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20200822

शाश्वत और सम्पूर्ण विश्व मानव के लिए है महाराष्ट्र के सन्तों का सन्देश : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

सम्पूर्ण विश्व मानव के लिए है महाराष्ट्र के संतों का संदेश - प्रो. शर्मा

आधुनिक सन्दर्भ में महाराष्ट्र की सन्त परम्परा पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा आधुनिक संदर्भ में महाराष्ट्र की संत परंपरा पर अभिकेंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। इस अवसर पर नॉर्वे के प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो ने कबीर की साखियों का नॉर्वेजियन अनुवाद प्रस्तुत किया। संगोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने महाराष्ट्र की संत परंपरा से जुड़े प्रमुख संतों के योगदान पर प्रकाश डाला। आयोजन की प्रस्तावना संस्था के महासचिव डॉ. प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की।






कार्यक्रम के मुख्य अतिथि लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि महाराष्ट्र के संतों भारतीय संस्कृति, जीवन मूल्यों  और  भक्ति परंपरा के विस्तार में  अविस्मरणीय योगदान दिया। उनका संदेश शाश्वत और संपूर्ण विश्व मानव के लिए है। दक्षिण भारत के आलवार संतों ने जिस भक्ति आंदोलन का प्रवर्त्तन किया था, उसके स्वर को महाराष्ट्र के संतों ने भारत के सुदूर अंचलों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ, सेन जी आदि की महिमा की अनुगूंज दूर दूर तक सुनाई देती है। उनका प्रदेय भक्ति की लोक व्याप्ति, सामाजिक समरसता, सहज जीवन दर्शन जैसे अनेक स्तरों पर दिखाई देता है। उन्होंने अध्यात्म और व्यवहार, श्रम और भक्ति के बीच सेतु बनाया। वे सर्वात्मवाद के प्रसारक हैं। उन्होंने भक्ति के साथ ज्ञान और वैराग्य, हरि के साथ हर और सगुण के साथ निर्गुण के समन्वय पर बल दिया है। उनके द्वारा रोपित मूल्यों ने बहुत बड़े जन समुदाय को प्रभावित किया है। 


प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि महाराष्ट्र के भक्त-कवियों ने न केवल मराठी में भक्तिपरक काव्य की रचना की, हिंदी साहित्य को भी अपनी भक्ति-रचनाओं से समृद्ध किया। नामदेव तो एक तरह से उत्तरी भारत की संत-परम्परा के आदिकवि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र से चलकर सम्पूर्ण देश की यात्रा की और भक्ति का पथ प्रशस्त किया। उन्हीं की परम्परा को स्वामी रामानन्द, कबीर, नानक, रैदास, सेन, पीपा, मीरा आदि ने बढ़ाया। 



संगोष्ठी के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि महाराष्ट्र को संतों की भूमि कहा जाता है। महाराष्ट्र के संतों ने प्रायः अद्वैतवादी होते हुए भी भक्ति के महत्व को प्रतिपादित किया। सन्त ज्ञानेश्वर और तुकाराम जी महाराष्ट्र की संस्कृति के नींव के पत्थर हैं। तुकाराम जी ने कहा है कि जो दुखियों और पीड़ितों को अपना मानता है वही सच्चे अर्थों में संत है। संतों ने समाज को प्रबोधित करने का काम किया।




प्रा. डॉ. भरत शेणकर (राजूर, अहमदनगर) ने संत तुकाराम के काव्य की प्रासंगिकता पर विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि संत तुकाराम के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। आज समाज में परोपकार की भावना लुप्त होती जा रही है। जाति तथा पंथ के नाम पर समाज में जो बिखराव हो रहा है, अगर उसे दूर करना है तो हमें संत तुकाराम के विचारों को अपनाना होगा। नीति और मूल्यों की पुनर्स्थापना तथा संत तुकाराम के विचारों को अपनाकर हम जातिगत और धर्मगत मत-मतांतरों को दूर कर सकते हैं। सामाजिक एकता और समरसता की स्थापना के लिए संत तुकाराम के सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक विचारों को समस्त मानव समाज को अपनाना होगा। 



नांदेड़, महाराष्ट्र की डॉ अरुणा राजेंद्र शुक्ल ने महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर एवं भक्त मीरा के भक्तिपरक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन विषय पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने ज्ञानेश्वर और मीराबाई की प्रेम भक्ति, दोनों के जीवन में आए संघर्ष और उन्हें मिली हुई प्रपंच से मुक्ति पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि दोनों की श्री कृष्ण के प्रति प्रेम भक्ति में पर्याप्त साम्य एवं अंतर के बावजूद सगुण एवं निर्गुणवाद और भक्ति जैसे अनेक स्तरों पर दोनों के काव्य में अंतर की अपेक्षा साम्य ही अधिक है। संत ज्ञानेश्वर की कविता मध्ययुगीन मराठी काव्य की श्रेष्ठ भक्ति कविता है, तो मीराबाई की कविता मध्ययुगीन उत्तर भारत की श्रेष्ठ प्रेम भक्ति कविता है।


डॉ दत्तात्रय टिळेकर, ओतूर (पुणे) ने भक्ति काव्यधारा की  बहुज्ञानी, उपेक्षिता  कवयित्री और अपने स्त्रीत्व पर गर्व करनेवाली संत जनाबाई के अवदान की चर्चा करते हुए कहा कि उन्हें अलौकिक कहलवाने का कोई मोह नहीं था। उन्होंने स्वयं मानवी बनकर अपने आराध्य विठ्ठल को भी मानवीय धरातल पर खडा किया। उन्होंने मीरा की तरह विरहिणी बनकर ईश्वर की आराधना की।




लता जोशी (मुबंई)  ने आधुनिककालीन सिद्ध संत तुकडोजी महाराज के योगदान पर विचार व्यक्त किए, जिन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेंद्रप्रसाद जी ने राष्ट्रसंत की उपाधि से अलंकृत किया। उन्होंने कहा कि  संत तुकड़ो जी महाराज ने ग्राम की स्वयंपूर्णता,  सुशिक्षा, ग्रामोद्योग, सर्वधर्म समभाव आदि विचार भारतीय जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास किया। साथ ही सामाजिक सुधार आंदोलन चलाकर अंधविश्वास, अस्पृश्यता, मिथ्या धर्म, गोवध एवं अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया।



डॉ प्रवीण देशमुख, अकोला ने महाराष्ट्र की संत परम्परा में संत तुकड़ोजी के मानवतावादी विचारों पर प्रकाश डालते हुए उनके सामाजिक विचार, सर्वधर्म समभाव की दृष्टि को लेकर बात की। वर्तमान में उनके विचारों की प्रासंगिकता पर बात की। अपने ईश्वर भक्ति को राष्ट्रभक्ति तथा देशप्रेम से जोड़ दिया तथा समाज में नवचेतना जगाने का प्रयास किया।



कार्यक्रम में संस्था के अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा, डॉ. सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मनीषा शर्मा, अमरकंटक आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। 




इस अवसर पर श्री शम्भू पँवार, झुंझुनूं, रश्मि चौबे, गाजियाबाद, तृप्ति शर्मा, बेंगलुरु, दिल्ली के वरिष्ठ कवि श्री राकेश छोकर, डॉ सुनीता तिवारी, मुम्बई, डॉ शोभा राणे, नासिक, राजकुमार यादव, मुंबई, डॉ अर्चना दुबे, मुंबई, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ रोहिणी, औरंगाबाद, डॉ रूपाली चौधरी, पुणे, डॉ सुशीला पाल, मुम्बई, प्रभा बैरागी, उज्जैन, डॉ श्वेता पंड्या, सागर चौधरी, विजय शर्मा, पंढरीनाथ देवले, प्रियंका परस्ते आदि सहित देश के अनेक राज्यों के शिक्षाविद, साहित्यकार और अध्येताओं ने भाग लिया।






कार्यक्रम का संचालन डॉ कामिनी बल्लाल, औरंगाबाद ने किया। आभार श्रीमती पुष्पा गरोठिया, भोपाल ने माना।















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