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20210303

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा विक्रम विश्वविद्यालय के कला संकायाध्यक्ष नियुक्त | Prof. Shailendrakumar Sharma Appointed as the Dean of Faculty of Arts, Vikram University

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा विक्रम विश्वविद्यालय के कला संकायाध्यक्ष नियुक्त | Prof. Shailendrakumar Sharma appointed as the Dean of Faculty of Arts, Vikram University


मध्यप्रदेश विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 के प्रावधान के अंतर्गत कुलाधिपति जी, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के द्वारा प्रो  शैलेंद्रकुमार शर्मा आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष को दो वर्ष की कालावधि के लिए विक्रम विश्वविद्यालय के कला संकाय का संकायाध्यक्ष  नियुक्त किया गया है। कई ख्यात सम्मानों और पुरस्कारों से विभूषित डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा वर्तमान में हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म. प्र.) के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए अनेक नवाचारी प्रयत्न किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र, भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र एवं भारतीय भक्तिकालीन साहित्य एवं संस्कृति केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं।

 



प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने भाषा और साहित्य से संबंधित उच्च स्तरीय पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। उनकी देश-विदेश की महत्वपूर्ण और श्रेष्ठतम संस्थाओं से सम्बद्धता रही है। उन्होंने देश-विदेशों में विभिन्न विषयों पर सैकड़ों व्याख्यान और परिसंवाद में शोध आलेख प्रस्तुति की है। उन्होंने पचहत्तर से अधिक विद्यार्थियों का शोध निर्देशन किया है। प्रो शर्मा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य शोध पत्रिका अक्षरवार्ता के प्रधान संपादक हैं। आलोचना, निबंध लेखन, संस्मरण, इंटरव्यू, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर लेखन एवं अनुसंधान कार्य में निरंतर सक्रिय प्रो शर्मा ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की शोध परियोजना के अन्तर्गत 'साठोत्तर हिन्दी नाट्‌य साहित्य और भारतीय रंगचेतना’ विषय पर अनुसंधान किया है।


उनकी मुख्य कृतियाँ हैं  : शब्दशक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी काव्यशास्त्र, देवनागरी विमर्श, मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएं, महात्मा गांधी : विचार और नवाचार, सिंहस्थ विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, मालवी भाषा और साहित्य आदि। इनके अलावा अवन्ती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य, हिंदी कथा साहित्य, मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास, आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आंचल का हरकारा : हरीश निगम, हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य, मालव मनोहर, हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य, हरीश प्रधान : व्यक्ति और काव्य, स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम, मालव मनोहर,  संत शिरोमणि सेनजी आदि प्रमुख ग्रंथों सहित निबंध, आलोचना, भाषाशास्त्र, मालवी भाषा, लोक संस्कृति आदि विषयों पर लगभग 40 पुस्तकों का लेखन एवं संपादन प्रो शर्मा ने किया है। आपने केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का हिंदी-भीली अध्येता कोश तैयार करने में संपादक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।


उन्हें अर्पित किए गए महत्वपूर्ण एवं ख्यात सम्मान और पुरस्कार हैं :  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान, म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए डॉ. संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिंदी सेवी सम्मान,  भाषा- भूषण सम्मान, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार, आचार्य विनोबा भावे राष्ट्रीय नागरी लिपि सम्मान, अक्षर आदित्य सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान, अभिनव शब्द शिल्पी अलंकरण, साहित्य सिंधु सम्मान, विश्व हिन्दी सेवा सम्मान आदि।


प्रो शर्मा ने थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस एवं म्यांमार की अकादमिक यात्राएँ की हैं। मॉरीशस में 2018 में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में उन्होंने शोध पत्र प्रस्तुति एवं आलेख वाचन सत्र की अध्यक्षता की। थाईलैंड में अक्टू 2013 और सिडनी - ऑस्ट्रेलिया में जून 2017 में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में उन्होंने व्याख्यान दिए, इसके साथ उन्हें क्रमशः विश्व हिन्दी सेवा सम्मान तथा साहित्य सिंधु सम्मान से अलंकृत किया गया।


राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के संरक्षक आचार्य एवं अध्यक्ष हिन्दी अध्ययनशाला प्रो शैलेन्द्र कुमार शर्मा को विक्रम विश्वविद्यालय के कला संकायाध्यक्ष के पद पर कुलाधिपति के निर्देश पर की गई नियुक्ति पर राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के अध्यक्ष ब्रजकिशोर शर्मा, मार्गदर्शक हरेराम वाजपेयी, डॉ. हरिसिंह पाल, महासचिव डॉ. प्रभु चौधरी, प्रवक्ता सुंदरलाल जोशी सूरज, डॉ. शिवा लोहारिया, गरिमा गर्ग, डॉ. रश्मि चौबे, जी.डी. अग्रवाल, अनिल ओझा, प्रभा बैरागी, प्रो. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रगति बैरागी आदि ने हर्ष व्यक्त किया है।



















20210118

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma    

प्रेमचंद : परिचय

प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के समीप लमही ग्राम में हुआ था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क थे। वे अजायब राय व आनन्दी देवी की चौथी संतान थे। पहली दो लड़कियाँ बचपन में ही चल बसी थीं। तीसरी लड़की के बाद वे चौथे स्थान पर थे। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा। सात साल की उम्र से उन्होंने एक मदरसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत की जहाँ उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी सीखी। जब वे केवल आठ साल के थे तभी लम्बी बीमारी के बाद आनन्दी देवी का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली परंतु प्रेमचंद को नई माँ से कम ही प्यार मिला। धनपत को अकेलापन सताने लगा। किताबों में जाकर उन्हें सुकून मिला। उन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, फ़ारसी और अँग्रेज़ी साहित्य की अनेकों किताबें पढ़ डालीं। कुछ समय बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज में दाख़िला ले लिया।


1895 में पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। तब वे नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। लड़की एक सम्पन्न जमीदार परिवार से थी और आयु में उनसे बड़ी थी। उनका यह विवाह सफ़ल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन करते हुए 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। उनकी तीन संतानें हुईं–श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।


1897 में अजायब राय भी चल बसे। प्रेमचंद ने जैसे-तैसे दूसरे दर्जे से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तंगहाली और गणित में कमज़ोर होने की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में उन्होंने प्राइवेट से इंटर और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।


वाराणसी के एक वकील के बेटे को 5 रु. महीना पर ट्यूशन पढ़ाकर ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ी। कुछ समय बाद 18 रु. महीना की स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई। सन् 1900 में सरकारी टीचर की नौकरी मिली और रहने को एक अच्छा मकान भी मिल गया।


धनपत राय ने सबसे पहले उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखा। प्रेमचंद ने 14 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय व संस्मरण आदि लिखे। उनकी कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। प्रेमचंद ने मुंबई में रहकर फ़िल्म ‘मज़दूर’ की पटकथा भी लिखी।


प्रेमचंद काफ़ी समय से पेट के अल्सर से बीमार थे, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अक्तूबर, 1936 को क़लम के इस सिपाही ने सबसे विदा ले ली। 


गोदान - मुंशी प्रेमचंद

Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान पीडीएफ - मुंशी प्रेमचंद.pdf

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प्रेमचंद का रचना संसार :


प्रेमचंद भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे मशहूर लेखकों में से एक हैं, और बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण हिन्दुस्तानी लेखकों में से एक के रूप में जाना जाता है। उनकी रचनाओं में चौदह उपन्यास, लगभग 300 कहानियाँ, कई निबंध और अनेक विदेशी साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद शामिल है। उनके उपन्यासों में गोदान, गबन, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प और निर्मला बहुत प्रसिद्ध हैँ। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया।


उन्होंने 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। ‘गोदान’, ‘गबन’ आदि उनके उपन्यासों और ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि कहानियों पर फ़िल्में भी बनीं।


उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कहानियों को 'मानसरोवर' में संजोकर प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक कहानियाँ देश-भर के पाठ्यक्रमों में समाविष्ट हुई हैं, कई पर नाटक व फ़िल्में बनी हैं जब कि कई का भारतीय व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।


विषय, मानवीय भावना और समय के अनंत विस्तार तक जाती उनकी रचनाएँ इतिहास की सीमाओं को तोड़ती हैं, और कालजयी कृतियों में गिनी जाती हैं। उनका रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। परतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं के बीच राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण यह उपन्यास लेखक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बहुत ऊँचा उठाता है।


देश की नवीन आवश्यकताओं, आशाओं की पूर्ति के लिए संकीर्णता और वासनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से देश सेवा की आवश्यकता उन दिनों सिद्दत से महसूस की जा रही थी। रंगभूमि की पूरी कथा इन्हीं भावनाओं और विचारों में विचरती है। कथानायक सूरदास का पूरा जीवनक्रम, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की छवि लगती है। सूरदास की मृत्यु भी समाज को एक नई संगठन-शक्ति दे गई। विविध स्वभाव, वर्ग, जाति, पेशा एवं आय वित्त के लोग अपने-अपने जीवन की क्रीड़ा इस रंगभूमि में किये जा रहे हैं। और लेखक की सहानुभूति सूरदास के पक्ष में बनती जा रही है। पूरी कथा गाँधी दर्शन, निष्काम कर्म और सत्य के अवलंबन को रेखांकित करती है। यह कृति कई अर्थों में भारतीय साहित्य की धरोहर है। 


अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। उनकी कहानियों में अनेक मनोवैज्ञानिक बारीक़ियाँ भी देखने को मिलती हैं। विषय को विस्तार देना व पात्रों के बीच में संवाद उनकी पकड़ को दर्शाते हैं। ये कहानियाँ न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उत्कृष्ट साहित्य समझने की दृष्टि भी प्रदान करती हैं।


ईदगाह, नमक का दारोगा, पूस की रात, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, पंच-परमेश्वर, आदि अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें पाठक कभी नहीं भूल पाएँगे। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियां परिवेश बुनती हैं। पात्र चुनती हैं। उसके संवाद बिलकुल उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि में घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार हैं, लेकिन वे घटना को ज्यों का त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-जमुनी संगम है। कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।


मुंशी प्रेमचंद और उनका गोदान : 


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (1880 – 1936 ई.) युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में समादृत हैं।प्रेमचंद का गोदान सर्वाधिक चर्चित एवं पठनीय उपन्यास है। हिंदी उपन्यासकारों में प्रेमचन्द को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विषमताओं पर करारा प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज भी की है। निःसंदेह, प्रेमचन्द एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्यकार हैं, जिनकी प्रत्येक रचना भारतीय जन-जीवन का आईना है तथा हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। 


प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है, वह आम आदमी की व्यथा कथा है, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी। गांवों की अव्यवस्था, किसान की तड़प, ग्रामीण समाज की विसंगतियां, अंधविश्वास, उत्पीड़न और पीड़ा की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है - गोदान। उनकी चिर-परिचित शैली का जीता-जागता उदाहरण है गोदान, जो जमीन से जुड़ी हकीकतों को बेनकाब करता है।


प्रेमचंद के बिना भारतीय भाषाओं के कथा - साहित्य की वह छलांग संभव नहीं थी, जिस पर हम आज अभिमान करते हैं।मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम, जिसे हर किसी ने सुना और पढ़ा है। लेखन के विविध विधाओं के बीच वे मूलत: युग प्रवर्तक कथाकार थे। अपने अभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाइयों के चलते उन्होंने जनजीवन से तादात्म्य स्थापित कर साहित्य की पूंजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल है। देश के लिए उनके देखे सपने, आशाएँ और आकांक्षाएँ अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं। 


प्रेमचंद को पहला हिंदी लेखक माना जाता है जिनका लेखन प्रमुखता यथार्थवाद पर आधारित था। उनके उपन्यास गरीबों और शहरी मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों के बारे में जनता में जागरूकता लाने के लिए साहित्य का उपयोग किया और भ्रष्टाचार, बाल विधवा, वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, उपनिवेशवाद के लिए और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित विषयों पर लिखा। उन्होंने 1900 के दशक के अंत में कानपुर में राजनीतिक मामलों में रुचि लेना शुरू किया था, और यह उनके शुरुआती काम में दिखाई देता है, जिनमें देशभक्ति का रंग था। शुरू में उनके राजनीतिक विचार मध्यम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले से प्रभावित थे, पर बाद में, उनका झुकाव और अधिक कट्टरपंथी बाल गंगाधर तिलक की ओर हो गया। उन्होंने सख्त सरकारी सेंसरशिप के कारण, उन्होंने अपनी कुछ कहानियों में विशेषकर ब्रिटिश सरकार का उल्लेख नहीं किया, पर लेकिन मध्यकालीन युग और विदेशी इतिहास के बीच अपने विरोध को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया।


1920 में, वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सामाजिक सुधार के लिए संघर्ष से प्रभावित थे। प्रेमचंद का ध्यान किसानों और मजदूर वर्ग के आर्थिक उदारीकरण पर केंद्रित था, और वे तेजी से औद्योगिकीकरण के विरोधी थे, जो उनके अनुसार किसानों के हितों के नुक्सान और श्रमिकों के आगे उत्पीड़न का कारण बन सकता था।


प्रेमचंद का कथा साहित्य सही अर्थों में आधुनिक युग का क्लासिक है। वे सहज भारतीय मनुष्य के साथ गतिशील रचनाकार हैं। मानवीय चिंताओं को लेकर वे आजीवन क्रियाशील बने रहे। उनकी दृष्टि समूची मानवता पर टिकी है, किंतु स्वराज से लेकर सुराज तक का प्रादर्श और उसकी जमीनी हकीकत उनकी आंखों से ओझल नहीं रही। यही वजह है कि वे जहां सार्वकालिक और शाश्वत मानवता और उसकी प्रतिष्ठा के लिए सार्वकालिक और शाश्वत साहित्य की बात करते हैं, वही अपने राष्ट्र एवं समाज से जुड़ी जटिल समस्याओं से किंचित भी विमुख नहीं हैं। वे सही अर्थों में सामान्य जनता की समस्याओं के प्रामाणिक चित्रण करने वाले पहले उपन्यासकार हैं और नए ढंग के प्रथम कथा शिल्पी भी।


प्रेमचंद ठोस भारतीय जमीन पर खड़े कथाकार हैं। उन्हें न तो आयातित विचारों के पूर्वाग्रही साँचे में जकड़ा जा सका और न किसिम - किसिम की कहानियों के आंदोलन के दौर में अप्रासंगिक ही ठहराया जा सका।  भारतीय परिवेश में वंचित - शोषित वर्ग, किसान और स्त्री जीवन से जुड़ी विसंगतियों को लेकर उन्होंने निरन्तर लिखा। ऐसे विषयों पर गहरी समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द अपने समय से आगे दिखाई देते हैं। किसान और शोषित वर्ग के जीवन के यथार्थ चित्रण में वे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय दिखाई देते हैं। हाल के दशकों में उभरे कई विमर्शों के मूल सूत्र प्रेमचंद के यहां मौजूद हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों में भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों का तीखा प्रतिकार दिखाई देता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में गोदान, सेवासदन, रंगभूमि या प्रेमाश्रम के चरित्र और प्रसंग आज भी हमारे आसपास देखे जा सकते हैं। वैसी ही ऋणग्रस्तता, अविराम शोषण, रूढ़ियाँ और वर्गीय अंतराल आज भी भारतीय समाज की सीमा बने हुए हैं। ऐसे में प्रेमचंद का कथा साहित्य व्यापक बदलाव के लिए तैयार करता है।


गोदान किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रासद दस्तावेज है। यह प्रेमचन्द का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936 ई में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें भारतीय जीवन मूल्यों के साथ गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का व्यापक परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में भारत के किसानों की स्थिति का जीवन्त चित्रण है। साथ ही भारतीय किसान के लिए उनके पशु के महत्त्व को जीवन्त किया गया है। गरीब किसान जो महाजनों के कर्ज और लगान में दबकर जीने को मजबूर हैं, परन्तु वह हिम्मत नही हारता है। होरी की बड़ी तमन्ना थी कि द्वार पर एक दुधारू गाय बंधी हो, जिस की सेवा कर के वह संसार सागर से पार हो जाए। भोला की मेहरबानी से ऐसी एक गाय हाथ आ भी गई, किंतु छोटे भाई की ईर्ष्या से वह जल्दी ही हमेशा के लिए होरी से छिन भी गई। इस गाय के चक्कर में होरी ने अपना क्या नहीं खोया? किस का कर्जदार नहीं हुआ? किस की बेगार नहीं की? फिर भी क्या वह अंतिम समय में गोदान कर सका? ‘कृषक जीवन का महाकाव्य’ माने जाने वाले इस उपन्यास ‘गोदान’ में प्रेमचंद के संचित अनुभव एवं उन की निखरी हुई कला सहज ही दिखाई देती है इस में सामंतों, साहूकारों, धर्म के ठेकेदारों की  करतूतों को भी बखूबी उजागर किया गया है।


होरी एक जोड़ा बैल खरीदता है पर उसका भाई उसे जहर देकर मार डालता है, जिसके कारण होरी का पूरा परिवार तबाह हो जाता है। गोदान में भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी सामाजिक - आर्थिक चेतना को चित्रित किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में ब्रिटिश समय में अभावग्रस्त ग्रामीणों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। इस कृति में होरी और धनिया सामाजिक वर्ग संघर्ष के अमर प्रतीक है।


गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का  प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की ग्राम्य संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुवास है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में पात्र और जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जड़ें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, राय साहब और दातादीन और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। 


e - content | Online Study Material - Hindi | Prof. Shailendra Kumar Sharma | ई - कंटेंट | ऑनलाइन अध्ययन सामग्री - हिंदी | प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

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20210108

आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी का आलोचनात्मक योगदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Critical Contribution of Dr. Rammurti Tripathi - Prof. Shailendra Kumar Sharma

ध्वनि और रस सिद्धांत पर आचार्य त्रिपाठी का योगदान अद्वितीय  


शंकराचार्य स्वामी दिव्यानंद तीर्थ एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जयंती समारोह 


मध्यप्रदेश लेखक संघ द्वारा चार धाम मंदिर सभागार में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी एवं भानपुरा पीठ के शंकराचार्य स्वामी दिव्यानन्द तीर्थ जयंती समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि महामंडलेश्वर श्री शांतिस्वरूपानंद जी थे।  विशिष्ट अतिथि श्री नारदानन्द जी, कुलपति प्रोफेसर अखिलेश कुमार पांडेय एवं पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर बालकृष्ण शर्मा थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा एवं प्रो शैलेंद्र पाराशर ने विचार व्यक्त किए। संस्थाध्यक्ष प्रो हरिमोहन बुधौलिया ने कार्यक्रम की पीठिका प्रस्तुत की।




प्रो बालकृष्ण शर्मा ने आदि शंकराचार्य के बहुआयामी व्यक्तित्व और योगदान प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आदि शंकराचार्य ने अल्प वय में भारतीय दर्शन, भक्ति, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण अवदान दिया। स्वामी दिव्यानंद तीर्थ ने उनकी परंपरा को नए दौर में जीवंत किया। 





प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के योगदान पर केंद्रित व्याख्यान देते हुए कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी ने चिंतन और समालोचना में दुर्गम पथ चुना था, जिस पर वे आजीवन चलते रहे। भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रति गहन निष्ठा,  काव्यशास्त्रीय चिंतन की पुनराख्या, प्राचीन और नवीन रचनाधर्मिता की तलस्पर्शी आलोचना और आगमिक दृष्टि से काव्य एवं काव्यशास्त्र की पड़ताल आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी को समूची आलोचना धारा में अद्वितीय बनाते हैं।  आलोचना के क्षेत्र में ध्वनि और रस सिद्धांत पर उनका योगदान अनुपम है, जो सदैव याद किया जाएगा। भारत की पहचान के अभिलक्षणों के प्रसार के लिए वे निरन्तर गतिशील बने रहे। 




प्रोफेसर शैलेंद्र पाराशर ने आचार्य त्रिपाठी के साहित्यिक लेखन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि त्रिपाठी जी का संपूर्ण जीवन अध्ययन ,अध्यापन, लेखन एवं प्रबोधन को समर्पित रहा।



कार्यक्रम में पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर बालकृष्ण शर्मा को शंकराचार्य दिव्यानंद तीर्थ सम्मान तथा साहित्यकार डॉ देवेंद्र जोशी को आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से महामंडलेश्वर श्री शांति स्वरूपानंद जी , स्वामी नारदानन्द जी एवं अतिथियों ने सम्मानित किया। 


अभिनंदन पत्र का वाचन  साहित्यकार डॉ हरीश कुमार सिंह एवं श्री सूरज नागर उज्जैनी ने किया।







सरस्वती वंदना श्रीमती सीमा जोशी ने की। साहित्य सारथी कैलेंडर का विमोचन डॉ हरीशकुमार सिंह ने करवाया। 


कार्यक्रम में डॉ पुष्पा चौरसिया, डॉ अभिलाषा शर्मा,डॉ रफीक नागौरी, संतोष सुपेकर आदि सहित अनेक साहित्यकार उपस्थित थे।


कार्यक्रम का  संयोजन डॉ देवेंद्र जोशी ने किया। आभार प्रदर्शन प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया ने किया।















चार्य 




राममूर्ति त्रिपाठी जयंती


20210105

आलोचक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी : बहुआयामी अवदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Critic Acharya Ramamurthy Tripathi: Multidimensional Contribution : Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र के अद्वितीय मनीषी थे आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी 

आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जयंती महोत्सव एवं उनके बहुआयामी अवदान पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी

डॉ पन्नालाल आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत 

क्लैसिकी शोध संस्थान एवं हिंदी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के संयुक्त तत्वावधान में प्रख्यात आलोचक और विद्वान आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की 92 वीं जयंती के अवसर पर सारस्वत महोत्सव एवं राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि मध्यप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ पन्नालाल थे। कार्यक्रम के सारस्वत अतिथि पूर्व संभागायुक्त एवं पूर्व कुलपति डॉ मोहन गुप्त थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने की। कार्यक्रम में श्रीधाम आश्रम के महंत श्री श्यामदास जी का सान्निध्य रहा।  विशिष्ट अतिथि प्रो गीता नायक, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, श्री जियालाल शर्मा एवं डॉ देवेंद्र जोशी थे। कार्यक्रम में डॉ पन्नालाल जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत किया गया। 






प्रमुख अतिथि पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ पन्नालाल ने समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र के अद्वितीय मनीषी थे। उन्हें हम किसी भाषा के दायरे में नहीं बांध सकते। उनकी आलोचना के केंद्र में काव्यगत चारुता की चर्चा आती है। इसके साथ ही वे रस और साधारणीकरण की चर्चा किया करते थे।  वे रसवादी आचार्य हैं। रचना से यदि आनंद मिलता है, वह सर्वोपरि होती है।







सारस्वत अतिथि डॉ मोहन गुप्त ने कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी,  आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की परंपरा को नई दिशा देने वाले साहित्य मनीषी और आलोचक हैं। उन्होंने प्राचीन से लेकर नवीन साहित्य सर्जना पर समीक्षा कार्य किया। उनके साहित्य सिद्धांतों और मीमांसा को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए व्यापक प्रयास किए जाने चाहिए। 





कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए लेखक एवं आलोचक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि आचार्य त्रिपाठी पिछली सदी के अपने ढंग के अनन्य आलोचक हैं। उनकी आलोचना दृष्टि भारतीय चिंतन धारा की ठोस आधार भूमि पर टिकी हुई है। ऐसे समय में जब पश्चिमी चिंतन से आक्रांत सर्जक और आलोचक आत्महीनता की स्थिति में आ गए थे, आचार्य त्रिपाठी ने अपनी जड़ों में अंतर्निहित काव्य दृष्टि की संभावनाओं को नए सिरे से उजागर किया। रस और ध्वनि जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को सतही तौर पर लेने वाले आलोचकों की अधूरी समझ और सीमाओं का उन्होंने पूरी दृढ़ता से प्रतिरोध किया। काव्य के रसात्मक प्रतिमान को वे सर्वोपरि महत्व देते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों की पुनराख्या के साथ पश्चिम से आगत अनेक काव्य सिद्धांतों की सीमाओं को लेकर वे निरन्तर सजग करते हैं। उन्होंने आगम या तंत्र के आलोक में भारतीय साहित्य और काव्य चिंतन परम्परा के वैशिष्ट्य को प्रतिपादित किया, वहीं नई रचनाधर्मिता का तलस्पर्शी मूल्यांकन किया। 







विशिष्ट वक्ता डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की आलोचना दृष्टि और आलोचना भाषा पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आचार्य त्रिपाठी ने अपने काव्यशास्त्रीय लेखन में भारतीय काव्य चिंतन की सभी मान्यताओं और सिद्धांतों को प्रामाणिक और अविकल रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने एक ही संप्रदाय के आचार्यों के मध्य परस्पर विचार भेद को भी प्रकट करने में संकोच नहीं किया। भारतीय काव्य विमर्श के सातत्य को उन्होंने रीतिकालीन कवि आचार्यों और आधुनिक हिंदी आलोचकों तक दिखाने का अत्यंत कठिन कार्य उन्होंने किया है। रीतिकालीन आचार्यों की मौलिकता और उनके काव्यशास्त्रीय योगदान की अत्यंत तार्किक मीमांसा त्रिपाठी जी ने की है। उनका संपूर्ण कृतित्व मूल्यवान और अर्थवत्ता लिए हुए हैं, जिसके माध्यम से समकालीन रचना और आलोचना दोनों का मार्ग आलोकित हो सकता है।




प्रो गीता नायक ने आचार्य त्रिपाठी से जुड़े हुए अनेक संस्मरण सुनाए।




डॉ देवेन्द्र जोशी ने कहा कि डॉ त्रिपाठी ने शास्त्र और साहित्य परंपरा के विविध विषयों पर कलम चलाई है। उनके समग्र चिंतन को पढ़ते हुए गूढ़ गंभीर चिंतक और सिद्धांतवादी की छवि उभरती है। लेकिन जब समूचे चिंतन की गहराई में उतरा जाता है तो उनका लेखन समाजोपयोगी होकर साहित्य और समाज का पथप्रदर्शक बन कर हमारे सामने आता है। कवि, आलोचक, शोधकर्ताओं और तंत्र उपासकों ने आचार्य त्रिपाठी के समूचे चिंतन को पढ़ा होता तो वे उस भटकाव से बच जाते जो आज के युग की बड़ी समस्या है। तंत्रशास्त्र हो अथवा आलोचनाशास्त्र, वे खामियों पर टिप्पणी ही नहीं करते हैं, उनका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। उनके समूचे चिंतन का आधार समाज और साहित्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना कर मूल्य आधारित समाज की स्थापना करना रहा है। उन्होंने सुझाव दिया कि डॉ त्रिपाठी पर केंद्रित कार्यक्रम का विस्तार हो। उनके लेखन कर्म पर शिक्षण और शोध के स्तर पर सार्थक विमर्श हो।


डॉ पन्नालाल जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए अतिथियों द्वारा अंग वस्त्र, श्रीफल एवं प्रशस्ति पत्र अर्पित करते हुए आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत किया गया। अभिनंदन पत्र का वाचन वरिष्ठ गीतकार श्री सूरज उज्जैनी ने किया।






अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ समाजसेवी श्री तुलसी मनवानी, सूरज उज्जैनी, अमिताभ त्रिपाठी, पद्मनाभ त्रिपाठी, अनिल पांचाल सेवक, डॉ राजेश रावल सुशील आदि ने किया। प्रारंभ में अतिथियों द्वारा आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। 

अतिथि साहित्यकारों का सम्मान श्री धाम आश्रम की ओर से स्वामी महंत श्री श्यामदास जी महाराज ने किया। सरस्वती वंदना डॉ राजेश रावल सुशील ने की।




समारोह में श्री अक्षय कुमार चवरे, डॉ इसरार मोहम्मद खान, गौरीशंकर उपाध्याय, अनिल पांचाल, डॉ संदीप पांडेय, अभिजीत दुबे,  रामचंद्र जी पांचाल, ओम प्रकाश कुमायू, किशोर अलबेला, श्रीमती अनीता सोहनी, राधे दीदी, श्रीमती शीला तोमर आदि सहित अनेक साहित्यकार, संस्कृति कर्मी और गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।


संगोष्ठी का संचालन पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ सदानंद त्रिपाठी ने किया।

20201030

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ | प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews | Prof. Shailendra Kumar Sharma

मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी - आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।  


उनके उपन्यास और कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। 


मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती हैं। उनकी कहानियों में आधुनिक जीवन का कोई-न-कोई विशिष्ट पहलू उजागर हुआ है। राकेश मुख्यतः आधुनिक शहरी जीवन के कथाकार हैं, लेकिन उनकी संवेदना का दायरा मध्यवर्ग तक ही सीमित नहीं है। निम्नवर्ग भी पूरी जीवन्तता के साथ उनकी कहानियों में मौजूद है। इनके कथा-चरित्रों का अकेलापन सामाजिक संदर्भो की उपज है। वे अपनी जीवनगत जद्दोजहद में स्वतंत्र होकर भी सुखी नहीं हो पाते, लेकिन जीवन से पलायन उन्हें स्वीकार नहीं। वे जीवन-संघर्ष की निरंतरता में विश्वास रखते हैं। पात्रों की इस संघर्षशीलता में ही लेखक की रचनात्मक संवेदना आश्चर्यजनक रूप से मुखर हो उठती है। हम अनायास ही प्रसंगानुकूल कथा-शिल्प का स्पर्श अनुभव करने लगते हैं, जो अपनी व्यंगात्मक सांकेतिकता और भावाकुल नाटकीयता से हमें प्रभावित करता है। इसके साथ ही लेखक की भाषा भी जैसे बोलने लगती है और अपने कथा-परिवेश को उसकी समग्रता में धारण कर हमारे भीतर उतर जाती है।

कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है। जीविकोपार्जन के लिये वे अध्यापन कार्य से संपृक्त रहे। वे कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक भी रहे। 'अषाढ़ का एक दिन' और 'आधे अधूरे' के रचनाकार के नाते 'संगीत नाटक अकादमी' से पुरस्कृत सम्मानित किए गए। उनका निधन जनवरी 1972 को नयी दिल्ली में हुआ।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं :

उपन्यास : अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल।
कहानी संग्रह : क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस
तथा अन्य कहानियाँ।
नाटक : आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, पैर तले की ज़मीन

शाकुंतल, मृच्छकटिक (अनूदित नाटक)

अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक, रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक (एकांकी)

बक़लम खुद, परिवेश (निबन्ध)

आखिरी चट्टान तक (यात्रावृत्त)

एकत्र (अप्रकाशित-असंकलित रचनाएँ)

बिना हाड़-मांस के आदमी (बालोपयोगी कहानी-संग्रह)

 मोहन राकेश रचनावली (13 खंड)।



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Adhe Adhure - Mohan Rakesh  


Adhe Adhure


आधे अधूरे समीक्षा - मोहन राकेश नोट्स पीडीएफ के लिए लिंक 

Adhe Adhure - Mohan Rakesh Notes PDF 

आधे अधूरे - मोहन राकेश समीक्षा पीडीएफ | Adhe Adhure - Mohan Rakesh Review PDF


आधे अधूरे समीक्षा

आधे अधूरे मोहन राकेश का एक चर्चित नाटक है। मोहन राकेश वैसे तो कथा, उपन्यास, संस्मरण के क्षेत्र में भी महारत रखते थे। किंतु, नाटकों के लिए ही ज्यादा याद किये जाते हैं। आधुनिक युग में मराठी, बांग्ला, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनेक चर्चित नाटककार हुए हैं। हिंदी में नाटककार कहते ही ज़हन में पहला नाम मोहन राकेश का ही उभरता है। मोहन राकेश ने इस नाटक के माध्यम से चार दीवार और छत से पूर्ण होनेवाले घर के भीतर की अपूर्णता व्यक्त की है। मनुष्य के मन का अधूरापन ही समस्त विसंगतियों की जड़ है।

आधे अधूरे : मनुष्य के आधे अधूरेपन की त्रासदी 

मोहन राकेश जी का यह नाटक अपने पहले मंचन (1969) से ही चर्चित रहा है। तब से अब तक अलग-अलग निर्देशकों और कलाकारों द्वारा इसका सैकडों बार मंचन हो चुका है और आज भी यह उतना ही प्रशंसित है। निर्देशकों के अनुसार यह रंगमंचीय दृष्टि से तो उपयुक्त है ही, इसका कथानक भी समकालीन जीवन की विडम्बना को सार्थक ढंग से व्यक्त करता है, जो बदलते परिवेश में भी प्रासंगिक है। दरअसल नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश या उसके कुछ समकालीन जिस 'आधुनिक भावबोध'  की बात कर रहे थे, वह 'विकास' की विषमता या नगरीकरण की विषमता के कारण, कुछ क्षेत्रों में अभी 'हाल' की घटना लगती है। भौगोलिक विषमता और 'विकास' के पहुंच की सीमा के कारण यदि तब यह सब लोगों की 'हकीकत' नहीं थी तो आज भी कई हिस्से इससे अछूते हो सकते हैं। बहरहाल लेखक यह चिंता नही करता कि उसकी रचना में व्यक्त 'सच' सबका 'सच' हो।




आधे–अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव–खंड को मूर्त करता है। इसके लिए हिंदी के जीवंत मुहावरे को पकड़ने की सार्थक, प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन, उनका क्रम, उनका संयोजन सबकुछ ऐसा है, जो बहुत संपूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यही शक्ति और उच्चारित ध्वनि–समूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य–रचना बंद और खुले, दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाए रख सकी। 


यह नाटक, एक स्तर पर स्त्री–पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज“ है, दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य–रचना मानवीय संतोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिंदगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् चरित्र निभाए जाने की दिलचस्प रंगयुक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में कहें तो आधे–अधूरे समकालीन जिन्दगी का पहला सार्थक हिंदी नाटक है । इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।





मोहन राकेश कहानी से नाटक की तरफ आये थे, मगर उनकी संवेदना और भावबोध का क्षेत्र लगभग वही रहा, महानगरीय जीवन के अलगाव, अजनबियत, एकाकीपन,,अतृप्त आकांक्षा आदि जो औद्योगीकरण के फलस्वरूप 'ग्रामीण जीवन' से 'नगरीय जीवन' मे संक्रमण से तीव्रता से प्रकट हुए थे। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि यह आजादी के बाद के महानगरीय जीवन के लक्षण हैं।


आधे अधूरे के कथानक के केन्द्र में एक मध्यमवर्गीय परिवार है, जिसमें पति-पत्नी के अलावा उनके दो बेटियां और एक बेटा है। अन्य पात्रों में तीन और पुरुष हैं। नाटक की सम्पूर्ण घटनाएं एक कमरे में घटित होती हैं, हालाकि संवाद से सम्पूर्ण परिवेश और उसका द्वंद्व उभर आता है। इस नाटक की 'केंद्रीय' चिंता क्या है?एक  'सामान्य' पाठक जब नाटक के आखिर तक (क्लाइमेक्स) पहुंचता है, तो उसे महसूस होता है; और लेखक भी इशारा (संवाद से) कर देता है कि दुनिया मे 'पूर्ण' कोई नही है; सब 'आधे-अधूरे' हैं। पूर्णता की तलाश बेमानी है। मनुष्य की महत्वाकांक्षा असीम है जो दुनिया के यथार्थ से हरदम मेल नही खाती, यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब आर्थिक सक्षमता पर्याप्त न हो। आदमी जो भी है, अपने खूबियों और कमियों के साथ है। सम्बन्धों का निर्वहन इस स्वीकार बोध के साथ ही सम्भव है,अन्यथा जीवन घसीटते गुजरता है। अवश्य अन्य परिस्थितियां नकारात्मक हो तो इसकी तीव्रता को बढ़ा देती हैं।


नाटक की केंद्रीय चरित्र सावित्री पढ़ी-लिखी, महत्वाकांक्षी, कामकाजी महिला है। वह जीवन को भरपूर जीना चाहती है, मगर ऐसा हो नही पा रहा है। इसका एक कारण, जो बहुत हद तक सही भी है, खराब आर्थिक स्थिति है। उसके अकेली नौकरी से पूरा घर चल रहा है। पति व्यवसाय में असफल होकर 'निकम्मा' हो गया है। बेटा पढ़ाई में असफल तो है ही कामचोर भी है; उस पर भी वह उसके लिए लगातार 'प्रयास' करती है। बड़ी बेटी 'लव मैरिज' कर भी सुखी नही है। छोटी बेटी की 'जरूरतें' पूरी नही हो पा रही हैं। ऐसे में उसका (सावित्री) खीझना, असहज महसूस करना स्वाभाविक भी लगता है। मानो उसकी अपनी जिंदगी खो सी गयी है। इससे उसके अंदर एक अतृप्ति का भाव पैदा होता है; और वह इसके 'तृप्ति' के चाह में कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है; मगर उसको 'तृप्ति' मिलती नही। वह द्वंद्व में जीती है। उसका एक मन घर से जुड़ता है तो दूसरा मन घर से दूर होना चाहता है। मगर समस्या यह भी है कि वह 'अतृप्त' तब भी थी जब सब कुछ ठीक ठाक था; आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पति का व्यवसाय भी चल रहा था। तब उसे शिकायत थी कि पति(महेन्द्रनाथ) के माता-पिता उसे (महेन्द्रनाथ) को अपनी जिंदगी नही जीने दे रहें है; उसे अपने गिरफ्त में रखना चाहते हैं। फिर कुछ समय बाद यह शिकायत महेन्द्रनाथ के दोस्तों पर प्रतिस्थापित हो गया कि वे उसको 'बर्बाद' कर रहे हैं। यानी समस्या की जड़ कहीं और है।


समस्या ख़ुद सावित्री के अंदर है, जिसे जुनेजा अच्छी तरह से उद्घाटित करता है। वह पुरुष में जिस 'पूर्णता' की कामना करती है; दरअसल जीवन मे वैसा होता ही नहीं। वह एक आदमी में 'सब कुछ' चाहती है; और न पाकर उसका उपहास करती है। उसकी 'कमजोरी' पर कभी खीझती है; कभी व्यंग्य करती है। मगर वह कभी एक पल के लिये नही सोच पाती कि समस्या की जड़ वह खुद है। शुरुआत में दर्शक की सहानुभूति उसके पक्ष में जाती है; वह वैवाहिक जीवन में पति से प्रताड़ित भी हुई है, आज वह पूरे घर के खर्च का निर्वहन कर रही है। लेकिन जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ता है;एक दूसरा सच भी स्पष्ट होने लगता है, जिसका सार जुनेजा के इस वक्तव्य में है, "असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करती कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली.उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा-कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें इन  किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती।


नाटक के अन्य पात्र देखा जाय तो इस 'केंद्रीय संवेदना' की सघनता को बढ़ाते हैं। सावित्री का पति महेन्द्रनाथ एक बेरोजगार व्यक्ति है; लगभग उपेक्षित; कोई उसकी परवाह नही करता। सावित्री की नज़र में एक 'रीढ़हीन' व्यक्ति, जो अपना निर्णय नहीं ले सकता। लेकिन किसी समय वह घर का 'प्रमुख' भी था; व्यवसाय में असफलता ने उसे बेरोजगार कर दिया है। हालांकि इस असफलता में घर मे किये गए उसके 'अनाप-शनाप' खर्च भी कारण रहा है, लेकिन इसकी किसी को परवाह नही. अवश्य महेन्द्रनाथ की अपनी मानवीय कमजोरियां हैं, लेकिन सावित्री की बार-बार उलाहना और व्यंग्य ने उसे कहीं अधिक कमजोर बना दिया है और हीनताबोध से ग्रसित हो गया है। वह एक तरह से प्रताड़ित और डरा हुआ है, इसलिए वह किसी पुरुष के घर आने पर कोई न कोई बहाना बनाकर बाहर चला जाता है, उस पर भी विडम्बना यह आरोप की उसमे किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं।


बड़ी बेटी बिन्नी मनोज से प्रेम विवाह करती है, जो वस्तुतः उसकी माँ सावित्री का 'प्रेमी' था। वह भी लगभग उसी द्वंद्व से ग्रसित। दोनों एक- दूसरे को समझ नही पा रहे। सब कुछ ठीक होकर भी कुछ ठीक नही है। कहीं कुछ गड़बड़ है; मगर गड़बड़ क्या है? वह कहती भी है "वजह सिर्फ हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है" या फिर " वह कहता है कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नही रहने देती।" छोटी लड़की किन्नी भी भी अपने उम्र  से कुछ अधिक बर्ताव करती है। किसी के प्रति उसके अंदर सम्मान दिखाई नही देता। बेटा अशोक भी अपनी कोई जवाबदारी नही समझता। सावित्री के 'क्रियाकलापों' से वह असन्तुष्ट जरूर है, मगर खुद अपना 'विचलन' उसे दिखाई नही देता। सभी किसी न किसी 'मनोग्रंथि' से ग्रसित लगते हैं।


कुल मिलाकर पूरे घर के वातावरण में  अस्वाभाविकता, अलगाव, असंतुष्टि, व्याप्त है। कोई किसी को जानकर भी जानता नहीं। यह त्रासदी क्या एक विशिष्ट परिवार भर का है?दरअसल यह द्वंद्व पूरे मध्यमवर्ग का है, जहां बहुत सी आशाएँ, जरूरतें, सपने पूरे न होने पर घनीभूत होकर इस द्वंद्व और भी बढ़ा देते हैं। अभाव के आँच में सम्बन्धों के डोर टूटने लगते हैं। मगर अभाव ही इसका एकमात्र कारण नही है। हम सब इस बात को न स्वीकार पाने के लिए अभिशप्त हैं कि 'पूरा' कोई नहीं है सब 'आधे-अधूरे' हैं।



20200728

गोस्वामी तुलसीदास : वैश्विक परिप्रेक्ष्य में

तुलसी के मानस को विदेशों में बसे भारतीयों ने दिल से लगाया हुआ है
तुलसी जयंती पर नॉर्वेजियन भाषा में तुलसी के मानस के अंशों का अनुवाद बना ऐतिहासिक उपलब्धि
अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ विश्व फलक पर तुलसी की व्याप्ति और प्रभाव पर विमर्श 


भारत की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा तुलसी जयंती पर अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी गोस्वामी तुलसीदास : वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पर एकाग्र थी। आयोजन के प्रमुख अतिथि प्रख्यात प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे एवं मुख्य वक्ता समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता शिक्षाविद् श्री बृजकिशोर शर्मा ने की। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली एवं श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर थे। संगोष्ठी की प्रस्तावना संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की।



प्रमुख अतिथि ओस्लो, नॉर्वे के श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने कहा कि तुलसी के रामचरितमानस को विदेशों में बसे भारतीयों ने अपने दिल से लगाया हुआ है। भारतवंशी जहां भी गए हैं, वहाँ अपने साथ भाषा, संस्कार और शिष्टाचार के साथ तुलसी जैसे महान् भक्तों की वाणी को ले गए हैं। उन्होंने नॉर्वेजियन भाषा में तुलसी के रामचरितमानस के चुनिंदा अंशों का अनुवाद प्रस्तुत किया, जो संगोष्ठी की ऐतिहासिक उपलब्धि बना। स्वीडन, डेनमार्क, नॉर्वे जैसे देशों में प्रचलित स्केंडनेवियन भाषाओं के बीच पहला होने के कारण यह अनुवाद ऐतिहासिक महत्त्व का है। श्री शुक्ला ने नॉर्वे में बसे भारतवंशियों के जीवन पर तुलसी साहित्य के प्रभाव की भी चर्चा की।





संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में समालोचक एवं साहित्यकार प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने अपने व्याख्यान में वैश्विक संस्कृति पर तुलसी के मानस के प्रभाव और व्याप्ति पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि तुलसी की विश्व दृष्टि अत्यंत व्यापक है। उनका साहित्य विश्व संस्कृति को बहुत कुछ दे सकता है। दुनिया को पारिवारिक और सामुदायिक जीवन में परस्पर प्रेम, बन्धुत्व और समरसता की दृष्टि की आवश्यकता है, जो तुलसी साहित्य से सहज ही मिल सकती है। विश्व के अनेक देशों में तुलसी की कृतियों की अनुगूंज सुनाई देती है। उनकी रचनाएं देश विदेश के लोगों की जीवन दृष्टि के विकास में सहायक बनी हुई हैं। तुलसी का रामचरितमानस मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे अनेक देशों में बसे लगभग तीन करोड़ लोगों के बीच सांस्कृतिक धरोहर और प्रेरणा पुंज के रूप में जीवंत है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी, रूसी, फारसी आदि भाषाओं के बाद श्री सुरेश चंद शुक्ल द्वारा नॉर्वेजियन में किया जा रहा रामचरितमानस का अनुवाद नई सदी की उपलब्धि है। तुलसी काव्य में निहित सार्वभौमिक जीवन मूल्यों का प्रादर्श विश्व मानव को उनकी विलक्षण देन है। तुलसी का रामराज्य और जीवन दर्शन महात्मा गांधी के यहां स्वराज्य, सत्याग्रह, अहिंसा, असहयोग, आत्म त्याग के रूप में उतरे हैं, जो वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य हुए। गांधी जी ने तुलसी के साहित्य का प्रयोग व्यापक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए किया।




विशिष्ट अतिथि श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कृतियों के द्वारा राम के आदर्श को प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने जन भाषा के माध्यम से उदात्त जीवन मूल्यों को प्रसारित करने का अविस्मरणीय प्रयास किया। 




कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संस्था के अध्यक्ष श्री बृजकिशोर शर्मा ने कहा कि तुलसी का चिंतन अत्यंत व्यापक है। उनका साहित्य संवेदना और विचार का अथाह सागर है। उनकी रचनाएं शांति और सद्भाव का बोध कराती हैं। तुलसी सही अर्थों में महामानव थे। वे एक साथ परंपराशील और प्रगतिशील दोनों हैं।


प्रारंभ में संगोष्ठी की प्रस्तावना रखते हुए संस्था के महासचिव श्री प्रभु चौधरी ने कहा कि तुलसी का साहित्य सही अर्थों में वैश्विक है। उन्होंने जन जन के मध्य भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा की।


आयोजन में श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, एवं श्री सुंदर लाल जोशी, नागदा ने तुलसी के जीवन और व्यक्तित्व से जुड़ी कविताएं प्रस्तुत कीं। श्री हरिराम वाजपेयी की कविता तुलसी में की पंक्तियाँ थीं, तुलसी पर्याय है भावना और पवित्रता का। तुलसी पर्याय है अनेकता में एकता का। तुलसी ही भक्त है तुलसी ही भगवान है। राम में बसा है तुलसी तुलसी में राम है। 




कवि श्री सुंदर लाल जोशी की काव्य पंक्तियां थीं, पथ प्रदर्शक जन जन के, आत्माराम सपूत। चित्रकूट के घाट पर, मिला राम का दूत। तुलसी ने संसार को, दिया अनोखा ग्रंथ। पकड़े इसकी राह जो, मिले स्वर्ग का पंथ।

इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में श्री मोहनलाल वर्मा, जयपुर, डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, शम्भू पँवार, जयपुर, डॉ कविता रायजादा, आगरा, तूलिका सेठ, गाजियाबाद, जी डी अग्रवाल, इंदौर, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, श्री अनिल ओझा, इंदौर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के विद्वानों और प्रतिभागियों ने भाग लिया।


संगोष्ठी की सूत्रधार निरूपा उपाध्याय, देवास थीं। आभार प्रदर्शन साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने किया।


कार्यक्रम में डॉ. उर्वशी उपाध्याय, प्रयाग, डॉ. शैल चन्द्रा, रायपुर, डॉ हेमलता साहू, अम्बिकापुर, डॉ कृष्णा श्रीवास्तव, मुंबई, डॉ ज्योति सिंह, इंदौर, श्रीमती प्रभा बैरागी, उज्जैन, डॉ. संगीता पाल, कच्छ, डॉ. सरिता शुक्ला, लखनऊ, प्रियंका द्विवेदी, प्रयाग, विनीता ओझा, रतलाम, पायल परदेशी, महू, जयंत जोशी, धार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, राम शर्मा परिंदा, मनावर, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ संजीव कुमारी, हिसार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, डॉ श्वेता पंड्या, विजय कुमार शर्मा, प्रियंका परस्ते, कमल भूरिया, प्रवीण बाला, लता प्रसार, पटना, मधु वर्मा, श्रीमती दिव्या मेहरा, कोटा, डॉ. शिवा लोहारिया, जयपुर, सुश्री खुशबु सिंह, रायपुर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के साहित्यकार, प्रतिभागी और शोधकर्ता उपस्थित थे।

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