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20210118

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma    

प्रेमचंद : परिचय

प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के समीप लमही ग्राम में हुआ था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क थे। वे अजायब राय व आनन्दी देवी की चौथी संतान थे। पहली दो लड़कियाँ बचपन में ही चल बसी थीं। तीसरी लड़की के बाद वे चौथे स्थान पर थे। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा। सात साल की उम्र से उन्होंने एक मदरसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत की जहाँ उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी सीखी। जब वे केवल आठ साल के थे तभी लम्बी बीमारी के बाद आनन्दी देवी का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली परंतु प्रेमचंद को नई माँ से कम ही प्यार मिला। धनपत को अकेलापन सताने लगा। किताबों में जाकर उन्हें सुकून मिला। उन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, फ़ारसी और अँग्रेज़ी साहित्य की अनेकों किताबें पढ़ डालीं। कुछ समय बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज में दाख़िला ले लिया।


1895 में पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। तब वे नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। लड़की एक सम्पन्न जमीदार परिवार से थी और आयु में उनसे बड़ी थी। उनका यह विवाह सफ़ल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन करते हुए 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। उनकी तीन संतानें हुईं–श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।


1897 में अजायब राय भी चल बसे। प्रेमचंद ने जैसे-तैसे दूसरे दर्जे से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तंगहाली और गणित में कमज़ोर होने की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में उन्होंने प्राइवेट से इंटर और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।


वाराणसी के एक वकील के बेटे को 5 रु. महीना पर ट्यूशन पढ़ाकर ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ी। कुछ समय बाद 18 रु. महीना की स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई। सन् 1900 में सरकारी टीचर की नौकरी मिली और रहने को एक अच्छा मकान भी मिल गया।


धनपत राय ने सबसे पहले उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखा। प्रेमचंद ने 14 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय व संस्मरण आदि लिखे। उनकी कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। प्रेमचंद ने मुंबई में रहकर फ़िल्म ‘मज़दूर’ की पटकथा भी लिखी।


प्रेमचंद काफ़ी समय से पेट के अल्सर से बीमार थे, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अक्तूबर, 1936 को क़लम के इस सिपाही ने सबसे विदा ले ली। 


गोदान - मुंशी प्रेमचंद

Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान पीडीएफ - मुंशी प्रेमचंद.pdf

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Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान - मुंशी प्रेमचंद.pdf


प्रेमचंद का रचना संसार :


प्रेमचंद भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे मशहूर लेखकों में से एक हैं, और बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण हिन्दुस्तानी लेखकों में से एक के रूप में जाना जाता है। उनकी रचनाओं में चौदह उपन्यास, लगभग 300 कहानियाँ, कई निबंध और अनेक विदेशी साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद शामिल है। उनके उपन्यासों में गोदान, गबन, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प और निर्मला बहुत प्रसिद्ध हैँ। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया।


उन्होंने 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। ‘गोदान’, ‘गबन’ आदि उनके उपन्यासों और ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि कहानियों पर फ़िल्में भी बनीं।


उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कहानियों को 'मानसरोवर' में संजोकर प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक कहानियाँ देश-भर के पाठ्यक्रमों में समाविष्ट हुई हैं, कई पर नाटक व फ़िल्में बनी हैं जब कि कई का भारतीय व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।


विषय, मानवीय भावना और समय के अनंत विस्तार तक जाती उनकी रचनाएँ इतिहास की सीमाओं को तोड़ती हैं, और कालजयी कृतियों में गिनी जाती हैं। उनका रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। परतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं के बीच राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण यह उपन्यास लेखक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बहुत ऊँचा उठाता है।


देश की नवीन आवश्यकताओं, आशाओं की पूर्ति के लिए संकीर्णता और वासनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से देश सेवा की आवश्यकता उन दिनों सिद्दत से महसूस की जा रही थी। रंगभूमि की पूरी कथा इन्हीं भावनाओं और विचारों में विचरती है। कथानायक सूरदास का पूरा जीवनक्रम, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की छवि लगती है। सूरदास की मृत्यु भी समाज को एक नई संगठन-शक्ति दे गई। विविध स्वभाव, वर्ग, जाति, पेशा एवं आय वित्त के लोग अपने-अपने जीवन की क्रीड़ा इस रंगभूमि में किये जा रहे हैं। और लेखक की सहानुभूति सूरदास के पक्ष में बनती जा रही है। पूरी कथा गाँधी दर्शन, निष्काम कर्म और सत्य के अवलंबन को रेखांकित करती है। यह कृति कई अर्थों में भारतीय साहित्य की धरोहर है। 


अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। उनकी कहानियों में अनेक मनोवैज्ञानिक बारीक़ियाँ भी देखने को मिलती हैं। विषय को विस्तार देना व पात्रों के बीच में संवाद उनकी पकड़ को दर्शाते हैं। ये कहानियाँ न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उत्कृष्ट साहित्य समझने की दृष्टि भी प्रदान करती हैं।


ईदगाह, नमक का दारोगा, पूस की रात, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, पंच-परमेश्वर, आदि अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें पाठक कभी नहीं भूल पाएँगे। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियां परिवेश बुनती हैं। पात्र चुनती हैं। उसके संवाद बिलकुल उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि में घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार हैं, लेकिन वे घटना को ज्यों का त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-जमुनी संगम है। कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।


मुंशी प्रेमचंद और उनका गोदान : 


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (1880 – 1936 ई.) युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में समादृत हैं।प्रेमचंद का गोदान सर्वाधिक चर्चित एवं पठनीय उपन्यास है। हिंदी उपन्यासकारों में प्रेमचन्द को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विषमताओं पर करारा प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज भी की है। निःसंदेह, प्रेमचन्द एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्यकार हैं, जिनकी प्रत्येक रचना भारतीय जन-जीवन का आईना है तथा हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। 


प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है, वह आम आदमी की व्यथा कथा है, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी। गांवों की अव्यवस्था, किसान की तड़प, ग्रामीण समाज की विसंगतियां, अंधविश्वास, उत्पीड़न और पीड़ा की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है - गोदान। उनकी चिर-परिचित शैली का जीता-जागता उदाहरण है गोदान, जो जमीन से जुड़ी हकीकतों को बेनकाब करता है।


प्रेमचंद के बिना भारतीय भाषाओं के कथा - साहित्य की वह छलांग संभव नहीं थी, जिस पर हम आज अभिमान करते हैं।मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम, जिसे हर किसी ने सुना और पढ़ा है। लेखन के विविध विधाओं के बीच वे मूलत: युग प्रवर्तक कथाकार थे। अपने अभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाइयों के चलते उन्होंने जनजीवन से तादात्म्य स्थापित कर साहित्य की पूंजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल है। देश के लिए उनके देखे सपने, आशाएँ और आकांक्षाएँ अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं। 


प्रेमचंद को पहला हिंदी लेखक माना जाता है जिनका लेखन प्रमुखता यथार्थवाद पर आधारित था। उनके उपन्यास गरीबों और शहरी मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों के बारे में जनता में जागरूकता लाने के लिए साहित्य का उपयोग किया और भ्रष्टाचार, बाल विधवा, वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, उपनिवेशवाद के लिए और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित विषयों पर लिखा। उन्होंने 1900 के दशक के अंत में कानपुर में राजनीतिक मामलों में रुचि लेना शुरू किया था, और यह उनके शुरुआती काम में दिखाई देता है, जिनमें देशभक्ति का रंग था। शुरू में उनके राजनीतिक विचार मध्यम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले से प्रभावित थे, पर बाद में, उनका झुकाव और अधिक कट्टरपंथी बाल गंगाधर तिलक की ओर हो गया। उन्होंने सख्त सरकारी सेंसरशिप के कारण, उन्होंने अपनी कुछ कहानियों में विशेषकर ब्रिटिश सरकार का उल्लेख नहीं किया, पर लेकिन मध्यकालीन युग और विदेशी इतिहास के बीच अपने विरोध को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया।


1920 में, वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सामाजिक सुधार के लिए संघर्ष से प्रभावित थे। प्रेमचंद का ध्यान किसानों और मजदूर वर्ग के आर्थिक उदारीकरण पर केंद्रित था, और वे तेजी से औद्योगिकीकरण के विरोधी थे, जो उनके अनुसार किसानों के हितों के नुक्सान और श्रमिकों के आगे उत्पीड़न का कारण बन सकता था।


प्रेमचंद का कथा साहित्य सही अर्थों में आधुनिक युग का क्लासिक है। वे सहज भारतीय मनुष्य के साथ गतिशील रचनाकार हैं। मानवीय चिंताओं को लेकर वे आजीवन क्रियाशील बने रहे। उनकी दृष्टि समूची मानवता पर टिकी है, किंतु स्वराज से लेकर सुराज तक का प्रादर्श और उसकी जमीनी हकीकत उनकी आंखों से ओझल नहीं रही। यही वजह है कि वे जहां सार्वकालिक और शाश्वत मानवता और उसकी प्रतिष्ठा के लिए सार्वकालिक और शाश्वत साहित्य की बात करते हैं, वही अपने राष्ट्र एवं समाज से जुड़ी जटिल समस्याओं से किंचित भी विमुख नहीं हैं। वे सही अर्थों में सामान्य जनता की समस्याओं के प्रामाणिक चित्रण करने वाले पहले उपन्यासकार हैं और नए ढंग के प्रथम कथा शिल्पी भी।


प्रेमचंद ठोस भारतीय जमीन पर खड़े कथाकार हैं। उन्हें न तो आयातित विचारों के पूर्वाग्रही साँचे में जकड़ा जा सका और न किसिम - किसिम की कहानियों के आंदोलन के दौर में अप्रासंगिक ही ठहराया जा सका।  भारतीय परिवेश में वंचित - शोषित वर्ग, किसान और स्त्री जीवन से जुड़ी विसंगतियों को लेकर उन्होंने निरन्तर लिखा। ऐसे विषयों पर गहरी समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द अपने समय से आगे दिखाई देते हैं। किसान और शोषित वर्ग के जीवन के यथार्थ चित्रण में वे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय दिखाई देते हैं। हाल के दशकों में उभरे कई विमर्शों के मूल सूत्र प्रेमचंद के यहां मौजूद हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों में भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों का तीखा प्रतिकार दिखाई देता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में गोदान, सेवासदन, रंगभूमि या प्रेमाश्रम के चरित्र और प्रसंग आज भी हमारे आसपास देखे जा सकते हैं। वैसी ही ऋणग्रस्तता, अविराम शोषण, रूढ़ियाँ और वर्गीय अंतराल आज भी भारतीय समाज की सीमा बने हुए हैं। ऐसे में प्रेमचंद का कथा साहित्य व्यापक बदलाव के लिए तैयार करता है।


गोदान किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रासद दस्तावेज है। यह प्रेमचन्द का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936 ई में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें भारतीय जीवन मूल्यों के साथ गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का व्यापक परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में भारत के किसानों की स्थिति का जीवन्त चित्रण है। साथ ही भारतीय किसान के लिए उनके पशु के महत्त्व को जीवन्त किया गया है। गरीब किसान जो महाजनों के कर्ज और लगान में दबकर जीने को मजबूर हैं, परन्तु वह हिम्मत नही हारता है। होरी की बड़ी तमन्ना थी कि द्वार पर एक दुधारू गाय बंधी हो, जिस की सेवा कर के वह संसार सागर से पार हो जाए। भोला की मेहरबानी से ऐसी एक गाय हाथ आ भी गई, किंतु छोटे भाई की ईर्ष्या से वह जल्दी ही हमेशा के लिए होरी से छिन भी गई। इस गाय के चक्कर में होरी ने अपना क्या नहीं खोया? किस का कर्जदार नहीं हुआ? किस की बेगार नहीं की? फिर भी क्या वह अंतिम समय में गोदान कर सका? ‘कृषक जीवन का महाकाव्य’ माने जाने वाले इस उपन्यास ‘गोदान’ में प्रेमचंद के संचित अनुभव एवं उन की निखरी हुई कला सहज ही दिखाई देती है इस में सामंतों, साहूकारों, धर्म के ठेकेदारों की  करतूतों को भी बखूबी उजागर किया गया है।


होरी एक जोड़ा बैल खरीदता है पर उसका भाई उसे जहर देकर मार डालता है, जिसके कारण होरी का पूरा परिवार तबाह हो जाता है। गोदान में भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी सामाजिक - आर्थिक चेतना को चित्रित किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में ब्रिटिश समय में अभावग्रस्त ग्रामीणों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। इस कृति में होरी और धनिया सामाजिक वर्ग संघर्ष के अमर प्रतीक है।


गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का  प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की ग्राम्य संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुवास है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में पात्र और जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जड़ें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, राय साहब और दातादीन और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। 


e - content | Online Study Material - Hindi | Prof. Shailendra Kumar Sharma | ई - कंटेंट | ऑनलाइन अध्ययन सामग्री - हिंदी | प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

हिंदी विश्व पेज : 


https://drshailendrasharma.blogspot.com/p/e-content-online-study-material-hindi.html

 

20200725

प्रेमचंद और हमारे समय के सवाल : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand & Questions of our time - Prof. Shailendra Kumar Sharma

कथा सम्राट प्रेमचंद और हमारे समय के सवाल : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा |विशेष व्याख्यान | 
Special Lecture on Premchand aur Hamare Samay ke Sawal | Prof. Shailendra Kumar Sharma


गांधी और अंबेडकर की तरह आज प्रेमचंद भी जरूरी - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

प्रेमचंद जयंती के अवसर पर पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित प्रेमचंद जयंती उत्सव 2020 के अंतर्गत आनलाइन विशेष व्याख्यान शृंखला का आयोजन किया जा रहा है। इसी व्याख्यान शृंखला के अंतर्गत विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा शामिल हुए। उन्होंने 'प्रेमचंद और हमारे समय के सवाल' विषय पर अपने व्याख्यान दिया। 




प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि प्रेमचंद ने अपने समय में जो सवाल महिला, दलित एवं शोषित वर्ग की ओर से खड़े किए वह आज भी ज्यों के त्यों ही बने हुए हैं। उन्होंने बताया कि जो छलांग प्रेमचंद के लेखन द्वारा हिंदी कहानियों और उपन्यासों ने विश्व स्तर पर लगाई हैं वह यदि प्रेमचंद नहीं हुए होते तो कई दशक तक हम नहीं लगा पाते और प्रेमचंद ने बड़ी सहजता से ही यह कर दिया।

प्रेमचंद के समक्ष उस समय की चुनौती पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि प्रेमचंद को जहां अंदर रूढ़िग्रस्त समाज पर चोट पहुंचानी थी तो साथ ही साथ बाहर अंग्रेजी हुकूमत पर भी प्रहार करना था और प्रेमचंद इस चुनौती को स्वीकारते हुए अपने लेखन में पूरी तरह सफल भी हुए। प्रेमचंद के साहित्य के कालजयी होने के संदर्भ में उन्होंने कहा कि कृत्रिम बुद्धिमता (Artificial Intelligence) के इस युग में धन केंद्रित सभ्यता मनुष्य को भौतिक पदार्थ बना रही है, जिसे प्रेमचंद ने उस समय ही देखते हुए जो सवाल खड़े किए वह आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं। 

प्रो शर्मा ने विशेष तौर पर बताया कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य में न केवल स्वराज बल्कि सुराज की मांग की तथा प्रेमचंद की दृष्टि में चेहरे बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदलती, जबकि सबसे अधिक महत्व ही व्यवस्था में बदलाव का होता है। उन्होंने प्रेमचंद को बुद्ध, महावीर, गांधी, अंबेडकर, कबीर तथा तुलसीदास जैसे महान विचारकों के समकक्ष रखते हुए कहा कि प्रेमचंद आज भी समाज में उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 

इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से पचहत्तर से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया जिनमें चेन्नई, गुवाहाटी, समस्तीपुर, चंदौली, दिल्ली और विभाग के शोधार्थी एवं विद्यार्थी शामिल रहे। 

विभागाध्यक्ष डॉ. गुरमीत सिंह ने बताया कि हिंदी विभाग हर वर्ष प्रेमचंद जयंती उत्सव का आयोजन करता रहा है। इस वर्ष महामारी के कारण यह उत्सव ऑनलाइन माध्यम से आयोजित किया जा रहा है जिसमें एक पखवाड़े तक अनेक कार्यक्रमों को आयोजित किया जा रहा है। इसकी शुरुआत विशेष व्याख्यान शृंखला की पहली कड़ी के रूप में डॉ. हरीश नवल के व्याख्यान के साथ हुई थी। 





इसके अतिरिक्त 21 जुलाई को प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित कहानी वाचन शृंखला की भी शुरुआत की गई जिसमें अब तक चार कहानियां विभाग के फेसबुक पेज से प्रसारित की जा चुकी हैं तथा इस शृंखला को लेकर भी देशभर से खासा उत्साह देखने को मिला। कार्यक्रम में प्रो. नीरजा सूद, प्रो. नीरज जैन, प्रो. सत्यपाल सहगल, प्रो. पंकज श्रीवास्तव एवं डॉ. राजेश जायसवाल आदि अनेक शिक्षक भी शामिल रहे।







इस पखवाड़े में विशेष व्याख्यान शृंखला के अलावा लघुकथा लेखन प्रतियोगिता भी करवाई गई जिसमें प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि तक देश के तमाम हिस्सों से विद्यार्थियों ने 50 से अधिक लघुकथाएं भेजी हैं। 












पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग का वेब आयोजन |कार्यक्रम की वीडियो विभाग के फेसबुक पेज पर उपलब्ध है। वहां से सुन सकते हैं :

फेसबुक लिंक पर जाएँ : 












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