दीपावली के पाँच दिन : लोक के साथ लोकोत्तर को जोड़ने का पर्व
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
दीपावली उत्सव के पाँच दिन अज्ञात भूतकाल से न जाने कितनी जातीय स्मृतियों, लोक एवं शास्त्र की परम्पराओं और सांस्कृतिक - सामाजिक मूल्यों को लेकर आते हैं। फिर में सब हमारे आसपास से जुड़ी पयार्वरणीय चेतना के साथ दोहराए जाते हैं। ऋतु, अंचल और कृषि उत्पादों के रंग इस उत्सव को चटकीला बनाते हैं। इसकी उत्सवी आभा में चमके चेहरे अमीर-गरीब, छोटे-बड़े का भेद मिटा देते हैं। आखिर सब उल्लास और उमंग में क्यों न डूबें, जब मौका महज धन-संपदा ही नहीं, इस जगत् की आधार और साक्षात् पराशक्ति लक्ष्मी के इस लोक में विचरण का हो और जो महल तथा झोंपड़ी के बीच अंतर नही करती।
लक्ष्मी, जिनके बिना सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु भी श्रीहीन हो जाते हैं, इस दौरान स्वयं अपना बसेरा तलाशने के लिए निकलती हैं। दीपावली पर उनके स्वागत को आतुर श्रद्धालु लोकमानस न सिर्फ इस उत्सव में रमता है, आगामी वर्ष भर सफल होने की तैयारी भी करता है। या यूँ कहें त्रिविध तापों से ग्रस्त लौकिक जीवन पर अलौकिकता की शीतल छाया का रम्य अनुभव पाता है।
धन तेरस से दिवाली तक : जब तीन दिनों में तीन पगों से नापा गया था ब्रह्माण्ड
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
दीपावली के उद्भव को लेकर कई पौराणिक एवं लोक मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता का सम्बन्ध देव और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के पौराणिक आख्यान से हैं, जिनके अनुसार इसी दिन समुद्र से लक्ष्मी का आविर्भाव हुआ था और उन्होंने विष्णु का वरण किया था। दीपावली के दो दिन पूर्व मनाए जाने वाले पर्व धनतेरस का संबंध इसी आधार पर विष्णु के एक अवतार धन्वन्तरि से जोड़ा जाता है, जो समुद्र से अर्जित चौदह रत्नों में एक अमृत-कुंभ लेकर प्रकट हुए थे। दूसरी मान्यता का संबंध राजा बलि और विष्णु के वामन अवतार की पौराणिक कथा से हैं। इसके अनुसार असुरराज बलि ने एक बार देवराज इन्द्र को परास्त कर तीनों लोकों में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। विष्णु ने दानवीर बलि से वामन रूप में तीन पग भूमि माँगी और फिर विराट होकर तीनों लोकों को फिर से प्राप्त कर बलि को पाताल में भेज दिया। विष्णु ने दीपावली के दिन ही लक्ष्मी सहित सभी देवी-देवताओं को बंधन से मुक्त कराया था। इसीलिए लक्ष्मी के स्वागत के दीप घर-घर जलाए जाते हैं।
एक अन्य मान्यता है कि इस दिन विष्णु ने राजा बलि से प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटाया था। तब बलि ने विष्णु से वरदान माँगा था कि दीपावली के तीन दिनों में जो व्यक्ति दीपदान करेगा वह यम की यातना से मुक्त रहेगा और उसके घर लक्ष्मी सदा निवास करेगी। इसी के आधार पर देश के कई भागों में धनतेरस की रात्रि को यम को दीपदान की प्रथा प्रचलन में है। एक मान्यता यह भी है कि विष्णु ने धनतेरस, नरक चतुदर्शी (या रूपचौदस) और दीपावली इन तीनों दिनों में ही तीन लोकों को अपने तीन पगों से नापा था, उसी महत्त्वपूर्ण प्रसंग की स्मृति को समर्पित होते हैं ये दिन। कुछ क्षेत्रों में गोबर से राजा बलि की मूर्ति बनाकर पूजने के पीछे भी यही आख्यान है ।
रूप चौदस- रूप चतुर्दशी
मालवा चित्रावण शैली में अखिलेश धूलजी बा की एक कृति
मांडणे का रचाव
सदियों से मांडना मंगल प्रतीक रहा है। परम्परा के साथ नवाचार ने इस विधा को व्यापक धरातल दिया है। दीपपर्व के साथ साथ यह अब अनेक मांगलिक अवसरों पर बनाया जा रहा है। घर - आँगन से चलकर अब यह बड़ी तादाद में प्रमुख स्थानों और मार्गों की भित्तियों पर भी उकेरा जा रहा है।
मांडना अंकन : डॉ. अर्चना गर्गे Archna Garge
मांडना अंकन : लोक कलाकार श्रीमती द्रौपदी देवी (मेरी पूज्य बुआ जी)
मांडना अंकन : नीतेश पांचाल
Shailendrakumar Sharma
Mandana Art| मांडना कला
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पारम्परिक कला और शिल्प रूप : मांडना, फड़, कावड़, कठपुतली, गवरी
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अंदर बाहर के अंधकार से मुक्ति का पर्व: दीपोत्सव के पाँच दिन - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
पत्रिका, परिशिष्ट परिवार, समस्त संस्करण, 8 नवम्बर 2023, बुधवार
दीपावली उत्सव के पाँच दिन - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आखिर अर्थ की देवी लक्ष्मी का अर्थ क्या है। लक्ष्मी जगत् के पालनकर्ता विष्णु की शक्ति हैं। उनका विष्णु के साथ अपृथक् संबंध माना गया है। लक्ष्मी शक्ति हैं तो विष्णु शक्तिमान्, लक्ष्मी धर्म हैं तो विष्णु उन्हें धारण करने वाले अर्थात् धर्मी। श्रीसूक्त, लक्ष्मीतन्त्र आदि में लक्ष्मी के तिरेपन नाम मिलते हैं, जिनमें श्री, देवी, ऋद्धि, ईश्वरी, माता, हेममालिनी, पद्मस्थिता, हिरण्यमयी आदि सम्मिलित हैं। आज अर्थ या धन की देवी की रूप में लोक में पूजित लक्ष्मी के शाब्दिक अर्थ अनेक और व्यापक हैं। वैदिक साहित्य में श्री और लक्ष्मी दोनों अलग-अलग शब्द हैं, कालांतर में दोनों का समन्वय हुआ। लक्ष्मी शब्द के मूल में ‘लक्ष्’ धातु है, जिसका अर्थ है- दर्शन और अंकन इसके आधार पर लक्ष्मी का अर्थ हुआ- सब प्राणियों को साक्षात् करने वाली, उनके शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे को देखने वाली। वे ईश्वर की सवर्सम्पद् हैं अन्य मतों से लक्ष्मी के मूल में ‘ला’ और ‘क्षिप्’ धातुएँ हैं, जिनसे लक्ष्मी शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। इनके आधार पर लक्ष्मी दान करने वाली देवी हैं। लक्ष्मी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में प्रकृति को प्रेरित करने वाली है। लक्ष्मी लक्षण के योग्य अर्थात् लक्ष्य पदार्थों की अवस्थामयी हैं। एक अन्य व्याख्या से वे प्रकृति, पुरुष, महत् आदि में स्थित होकर उन्हें प्रेरित करती हैं। वे जगत् निर्माण करती हैं, उसे जानती हैं और सबका मापन भी करती हैं।
लक्ष्मी के एक प्रमुख नाम श्री के भी कई अर्थ हैं इन अर्थों में लक्ष्मी करुण वाणी को सुनने वाली, सज्जनों के पापों को नष्ट करने वाली तथा गुणों से विश्व को व्याप्त करने वाली हैं। वे हरि अर्थात् विष्णु का शरीर हैं। वे शरणागत के पापों को नष्ट करती हैं और सभी कामनाएँ पूरी करती हैं। ऊपरी तौर पर धन-संपदा की देवी लक्ष्मी वस्तुत: साक्षात् ब्रह्म की ही शक्ति हैं, यह जगत् उनका ही रूप माना गया है।
दीपावली: लोक के साथ लोकोत्तर को जोड़ने का पर्वोत्सव - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
दक्षिण एशिया उपमहाद्वीप अनादिकाल से व्रत-पर्व-उत्सवों की पारम्परिक भूमि रहा है । यहाँ के व्रत-पर्व-उत्सव न जाने कितनी सभ्यताओं, संस्कृतियों और जातीय स्मृतियों को अपने अंदर समाए हुए हैं, जिनमें अलग-अलग अंचलों की स्थानीय गंध के साथ-साथ एकात्मता के अनोखे सूत्र उपस्थित हैं। अपने ढ़ंग के इस निराले उपमहाद्वीप का प्रतिनिधि और अनूठा त्यौहार है –दीपावली , जो एक साथ व्रत, पर्व और उत्सव को अपने में समाहित किए हुए है।
यह पर्व परम्परा के साथ वैज्ञानिकता, प्राचीन के साथ आधुनिक, वेद के साथ पुराण-आख्यान, शास्त्र के साथ लोक, संस्कृति के साथ सभ्यता, देवता के साथ मनुष्य और जातीय स्मृतियों के साथ सामाजिक गतिशीलता के अन्त: संवाद का पर्व है। यह लोक के साथ लोकोत्तर को जोड़ने का व्रत है और अनेक माध्यमों से छलकते उल्लास का उत्सव है। दीप पर्व से भारतीय संस्कृति के विविध तत्वों का संवाद इतना सहज और जैविक है कि यह पता लगाना मुश्किल लगता है कि किसकी, कहाँ और कितनी हिस्सेदारी है। सही अथों में यह समूचेपन का, मनुष्य के भरे-पूरेपन का उत्सव है।
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
कुलानुशासक
पूर्व कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन
ज्ञानवर्धक लेख।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार। सादर प्रणाम सर।
आत्मीय धन्यवाद
हटाएंअदभुत और ज्ञानवर्धक।
जवाब देंहटाएंप्रणाम सर
अनेक धन्यवाद
हटाएंअद्भुत जानकारी आदरणीय गुरुदेव प्रणाम चरण स्पर्श ��शुभ दीपावली
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद
हटाएंआदरणीय गुरूजी को प्रणाम ,दीपोत्सव मङ्गलं🙏
हटाएंसर जी सादर प्रणाम !
जवाब देंहटाएंअद्भुत !
अद्वितीय !
अकल्पनीय !
दुर्लभ जानकारी !
सर जी !
हार्दिक बधाई, सादर साधुवाद !
आत्मीय धन्यवाद
हटाएंअनेक धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरासबिहारी.सर जी सादर प्रणाम! अदभुत ज्ञान,सारगर्भित लेख, हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद
हटाएंहमारी पौराणिक कथाओं , परंपराओं को प्रसारित करता ज्ञानवर्धक लेख ।
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद
हटाएंसारगर्भित लेख आदरणीय , हमें गर्व है हमारी संस्कृति पर🙏
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद
हटाएंचरण वंदन मालवा संस्कृति पर आधारित लेख और सभी चित्र बहुत ही प्रेरणास्पद और जीवन के लिए उपयोगी इस प्रकार के चित्र हमारी संस्कृति की परंपराओं के ज्ञान में वृद्धि करते हैं
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद और आशीर्वाद
जवाब देंहटाएंहमारी संस्कृति की धरोहर को बनाए रखने में यह लेख बहुत ही सारगर्भित है
जवाब देंहटाएंगुरुजी सादर प्रणाम,
जवाब देंहटाएंअद्भुत एवं ज्ञानवर्धक लेखन; धार्मिक पौराणिक एवं लोक-परंपराओं का अद्भुत संगम।
ज्ञानवर्धक धार्मिक लेख पढ़कर अभिभूत हूँ!!!
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार सारगर्भित व्याख्या वर्तमान में इसकी उपयोगिता का बहुत महत्व है l
जवाब देंहटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं सादर प्रणाम सर जी
आदरणीय सर सादर नमन
जवाब देंहटाएंभारतीय लोकसंकृति व दीपोत्सव पर प्रकाशित लेख हमारे लिए प्रेरणादायक हे