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20200728

पाठानुसंधान के सरोकार और पांडुलिपि - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

पांडुलिपियाँ बहुत कुछ कहती हैं - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 
मनुष्य की अविराम जिज्ञासा और नितनूतन ज्ञान की पिपासा सदियों से अनुसंधान कार्य को गति देती आ रही है। प्राचीन दौर से जुड़ी सूचनाओं, ज्ञान, विचार और संवेदनाओं के शोध की दिशा में देश-दुनिया के निजी और संस्थागत संग्रहों में संचित - संरक्षित पांडुलिपियाँ अत्यंत उपयोगी रही हैं। 

पाण्डुलिपि उस दस्तावेज को कहते हैं जो एक व्यक्ति या अनेक लोगों द्वारा हाथ से लिखी गयी हो, जैसे हस्तलिखित ग्रंथ या पत्र या कोई अन्य पाठ। मुद्रित किया हुआ या किसी अन्य विधि से किसी दूसरे दस्तावेज से यांत्रिक अथवा वैद्युत रीति से नकल करके तैयार की गई सामग्री को पाण्डुलिपि नहीं कहा जा सकता है। 

पांडुलिपि का वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व हो सकता है और उसे कम से कम आधी सदी से पुरातन होना चाहिए। पांडुलिपियाँ मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं होतीं, बल्कि ये किसी सभ्यता में घटित परिवर्तनों की साक्षी भी होती हैं। प्राचीन सभ्यता का जीवंत इतिहास इनमें समाया होता है। ये प्राचीन दौर के मानव समुदायों के आस्था, विश्वास और व्यवस्थाओं की गवाह होती हैं और इन सबसे बढ़कर उस सभ्यता की विभिन्न परंपराओं और अनुभवों की मुखर प्रतिनिधि होती हैं।

Manuscript of Ramcharitmanas by Tulsidas
तुलसीदास कृत रामचरितमानस की चित्रित पांडुलिपि

भारत, मिस्र, ग्रीक, चीन सहित कई पुरातन सभ्यताओं का प्राचीन ज्ञान-परंपरा की समृद्धि की दृष्टि से दुनियाभर में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 50 लाख पांडुलिपियाँ हैं, जो सम्भवतः विश्व में सबसे बड़ी पांडुलिपियों की संख्या है। सब मिलाकर ये पांडुलिपियाँ ही भारत के इतिहास, संस्कृति, ज्ञान विज्ञान, साहित्य और जातीय स्मृतियों का जीवंत दस्तावेज हैं। ये पाण्डुलिपियाँ विभिन्न भाषाओं, लिपियों एवं विषयों की हैं। ये भारत के अन्दर और भारत के बाहर, सरकारी संस्थाओं, संग्रहालयों या निजी हाथों में हैं। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन - नमामि इन सबका पता लगाने, उन्हें सुरक्षित रखने, इनके दस्तावेजीकरण और उन्हें जनता के लिये सुलभ बनाने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है, जिससे हमारे अतीत को इसके वर्तमान एवं भविष्य से जोड़ा जा सके। भारत में उपलब्ध पांडुलिपियाँ मुख्य रूप से शारदा लिपि, देवनागरी, ग्रंथ लिपि, बंगला, ओड़िया, कैथी आदि में लिपिबद्ध हैं।

प्राचीन पांडुलिपियाँ मानव सभ्यता की अमूल्य निधि हैं। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा न होने के कारण पाठ सामग्री वाचिक परंपरा के माध्यम से संचरित होती थीं या शिलांकित अथवा हस्तलिखित रूप में संरक्षित होती थीं। हस्तलिखित ग्रंथों के कई संस्करण होते हैं, जो वाचन करने वालों के लिए कई प्रकार की समस्या उत्पन्न कर देते हैं। परिणामतः मूल पाठ का अन्वेषण अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

प्राचीन युग के दुर्लभ ग्रंथों और अभिलेखों के लिए पाठ-शोध की विशेष आवश्यकता होती है। पाठानुसंधान या पाठ-शोध ऐसी बौद्धिक और वैज्ञानिक विधि है, जिससे पाठ के संबंध में निर्णय देते हुए मूलपाठ का निर्धारण किया जाता है। कुछ लोग इसे साहित्यिक आलोचना का अंग भी मानते हैं। पाठ से तात्पर्य उस लेख से है, जो किसी भाषा में लिपिबद्ध हो, जिसका अर्थ ज्ञात हो या नहीं भी हो सकता है। किसी रचना के विभिन्न पाठों से युक्त प्रतिलिपियों के अध्ययन, अनुशीलन एवं निश्चित सिद्धांतों के अनुगमन द्वारा उस रचना के मूलपाठ तक पहुँचने की प्रक्रिया पाठ-शोध या पाठानुसंधान है। इसे पाठ-संपादन और पाठालोचन भी कहा जाता है। पाठ-शोध का मूल उद्देश्य पाठ का मूल लेखक कौन था, मात्र यह जानना ही नहीं है, वरन विशेष तौर पर यह जानना होता है कि रचना का मूलस्वरूप क्या था और उसका निहितार्थ क्या है।

किसी भी क्षेत्र में पाठ संशोधन के मुख्यतः दो स्रोत हो सकते हैं- मुख्य सामग्री और सहायक सामग्री। मुख्य सामग्री के अंतर्गत मूल लेखक के पाठ जैसे स्वहस्तलेख (पांडुलिपि), प्रथम प्रतिलिपि, प्रतिलिपि की अन्य प्रतियों को देखा जा सकता है। सहायक सामग्री के अंतर्गत भोजपत्र, ताड़पत्र, पत्थर, कागज़, सिक्के आदि आते हैं।

पाठानुसंधान की प्रक्रिया अत्यंत वैज्ञानिक और दुरूह प्रक्रिया है। इसके प्रमुख चरण हैं- सर्वप्रथम सामग्री संकलन और वंश-वृक्ष का निर्माण, इस वंश-वृक्ष निर्माण विधि को जर्मन भाषावैज्ञानिक कार्ल लाचमान ने प्रसिद्ध किया। तत्पश्चात साम्य और अंतर के आधार पर पाठ निर्धारण और प्रतिलिपियों के संबंध का निर्धारण, पाठ में भाषा और वर्तनी संबंधी आवश्यक सुधार तथा पाठ का सम्यक् विवेचन करते हुए मूल पाठ का निर्धारण।

वर्तमान में पाठ सम्पादन के क्षेत्र में नवीन विधियों का प्रयोग भी किया जा रहा है। जीवविज्ञान की विधि क्लैडिस्टिक्स का इस्तेमाल इस क्षेत्र में भी किया जा रहा है। इसमें एक विशेष कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की सहायता से पाठ शोध किया जाता है। इस विधि का इस्तेमाल इंगलैंड के प्रसिद्ध कवि ज्योफ्रे चॉसर की 14 वीं शताब्दी में लिखी गई कहानियों की पुस्तक कैंटरबरी टेल्स के पाठ सम्पादन के लिए किया गया। इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि ज्योफ्रे चॉसर की अंतिम और सर्वोतम रचना के रूप में प्रतिष्ठित कैंटरबरी टेल्स में दो गद्य रूप में तथा बाइस पद्य रूप में कहानियों का संग्रह है। इससे अंग्रेजी साहित्य में आधुनिक अर्थ में जीवन के यथार्थ चित्रण की परंपरा की शुरुआत होती है। कवि ने कहानियों की उद्भावना स्वयं न करके समस्त यूरोपीय साहित्य तथा जनसाधारण में प्रचलित आख्यायिकाओं को आधार बनाया है। इसीलिए इनमें विविधता है। इस कृति की चौरासी उपलब्ध पांडुलिपियों में से मूल पाठ को खोजना बेहद मुश्किल था, जिसके लिए जीवविज्ञान की विधि क्लैडिस्टिक्स का सार्थक इस्तेमाल किया गया।

जाहिर है कि पाठ सम्पादन का कार्य अत्यंत चुनौतियों से भरा हुआ है तथा इस दिशा में नितनवीन संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं।

अक्षर वार्ता : 
सम्पादकीय से
आप सभी सुधीजनों के आत्मीय सहकार- सहयोग से ‘अक्षर वार्ता’ मौलिक और गुणवततापूर्ण शोध के प्रसार एवं उन्नयन के साथ ही नवीन शोध दिशाओं के अन्वेषण में सन्नद्ध है। इसे और गतिशीलता देने के लिए आपके सक्रिय सहकार और सुझावों का सदैव स्वागत रहेगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ईमेल  shailendrasharma1966@gmail.com                                                         
डॉ मोहन बैरागी 
संपादक
ईमेल  aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी । संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)। प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, 
(May 2016)

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