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20210118

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma    

प्रेमचंद : परिचय

प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के समीप लमही ग्राम में हुआ था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क थे। वे अजायब राय व आनन्दी देवी की चौथी संतान थे। पहली दो लड़कियाँ बचपन में ही चल बसी थीं। तीसरी लड़की के बाद वे चौथे स्थान पर थे। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा। सात साल की उम्र से उन्होंने एक मदरसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत की जहाँ उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी सीखी। जब वे केवल आठ साल के थे तभी लम्बी बीमारी के बाद आनन्दी देवी का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली परंतु प्रेमचंद को नई माँ से कम ही प्यार मिला। धनपत को अकेलापन सताने लगा। किताबों में जाकर उन्हें सुकून मिला। उन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, फ़ारसी और अँग्रेज़ी साहित्य की अनेकों किताबें पढ़ डालीं। कुछ समय बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज में दाख़िला ले लिया।


1895 में पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। तब वे नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। लड़की एक सम्पन्न जमीदार परिवार से थी और आयु में उनसे बड़ी थी। उनका यह विवाह सफ़ल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन करते हुए 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। उनकी तीन संतानें हुईं–श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।


1897 में अजायब राय भी चल बसे। प्रेमचंद ने जैसे-तैसे दूसरे दर्जे से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तंगहाली और गणित में कमज़ोर होने की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में उन्होंने प्राइवेट से इंटर और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।


वाराणसी के एक वकील के बेटे को 5 रु. महीना पर ट्यूशन पढ़ाकर ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ी। कुछ समय बाद 18 रु. महीना की स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई। सन् 1900 में सरकारी टीचर की नौकरी मिली और रहने को एक अच्छा मकान भी मिल गया।


धनपत राय ने सबसे पहले उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखा। प्रेमचंद ने 14 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय व संस्मरण आदि लिखे। उनकी कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। प्रेमचंद ने मुंबई में रहकर फ़िल्म ‘मज़दूर’ की पटकथा भी लिखी।


प्रेमचंद काफ़ी समय से पेट के अल्सर से बीमार थे, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अक्तूबर, 1936 को क़लम के इस सिपाही ने सबसे विदा ले ली। 


गोदान - मुंशी प्रेमचंद

Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान पीडीएफ - मुंशी प्रेमचंद.pdf

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Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान - मुंशी प्रेमचंद.pdf


प्रेमचंद का रचना संसार :


प्रेमचंद भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे मशहूर लेखकों में से एक हैं, और बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण हिन्दुस्तानी लेखकों में से एक के रूप में जाना जाता है। उनकी रचनाओं में चौदह उपन्यास, लगभग 300 कहानियाँ, कई निबंध और अनेक विदेशी साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद शामिल है। उनके उपन्यासों में गोदान, गबन, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प और निर्मला बहुत प्रसिद्ध हैँ। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया।


उन्होंने 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। ‘गोदान’, ‘गबन’ आदि उनके उपन्यासों और ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि कहानियों पर फ़िल्में भी बनीं।


उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कहानियों को 'मानसरोवर' में संजोकर प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक कहानियाँ देश-भर के पाठ्यक्रमों में समाविष्ट हुई हैं, कई पर नाटक व फ़िल्में बनी हैं जब कि कई का भारतीय व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।


विषय, मानवीय भावना और समय के अनंत विस्तार तक जाती उनकी रचनाएँ इतिहास की सीमाओं को तोड़ती हैं, और कालजयी कृतियों में गिनी जाती हैं। उनका रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। परतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं के बीच राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण यह उपन्यास लेखक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बहुत ऊँचा उठाता है।


देश की नवीन आवश्यकताओं, आशाओं की पूर्ति के लिए संकीर्णता और वासनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से देश सेवा की आवश्यकता उन दिनों सिद्दत से महसूस की जा रही थी। रंगभूमि की पूरी कथा इन्हीं भावनाओं और विचारों में विचरती है। कथानायक सूरदास का पूरा जीवनक्रम, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की छवि लगती है। सूरदास की मृत्यु भी समाज को एक नई संगठन-शक्ति दे गई। विविध स्वभाव, वर्ग, जाति, पेशा एवं आय वित्त के लोग अपने-अपने जीवन की क्रीड़ा इस रंगभूमि में किये जा रहे हैं। और लेखक की सहानुभूति सूरदास के पक्ष में बनती जा रही है। पूरी कथा गाँधी दर्शन, निष्काम कर्म और सत्य के अवलंबन को रेखांकित करती है। यह कृति कई अर्थों में भारतीय साहित्य की धरोहर है। 


अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। उनकी कहानियों में अनेक मनोवैज्ञानिक बारीक़ियाँ भी देखने को मिलती हैं। विषय को विस्तार देना व पात्रों के बीच में संवाद उनकी पकड़ को दर्शाते हैं। ये कहानियाँ न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उत्कृष्ट साहित्य समझने की दृष्टि भी प्रदान करती हैं।


ईदगाह, नमक का दारोगा, पूस की रात, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, पंच-परमेश्वर, आदि अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें पाठक कभी नहीं भूल पाएँगे। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियां परिवेश बुनती हैं। पात्र चुनती हैं। उसके संवाद बिलकुल उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि में घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार हैं, लेकिन वे घटना को ज्यों का त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-जमुनी संगम है। कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।


मुंशी प्रेमचंद और उनका गोदान : 


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (1880 – 1936 ई.) युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में समादृत हैं।प्रेमचंद का गोदान सर्वाधिक चर्चित एवं पठनीय उपन्यास है। हिंदी उपन्यासकारों में प्रेमचन्द को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विषमताओं पर करारा प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज भी की है। निःसंदेह, प्रेमचन्द एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्यकार हैं, जिनकी प्रत्येक रचना भारतीय जन-जीवन का आईना है तथा हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। 


प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है, वह आम आदमी की व्यथा कथा है, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी। गांवों की अव्यवस्था, किसान की तड़प, ग्रामीण समाज की विसंगतियां, अंधविश्वास, उत्पीड़न और पीड़ा की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है - गोदान। उनकी चिर-परिचित शैली का जीता-जागता उदाहरण है गोदान, जो जमीन से जुड़ी हकीकतों को बेनकाब करता है।


प्रेमचंद के बिना भारतीय भाषाओं के कथा - साहित्य की वह छलांग संभव नहीं थी, जिस पर हम आज अभिमान करते हैं।मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम, जिसे हर किसी ने सुना और पढ़ा है। लेखन के विविध विधाओं के बीच वे मूलत: युग प्रवर्तक कथाकार थे। अपने अभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाइयों के चलते उन्होंने जनजीवन से तादात्म्य स्थापित कर साहित्य की पूंजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल है। देश के लिए उनके देखे सपने, आशाएँ और आकांक्षाएँ अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं। 


प्रेमचंद को पहला हिंदी लेखक माना जाता है जिनका लेखन प्रमुखता यथार्थवाद पर आधारित था। उनके उपन्यास गरीबों और शहरी मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों के बारे में जनता में जागरूकता लाने के लिए साहित्य का उपयोग किया और भ्रष्टाचार, बाल विधवा, वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, उपनिवेशवाद के लिए और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित विषयों पर लिखा। उन्होंने 1900 के दशक के अंत में कानपुर में राजनीतिक मामलों में रुचि लेना शुरू किया था, और यह उनके शुरुआती काम में दिखाई देता है, जिनमें देशभक्ति का रंग था। शुरू में उनके राजनीतिक विचार मध्यम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले से प्रभावित थे, पर बाद में, उनका झुकाव और अधिक कट्टरपंथी बाल गंगाधर तिलक की ओर हो गया। उन्होंने सख्त सरकारी सेंसरशिप के कारण, उन्होंने अपनी कुछ कहानियों में विशेषकर ब्रिटिश सरकार का उल्लेख नहीं किया, पर लेकिन मध्यकालीन युग और विदेशी इतिहास के बीच अपने विरोध को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया।


1920 में, वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सामाजिक सुधार के लिए संघर्ष से प्रभावित थे। प्रेमचंद का ध्यान किसानों और मजदूर वर्ग के आर्थिक उदारीकरण पर केंद्रित था, और वे तेजी से औद्योगिकीकरण के विरोधी थे, जो उनके अनुसार किसानों के हितों के नुक्सान और श्रमिकों के आगे उत्पीड़न का कारण बन सकता था।


प्रेमचंद का कथा साहित्य सही अर्थों में आधुनिक युग का क्लासिक है। वे सहज भारतीय मनुष्य के साथ गतिशील रचनाकार हैं। मानवीय चिंताओं को लेकर वे आजीवन क्रियाशील बने रहे। उनकी दृष्टि समूची मानवता पर टिकी है, किंतु स्वराज से लेकर सुराज तक का प्रादर्श और उसकी जमीनी हकीकत उनकी आंखों से ओझल नहीं रही। यही वजह है कि वे जहां सार्वकालिक और शाश्वत मानवता और उसकी प्रतिष्ठा के लिए सार्वकालिक और शाश्वत साहित्य की बात करते हैं, वही अपने राष्ट्र एवं समाज से जुड़ी जटिल समस्याओं से किंचित भी विमुख नहीं हैं। वे सही अर्थों में सामान्य जनता की समस्याओं के प्रामाणिक चित्रण करने वाले पहले उपन्यासकार हैं और नए ढंग के प्रथम कथा शिल्पी भी।


प्रेमचंद ठोस भारतीय जमीन पर खड़े कथाकार हैं। उन्हें न तो आयातित विचारों के पूर्वाग्रही साँचे में जकड़ा जा सका और न किसिम - किसिम की कहानियों के आंदोलन के दौर में अप्रासंगिक ही ठहराया जा सका।  भारतीय परिवेश में वंचित - शोषित वर्ग, किसान और स्त्री जीवन से जुड़ी विसंगतियों को लेकर उन्होंने निरन्तर लिखा। ऐसे विषयों पर गहरी समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द अपने समय से आगे दिखाई देते हैं। किसान और शोषित वर्ग के जीवन के यथार्थ चित्रण में वे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय दिखाई देते हैं। हाल के दशकों में उभरे कई विमर्शों के मूल सूत्र प्रेमचंद के यहां मौजूद हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों में भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों का तीखा प्रतिकार दिखाई देता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में गोदान, सेवासदन, रंगभूमि या प्रेमाश्रम के चरित्र और प्रसंग आज भी हमारे आसपास देखे जा सकते हैं। वैसी ही ऋणग्रस्तता, अविराम शोषण, रूढ़ियाँ और वर्गीय अंतराल आज भी भारतीय समाज की सीमा बने हुए हैं। ऐसे में प्रेमचंद का कथा साहित्य व्यापक बदलाव के लिए तैयार करता है।


गोदान किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रासद दस्तावेज है। यह प्रेमचन्द का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936 ई में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें भारतीय जीवन मूल्यों के साथ गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का व्यापक परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में भारत के किसानों की स्थिति का जीवन्त चित्रण है। साथ ही भारतीय किसान के लिए उनके पशु के महत्त्व को जीवन्त किया गया है। गरीब किसान जो महाजनों के कर्ज और लगान में दबकर जीने को मजबूर हैं, परन्तु वह हिम्मत नही हारता है। होरी की बड़ी तमन्ना थी कि द्वार पर एक दुधारू गाय बंधी हो, जिस की सेवा कर के वह संसार सागर से पार हो जाए। भोला की मेहरबानी से ऐसी एक गाय हाथ आ भी गई, किंतु छोटे भाई की ईर्ष्या से वह जल्दी ही हमेशा के लिए होरी से छिन भी गई। इस गाय के चक्कर में होरी ने अपना क्या नहीं खोया? किस का कर्जदार नहीं हुआ? किस की बेगार नहीं की? फिर भी क्या वह अंतिम समय में गोदान कर सका? ‘कृषक जीवन का महाकाव्य’ माने जाने वाले इस उपन्यास ‘गोदान’ में प्रेमचंद के संचित अनुभव एवं उन की निखरी हुई कला सहज ही दिखाई देती है इस में सामंतों, साहूकारों, धर्म के ठेकेदारों की  करतूतों को भी बखूबी उजागर किया गया है।


होरी एक जोड़ा बैल खरीदता है पर उसका भाई उसे जहर देकर मार डालता है, जिसके कारण होरी का पूरा परिवार तबाह हो जाता है। गोदान में भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी सामाजिक - आर्थिक चेतना को चित्रित किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में ब्रिटिश समय में अभावग्रस्त ग्रामीणों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। इस कृति में होरी और धनिया सामाजिक वर्ग संघर्ष के अमर प्रतीक है।


गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का  प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की ग्राम्य संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुवास है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में पात्र और जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जड़ें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, राय साहब और दातादीन और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। 


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20201030

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ | प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews | Prof. Shailendra Kumar Sharma

मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी - आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।  


उनके उपन्यास और कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। 


मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती हैं। उनकी कहानियों में आधुनिक जीवन का कोई-न-कोई विशिष्ट पहलू उजागर हुआ है। राकेश मुख्यतः आधुनिक शहरी जीवन के कथाकार हैं, लेकिन उनकी संवेदना का दायरा मध्यवर्ग तक ही सीमित नहीं है। निम्नवर्ग भी पूरी जीवन्तता के साथ उनकी कहानियों में मौजूद है। इनके कथा-चरित्रों का अकेलापन सामाजिक संदर्भो की उपज है। वे अपनी जीवनगत जद्दोजहद में स्वतंत्र होकर भी सुखी नहीं हो पाते, लेकिन जीवन से पलायन उन्हें स्वीकार नहीं। वे जीवन-संघर्ष की निरंतरता में विश्वास रखते हैं। पात्रों की इस संघर्षशीलता में ही लेखक की रचनात्मक संवेदना आश्चर्यजनक रूप से मुखर हो उठती है। हम अनायास ही प्रसंगानुकूल कथा-शिल्प का स्पर्श अनुभव करने लगते हैं, जो अपनी व्यंगात्मक सांकेतिकता और भावाकुल नाटकीयता से हमें प्रभावित करता है। इसके साथ ही लेखक की भाषा भी जैसे बोलने लगती है और अपने कथा-परिवेश को उसकी समग्रता में धारण कर हमारे भीतर उतर जाती है।

कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है। जीविकोपार्जन के लिये वे अध्यापन कार्य से संपृक्त रहे। वे कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक भी रहे। 'अषाढ़ का एक दिन' और 'आधे अधूरे' के रचनाकार के नाते 'संगीत नाटक अकादमी' से पुरस्कृत सम्मानित किए गए। उनका निधन जनवरी 1972 को नयी दिल्ली में हुआ।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं :

उपन्यास : अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल।
कहानी संग्रह : क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस
तथा अन्य कहानियाँ।
नाटक : आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, पैर तले की ज़मीन

शाकुंतल, मृच्छकटिक (अनूदित नाटक)

अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक, रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक (एकांकी)

बक़लम खुद, परिवेश (निबन्ध)

आखिरी चट्टान तक (यात्रावृत्त)

एकत्र (अप्रकाशित-असंकलित रचनाएँ)

बिना हाड़-मांस के आदमी (बालोपयोगी कहानी-संग्रह)

 मोहन राकेश रचनावली (13 खंड)।



आधे अधूरे - मोहन राकेश सम्पूर्ण के लिए लिंक

Adhe Adhure - Mohan Rakesh  


Adhe Adhure


आधे अधूरे समीक्षा - मोहन राकेश नोट्स पीडीएफ के लिए लिंक 

Adhe Adhure - Mohan Rakesh Notes PDF 

आधे अधूरे - मोहन राकेश समीक्षा पीडीएफ | Adhe Adhure - Mohan Rakesh Review PDF


आधे अधूरे समीक्षा

आधे अधूरे मोहन राकेश का एक चर्चित नाटक है। मोहन राकेश वैसे तो कथा, उपन्यास, संस्मरण के क्षेत्र में भी महारत रखते थे। किंतु, नाटकों के लिए ही ज्यादा याद किये जाते हैं। आधुनिक युग में मराठी, बांग्ला, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनेक चर्चित नाटककार हुए हैं। हिंदी में नाटककार कहते ही ज़हन में पहला नाम मोहन राकेश का ही उभरता है। मोहन राकेश ने इस नाटक के माध्यम से चार दीवार और छत से पूर्ण होनेवाले घर के भीतर की अपूर्णता व्यक्त की है। मनुष्य के मन का अधूरापन ही समस्त विसंगतियों की जड़ है।

आधे अधूरे : मनुष्य के आधे अधूरेपन की त्रासदी 

मोहन राकेश जी का यह नाटक अपने पहले मंचन (1969) से ही चर्चित रहा है। तब से अब तक अलग-अलग निर्देशकों और कलाकारों द्वारा इसका सैकडों बार मंचन हो चुका है और आज भी यह उतना ही प्रशंसित है। निर्देशकों के अनुसार यह रंगमंचीय दृष्टि से तो उपयुक्त है ही, इसका कथानक भी समकालीन जीवन की विडम्बना को सार्थक ढंग से व्यक्त करता है, जो बदलते परिवेश में भी प्रासंगिक है। दरअसल नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश या उसके कुछ समकालीन जिस 'आधुनिक भावबोध'  की बात कर रहे थे, वह 'विकास' की विषमता या नगरीकरण की विषमता के कारण, कुछ क्षेत्रों में अभी 'हाल' की घटना लगती है। भौगोलिक विषमता और 'विकास' के पहुंच की सीमा के कारण यदि तब यह सब लोगों की 'हकीकत' नहीं थी तो आज भी कई हिस्से इससे अछूते हो सकते हैं। बहरहाल लेखक यह चिंता नही करता कि उसकी रचना में व्यक्त 'सच' सबका 'सच' हो।




आधे–अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव–खंड को मूर्त करता है। इसके लिए हिंदी के जीवंत मुहावरे को पकड़ने की सार्थक, प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन, उनका क्रम, उनका संयोजन सबकुछ ऐसा है, जो बहुत संपूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यही शक्ति और उच्चारित ध्वनि–समूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य–रचना बंद और खुले, दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाए रख सकी। 


यह नाटक, एक स्तर पर स्त्री–पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज“ है, दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य–रचना मानवीय संतोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिंदगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् चरित्र निभाए जाने की दिलचस्प रंगयुक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में कहें तो आधे–अधूरे समकालीन जिन्दगी का पहला सार्थक हिंदी नाटक है । इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।





मोहन राकेश कहानी से नाटक की तरफ आये थे, मगर उनकी संवेदना और भावबोध का क्षेत्र लगभग वही रहा, महानगरीय जीवन के अलगाव, अजनबियत, एकाकीपन,,अतृप्त आकांक्षा आदि जो औद्योगीकरण के फलस्वरूप 'ग्रामीण जीवन' से 'नगरीय जीवन' मे संक्रमण से तीव्रता से प्रकट हुए थे। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि यह आजादी के बाद के महानगरीय जीवन के लक्षण हैं।


आधे अधूरे के कथानक के केन्द्र में एक मध्यमवर्गीय परिवार है, जिसमें पति-पत्नी के अलावा उनके दो बेटियां और एक बेटा है। अन्य पात्रों में तीन और पुरुष हैं। नाटक की सम्पूर्ण घटनाएं एक कमरे में घटित होती हैं, हालाकि संवाद से सम्पूर्ण परिवेश और उसका द्वंद्व उभर आता है। इस नाटक की 'केंद्रीय' चिंता क्या है?एक  'सामान्य' पाठक जब नाटक के आखिर तक (क्लाइमेक्स) पहुंचता है, तो उसे महसूस होता है; और लेखक भी इशारा (संवाद से) कर देता है कि दुनिया मे 'पूर्ण' कोई नही है; सब 'आधे-अधूरे' हैं। पूर्णता की तलाश बेमानी है। मनुष्य की महत्वाकांक्षा असीम है जो दुनिया के यथार्थ से हरदम मेल नही खाती, यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब आर्थिक सक्षमता पर्याप्त न हो। आदमी जो भी है, अपने खूबियों और कमियों के साथ है। सम्बन्धों का निर्वहन इस स्वीकार बोध के साथ ही सम्भव है,अन्यथा जीवन घसीटते गुजरता है। अवश्य अन्य परिस्थितियां नकारात्मक हो तो इसकी तीव्रता को बढ़ा देती हैं।


नाटक की केंद्रीय चरित्र सावित्री पढ़ी-लिखी, महत्वाकांक्षी, कामकाजी महिला है। वह जीवन को भरपूर जीना चाहती है, मगर ऐसा हो नही पा रहा है। इसका एक कारण, जो बहुत हद तक सही भी है, खराब आर्थिक स्थिति है। उसके अकेली नौकरी से पूरा घर चल रहा है। पति व्यवसाय में असफल होकर 'निकम्मा' हो गया है। बेटा पढ़ाई में असफल तो है ही कामचोर भी है; उस पर भी वह उसके लिए लगातार 'प्रयास' करती है। बड़ी बेटी 'लव मैरिज' कर भी सुखी नही है। छोटी बेटी की 'जरूरतें' पूरी नही हो पा रही हैं। ऐसे में उसका (सावित्री) खीझना, असहज महसूस करना स्वाभाविक भी लगता है। मानो उसकी अपनी जिंदगी खो सी गयी है। इससे उसके अंदर एक अतृप्ति का भाव पैदा होता है; और वह इसके 'तृप्ति' के चाह में कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है; मगर उसको 'तृप्ति' मिलती नही। वह द्वंद्व में जीती है। उसका एक मन घर से जुड़ता है तो दूसरा मन घर से दूर होना चाहता है। मगर समस्या यह भी है कि वह 'अतृप्त' तब भी थी जब सब कुछ ठीक ठाक था; आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पति का व्यवसाय भी चल रहा था। तब उसे शिकायत थी कि पति(महेन्द्रनाथ) के माता-पिता उसे (महेन्द्रनाथ) को अपनी जिंदगी नही जीने दे रहें है; उसे अपने गिरफ्त में रखना चाहते हैं। फिर कुछ समय बाद यह शिकायत महेन्द्रनाथ के दोस्तों पर प्रतिस्थापित हो गया कि वे उसको 'बर्बाद' कर रहे हैं। यानी समस्या की जड़ कहीं और है।


समस्या ख़ुद सावित्री के अंदर है, जिसे जुनेजा अच्छी तरह से उद्घाटित करता है। वह पुरुष में जिस 'पूर्णता' की कामना करती है; दरअसल जीवन मे वैसा होता ही नहीं। वह एक आदमी में 'सब कुछ' चाहती है; और न पाकर उसका उपहास करती है। उसकी 'कमजोरी' पर कभी खीझती है; कभी व्यंग्य करती है। मगर वह कभी एक पल के लिये नही सोच पाती कि समस्या की जड़ वह खुद है। शुरुआत में दर्शक की सहानुभूति उसके पक्ष में जाती है; वह वैवाहिक जीवन में पति से प्रताड़ित भी हुई है, आज वह पूरे घर के खर्च का निर्वहन कर रही है। लेकिन जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ता है;एक दूसरा सच भी स्पष्ट होने लगता है, जिसका सार जुनेजा के इस वक्तव्य में है, "असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करती कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली.उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा-कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें इन  किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती।


नाटक के अन्य पात्र देखा जाय तो इस 'केंद्रीय संवेदना' की सघनता को बढ़ाते हैं। सावित्री का पति महेन्द्रनाथ एक बेरोजगार व्यक्ति है; लगभग उपेक्षित; कोई उसकी परवाह नही करता। सावित्री की नज़र में एक 'रीढ़हीन' व्यक्ति, जो अपना निर्णय नहीं ले सकता। लेकिन किसी समय वह घर का 'प्रमुख' भी था; व्यवसाय में असफलता ने उसे बेरोजगार कर दिया है। हालांकि इस असफलता में घर मे किये गए उसके 'अनाप-शनाप' खर्च भी कारण रहा है, लेकिन इसकी किसी को परवाह नही. अवश्य महेन्द्रनाथ की अपनी मानवीय कमजोरियां हैं, लेकिन सावित्री की बार-बार उलाहना और व्यंग्य ने उसे कहीं अधिक कमजोर बना दिया है और हीनताबोध से ग्रसित हो गया है। वह एक तरह से प्रताड़ित और डरा हुआ है, इसलिए वह किसी पुरुष के घर आने पर कोई न कोई बहाना बनाकर बाहर चला जाता है, उस पर भी विडम्बना यह आरोप की उसमे किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं।


बड़ी बेटी बिन्नी मनोज से प्रेम विवाह करती है, जो वस्तुतः उसकी माँ सावित्री का 'प्रेमी' था। वह भी लगभग उसी द्वंद्व से ग्रसित। दोनों एक- दूसरे को समझ नही पा रहे। सब कुछ ठीक होकर भी कुछ ठीक नही है। कहीं कुछ गड़बड़ है; मगर गड़बड़ क्या है? वह कहती भी है "वजह सिर्फ हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है" या फिर " वह कहता है कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नही रहने देती।" छोटी लड़की किन्नी भी भी अपने उम्र  से कुछ अधिक बर्ताव करती है। किसी के प्रति उसके अंदर सम्मान दिखाई नही देता। बेटा अशोक भी अपनी कोई जवाबदारी नही समझता। सावित्री के 'क्रियाकलापों' से वह असन्तुष्ट जरूर है, मगर खुद अपना 'विचलन' उसे दिखाई नही देता। सभी किसी न किसी 'मनोग्रंथि' से ग्रसित लगते हैं।


कुल मिलाकर पूरे घर के वातावरण में  अस्वाभाविकता, अलगाव, असंतुष्टि, व्याप्त है। कोई किसी को जानकर भी जानता नहीं। यह त्रासदी क्या एक विशिष्ट परिवार भर का है?दरअसल यह द्वंद्व पूरे मध्यमवर्ग का है, जहां बहुत सी आशाएँ, जरूरतें, सपने पूरे न होने पर घनीभूत होकर इस द्वंद्व और भी बढ़ा देते हैं। अभाव के आँच में सम्बन्धों के डोर टूटने लगते हैं। मगर अभाव ही इसका एकमात्र कारण नही है। हम सब इस बात को न स्वीकार पाने के लिए अभिशप्त हैं कि 'पूरा' कोई नहीं है सब 'आधे-अधूरे' हैं।



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