समर्थ सिद्ध होंगे। इस दिशा में दृष्टि-सम्पन्न शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगा। 'अक्षर वार्ता' परिवार शोध की नित-नूतन दिशाओं में सक्रिय मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत करता है। 

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा- प्रधान संपादक 0 डॉ मोहन बैरागी - संपादक 

(सम्पादकीय April 2015 Editorial अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015)

 
अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015 आवरण:अरालिका शर्मा cover: Aralika Sharma कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक शोध की अधुनातन प्रवृत्तियों को लेकर सजगता की दरकार करता है....अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस) प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com 
 

20141124

शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में गतिशील 'अक्षर वार्ता'

सम्पादकीय- नवंबर 2014 मानवीय ज्ञान की उन्नति और जीवन की सुगमता के लिए शोध की महत्ता एक स्थापित तथ्य है। प्रारम्भिक शोध का लक्ष्य नवीन तथ्यों का अन्वेषण था। इसके साथ क्रमशः व्याख्या-विवेचना का पक्ष जुड़ता चला गया। शोध की नई-नई प्रक्रिया-प्रविधियों के विकास के साथ मानवीय ज्ञान का क्षितिज भी विस्तृत होता चला गया। यह कहना उचित होगा कि वर्तमान विश्व शोध की असमाप्त यात्रा का एक पड़ाव भर है, चरम नहीं। मनुष्य के कई स्वप्न, कई कल्पनाएँ अब वास्तविकता में परिणत हो चुके हैं और अनेक साकार होने जा रहे हैं। यह सब अनुसंधान कर्ताओं की शोध-दृष्टि और उस पर टिके रहकर किए गए अथक प्रयासों से ही संभव हो सका है। सदियों पहले किए गए कई शोध आज की हमारी नई दुनिया की नींव बने हुए हैं। मुश्किल यह है कि हमारी नज़र कंगूरों पर टिकी होती है, नींव ओझल बनी रहती है। वस्तुतः ऐसे नींव के पत्थर बने शोधकर्ताओं को स्मरण किया जाना चाहिए। अनुसंधान की अनेकानेक पद्धतियाँ हैं, जो ज्ञानमीमांसा पर निर्भर करती हैं। यह दृष्टिकोण ही मानविकी और विज्ञान के भीतर और उनके बीच - दोनों में पर्याप्त भिन्नता ले आता है। अनुसंधान के कई रूप हैं- वैज्ञानिक, तकनीकी, मानविकी, कलात्मक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापार, विपणन, व्यवसायी अनुसंधान आदि। यह शोधकर्ता के दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है कि वह किस पद्धति को आधार बनाता है या उसका फोकस किस पर है। वर्तमान दौर में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी आई है। यह अनुसंधान डेटा संग्रह, जिज्ञासा के दोहन का एक व्यवस्थित तरीका है। यह शोध व्यापक प्रकृति और विश्व की सम्पदा की व्याख्या के लिए वैज्ञानिक सूचनाएं और सिद्धांत उपलब्ध कराता है। यह विविध क्षेत्रों से जुड़े व्यावहारिक अनुप्रयोगों को संभव बनाता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए पहले समस्या की तलाश करना होती है। तत्पश्चात उसकी प्राक्कल्पना करना होती है। उसके बाद अन्वेषण आगी बढ़ता है, जहां विविध प्रकार के आंकड़ों का परीक्षण-विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है। पूर्व-कल्पनाएं और अब तक प्राप्त तथ्य बार-बार पुनरीक्षित किए जाते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान विभिन्न प्रकार के संगठनों और कंपनियों सहित निजी समूहों द्वारा वित्तपोषित होते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान उनके अकादमिक और अनुप्रयोगात्मक अनुशासनों के अनुरूप विभिन्न आयामों में वर्गीकृत किए जा सकता हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान एक अकादमिक संस्था की प्रतिष्ठा को पहचानने के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी माना जाता है। लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं कि इस आधार पर संस्था का गलत आकलन होता है, क्योंकि अनुसंधान की गुणवत्ता शिक्षण की गुणवत्ता का संकेत नहीं करती है और इन्हें आवश्यक रूप से पूरी तरह एक-दूसरे से सहसंबद्ध नहीं किया जा सकता है। मानविकी के क्षेत्र में अनुसंधान में कई तरह प्रविधियाँ, उदाहरण के तौर पर व्याख्यात्मक और संकेतपरक आदि समाहित होती हैं और उनके सापेक्ष ज्ञानमीमांसा आधार बनती है। मानविकी के अध्येता आम तौर पर एक प्रश्न के परम सत्य उत्तर के लिए खोज नहीं करते हैं, वरन उसके सभी ओर के मुद्दों और विवरणों की तलाश में सक्रिय होते हैं। संदर्भ सदैव महत्वपूर्ण बना रहता है और यह संदर्भ, सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या जातीय हो सकता है। मानविकी में अनुसंधान का एक उदाहरण ऐतिहासिक पद्धति में सन्निहित है, जो ऐतिहासिक पद्धति पर प्रस्तुत किया जाता है। इतिहासकार एक विषय के व्यवस्थित अन्वेषण के लिए प्राथमिक स्रोतों और साक्ष्यों का प्रयोग करते हैं और तब अतीत के लेखे-जोखे के रूप में इतिहास का लेखन करते हैं। रचनात्मक अनुसंधान को 'अभ्यास आधारित अनुसंधान' के रूप में भी देखा जाता है। यह अनुसंधान वहाँ आकार लेता है, जब रचनात्मक कार्यों को स्वयं शोध या शोध के लक्ष्य के रूप में लिया जाता है। यह चिंतन का विवादी रूप है, जो ज्ञान और सत्य की तलाश में अनुसंधान की विशुद्ध वैज्ञानिक प्रविधियों के समक्ष एक विकल्प प्रदान करता है। शोध की प्रयोजनपरकता, स्तरीयता और गुणवत्ता की राह सुगम हो, यह विचार इस पत्रिका के लक्ष्यों में अन्तर्निहित है। शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में सक्रिय अनेक विद्वानों, मनीषियों और शोधकर्ताओं का सक्रिय सहयोग हमें मिल रहा है। सांप्रतिक शोध परिदृश्य में 'अक्षर वार्ता' रचनात्मक हस्तक्षेप का विनम्र प्रयास है , इस दिशा में आप सभी के सहकार के लिए हम कृतज्ञ हैं। पत्रिका को बेहतर बनाने के लिए आपके परामर्श हमारे लिए सार्थक सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा -प्रधान संपादक एवं डॉ मोहन बैरागी - संपादक

20140809

अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'अक्षरवार्ता' का विमोचन

 'अक्षरवार्ताका विमोचन - प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल, प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मासम्पादक डॉ. मोहन बैरागीसम्पादक डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा वं तिथि
अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'अक्षरवार्ताका विमोचन विदिशा में आयोजित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त समारोह में संपन्न हुआ।  साहित्य अकादेमी  मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल द्वारा आयोजित दो दिवसीय समारोह के उद्घाटन अवसर पर इस मासिक शोध-पत्रिका का विमोचन अकादेमी के निदेशक एवं वरिष्ठ विद्वान प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल एवं मंचासीन अतिथियों ने किया। पत्रिका का विमोचन प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, सम्पादक डॉ. मोहन बैरागी, सम्पादक मंडल सदस्य डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा ने करवाया। इस मौके पर विदिशा के शास. महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ. कमल चतुर्वेदी, साहित्यकार डॉ. शीलचंद्र पालीवाल, डॉ. वनिता वाजपेयी, जगदीश श्रीवास्तव (विदिशा), डॉ. तबस्सुम खान (भोपाल), युवा शोधकर्ता पराक्रमसिंह (उज्जैन) आदि सहित अनेक संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार उपस्थित थे।यह पत्रिका उज्जैन से प्रकाशित हो रही है। उज्जैन से प्रकाशित इस आई एस एस एन मान्य  अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में कला, मानविकी, समाजविज्ञान, जनसंचार, विज्ञान, वैचारिकी से जुड़े मौलिक शोध एवं विमर्शपूर्ण आलेखों का प्रकाशन किया जा रहा है। इस पत्रिका के अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल में देश-विदेश के अनेक विद्वानों, संस्कृतिकर्मियों और शोधकर्ताओं का सहयोग मिल रहा है। इनमें प्रमुख हैं- डॉ. सुरेशचन्द्र शुक्ल[नॉर्वे], श्री रामदेव धुरंधर [मॉरीशस], श्री शेर बहादुर सिंह [यूएसए], डॉ. स्नेह ठाकुर [कनाडा], डॉ. जय वर्मा [यू के], प्रो. टी.जी. प्रभाशंकर प्रेमी [कर्नाटक], प्रो. अब्दुल अलीम [उ प्र ], प्रो. आरसु [केरल], डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा [म प्र], डॉ. रवि शर्मा [दिल्ली], प्रो. राजश्री शर्मा [म प्र], डॉ. अलका धनपत [मॉरीशस] आदि। पत्रिका का आवरण कला मनीषी अक्षय आमेरिया ने सृजित किया है। यह पत्रिका देश-विदेश की विभिन्न अकादमिक संस्थाओं, संगठनों और शोधकर्ताओं के साथ ही  इंटरनेट पर भी उपलब्ध रहेगी।
 डॉ. मोहन बैरागी
सम्पादक 
अक्षरवार्ता ISSN 2349-7521
मोबा. 09424014366                                                                                   

20130822

Alochana Bhushan award conferred on Prof Sharma

फ्रीप्रेस द्वारा प्रकाशित आलोचना भूषण सम्मान 2012 की रपट  

Home » Ujjain    October 30, 2012 01:13:54 AM | By FP NEWS SERVICE Ujjain
Alochana Bhushan award conferred on Prof Sharma
Ujjain:Vikram University Proctor and renowned critic Prof Shailendra Kumar Sharma was conferred with Akhil Bharatiya Alochana Bhushan honour for his incredible contribution in the field of criticism during a programme organised in Gaziabad on October 28 under the joint aegis of Rashtra Bhasha Swabhiman Nyas and USM Journal.
Prof Sharma was accorded this honour during national level Samman Alankaran programme under 20th Akhil Bharatiya Sahitya Sammelan by former Union Minister Dr Bhishmnarayan Singh and former Member of Parliament Dr Ratnakar Pandey. Prof Sharma was honoured with citation, memento and books. Former Union Minister and educationist Dr Sarojini Mahishi, senior dance scholar Padma Shree Dr Shyam Singh Shashi, Loksabha TV senior officer Dr Gyanendra Pandey, convener of institute Umashankar Mishra and other Hindi Scholars from more than 15 States were present during the felicitation programme.
Prof Sharma has been active in research and writings related to criticism, folk- culture, stage- art, Rajbhasha Hindi and Devnagari Lipi for last two and half decades. He has written more than 800 reviews in renowned journals of national and international recognition. Some of the most famous books written by Prof Sharma include Shabda Sambandhi Bharatiya and Pashchatya Avdharana, Devnagri Vimarsh, Hindi Bhasha Saranchana, Awanti Kshetra and Simhastha Mahaparva, Malwa ka Loknatya Mach, Malwi Language and Literature and others. Prof Sharma has been felicitated by several organizations earlier.


Prof Shailendra Kumar Sharma conferred by former Union Minister Dr Bhishmnarayan Singh and former Member of Parliament Dr Ratnakar Pandey



20130410

नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल

नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल पर आलेख अपनी माटी पर पढ़ सकते हैं....
                साहित्य की सत्ता मूलतः अखण्ड और अविच्छेद्य सत्ता है। वह जीवन और जीवनेतर सब कुछ को अपने दायरे में समाहित कर लेता है। इसीलिए उसे किसी स्थिर सैद्धांतिकी की सीमा में बाँधना प्रायः असंभव रहा है। साहित्य को देखने के लिए नजरिये भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, जो हमारी जीवन-दृष्टि पर निर्भर करते हैं। एक ही कृति को देखने-पढ़ने की कई दृष्टियाँ हो सकती हैं। उनके बीच से रचना की समझ को विकसित करने के प्रयास लगभग साहित्य-सृजन की शुरूआत के साथ ही हो गए थे। आदिकवि वाल्मीकि जब क्रौंच युगल के बिछोह के शोक से अनायास श्लोक की रचना कर देते हैं, तब उन्हें स्वयं आश्चर्य होता है कि यह क्या रचा गया  इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते साहित्य से जुड़े क्या, क्यों और कैसे जैसे प्रश्न अब भी ताजा बने हुए लगते हैं, तो यह आकस्मिक नहीं हैं।
     आज का दौर भूमण्डलीकरण और उसे वैचारिक आधार देने वाले उत्तर आधुनिक विमर्श और मीडिया की विस्मयकारी प्रगति का दौर है। इस दौर में साहित्य और उसके मूल में निहित संवेदनाओं के छीजते जाने की चुनौती अपनी जगह है ही, साहित्य और सामाजिक कर्म के बीच का रिश्ता भी निस्तेज किया जा रहा है। ऐसे में साहित्य की ओर से प्रतिरोध बेहद जरूरी हो जाता है। इधर साहित्य में आ रहे बदलाव नित नए प्रतिमानों और उनसे उपजे विमर्शों के लिए आधार बन रहे हैं। वस्तुतः कोई भी प्रतिमान प्रतिमेय से ही निकलता है और उसी प्रतिमान से प्रतिमेय के मूल्यांकन का आधार बनता है। फिर एक प्रतिमेय से निःसृत प्रतिमान दूसरे नव-निर्मित प्रतिमेय पर लागू करने पर मुश्किलें आना सहज है। पिछले दशकों में शीतयुद्ध की राजनीति ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कलाजगत् पर सहज ही देखा जाने लगा। इसी प्रकार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की वर्चस्वशाली उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पक्षों पर अपना असर जमाया। इनसे साहित्य का अछूता रह पाना कैसी संभव था? उत्तर आधुनिकता, फिर उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी दौर में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श , सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसी विविध विमर्श धाराएँ विकसित हुईं। केन्द्र के परे जाकर परिधि को लेकर नवविमर्श की जद्दोजहद होने लगी। ऐसे समय में मनुष्य और साहित्य की फिर से बहाली पर भी बल दिया जाने लगा। पिछले दो-तीन दशकों में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य, संस्कृति और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत् को मथा है। हिन्दी साहित्य में हाल के दशकों में उभरे प्रमुख विमर्शों में स्त्री विमर्शदलित विमर्श,  आदिवासी विमर्श,  वैश्वीकरण, बहुसांस्कृतिकतावाद  आदि को देखा जा सकता है। ये विमर्श साहित्य को देखने की नई दृष्टि देते हैं, वहीं इनका जैविक रूपायन रचनाओं में भी हो रहा है।-प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 

http://www.apnimaati.com/2013/04/blog-post_6939.html

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