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20171221

चंद्रकांत देवताले: जीवन की साधारणता के असाधारण कवि

        जीवन की साधारणता के असाधारण कवि 


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले अब हमारे बीच नहीं रहे, सहसा विश्वास नहीं होता। नई कविता के फार्मूलाबद्ध होने के बाद उन्होंने अपना अलग काव्य मुहावरा गढ़ा था। पिछली सदी के महानतम कवि मुक्तिबोध पर उन्होंने न केवल महत्त्वपूर्ण शोध किया था, वरन उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि पर खड़े होकर तेजी से बदलते समय और समाज की पड़ताल भी गहरी रचनात्मकता के साथ की। उनकी कविताएँ जहाँ माँ, पिता, औरत, पेड़, बारिश और आसपास के आम इंसान को बड़ी सहजता, किन्तु नए अंदाज से दिखाती हैं तो भयावह होती सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को तीखेपन के साथ उजागर भी करती हैं। मेहनतकश जनता और निम्न वर्ग सदैव उनके दृष्टिपथ में रहे, जिनके असमाप्त अहसान को वे आपाद मस्तक स्वीकार करते हैं। उन्होंने लिखा है, 

‘जो नहीं होते धरती पर

अन्न उगाने, पत्थर तोड़ने वाले अपने

तो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी।‘ 

Chandrkant Dewtale by Prabhu Joshi व्यक्ति चित्र: श्री प्रभु जोशी 

संवेदनविहीन व्यवस्था और प्रजातन्त्र की विद्रूपताओं के बीच असमाप्त संघर्ष के साथ जीवन यापन करते आम आदमी की पीड़ा उनमें पैबस्त थी। इसीलिए वे प्रेम और ताप को बचाए रखने की चिंता करते रहे,

‘ अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर

खून की जाँच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।‘ 

उनकी कविताओं में एक खास किस्म की बेचैनी नजर आती है, जो अमानवीय होते समय और समाज के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया देती है, 

‘पर कौन खींचकर लाएगा

उस निर्धनतम आदमी का फोटू  

सातों समुन्दरों के कंकडों के बीच से

सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़

यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था।‘

उनकी कविताओं में वैसी ही सादगी, आत्मीयता और आम आदमी के प्रति निष्ठा नज़र आती है, जैसी उनके स्वभाव में थी। साधारणता को उन्होंने अपने जीवन और कविता में सदा बरकरार रखा, जो उनकी असाधारण पहचान का निर्धारक बन गया। वे लिखते हैं, 

‘यदि मेरी कविता साधारण है

तो साधारण लोगों के लिए भी

इसमें बुरा क्या मैं कौन खास

गर्वोक्ति करने जैसा कुछ भी तो नहीं मेरे पास।‘

गम्भीरता को उन्होंने कभी नहीं ओढ़ा। कोई व्यक्ति एक बार भी उनसे मिलता तो उन्हें भूल नहीं सकता था। प्रायः फोन पर वे बड़े गम्भीर अंदाज में अपने समानधर्मा साहित्यकारों से बात की शुरूआत करते, फिर कुछ ऐसी चुटकी लेते कि हँसी का झरना फूट पड़ता था। उज्जैन के साथ उनका एक बार जो सम्बन्ध बना, वह अटूट बना रहा। उनकी कविताओं में उज्जैन और मालवा के अनेक बिम्ब नई भंगिमा के साथ उतरे हैं। राजस्व कॉलोनी स्थित उनका आवास तरह तरह के पेड़ - पौधों के बीच पक्षियों और श्वानों का बसेरा था, जहाँ वे मूक प्राणियों की सेवा में जुटे रहते थे।
देवताले जी का यह कहना उनके काव्य रसिकों के लिए पता नहीं अब कैसे चरितार्थ हो सकेगा,
 ‘मैं आता रहूँगा उजली रातों में
 चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए।‘

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

(देवताले जी का व्यक्ति  चित्र: श्री प्रभु जोशी, विख्यात चित्रकार और साहित्यकार)







(चित्र: प्रो चंद्रकांत देवताले के साथ उज्जैन प्रवास पर आए प्रो टी वी कट्टीमनी एवं प्रो जितेंद्र श्रीवास्तव संग प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की अंतरंग मुलाकातें)


प्रो चन्द्रकान्त देवताले

आधुनिक हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर श्रीचंद्रकांत देवताले का जन्म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पीएच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से की थी। देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन से संबद्ध रहे। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर(1973), दीवारों पर ख़ून से (1975); लकड़बग्घा हँस रहा है (1970), रोशनी के मैदान की तरफ़ (1982), भूखण्ड तप रहा है (1982), आग हर चीज में बताई गई थी (1987), पत्थर की बैंच (1996) आदि। वे उज्जैन के शासकीय कालिदास कन्या महाविद्यालय के प्राचार्य एवं प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन के निदेशक भी रहे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वे उज्जैन में साहित्य साधना कर रहे थे। उनका निधन 14 अगस्त 2017 को दिल्ली में लंबे उपचार के बाद हुआ। 

देवताले जी को उनकी रचनाओं के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें प्रमुख हैं- कविता समय सम्मान -2011, पहल सम्मान -2002, भवभूति अलंकरण -2003, शिखर सम्मान -1986, माखन लाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान आदि। उन्हें कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए वर्ष 2012 में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। उनकी कविताओं के अनुवाद प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में और कई विदेशी भाषाओं में हुए हैं। 

देवताले जी की कविता में समय और सन्दर्भ के साथ ताल्लुकात रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। उनकी कविता में समय के सरोकार हैं, समाज के सरोकार हैं, आधुनिकता के आगामी वर्षों की सभी सर्जनात्मक प्रवृत्तियां उनमें हैं। उत्तर आधुनिकता को भारतीय साहित्यिक सिद्धांत के रूप में न मानने वालों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि देवताले जी की कविता में समकालीन समय की सभी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से आप उत्तरआधुनिकता को मानें या न मानें, ये कविताएँ आधुनिक जागरण के परवर्ती विकास के रूप में रूपायित सामाजिक सांस्कृतिक आयामों को अभिहित करने वाली हैं। देवताले की कविता की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में हैं। उसमें मानव जीवन अपनी विविधता और विडंबनाओं के साथ उपस्थित हुआ है। कवि में जहाँ व्यवस्था की कुरूपता के खिलाफ गुस्सा है, वहीं मानवीय प्रेम-भाव भी है। वह अपनी बात सीधे और मारक ढंग से कहते हैं। कविता की भाषा में अत्यंत पारदर्शिता और एक विरल संगीतात्मकता दिखाई देती है।

20130313

चंद्रकांत देवताले की कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता '

चन्द्रकान्त देवताले की चयनित कविताएँ
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 



साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले जी ने अपना अलग मुहावरा गढ़ा था।  श्री देवताले को उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ ' पर साहित्य अकादमी, दिल्ली का वर्ष 2012 का  साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि। उनकी प्रसिद्ध कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता ' देखिये।
  
माँ पर नहीं लिख सकता कविता 
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता

अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहां हर रोज चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं 
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!

- - - - 

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता/ चंद्रकांत देवताले  

तुम्हारी निश्चल आंखें 
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता 
ईथर की तरह होता है 
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें 
नुकीले पत्थरों -सी

दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो 
पहली कतार में मेरे लिए

मुझे माफ करना 
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था 
मेरी छाया के तले ही 
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी 
तुम्हारी 

अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो 
मैं खुश हूं सोचकर 

कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !

- - - - - - - - 
औरत / चन्द्रकान्त देवताले

वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंथ रही है?
गूंथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,

एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,

एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वस्त्र जागती
शताब्दियों से सोयी है,

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।

- - - - - - 

मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए/ चंद्रकांत देवताले 

मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को 
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम 
अपने देखने-भर के करिश्मे से 
कुछ तो है तुम्हारे भीतर 
जिससे अपने बियावान सन्नाटे को 
तुम सितार-सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में 

अपने असंभव आकाश में 
तुम आज़ाद चिड़िया की तरह खेल रही हो 
उसकी आवाज की परछाईं के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा 
आँखें खोल रहा हूँ गहरी धुँध में 

लगता है काल्पनिक खुशी का भी 
अंत हो चुका है 
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी 
तुम फूलों को नोंच रही हो 
मैं यहाँ दुख की सूखी आँखों पर 
पानी के छींटे मार रहा हूँ 

हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद 
जो भी हो 
उड़ रहा हूँ तुम्हारे खनकती आवाज के समुंदर  पर 
हंसध्वनि की तान की तरंगों के साथ 
जुगलबंदी कर रहे हैं 
मेरे फड़फड़ाते होंठ 
याद है न जितनी बार पैदा हुआ 
तुम्हें मैंने बैंजनी कमल कहकर ही पुकारा 
और अब भी अकेलेपन के पहाड़ से उतरकर 
मैं आऊंगी हमारी परछाईयों के ख़ुशबूदार 
गाते हुए दरख्त के पास 
मैं आता रहूँगा उजली रातों में 
चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा 
तुम्हारे लिए । 




 प्रो. चंद्रकांत देवताले के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


                                               डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
                                               आचार्य एवं कुलानुशासक
                                               विक्रम विश्वविद्यालय
                                                                                              उज्जैन (म.प्र.) 456 010

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