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20200910

भारतीय संस्कृति और साहित्य में मातृ तत्त्व - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

मातृ तत्त्व की अपार महिमा का निरूपण हुआ है संस्कृति और साहित्य में – प्रो. शर्मा 

भारतीय संस्कृति और साहित्य में मातृ तत्त्व पर केंद्रित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी

प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा भारतीय संस्कृति और साहित्य में मातृ तत्त्व पर केंद्रित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी की मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। प्रमुख वक्ता साहित्यकार श्री त्रिपुरारिलाल शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर एवं संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री ब्रजकिशोर शर्मा, उज्जैन ने की। 






प्रमुख अतिथि लेखक एवं आलोचक प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा, उज्जैन ने कहा कि भारतीय संस्कृति, परम्परा और साहित्य में मातृ तत्त्व की अपार महिमा का निरूपण हुआ है। शास्त्र और लोक दोनों ने ही मातृ तत्व को अनेक रूपों में महत्त्व दिया है। माँ ही हमें सर्वप्रथम व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन से जोड़ती है। मां मात्र देवधारी जीव नहीं है, वह आदिशक्ति और जगत जननी का साक्षात् प्रतिरूप है। माँ ही सृजन, उर्वरता, संवेदना और भावी संभावनाओं का मूल आधार है। विभिन्न दर्शनों और पंथों में परस्पर वैचारिक असमानता के बावजूद मातृ तत्त्व के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। मातृ शक्ति के लौकिक और अलौकिक गुणों का गान करने में देव भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं। आज स्त्री - पुरुष लैंगिक अनुपात बिगड़ रहा है, ऐसे में हमें स्त्रियों के सम्मान और बेटियों के बचाव के लिए व्यापक जागरूकता लानी होगी।





वन्दनीया गीता देवी चौधरी स्मृति सम्मान से सम्मानित किए गए पांच संस्कृतिकर्मी : 


कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार डॉ शंभू पंवार, झुंझुनू, डॉ भरत शेणकर, राजुर, महाराष्ट्र, डॉ रागिनी स्वर्णकार शर्मा, इंदौर, डॉ. संगीता पाल, कच्छ एवं श्रीमती रेणुका अरोरा, गाजियाबाद को वंदनीया मां गीता देवी चौधरी जयंती सम्मान 2020 से सम्मानित किया गया। उन्हें सम्मान के रूप में शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र और सम्मान राशि अर्पित की गई। 







कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने कहा कि मां एक व्यक्ति नहीं है, सर्वव्यापी तत्व है। संपूर्ण जीव - जगत की सृष्टि बिना मां के संभव नहीं। पुराणों में संकेत मिलता है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती। श्रीकृष्ण सरल ने मां को लेकर सुंदर काव्य पंक्तियां प्रस्तुत की हैं, मां वर्ण केवल एक, जिस पर वर्णमाला ही न्यौछावर। शब्द केवल एक, जिसमें अर्थ का सागर भरा है।




डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि इस्लाम में नारी को बहुत ऊंचा दर्जा मिला है। इस्लाम में माना गया है कि मां के पैरों के नीचे जन्नत है। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने बेटियों के संरक्षण के लिए उन्हें उच्च स्थान दिलाया। हमें अंतर्मन से सोचना होगा कि समाज में स्त्री को सम्मान दिया जाए।




साहित्यकार श्री त्रिपुरारिलाल शर्मा, इंदौर ने कहा कि सभ्यता वास्तव में संस्कृति का अंग है। मन और आत्मा की संतुष्टि के लिए ज्ञान, संस्कार और अध्यात्म से रिश्ता आवश्यक है। भारत में मातृ तत्व को लेकर महत्वपूर्ण विचार हुआ है।



संगोष्ठी की प्रस्तावना एवं संस्था की कार्ययोजना महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि मातुश्री गीता देवी चौधरी की स्मृति में वर्ष 2018 से प्रतिवर्ष विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाओं को सम्मानित किया जाता है। स्वागत भाषण डॉ सुवर्णा जाधव, मुंबई ने दिया। संस्था परिचय श्री राकेश छोकर ने दिया। कार्यक्रम में डॉ भरत शेणेकर, राजूर, महाराष्ट्र, डॉ शंभू पंवार, झुंझुनू, डॉ रागिनी स्वर्णकार शर्मा, इंदौर, डॉ. संगीता पाल, कच्छ ने भी विचार व्यक्त किए।  





संगोष्ठी में डॉ लता जोशी, मुंबई, मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉक्टर प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ वी के मिश्रा, रामेश्वर शर्मा, श्री अनिल ओझा, इंदौर, डॉ रश्मि चौबे, श्री राकेश छोकर, डॉ शैल चंद्रा, डॉ ममता झा, श्री सुंदर लाल जोशी, नागदा, राम शर्मा, मनावर, मनीषा सिंह, अनुराधा अच्छावन, समीर सैयद, डॉ श्वेता पंड्या, विजय शर्मा, पंढरीनाथ देवले, मीनाक्षी चौहान आदि सहित देश के विभिन्न भागों के शिक्षाविद्, संस्कृतिकर्मी एवं प्रतिभागी उपस्थित थे।




प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ संगीता पाल ने की।

कार्यक्रम का संचालन रागिनी शर्मा, इंदौर ने किया। आभार प्रदर्शन श्री अनिल ओझा, इंदौर ने किया।











20200720

कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा | प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा | Kabir Darshan evam Shikshak Shiksha | Prof. Shailendra Kumar Sharma
अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान



कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा

 प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

शिक्षा व्यक्तित्व का समग्र रूपांतरण करती है। शिक्षक की रूपान्तरकारी भूमिका कबीर चिंतन में है। शिक्षा का सम्बन्ध केवल साक्षर बनाने से नहीं, बल्कि व्यक्ति को सर्वांगीण, आत्मनिर्भर, भावनात्मक एवं प्रज्ञाशील बनाने से है। कबीर इसी अर्थ में कोरे आखर ज्ञान के विरुद्ध हैं। 

शिक्षा का दायित्य है जीवन से जुड़े पहलुओं पर सवाल खड़े करना, तार्किक बनाना और जबाब तलाशना,  कबीर का दर्शन यह करता है। 

शिक्षक की जिम्मेदारी है कि वह सही - गलत का निर्णय लेने की क्षमता विकसित करे, कबीर लगातार यह करते हैं। आलोचक समाज और रचनात्मक समाज शिक्षा के जरिए बनता है, कबीर इस दिशा में निरन्तर गतिशील बने रहे। समतामूलक समाज का निर्माण शिक्षक शिक्षा और लोक शिक्षा दोनों का आदर्श है, कबीर अपनी वाणी के माध्यम से चिंतन के इसी स्तर पर ले जाते हैं। इसी तरह चारित्रिक विकास में शिक्षा की भूमिका देखना हो तो कबीर के दर्शन में देखी जा सकती है।


व्याख्यान के लिए यूट्यूब लिंक पर जाएं
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20200518

कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

असमाप्त लिप्सा और दोहन से उपजे कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रो शर्मा का व्याख्यान : 

शोध धारा शोध पत्रिका, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान, उरई, उत्तर प्रदेश एवं भारतीय शिक्षण मंडल, कानपुर प्रान्त के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के समापन दिवस पर  व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। यह संगोष्ठी वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और भारत राष्ट्र : चुनौतियां संभावनाएं और भूमिका पर केंद्रित थी। 



संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि वर्तमान विश्व मनुष्य की असमाप्त लिप्सा और अविराम दोहन से उपजे संकट को झेल रहा है। अंध वैश्वीकरण, असीमित उपभोक्तावाद और अति वैयक्तिकता की कोख से उपजे कोविड - 19 संकट ने भारतीय मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली की प्रासंगिकता को पुनः नए सिरे से स्थापित कर दिया है। मनुष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। प्रकृति के साथ स्वाभाविक रिश्ता बनाते हुए अक्षय विकास के मार्ग पर चलकर ही इस संकट से उबरा जा सकता है। कोई भी महामारी तात्कालिक नहीं होती, उसके दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। इस दौर में उपजे बड़ी संख्या में विस्थापन, भूख, बेरोजगारी और बेघर होने के संकट को सांस्थानिक और सामुदायिक प्रयासों से निपटना होगा। अभूतपूर्व विभीषिका के बीच यह सुखद है कि हम भारतीय जीवन शैली, पारिवारिकता और सामुदायिक दृष्टि के अभिलाषी हो रहे हैं।

व्याख्यान सत्र के वक्तागण गोरखपुर के प्रो सच्चिदानंद शर्मा, पर्यावरण वेत्ता एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के वनस्पति विज्ञान विभाग के आचार्य डॉ अनिलकुमार द्विवेदी एवं डॉ संतोषकुमार राय, झांसी थे। 

प्रारम्भ में संगोष्ठी संयोजक डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने अतिथि परिचय एवं स्वागत भाषण दिया।

संचालन डॉ श्रवणकुमार त्रिपाठी ने किया। रिपोर्ट का वाचन डॉ नमो नारायण एवं डॉ अतुल प्रकाश बुधौलिया, उरई एवं आभार प्रदर्शन डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने किया। 



डॉ राजेश चन्द्र पांडेय
संपादक शोध पत्रिका शोध धारा एवं 
शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान
उरई, उत्तर प्रदेश

20200428

हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य / संपादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य / संपादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

संपादकीय के अंश :
भारतीय परंपरा ज्ञान की सर्वोपरिता पर बल देती है। गीता का कथन है, नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते, ज्ञान से बढ़कर मन, वचन और कर्म को पवित्र करने वाला कोई दूसरा तत्त्व नहीं है। ज्ञानार्जन के माध्यम से ही मानव व्यक्तित्व का निर्माण संभव होता है, जो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व जीवन में प्रतिबिंबित होता है। सच्ची शिक्षा मनुष्य को अंतरबाह्य बंधनों से मुक्त करती है। संकीर्ण दृष्टिकोण को त्यागकर व्यक्ति का दायरा बढ़ने लगता है। उसे सारा संसार एक परिवार जैसा दिखाई देने लगता है। वसुधैव कुटुंबकम् का संदेश यही है, जो सुदूर अतीत से वर्तमान तक भारतीय संस्कृति का प्रादर्श बना हुआ है। कथित विकास और उपभोग के प्रतिमान हमारी शाश्वत मूल्य दृष्टि और पर्यावरणीय संतुलन के समक्ष चुनौती पैदा कर रहे हैं। ऐसे में मानवीय संबंधों में भी दरार आना स्वाभाविक है। ये समस्याएं जितनी सामाजिक और आर्थिक हैं, उससे ज्यादा मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और मूल्यपरक हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के संबंधों को लेकर नई सजगता जरूरी है, जिससे जीवन में सकारात्मकता लाने के साथ मानव व्यक्तित्व के निर्माण में सहायता सम्भव हो। परिवार और समाज किसी भी राष्ट्र के लिए स्नायु तंत्र की भूमिका निभाते हैं। बिना पारस्परिक अवलम्ब, प्रेम और सद्भाव के राष्ट्र और विश्व जीवन नहीं चल सकता है। इसी दृष्टि से भाषा शिक्षण के साथ नैतिक मूल्यों और भावनाओं के विस्तार के लिए प्रयास जरूरी हैं। नैतिकता ही वह पथ है, जिसके माध्यम से समाज में आपसदारी, विश्वास और भयमुक्त जीवन के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। ऐसा कोई व्यवसाय नहीं है, जिसमें नैतिक मूल्यों की पहचान और निर्वाह आवश्यक न हो।
भारतीय दर्शन जीवन का परम लक्ष्य सुख मानता है, किंतु यह सुख स्थूल ऐन्द्रिय सुख नहीं है। उसे मुक्ति या मोक्ष अथवा निर्वाण के साथ संबद्ध किया गया है। इसीलिए नैतिक मूल्यपरक आचरण की अनिवार्यता हमारी चिंतन धारा के केंद्र में है और वह सार्वभौमिक मूल्यों तक विस्तार ले लेती है। भूमंडलीकरण और सूचना - संचार क्रांति के दौर में शिक्षा के साथ नैतिक मूल्यों की इस विचार – शृंखला का समन्वय अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा मनुष्य को यंत्रवत् होने से रोका नहीं जा सकेगा।
इस पुस्तक में इसी दृष्टि से हिंदी के पुरोधा रचनाकारों की महत्त्वपूर्ण रचनाएं समाहित की गई हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, सरदार पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, स्वामी विवेकानंद, स्वामी श्रद्धानंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, रामधारीसिंह दिनकर, शरद जोशी आदि की विषयानुरूप रचनाओं के समावेश के साथ हिंदी व्याकरण के प्रमुख पक्षों को स्थान दिया गया है। विद्यार्थियों के संप्रेषण कौशल और भाषिक संपदा में श्री वृद्धि हो इस बात को दृष्टिगत रखते हुए पर्याप्त सामग्री संजोई गई है।
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Shailendrakumar Sharma

शैलेंद्रकुमार की पुस्तक हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य Book of Shailendra Kumar Sharma

20130113

स्वामी विवेकानंद और भारत का सामाजिक परिवर्तन - डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा | Swami Vivekanand and Social Change of India- Prof. Shailendra Kumar Sharma

स्वामी विवेकानंद : सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

                           
  
      ‘‘कई सदियों से तुम नाना प्रकार के सुधार, आदर्श आदि की बातें कर रहे हो और जब काम करने का समय आता है तब तुम्हारा पता ही नहीं मिलता। अतः तुम्हारे आचरणों से सारा संसार क्रमशः हताश हो रहा है और समाज-सुधार का नाम तक समस्त संसार के उपहास की वस्तु हो गयी है। इसका कारण क्या है ? क्या तुम जानते नहीं हो ? तुम अच्छी तरह जानते हो। ज्ञान की कमी तो तुम में है ही नहीं। सब अनर्थों का मूल कारण यही है कि तुम दुर्बल हो, अत्यंत दुर्बल हो, तुम्हारा शरीर दुर्बल है, मन दुर्बल है और अपने आप पर आत्मश्रद्धा भी बिल्कुल नहीं है। मेरी इच्छा है-तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का आविर्भाव हो, तुममें से हर एक आदमी खड़ा होकर इशारे से संसार को हिला देने वाला प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हो, हर प्रकार से अनंत ईश्वरतुल्य हो। मैं तुम लोगों को ऐसा ही देखना चाहता हूँ।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड 5, पृ. 138-139)

                भारतीय पुनर्जागरण की सुदीर्घ परम्परा के अपूर्व संवाहक स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी 1863-4 जुलाई 1902) की ये पंक्तियाँ उनके सामाजिक परिवर्तन विषयक चिंतन और उसकी गहनता का सुन्दर निदर्शन कराती हैं। जब कभी भारतीय समाज जीवन को करवट लेने की जरूरत हुई, तब कोई-न-कोई परिवर्तनकामी व्यक्तित्व उठ खड़ा हुआ। ऐसे महनीय व्यक्तित्वों की असमाप्त शृंखला के मध्य स्वामी विवेकानंद अपने ढंग के अनन्य व्यक्तित्व ठहरते हैं। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को महज सतही तौर पर नहीं लिया था और न उसे इकहरा माना। वे किसी भी परिवर्तन को समग्रता में लेने के आग्रही थे। इसीलिए जब उनकी निगाहें अपने पूर्ववर्ती या समकालीन सुधारकों के कार्यों पर गईं, तब वे उन सुधारों की एकांगिता या अधूरेपन को लक्षित करने से नहीं चूके। उन्होंने अपने ढंग से सामाजिक पुनर्रचना का आह्वान किया और उसे साकार करने के लिए आजीवन सचेष्ट रहे। वे इस बात को भलीभाँति जानते थे कि मानवीय सभ्यता से जुड़े किसी भी अंग की निर्मित अचानक नहीं हुई है, उसके पीछे लम्बी प्रक्रिया रही है। जब कभी उसे बदलने की चेष्टा हो भी तो पहले गहराई से विचार हो, फिर हमारी दृष्टि मूल पर भी रहे। इसीलिए वे कहते हैं, ‘‘मैं मनुष्य जाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूँ कि कुछ नष्ट न करो। विनाशक सुधारक लोग संसार का कुछ भी उपकार नहीं कर सकते। किसी वस्तु को भी तोड़कर धूल में मत मिलाओ, वरन् उसका गठन करो। यदि हो सके तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो, मामला कहाँ तक जाता है। यदि सहायता न कर सको तो अनिष्ट मत करो।’’ स्पष्ट है स्वामी विवेकानंद विनाशक नहीं, रचनात्मक समाज सुधार के पक्षधर हैं, जो उन्हें अपने दौर के समाज सुधारकों से विलक्षण बनाता है।

स्वामी विवेकानंद को भारत की मूल शक्ति आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास था। उनकी यह आध्यात्मिकता कोई संकीर्ण अर्थ लिए आध्यात्मिकता नहीं है, वरन् उसमें धार्मिक अंध नियमों से मुक्ति की अभिलाषा है, संपूर्ण और सर्वव्यापी आत्मा का बोध है। वह नानात्व में अन्तर्निहित एकता का अधिष्ठान है। इसीलिए जब वे सामाजिक परिवर्तन का प्रादर्श प्रस्तुत करते हैं, तब उनकी दृष्टि आध्यात्मिक बोध पर भी टिकी रहती है। वे कहते हैं, ‘‘समस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन अपने भीतर काम करने वाली आध्यात्मिक शक्तियों के व्यक्त रूप होते हैं, और यदि ये बलशाली और सुव्यवस्थित हों, तो समाज अपने आपको इस तरह से ढाल लेता है।’’ उनका समाज सुधार ऊपरी नहीं है, वह अध्यात्म की सुदृढ़ भूमि पर टिका है, ‘‘तथाकथित समाज सुधार के विषय में हस्तक्षेप न करना, क्योंकि पहले आध्यात्मिक सुधार हुए बिना अन्य किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हो सकते।’’ इसी को वे आमूल सुधार मानते हैं। इसके अभाव में उनके पूर्ववर्ती सुधार आंदोलन अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके।

                स्वामी जी विभिन्न सुधार आंदोलनों के वर्गीय चरित्र को भी पहचानते थे। इसी वजह से जनसामान्य का उनसे दूरी का रिश्ता बना रहा और वे लोकव्यापी नहीं हो सके। वे कहते हैं, ‘‘गत शताब्दी में सुधार के लिए जो भी आंदोलन हुए हैं, उनमें से अधिकांश केवल ऊपरी दिखावा मात्र रहे हैं। उनमें से प्रत्येक ने केवल प्रथम दो वर्णों से ही संबंध रखा है, शेष दो से नहीं। विधवा-विवाह के प्रश्न से 70 प्रतिशत भारतीय स्त्रियों का कोई संबंध नहीं है। और देखो, मेरी बात पर ध्यान दो, इस प्रकार के सब आंदोलनों का संबंध भारत के केवल उच्च वर्णों से ही रहा है। जो जनसाधारण का तिरस्कार करके स्वयं शिक्षित हुए हैं।’’ जाहिर है स्वामी जी की दृष्टि उन तमाम सुधार आंदोलनों पर थी, जो बगैर लोक-शक्ति को जाग्रत किए चलाए गए और अंततः निष्फल सिद्ध हुए। वे समाज सुधार के लिए प्रथा कत्र्तव्य मानते हैं-लोगों को शिक्षित करना। यह कार्य जब तक अधूरा है, तब तक प्रतीक्षा ही करनी पड़ेगी।स्वामी विवेकानंद का यह विचार आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। किसी भी परिवर्तन को साकार करने के पहले वे चाहते हैं राष्ट्र को संगठित करने के प्रयास हो, ‘‘आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठाने दो एवं एक अखंड भारतीय राष्ट्र संगठित करो।’’ स्पष्ट है कि स्वामी जी का यह प्रादर्श आज भी सामाजिक परिवर्तन की सही दिशा तय कर सकता है।

                स्वामी जी मानव सभ्यता के विकास में किसी भी परिवर्तनेच्छा को आवश्यक मानते हैं। जब वे देखते हैं कि सुधारकगण लोगों को गहराई से जाने-समझे बगैर सुधार के लिए प्रवृत्त करना चाहते हैं, तब उन्हें वह परिवर्तन अधूरा और अप्रासंगिक लगता हैं। इसी तरह उन्हें ऐसा सुधार भी अपूर्ण लगता है, जो महज कुछ बातों पर ही टिका हो। वे चाहते हैं कि परिवर्तन आमूलचूल हो और जड़ से हो। इसीलिए जब उन्होंने देखा कि उनके अपने दौर में विधवा विवाह या स्त्री स्वातंत्र्य जैसी सीमित बातों को लेकर समाज सुधारक सक्रिय हैं, तब व उनसे कहते हैं, ‘‘जिसे आप समाज-सुधार कहते हैं, उससे सर्वसाधारण जनता भारत की कोटि-कोटि जनता का क्या हित होगा ? विधवा-विवाह, स्त्री स्वातंत्र्य आदि जिन सुधारों के लिए तुम चिल्ला रहे हो, उनकी भारत की बहुसंख्यक जनता को आवश्यकता ही नहीं है, उनमें विधवा-विवाह की प्रथा भी है और स्त्रियों को स्वतंत्रता भी प्राप्त है। इसीलिए वे इन बातों को सुधार ही नहीं मानते। वे कहते हैं, ‘‘मेरा तात्पर्य यह है कि ये सब दोष हममें श्रद्धा को अभाव से ही घुस आए हैं और दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। पर मैं यह चाहता हूँ कि रोग समूल नष्ट किया जाय। रोग के कारण जड़ से नष्ट किए जाएँ, रोग दबाया न जाय, नहीं तो वह फिर बढ़ जाएगा। सुधार अवश्य हो, कौन इतना गूढ़ है, जो यह नहीं मानता?’’ स्पष्ट है स्वामी जी सामाजिक सुधार को महत्त्वपूर्ण मानते हैं, किंतु उनका बल इस बात पर विशेष है कि वह महज दिखावा न हो, न अधूरा या एकांगी हो। सुधार सम्पूर्णता में होगा, तभी वह सार्थक और दीर्घजीवी होगा।

                स्वामी विवेकानंद भारत की सामाजिक जड़ता और अवनति के प्रमुख कारण के रूप में मौलिकता के अभाव से देखते हैं। वे मानते हैं कि नया करने की हमारी शक्ति नष्ट हो चुकी है। वे अपने युग पर निगाह डालते हुए कहते हैं, ‘‘अन्न बिना हाहाकार मच रहा है। पर दोष किसका है ? इसके प्रतिकार की तो कुछ भी चेष्टा नहीं होती, लोग केवल चिल्लाते रहते हैं। अपनी झोंपड़ी के बाहर निकलकर क्यों नहीं देखते कि दुनिया के दूसरे लोग किस प्रकार उन्नति कर रहे हैं। तब हृदय के ज्ञाननेत्र, खुलेंगे और आवश्यक कत्र्तव्य की ओर ध्यान आकृष्ट होगा।’’
स्वामीजी यद्यपि अध्यात्म के प्रति भारतीयों के स्वाभाविक रूझान को प्रमुख गुण मानते हैं। इसके बावजूद जब वे देखते हैं कि जीवन की उपेक्षा हो रही है, जाग्रति के बजाय हम सुषुप्ति में चले गए हैं, जो शास्त्र में नहीं है, वह कार्य करने के लिए प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं, तब स्वामीजी देव-असुर रूपक के बहाने पश्चिम की ओर निगाह डालने का संकेत होते हैं। उनके अनुसार देवता आस्तिक थे-उन्हें आत्मा में विश्वास था, ईश्वर और परलोक में विश्वास करते थे। असुरों का कहना था कि इस जीवन को महत्त्व दो, पृथ्वी का भोग करो, इस शरीर को सुखी रखो। इस समय हम इस बात पर विचार नहीं कर रहे हैं कि देवता अच्छे थे या असुर। पर पुराणों को पढ़ने से पता चलता है कि असुर ही अधिकतर मनुष्यों की तरह के थे, देवता तो अनेक अंशों में हीन थे। अब यदि कहा जाय कि हिंदू देवताओं की तथा पाश्चात्य देशवासी असुरों की संतान हैं तो प्राच्य और पाश्चात्य का अर्थ अच्छी तरह समझ में आ जाएगा।’’ स्वामीजी शरीर की शुद्धि, आहार, खाद्य पदार्थ, वस्त्र, जीवन-शैली आदि कई दृष्टियों से भारत और पश्चिम की तुलना करते हुए दोनों की अपनी-अपनी विशेषताओं-अवगुणों को प्रत्यक्ष करते हैं। उन्हें भारतीयों की तत्कालीन दुरावस्था का एक बड़ा कारण दरिद्रता दिखाई देता है। उनकी दृष्टि में ‘‘हम इसीलिए लोग इतो नष्टस्ततो भ्रष्टःहोते जा रहे हैं। जाति के जो गुण थे वे मिटते जा रहे हैं और पाश्चात्य देश से ही कुछ नहीं पा रहे हैं। चलने-फिरने, उठने-बैठने, सभी के लिए हमारा एक नियम था, वह नष्ट हो रहा है और हम लोग पाश्चात्य नियमों को अपनाने में भी असमर्थ हैं।’’ जाहिर है यह त्रिशंकु-सी स्थिति किसी न किसी रूप में आज भी बनी हुई है।ऐसे में स्वामी विवेकानंद का परिवर्तनकारी स्वर आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।

                भारत के सामाजिक परिवर्तन में समाज सुधारकों की भूमिका पर विचार करते हुए स्वामी विवेकानंद उनसे कई अपेक्षाएँ करते हैं, जिनके बगैर किसी भी परिवर्तन को सफल नहीं किया जा सकता है। उनकी दृष्टि में एक सुधारक में गहरी सहानुभूति होनी चाहिए, तभी वह गरीबी और अज्ञान में डूबे करोड़ों नर-नारियों की वेदना का अनुभव कर सकेगा। वे सुधारकों में सेवा-भावना अपरिहार्य मानते हैं, ‘‘यदि कोई भारत की जनता का जो समृद्धि की कृपा से वंचित तथा ऐश्वर्य से हीन है, जिनका विवेक नष्ट हो चुका है, जिसकी स्वप्रेरणा नष्ट हो चुकी है, जो पद दलित, भूखी, झगड़ालू और ईष्र्यालु है-उस जनता को हृदय से स्नेह करेगा तो यह देश पुनः उठ खड़ा होगा। भारत दोबारा तभी उठ सकेगा, जब सैकड़ों विशाल हृदय युवक-युवतियाँ सुखोपभोग की समस्त कामनाओं को तिलांजलि दे अपने करोड़ों देशवासियों के, जो धीरे-धीरे दरिद्रता और अज्ञान के गहन गत्र्त में गिरते जा रहे हैं, कल्याण के हेतु अपनी पूरी शक्तियाँ लगाने का संकल्प लेगा।’’ वे सुधारकों में ध्येय के प्रति पूर्ण समर्पण, श्रद्धा एवं वैराग्य भावना को भी आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में मुक्त वही है, जिसने अपना सब कुछ दूसरों के लिए त्याग दिया है। वे अतःकरण की शुद्धता को इस पथ के लिए बेहद जरूरी सिद्ध करते हैं, ‘‘आज आवश्यकता है चित्तशुद्धि की अंतःकरण की निर्मलता की। किंतु वह कैसे हो ? सबसे पहले उस विराट की पूजा करो जो हमारे चारों ओर विद्यमान है। उसकी पूजा करो। ये सब हमारे देवता हैं केवल मनुष्य ही नहीं, पशु भी हैं। इनमें भी सबसे पहले पूजा करो अपने देशवासियों की।’’ स्पष्ट है स्वामी जी किसी भी परिवर्तन के पहले उन लोगों से स्नेहभाव रखने की अपेक्षा करते हैं, जिनमें यह परिवर्तन लाना है।

                स्वामी विवेकानंद इस बात से भलीभाँति परिचित थे कि सामाजिक परिवर्तन बाहर से नहीं, अंदर से होता है। उसे लाने के लिए समाज को बाहर से नहीं, अंदर से सुदृढ़ करना जरूरी है। वे भारतीय समाज में व्याप्त सभी अनर्थों की जड़ में वर्गीय विषमता को देखते हैं, ‘‘भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दम्भ के बल से मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई हैं।’’ इस स्थिति को बदलने के लिए वे आमजन के मध्य विद्या के प्रसार को आवश्यक मानते है, जो नैतिक और बौद्धिक दोनों प्रकार की हो। साथ ही वे समाज के वंचित वर्ग को संगठित कर स्वयं के उद्धार के लिए तैयार करना भी जरूरी मानते हैं। तभी उनका सशक्तीकरण होगा, महज बाहरी दयापूर्ण सहायता से नहीं। वे कहते हैं, ‘‘हमारा संघ दीनहीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिए है और उनके लिए सब कुछ करने के बाद जब समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी आयेगी। उद्धरेदात्मनात्मानम् -अपनी आत्मा का अपने उद्योग से उद्धार करो।यह सब परिस्थितियों पर लागू होता है। हम उनकी सहायता इसलिए करते हैं, जिससे वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें।........धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिए जो थोड़ी-सी भलाई करते हैं, वह स्थायी नहीं होती और अंत में दोनों पक्षों को हानि पहुँचती है। किसान और श्रमिक समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसीलिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह है कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने में सहायता दें और कुछ नहीं। फिर किसानों और मजदूरों को अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड-7, पृ. 412) स्वामीजी, इसी प्रकार आजीवन समाज के वंचित वर्ग की आँखें खोलने का आह्वान करते रहे, बजाय इसके कि उनकी सहायता महज बाहरी ही बनी रहे।

वे वैचारिक परिवर्तन को किसी भी सामाजिक परिवर्तन के मूलाधार के लिए आवश्यक ठहराते हैं, ‘‘प्रत्येक जाति, प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। उनमें विचार उत्पन्न कर दो- उन्हें उसी एक सहायता की जरूरत है। इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ आप ही हो जाएगा। हमें केवल रासायनिक पदार्थों को इकट्ठा भर कर देना है,.........बँध जाना तो प्राकृतिक नियमों से ही साधित होगा। हमारा कत्र्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना, बाकी वे स्वयं कर लेंगे। भारत में बस यही करना है।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड-2, पृ. 369-370)

                स्वामी विवेकानंद क्रांति की नई छबि को गढ़ने वाले विचारक थे। वे समाजोद्धार को आत्मोद्धार से जोड़कर देखते हैं। यही उनकी क्रांति को एक नया आयाम देता है, ‘‘जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दें, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो।’’ (खंड-2, पृ. 321) स्वामीजी बदलाव के लिए मात्र कुछ विसंगतियों पर प्रहार कर परिवर्तन लाना नहीं चाहते हैं। वे कहते हैं,’’ मूर्तियाँ रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति-प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता।’’ इसके स्थान पर वे सर्वसाधारण को शिक्षित करने पर बल देते हैं। उनका कथन है, ‘‘रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकार धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान पर श्रद्धा रखा।’’ (खण्ड72, पृ. 321) जाहिर है विवेकानंद परिवर्तन की चिन्गारी अंदर से पैदा करने में विश्वासी हैं, बाहर से नहीं।

                स्वामीजी सामाजिक परिवर्तन की गति को तीव्र कर भारत में व्यापक बदलाव लाना चाहते हैं। इसमें वे शरीर, मस्तिष्क और आत्मा-तीनों की भूमिका पर विचार करते हैं, किंतु उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा आत्मापर ही है, जो उनकी क्रांति-दृष्टि को दृढ़ भारतीय जमीन देती है। यह विश्व में अन्यत्र संभव नहीं है। वे कहते हैं, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि शारीरिक शक्ति द्वारा अनेक महान कार्य सम्पन्न होते है और इसी प्रकार मस्तिष्क की अभिव्यक्ति भी अद्भुत हैं, जिससे विज्ञान के सहारे तरह-तरह के यंत्रों तथा मशीनों का निर्माण होता हैं, फिर भी जितना जबदरस्त प्रभाव आत्मा का विश्व पर पड़ता है, उतना किसी का नहीं। (खण्ड-5, पृ. 35) इस दृष्टि से वे विश्व को नेतृत्व देने के लिए भारतीय सामाजिक परिवर्तन को बेहद जरूरी मानते हैं, वहीं पश्चिम से भी आवश्यक तत्त्वों को ग्रहण करने पर बल देते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है, जब कभी आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है, तो उसका आरंभ प्राच्य से ही होता है। साथ ही साथ यह भी ठीक है कि जब कभी प्राच्य को मशीन बनाने के संबंध में सीखना हो तो पाश्चात्य के पास बैठकर सीखे। परंतु यदि पाश्चात्य ईश्वर, आत्मा तथा विश्व के रहस्य संबंधी बातों को जानना चाहे तो उसे प्राच्य के चरणों के समीप ही आना चाहिए। (खण्ड-7, पृ. 237) स्पष्ट है स्वामी विवेकानंद प्राच्य और पाश्चात्य उभय पक्षों के वैशिष्ट्य को जानकर उनके बीच आपसी सामंजस्य के बिंदु की तलाश करते हैं, जिसे जाने बगैर दोनों का परिवर्तन एकांगी रहेगा।

                स्वामीजी ने भारत के संपूर्ण परिवर्तन के लिए किसी एक वर्ग या समुदाय के परिवर्तन को पर्याप्त नहीं माना है। जब तक सभी इस दिशा में तत्पर नहीं होंगे, तब तक यह बदलाव अधूरा ही रहेगा। इसीलिए वे युवा, स्त्री, निर्धन, कामगार, किसान-सभी को जगाने के अभिलाषी हैं। वे सभी को विचारवान बनाना चाहते हैं, वहीं आचरण की शुद्धता पर भी बल देते हैं। स्त्री शिक्षा पर उन्होंने विशेष बल दिया, तभी वह स्वयं की भाग्यविधाता बन सकती है। वे कहते हैं, ‘‘हमें नारियों की ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए। और हमारी भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भाँति इसे करने की क्षमता रखती हैं। (खण्ड74, पृ. 267) वे युवाओं को भी सामाजिक बदलाव लाने के लिए तत्पर होने का संदेश देते हैं। इसके लिए वे युवाओं में आत्मविश्वास, वीरता, अभय, इच्छाशक्ति, आत्मनिर्भरता और हृदय का विस्तार चाहते हैं। वे मानते हैं कि युवाओं के माध्यम से देश को पुनरुत्थान हो सकता है। वे युवा जागरण के लिए कहते हैं, ‘‘उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबलि की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि, युवकों से ही हो सकेगी। युवा, आशिष्ठ, बलिष्ठ, मेधावी’, उन्हीं के लिए यह कार्य है।’’ (खण्ड-5, 212) वे युवाओं में आंतर और बाह्य दोनों प्रकार की शक्तियों का अधिष्ठान चाहते हैं, तभी वे सामाजिक परिवर्तन के क्रम में प्रभावकारी परिणाम ला सकते हैं।

                उन्होंने भारत के नव परिवर्तन का विराट बिंब रचा है, जो सदियों की जड़ता को त्याग कर ही आ सकता है, पहले वे खुद को निश्शेष करने का आह्वान इसी अर्थ में करते हैं-तुम लोग शून्य में विलीन हो जाओ और फिर एक नवीन भारत निकाल पड़े। निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर,  झोपडि़यों से। निकल पड़े बनियों की दुकानें से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाडि़यों, जंगलों पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है- उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता। सनातन दुःख उठाया, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति। ये लोग मुट्ठीभर सत्तू खाकर दुनिया उलट दे सकेंगे। आधी रोटी मिली तो तीनों लोक में इतना तेज न अटेगा ? ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त है और पाया है सदाचार, बल जो तीनों लोकों में नहीं है।’’ (खण्ड-8, पृ. 167) वर्तमान दौर में स्वामी विवेकानंद की यह आवाज सुनी जानी चाहिए, अन्यथा भारत की दुरावस्था की शृंखला असमाप्त बनी रहेगी।

 डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (म.प्र.) 456 010

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