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20170506

बैंकाक (थाईलैण्ड) में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत हुए प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

बैंकाक (थाईलैण्ड) में विश्व हिन्दी मंच एवं सिल्पकार्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस में मुझे हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में किये गये विनम्र प्रयासों के लिए विश्व हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत किया गया।बैंकाक (थाईलैण्ड) का यह प्रवास कई अर्थों में एक यादगार अनुभव रहा। आयोजन की रपट , फोटोग्राफ्स और कांफ्रेस के दौरान अर्धागिनी प्रो. राजश्री शर्मा एवं सुपुत्र अंश शर्मा  के साथ संस्कृत स्टडी सेंटर,सिल्पकार्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के बाहर स्थापित गणेश मंडप के सम्मुख यादगार छायाचित्र यहाँ प्रस्तुत हैं । 

इस अवसर पर डा. अनिल जूनवाल की रपट देखिये   -  

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को बैंकाक (थाईलैण्ड) में विश्व हिन्दी मंच एवं सिल्पकार्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के संयुक्त तत्वावधान में 17-21 अक्टूबर 2013 तक आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत किया गया। उन्हें यह सम्मान सिल्पकार्न विश्वविद्यालय के सभागार में आयोजित समारोह में थाईलैण्ड के प्रख्यात विद्वान प्रो. चिरापद प्रपंडविद्या, संस्कृत स्टडी सेंटर के निदेषक डा. सम्यंग ल्युमसाइ एवं हिन्दी के प्रो. बमरूंग काम-एक के कर-कमलों से अर्पित किया गया। इस सम्मान के अंतर्गत उन्हें सम्मान-पत्र एवं ग्रंथ अर्पित किये गये। प्रो. शर्मा साहित्य और विश्व शांति पर केंद्रित इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के विशिष्ट अतिथि थे। उन्होंने वैश्विक साहित्य और विश्व शांतिपर केंद्रित शोध पत्र प्रस्तुत किया। उनकी धर्मपत्नी एवं माधव कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, उज्जैन की प्रो. श्रीमती राजश्री शर्मा ने इस सम्मेलन में लिटरेचर, कल्चर एण्ड ग्लोबल हार्मोनीपर विषय पर अपना  शोध पत्र प्रस्तुत किया।

प्रो. शर्मा को यह सम्मान विगत ढाई दशकों से हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में किये गये उल्लेखनीय लेखन एवं कार्यों के लिए अर्पित किया गया। इस सम्मेलन में भारत, मारीशस एवं थाईलैण्ड के सौ से अधिक विद्वान, संस्कृतिकर्मी एवं साहित्यकार उपस्थित थे।
 
प्रो.  शर्मा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्व हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत किए जाने पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलपति प्रो. आर.सी.वर्मापूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, प्रो. टी.आर. थापक, प्रो. नागेश्वर रावकुलसचिव डा. बी.एल. बुनकर, इतिहासविद् डा. श्यामसुंदर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, नवसंवत नवविचार के अध्यक्ष डा. योगेश शर्मा, मित्रभारत के सचिव डा. दिनेश जैन, डा. भगवतीलाल राजपुरोहित, डा. शिव चौरसिया, डा. प्रमोद त्रिवेदी, डा. राकेश ढण्ड़, डा. जगदीशचंद्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डा. अरूण वर्मा, डा. जफर महमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डा. देवेन्द्र जोशी, डा. तेजसिंह गौड़, डा. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव नवनीत, श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक उत्तम, श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डा. राजेश रावल सुशील, डा. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डा. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे दर्पण, राजेन्द्र नागर निरंतर, अक्षय अमेरिया, डा. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल, युगल बैरागी आदि सहित अनेक शिक्षाविद्, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकारों ने हर्ष व्यक्त कर उन्हें बधाई दी। 

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी सेवा सम्मान से अंलकृत होने की खबर कई अखबारों और बेव पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । प्रमुख लिंक हैं- http://news.apnimaati.com/2013/10/blog-post_3516.html अपनी माटी http://www.palpalindia.com/2013/10/23/Ujjain-Proctor-critic-Prof-Vikram-University-Shailendra-Kumar-Sharma-news-hindi-india-26800.htmlhttp://navsahitykar.blogspot.in/2013/10/blog-post_24.html



 





  

20150516

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान के अपूर्व प्रसार का दौर -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान : नई सम्भावनाएं - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 

वर्तमान दौर ज्ञान-विज्ञान की विविधमुखी प्रगति के साथ अंतर-अनुशासनिक अध्ययन और अनुसंधान के अभूतपूर्व प्रसार का दौर है। ज्ञान की रूढ़ सीमाओं के पार कुछ नया बनाने और उन्हें विस्तार देने का महत्त्वपूर्ण नजरिया है- अंतर-अनुशासनात्मकता। अंतरानुशासनिक विशेषण का प्रयोग मुख्य तौर पर शैक्षिक हलकों में किया जाता है, जहां दो या दो से अधिक अनुशासनों के शोधकर्ताओं द्वारा अपने दृष्टिकोणों का समन्वय किया जाता है तथा सामने आई समस्या के बेहतर रूप से अनुकूलित समाधान के लिए उन दृष्टिकोणों को संशोधित किया जाता है। इसी तरह यह पद्धति वहाँ भी प्रयुक्त होती है, जब समूह शिक्षण पाठ्यक्रम के मामले में छात्रों को कई पारंपरिक अनुशासनों के संदर्भ में किसी एक विषय को समझने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, भूमि के उपयोग के विषय को जब विभिन्न अनुशासनों, जैसे जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगोल, राजनीति विज्ञान आदि की दृष्टि से जांचा-परखा जाता है, तब वह हर बार अलग ढंग से सामने आ सकता है। अंतरानुशासनिकता दो या अधिक अकादमिक अनुशासनों का किसी एक गतिविधि, जैसे शोध परियोजना, में संयोजन है। यह विषयों की सीमाओं को अतिक्रांत कर उनसे परे सोचते हुए कुछ नया रचने का उपक्रम है। यह नई उभरती जरूरतों और व्यवसायों के अनुरूप किसी अंतरानुशासनिक क्षेत्र से सम्बद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अकादमिक अनुशासनों या चिंतन के विभिन्न संप्रदायों की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ते हुए उसे एक संगठनात्मक इकाई में पर्यवसित करती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान की पद्धति ज्ञान की बुनियादी समझ को विकसित करने या समस्याओं को हल करने के लिए विशेष कारगर रहती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान दो या दो से अधिक अध्ययन क्षेत्रों या विशेष ज्ञान के निकायों के माध्यम से शोध की एक ऐसी पद्धति है, जहां टीमों या व्यक्तियों द्वारा विविध सूचनाओं, डेटा, तकनीक, उपकरण, दृष्टिकोणों और अवधारणाओं को एकीकृत किया जाता है। अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन को लेकर डबल्यू नेवेल द्वारा संपादित ‘एडवांसिंग इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज़' पुस्तक में जे. क्लेन और डबल्यू. नेवेल (1998) द्वारा दी गई इसकी परिभाषा कुछ इस तरह है, जो व्यापक रूप से उद्धृत भी की जाती है- “किसी प्रश्न का उत्तर खोजने या किसी समस्या के समाधान, अथवा किसी ऐसे विषय को लक्ष्य बनाने की प्रक्रिया अंतरानुशासनात्मक अध्ययन है, जहाँ उस प्रश्न, समस्या या विषय के अत्यधिक व्यापक या जटिल होने के कारण है, किसी एकल अनुशासन या पेशे से उसका समुचित रूप में समाधान नहीं हो पाता है। इसके माध्यम से हम अनुशासनात्मक दृष्टिकोणों को ग्रहण करते हैं और फिर अपेक्षाकृत कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण की निर्मिति करते हुए गहरी अंतर्दृष्टि को समाहित करते हैं।“ (पृ. 393-4) जाहिर है यह अध्ययन पद्धति ज्ञान-विज्ञान की जटिलता और व्यापकता को अपेक्षया सुगम बनाने में विशेष तौर पर कारगर सिद्ध हो सकती है। वैसे तो अंतरानुशासनिक अनुसंधान प्राचीन युग से होते आ रहे हैं, जिनके प्रमाण पूर्व और पाश्चात्य- उभयदेशीय संदर्भों में बिखरे पड़े हैं। किन्तु आधुनिक युग में अंतर-अनुशासनात्मक शोध की विविधमुखी प्रगति दिखाई दे रही है। इसके विकास के पीछे कई कारण आधार में रहे हैं। जैसे- समाज एवं प्रकृति की जटिलता, नित-नई सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकता, उन समस्याओं या प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा, जिसे किसी एक अनुशासन के अंतर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता है, नई तकनीक की सामर्थ्य और उससे प्राप्त सुविधाएं, विश्वयुद्धों के बाद सामाजिक कल्याण, आवास, जनसंख्या, अपराध आदि से जुड़े प्रश्नों और समस्याओं का हल निकालने के लिए आदि आदि। एक अन्य स्तर पर अंतरानुशासनात्मकता को अत्यधिक विशेषज्ञता के हानिकारक प्रभावों के लिए एक ठोस उपाय के रूप में भी देखा जाता रहा है। कहीं पर अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन किसी विषय विशेषज्ञ के बिना है और कहीं पर एकाधिक क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। निश्चय ही दोनों स्थितियों में फर्क होगा।जहां कई अंतरानुशासनिकों द्वारा कार्य किया जाता है, वहाँ जरूरी है कि विषय के विशेषज्ञगण अपने-अपने विषयों के पार देखने और नया करने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित रखें। वे सभी ज्ञानमीमांसीय रूप से अपनी अत्यधिक विशेषज्ञता को समस्याओं के नए समाधान प्राप्त करने पर खुद को केन्द्रित करते हुए अंतःविषय सहयोग में प्रभावी भूमिका निभाएँ। तभी शोध के परिणामों को विभिन्न विषयों के ज्ञान को अद्यतन करने के लिए प्रत्यार्पित किया जा सकता है। इसीलिए अनुशासनिकों और अंतरानुशासनिकों- दोनों को एक दूसरे के पूरक संबंध में देखा जा सकता है। वर्तमान में विविध ज्ञानानुशासनों और भाषा-साहित्य के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। सभी अध्ययन क्षेत्रों में अंतरानुशासनिक अनुसंधान सहित शोध की अद्यतन प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता उन्नयन के प्रादर्श को साकार कर पाने में समर्थ सिद्ध होंगे। इस दिशा में दृष्टि-सम्पन्न शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगा। 'अक्षर वार्ता' परिवार शोध की नित-नूतन दिशाओं में सक्रिय मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत करता है। 

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा- प्रधान संपादक 0 डॉ मोहन बैरागी - संपादक 

(सम्पादकीय April 2015 Editorial अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015)

 
अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015 आवरण:अरालिका शर्मा cover: Aralika Sharma कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक शोध की अधुनातन प्रवृत्तियों को लेकर सजगता की दरकार करता है....अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस) प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com 
 

20141124

शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में गतिशील 'अक्षर वार्ता'

सम्पादकीय- नवंबर 2014 मानवीय ज्ञान की उन्नति और जीवन की सुगमता के लिए शोध की महत्ता एक स्थापित तथ्य है। प्रारम्भिक शोध का लक्ष्य नवीन तथ्यों का अन्वेषण था। इसके साथ क्रमशः व्याख्या-विवेचना का पक्ष जुड़ता चला गया। शोध की नई-नई प्रक्रिया-प्रविधियों के विकास के साथ मानवीय ज्ञान का क्षितिज भी विस्तृत होता चला गया। यह कहना उचित होगा कि वर्तमान विश्व शोध की असमाप्त यात्रा का एक पड़ाव भर है, चरम नहीं। मनुष्य के कई स्वप्न, कई कल्पनाएँ अब वास्तविकता में परिणत हो चुके हैं और अनेक साकार होने जा रहे हैं। यह सब अनुसंधान कर्ताओं की शोध-दृष्टि और उस पर टिके रहकर किए गए अथक प्रयासों से ही संभव हो सका है। सदियों पहले किए गए कई शोध आज की हमारी नई दुनिया की नींव बने हुए हैं। मुश्किल यह है कि हमारी नज़र कंगूरों पर टिकी होती है, नींव ओझल बनी रहती है। वस्तुतः ऐसे नींव के पत्थर बने शोधकर्ताओं को स्मरण किया जाना चाहिए। अनुसंधान की अनेकानेक पद्धतियाँ हैं, जो ज्ञानमीमांसा पर निर्भर करती हैं। यह दृष्टिकोण ही मानविकी और विज्ञान के भीतर और उनके बीच - दोनों में पर्याप्त भिन्नता ले आता है। अनुसंधान के कई रूप हैं- वैज्ञानिक, तकनीकी, मानविकी, कलात्मक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापार, विपणन, व्यवसायी अनुसंधान आदि। यह शोधकर्ता के दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है कि वह किस पद्धति को आधार बनाता है या उसका फोकस किस पर है। वर्तमान दौर में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी आई है। यह अनुसंधान डेटा संग्रह, जिज्ञासा के दोहन का एक व्यवस्थित तरीका है। यह शोध व्यापक प्रकृति और विश्व की सम्पदा की व्याख्या के लिए वैज्ञानिक सूचनाएं और सिद्धांत उपलब्ध कराता है। यह विविध क्षेत्रों से जुड़े व्यावहारिक अनुप्रयोगों को संभव बनाता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए पहले समस्या की तलाश करना होती है। तत्पश्चात उसकी प्राक्कल्पना करना होती है। उसके बाद अन्वेषण आगी बढ़ता है, जहां विविध प्रकार के आंकड़ों का परीक्षण-विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है। पूर्व-कल्पनाएं और अब तक प्राप्त तथ्य बार-बार पुनरीक्षित किए जाते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान विभिन्न प्रकार के संगठनों और कंपनियों सहित निजी समूहों द्वारा वित्तपोषित होते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान उनके अकादमिक और अनुप्रयोगात्मक अनुशासनों के अनुरूप विभिन्न आयामों में वर्गीकृत किए जा सकता हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान एक अकादमिक संस्था की प्रतिष्ठा को पहचानने के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी माना जाता है। लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं कि इस आधार पर संस्था का गलत आकलन होता है, क्योंकि अनुसंधान की गुणवत्ता शिक्षण की गुणवत्ता का संकेत नहीं करती है और इन्हें आवश्यक रूप से पूरी तरह एक-दूसरे से सहसंबद्ध नहीं किया जा सकता है। मानविकी के क्षेत्र में अनुसंधान में कई तरह प्रविधियाँ, उदाहरण के तौर पर व्याख्यात्मक और संकेतपरक आदि समाहित होती हैं और उनके सापेक्ष ज्ञानमीमांसा आधार बनती है। मानविकी के अध्येता आम तौर पर एक प्रश्न के परम सत्य उत्तर के लिए खोज नहीं करते हैं, वरन उसके सभी ओर के मुद्दों और विवरणों की तलाश में सक्रिय होते हैं। संदर्भ सदैव महत्वपूर्ण बना रहता है और यह संदर्भ, सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या जातीय हो सकता है। मानविकी में अनुसंधान का एक उदाहरण ऐतिहासिक पद्धति में सन्निहित है, जो ऐतिहासिक पद्धति पर प्रस्तुत किया जाता है। इतिहासकार एक विषय के व्यवस्थित अन्वेषण के लिए प्राथमिक स्रोतों और साक्ष्यों का प्रयोग करते हैं और तब अतीत के लेखे-जोखे के रूप में इतिहास का लेखन करते हैं। रचनात्मक अनुसंधान को 'अभ्यास आधारित अनुसंधान' के रूप में भी देखा जाता है। यह अनुसंधान वहाँ आकार लेता है, जब रचनात्मक कार्यों को स्वयं शोध या शोध के लक्ष्य के रूप में लिया जाता है। यह चिंतन का विवादी रूप है, जो ज्ञान और सत्य की तलाश में अनुसंधान की विशुद्ध वैज्ञानिक प्रविधियों के समक्ष एक विकल्प प्रदान करता है। शोध की प्रयोजनपरकता, स्तरीयता और गुणवत्ता की राह सुगम हो, यह विचार इस पत्रिका के लक्ष्यों में अन्तर्निहित है। शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में सक्रिय अनेक विद्वानों, मनीषियों और शोधकर्ताओं का सक्रिय सहयोग हमें मिल रहा है। सांप्रतिक शोध परिदृश्य में 'अक्षर वार्ता' रचनात्मक हस्तक्षेप का विनम्र प्रयास है , इस दिशा में आप सभी के सहकार के लिए हम कृतज्ञ हैं। पत्रिका को बेहतर बनाने के लिए आपके परामर्श हमारे लिए सार्थक सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा -प्रधान संपादक एवं डॉ मोहन बैरागी - संपादक

20140809

अक्षर वार्ता : शोध की अभिनव दिशाओं की तलाश में एक उपक्रम AKSHARWARTA: RESEARCH PAPER SUBMISSION GUIDELINES

Aksharwarta ISSN 2349-7521 International research journal is an international academic , interdisciplinary, Monthly, and fully  refereed journal focusing on theories, methods and applications in various fields like Arts, Humanities, Social Science, Mass Communication, Science. The Journal promotes the submission of manuscripts that meet the general criteria of significance and Research excellence.
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प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
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