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20210626

सन्त कबीर : सामाजिक सरोकार और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sant Kabir: Perspective of Social Concerns and Values - Prof. Shailendra Kumar Sharma

मनुष्य के तन में ही ईश्वर का मंदिर दिखाने की चेष्टा की कबीर ने


सन्त कबीर : सामाजिक सरोकार और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पर राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी आयोजित 


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी सन्त कबीर : सामाजिक सरोकार और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डॉ बी आर अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ के कुलाधिपति डॉ प्रकाश बरतूनिया थे। विशिष्ट वक्ता डॉ सुरेश पटेल, इंदौर, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ संजीव निगम, मुंबई, हिंदी परिवार के अध्यक्ष श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर एवं महासचिव डॉ प्रभु चौधरी थे। अध्यक्षता प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। आयोजन में विगत एक वर्ष में वेब पटल पर सौ से अधिक संगोष्ठियों के आयोजन के लिए संयोजक एवं समन्वयक डॉ प्रभु चौधरी को शतकीय संगोष्ठी सम्मान पत्र एवं स्मृति चिन्ह अर्पित कर उन्हें सम्मानित किया गया। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन श्रीमती पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने किया। 





 

मुख्य अतिथि डॉ प्रकाश बरतूनिया, लखनऊ ने कहा कि संत कबीर भारत भूमि की ऋषि – मुनि, साधु - संतों की लंबी परंपरा के अंग हैं। उन्होंने भक्ति के लोकव्यापीकरण का महत्वपूर्ण कार्य किया। वे अपने वाणी के माध्यम से लोगों के दिलों तक पहुंचे। उन्होंने प्रेम का संदेश समाज को दिया है। वे श्रम के साथ ईश्वर के स्मरण पर बल देते हैं। समस्त मानव समुदाय आडंबर में न पड़े, इसका आह्वान कबीर की वाणी करती है। उनके गुरु स्वामी रामानंद से सभी वर्गों और समुदायों के लोग जुड़े थे।




विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि कबीर ने भारतीय समाज को जाति, वर्ग और धर्म की सीमाओं से ऊपर उठाने का प्रयत्न किया। वे तमाम प्रकार के सामाजिक और पन्थगत अलगाव से टकराते हैं। शास्त्र में लिखे हुए शब्द जब स्वयं परब्रह्म बन कर बैठ जाते हैं, तब कबीर उसका प्रतिरोध करते हैं। उन्होंने मनुष्य के तन में ही ईश्वर का मंदिर दिखाने की चेष्टा की, जिसकी शोभा अनूठी है। उनकी आत्मा भारतीय संविधान में रची बसी हुई है, जो समानता, न्याय और लोकतंत्र को आधार में लिए हुए है। कबीर ने अपने अहम् का विसर्जन व्यापक सत्ता में कर दिया था। वे बाजार में निष्पक्ष रूप में खड़े हुए थे। उनके लिए न कोई शासक है और न शासित। सही अर्थों में कबीर आत्मा का विशुद्ध रूप हैं। उन्होंने भक्ति के मर्म को सर्वसामान्य तक पहुंचाया। 




विशिष्ट अतिथि कबीर पंथी प्राध्यापक डॉ सुरेश पटेल, इंदौर ने कहा कि कबीर ने अनेक प्रकार की चुनौतियां का सामना किया। उन्होंने देखा कि हवा और जल किसी के साथ भेदभाव नहीं करते तो मनुष्य भेदभाव क्यों करता है। उन्होंने करघा चलाते हुए लोगों को ज्ञान दिया। समाज के ताने-बाने को जोड़ने की जरूरत उन्होंने महसूस की। कबीर की शक्ति लोक की शक्ति है। वे सदैव लोकाश्रय में रहे। आजीवन उन्होंने मनुष्य से मनुष्य को जोड़ने की चेष्टा की। कबीर ने श्रम को कभी हीन दृष्टि से नहीं देखा।




डॉ संजीव निगम, मुंबई ने कहा कि कबीर ने जो भी देखा उसे अपनी वाणी के माध्यम से प्रस्तुत किया। कबीर ने संकेत दिया है कि लोग शिक्षित तो हो जाते हैं, लेकिन ज्ञानी नहीं बन पाते हैं। उनकी वाणी लोगों के कण्ठों में बस गई है। कई पीढ़ियां निकल गईं, किंतु कबीर की वाणी जीवित है। सामान्य जन से लेकर विशिष्ट जन तक सब कबीर को गा रहे हैं और उन्हें अपने जीवन में उतार रहे हैं। कबीर का लेखन शाश्वत लेखन है, जो आज भी प्रासंगिक है।





श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि कबीर ने संपूर्ण समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए ताना-बाना बुना था। लोक समुदाय के बीच उनसे अधिक प्रभाव डालने वाला कोई दूसरा कवि नहीं हुआ। उनकी वाणी में अनमोल विचार संचित हैं।


अध्यक्षीय उद्बोधन में प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि संत कबीर क्रांतिकारी कवि थे। उन्होंने पाखंड के विरुद्ध स्वर उठाया। वे व्यष्टि नहीं, समष्टिवादी थे। उन्होंने सर्वधर्म सद्भाव को जीवन में चरितार्थ किया। अपनी वाणी के माध्यम से कबीर ने दया, करुणा और प्रेम की प्रतिष्ठा की। सत्य को बड़े साहस के साथ स्थापित करने का कार्य उन्होंने किया। वे सच्चे मानवतावादी थे। वे मानव मात्र की पीड़ा का शमन करना चाहते थे।


संगोष्ठी की प्रस्तावना श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने प्रस्तुत की।  सरस्वती वंदना डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने की। संस्था परिचय डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने प्रस्तुत किया। अतिथि परिचय भुनेश्वरी जायसवाल, भिलाई ने दिया। कार्यक्रम की पीठिका एवं स्वागत भाषण डॉ प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत किया।




आयोजन में डॉ ममता झा, मुंबई, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मनीषा सिंह, मुंबई, डॉ दिग्विजय शर्मा, आगरा, दिव्या पांडे, डॉ रेखा भालेराव, उज्जैन, उर्वशी उपाध्याय प्रेरणा, प्रयागराज, शीतल वाही, भुवनेश्वरी जायसवाल, भिलाई आदि सहित अनेक साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


संगोष्ठी का संचालन श्रीमती पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने किया। आभार प्रदर्शन उर्वशी उपाध्याय प्रेरणा, प्रयागराज ने किया।











































कबीर जयंती


20200720

कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा | प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा | Kabir Darshan evam Shikshak Shiksha | Prof. Shailendra Kumar Sharma
अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान



कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा

 प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

शिक्षा व्यक्तित्व का समग्र रूपांतरण करती है। शिक्षक की रूपान्तरकारी भूमिका कबीर चिंतन में है। शिक्षा का सम्बन्ध केवल साक्षर बनाने से नहीं, बल्कि व्यक्ति को सर्वांगीण, आत्मनिर्भर, भावनात्मक एवं प्रज्ञाशील बनाने से है। कबीर इसी अर्थ में कोरे आखर ज्ञान के विरुद्ध हैं। 

शिक्षा का दायित्य है जीवन से जुड़े पहलुओं पर सवाल खड़े करना, तार्किक बनाना और जबाब तलाशना,  कबीर का दर्शन यह करता है। 

शिक्षक की जिम्मेदारी है कि वह सही - गलत का निर्णय लेने की क्षमता विकसित करे, कबीर लगातार यह करते हैं। आलोचक समाज और रचनात्मक समाज शिक्षा के जरिए बनता है, कबीर इस दिशा में निरन्तर गतिशील बने रहे। समतामूलक समाज का निर्माण शिक्षक शिक्षा और लोक शिक्षा दोनों का आदर्श है, कबीर अपनी वाणी के माध्यम से चिंतन के इसी स्तर पर ले जाते हैं। इसी तरह चारित्रिक विकास में शिक्षा की भूमिका देखना हो तो कबीर के दर्शन में देखी जा सकती है।


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20200529

सन्त कबीर : आज के संदर्भ में - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sant Kabir : In Today's Context

आज क्यों ज्यादा याद आते हैं कबीर

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

मानवीय जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है- चहुँ ओर व्यापती असहजता। उसी के चलते कई तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं का प्रसार होता आ रहा है। भारत की अछोर कवि माला के अद्वितीय कवि कबीर इस संकट से भली - भांति परिचित थे, इसीलिए वे व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन में सहज होने की पुकार लगाते हैं। आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः का वैदिक सूक्त कबीर के यहां चरितार्थ हुआ है। वे भी ऋषियों की भाँति इस बात का संदेश देते हैं कि हमारे लिए सब ओर से कल्याणकारी विचार आएं।

मध्यकालीन अराजकता और सामंती परिवेश में असहजता का कोई प्रतिपक्ष रचता है तो वह कबीर ही है। कबीर का व्यक्तित्व और कर्तृत्व अत्यंत सहज है, किन्तु जब वे देखते हैं कि संसारी जीव सहजता के मार्ग से बहुत दूर चले आए हैं, तब वे क्रांति चेतना से संपृक्त हो आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं। आज के असहजता से भरे विश्व में उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ती जा रही है। वे सहजता के साथ सत्य और सदाचरण पर विशेष बल देते हैं : 

सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहावै सोइ॥  

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय सांच है, ताके हिरदय आप।।


भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति का बहुआयामी विस्तार भक्ति काल में हुआ, जो अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। देश के विविध क्षेत्रों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश भक्त कवि पहले की भक्तिपरक गीति परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी। 

देशव्यापी भक्ति आंदोलन और भक्ति - दर्शन सर्वसमावेशी है। इसने 'सर्वे प्रपत्ति अधिकारिणः' के सूत्र को मैदानी तौर पर साकार करने में महती भूमिका निभाई है। सदियों से सामाजिक जकड़न, असमानता और पुरोहितवाद से मुक्ति की राह खोली। देश के सभी भागों के भक्तगण विविध वर्ग और जातियों से आए थे, किन्तु वे सभी एक सूत्र में बंधे थे और समूचे समाज को इसी का सन्देश देते रहे। फिर उनके लिए मन ही तीर्थ था और मन ही ईश्वर का वास स्थान।

मध्यकाल में दक्षिण भारत के आलवार संतों ने जिस भक्ति आंदोलन का प्रवर्तन किया था, उसके स्वर से स्वर मिलते हुए भक्तों और संतों ने भारत के सुदूर अंचलों तक विस्तार देने में महती भूमिका निभाई। दक्षिण से उत्तर भारत की ओर प्रवाहित भक्ति आंदोलन ने शेष भारत के विविध अंचलों पर गहरा प्रभाव डाला। यह प्रभाव भक्ति की लोक-व्याप्ति, सहज जीवन-दर्शन, सामाजिक समरसता के प्रसार, जनभाषाओं के विस्तार जैसे कई स्तरों पर दिखाई देता है। देश के विभिन्न स्थानों पर हुए भक्तों की महिमा की अनुगूँज उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सुनाई देती है। यहाँ तक कि उनके अनेक समकालीन और परवर्ती भक्तों ने ऐसे भक्तों को भक्ति के प्रादर्श के रूप में महिमान्वित किया। इन लोगों ने क्षेत्र, भाषा और वर्ग की दीवारों को समाप्त करने में अविस्मरणीय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र के अनेक भक्त-कवियों ने न केवल मराठी में भक्तिपरक काव्य की रचना की, हिंदी साहित्य को भी अपनी भक्ति-रचनाओं से समृद्ध किया। नामदेव तो एक तरह से उत्तरी भारत की संत-परम्परा के आदिकवि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र से चलकर सम्पूर्ण देश की यात्रा की और भक्ति का पथ प्रशस्त किया। इस परम्परा को स्वामी रामानन्द, कबीर, नानक, रैदास, सेन, पीपा, मीरा आदि ने आगे बढ़ाया। स्वामी रामानन्द के द्वादश भागवतों में प्रमुख- सन्त कबीर, सन्त रैदास, सन्त पीपाजी, सन्त सेनजी आदि गुरुभाई थे, जिनका दीर्घावधि तक साथ रहा। वे भी नामदेव की महिमा को मुक्त कंठ से गाते हैं। स्वयं सन्त कबीर वर्णन करते हैं:

सन्तन के सब भाई हरजी
जाती बरन कुल जानत नाहीं लोग के चतुराई
शबरी जात भिलीनी होती बेर तोर के लाई।
प्रीती जान वांका फल खात तीनरू लोक बढ़ाई।।
करमा कौन आचरण किनी हरि सो प्रीती लगाई।
छप्पन भोग की आरोगे पहिले खिचरी खाई।।
नामा पीपा और रोहिदास उन्होंने प्रीती लगाई।
सेन भक्त को संशय मेट्यो, आप भये हरि नाई।
 सहस्र अठासी ऋषि मुनि होत, तबहु न संख बाजे। 
 कहत कबीर सुपचके आये संख्या भगत होय गाते॥  

भक्तिकाल भारत के अंतर - ब्राह्य पुनर्जागरण का काल है, जहाँ एक साथ समूचे देश में वर्ग, सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र की हदबंदियों को तोड़कर पूरे समाज को समरस बनाने का महत् कार्य भक्तों-संतों ने किया था।  भक्ति की लोक-गंगा को विशिष्ट गति और लय से बाँधते हुए उसका पाट चौड़ा करने का कार्य जिन रचनाकारों ने किया है, उनमें महाराष्ट्र सहित अनेक क्षेत्रों के भक्तों-संतों का अनुपम स्थान है। भक्ति कभी साधन रही है, किन्तु संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, कबीर, रैदास, गुरुनानक देव, रामदास, एकनाथ, तुकाराम, तुलसी, मीरा आदि के लिए यह सिद्धि का पर्याय रही है। वस्तुतः पंचम पुरुषार्थ के रूप में महिमान्वित भक्ति के सामने बड़े-बड़े दार्शनिक मतवाद विवश हो जाते हैं। 

नाभादास ने अपने भक्तमाल के दो छप्पयों में कबीर के विषय में महत्त्वपूर्ण संकेत किए हैं। वे रामानन्द के जग मंगलकारी शिष्यों में कबीर की परिगणना कुछ इस तरह करते हैं:
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियौ।
अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि।
पीपा भामानन्द रैदास धना सेन सुरसरि की धरहरि।।
औरों शिष्य प्रशिष्य एक तैं एक उजागर।
जग मंगल आधार भक्ति दशधा के आगर।।
बहुत काल वपु धारिकै प्रणत जनत को पार दियौ। श्री रामानन्द रघुनाथ . . .  



कबीर के साहित्य में उनके अपने समय की ही नहीं, काल प्रवाह में उभरती अनेक विसंगतियों से मुकाबले का रास्ता साफ नजर आता है।  इसीलिए वे जितने अपने समय में प्रासंगिक थे, उससे कम आज नहीं होंगे। कबीर की पीड़ा में समूचे समाज की पीड़ा समाहित है, जिसके बिना कोई भी कवि बड़ा कवि नहीं बन सकता है:

सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।। 

लोक की पीड़ा से त्रस्त कबीर ऐसे जीवन मूल्यों की तलाश का प्रयास करते हैं, जिनके द्वारा आदमी-आदमी को विभाजित करने वाली दीवारों को ध्वस्त किया जा सके। मानवनिर्मित वर्ण, जाति, धर्म, रंग, नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े हुई मानवीय एकता का पुनर्वास हो जा सके। प्रेम, सत्य, अहिंसा, विनय, करुणा, कृतज्ञता, समर्पण, आत्मगौरव जैसे उदात्त मूल्यों की पुनर्स्थापना हो, जिनकी आवश्यकता प्रत्येक देश और काल के समाज को बनी रहेगी। कबीर की दृष्टि में प्रेम की पीड़ा में ही सभी प्रकार के विलगाव और विभेद की औषधि है। विश्वव्यापी हिंसा, परस्पर भेद, अशांति, युद्ध के बीच कबीर इसीलिए बार बार याद आते हैं। 
कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥






दृष्टि से ही सृष्टि बनती है, सृष्टि से दृष्टि नहीं बनती। कबीर की कविता इस बात का उदाहरण है। वैसे तो सामान्य परिस्थितियों में ही कबीर याद आते हैं, लेकिन विभीषिका के दौर में वे और अधिक याद आते हैं। वे लगातार ऐसे मूल्यों की खोज करते हैं जो अमानवीयता,  असमानता और विभेद को नष्ट करें। जीवन दृष्टि के विकास में किसी कवि या संत का क्या महत्त्व होता है, यह कबीर के नजदीक आने से स्पष्ट होता है।

कबीर एक ओर विसंगतियों से भरे समाज के आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं, तो दूसरी ओर उसी समाज के प्रति स्नेह के रहते उसे नए रूप में ढालने का उपक्रम भी करते हैं। इस दृष्टि से कबीर के प्रतिपाद्य को दो भागों में देखा जा सकता है, पहला रचनात्मक और दूसरा आलोचनात्मक। रचनात्मक हिस्से में वे नीतिज्ञ हैं। इस रूप में वे मानव मात्र को सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, संतोष, उदारता जैसे गुणों को अंगीकार करने का मार्ग सुझाते हैं। आलोचनात्मक हिस्से में वे समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड, जातिप्रथा, मिथ्याडंबर, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का खंडन करते हैं। उन्होंने मानवीय सभ्यता से जुड़े प्रायः सभी क्षेत्रों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी बात निर्भीकता से कही। हिंदुओं और मुसलमानों को उनके पाखण्ड के लिए फटकार लगाई। साथ ही उन्हें सच्चे मानव धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे समस्त प्रकार की भ्रांतियों को निस्तेज करते हैं-

सेवैं सालिगराँम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़े काला कापड़ा, नाँव धरावैं सेत॥

जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेविया, यों जग चल्या निरास॥

तीरथ त सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि॥

कबीर दुनियाँ देहुरै, सीस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तूँ ताही सौ ल्यौ लाइ॥

भारतीय लोकतंत्र की स्थापना में कबीर प्रतिबिंबित हैं। भारतीय संविधान में कबीर सहित भारतीय मध्यकालीन संतों की आत्मा बसती है। हमारा संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधारों पर टिका हुआ है। यह तीनों परस्पर पूरक है, अंतरावलम्बी हैं। इनमें से कोई एक भी कमजोर होगा तो शेष दोनों भी कमजोर हो जाएंगे। पहले कबीर ने इन्हें आगे बढ़ाया, फिर महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर इन्हें आगे बढ़ाते हैं। कबीर का संघर्ष व्यर्थ नहीं गया है, उनके अपने समय में और परवर्ती समय पर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा है। वे आज ज्यादा याद आते हैं।

(यह आलेख भारतीय विचार मंच नागपुर एवं अक्षर वार्ता अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका द्वारा आयोजित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रस्तुत प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा के व्याख्यान पर आधारित है।)

20200424

कबीर वाणी में रावण का अंत

रावणान्त : कबीर वाणी में
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 
इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥
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लंका सा कोट समुद्र सी खाई।
तिह रावन घर खबरि न पाई।

क्या माँगै किछू थिरु न रहाई।
देखत नयन चल्यो जग जाई॥

इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥

चंद सूर जाके तपत रसोई।
बैसंतर जाके कपरे धोई॥

गुरुमति रामै नाम बसाई।
अस्थिर रहै कतहू जाई॥

कहत कबीर सुनहु रे लोई
राम नाम बिन मुकुति न होई॥

मैं (परमात्मा से दुनिया की) कौन सी चीज चाहूँ? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत् चलता जा रहा है।

जिस रावण का लंका जैसा किला था, और समुद्र जैसी (उस किले की रक्षा के लिए बनी हुई) खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।

जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र (बताए जाते हैं), उसके महलों में कहीं दीया-बाती जलता ना रहा।

(ये उस रावण का वर्णन है) जिसकी रसोई चंद्रमा और सूरज तैयार करते थे, जिसके कपड़े बैसंतर (वैश्वानर अग्नि) धोता था (भाव, जिस रावण के पुत्र - पौत्रों का भोजन पकाने के लिए दिन-रात रसोई तपती रहती थी और उनके कपड़े साफ करने के लिए हर वक्त आग की भट्ठियाँ जलती रहती थीं)।

अतः जो मनुष्य (इस नश्वर जगत् की ओर से हटा कर अपने मन को) सतगुरु की मति ले कर प्रभु के नाम में टिकाता है, वह सदा स्थिर रहता है, (इस जगत् माया की खातिर) भटकता नहीं है।

कबीर कहते हैं – सुनो, हे जगत के लोगो! प्रभु के नाम स्मरण के बिना जगत से मुक्ति सम्भव नहीं है।



कबीर वाणी में वर्णित रावण संबंधी प्रसंग बहुअर्थी हैं। लंका का अधिपति राक्षसराज रावण परम ज्ञानियों में से एक माना गया है। उसकी शिव उपासना एवं शिव को शीश अर्पित करके इष्ट फल की प्राप्ति की कथा लोक में बहुत प्रसिद्ध है। अपनी वासना, लोभ, मोह और अहंकार के कारण उसने रघुकुलनंदन राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, जो अंततः उसके विनाश का कारण बना। इस प्रकार रावण का व्यक्तित्व रचनाकारों के लिए विकारों के दुष्परिणामों को चित्रित करने के लिए महत्त्वपूर्ण रहा है।
 
संत नामदेव के शब्दों में

सरब सोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥
 
संत कबीर जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार जैसे विकारों से बचने का निरंतर उपदेश देते हैं। उनके समक्ष रावण जैसे परम ज्ञानी का अपने इन्हीं विकारों के कारण ध्वस्त होने का उत्तम उदाहरण है। कबीर रावण द्वारा जीव को मृत्यु की शाश्वतता का संकेत करते हुए उसे इन विकारों का त्याग करते हुए सद्पंथ पर चलने और ईश्वर की शरण में जाने का सन्देश देते हैं,

असंखि कोटि जाकै जमावली, रावन सैनां जिहि तैं छली।
ना कोऊ से आयी यह धन, न कोऊ ले जात।
रावन हूँ मैं अधिक छत्रपति, खिन महिं गए वितात।

कबीर ने अपने इष्ट के लिए लोक-प्रचलित विविध अवतारी नामों का प्रयोग भी किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य निर्गुण मत का प्रचार करना ही रहा है। कबीर ने रावण-प्रसंग में अपने इष्ट के लिए विशेषतः 'राम' शब्द का प्रयोग इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया है ।

एक हरि निर्मल जा का आर न पार 

लंका गढ़ सोने का भया । मुर्ख रावण क्या ले गया।
कह कबीर किछ गुण बिचार । चले जुआरी दोए हथ झार । 
मैला ब्रह्मा मैला इंद । रवि मैला मैला है चंद । 
मैला मलता एह संसार । एक हरि निर्मल जा का अंत ना पार । 
रहाऊ मैले ब्रह्मंड के ईस । मैले निस बासर दिन तीस । 
मैला मोती मैला हीर । मैला पउन पावक अर नीर ।
मैले शिव शंकरा महेस । मैले सिद्ध साधक अर भेख ।
मैले जोगी जंगम जटा सहेत । मैली काया हंस समेत ।
कह कबीर ते जन परवान । निर्मल ते जो रामहि जान ।

कबीर जी कहते हैं - सोने की लंका होते हुए भी मूर्ख रावण अपने साथ क्या लेकर गया ? अपने गुण पर कुछ विचार तो करो । वरना हारे हुए जुआरी की तरह दोनों हाथ झाड कर जाना होगा । ब्रह्मा भी मैला है । इंद्र भी मैला है । सूर्य भी मैला है। चाँद भी मैला है । यह संसार मैले को ही मल रहा है । अर्थात मैल को ही अपना रहा है । एक हरि ही है - जो निर्मल है । जिसका न कोई अंत है । और न ही उसकी कोई पार पा सकता है । ब्रह्मांड के ईश्वर भी मैले हैं । रात दिन और महीने के तीसों दिन मैले हैं । हीरे जवाहरात मोती भी मैले हैं । पानी हवा और आकाश भी मैले हैं । शिव महेश भी मैले हैं । सिद्ध लोग साधना करने वाले और भेष धारण करने वाले भी मैले हैं । जोगी जंगम और जटाधारी भी मैले हैं । यह तन हंस भी बन जाए । तो भी मैला है । कबीर कहते हैं - केवल वही कबूल हैं, जिन्होंने राम जी को जान लिया है ।



Shailendrakumar Sharma

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी अध्ययनशाला
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

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