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20201013

देवशिल्पी विश्वकर्मा और उनका अवदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

प्राचीन भारतीय विज्ञान की समृद्ध परम्परा से जुड़ने का प्रयत्न करें 

देवशिल्पी विश्वकर्मा पूजन और उनके व्यापक अवदान पर केंद्रित सारस्वत संगोष्ठी  

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी - एसओआईटी में भगवान विश्वकर्मा पूजन और सारस्वत संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह अकादमिक  संगोष्ठी देवशिल्पी विश्वकर्मा और उनके व्यापक अवदान पर केंद्रित थी। आयोजन के मुख्य अतिथि कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय थे। विशिष्ट अतिथि कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, शासकीय  अभियांत्रिकी महाविद्यालय के प्रो. संजय वर्मा एवं डीएफओ श्री पंड्या थे।

 


संगोष्ठी के मुख्य अतिथि कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय ने कहा कि भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में शिल्पज्ञ विश्वकर्मा जी का अद्वितीय योगदान है। अपने इतिहास को लेकर हमें गौरव का भाव होना चाहिए। भारत में प्राचीन काल से तक्षशिला, उज्जयिनी, नालन्दा जैसे महत्त्वपूर्ण विद्या केंद्र रहे हैं। दुनिया में निर्यात का एक चौथाई भाग भारत से निर्यात किया जाता था। हमारी तकनीक अत्यंत समृद्ध रही है। नए दौर में समाज में श्रम के महत्त्व को जानना होगा। वास्तु, धातु विद्या, रसायन विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में हमें प्राचीन भारतीय विज्ञान की परम्परा से जुड़ना होगा। भारतीय मनीषा द्वारा किए गए शून्य के आविष्कार पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान टिका हुआ है। नदियों को जोड़ने की दिशा में आज विचार किया जा रहा है। प्राचीन काल में भगीरथ ने गंगा के उद्गम और विराट जलधारा को तैयार किया। भगवान शिव ने जल संरक्षण का उदाहरण प्रस्तुत किया था। रसायन विद्या के क्षेत्र में संजीवनी बूटी जैसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। हेड ट्रांसप्लांट के उदाहरण भी प्राचीन ग्रंथों में  मिलते हैं। हमें ब्रिटिश राज से उपजी गुलाम मानसिकता से मुक्त होना होगा।  


विशिष्ट अतिथि कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि भगवान विश्वकर्मा इस सृष्टि की परम अभियांत्रिकी के पुरोधा हैं। भारतीय परंपरा मानती है कि उन्होंने इस विराट ब्रह्मांड का शिल्पन किया है। वैदिक मान्यता है कि विश्व में जो कुछ भी दृश्यमान है, उसके रचयिता विश्वकर्मा हैं। शिल्प उनका श्रेष्ठतम कर्म है। उनसे जुड़े अनेक साहित्यिक साक्ष्यों का संकेत है कि वे यंत्रों के अधिष्ठाता, नगरों, भवनों और आभूषणों के परिकल्पक के साथ अत्यंत शक्तिशाली आयुधों के आविष्कारक हैं। भारतीयों ने सदियों से शिल्प कर्म को उच्च स्थान दिया है, जिसके कारण दुनिया को चकित कर देने वाले असंख्य निर्माण भारत में हुए। राजा भोज के काल में मालवा क्षेत्र में विज्ञान और तकनीक का व्यापक विकास हुआ। उस दौर में समरांगण सूत्रधार जैसे अनेक ग्रन्थ लिखे गए। पुरातन विज्ञान के अध्ययन के साथ शिक्षक एवं विद्यार्थी स्वयं के ज्ञान को निरंतर अद्यतन करते रहें।




प्रो संजय वर्मा ने कहा कि भगवान विश्वकर्मा ने अनेक नगरों का नियोजन किया।  भारतीय परंपरा में उनकी शिल्पज्ञ के रूप में मान्यता रही है। आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए प्राचीन ज्ञान विज्ञान के साथ जुड़ने के लिए प्रयास करें। हमें विभिन्न यंत्रों, दवाइयों का आयात कम कर आत्मनिर्भर बनना होगा। सीखने को आतुर छात्र और सिखाने के लिए समर्पित शिक्षक से ही शिक्षा का स्तर बेहतर हो सकता है। 




संगोष्ठी के प्रारम्भ में भगवान विश्वकर्मा और यंत्र का पूजन किया गया। 


संस्थान के निदेशक डॉ डी डी बेदिया ने कुलपति प्रोफेसर पांडे एवं अतिथियों का स्वागत पुष्पगुच्छ अर्पित कर किया।


अकादमिक संगोष्ठी की संकल्पना संस्थान के निदेशक डॉ डी डी बेदिया ने प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि भगवान विश्वकर्मा जी का योगदान देव शिल्पी के रूप में सुविख्यात है। उनके अविस्मरणीय कार्यों से हमें टेक्नो मैनेजमेंट की प्रेरणा लेनी चाहिए।


डीएफओ श्री पंड्या ने कहा कि नए कार्य के लिए मौलिकता जरूरी है। कल्पनाशीलता और रचनात्मकता से नया कार्य सम्भव होता है।


कार्यक्रम में डॉ कमलेश दशोरा, डॉ स्वाति दुबे, डॉ राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर आदि सहित संस्थान के अनेक शिक्षक, कर्मचारी, विद्यार्थी एवं प्रबुद्ध जन उपस्थित थे। 


इस अवसर पर संस्थान परिसर में वट, नीम और पीपल की पौध त्रिवेणी का रोपण कुलपति प्रोफेसर पांडे एवं अतिथियों ने किया। संस्थान के शिक्षकों, कर्मचारियों और विद्यार्थियों द्वारा एक सौ ग्यारह पौधों का रोपण परिसर में किया गया।


कार्यक्रम का संचालन राशि चौरसिया एवं प्रतिभा सराफ ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ विष्णु कुमार सक्सेना ने किया।












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