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20210606

हिंदी नाटक, निबन्ध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Hindi Drama, Essay and Other Prose genres and Malvi language - literature : Prof. Shailendra Kumar Sharma

हिंदी नाटक, निबन्ध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य : सम्पादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Shailendrakumar Sharma  


सुधी प्राध्यापकों के सहकार से मेरे द्वारा संपादित - प्रणीत ग्रंथ 'हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य रचनाएँ एवं मालवी भाषा-साहित्य' म प्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल से प्रकाशित हुआ है। हिंदी के प्रतिनिधि एकांकी, निबन्ध और अन्य गद्य विधाओं का समावेश किया गया। पुस्तक में विविध विधाओं और उनके प्रमुख लेखकों का परिचय दिया गया है। ग्रंथ में देश के हृदय मालवा की मर्म मधुर मालवी-निमाड़ी भाषा के साहित्य का अद्यतन इतिहास समाहित है। पुस्तक म प्र के भोपाल, इंदौर और उज्जैन स्थित विश्वविद्यालयों में  स्नातक स्तर पर निर्धारित रही है। 




इसी पुस्तक की भूमिका से..

मानव सभ्यता से जुड़ा कोई भी उपादान इतिहास से निरपेक्ष नहीं है। इस दृष्टि से भाषा और साहित्य का भी अपना इतिहास होता है। मूलतः साहित्य की सत्ता एक और अखंड सत्ता है। फिर भी अध्ययन सुविधा की दृष्टि से साहित्येतिहास को लेकर पर्याप्त मंथन होता आ रहा है। किसी भी क्षेत्र के साहित्य का लोकमानस और जीवन से घनिष्ठ संबंध होता है। जहाँ बिना सामाजिक संदर्भ के साहित्येतिहास लेखन संभव नहीं है, वही रचनाकार की सर्जनात्मक अनुभूतियों की उपेक्षा भी उचित नहीं कहीं जा सकती है। पुस्तक में मालवी-निमाड़ी  भाषा और साहित्य के इतिहास-लेखन में इन बातों को विशेषतः दृष्टिपथ में रखा गया है। साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा के साथ वातावरण के अंतःसंबंधों का भी समावेश किया गया है। साहित्येतिहास लेखन में कई नवीन तथ्यों और सामग्री का समावेश करने की दिशा में अनेक विद्वज्जनों, साहित्यानुरागियों और ग्रंथागारों का सहयोग मिला है। 


साहित्येतिहास लेखन एक अविराम प्रक्रिया है। इस पुस्तक में संचित मालवी साहित्य के इतिहास को उसी प्रक्रिया में एक विनम्र प्रयास कहा जा सकता है। लोकभाषा में रचित साहित्य के इतिहास लेखन की दिशा में हाल ही में गति आई है। ऐसे प्रयासों से बोली में रचे साहित्य पर पुनर्विचार और प्रसार की संभावनाएँ भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रही है। पिछले दशक में मध्यप्रदेश के हृदय अंचल मालवा की मर्म मधुर मालवी-निमाड़ी  और उसके साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की भूमिका बनी है। 


प्रस्तुत पुस्तक में संचित मालवी से संबंधित सामग्री के लिए मालवा के प्रमुख मनीषियों-वरिष्ठ कवि डाॅ. शिव चौरसिया, डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित (निदेशक,विक्रमादित्य शोध पीठ, उज्जैन), डाॅ. पूरन सहगल (मनासा), डाॅ. जगदीशचंद्र शर्मा ( विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन), मालवीमना साहित्यकार स्व. श्री झलक निगम एवं अर्धांगिनी प्रो. राजश्री शर्मा ने सत्परामर्श, युवा कवि डाॅ. राजेश रावल सुशील ने स्मरणीय सहकार दिया है, एतदर्थ आभार। 


प्रस्तुत पुस्तक में साहित्यरसिक और अध्येता हिंदी के साथ मालवी और निमाड़ी  साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं की झलक पा सकेंगे।


पुस्तक का नाम : हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य रचनाएँ एवं मालवी भाषा-साहित्य

प्रकाशक : म प्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल 

मूल्य : 100 ₹

पृष्ठ : 440


20200510

मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Malvi Language and Literature : Prof. Shailendra Kumar Sharma

मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

Malvi Bhasha Aur Sahitya:
Prof. Shailendrakumar Sharma

पुस्तक समीक्षा: डॉ श्वेता पंड्या

Book Review : Dr. Shweta Pandya 

मालवी भाषा एवं साहित्य के इतिहास की नई दिशा 

लोक भाषा, लोक साहित्य और संस्कृति का मानव सभ्यता के विकास में अप्रतिम योगदान रहा है। भाषा मानव समुदाय में परस्पर सम्पर्क और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। इसी प्रकार क्षेत्र-विशेष की भाषा एवं बोलियों का अपना महत्त्व होता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़े विशाल वाङ्मय में मालवा प्रदेश, अपनी मालवी भाषा, साहित्य और संस्कृति के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यहाँ की भाषा एवं लोक-संस्कृति ने  अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव डालते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। मालवी भाषा और साहित्य के विशिष्ट विद्वानों में डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। प्रो. शर्मा हिन्दी आलोचना के आधुनिक परिदृश्य के विशिष्ट समीक्षकों में से एक हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं के साथ-साथ मालवी भाषा, लोक एवं शिष्ट साहित्य और संस्कृति की परम्परा को आलोचित - विवेचित करने का महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक प्रयास किया है। उनकी साहित्य-समीक्षा में सुस्पष्ट व्यावहारिक विश्लेषण भी दृष्टिगोचर होता है, जो निश्चित रूप से  सार्थक साहित्य दृष्टि के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

मालवी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवी भाषा और साहित्य का अप्रतिम स्थान है। इस पुस्तक के मुख्य सम्पादक एवं लेखक डॉ.  शैलेन्द्रकुमार शर्मा हैं। उनके साथ सम्पादन सहयोग डॉ. दिलीपकुमार चौहान एवं डॉ. अजय गौतम ने किया है। इसका प्रकाशन मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल द्वारा किया गया है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवी भाषा और साहित्य Book of Shailendra Kumar Sharma

इस पुस्तक की शताधिक पृष्ठीय सुविस्तृत भूमिका में डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा मालवी भाषा और साहित्य के प्रत्येक पहलू पर विस्तृत विवेचन किया गया है।  प्रथम भाग के अन्तर्गत मालवी भाषा की प्रमुख विशेषताओं, भेद – प्रभेद, मालवी साहित्य के इतिहास, प्रमुख धाराओं और साहित्यकारों के अवदान पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय भाग के अन्तर्गत मालवी के प्रख्यात कवियों के वैशिष्ट्य निरूपण के साथ उनकी प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है।

कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली - भाषा, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं एवं प्रत्येक वर्ष लगभग दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह समस्या मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों के साथ भी है। इनके प्रयोक्ताओं की कमी होती जा रही है। इस समस्या के निराकरण हेतु इस पुस्तक की रचना की गई है अर्थात् हमारी भाषा एवं साहित्य-संस्कृति से पाठक और शिक्षार्थी लाभान्वित हों, वे उससे परिचित हों, इसी उद्देश्य से लेखक डॉ शर्मा ने इस पुस्तक का सृजन किया है।

पुस्तक का विषय मालवी भाषा और साहित्य अपने आप में पर्याप्त गुरु गम्भीर है। डॉ शर्मा ने विषय-विवेचन की दृष्टि से प्रथम खण्ड को इन शीर्षकों में विभाजित किया है - मालवा और मालवी, मालवी: उद्भव और विकास, मालवी और उसकी उपबोलियाँ, निमाड़ और निमाड़ी, मालवी साहित्य का इतिहास, नाट्य साहित्य, गद्य साहित्य, निमाड़ी साहित्य की विकास यात्रा इत्यादि। विवेचन के ये शीर्षक विवेच्य विषय की व्यापकता का आभास देते हैं।

मालवी भाषा, साहित्य और उसका इतिहास के अन्तर्गत सर्वप्रथम मालवा और मालवी को लेकर विवेचन किया है। यहाँ डॉ शर्मा ने मालवा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘माल’ शब्द से बताई है। मालवा के परिचय को जनश्रुति के अनुसार कबीर के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया है -

‘देश मालवा गहन, गम्भीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर।’

मालवा क्षेत्र के विस्तार को लोक में चर्चित उक्ति के माध्यम से नदियों के प्रवाह क्षेत्र के आधार पर निरूपित किया गया है :
 इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान।
 दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

इसका विस्तार मध्यप्रदेश और राजस्थान के लगभग बाईस जिलों में बताया गया है। साथ ही मालवी भाषा एवं इसकी सहोदरा निमाड़ी भाषा का प्रयोग करने वाले सभी जिलों, जैसे-वर्तमान में मालवी भाषा का प्रयोग, मध्यप्रदेश के उज्जैन सम्भाग के नीमच, मन्दसौर, रतलाम, उज्जैन, देवास, आगर एवं शाजापुर जिलों; भोपाल संभाग के सीहोर, राजगढ़, भोपाल, रायसेन और विदिशा जिलों; इंदौर संभाग के धार, इंदौर, हरदा, झाबुआ, अलीराजपुर जिले ; ग्वालियर संभाग के गुना जिले, राजस्थान के झालावाड़, प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा एवं चित्तौड़गढ़ आदि जिलों के सीमावर्ती क्षेत्रों में होता है। इनके अलावा कुछ जिलों में मालवी के साथ बुंदेली, निमाड़ी एवं जनजातीय बोलियों के मिश्रित रूप प्रचलित हैं। मालवी की सहोदरा निमाड़ी भाषा का प्रयोग बड़वानी, खरगोन, खण्डवा, हरदा और बुरहानपुर जिलों में उल्लेखित किया गया है। मालवा-निमाड़ क्षेत्र को मानचित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। निमाड़ शब्द की व्युत्पत्ति, भाषा एवं संस्कृति की दृष्टि से मालवी और निमाड़ी का अन्तः सम्बन्ध भी बताया है। विभिन्न कालों में परिस्थितियों में परिवर्तन के बावजूद मालवा के लोकजीवन और लोकमानस में मालवीपन की अक्षुण्णता को जीवन्त बताते हुए मालवी भाषा को अपने आप में एक विलक्षण भाषा के रूप में स्थापित किया है। प्रो शर्मा ने मालवी लोक-संस्कृति, लोक-परम्पराएँ, मालवा क्षेत्र में विविध ज्ञान और कला रूपों के विकास, लोक-साहित्य इत्यादि के आधार पर इसका महत्त्व एवं मालवी लोक भाषा और संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन में किए गए प्रयत्नों की विवेचना की है। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के ‘माच’ का विशिष्ट स्थान प्रतिपादित बताते हुए इसके वैशिष्ट्य और परम्परा के साथ ही मालवी साहित्य की परम्परा को समृद्ध करने वाले साहित्यकारों का उल्लेख किया गया है।

 प्रो शर्मा ने मालवी: उद्भव और विकास शीर्षक के अन्तर्गत वर्तमान मालवी का उद्भव क्रमशः आवन्ती एवं पैशाची प्राकृत तथा आवन्ती एवं पैशाची अपभ्रंश के मिश्रित रूप से बताया है। मालवी भाषा का उद्भव 700 ई. के आसपास से माना  है। मालवी का क्रम विकास तालिका के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। विभिन्न युगों में अन्य भाषाओं का मालवी भाषा पर प्रभाव तथा हिन्दी भाषा से इसकी समृद्धि का निरूपण किया गया है। मालवी और उसकी उपबोलियाँ शीर्षक के अन्तर्गत केन्द्रीय या आदर्श मालवी, सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी या दशपुरी, उमठवाड़ी, भीली सभी उपबोलियों के रूप का परिचय देते हुए इनकी व्याकरणिक विशेषताओं का भी उदाहरण सहित विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

निमाड़ और निमाड़ी शीर्षक के अंतर्गत निमाड़ क्षेत्र के नामकरण को लेकर विभिन्न मान्यताओं को उद्धृत किया है। इस क्षेत्र का विस्तार- खण्डवा, बुरहानपुर, खरगोन, बड़वानी और हरदा जिलों में बताया है। यहाँ पर विभिन्न शासकों के आधिपत्य का भी वर्णन किया है। निमाड़ी भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ और विशेष रूप से मालवी एवं निमाड़ के पुरुषवाची, क्रिया रूप आदि की तुलना तीनों कालों में तालिका द्वारा स्पष्ट की है।

मालवी साहित्य का इतिहास शीर्षक के अन्तर्गत मालवी साहित्य के इतिहास को तीन भागों प्राचीनकाल (700 ई. से 1350 ई.), मध्यकाल (1351 ई. से 1850 ई.) एवं आधुनिक काल (1851 ई. से निरन्तर) में विभाजित किया है। प्राचीन युगीन मालवी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों में सिद्ध, नाथ एवं जैन काव्यधारा का लोकव्यापी विस्तार स्पष्टतः परिलक्षित किया गया है, जैसे- मुनि देवसेन के दर्शनसार, महाकवि स्वयंभू के स्वयंभूछन्द, महाकवि धनपाल के पाइअलच्छी इत्यादि ग्रन्थों में मालवी भाषा से साम्य रखते हुए दोहों तथा डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित द्वारा किए गए इन दोहों के मालवी रूपान्तर भी प्रस्तुत किए हैं।
प्रो शर्मा के अनुसार मालवी का मध्ययुगीन काव्य भक्ति एवं दर्शन के सूत्रों से आप्लावित था। इस दौर में निर्गुण-सगुण भक्तिधारा का प्रवाह तथा उत्तर मध्यकाल में शृंगारपरक काव्यधारा का प्रवाह बताया है। इस युग में मालवी में भक्ति काव्य की धारा प्रबल रूप लेती हुई दर्शाई गई है,  जिसका महत्त्व भारतीय चिन्तनधारा के परिप्रेक्ष्य के साथ जुड़ने तथा उसे लोक-व्याप्ति और विस्तार देने में भी परिलक्षित किया गया है। साथ ही यहाँ के सन्तों पर अनेक तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों, नाथपंथियों, निर्गुण भक्त कवियों तथा मत-मतान्तरों का प्रभाव बताया है। इसी युग में निर्गुणोपासक के रूप में संत कवि पीपाजी, सगुण भक्ति काव्यधारा को समृद्ध करने में चन्द्रसखी और शृंगारपरक काव्य सृजन के लिए रानी रूपमती के अप्रतिम योगदान को उदाहरण सहित विस्तार से उद्घाटित किया है।

आधुनिक काल में श्री नारायण व्यास ने मालवी में रामायण की रचना की थी। पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास ने स्वयं मालवी में लेखन किया और इसकी प्रगति के लिए निरंतर सक्रिय रहे। पन्नालाल शर्मा ‘नायाब’ ने मालवी में एकांकी एवं कविताएं रचीं। मालवी कवि एवं गीतकारों में प्रमुख रूप से आनन्दराव दुबे, पूनमचन्द सोनी, गिरवरसिंह भँवर, नरेन्द्रसिंह तोमर, हरीश निगम, मदनमोहन व्यास, बालकवि बैरागी, नरहरि पटेल, सुल्तान मामा, पुखराज पांडे, मोहन सोनी, डॉ शिव चौरसिया, जगन्नाथ विश्व, झलक निगम, नरेंद्र श्रीवास्तव नवनीत, मनोहरलाल कांठेड़, परमानन्द शर्मा अमन, हास्य-व्यंग्यपरक काव्यधारा में भावसार बा, प्रकृतिपरक खण्डकाव्य के रचनाकार डॉ. राजेश रावल ‘सुशील’, मालवी में रेडियो नाटक और सामयिक लेख लिखने वाले वरिष्ठ कवि सतीश श्रोत्रिय, मालवी गीत-गज़ल के साथ-साथ मुक्त छंद और हाइकू में भी सिद्धहस्त बंसीधर बंधु, अशोक आनन, डॉ देवेंद्र जोशी आदि,  मालवी हाइकू के आरम्भकर्ता सतीश दुबे एवं इसे समृद्ध करने वाले रचनाकारों में ललिता रावल और रामप्रसाद सहज इत्यादि मालवी के प्रख्यात कवियों एवं साहित्यकारों की रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की है, जिनसे इन रचनाकारों का मालवी भाषा को विशिष्ट अवदान ज्ञात होता है। उपर्युक्त साहित्यकारों के अतिरिक्त शताधिक मालवी रचनाकारों, मालवा क्षेत्र में रहकर शोध करने वाले अध्येताओं एवं गद्यकारों का भी उल्लेख समीक्षक डॉ शर्मा ने किया है।

नाट्य-साहित्य शीर्षक के अन्तर्गत मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक-नाट्य ‘माच’ को माना है। यह लोक-नाट्य, लोकरंजन और लोकमंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। इसकी उत्सभूमि उज्जैन एवं इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान लेखक ने प्रतिपादित किया है। माच के प्रवर्तक गुरु गोपाल जी हैं। इनके द्वारा प्रणीत लोकप्रिय खेलों में गोपीचन्द, प्रहलाद चरित्र और हीर-रांझा का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त माच परम्परा को आगे बढ़ाने वाले गुरुओं के नाम के साथ ही इनके द्वारा निर्मित माच के नाम भी उद्धृत किए गए हैं, जैसे- गुरु बालमुकुन्द जी- गेंन्दापरी, राजा हरिश्चन्द्र, रामलीला, ढोला मारूनी, राजा भरथरी आदि; गुरु रामकिशन जी- मधुमालती, पुष्पसेन, विक्रमादित्य, सिंहासन बत्तीसी, गोपीचन्द आदि; श्री सिद्धेश्वर सेन- राजा रिसालू, प्रणवीर तेजाजी, राजा भरथरी, सत्यवादी हरिश्चन्द्र इत्यादि। इस प्रकार लोक-नाट्य ‘माच’ का विस्तृत विवेचन किया गया है।

गद्य-साहित्य शीर्षक के अन्तर्गत आधुनिक युग में मालवी गद्य के पुरोधा के रूप में पन्नालाल नायाब का नाम विशेष रूप से एकांकी विधा में अविस्मरणीय योगदान के लिए उद्घाटित किया है। पुस्तक में मालवी के कई गद्यकारों द्वारा कहानी, लघुकथा, निबन्ध, उपन्यास इत्यादि विधाओं के विकास में विशिष्ट भूमिका निभाने का उल्लेख मिलता है। मालवी में आधुनिक कथा-साहित्य के  विकास पर विस्तार से चर्चा करते हुए मालवी गद्य को श्रीनिवास जोशी के अद्वितीय अवदान को प्रतिपादित किया है। पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास के मालवी काव्य एवं गद्य तथा श्रीनिवास जोशी की कथा परम्परा को आगे बढ़ाने वाले साहित्यकारों में चन्द्रशेखर दुबे, ललिता रावल, डॉ. पूरन सहगल, डॉ. तेजसिंह गौड़, विश्वनाथ पोल, अरविन्द नीमा ‘जय’, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, रचनानन्दिनी सक्सेना, सतीश श्रोत्रिय, राधेश्याम परमार ‘बन्धु’ इत्यादि का उल्लेख किया है। इन रचनाकारों ने  उपन्यास, कहानी, कविता, लघुकथा, व्यंग्य, प्रहसन, निबन्ध, समीक्षा आदि विधाओं में सक्रिय भूमिका निभाई है। साथ ही मालवी भाषा में लेख, टिप्पणी, अनुवाद तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख उपलब्ध होने का उल्लेख किया है। मालवी भाषा, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में योगदान देने वाले एवं मालवी में वैचारिक और समीक्षात्मक निबन्ध की प्रगति में योगदान देने वाले सुधी विद्वानों के नाम भी उल्लेखित किए हैं।

निमाड़ी साहित्य शीर्षक को लेकर निमाड़ी भाषा के शुरूआती रचनाकारों में सन्त लालनाथ गीर (1400 ई. के आसपास), सन्त जगन्नाथ गीर (1440 ई. के आसपास), सन्त ब्रह्मगीर (1470 ई. के आसपास) एवं सन्त मनरंगगीर (सन् 1500 ई. के आसपास), सन्त कवि सिंगाजी इत्यादि की रचनाओं से उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवियों का उल्लेख किया है। आधुनिक युग में निमाड़ी लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास से परिचित करवाने के लिए पं. रामनारायण उपाध्याय के योगदान का विशेष रूप से उल्लेख किया है। निमाड़ी कविता, निमाड़ी अनुवाद, व्यंग्यात्मक कविता, गीत, निमाड़ी-हिन्दी शब्दकोश, निमाड़ी व्याकरण एवं निमाड़ी में पद्यानुवाद करने वाले सभी विद्वानों के योगदान पर प्रकाश डाला गया है।

स्वातंत्र्योत्तर दौर में निमाड़ी साहित्य को अनेक कवि, गद्यकार और शोधकर्ताओं ने समृद्ध किया है, उनमें गौरीशंकर शर्मा गौरीश, प्रभाकर दुबे, बाबूलाल सेन, जगदीश विद्यार्थी, ललितनारायण उपाध्याय, गेंदालाल जोशी ‘अनूप’, वसन्त निरगुणे, डॉ. श्रीराम परिहार, शिशिर उपाध्याय, जगदीश जोशीला, कुंवर उदयसिंह अनुज, सदाशिव कौतुक, हेमन्त उपाध्याय, प्रमोद त्रिवेदी पुष्प इत्यादि का विभिन्न विधाओं में योगदान बताते हुए अनेक समकालीन निमाड़ी कवियों के नाम उल्लेखित किए हैं। अन्त में स्वयं का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक के द्वितीय भाग में संत पीपा, संत सिंगाजी, आनन्दराव दुबे, मदनमोहन व्यास, मोहन सोनी, बालकवि बैरागी, भावसार बा, नरहरि पटेल, शिव चौरसिया एवं श्रीनिवास जोशी आदि रचनाकारों के अवदान एवं उनकी चयनित रचनाओं का समावेश किया गया है।

प्रस्तुत पुस्तक में मालवी भाषा, साहित्य एवं इतिहास का जैसा बहुआयामी, विशद, गम्भीर और वस्तुनिष्ठ विवेचन दिखाई देता है, वैसा मालवी साहित्य विषयक किसी अन्य पुस्तक में  उपलब्ध नहीं है। मालवी भाषा और साहित्य के विविध पक्षों पर चर्चा करते हुए एवं स्थान-स्थान पर प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग करते हुए  डॉ. शर्मा अपने मौलिक एवं गम्भीर चिन्तन का परिचय देते हैं। डॉ. शर्मा की अतिसूक्ष्म विश्लेषण पद्धति ने इसे मालवी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में स्थापित कर दिया है।

दो भागों में विभक्त यह पुस्तक मालवी  साहित्य से सम्बद्ध समस्त पक्षों का न सिर्फ अन्वेषण करती है, वरन् तर्कपूर्ण ढंग से उसका समग्र भी मूर्त कर देती है। मालवी भाषा और साहित्य विषय के विवेचन हेतु लेखक द्वारा अपेक्षित सभी शीर्षकों पर विस्तार से चर्चा की गई है।  लेखक मालवी भाषा और साहित्य के सभी पक्षों पर महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए विषय के साथ न्याय करने में  पूर्णतः सफल रहे हैं।

लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने पुस्तक को सरल एवं सरस स्वरूप प्रदान करने की दृष्टि से परिनिष्ठित खड़ी बोली एवं मुहावरों, दोहों एवं कहावतों में मालवी भाषा का भी प्रयोग किया है तथा स्थान स्थान पर वर्णनात्मक, विवरणात्मक एवं विश्लेषणात्मक शैली का प्रयोग करते हुए अपनी पुस्तक को सरस एवं आकर्षण स्वरूप में उपस्थित कर दिया है।

इस पुस्तक की मुख्य उपलब्धि मालवी भाषा को अपने आप में एक विलक्षण भाषा के रूप में स्थापित करना है। पुस्तक के अन्त में मूल्यवान सन्दर्भ ग्रन्थ सूची दी गई है, जो पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए दिशा-निर्देश का कार्य करेगी। इसमें मालवी भाषा और उसके साहित्य के विभिन्न आयामों को लेकर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जो इस क्षेत्र के सभी पक्षों को उजागर करता है। मालवी भाषा के प्रख्यात रचनाकारों के अवदान और उनके उत्कृष्ट काव्य को इस पुस्तक के माध्यम से आस्वाद कर पाना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

पुस्तक का नाम : मालवी भाषा और साहित्य
लेखक एवं सम्पादक : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी,
              भोपाल
मालवी भाषा और साहित्य : शैलेंद्रकुमार शर्मा

20150808

इतिहास और लोक-संस्कृति के अन्तः सम्बन्धों की तलाश

अक्षर वार्ता: june 2015 सम्पादकीय
भारत सहित दक्षिण-मध्य एशिया अपने ढंग का विलक्षण भूभाग है, जहां ज्ञान की वाचिक और लिखित- दोनों परम्पराओं का अद्वितीय समन्वय मिलता है। ‘लोके वेदे च’ सूत्र को चरितार्थ करते हुए ये दोनों एक-दूसरे के पूरक बने हुए हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से भारत की पहचान का उपक्रम उतना ही महत्त्वपूर्ण हो सकता है, जितना लिखित साहित्य की दृष्टि से। आज भारत सहित समूचे एशियाई इतिहास के पुनर्लेखन में लोक साहित्य और संस्कृति के वैज्ञानिक प्रयोग की जरूरत है। भारतीय दृष्टि मानती है कि परिवर्तनशील अतीत में से अपरिवर्तनीय तत्वों का अन्वेषण है- इतिहास। कोई भी अतीत मृत भूतकाल नहीं होता, वह एक सीमा तक वर्तमान में जीवित रहता है। इसी तरह का निरन्तर प्रवहमान अतीत है- लोक-संस्कृति।
नृतत्त्वशास्त्रीय इतिहास की निर्मिति में लोक-संस्कृति का विशेष योगदान रहता है। लोक-संस्कृति के उपादानों के प्रकाश में विभिन्न प्रजातियों के प्रारम्भिक से लेकर परवर्ती दौर तक की भाषा, पुरातत्व और भौतिक जीवन के अध्ययन की दिशा अत्यंत रोचक निष्कर्षों तक पहुँचा सकती है।
वस्तुतः हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह का तादात्म्य है। यही वह बिंदु है जो इतिहास और लोक-संस्कृति का अन्तः सम्बन्ध बनाता है। लोक-संस्कृतिवेत्ता टेफ्ट की मान्यता है कि सभी लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह सभी की अपनी लोक-संस्कृति होती है। लोक संस्कृति अत्यंत व्यापक है। इसके अंतर्गत लोगों की कहानियों, घटनाओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों, किंवदंतियों, कथा-गाथा, गीत, संगीत, नृत्य, चिकित्सा, आदि सबका समावेश है। साथ ही यह पूर्व-बसाहट के दिनों, उदाहरण के लिए आरंभिक आखेट, पशुपालन, कृषिकर्म आदि की कहानियों, मूलस्थान के देशों या अन्य क्षेत्रों से प्रत्यारोपित सांस्कृतिक जड़ों की कहानियों को भी समाहित करती है। लोक-संस्कृति से प्राप्त कई तथ्य प्रारंभिक पशुपालन, कृषिकर्म से लेकर घरों की बसाहट, ग्रामों, कस्बों और शहरों तक के विकास का लेखा प्रकट करते हैं। साथ ही सामाजिक संरचना और विविध समुदायों की अंतरक्रियाओं का संकेत भी इनसे प्राप्त होता है।
लोक-संस्कृति और साहित्य आम जन के इतिहास तक हमें ले जाते हैं, जहां आम जन की आशा-हताशा, सुख दुःख, जय-पराजय का रमणीय वृत्तांत होता है। यह आम आदमी की संवेदना का लेखा है। वस्तुतः लोक संवेदना के इतिहास की निर्मिति बिना लोक साहित्य के सम्भव नहीं है। ‘बंगालेर इतिहासेर’ (1966) में प्रो निहार रंजन रे लिखते हैं, जनता का इतिहास लोकविधाओं एवम् लोककर्म आदि से ही निर्मित किया जा सकता है।
यदि अतीत का लेखा-जोखा इतिहास है तो समकाल का लेखा-जोखा पत्रकारिता। इनसे हटकर साहित्य शाश्वत का इतिहास है। वह इनसे आगे ले जाता है। इसलिए लोक-साहित्य इतिहास के लिए उपयोगी है, किन्तु उसमें कितना यथार्थ और कितना कल्पना है, इसकी छानबीन बेहद जरूरी हो जाती है। लोक-साहित्य इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ने के साथ ही भिन्न दृष्टि से अतीत को देखने का नजरिया भी दे सकता है। वह इतिहास से प्राप्त चरित्रों और घटनाओं के मृत ढाँचे में अस्थि-मांस-मज्जा भरने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
ब्लादिमीर प्रोप ने थ्योरी एंड हिस्ट्री ऑफ़ फोकलोर (1984) में लिखा है, लोक-संस्कृति एक ऐतिहासिक परिघटना है और लोक-संस्कृति का विज्ञान एक ऐतिहासिक अनुशासन है। इस रूप में लोक सांस्कृतिक तत्वों पर गहन और वैज्ञानिक मन्थन आवश्यक हो जाता है। हमारे प्राचीन साहित्य, यथा- जातक कथा, दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, खुद्दक निकाय आदि में लोक संस्कृति और परम्परा के कई सूत्र बिखरे हुए हैं, वहीं इतिहास के कई सन्दर्भ उपलब्ध हैं। विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को लेकर भले ही इतिहास जगत् में विवाद रहा है किन्तु उनसे जुड़े कई तथ्य हमारी समृद्ध लोक परम्परा का अंग बने हुए हैं। यही स्थिति गोरखनाथ, भर्तृहरि, वररुचि, भोज आदि की है। अनुश्रुतियों और लोक-साहित्य में उपलब्ध इस प्रकार के चरित नायकों से जुड़े कई पक्षों की पड़ताल और इतिहास की कड़ियों से उनका समीकरण जरूरी है।
लोकव्यापी व्रत-पर्व-उत्सव महज धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति और लीक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम उदाहरण है। इसी तरह अनेकानेक लोक देवताओं से सम्बद्ध लोक-साहित्य और संस्कृति भी इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं।
आज इतिहास एवं लोक-संस्कृति के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। इन अध्ययन क्षेत्रों में शोध की नवीनतम प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगी। शोध की नवीन दिशाओं में क्रियाशील मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailrndrakumar Sharma
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता Akshar varta
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक संस्कृति और इतिहास के अंतः सम्बंधों को लेकर सजगता की दरकार करता है... अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com




20140527

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा खांपा रत्न सम्मानोपाधि से विभूषित





  

उज्जैन। विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ साहित्यिक साधना, हिन्दी एवं मालवी भाषा के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन एवं संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए हल्ला गुल्ला साहित्य मंच, रतलाम द्वारा खांपा रत्न सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि रतलाम में आयोजित 10 वें . भा. खांपा सम्मेलन अर्पित की गई । इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्‌न  एवं अंगवस्त्र अर्पित किए गए। उन्हें मुख्त अतिथि इप्का लैब के उपाध्यक्ष श्री दिनेश सियाल, समाजसेवी श्री दिनेश पाटीदार, संस्थापक व्यंग्यकार संजय जोशी सजग, संयोजक अलक्षेन्द्र व्यास, जुझारसिंह भाटी आदि ने सम्मानित किया। इस आयोजन में देश के सैंकड़ों साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

     प्रो. शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध,लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं । उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का  हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश – विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में थाईलैंड में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान, विद्यावाचस्पति आदि प्रमुख हैं।
      प्रो. शर्मा को खांपा रत्न सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल,  पूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो. टी.आर. थापक,  कुलसचिव डॉ. बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ राकेश ढंड , इतिहासविद्‌ डॉ. श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो गीता नायक, डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ. अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव 'नवनीत', श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक 'उत्तम', श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ. राजेश रावल सुशील, डॉ. अनिल जूनवाल, डॉ. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', राजेन्द्र नागर 'निरंतर', अक्षय अमेरिया, डॉ. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी।
                                                                         
                                                                       डॉ. अनिल जूनवाल
                                                             संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन






              

20130822

Alochana Bhushan award conferred on Prof Sharma

फ्रीप्रेस द्वारा प्रकाशित आलोचना भूषण सम्मान 2012 की रपट  

Home » Ujjain    October 30, 2012 01:13:54 AM | By FP NEWS SERVICE Ujjain
Alochana Bhushan award conferred on Prof Sharma
Ujjain:Vikram University Proctor and renowned critic Prof Shailendra Kumar Sharma was conferred with Akhil Bharatiya Alochana Bhushan honour for his incredible contribution in the field of criticism during a programme organised in Gaziabad on October 28 under the joint aegis of Rashtra Bhasha Swabhiman Nyas and USM Journal.
Prof Sharma was accorded this honour during national level Samman Alankaran programme under 20th Akhil Bharatiya Sahitya Sammelan by former Union Minister Dr Bhishmnarayan Singh and former Member of Parliament Dr Ratnakar Pandey. Prof Sharma was honoured with citation, memento and books. Former Union Minister and educationist Dr Sarojini Mahishi, senior dance scholar Padma Shree Dr Shyam Singh Shashi, Loksabha TV senior officer Dr Gyanendra Pandey, convener of institute Umashankar Mishra and other Hindi Scholars from more than 15 States were present during the felicitation programme.
Prof Sharma has been active in research and writings related to criticism, folk- culture, stage- art, Rajbhasha Hindi and Devnagari Lipi for last two and half decades. He has written more than 800 reviews in renowned journals of national and international recognition. Some of the most famous books written by Prof Sharma include Shabda Sambandhi Bharatiya and Pashchatya Avdharana, Devnagri Vimarsh, Hindi Bhasha Saranchana, Awanti Kshetra and Simhastha Mahaparva, Malwa ka Loknatya Mach, Malwi Language and Literature and others. Prof Sharma has been felicitated by several organizations earlier.


Prof Shailendra Kumar Sharma conferred by former Union Minister Dr Bhishmnarayan Singh and former Member of Parliament Dr Ratnakar Pandey



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