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20210609

महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mahakavi Surdas: Perspectives on Indian Literature, Culture and Tradition - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेम की शक्ति और शाश्वतता के अनुपम गायक हैं महाकवि सूर – प्रो. शर्मा 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन 


सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ऑस्लो, नॉर्वे थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। अध्यक्षता प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। आयोजन के विशिष्ट अतिथि नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल, साहित्यकार डॉ शैल चंद्रा, धमतरी, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया।






मुख्य अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, नॉर्वे ने कहा कि सूर ने कृष्ण के जीवन से जुड़े सभी प्रसंगों को अपने काव्य में समाहित किया है। उन्होंने अत्यंत सहजग्राह्य और सरल भाषा में कृष्ण का वर्णन किया। उनका काव्य आत्मा तक उतर जाता है। वे वातावरण का सूक्ष्म चित्रण करने में प्रवीण थे। श्री शुक्ल ने सूर काव्य से प्रेरित रचना सुनाई, जिसकी पंक्तियां थीं चलो जमुना के तीरे, यशोदा मैया से कहत नंदलाल।




मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि सूर प्रेम की शक्ति और शाश्वतता के अनुपम गायक हैं। वे अविद्या से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। उन्होंने ईश्वर को प्रेम के वशीभूत माना है। हरि नाम को वे सर्वोपरि स्थान देते हैं। सूर बाल से प्रौढ़ मनोविज्ञान के कुशल चितेरे हैं। उन्होंने ब्रज की लोक सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़कर महत्वपूर्ण सृजन किया। लीला पद गान, रासलीला, ऋतु, पर्व एवं अन्य परंपराओं को सूर ने सरस काव्य के माध्यम से प्रतिष्ठा दी। कृषि और गौपालन संस्कृति का जीवंत चित्रण उनके काव्य को अद्वितीय बनाता है। उन्हें अपने समय और समाज की गहरी पकड़ थी। ग्राम्य और शहरी  जीवन का द्वंद्व उन्होंने सदियों पहले गोपिकाओं के माध्यम से संकेतित किया।



विशिष्ट अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि महाकवि सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं का जीवंत चित्रण किया है। वे बाल मनोविज्ञान और अभिरुचियों के विशेषज्ञ थे। उन्होंने वात्सल्य रस को प्रतिष्ठित किया। सूर काव्य में लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। सूर भक्ति में लीन थे, वही राजसत्ता की तुलना में उनके लिए सर्वोपरि थी। रासलीला का जीवंत वर्णन उन्होंने किया है। भारत की सनातन संस्कृति को उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से जीवंत रखा है।



डॉक्टर शैल चंद्रा, धमतरी ने कहा कि कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा में सूर का नाम अद्वितीय है। साहित्य का सृजन समाज से कटकर नहीं हो सकता। सूर ने माता यशोदा और पुत्र कृष्ण की मनो भावनाओं का सरस वर्णन किया है। सखी इन नैनन तें घन हारे पंक्ति को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि सूर का विरह वर्णन अत्यंत मार्मिक है। कृष्ण और गोपों के माध्यम से सूर ने सांस्कृतिक लोकतंत्र स्थापित किया।



कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि सूर का काव्य भक्ति का शृंगार है। वे उच्च कोटि के गायक थे। उन्हें दैवीय वरदान प्राप्त था। उनकी भक्ति भावना दैन्य और प्रेम से समन्वित है। प्रेम मूर्ति कृष्ण उनके आराध्य हैं। संपूर्ण सृष्टि में कृष्ण की ही छटा बिखरी है, इस बात का संकेत उनका काव्य करता है। उनके काव्य में विविध ऋतुओं और पर्वोत्सवों का सुंदर चित्रण हुआ है। उनके पद सरस और अर्थी हैं। युग जीवन की आत्मा का स्पंदन उनके काव्य में है।




साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि भारतीय भक्ति धारा में सूर का नाम सर्वोपरि है। सूर ने नारी के विविध रूपों का वर्णन अपने काव्य में किया। समाज जीवन के सभी पक्षों को उन्होंने छुआ है। नारी के स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर सूर ने प्रभावी चित्रण किया है। सूर काव्य में तत्कालीन समाज और संस्कृति का निरूपण मिलता है।


साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने प्रास्ताविक वक्तव्य देते हुए कहा कि सूरदास जी का ब्रज भाव आज संपूर्ण देश और दुनिया में विशेष पहचान रखता है। उन्होंने संस्था द्वारा कोविड-19 के दौर में एक सौ वेब संगोष्ठियाँ आयोजित करने पर बधाई दी। उन्होंने काव्य पँक्तियाँ प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज नवल इतिहास रच रहा राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना मंच। 


विशिष्ट अतिथि डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने कहा कि महाकवि सूरदास साहित्य जगत में सूर्य माने जाते हैं। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षित किया था। सूरदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से विविध भावों की अभिव्यक्ति की है। उनके काव्य में प्रकृति सौंदर्य के चित्रण के साथ श्रृंगार के मिलन और विरह दोनों पक्षों का सुंदर निरूपण हुआ है। उनका काव्य भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट है।


कोच्ची के शीजू ए ने भी संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त किए। 


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने की। संस्था की गतिविधियों का परिचय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने दिया। स्वागत भाषण डॉ गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने दिया। 


संगोष्ठी में डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मुंबई, श्रीमती गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉक्टर शैल चंद्रा, धमतरी, शीजू के, कोचीन, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, श्री जी डी अग्रवाल, इंदौर, लता जोशी, मुंबई आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया। आभार प्रदर्शन  डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने किया।











महाकवि सूरदास जयंती


20210512

रसखान और रहीम : भारतीय साहित्य और संस्कृति को योगदान -प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Rasakhan and Rahim: Contribution to Indian Literature and Culture - Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय सांस्कृतिक चेतना और मूल्यों के सच्चे संवाहक हैं रसखान और  रहीम – प्रो. शर्मा 

रसखान और रहीम : भारतीय साहित्य और संस्कृति को योगदान पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी


भारत की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी रसखान और रहीम : भारतीय साहित्य और संस्कृति को योगदान  पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। मुख्य वक्ता राष्ट्रीय मुख्य संयोजक प्राचार्य डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे थे। आयोजन के विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार एवं हिंदी सेवी श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ओस्लो नॉर्वे, हिंदी परिवार, इंदौर के संस्थापक एवं साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर,  डॉक्टर शबाना हबीब, तिरुअनंतपुरम, केरल, डॉ रजिया शेख, बसमत, हिंगोली, महाराष्ट्र, डॉ अर्चना झा, हैदराबाद एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ राकेश छोकर, नई दिल्ली ने की। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने किया। 






मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि महाकवि रसखान और रहीम ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना और जीवन मूल्यों को सरस ढंग से अभिव्यक्ति दी है। दोनों कवियों के माध्यम से भारतीय साहित्य को व्यापकता और विस्तार मिला। रसखान सच्चे अर्थों में रस की खान हैं। भक्ति का अत्यंत उदात्त रूप रसखान के यहां देखने को मिलता है। आराध्य के साथ तादात्म्य, उनके अप्रतिम सौंदर्य का वर्णन तथा अनन्यता का बोध रसखान के काव्य की विशेषताएं हैं। रसखान ने प्रेम पंथ की विलक्षणता को अत्यंत सरल ढंग से प्रकट किया है। उनके छंद प्रेम रस से सराबोर हैं। उनके काव्य में लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के प्रेम का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। दिल्ली के गदर ने उन्हें व्यथित कर दिया था और वे ब्रजभूमि में आकर पुष्टिमार्ग में दीक्षित हो गए थे। रहीम ने भारतीय संस्कृति से जुड़े अनेक आख्यान, मिथक, लोक विश्वास और पदावली का बहुत सार्थक प्रयोग किया है। उनके काव्य में ऐसे अनेक  प्रसंग मिलते हैं, जो प्रायः सामान्य जन की निगाह से ओझल होते हैं। रहीम के काव्य में जीवन का कटु यथार्थ भी झलकता है। 



वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि रहीम के दोहे आज भी प्रासंगिक हैं। उनका प्रत्येक दोहा बहुमूल्य है। कोविड-19 के संकट के दौर में उनकी कविताएं नया प्रकाश देती हैं। श्री शुक्ल ने रसखान की प्रसिद्ध रचना मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन को सस्वर सुनाया।



मुख्य वक्ता प्राचार्य डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने कहा कि महाकवि रसखान और रहीम के हृदय में राधा कृष्ण के प्रति गहरी आस्था थी। हिंदी साहित्य जगत में रहीम एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनका कार्यक्षेत्र और जीवन अनुभव अत्यंत विस्तृत और व्यापक रहा है। रहीम महान दानवीर, युद्धवीर और कुशल राजनीतिज्ञ थे। राज दरबार में वे शीर्ष पदों पर रहे, वही युद्ध क्षेत्र में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। व्यावहारिक जगत में उन्होंने कड़वे मीठे अनुभव प्राप्त किए थे, जो उनके नीतिपरक दोहों के विषय बने। रहीम शृंगार, भक्ति और नीति - तीनों में समान अधिकार से लिखते थे। उनके व्यक्तित्व में शस्त्र और शास्त्र का समन्वय दिखाई देता है। वे सच्चे धार्मिक आश्रयदाता थे। उनका जीवन अत्यंत संघर्षशील रहा। रहीम और रसखान का संपूर्ण साहित्य हिंदी ही नहीं, भारतीय साहित्य की धरोहर है। रसखान के काव्य में सांस्कृतिक सौमनस्य का भाव प्रकट हुआ है। वे बताते हैं कि प्रेम के माध्यम से सामान्य गोपिकाएं थी कृष्ण को सहज ही प्राप्त कर लेती हैं।




हिंदी परिवार, इंदौर के संस्थापक एवं साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने संगोष्ठी की प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए कहा कि भक्तिकाल हिंदी का स्वर्ण युग है। इस महत्वपूर्ण युग के दो रत्न हैं - रसखान और रहीम। दोनों कवि भारतीय आत्मा के प्रति सजगता पैदा करते हैं। दोनों ने देश को एकता के सूत्र में बांधने का अविस्मरणीय प्रयास किया। आज के दौर में भारतीय जनमानस को इनसे प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। 







डॉ रजिया शहनाज़ शेख, बसमत, हिंगोली, महाराष्ट्र ने कहा कि रसखान भक्तिकाल के कृष्ण भक्त सगुण -निर्गुण कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनका वास्तविक नाम सैय्यद इब्राहिम है, लेकिन उनके साहित्यिक गुण के कारण उन्हें रसखान कहा जाता है। उनका एक-एक पद्य जैसे रस की खान है। रसखान मुस्लिम होते हुए भी कृष्ण भक्त कवि हैं, यही कारण है कि रसखान ने हिंदू मुस्लिम एकता के लिए एक सेतु के रूप कार्य किया है। वे एक भारतीय समन्वयवादी कवि रहे हैं, जिनका समग्र साहित्य ही गंगा-जमुनी तहजीब का प्रमाण है। वे सौहार्द के कवि है। उन्होंने कृष्ण भक्ति के आगे सब कुछ त्याग दिया। रसखान के काव्य संग्रह सुजान रसखान और प्रेम वाटिका प्रमुख हैं। उन्होंने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया। भारत के उदारवादी समन्वय मूलक संस्कृति में पूर्ण आस्था रखने वाले कविवर अब्दुल रहीम खानखाना निसंदेह हिंदी के ऐसे समर्थ कवियों में शीर्षस्थ रहे हैं, जिन्होंने इस्लाम के संस्कार होते हुए भी अपनी रचनाओं के माध्यम से हिंदू धर्म, संस्कृति, दर्शन, समाज और देवी-देवताओं का भरपूर सम्मान और श्रद्धा के साथ चित्रण किया है।


डॉक्टर शबाना हबीब, तिरुअनंतपुरम ने कहा कि रहीम भारतीय उदारवादी और समन्वयात्मक संस्कृति के पोषक हैं। वे फारसी, संस्कृत, हिंदी, तुर्की आदि अनेक भाषाओं में निष्णात थे, लेकिन उन्होंने हिंदी की अविस्मरणीय सेवा की। हिंदी साहित्य के इतिहास में सतसई के रचनाकर कवि बिहारी के बाद रहीम को ही दोहा एवं सोरठा छंद का जादूगर कहा जा सकता है। तुलसीदास और गंग के वे समकालीन थे। अकबर के दरबारी कवियों में रहीम का उल्लेखनीय स्थान था, तथापि कविवर रहीम स्वयं कवियों को आश्रय प्रदान करते थे। इस विषय में महाकवि केशव, आसकरण, मंडन, नरहरि, गंग आदि ने रहीम की प्रशंसा की है। बिहारी, मतिराम, व्यास, वृंद, रसनिधि आदि कवियों का साहित्य रहीम की रचनाओं से प्रभावित रहा है। अपने युग के कवियों के प्रति उनके हृदय में गहरा सम्मान था और उन्होंने अनेक कवियों को सहयोग भी दिया। उनके काव्य में भक्ति और शृंगार के साथ परस्पर सौहार्द के दर्शन होते हैं। वे सरल और सरस हृदय मानव थे। नगरसभा के दोहों के माध्यम से उन्होंने नारी सौंदर्य का चित्रण किया है।






डॉ अर्चना झा, हैदराबाद ने कहा कि रहीम ने पौराणिकता, रीति नीति और मानवीय कर्म को अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। उन्होंने गंगा जमुनी तहजीब को प्रस्तुत करते हुए आपसी सद्भाव का संदेश दिया। रहीम सामाजिक चेतना जागृत करने वाले कवि हैं। वे संक्रमण काल के कवि हैं, जब निरंकुशता का विरोध होने लगा था।


संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए डॉ राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कहा कि रसखान और रहीम सौहार्द की संस्कृति के संवाहक हैं। ईश्वर की भक्ति के साथ भारत भूमि के प्रति उनमें गहरा अनुराग था। उनके सृजन में किसी प्रकार का आडंबर नहीं है। उनका साहित्य भारत की अमूल्य निधि है। कृष्ण की विविध लीलाओं को इन कवियों ने अपने काव्य में कुशलता से बांधा है। वैश्विक आपदा के बीच मनोबल बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना जैसी संस्थाएं महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं।


राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्देश्य और विषय वस्तु पर प्रकाश डाला। 


संगोष्ठी का सफल संचालन एवं आभार प्रदर्शन रायपुर, छत्तीसगढ़ की डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक ने किया। उन्होंने कहा कि रसखान स्नेह के रस में डूबे हुए थे। कृष्ण के रूप सौंदर्य का उन्होंने सरस चित्रण किया है।




सरस्वती वंदना डॉ रूली सिंह, मुंबई ने प्रस्तुत की। स्वागत गीत संस्था की कार्यकारी अध्यक्ष कवयित्री श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने प्रस्तुत किया। 

संगोष्ठी में संस्था के अध्यक्ष शिक्षाविद् श्री ब्रजकिशोर शर्मा, कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, डॉक्टर गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, डॉ रूली सिंह, मुंबई, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद, मुंबई, डॉक्टर दिव्या पांडेय, डॉक्टर गरिमा गर्ग, पंचकूला आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।








20200703

कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति – प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति – प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा





भारतीय इतिहास का मध्ययुग भक्ति आन्दोलन के देशव्यापी प्रसार की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखता है। वैदिककाल से लेकर मध्यकाल के पूर्व तक आते-आते पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में भारतीय मूल्य-चिंतन परम्परा का सम्यक् विकास हो चुका था, किंतु मध्य युग में भक्ति की परम पुरुषार्थ के रूप में अवतारणा क्रांतिकारी सिद्ध हुई। मोक्ष नहीं, प्रेम परम पुरुषार्थ है- प्रेमापुमर्थो महान् के उद्घोष ने लोक जीवन को गहरे प्रभावित किया। यहाँ आकर भक्त की महिमा बढ़ने लगी और शुष्क ज्ञान की जगह भक्ति ने ले ली। 






भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। हिन्दी एवं अन्य भाषाई प्रदेशों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश कृष्णभक्त कवि पहले की कृष्णपरक लोक गीत परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी। 


कृष्ण भक्ति काव्यधारा के उद्गम की दृष्टि से दक्षिण भारत के आळ्वार सन्तों के भक्ति काव्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भक्त कवियों का बहुत बड़ा योगदान लोकगीतों में अनुस्यूत भक्ति धारा को संस्कारित करने के साथ ही शास्त्रोक्त भक्ति को लोकव्याप्ति देने में है। अष्टछाप के कवियों में सम्मिलित सूरदास, नंददास, चतुर्भुजदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी और छीतस्वामी के साथ ही मीराँ, रसखान, नरसिंह मेहता, प्रेमानंद, चंद्रसखी, दयाराम आदि का योगदान अविस्मरणीय है। इनमें से अधिकांश कवियों ने शास्त्रीय वैष्णव भक्ति-शास्त्र से प्रेरणा अवश्य प्राप्त की, किन्तु वे लोक-धर्म और लोक-चेतना से अधिक सम्पृक्त थे। उनके चरित्र, वर्ण्य विषय, छन्द, भाषा, विचार-पद्धति आदि में शास्त्रीयता के बजाय लोक-चेतना प्रबल है। श्रीमद्भागवत महापुराण के लीलागान की पद्धति से प्रेरणा लेकर भी सूरदास, नंददास आदि का काव्य उसका अनुवाद नहीं है। इन कवियों ने उत्तर भारत के लोकधर्म से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है और अपनी मौलिक उद्भावनाएँ भी की हैं।

मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्यधारा और कला रूपों का प्रसार देश के विविध लोकांचलों में हुआ है। यह धारा जहाँ भी गई, वहाँ की स्थानीय रंगत से आप्लावित हो गई। फिर वह चाहे पश्चिम भारत में मालवा-राजस्थान हो या गुजरात-महाराष्ट्र अथवा पूर्व में उड़ीसा-बंगाल या सुदूर पूर्वोत्तर में असम हो या मणिपुर, उत्तर में हिमाचल-हरियाणा या ब्रजमंडल हो या दक्षिण में केरल-तमिलनाडु सभी की लोक-संस्कृति की सुवास कृष्ण भक्ति काव्य और कला रूपों में परिलक्षित होती है, वहीं कृष्ण भक्ति के प्रतिमानों ने भी विविध लोकांचलों को अपनी सुवास दे दी है। वस्तुतः कृष्ण भक्ति काव्य ने अपने ढंग से पूरे देश को सांस्कृतिक-भावात्मक ऐक्य के सूत्र में बाँधा है, जिसमें लोक-चेतना की अविस्मरणीय भूमिका देखी जा सकती है। लोक-जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जिसे कृष्णकाव्य और कला रूपों ने न छुआ हो या जिस पर इस धारा की अमिट छाप अंकित न हुई हो।

कृष्ण भक्ति काव्य में लोक-पर्व, व्रत और उत्सवों का जीवंत चित्रण हुआ है। इस काव्य में कृष्ण सच्चे लोकनायक के रूप में जीवन के समूचे राग-रंग, हर्ष-उल्लास में शिकरत करते नजर आते हैं। कृष्णभक्ति काव्य ने जहाँ लोक परम्परा से चले आ रहे पर्वोत्सवों को सहज-तरल अभिव्यक्ति दी है, वही किसी एक अंचल की लोक-परम्पराओं को अन्य अंचलों तक प्रसारित भी किया है। इस काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण देन यह भी है कि काल-प्रवाह में विस्मृत होतीं कई लोक-परम्पराएँ न सिर्फ इसमें जीवित हैं, वरन् उन्हें समय-समय पर पुनराविष्कृत करने की संभावनाएँ भी मूर्त होती रही हैं।


 – प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 
मध्य प्रदेश







(भक्ति काल : कृष्ण काव्य के विविध आयाम पर केंद्रित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन रूसी – भारतीय मैत्री संघ (दिशा), मास्को, रूस एवं बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना, बिहार द्वारा किया गया। इस अवसर पर प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा, प्रोफेसर अवनीश कुमार, डॉ सुमन केसरी, डॉक्टर दिनेश चंद्र झा के व्याख्यान की छबियाँ  समाहित हैं। संयोजन डॉ मोनिका देवी ने किया था।)


भारतीय भक्ति आंदोलन और गुरु जंभेश्वर जी - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

भारतीय भक्ति आंदोलन और गुरु जंभेश्वर जी - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 

सहस्राब्दियों से चली आ रही भारतीय संत परम्परा के विलक्षण रत्न गुरु जम्भेश्वर जी (संवत् 1508 - संवत् 1593) भारत ही नहीं, वैश्विक परिदृश्य में अपनी अनूठी पहचान रखते हैं। भारतीय भक्ति आंदोलन में उनका योगदान अद्वितीय है। उनकी वाणी न केवल सदियों से वसुधैवकुटुंबकम् की संवाहिका बनी हुई है, उसमें प्रत्येक युगानुरूप प्रासंगिकता देखी जा सकती है। गुरु जम्भेश्वर जी ने जीवन और अध्यात्म साधना के बीच के अन्तरावलम्बन को पाट दिया था और भक्ति को व्यापक जीवन मूल्यों के साथ चरितार्थ करने की राह दिखाई। कतिपय विद्वानों ने भक्ति को बाहर से आगत कहा है, आलवार  सन्तों से लेकर जंभेश्वर जी की वाणी भक्ति की अपनी जमीन से साक्षात् कराती है।


गुरु जंभेश्वर जी


हम स्वर्ग और अपना नरक खुद बनाते हैं। कोई अलौकिक तत्व नहीं है जो इसका निर्धारक हो। अँधेरे और राक्षसी वृत्ति के साथ चलना सरल है, उनसे टकराना जटिल है। दूसरी ओर प्रकाश और अच्छाई के साथ चलना कठिन है, लेकिन वास्तविक आनन्द प्रकाश और देवत्व में ही है। जंभेश्वर जी की वाणी इसी बात को व्यापक परिप्रेक्ष्य में जीवंत करती है। वे सही अर्थों में महान युगदृष्टा थे। उन्होंने अपने समय में निर्भीकतापूर्वक समाज-सुधार का जो प्रयास किया, वह अद्वितीय है। वर्तमान युग के तथाकथित समाज सुधारक भी ऐसा साहस नहीं दिखा सकते जो जम्भेश्वर जी ने धार्मिक उन्माद से ग्रस्त तत्कालीन युग में दिखाया था। एक सच्चे युग-पुरुष की भांति उन्होंने तमाम प्रकार के परस्पर विद्वेष, अंध मान्यताओं, रूढ़ियों, अनीति-अनाचारों एवं दोषों पर प्रबल प्रहार करते हुए समाज को सही दिशा-निर्देश  किया।


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

उन्होंने चराचर जगत में एक ही तत्त्व का सामरस्य देखा था। इसी के आधार पर गुरु जम्भेश्वर जी ने पारस्परिक प्रेम और सद्भाव,  पर्यावरण संरक्षण, विश्व शांति, सार्वभौमिक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा, सामाजिक जागरूकता, प्राचीन ज्ञान परम्परा की वैज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या जैसे अनेक पक्षों को गहरी संवेदना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी वाणी और मैदानी प्रयासों से साकार किया। उनका प्रसिद्ध सबद है : 
जा दिन तेरे होम न जाप न तप न किरिया, जाण के भागी कपिला गाई।
कूड़तणों जे करतब कीयो, नातैं  लाव न सायों। 
भूला प्राणी आल बखाणी, न जंप्यो सुर रायों। 
छंदे कहाँ तो बहुता भावै, खरतर को पतियायों। 
हिव की बेला हिव न जाग्यो, शंक रह्यो कंदरायों। 
ठाढ़ी बेला ठार न जाग्यो ताती बेला तायों। 
बिम्बे बेलां विष्णु ने जंप्यो, ताछै का चीन्हों कछु कमायों। 
अति आलसी भोला वै भूला, न चीन्हो सुररायों। 
पारब्रह्म की सुध न जाणीं, तो नागे जोग न पायो।
परशुराम के अर्थ न मूवा, ताकी निश्चै सरी न कायो।

उनका संकेत साफ है कि मनुष्य ने अपने कर्तव्य कर्मों को विस्मृत कर कामधेनु को दूर कर दिया है। वह अपने मूल रूप को न पहचान कर सदाचार से दूर बना रहता है। जब कभी सद्विचार मिले भी तो शंकित बना रहता है। समय बीतता रहता है, किंतु भरम में डूबा रहता है।  नासमझी में सही समय पर भक्ति के प्रवाह में न डूबकर अपना अहित ही करता है। परम सत्ता से परे केवल बाह्याचारों से कुछ मिलता नहीं है, वे तो भ्रम ही पैदा करते हैं। इसलिए परशुराम के अर्थ को पहचानना होगा, जिन्होंने समाज को सद्मार्ग पर ले जाने के लिए दृढ़ संकल्प लिया था और निभाया भी।

यह एक स्थापित तथ्य है कि गुरु जम्भेश्वर जी द्वारा प्रस्तुत वाणी और कार्य अभिनव होने के साथ ही जन मंगल का विधान करने वाले सिद्ध हुए हैं। वे मनुष्य मात्र की मुक्ति की राह दिखाते हुए कहते हैं कि ‘हिन्दू होय कै हरि क्यों न जंप्यो, कांय दहदिश दिल पसरायो’, तब उनके समक्ष जगत का  वास्तविक रूप है, जिसे जाने बिना लोग इन्द्रिय सुख में डूबे रहते हैं। इसी तरह जब वे कहते हैं कि ‘सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी बन रायो’ तब उनके सामने वनस्पतियों के संरक्षण – संवर्द्धन का प्रादर्श बना हुआ है, जिसे जाने – समझे बगैर पर्यावरणीय संकटों से जूझ रही दुनिया का उद्धार सम्भव नहीं है। 


फेसबुक पर व्याख्यान का प्रसारण देखा जा सकता है: 
 - प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक  
विक्रम विश्वविद्यालय 
उज्जैन मध्य प्रदेश











(मुंबई विश्वविद्यालय, मुम्बई और जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर द्वारा आयोजित मध्यकालीन काव्य का पुनर्पाठ और जांभाणी साहित्य पर एकाग्र दो दिवसीय  अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान की छबियाँ और व्याख्यान सार दिया गया है। आयोजकों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं)

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