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20201218

स्कन्दगुप्त - जयशंकर प्रसाद पाठ और समीक्षा | Skandagupt - Jaishankar Prasad -Text and Review

स्कन्दगुप्त - जयशंकर प्रसाद : पाठ और समीक्षा

Skandagupt - Jaishankar Prasad : Text and Review 

जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1890 - 15 नवम्बर 1937) हिन्दी के महान कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी कविता में एक तरह से छायावाद की स्थापना की, जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।


आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे, जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास और निबन्ध के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे, जिनके नाटक आज भी पाठक न केवल चाव से पढ़ते हैं, बल्कि उनकी अर्थगर्भिता तथा रंगमंचीय प्रासंगिकता भी दिनानुदिन बढ़ती ही गयी है। 




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कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। प्रसाद जी ने कंकाल, तितली, इरावती, जैसे उपन्यासों में समाज की घृणित और और ईर्ष्यापूर्ण मनोवृत्ति को उजागर किया। उन्होंने कंकाल में सामाजिक यथार्थ का चित्रण कर यह प्रमाणित किया कि वे अतीत में ही रमे रहने वाले रचनाकार नहीं थे, बल्कि उन्हें अपने समय के सामाजिक यथार्थ का भी गहरा बोध था।


प्रेमचंद युग में हिंदी कहानी को जयशंकर प्रसाद जैसी प्रतिभा मिली। इस दृष्टि से यह युग प्रेमचंद – प्रसाद युग के नाम से भी चर्चित है। दोनों महान रचनाकारों में से एक प्रेमचंद जहाँ कहानी को व्यापक सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से गतिशीलता दे रहे थे, वहीं प्रसाद उसके माध्यम से व्यक्ति की प्रतिष्ठा कर रहे थे। प्रेमचंद जहां कहानी के क्षेत्र में आदर्शोन्मुख यथार्थवादी परंपरा के प्रतिष्ठापक बने, वहीं प्रसाद भावमूलक परंपरा के। उस काल के अधिकांश कहानीकारों ने इन दोनों परंपराओं से अपने आप को जोड़ा।

छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा प्रवर्तित भावमूलक या स्वच्छंदता बोध की धारा ने महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। प्रेमचंद का रुझान जहां जीवन के चारों ओर फैले यथार्थ में था, वहीं प्रसाद का रुझान रूमानी था। प्रसाद का अनुराग संस्कृति और इतिहास के प्रति भी रहा है जो उनकी कहानियों के काल, चरित्रों और घटनाओं से प्रकट होता है। उनकी कहानियाँ वैयक्तिक भावनाओं के साथ स्थापित नैतिकता के द्वंद्व को सामने लाती हैं। प्रसाद जी ने लगभग 70 कहानियां लिखीं। उनकी प्रमुख कहानियों में आकाशदीप, पुरस्कार, प्रतिशोध, मधुआ, दासी, छोटा जादूगर आदि उल्लेखनीय हैं।

प्रसाद ने विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन किया। 48 वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की।

उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी बहुआयामी प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेंगे, जिन्होंने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से न केवल समृद्ध किया हो, बल्कि उन सभी विधाओं में काफी ऊँचा स्थान भी रखते हों।

स्कन्दगुप्त नाटक :

स्कन्दगुप्त नाटक भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की प्रमुख रचनाओं में से एक है। इस नाटक में इतिहास प्रसिद्ध स्कन्दगुप्त को नायक बनाया गया है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में आत्म गौरव को जगाने की चेष्टा की। जयशंकर प्रसाद ने स्वतंत्रता के स्वयंप्रभा और समुज्ज्वला रूप की महिमा गाई है, जो आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है।

स्कन्दगुप्त प्राचीन भारत में तीसरी से पाँचवीं सदी तक शासन करने वाले गुप्त राजवंश के आठवें राजा थे। इनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी जो वर्तमान समय में पटना के रूप में बिहार की राजधानी है। स्कन्दगुप्त ने जितने वर्षों तक शासन किया उतने वर्षों तक युद्ध किया। भारत की बर्बर हूणों से रक्षा करने का श्रेय स्कन्दगुप्त को जाता है। हूण मध्य एशिया में निवास करने वाले बर्बर कबीलाई लोग थे। उन्होंने हिन्दु कुश पार कर गन्धार पर अधिकार कर लिया और फिर महान गुप्त साम्राज्य पर धावा बोला। परंतु वीर स्कन्दगुप्त ने उनका सफल प्रतिरोध कर उन्हें खदेड़ दिया। हूणों के अतिरिक्त उसने पुष्यमित्रों को भी विभिन्न संघर्षों में पराजित किया। पुष्यमित्रों को परास्त कर अपने नेतृत्व की योग्यता और शौर्य को सिद्ध कर स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य कि उपाधि धारण की. उसने विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया।

प्रसाद कृत स्कन्दगुप्त में पाँच अंक हैं तथा अध्यायों की योजना दृश्यों पर आधारित है। प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ अंक में सात और तृतीय तथा पंचम अंक में छह दृश्य हैं। इस नाटक की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए दशरथ ओझा हिन्दी नाटकः उद्भव और विकास में लिखते हैं कि- " 'स्कन्दगुप्त' नाटक के वस्तु-विन्यास में प्रसाद की प्रतिभा सजीव हो उठी है और उनकी नाट्यकला ने अपना अपूर्व कौशल दिखाया है। इस नाटक में भारतीय और यूरोपीय दोनों नाट्यकलाओं का सहज समन्वय है।"


जयशंकर प्रसाद का आत्मकथ्य


हमें इस नाटक के संबंध में भी कुछ कहना है। इसकी रचना के आधार पर दो मंतव्य स्थिर किए गए हैं : पहला यह कि उज्जयिनी का पर दु:खभंजन विक्रमादित्य गुप्तवंशीय स्कंदगुप्त था, दूसरा यह कि मातृगुप्त ही कालिदास था, जिसने रघुवंश आदि महाकाव्य बनाए।

स्कंदगुप्त का विक्रमादित्य होना तो प्रत्यक्ष प्रमाण उसे सिद्ध होता है क्षिप्रा से तुम्बी  में जल भरकर ले आने वाले और चटाई पर सोने वाले उज्जयिनी के विक्रमादित्य स्कंद गुप्त के ही साम्राज्य के खंडहर पर भोज के परमार पुरखों ने मालव का नवीन साम्राज्य बनाया था परंतु मातृगुप्त के कालिदास होने में अनुमान का विशेष संबंध है। हो सकता है कि आगे चलकर कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल जाय, परन्तु हमें उसके लिये कोई आग्रह नहीं। इसलिये हमने नाटक में मातृगुप्त का ही प्रयोग किया है। मातृगुप्त का कश्मीर को शासन और तोरमाण का समय तो निश्चित-सा है । विक्रमादित्य के मरने पर उसका काश्मीर-राज्य छोड़ देता है, और वही समय सिहल के कुमार धातुसेन का निर्धारित होता है । इसलिये इस नाटक में धातुसेन भी एक पात्र हैं । बंधुवर्मा, चक्रपालित, पर्णदत, शर्वनाग, भटार्क, पृथ्वीसेन, खिंगिल, प्रख्यातकीर्ति, भीमवर्मा (इसका शिलालेख कोशाम्बी में मिला है), गोविन्दगुप्त, आदि सब ऐतिहासिक व्यक्ति हैं । इसमें प्रपंचबुद्धि और मुद्गल कल्पित पात्र है। स्त्रीपात्रों में स्कंद की जननी का नाम मैने देवकी रखा है; स्कंदगुप्त के एक शिलालेख हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेतः मिलता है। सम्भव है कि स्कंद की माता के नाम देवकी ही से कवि को यह उपमा सूझो हो । अनन्तदेवी का ते स्पष्ट उल्लेख पुरगुप्त की माता के रूप में मिलता है । यही पुरगुप्त स्कंदगुप्त के बाद शासक हुआ है। देवसेना और जयमाला वास्तविक और काल्पनिक पात्र, दोनो हो सकते हैं । विजया, कमला, रामा और मालिनी-जैसी किसी दूसरी नामधारिणी स्त्री की भी उस काल मे सम्भावना है। तब भी ये कल्पित है । पात्रों की ऐतिहासिकता के विरुद्ध चरित्र की सृष्टि, जहाँ तक संभव हो सका है, न होने दी गई है। फिर भी कल्पना का अवलम्व लेना ही पड़ा है, केवल घटना की परम्परा ठीक करने के लिये ।   - प्रसाद


स्कन्दगुप्त : निवेदन से 

जयशंकर 'प्रसाद' के नाटकों ने हिंदी-साहित्य के एक अंग की बड़ी ही सुन्दर पूर्ति की है। उनकी कल्पना कितनी मार्मिक और उच्च कोटि की है---इसके विषय में कुछ कहना वाचालता मात्र होगी।

उनके नाटक हमारे स्थायी साहित्य के भंडार को अमूल्य रत्न देने के सिवा एक और महत् कार्य्य कर रहे हैं, वह है हमारे इतिहास का उद्धार। महाभारतयुग के 'नागयज्ञ' से लेकर हर्षकालीन 'राज्यश्री' प्रभृत्ति नाटकों से वे हमारे लुप्त इतिहास का पुनर्निर्माण कर रहे हैं। ऐसा करने में चाहे बहुत-सी बातें कल्पना-प्रसूत हों, किन्तु 'प्रसाद' जी की ये कल्पनाएँ ऐसी मार्मिक और अपने उद्दिष्ट समय के अनुकूल हैं कि वे उस सत्य की पूर्ति कर देती है जो विस्मृति के तिमिर में विलीन हो गया है।


किसी काल के इतिहास का जो गूदा है---अर्थात् महापुरुषों की वे करनियाँ जिनके कारण उस काल के इतिहास ने एक विशिष्ट रूप पाया है---उसे यदि कोई लेखक अपने पाठकों के सामने प्रत्यक्ष रख सके तो उसने झूठ नहीं कहा, वह सत्य ही है। चाहे वास्तविक हो वा कल्पित---


भगवान कृष्ण ने गीता के रूप में जो अमृत हमे दिया है उसका चाहे सौ पुराण सौ रूप में वर्णन करें, पर यदि उन रंगीन मटकों में से हम उस अमृत का पान कर सकते हैं तो वे सब-के-सब उसके लिये समुचित भाजन ही ठहरे---व्यर्थ के कृत्रिम आडम्बर नही।


गुप्त-काल (275 ई० - 540 ई० तक) अतीत भारत के उत्कर्ष का मध्याह्न है। उस समय आर्य्य-साम्राज्य मध्य-एशिया से जावा-सुमात्रा तक फैला हुआ था। समस्त एशिया पर हमारी संस्कृति का झंडाफहरा रहा था। इसी गुप्तवंश का सबसे उज्ज्वल नक्षत्र था---स्कंदगुप्त। उसके सिंहासन पर बैठने के पहले ही साम्राज्य में भीतरी षड्यंत्र उठ खड़े हुए थे। साथ ही आक्रमणकारी हूणों का आतंक देश में छा गया था और गुप्त-सिंहासन डाँवाडोल हो चला था। ऐसी दुरवस्था में लाखों विपत्तियाँ सहते हुए भी जिस लोकोत्तर उत्साह और पराक्रम से स्कंदगुप्त ने इस स्थिति से आर्य साम्राज्य की रक्षा की थी---पढ़कर नसों में बिजली दौड़ जाती हैं। अन्त में साम्राज्य का एक-छत्र चक्रवर्तित्व मिलने पर भी उसे अपने वैमात्र एवं विरोधी भाई पुरगुप्त के लिये त्याग देना, तथा, स्वयं आजन्म कौमार जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा करना---ऐसे प्रसंग हैं जो उसके महान चरित पर मुग्ध ही नहीं कर देते, बल्कि देर तक सहृदयों को करुणासागर में निमग्न कर देते हैं।




कई कारणों से इस नाटक के निकाल देने में कुछ हफ्तों की देर हो गई। किन्तु उतनी ही देरी साहित्य-प्रेमियों को---जो इसके स्वागत के लिये लालायित हो रहे थे--असह्य हो उठी है। उनके तगादे-पर-तगादे मिल रहे हैं। अतएव हम उनसे इस देर के लिये क्षमाप्रार्थी हैं।


श्रावणी पूर्णिमा,'८५ 

 -  प्रकाशक


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