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20210110

दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Hindi in the World: Exploring Possibilities in the Twenty-first Century - Prof. Shailendra Kumar Sharma

यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए सौ से अधिक देशों में बसे भारतीय संकल्प लें


स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में  संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 


विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर भारत नॉर्वेजियन सांस्कृतिक फोरम, ओस्लो, नॉर्वे, स्पाइल दर्पण और वैश्विका अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रोफेसर अवनीश कुमार, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं समालोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं विख्यात नृतत्त्वशास्त्री प्रो मोहनकान्त गौतम, नीदरलैंड थे। आयोजन की पीठिका प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार, अनुवादक और मीडिया विशेषज्ञ श्री शरद चन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने प्रस्तुत की। 


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी की संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी

संगोष्ठी का प्रसारण फेसबुक पर देखा जा सकता है : 

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10224227242325952&id=1149296433







आयोजन की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके, श्री रवि शर्मा, लन्दन, डॉ विनोद कालरा, जालन्धर, श्री सुरेश पांडेय, स्टॉकहोम, स्वीडन, डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ, डॉ मुकेश कुमार मिश्र, बस्ती, श्री अभिषेक त्रिपाठी, बेलफास्ट, आयरलैंड, श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, ओस्लो, नॉर्वे आदि ने हिंदी के वैश्विक परिदृश्य पर प्रकाश डाला। यह संगोष्ठी दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित थी।




 


मुख्य वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति और हमारी अस्मिता को आधार देती है। हिंदी सहित भारतीय भाषाएं सही अर्थों में ऐश्वर्य प्रदान करने का माध्यम हैं। प्रवासी भारतीय अपनी भाषाओं को प्रोत्साहन देते हुए आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा हो, एक सौ दस से अधिक देशों में बसे भारतीय इसका संकल्प लें। दुनिया के विभिन्न भागों में अनेक स्वैच्छिक और साहित्यिक संस्थाएं हिंदी के प्रसार का काम कर रही हैं, उन्हें नए परिवेश के अनुरूप आधार मिलना चाहिए। देवनागरी के साथ हिंदी के नैसर्गिक रिश्ते को व्यापक फलक पर प्रसारित करने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी हिंदी की है। शिक्षा, अनुसंधान, सांस्कृतिक - भावात्मक एकता, साहित्यिक अभिव्यक्ति और जनसंचार माध्यमों से  हिंदी की नई संभावनाएं उजागर हो रही हैं। विश्व हिंदी दिवस को मनाते हुए हिंदी के साथ आत्म स्वाभिमान का भाव जगाना होगा।





 
वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रो अवनीश कुमार ने कहा कि हिंदी के विकास में विदेशों में बसे भारतीय महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। आभासीय माध्यम से लोग परस्पर जुड़ रहे हैं। नए दौर में दूरियां कम हुई हैं। हिंदी एवं विदेशी भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद कार्य में तेजी आनी चाहिए। भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के द्वारा शब्दावली निर्माण, शब्दकोश एवं विश्वकोश के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। ये सभी पारस्परिक अनुवाद के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। नई शिक्षा नीति में  मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा पर बल दिया गया है। इससे मौलिक चिंतन में वृद्धि होती है।




वरिष्ठ लेखक एवं नृतत्त्वशास्त्री प्रोफेसर मोहनकांत गौतम, नीदरलैंड ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी के लिए बहुत कार्य किया है। उनके काम को भारत में प्रचार प्रसार मिलना चाहिए। भारत हम लोगों के लिए माता पिता की तरह है, वहां से प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले, यह जरूरी है। भारतीय स्कूलों में पाठ्यक्रम के माध्यम से यह बताया जाए कि प्रवासी भारतीयों ने अनेक चुनौतियों के बावजूद बाहर जाकर क्या किया। भारत से बाहर बसे लोग भारत को निरंतर ढूंढते रहते हैं। सांस्कृतिक और भाषाई एकता से सारी दुनिया में बसे भारतवंशी जुड़ें, यह जरूरी है। हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुसार बना है। संस्कृत का व्याकरण संज्ञा केंद्रित है, जबकि हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुकरण के कारण क्रिया केंद्रित बन गया है। उन्होंने साउथ एशियन लिटरेचर एंड लैंग्वेज एसोसिएशन जैसी संस्था के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया, जो हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं और साहित्य के विकास के लिए कारगर सिद्ध होगी।




वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने नॉर्वे सहित  स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी की  प्रगति और संभावनाओं पर प्रकाश डाला।  उन्होंने कहा कि स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली है। श्री शुक्ल ने विगत दिनों प्रकाशित चर्चित काव्य संग्रह लॉक डाउन की चुनिंदा रचनाओं का पाठ किया।  


वरिष्ठ प्रवासी कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके ने अपनी कविता मैं सबकी प्रिय हिंदी हूँ सुनाई। उनकी एक रचना की पंक्तियों ने भरपूर दाद बटोरी, चल निकल चलें तेरे जहां गुलिस्ता से, कौन जानता है कि राह किधर ले जाए। 


डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ ने श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक द्वारा कोविड-19 महामारी के दौर की संवेदनाओं को लेकर दुनिया की किसी भी भाषा में रचित पहली काव्य कृति लॉक डाउन की समीक्षा प्रस्तुत की।




प्रो आशुतोष तिवारी, स्वीडन ने कहा कि प्रवासी भारतीयों के मन में भारत बसता है। वे वैश्विक मंच पर हिंदी को पहुंचा रहे हैं। भाषा लोगों को जोड़ती है उससे सामाजिक दृष्टिकोण विकसित होता है। स्वीडन में हिंदी में प्रकाशन किया जा रहा है।




श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, नॉर्वे ने हिंदी शिक्षण के लिए नॉर्वे में उनके द्वारा प्रारंभ किए गए पहले स्कूल के अनुभवों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हिंदी के जरिए भारतीय संस्कृति से जुड़ाव हो, यह जरूरी है। बच्चों को खेल, कविता, नृत्य, नाटक आदि गतिविधियों के माध्यम से हिंदी से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। मातृभाषा वास्तविक भावनाओं की भाषा होती है। बच्चे मातृभाषा के माध्यम से जल्दी सीख सकते हैं। पारिवारिक भावना का विकास भी इसके माध्यम से किया जा सकता है।


श्री रवि शर्मा, लंदन ने कहा कि हिंदी के विस्तार में सिनेगीतों का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपना गीत सुनाया जिसकी पंक्तियाँ थीं, बिना हम सफर के सफर कम नहीं था, पुरानी थी नैया भंवर कम नहीं था।


डॉक्टर गंगाधर वानोड़े, हैदराबाद ने कहा कि देश विदेश में हिंदी प्रचार - प्रसार के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। लगभग पचास देशों के विद्यार्थी केंद्रीय हिंदी संस्थान में अध्ययन कर रहे हैं। संस्थान द्वारा विभिन्न भाषाओं के अध्येता कोशों और पाठमालाओं का प्रकाशन किया गया है।


कार्यक्रम में डॉ मुकेश मिश्र, बस्ती ने भी विचार व्यक्त किए। 


डॉ विनोद कालरा, जालंधर ने कहा कि हिंदी हमारी अस्मिता के केंद्र में हैं। हमारा हर पल, हर क्षण हिंदी का हो यह आवश्यक है। उन्होंने मैं खुशबू बन कर लौटूंगी शीर्षक कविता सुनाई,  जिसकी पंक्तियां थीं, तुम भले ही मुझे भूल चुके, मैं तेरे जीवन के आंगन में खुशबू बनकर लौटूंगी।


श्री प्रवीण गुप्ता, नॉर्वे, श्री सुरेश पांडेय, स्वीडन एवं श्री गुरु शर्मा ओस्लो ने अपनी कविताएँ सुनाईं। श्री अभिषेक त्रिपाठी, आयरलैंड ने यह जो अपनी हिंदी है और सूरज और दीपक के संवाद पर केंद्रित कविता सुनाईं।

कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण सोशल मीडिया के माध्यम से किया गया, जिसे देश दुनिया के सैकड़ों लोगों ने देखा। 


कार्यक्रम का संयोजन वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने किया।


ज्ञातव्य है कि विश्व हिंदी दिवस  प्रत्येक वर्ष 10 जनवरी को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। देश दुनिया की हिंदी सेवी संस्थाओं और सरकारी विभागों के साथ विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं।

20171221

चंद्रकांत देवताले: जीवन की साधारणता के असाधारण कवि

        जीवन की साधारणता के असाधारण कवि 


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले अब हमारे बीच नहीं रहे, सहसा विश्वास नहीं होता। नई कविता के फार्मूलाबद्ध होने के बाद उन्होंने अपना अलग काव्य मुहावरा गढ़ा था। पिछली सदी के महानतम कवि मुक्तिबोध पर उन्होंने न केवल महत्त्वपूर्ण शोध किया था, वरन उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि पर खड़े होकर तेजी से बदलते समय और समाज की पड़ताल भी गहरी रचनात्मकता के साथ की। उनकी कविताएँ जहाँ माँ, पिता, औरत, पेड़, बारिश और आसपास के आम इंसान को बड़ी सहजता, किन्तु नए अंदाज से दिखाती हैं तो भयावह होती सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को तीखेपन के साथ उजागर भी करती हैं। मेहनतकश जनता और निम्न वर्ग सदैव उनके दृष्टिपथ में रहे, जिनके असमाप्त अहसान को वे आपाद मस्तक स्वीकार करते हैं। उन्होंने लिखा है, 

‘जो नहीं होते धरती पर

अन्न उगाने, पत्थर तोड़ने वाले अपने

तो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी।‘ 

Chandrkant Dewtale by Prabhu Joshi व्यक्ति चित्र: श्री प्रभु जोशी 

संवेदनविहीन व्यवस्था और प्रजातन्त्र की विद्रूपताओं के बीच असमाप्त संघर्ष के साथ जीवन यापन करते आम आदमी की पीड़ा उनमें पैबस्त थी। इसीलिए वे प्रेम और ताप को बचाए रखने की चिंता करते रहे,

‘ अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर

खून की जाँच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।‘ 

उनकी कविताओं में एक खास किस्म की बेचैनी नजर आती है, जो अमानवीय होते समय और समाज के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया देती है, 

‘पर कौन खींचकर लाएगा

उस निर्धनतम आदमी का फोटू  

सातों समुन्दरों के कंकडों के बीच से

सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़

यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था।‘

उनकी कविताओं में वैसी ही सादगी, आत्मीयता और आम आदमी के प्रति निष्ठा नज़र आती है, जैसी उनके स्वभाव में थी। साधारणता को उन्होंने अपने जीवन और कविता में सदा बरकरार रखा, जो उनकी असाधारण पहचान का निर्धारक बन गया। वे लिखते हैं, 

‘यदि मेरी कविता साधारण है

तो साधारण लोगों के लिए भी

इसमें बुरा क्या मैं कौन खास

गर्वोक्ति करने जैसा कुछ भी तो नहीं मेरे पास।‘

गम्भीरता को उन्होंने कभी नहीं ओढ़ा। कोई व्यक्ति एक बार भी उनसे मिलता तो उन्हें भूल नहीं सकता था। प्रायः फोन पर वे बड़े गम्भीर अंदाज में अपने समानधर्मा साहित्यकारों से बात की शुरूआत करते, फिर कुछ ऐसी चुटकी लेते कि हँसी का झरना फूट पड़ता था। उज्जैन के साथ उनका एक बार जो सम्बन्ध बना, वह अटूट बना रहा। उनकी कविताओं में उज्जैन और मालवा के अनेक बिम्ब नई भंगिमा के साथ उतरे हैं। राजस्व कॉलोनी स्थित उनका आवास तरह तरह के पेड़ - पौधों के बीच पक्षियों और श्वानों का बसेरा था, जहाँ वे मूक प्राणियों की सेवा में जुटे रहते थे।
देवताले जी का यह कहना उनके काव्य रसिकों के लिए पता नहीं अब कैसे चरितार्थ हो सकेगा,
 ‘मैं आता रहूँगा उजली रातों में
 चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए।‘

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

(देवताले जी का व्यक्ति  चित्र: श्री प्रभु जोशी, विख्यात चित्रकार और साहित्यकार)







(चित्र: प्रो चंद्रकांत देवताले के साथ उज्जैन प्रवास पर आए प्रो टी वी कट्टीमनी एवं प्रो जितेंद्र श्रीवास्तव संग प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की अंतरंग मुलाकातें)


प्रो चन्द्रकान्त देवताले

आधुनिक हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर श्रीचंद्रकांत देवताले का जन्म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पीएच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से की थी। देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन से संबद्ध रहे। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर(1973), दीवारों पर ख़ून से (1975); लकड़बग्घा हँस रहा है (1970), रोशनी के मैदान की तरफ़ (1982), भूखण्ड तप रहा है (1982), आग हर चीज में बताई गई थी (1987), पत्थर की बैंच (1996) आदि। वे उज्जैन के शासकीय कालिदास कन्या महाविद्यालय के प्राचार्य एवं प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन के निदेशक भी रहे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वे उज्जैन में साहित्य साधना कर रहे थे। उनका निधन 14 अगस्त 2017 को दिल्ली में लंबे उपचार के बाद हुआ। 

देवताले जी को उनकी रचनाओं के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें प्रमुख हैं- कविता समय सम्मान -2011, पहल सम्मान -2002, भवभूति अलंकरण -2003, शिखर सम्मान -1986, माखन लाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान आदि। उन्हें कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए वर्ष 2012 में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। उनकी कविताओं के अनुवाद प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में और कई विदेशी भाषाओं में हुए हैं। 

देवताले जी की कविता में समय और सन्दर्भ के साथ ताल्लुकात रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। उनकी कविता में समय के सरोकार हैं, समाज के सरोकार हैं, आधुनिकता के आगामी वर्षों की सभी सर्जनात्मक प्रवृत्तियां उनमें हैं। उत्तर आधुनिकता को भारतीय साहित्यिक सिद्धांत के रूप में न मानने वालों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि देवताले जी की कविता में समकालीन समय की सभी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से आप उत्तरआधुनिकता को मानें या न मानें, ये कविताएँ आधुनिक जागरण के परवर्ती विकास के रूप में रूपायित सामाजिक सांस्कृतिक आयामों को अभिहित करने वाली हैं। देवताले की कविता की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में हैं। उसमें मानव जीवन अपनी विविधता और विडंबनाओं के साथ उपस्थित हुआ है। कवि में जहाँ व्यवस्था की कुरूपता के खिलाफ गुस्सा है, वहीं मानवीय प्रेम-भाव भी है। वह अपनी बात सीधे और मारक ढंग से कहते हैं। कविता की भाषा में अत्यंत पारदर्शिता और एक विरल संगीतात्मकता दिखाई देती है।

20170624

सिडनी - ऑस्ट्रेलिया में प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा साहित्य सिंधु सम्मान से अलंकृत

सिडनी में आयोजित हुआ अंतरराष्ट्रीय साहित्य समारोह और शोध संगोष्ठी


सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय साहित्य समारोह और शोध संगोष्ठी में समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा को साहित्य सिंधु सम्मान से अलंकृत किया गया। अंतरराष्ट्रीय साहित्य कला मंच द्वारा वाइब सभागार, सिडनी में आयोजित इस समारोह में पहले दिन प्रो शर्मा को सम्मान - पत्र, प्रतीक चिह्न, सम्मान राशि,  शॉल, रुद्राक्ष एवं स्फटिक माला अर्पित कर प्रमुख अतिथि एम. एल. सी. डॉ जयपाल सिंह व्यस्त, डॉ प्राण जग्गी, अमेरिका,  पूर्व कुलपति डॉ रवींद्र कुमार वर्मा, डॉ विद्याबिन्दु सिंह, डॉ महेश दिवाकर  एवं डॉ देवकीनंदन शर्मा ने सम्मानित किया। यह सम्मान वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री हरिशंकर आदेश द्वारा स्थापित किया गया है।

 प्रो. शर्मा ने दिनांक 15-16 जून 2017 तक आयोजित अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह में ‘हिंदी का वैश्विक महत्त्व और संभावनाएं’ पर एकाग्र बीज वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि यह दौर हिंदी की वैश्विक महत्ता और स्वीकार्यता के साथ विविध क्षेत्रों में उसकी नई संभावनाओं के विस्तार का दौर है। विश्वभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए हिंदी प्रेमियों और निकायों से लेकर शासन-प्रशासन, शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और हिंदीसेवियों के अविराम प्रयत्नों की दरकार है। विश्व स्तर पर हिन्दी के शिक्षण – प्रशिक्षण के लिए योजनाबद्ध प्रयत्न आवश्यक हैं। विदेशों में राजनयिक क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग -  प्रसार के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंध दस्तावेजों के हिंदी में आदान - प्रदान की व्यवस्था अनिवार्य हो। इसी तरह डिजिटल संसार में विश्व की प्रमुख भाषाओं के बीच हिंदी की हिस्सेदारी उसके प्रयोक्ताओं के अनुपात में कम दिखाई दे रही है। इस लक्ष्य को अगले दशक के मध्य तक हासिल करना बेहद जरूरी है। व्यापार – व्यवसाय से लेकर विज्ञान-प्रौद्योगिकी सहित विविध ज्ञानानुशासनों के अध्ययन - अनुसन्धान में हिन्दी के प्रयोग में वृद्धि हो। हिंदी सूचना, मनोरंजन या सृजन की भाषा ही न रहे, वह ज्ञान, विज्ञान और विचार की संवाहिका बने, यह जरूरी है।




         इस अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में शासकीय माधव कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, उज्जैन की प्रो. राजश्री शर्मा 'उच्च शिक्षा संस्थानों में माध्यम भाषा की चुनौती और संभावनाएं' विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया। इस अवसर पर उन्हें अतिथियों द्वारा  साहित्यश्री सम्मान से सम्मानित किया गया। आयोजन में किशोर कलाकार अंश शर्मा को अतिथियों ने सम्मानित कर आशीर्वाद दिया।
















इस अंतरराष्ट्रीय समारोह एवं शोध संगोष्ठी में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया सहित भारत के पन्द्रह से अधिक राज्यों के साहित्य मनीषी, शिक्षाविद् और संस्कृतिकर्मियों ने भाग लिया। इस अवसर पर काव्य एवं विचार गोष्ठियों का आयोजन भी किया गया।

प्रो शर्मा की इस उपलब्धि पर अनेक शिक्षाविद्, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकारों ने हर्ष व्यक्त कर प्रो शर्मा को बधाई दी।  विगत तीन दशकों से समीक्षा एवं अनुसंधानपरक लेखन में निरंतर सक्रिय प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है। उन्होंने शब्दशक्ति सम्बन्धी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी काव्यशास्त्र, देवनागरी विमर्श, मालवा का लोकनाट्‌य माच और अन्य विधाएं, हिन्दी भाषा संरचना, मालवी भाषा और साहित्य, अवन्ती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व आदि सहित तीस से अधिक पुस्तकों का लेखन एवं सम्पादन किया है। शोध पत्रिकाओं और ग्रन्थों में उनके 250 से अधिक शोध एवं समीक्षा निबंधों तथा 750 से अधिक कला एवं रंगकर्म समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। आपने भाषा, साहित्य और लोक संस्कृति से जुड़ी अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठी और कार्यशालाओं का समन्वय किया है।

(प्रस्तुति: डॉ अनिल जूनवाल)







20170506

बैंकाक (थाईलैण्ड) में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत हुए प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

बैंकाक (थाईलैण्ड) में विश्व हिन्दी मंच एवं सिल्पकार्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस में मुझे हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में किये गये विनम्र प्रयासों के लिए विश्व हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत किया गया।बैंकाक (थाईलैण्ड) का यह प्रवास कई अर्थों में एक यादगार अनुभव रहा। आयोजन की रपट , फोटोग्राफ्स और कांफ्रेस के दौरान अर्धागिनी प्रो. राजश्री शर्मा एवं सुपुत्र अंश शर्मा  के साथ संस्कृत स्टडी सेंटर,सिल्पकार्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के बाहर स्थापित गणेश मंडप के सम्मुख यादगार छायाचित्र यहाँ प्रस्तुत हैं । 

इस अवसर पर डा. अनिल जूनवाल की रपट देखिये   -  

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को बैंकाक (थाईलैण्ड) में विश्व हिन्दी मंच एवं सिल्पकार्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के संयुक्त तत्वावधान में 17-21 अक्टूबर 2013 तक आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत किया गया। उन्हें यह सम्मान सिल्पकार्न विश्वविद्यालय के सभागार में आयोजित समारोह में थाईलैण्ड के प्रख्यात विद्वान प्रो. चिरापद प्रपंडविद्या, संस्कृत स्टडी सेंटर के निदेषक डा. सम्यंग ल्युमसाइ एवं हिन्दी के प्रो. बमरूंग काम-एक के कर-कमलों से अर्पित किया गया। इस सम्मान के अंतर्गत उन्हें सम्मान-पत्र एवं ग्रंथ अर्पित किये गये। प्रो. शर्मा साहित्य और विश्व शांति पर केंद्रित इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के विशिष्ट अतिथि थे। उन्होंने वैश्विक साहित्य और विश्व शांतिपर केंद्रित शोध पत्र प्रस्तुत किया। उनकी धर्मपत्नी एवं माधव कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, उज्जैन की प्रो. श्रीमती राजश्री शर्मा ने इस सम्मेलन में लिटरेचर, कल्चर एण्ड ग्लोबल हार्मोनीपर विषय पर अपना  शोध पत्र प्रस्तुत किया।

प्रो. शर्मा को यह सम्मान विगत ढाई दशकों से हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में किये गये उल्लेखनीय लेखन एवं कार्यों के लिए अर्पित किया गया। इस सम्मेलन में भारत, मारीशस एवं थाईलैण्ड के सौ से अधिक विद्वान, संस्कृतिकर्मी एवं साहित्यकार उपस्थित थे।
 
प्रो.  शर्मा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्व हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत किए जाने पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलपति प्रो. आर.सी.वर्मापूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, प्रो. टी.आर. थापक, प्रो. नागेश्वर रावकुलसचिव डा. बी.एल. बुनकर, इतिहासविद् डा. श्यामसुंदर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, नवसंवत नवविचार के अध्यक्ष डा. योगेश शर्मा, मित्रभारत के सचिव डा. दिनेश जैन, डा. भगवतीलाल राजपुरोहित, डा. शिव चौरसिया, डा. प्रमोद त्रिवेदी, डा. राकेश ढण्ड़, डा. जगदीशचंद्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डा. अरूण वर्मा, डा. जफर महमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डा. देवेन्द्र जोशी, डा. तेजसिंह गौड़, डा. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव नवनीत, श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक उत्तम, श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डा. राजेश रावल सुशील, डा. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डा. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे दर्पण, राजेन्द्र नागर निरंतर, अक्षय अमेरिया, डा. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल, युगल बैरागी आदि सहित अनेक शिक्षाविद्, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकारों ने हर्ष व्यक्त कर उन्हें बधाई दी। 

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत होने की खबर कई अखबारों और बेव पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । प्रमुख लिंक हैं- http://news.apnimaati.com/2013/10/blog-post_3516.html अपनी माटी http://www.palpalindia.com/2013/10/23/Ujjain-Proctor-critic-Prof-Vikram-University-Shailendra-Kumar-Sharma-news-hindi-india-26800.htmlhttp://navsahitykar.blogspot.in/2013/10/blog-post_24.html



 





  

20161130

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान और संचार के माध्यम के रूप में हिंदी

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बने हिंदी
अक्षर वार्ता: हिंदी विश्व विशेषांक, संपादकीय

ज्ञान मानव विकास का हमराह रहा है। इसी ज्ञान का व्यवस्थित और सुस्पष्ट रूप विज्ञान है। मानव सभ्यता की अविराम यात्रा के आधार में विज्ञान की महती भूमिका है। सुदूर अतीत से होते आ रहे वैज्ञानिक शोध हमारे वर्तमान और भावी जीवन के निर्धारक बनते आ रहे हैं। अनेक शाखा - प्रशाखाओं में विस्तृत विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को सुगम बनाने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इस क्षेत्र में होने वाले नित-नए आविष्कारों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़ा साहित्य हिन्दी सहित सभी जनभाषाओं में सुलभ हो। विशेष तौर पर आम जीवन से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सूचनाओं को आम व्यक्ति की भाषा में उपलब्ध करवाना जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सहज संचार के लक्ष्य को तभी साकार किया जा सकता है।
इस दिशा में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है, किन्तु उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों पर यद्यपि हिन्दी में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन अधिकांश पुस्तकों में गुणवत्ता का अभाव है। पुस्तकों में स्तरीय सामग्री विरले ही मिलती है। विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक लेखन कम ही हुआ है और संदर्भ ग्रंथ भी नगण्य हैं। लोकप्रिय विज्ञान के लिए लिखा तो बहुत कुछ किया जा रहा है, लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बद्ध सरल - सुबोध साहित्य, जो जन साधारण की समझ में आ सके, ऐसे लेखन की न्यूनता है। जनसंचार माध्यम, विशेष तौर पर समाचार पत्रों में विज्ञान संबंधी सूचनाओं और लेखों का अभाव सा है। इंटरनेट पर आज हिन्दी में विज्ञान और तकनीकी से जुडी गुणवत्तापूर्ण सामग्री अत्यंत सीमित है। इसे विकसित करने की आवश्यकता है। सामान्यतया विषय विशेषज्ञों की हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में लेखन के प्रति रुचि नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं- भाषागत कठिनाई, वैज्ञानिक जगत की घोर उपेक्षा, हिन्दी में लिखे आलेखों, शोधपत्रों को प्रस्तुत करने के लिए मंचों का अभाव, प्रकाशन की असुविधा आदि।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षण के लिए आवश्यक वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का हिन्दी में अब अभाव नहीं है। समस्या तब गहरा जाती है, जब विज्ञान लेखक इनका समुचित उपयोग नहीं करते हैं। यहाँ तक कि तमाम लेखक स्वयं नित नए शब्द गढ़ रहे होते हैं। इस अराजक स्थिति के कारण वैज्ञानिक पुस्तकों की भाषा का मानकीकरण नहीं हो पा रहा है। किसी भी भाषा की शब्दावली कितनी ही समृद्ध क्यों न हो, उसकी सार्थकता व्यवहार से ही हो सकती है। हिन्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक शोधपत्रों और आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए अंग्रेजी के समकक्ष विज्ञान मंचों की स्थापना की आवश्यकता है। आज ऐसे राष्ट्रीय मंचों का अभाव है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार, सम्मेलन आयोजित कर सकें और विज्ञान के बहुपृष्ठी चित्रात्मक शोधपत्रों का संकलन - प्रकाशन कर सकें। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को सरल भाषा में समझना और समझाना बहुत जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार का काम सिर्फ सूचना देना भर  नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करना है। इस प्रकार को दृष्टि को जन भाषा में वैज्ञानिक साहित्य को उपलब्ध कराए बगैर विकसित किया जाना सम्भव नहीं है।
राष्ट्र की प्रगति मे तकनीक क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वास्तविक प्रगति के लिये इंजीनियर का राष्ट्र की मूल धारा से जुडा होना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी ओर आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का माध्यम अंग्रेजी बनी हुई है। इस तरह हम अपने वैज्ञानिकों और अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर उन्हें न केवल जन सामान्य एवं देश के जमीनी यथार्थ से दूर कर रहे हैं, वरन् हम अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिकों को पश्चिम का रास्ता भी दिखा रहे हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड दी तो हम दुनिया से कट जाएंगे। किंतु क्या चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान जैसे देश वैज्ञानिक प्रगति में किसी भी देश से पीछे है। क्या ये राष्ट्र दुनिया से कटे हुये हैं। इन देशों में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी शिक्षा उनके अपनी राष्ट्रभाषा में होती है। वास्तव में वैश्विक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संपर्क के लिये केवल कुछ बड़े राष्ट्रीय संस्थानों और केवल कुछ वैज्ञानिकों और अभियंताओं का दायित्व होता है जो उस स्तर तक पहुंचते हुए आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। किंतु हम व्यर्थ ही असंख्य विद्यार्थियों को उनके जीवन के कई अमूल्य वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने मे व्यस्त रखते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना मे भारत से कही अधिक संख्या मे इंजीनियर तथा वैज्ञानिक विदेशों में जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का बहुत बड़ा कारण उनका अंग्रेजी में शिक्षण भी है। हिंदी को कठिन बताने के लिये कुछ जटिल और हास्यास्पद उदाहरण दिए जाते हैं, जो व्यर्थ हैं। हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः कई वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्द देवनागरी लिपि में लिखते हुए हिंदी में सहज ही अपनाये जा सकते हैं। अनेक राज्यों की ग्रंथ अकादमियां हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य प्रकाशित करती हैं, किंतु इन ग्रन्थों का उपयोग अपेक्षानुरूप नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण बहुत कम छप पाते हैं। अधिसंख्य विश्वविद्यालयो में तकनीकी शिक्षा की माध्यम भाषा अंग्रेजी ही है। राष्ट्रभाषा हिंदी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती है। विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यदि हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत करेगा, वहीं हम जन - जन में वैज्ञानिक दृष्टि का प्रसार करने में समर्थ होंगे। यही हिंदी भारतीय ग्रामों और नगरों के वास्तविक उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक का लाभ पहुंचाएगी। भारतेन्दु ने दशकों पहले इस बात का संकेत कर दिया था:
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
जाहिर है भूमंडलीकरण के दौर में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र की उपलब्धियों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब हिन्दी को सम्पूर्ण रूप से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बनाया जाएगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com
                                                             
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)।
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह (मुंबई), डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया (उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई/वाराणसी),  डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरुलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये।


20150523

देवनागरी विमर्श

देवनागरी विमर्श: भारतीय लिपि परम्परा में देवनागरी की भूमिका अन्यतम है। सुदूर अतीत में ब्राह्मी इस देश की सार्वदेशीय लिपि थी, जिसकी उत्तरी और दक्षिणी शैली से कालांतर में भारत की विविध लिपियों का सूत्रपात हुआ। इनमें से देवनागरी को अनेक भाषाओँ की लिपि बनने का गौरव मिला। देवनागरी के उद्भव-विकास से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी के साथ हमकदमी तक समूचे पक्षों को समेटने का प्रयास है डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- देवनागरी विमर्श। चार खण्डों में विभक्त इस पुस्तक की संरचना में नागरी लिपि परिषद्, राजघाट, नई दिल्ली और कालिदास अकादेमी के सौजन्य-सहकार में मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र की महती भूमिका रही है। अविस्मरणीय सम्पादन-सहकार संस्कृतविद् डॉ जगदीश शर्मा, साहित्यकार डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा, डॉ संतोष पण्ड्या और डॉ मोहसिन खान का रहा। यह ग्रन्थ प्रख्यात समालोचक गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी को समर्पित कर हम कृतार्थ हुए थे। आवरण-आकल्पन कलाविद् अक्षय आमेरिया का है।

देवनागरी विमर्श
सम्पादक: डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक: मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र
उज्जैन (म प्र)

इस पुस्तक के google books पर विवरण के लिए लिंक पर जाएं:

https://books.google.co.in/books/about/देवनागरी_विमर्.html?id=4o3vPgAACAAJ&redir_esc=y






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