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20200430

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / सम्पादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

BOOK ON INDIAN FOLK DRAMA ‘MACH’ BY Prof. Shailendrakumar Sharma 

पुस्तक समीक्षा / BOOK REVIEW
लोक कलाओं का त्रिवेणी संगम: मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएँ  - डा. पूरन सहगल
लोक नाट्य विधा, लोक की जीवन शैली की अभिन्न अंग है। इसी के माध्यम से लोक अपने मनोभावों को व्यक्त करता है। इसी के माध्यम से वह सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों की ओर लोक का ध्यान आकर्षित करता है तथा इसी के माध्यम से ही वह अपने मन-मस्तिष्क की थकान भी उतारता है। नाट्य विधा की ही एक सशक्त लोक विधा ‘माच’ है। मालवा, मेवाड़ और हाड़ौती अंचल में माच का ठाठ एक जैसा ही रहा है। माच और उसके खेल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उसके उद्भव के समय थे। लोक की रूझान का यह आज भी चहेता है। लोक-नाट्य माच की परंपरा युग की स्थितियों-परिस्थितियों के कारण थोड़ी सी रुकी अवश्य है, झुकी नहीं है।

माच धारदार तेवर, इसका फड़कता हुआ अभिनय, इसकी ऊँची तरंगों वाली तानें, इसके साज़ और साजिंदों की जीवंतता, इसके अभिनीत नाट्य प्रसंग, इसकी अनूठी नाट्य-शैली और इसका सामाजिक सरोकार कभी भी अप्रासंगिक नहीं हुए और न होंगे।  जब भी कहीं सूचना मिलती है कि माच का खेल होने वाला है, लोग दूर-दूर से पहुँच जाते है, उसी उमंग और उत्साह के साथ। यह उमंग ठीक वैसी ही होती है जैसे कोई आत्मीयजन बहुत दिनों बाद गाँव लौटा हो।

नाट्य समीक्षक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने माच की इस महत्ता को समझा और अद्भुत रूप से रचनाएँ एकत्रा कर एक ग्रंथ हमारे हाथों में सौंप दिया। एक ही विषय पर समग्र दृष्टिकोणों से रचनाएँ लिखवाना बहुत कठिन होता है। इससे भी कठिन होता है समयावधि में रचनाएँ लिखवाकर प्राप्त कर लेना और सबसे कठिन होता है विषय के प्रामाणिक विद्वानों को खोज निकालना। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने यह कठिन कार्य किया और उसकी सफलता के प्रमाण स्वरूप हाल ही में प्रकाशित ग्रंथ ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ हमारे सामने है। इस ग्रंथ के संकलन एवं संपादन में जितना श्रेय संपादक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, सहयोगी संपादक डा. जगदीशचन्द्र शर्मा और प्रबन्ध संपादक श्री हफीज़ खान को है, उतना ही इसके रचनाकारों का भी है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ Book of Shailendra Kumar Sharma


मैं इस पुस्तक को अपने लिए विशिष्ट पुरस्कार मानता हूँ। माच पर लिखने के लिए मैं वर्षों से सोचता रहा। मैं डा. शिवकुमार मधुर से थोड़ा आगे दो पाँवटे इस पथ पर रखना चाहता था। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने मेरा सपना साकार कर दिया। हाथ लगते ही मैंने यह पुस्तक अपनी एक यात्रा के दौरान पढ़ी। ऐसा लगा मानो डा. शैलेन्द्र जी ने अनायास ही एक शोध-प्रबंध पूरा कर दिया हो। सामूहिक भागीदारी से एक सम्पूर्ण शोध-प्रबंध लिखने का यह एक सफल प्रयोग है।

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा के इस संपादन की अन्य विशेषताओं के अलावा सबसे बड़ी विशेषता है, लोक-नाट्य की सभी समकालीन विधाओं पर चर्चा करवाते हुए लोकनाट्य माच के समस्त पहलुओं - प्रसंगों पर सार्थक एवं शोधपरक चर्चा करवा लेना। इसमें उन्होंने समग्र मालवा-निमाड़ और मेवाड़ को तो शामिल किया ही है, हाड़ौती (राजस्थान) को भी प्रतिनिधित्व दिया है। इस प्रकार डा. शर्मा ने तीन क्षेत्रों की लोक-संस्कृति का एक त्रिवेणी संगम तो स्थापित किया ही है, लोकनाट्य, लोक चित्रावण एवं लोक-नृत्यों पर शोधपरक लेख शामिल कर दोहरा त्रिवेणी तीर्थ स्थापित करते हुए लोक-संस्कृति को सहज भाव से सशक्त, समर्थ एवं संवेदित कर इसकी अनश्चेतना को पूर्णतः उमंगित और आलोडि़त कर दिया है।

मेवाड़ के देवीलाल सामर और डा. महेन्द्र भानावत तथा निमाड़ वसंत निरगुणे जिन्होंने लोक-नाट्य को भली-भाँति जाना, समझा और खेला है तथा संवार कर उसे ऊँचाइयों का मुकाम दिया है। इस संग्रह को उनके लेखन का मार्गदर्शन मिलना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मेवाड़ से यात्रा शुरूकर पूरे अरावली को लाँघते हुए जावद, सिंगोली, रतनगढ़, नीमच, मनासा, मंदसौर, मल्हारगढ़, भानपुरा होते हुए तथा बीच में अनेक पड़ावों पर माच के ठाठ को सहेजते हुए डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा भोपाल, शाजापुर से वापिस उज्जैन लौटे हैं। मालवा की एक वृत्ताकार यात्रा कर डाॅ. शर्मा ने जिस मनोयोग और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इससे उन्होंने अपने शोधार्थियों को तो प्रेरित किया ही है, अपनी सुविचारित कार्य योजना और प्रबुद्ध वर्ग केे सहयोग को भी सार्थक कर दिया है।

माच के विषय बल्कि लोक-नाट्यों के विषय में डा. शिव चौरसिया की चिंता कितनी सटीक है कि ‘‘आधुनिक युग में विज्ञान द्वारा उपलब्ध करवाए अनेक अति आधुनिक साधनों के कारण लोकनाट्य में सामाजिक रुचि कम हुई है।’’ - (मालवी लोक-नाट्य माच) इसके अलावा लोक नाट्यों के प्रति उपेक्षा का कारण समय की बेतहाशा भागम-भाग भी है। किसी के भी पास इतना समय नहीं है कि वह लोकमंच के सामने बैठकर थोड़ा-सा मनोरंजन कर ले। वह तो इतना तेज भाग रहा है कि उसे अपने जीवन या पारिवारिक सरोकारों तक का भी भान नहीं है।

इस सचाई के बावजूद माच केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है। उसमें लोक-संस्कृति के विविध रंगों का आभास हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस बात की पुष्टि माच-रंग के मर्मज्ञ विद्वान डा. शिवकुमार ‘मधुर’ ने अपने लेख ‘माच में प्रतिबिंबत लोक संस्कृति के विविध रंग’ में बहुत ही अदब से कही है।

लोक की अन्तश्चेतना, अन्तःअनुभूत और अन्तःआलोड़न की कहानी का क्रमबद्ध इतिहास लोक-संस्कृति में समाहित है। माच-साहित्य उसी लोक-संस्कृति का एक हिस्सा है। इसलिए उसमें लोक-संस्कृति की धड़कनें विद्यमान हैं। मालवा की लोक-संस्कृति का अंकन माच की रचनाओं में प्रयासजन्य न होकर सहज भाव से हुआ है। वैसे तो समग्र लोक-साहित्य का सृजन ही लोक आराधना का प्रतिफल है। माच में विशेष भाव विहवलता, विविधता और विचित्राता निहित रहती है। वह सबसे अलग है। स्वयं डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने अपने लेख ‘सामाजिक समरसता में माच की भूमिका’ में यह स्वीकारा है कि सामाजिक समरसता, धार्मिक सहिष्णुता, लोक मंगल की कामना, समतामूलक समाज की अवधारणा तथा सामाजिक न्याय की स्थापना के साथ-साथ सामाजिक रूढि़यों पर करारी चोट करने की क्षमतावान अभिव्यक्ति जितनी माच के खेलों में निहित है, उतनी अन्य किसी भी विधा में नहीं है।

डा. जगदीशचन्द्र शर्मा का आलेख ‘माच: प्रेरणा और उद्भव’ डा. श्यामसुंदर निगम का लेख ‘मालवा का लोक नाट्य माचः  एक दृष्टि’ या नरहरि पटेल का लेख ‘मालवी माच पर चिंतन’, अशोक वक्त का लेख ‘माच उर्फ शबे मालवा में थिरकती संस्कृति’ झलक निगम का ‘ढोलक तान फड़क के’ जैसे लेख माच की परंपरा और उसके महत्त्व को स्थापित करने के लिए महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों की तरह सहेजने योग्य हैं।

डा. प्यारेलाल श्रीमाल ‘सरस पंडित’ का महत्त्वपूर्ण गवेषणात्मक आलेख ‘प्रभावी लोक नाट्य माच और उसका संगीत’, डा. धर्मनारायण शर्मा का लेख’ संस्कृति एवं धार्मिक समन्वय के क्षेत्रा में ‘तुर्रा-किलंगी सम्प्रदायों का योगदान’, डा. पूरन सहगल का आलेख’ दशपुर मालवांचल में माच की परपंरा’, श्री ललित शर्मा का लेख ‘झालावाड़ की माच परंपरा’ जैसे आलेख माच के सामाजिक सरोकारों को तो प्रमाणित करते ही हैं, माच के सांस्कृतिक अवदानों की भी पुष्टि करते हैं।

तीन आलेख माच की लोक शैली, और प्रदर्शन शैली तथा माच के दर्शन संबंधी इस संग्रह में हैं, यदि ये न होते तो इनके बिना बात अधूरी रह जाती। सिद्धदेश्वर सेन का लेख ‘मालवा की माच परंपरा और कलाकार’, डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘माच का दर्शन’ और स्वयं डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का लेख ‘लोक नाट्य माच: प्रदर्शन शैली और शिल्प’ जैसे लेखों में कई पूर्वाग्रहों और विसंगतियों पर विराम चिह्न लगाने का सटीक एवं सशक्त प्रयास किया गया है।

डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘मालवा की चित्राकलाः शैलचित्रों से चित्रावण तक’, बसंत निरगुणे का लेख ‘मालवा-निमाड़ एवं अन्य अंचलों में पारंपरिक लोकचित्रा’, डा. लक्ष्मीनारायण भावसार का लेख ‘मालवा में चित्रावण विधा’ के साथ-साथ डा. आलोक भावसार का लेख ‘मालवा की लोक संस्कृति और लोक विधाएँ ’ एवं कृष्णा वर्मा का लेख ‘मालवा की लोक कला मांडना और संजा’ एवं डा. विवेक चैरसिया का लेख, ‘धन है मनक जमारो’ सब मिल-जुलकर मालवा की लोक चित्राशैली, चित्रावण, भित्ति चित्रा, पट्टचित्रा तथा लोक माँडनों में निहित सांस्कृतिक तथा कला परंपरा पर ऐसे शोधपरक आलेख हैं, जिनके मार्ग निर्देशन में कई शोध गोखड़े उद्घाटित होते हैं।

मालवा के लोक नृत्यों पर डा. पूरन सहगल का लेख ‘मालवा में प्रदर्शनकारी कलाओं का ठाठ’ आदिवासी एवं नृत्य संस्कृति पर सहज चर्चा करने का एक प्रयत्न तो है ही यह लोक नृत्यों पर शोध की प्रेरणा का स्रोत भी है। मालवा के लोकनृत्यों और नृत्याभिनयों पर हमें लोक नृत्य विशेषज्ञा डा. विजया खड़ीकर से कुछ आगे सोचने की दृष्टि प्रदान करता है।

श्री राजेन्द्र चावड़ा का लेख ‘माच और काबुकी, रमाकांत चौरडि़या का लेख ‘मालवी हीड़ लोक काव्य’ तथा  डा. धर्मेन्द्र वर्मा का लेख ‘मालवा की लुप्त होती लोक विधा ‘बेकड़ली’ ने हमारा ध्यान लुप्त होती जा रही इन महत्त्वपूर्ण लोक कलाओं की ओर आकृष्ट किया है। ये तीनों लेख हमें अपनी विलुप्त होती जा रही लोक कलाओं और विधाओं की रक्षा-सुरक्षा के प्रति पूरी जिम्मेदारी से चेतमान करते हैं।

इसी प्रकार आदिवासी लोक कलाओं तथा लोक नाट्यों पर एक-दो लेख इस संग्रह में यदि होते तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात होती। बसंत निरगुणे ने अपने आलेख में आदिवासी लोक चित्रावण पर चर्चा की है। इसमें भी यदि वे आदिवासी आनुष्ठानिक चित्रावण ‘पिथौरा’ व लोक देवता (नायक) ‘राय पिथौरा’ पर भी कुछ लिखते तो अधिक उपयुक्त होता । आदिवासी संस्कृति एवं उनके लोक नाट्यों पर उन्हें पूर्णतः विशेषज्ञता प्राप्त है। इसका लाभ वे इस संग्रह को दे सके होते तो संग्रह की सम्पन्नता एवं समग्रता परिपुष्ट हो जाती। पंकज आचार्य ने ‘‘बाल माच प्रदर्शन और लोक-संस्कृति संरक्षण की कोशिशें’’ लेख में बाल अभिनय और बाल नृत्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया हैं, किन्तु वे ‘फूंदी फटाका’ बालनृत्य का घूमर क्यों भूल गए वे ही जानें।

आज जरूरत इस बात की है कि लोक नाट्य की अन्य लोक विधाओं से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मालवा की सीमावर्ती लोक सांस्कृतिक परंपराओं को दृष्टि में रखकर समग्र अनुशीलन हो। ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ में इन सब शोधपरक संभावनाओं के सूत्रा उपलब्ध हैं। माच का वर्तमान परिदृश्य में युगानुरूप कितना और किस प्रकार उपयोग हो सकता है, उसे विखंडित होते हुए पारिवारिक संदर्भों, विचलित होते हुए सामाजिक मानकों और भ्रष्ट होते हुए राजनैतिक विभ्रमों से जोड़ते हुए नवीन दृष्टि प्रदान करना होगी। स्वच्छंद होती हुई सभ्यता के अश्व को संयमित करने के लिए उसके हाथों में संस्कृति का चाबुक थमाना होगा। अभी भी माच के संदर्भ में विशद सर्वेक्षण होना शेष है ठीक वैसा ही सर्वेक्षण जैसा नीमच के सुरेन्द्र शक्तावत ने अपने लेख ‘नीमच की माच परंपरा’ के अन्तर्गत किया है। इतना श्रम और इतनी लगन हम सबको करना होगी, तब जाकर डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का यह प्रयास सुफलित हो पाएगा। इतने महत्त्वपूर्ण शोधपरक कार्य के लिए एवं सुव्यवस्थित सम्पादन के लिए वे बधाई के  हकदार तो हैं ही।


पुस्तक का नाम - मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएँ
सम्पादक - डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक - अंकुर मंच, उज्जैन
प्रथम संस्करण 2008 ई., मूल्य 100/-रु., पृ. 208 (सचित्र)


20200428

हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य / संपादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य / संपादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

संपादकीय के अंश :
भारतीय परंपरा ज्ञान की सर्वोपरिता पर बल देती है। गीता का कथन है, नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते, ज्ञान से बढ़कर मन, वचन और कर्म को पवित्र करने वाला कोई दूसरा तत्त्व नहीं है। ज्ञानार्जन के माध्यम से ही मानव व्यक्तित्व का निर्माण संभव होता है, जो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व जीवन में प्रतिबिंबित होता है। सच्ची शिक्षा मनुष्य को अंतरबाह्य बंधनों से मुक्त करती है। संकीर्ण दृष्टिकोण को त्यागकर व्यक्ति का दायरा बढ़ने लगता है। उसे सारा संसार एक परिवार जैसा दिखाई देने लगता है। वसुधैव कुटुंबकम् का संदेश यही है, जो सुदूर अतीत से वर्तमान तक भारतीय संस्कृति का प्रादर्श बना हुआ है। कथित विकास और उपभोग के प्रतिमान हमारी शाश्वत मूल्य दृष्टि और पर्यावरणीय संतुलन के समक्ष चुनौती पैदा कर रहे हैं। ऐसे में मानवीय संबंधों में भी दरार आना स्वाभाविक है। ये समस्याएं जितनी सामाजिक और आर्थिक हैं, उससे ज्यादा मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और मूल्यपरक हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के संबंधों को लेकर नई सजगता जरूरी है, जिससे जीवन में सकारात्मकता लाने के साथ मानव व्यक्तित्व के निर्माण में सहायता सम्भव हो। परिवार और समाज किसी भी राष्ट्र के लिए स्नायु तंत्र की भूमिका निभाते हैं। बिना पारस्परिक अवलम्ब, प्रेम और सद्भाव के राष्ट्र और विश्व जीवन नहीं चल सकता है। इसी दृष्टि से भाषा शिक्षण के साथ नैतिक मूल्यों और भावनाओं के विस्तार के लिए प्रयास जरूरी हैं। नैतिकता ही वह पथ है, जिसके माध्यम से समाज में आपसदारी, विश्वास और भयमुक्त जीवन के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। ऐसा कोई व्यवसाय नहीं है, जिसमें नैतिक मूल्यों की पहचान और निर्वाह आवश्यक न हो।
भारतीय दर्शन जीवन का परम लक्ष्य सुख मानता है, किंतु यह सुख स्थूल ऐन्द्रिय सुख नहीं है। उसे मुक्ति या मोक्ष अथवा निर्वाण के साथ संबद्ध किया गया है। इसीलिए नैतिक मूल्यपरक आचरण की अनिवार्यता हमारी चिंतन धारा के केंद्र में है और वह सार्वभौमिक मूल्यों तक विस्तार ले लेती है। भूमंडलीकरण और सूचना - संचार क्रांति के दौर में शिक्षा के साथ नैतिक मूल्यों की इस विचार – शृंखला का समन्वय अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा मनुष्य को यंत्रवत् होने से रोका नहीं जा सकेगा।
इस पुस्तक में इसी दृष्टि से हिंदी के पुरोधा रचनाकारों की महत्त्वपूर्ण रचनाएं समाहित की गई हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, सरदार पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, स्वामी विवेकानंद, स्वामी श्रद्धानंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, रामधारीसिंह दिनकर, शरद जोशी आदि की विषयानुरूप रचनाओं के समावेश के साथ हिंदी व्याकरण के प्रमुख पक्षों को स्थान दिया गया है। विद्यार्थियों के संप्रेषण कौशल और भाषिक संपदा में श्री वृद्धि हो इस बात को दृष्टिगत रखते हुए पर्याप्त सामग्री संजोई गई है।
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Shailendrakumar Sharma

शैलेंद्रकुमार की पुस्तक हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य Book of Shailendra Kumar Sharma

20200426

हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा | Hindi Fiction - Prof. Shailendra Kumar Sharma

हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

पुस्तक चर्चा 

हिंदी कथा साहित्य की भूमिका और संपादकीय के अंश :
किस्से - कहानियों, कथा - गाथाओं के प्रति मनुष्य की रुचि सहस्राब्दियों पूर्व से रही है, लेकिन उपन्यास या नॉवेल और कहानी या शार्ट स्टोरी के रूप में इनका विकास पिछली दो सदियों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। हिंदी में नए रूप में कहानी एवं उपन्यास  विधा का आविर्भाव बीसवीं शताब्दी में हुआ है। वैसे संस्कृत का कथा - साहित्य अखिल विश्व के कथा - साहित्य का जन्मदाता माना जाता है। लोक एवं जनजातीय साहित्य में कथा – वार्ता की सुदीर्घ परम्परा रही है। इधर आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य का विकास संस्कृत - कथा - साहित्य अथवा लोक एवं जनजातीय कथाओं की समृद्ध परम्परा से न होकर, पाश्चात्य कथा साहित्य, विशेषतया अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव रूप में हुआ है।  कहानी कथा - साहित्य का एक अन्यतम भेद और उपन्यास से अधिक लोकप्रिय साहित्य रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना - सुनना मानव का स्वभाव बन गया। सभी प्रकार के समुदायों में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में तो कहानियों की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा रही है। वेद - उपनिषदों में वर्णित यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, सनत्कुमार-नारद, गंगावतरण, नहुष, ययाति, नल-दमयन्ती जैसे आख्यान नए दौर की कहानी के पुरातन रूप हैं।


आधुनिक सभ्यता में उपन्यास और कहानी ने अपनी खास जगह बना ली है। इसके मुख्य कारण हैं, व्यापक लोक चेतना का उदय, प्रजातंत्र के प्रति गहरा रुझान,  जीवन के साथ साहित्य की प्रखर अंतर्क्रिया और युग - परिवेश से गहन संपृक्ति। भारतीय संदर्भ में भी उपन्यास और कहानी की विकास यात्रा इन्हीं कारकों की उपस्थिति को प्रत्यक्ष करती है।

निरंतर बदलते यथार्थ, नवीन संवेदनाओं और परिवेशगत बदलाव को हिन्दी के अनेक कथाकारों ने नित नूतन कलेवर और कथा शिल्प के माध्यम से प्रत्यक्ष किया है। गाँव – नगर और महानगर से लेकर भूमंडलीकरण और बाजारवाद तक व्यापक आयामों को समाहित करते हुए हिन्दी कथा साहित्य का पाट निरंतर चौड़ा हो रहा है। हाल के दशकों में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के बीच हाशिये के समुदायों की चिंता का स्वर कथाकारों के व्यापक सरोकारों को प्रत्यक्ष कर रहा है।   
   
इस पुस्तक में हिंदी कहानी की विकास यात्रा, विविधविध धाराओं और प्रमुख रचनाकारों की पड़ताल के साथ  प्रतिनिधि कहानियों का समावेश किया गया है। इनमें जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, उषा प्रियंवदा, भीष्म साहनी और अमरकांत उल्लेखनीय हैं। इनके साथ ही अमृतलाल नागर, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, मालती जोशी एवं चित्रा मुद्गल के अवदान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। हाल ही में प्रकाशित इस पुस्तक में इक्कीसवीं सदी के कथा साहित्य में आए नए मोड़ों की पड़ताल भी की गई है।


प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
पुस्तक : हिंदी कथा साहित्य
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
प्रकाशन वर्ष 2020 ई.

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक हिंदी कथा साहित्य Book of Shailendra Kumar Sharma



हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा - Bekhabaron ki khabar - बेखबरों की खबर  - https://bkknews.page/article/hindee-katha-saahity-sampaadak-pro-shailendr-kumaar-sharma/zS7Wu0.html

20200424

कबीर वाणी में रावण का अंत

रावणान्त : कबीर वाणी में
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 
इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥
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लंका सा कोट समुद्र सी खाई।
तिह रावन घर खबरि न पाई।

क्या माँगै किछू थिरु न रहाई।
देखत नयन चल्यो जग जाई॥

इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥

चंद सूर जाके तपत रसोई।
बैसंतर जाके कपरे धोई॥

गुरुमति रामै नाम बसाई।
अस्थिर रहै कतहू जाई॥

कहत कबीर सुनहु रे लोई
राम नाम बिन मुकुति न होई॥

मैं (परमात्मा से दुनिया की) कौन सी चीज चाहूँ? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत् चलता जा रहा है।

जिस रावण का लंका जैसा किला था, और समुद्र जैसी (उस किले की रक्षा के लिए बनी हुई) खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।

जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र (बताए जाते हैं), उसके महलों में कहीं दीया-बाती जलता ना रहा।

(ये उस रावण का वर्णन है) जिसकी रसोई चंद्रमा और सूरज तैयार करते थे, जिसके कपड़े बैसंतर (वैश्वानर अग्नि) धोता था (भाव, जिस रावण के पुत्र - पौत्रों का भोजन पकाने के लिए दिन-रात रसोई तपती रहती थी और उनके कपड़े साफ करने के लिए हर वक्त आग की भट्ठियाँ जलती रहती थीं)।

अतः जो मनुष्य (इस नश्वर जगत् की ओर से हटा कर अपने मन को) सतगुरु की मति ले कर प्रभु के नाम में टिकाता है, वह सदा स्थिर रहता है, (इस जगत् माया की खातिर) भटकता नहीं है।

कबीर कहते हैं – सुनो, हे जगत के लोगो! प्रभु के नाम स्मरण के बिना जगत से मुक्ति सम्भव नहीं है।



कबीर वाणी में वर्णित रावण संबंधी प्रसंग बहुअर्थी हैं। लंका का अधिपति राक्षसराज रावण परम ज्ञानियों में से एक माना गया है। उसकी शिव उपासना एवं शिव को शीश अर्पित करके इष्ट फल की प्राप्ति की कथा लोक में बहुत प्रसिद्ध है। अपनी वासना, लोभ, मोह और अहंकार के कारण उसने रघुकुलनंदन राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, जो अंततः उसके विनाश का कारण बना। इस प्रकार रावण का व्यक्तित्व रचनाकारों के लिए विकारों के दुष्परिणामों को चित्रित करने के लिए महत्त्वपूर्ण रहा है।
 
संत नामदेव के शब्दों में

सरब सोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥
 
संत कबीर जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार जैसे विकारों से बचने का निरंतर उपदेश देते हैं। उनके समक्ष रावण जैसे परम ज्ञानी का अपने इन्हीं विकारों के कारण ध्वस्त होने का उत्तम उदाहरण है। कबीर रावण द्वारा जीव को मृत्यु की शाश्वतता का संकेत करते हुए उसे इन विकारों का त्याग करते हुए सद्पंथ पर चलने और ईश्वर की शरण में जाने का सन्देश देते हैं,

असंखि कोटि जाकै जमावली, रावन सैनां जिहि तैं छली।
ना कोऊ से आयी यह धन, न कोऊ ले जात।
रावन हूँ मैं अधिक छत्रपति, खिन महिं गए वितात।

कबीर ने अपने इष्ट के लिए लोक-प्रचलित विविध अवतारी नामों का प्रयोग भी किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य निर्गुण मत का प्रचार करना ही रहा है। कबीर ने रावण-प्रसंग में अपने इष्ट के लिए विशेषतः 'राम' शब्द का प्रयोग इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया है ।

एक हरि निर्मल जा का आर न पार 

लंका गढ़ सोने का भया । मुर्ख रावण क्या ले गया।
कह कबीर किछ गुण बिचार । चले जुआरी दोए हथ झार । 
मैला ब्रह्मा मैला इंद । रवि मैला मैला है चंद । 
मैला मलता एह संसार । एक हरि निर्मल जा का अंत ना पार । 
रहाऊ मैले ब्रह्मंड के ईस । मैले निस बासर दिन तीस । 
मैला मोती मैला हीर । मैला पउन पावक अर नीर ।
मैले शिव शंकरा महेस । मैले सिद्ध साधक अर भेख ।
मैले जोगी जंगम जटा सहेत । मैली काया हंस समेत ।
कह कबीर ते जन परवान । निर्मल ते जो रामहि जान ।

कबीर जी कहते हैं - सोने की लंका होते हुए भी मूर्ख रावण अपने साथ क्या लेकर गया ? अपने गुण पर कुछ विचार तो करो । वरना हारे हुए जुआरी की तरह दोनों हाथ झाड कर जाना होगा । ब्रह्मा भी मैला है । इंद्र भी मैला है । सूर्य भी मैला है। चाँद भी मैला है । यह संसार मैले को ही मल रहा है । अर्थात मैल को ही अपना रहा है । एक हरि ही है - जो निर्मल है । जिसका न कोई अंत है । और न ही उसकी कोई पार पा सकता है । ब्रह्मांड के ईश्वर भी मैले हैं । रात दिन और महीने के तीसों दिन मैले हैं । हीरे जवाहरात मोती भी मैले हैं । पानी हवा और आकाश भी मैले हैं । शिव महेश भी मैले हैं । सिद्ध लोग साधना करने वाले और भेष धारण करने वाले भी मैले हैं । जोगी जंगम और जटाधारी भी मैले हैं । यह तन हंस भी बन जाए । तो भी मैला है । कबीर कहते हैं - केवल वही कबूल हैं, जिन्होंने राम जी को जान लिया है ।



Shailendrakumar Sharma

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी अध्ययनशाला
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी की प्रामाणिकता

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी श्लोक की सत्यता और प्रामाणिकता को लेकर समस्या मेरे सामने आती रही है।
यह श्लोक वाल्मीकि रामायण की कुछ पाण्डुलिपियों में मिलता है, और दो रूपों में मिलता है।

प्रथम रूप : निम्नलिखित श्लोक 'हिन्दी प्रचार सभा मद्रास' द्वारा 1930 में सम्पादित संस्करण में आया है : This sloka is seen in the edition published by Hindi Prachara Press, Madras in 1930 by T.R. Krishna chary, Editor and T. R. Vemkoba chary the publisher.
http://www.valmikiramayan.net/yuddha/sarga124/yuddhaitrans124.htm#Verse17
इसमें भारद्वाज, राम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
हिन्दी अनुवाद : "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।"
दूसरा रूप : इसमें राम, लक्ष्मण से कहते हैं-
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अनुवाद : " लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
फिर तो लोक में ऐसा परिव्याप्त हुआ कि बहु उद्धरणीय बन गया।
वाल्मीकीय रामायण का प्रामाणिक और समीक्षित संस्करण बड़ौदा से प्रकाशित है। उसमें, गीता प्रेस संस्करण एवं उत्तर भारत के अन्य संस्करणों में भी नहीं है।



प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendra kumar Sharma 

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य / प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य /संपादक : प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा

पुस्तक चर्चा 

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य : विकास और संवेदनाएँ शीर्षक भूमिका और संपादकीय के अंश :
साहित्य सृजन मानवीय सभ्यता के विकास का महत्त्वपूर्ण सोपान है। मनुष्यता का प्रादर्श सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान युग तक के साहित्य का केंद्र रहा है। हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य देश - देशांतर में फैले भारतीय जन की संवेदनाओं, जीवन दृष्टि और विचारों का जैविक सुमेल है। इस यात्रा में नित्य नूतन जुड़ता चला आ रहा है। जो रचनाकार अपने समय और समाज के साथ मानवीय सरोकारों की जितनी गहरी समझ रखता है, वह उतना ही अपने युग में और बाद में भी प्रासंगिक होता है। हिंदी के प्राचीन एवं मध्यकालीन कवियों की रचनाएँ इस कसौटी पर तो खरी सिद्ध होती ही हैं, उससे आगे जाकर सार्वभौमिक - सार्वकालिक संवेदना और मूल्यों की प्रतिष्ठा में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारतीय साहित्य के विकास में हिंदी के प्राचीन एवं मध्यकालीन कवियों का अप्रतिम योगदान रहा है। इन कवियों में से अनेक ने विश्व ख्याति ही अर्जित नहीं की, आज भी देश - देशांतर में बसे भारतीय उनसे प्रेरणा पाथेय पाते हैं। इस पुस्तक में प्राचीन एवं मध्यकालीन कविता की यात्रा,  विविधविध प्रवृत्तियों, रचनाकारों के कृतित्व, प्रतिनिधि रचना - संचयन और संवेदना के विकास में उनकी भूमिका पर पर्याप्त मंथन किया गया है।
हिंदी साहित्य अपने आविर्भाव काल से लेकर अब तक अनेक सोपानों से होकर गुजरा है और व्यापक प्रेम, करुणा, भक्ति, परदु:खकातरता और वीर भावना उसे गति देते आ रहे हैं। हिंदी के प्राचीन और मध्यकालीन काव्य का परिशीलन इस दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों की ओर ले जाता है।
पुस्तक में कबीर, सूर, तुलसी, जायसी और बिहारी की चयनित रचनाओं और योगदान के समावेश के साथ ही अमीर खुसरो, विद्यापति, मीरा, केशव, भूषण, पद्माकर और घनानंद के साहित्यिक अवदान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा 2019 ई के उत्तरार्ध में प्रकाशित इस  पुस्तक की अल्प अवधि में ही दो आवृत्तियाँ हो चुकी हैं।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

पुस्तक : प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
प्रकाशन वर्ष 2019 ई.

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य / संपादक : प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा - Bekhabaron ki khabar - बेखबरों की खबर - https://bkknews.page/article/praacheen-evan-madhyakaaleen-kaavy-sampaadak-pro-shailendr-kumaar-sharma/m43p3X.html



शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य Book of Shailendra Kumar Sharma 

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-शृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालो।



सुमन जी संग शैलेंद्रकुमार शर्मा 

बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

बसंती हवा

केदारनाथ अग्रवाल


हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

        सुनो बात मेरी -
        अनोखी हवा हूँ।
        बड़ी बावली हूँ,
        बड़ी मस्तमौला।
        नहीं कुछ फिकर है,
        बड़ी ही निडर हूँ।
        जिधर चाहती हूँ,
        उधर घूमती हूँ,
        मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

        जहाँ से चली मैं
        जहाँ को गई मैं -
        शहर, गाँव, बस्ती,
        नदी, रेत, निर्जन,
        हरे खेत, पोखर,
        झुलाती चली मैं।
        झुमाती चली मैं!
        हवा हूँ, हवा मै
        बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

        पहर दो पहर क्या,
        अनेकों पहर तक
        इसी में रही मैं!
        खड़ी देख अलसी
        लिए शीश कलसी,
        मुझे खूब सूझी -
        हिलाया-झुलाया
        गिरी पर न कलसी!
        इसी हार को पा,
        हिलाई न सरसों,
        झुलाई न सरसों,
        हवा हूँ, हवा मैं
        बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
- केदारनाथ अग्रवाल




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