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20130327

लोकपर्व होली : सरस गीत, संगीत और नृत्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Holi : Joyful Lyrics, Music and Dances - Prof. Shailendra Kumar Sharma

लोकपर्व होली : सरस गीत, संगीत और नृत्य  


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

भारतीय पर्वोत्सवों की परंपरा में होली अपने  उल्लासपूर्ण स्वभाव और अलबेलेपन के लिए जानी जाती है। यह सुदूर अतीत से चली आ रही जातीय स्मृतियों, पुराख्यानों और इतिहास को जीवंत करने वाला पर्व है। यह मूलतः लोक पर्व है, जिसे शास्त्रकारों ने अपने ढंग से महिमान्वित किया तो राज्याश्रय ने इसमें अपने रंग भरे। उत्तर भारत में जब फागुन उतरता है तो प्रकृति के आंगन में रंग और उमंग बिखरने लगते हैं, फिर मनुष्य इससे कैसे मुक्त रह सकेगा। भारत के अलग अलग अंचलों में होली से जुड़ी परंपराओं, रीति रिवाजों और कथा भूमि में कतिपय अंतर के बावजूद अनेक समानताएँ हैं। होली का रिश्ता सभी चरित नायकों से जुड़ा, चाहे स्वयं शिव हों या 
राम, कृष्ण जैसे विष्णु के  अवतार, सब होली के रंंग में डूबते हैं।  

कृष्णकाव्य में लोक पर्व होली की विविध छबियाँ अंकित हुई हैं। चंग, डफ जैसे वाद्य हों या धमार का गान, होली के नृत्य हों या क्रीड़ाएँ, या फिर चंदन, केसर, गुलाल जैसे रंगों की बौछार - कृष्ण भक्ति में डूबे कवि अपने आराध्य के साथ वहाँ ले जाकर हमें भी डुबो देते हैं। मीरा फाग खेलते छैल-छबीले कृष्ण के प्रभाव से पूरे ब्रजमण्डल को रस में आप्लावित दिखाती हैं।

होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुवति ब्रजनारी।
चंदन केसर छिरकत मोहन अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठि गुलाल लाल चहुँ देत सबन पै डारी। 

चंद्रसखी कुछ अलग अंदाज में इसे प्रस्तुत करती हैं : 

आज बिरज में होरी रे रसिया।

आज बिरज में होली रे रसिया।।
 
होरी रे होरी रे बरजोरी रे रसिया।

घर घर से ब्रज बनिता आई,
कोई श्यामल कोई गोरी रे रसिया।
आज बिरज में…॥१॥

इत तें आये कुंवर कन्हाई,
उत तें आईं राधा गोरी रे रसिया
आज बिरज में…॥२॥

कोई लावे चोवा कोई लावे चंदन,
कोई मले मुख रोरी रे रसिया ।
आज बिरज में ॥३॥

उडत गुलाल लाल भये बदरा,
मारत भर भर झोरी रे रसिया।
आज बिरज में ॥४॥

चन्द्रसखी भज बालकृष्ण प्रभु,
चिर जीवो यह जोडी रे रसिया।
आज बिरज में ॥५॥

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होली की पृष्ठभूमि में प्रहलाद - नरसिंह की लीला से जुड़ा आख्यान प्रसिद्ध है। उसे महाराष्ट्र में कुछ इस तरह नृत्याभिव्यक्ति मिली है।

Songi Mukhaute Dance | Prahlad - Narasimha Leela | Happy Holi | सोंगी मुखौटे नृत्य | प्रह्लाद - नरसिंह लीला | 
लिंक पर जाएँ : 

https://youtu.be/2_RXFAiN_dA





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राधा कृष्ण की लीला से जुड़ा लोक गीत मेरो खोए गयो बाजूबंद कान्हा होली में बहुलोकप्रिय है : 

Holi Song - Dance : Mero Khoy Gayo Bajuband Kanha Holi Main | Happy Holi to All | होली गीत - नृत्य | मेरो खोय गयो बाजूबन्द कान्हा होली में | 
लिंक पर जाएँ  : 

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पद्माकर ने लोक के साथ संवाद करते हुए अनेक रचनाएं लिखी हैं। होली पर उनके छंद विशेष ध्यान आकर्षित करते हैं
 
होली - पद्माकर 

फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी।।
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला! फिर खेलन आइयो होरी॥


कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ 
- पद्माकर 

एक संग धाय नंदलाल और गुलाल दोऊ,
दृगन गये ते भरी आनँद मढै नहीँ । 
धोय धोय हारी पदमाकर तिहारी सौँह, 
अब तो उपाय एकौ चित्त मे चढै नहीँ । 
कैसी करूँ कहाँ जाऊँ कासे कहौँ कौन सुनै, 
कोऊ तो निकारो जासोँ दरद बढै नहीँ । 
एरी! मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखिन सोँ, 
कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ ।


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मालवा में बसे लोक और जनजातीय समुदायों में होली और फाग के साथ भीलों के भंगुर्या या भगोरिया का अपना अंदाज है।  मदनमोहन व्यास की होली पर केंद्रित रचना देखिए : 

होळी आइ रे (मालवी)

- मदनमोहन व्यास


होळी आइ रे फाग रचाओ रसिया
रे होळी आइ रे।
रंग गुलाल उड़े घर घर में,
सुख का साज सजाओ रसिया॥ होळी......

गउँ ने जुवारा चणा सब आया
तो हिळी-मिळी खाओ खिलाओ रसिया॥ होळी.....

मेहनत से जो आवे पसीनो,
ऊ गंगा जळ है न्हाओ रसिया॥ होळी......

रिम-झिम नाचे चाँद-चाँदणी,
तो हाथ में हाथ मिलाओ रसिया॥ होळी......

फागण धूप छाँव सो जावे रे कजा कदे आवे
तो मन को होंस पुराओ रसिया॥ होळी......

मन की मजबूरी को कचरो,
होळी में राख बणाओ रसिया॥ होळी.....

जय भारत जय महाकाळ की,
चारी देश गुँजाओ रसिया॥ होळी......

होळी आई रे फगा रचाओ रसिया॥ होळी......


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Holi Festival |Mahakaleshwar Temple | महाकाल मंदिर की होली | #mahakaleshwar #holi #ujjain



मालवा क्षेत्र में होली की गैर पर गाए जाने वाले गीत 
बन को चले दोनों भाई  सुनिए : 

Best Nagada Recital |  नगाड़ा, डमरू और शंख वादन | Folk Songs : Ban Ko Chale Donon Bhai | Dal Badli Ro Pani Saiyan |
 
होली/गैर गीत- बन को चले दोनों भाई | दल बादली रो पानी सैयां| Nagada Recital by Nagada Samrat Shri Narendra Singh Kushwah | Singer : Pt. Shailendra Bhatt | नगाड़ा वादन : नगाड़ा सम्राट नरेंद्र सिंह कुशवाह द्वारा | गायन : पं. शैलेन्द्र भट्ट |
लिंक पर जाएँ :- 

https://youtu.be/4mc8c42kawM




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नजीर अकबराबादी ने होली पर खूब लिखा है : 

जब खेली होली नंद ललन

-  नज़ीर अकबराबादी

जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।। 

कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में। 
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।

डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में। 
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी। 
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।

होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी। 
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी ।।

डफ बजे राग और रंग हुए, होरी खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े, हुई धूम कदम की चायन में ।।                                                                  
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जब आई होली रँग-भरी सौ नाज़-अदा से मटक मटक

- नजीर अकबराबादी 

जब आई होली रँग-भरी सौ नाज़-अदा से मटक मटक 

और घुँघट के पट खोल दिए वह रूप दिखाया चमक चमक 

कुछ मुखड़ा करता दमक दमक कुछ अबरन करता झलक झलक 

जब पाँव रखा ख़ुश-वक़्ती से एक पायल बाजी झनक झनक 

कुछ उछलेंं सैनैं नाज़ भरें कुछ कूदें आहें थिरक थिरक 

ये रूप दिखा कर होली के जब नैन रसीले टुक मटके 

मँगवाएँ थाल गुलालों के भरवाएँ रंगों से मटके 

फिर स्वाँग बहुत तयार हुए और ठाठ ख़ुशी के झुरमुट के 

गुल शोर हुए ख़ुश-हाली के और नाचने गाने के खटके 

मृदंगे बाजें ताल बजे कुछ खनक खनक कुछ धनक धनक

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पुराणों में होली की परंपरा की उत्स कथा के रूप में प्रह्लाद की रक्षा और होलिका के दहन के कई संकेत मिलते हैं।
 
 
होलिका दहन का पौराणिक वर्णन

सौजन्य : डॉ. अरुणकुमार उपाध्याय, भुवनेश्वर, ओड़िसा 

नारद पुराण, भाग १, अध्याय १२४-
फाल्गुने पूर्णिमायां तु होलिका पूजनं मतम्॥७६॥
संचयं सर्व काष्ठानामुपलानां च कारयेत्।
तत्राग्निं विधिवद्धुत्वा रक्षोघ्नैर्मन्त्रविस्तरैः॥७७॥
"असृक्पाभयसंसंत्रह्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव॥७८॥"
इति मन्त्रेण सन्दीप्य काष्ठादि क्षेपणैस्ततः। 
परिक्रम्योत्सवः कार्य्यो गीतवादित्रनिःस्वनैः॥७९॥
होलिका राक्षसी चेयं प्रह्लाद भयदायिनी।
ततस्तां प्रदहन्त्येवं काष्ठाद्यैर्गीतमंगलैः॥८०॥
संवत्सरस्य दाहोऽयं कामदाहो मतान्तरे।
इति जानीहि विप्रेन्द्र लोके स्थितिरनेकधा॥८१॥

लक्ष्मीनारायण संहिता, भाग १, अध्याय २८० में भी प्रायः यही वर्णन है-
फाल्गुने पूर्णिमायां तु होलिका पूजनं मतम्।
काष्ठादि संचये वह्निं हुत्वा रक्षोघ्न मन्त्रकैः॥१४७॥
"असृक्या भयसन्त्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव॥१४८॥"
इति मन्त्रेण सन्दीप्य परिक्रम्य नयेद् व्रती।
होलिकां राक्षसीं चेमां प्रह्लाद भयदायिनीम्॥१४९॥
ज्वालयन्ति जना यद्वत् प्रह्लादेन सुभस्मिता।
संवत्सरस्य दाहोऽयं पापानामिति होलिका॥१५०॥
शंकरेण कृतः कामदाहोऽयं होलिका मता।
कल्पभेदेन दाहस्य भिद्यते तु कथानकम्॥१५१॥
दोलोत्सवस्तथा चात्र पूर्णायां वोत्तरेऽहनि।
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रयोगे रैवताचले॥१५२॥
दोलामारोप्य कृष्णं चार्जुनं धर्माश्रये पुरा।
आन्दोलयामासुरत्र देवाः कार्यः स उत्सवः॥१५३॥
प्रातः पूजां प्रकुर्वीत नरनारायण प्रभोः।
उपचारैः षोडशभिर्महानीराजनेन च॥१५४॥
वस्त्र चन्दनपुष्पाद्यैस्तुलसीपत्र भूषणैः।
पातसैः पूरिकाभिश्च बदरादिफलैरपि॥१५५॥
वासन्तिकैश्च पुष्पाद्यैस्तथा रंगगुलालकैः।
पूजयेद्भोजयेच्चापि नीराजयेच्च रंजयेत्॥१५६॥
क्रीडां च कारयेद् यन्त्रैस्ततः प्रस्वापयेत् प्रभुम्।
भक्तान् बालान् भोजयित्वा व्रती भुञ्जीत वै ततः॥१५७॥
एवमभ्यंगकस्नानमाम्रकुसुमप्राशनम्।
वसन्तोत्सवरमणं धूलिवन्दनमित्यपि॥१५८॥

भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १३२ में राजा रघु के समय बच्चों की संक्रामक बीमारी के रूप में ढौंढा राक्षसी का वर्णन है। वह घर में प्रवेश करते समय अडाडा मन्त्र का प्रयोग करती है, अतः उसे अडाडा भी कहते हैं। होम द्वारा उसका लय या नाश होता है, अतः उसे होलिका कहते हैं।

लक्ष्मी नारायण संहिता में रंग, गुलाल तथा धूलि से खेलने का भी उल्लेख है। भविष्य पुराणके अनुसार ढौंढा को अपमानित कर भगाने के लिए अपशब्द, प्रलाप या हर्ष के साथ हास्य तथा गायन करते हैं-
ततः किलकिला शब्दैस्तालशब्दैर्मनोहरैः।
तमग्निं त्रिः परिक्रम्य गायन्तु च हसन्तु च॥

जल्पन्तु ह्वेच्छया लोका निःशंका यस्य यन्मतम्॥२७॥





















यादों में होली :  27 मार्च 2013



20130324

श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकाल - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकालेश्वर

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्‌।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वंदे महाकालमहासुरेशम्‌॥

सुपूज्य और दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित उज्जयिनी के महाकालेश्वर की महिमा अनुपम है। सज्जनों को मुक्ति प्रदान करने के लिए ही उन्होंने अवंतिका में अवतार धारण किया है। ऐसे महाकाल महादेव की उपासना न जाने किस सुदूर अतीत से अकालमृत्यु से बचने और मंगलमय जीवन के लिए की जा रही है। शिव काल से परे हैं, वे साक्षात्‌ कालस्वरूप हैं। उन्होंने स्वेच्छा से पुरुषरूप धारण किया है, वे त्रिगुणस्वरूप और प्रकृति रूप हैं। समस्त योगीजन समाधि अवस्था में अपने हृदयकमल के कोश में उनके ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं। ऐसे परमात्मारूप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से ही अनादि उज्जयिनी को पूरे ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा मिली है। पुरातन मान्यता के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में तीन लिंगों को सर्वोपरि स्थान मिला है – आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर और इस धरा पर महाकालेश्वर।

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम्‌।
भूलोके च महाकालोः लिंगत्रय नमोस्तुते॥


शिव की उपासना अनेक सहस्राब्दियों से चली आ रही है और शिवलिंग के रूप में उनका अर्चन संभवतः सबसे प्राचीन प्रतीकार्चन है। वैदिक वाङ्‌मय के रुद्र ही परवर्ती काल में शिव के रूप में लोक में बहुपूजित हुए, जो अघोर और फिर घोर से भी घोरतर रूप लिए थे। उज्जयिनी अति प्राचीनकाल से शैव धर्म से जुड़े दर्शन, पूजा पद्धति और कला परम्पराओं का मुख्य केंद्र है। शिवाराधना के विकास में इस क्षेत्र का विशिष्ट योगदान रहा है। शैव धर्म की चार धाराओं- शैव, कालानल, पाशुपत और कापालिक का संबंध न्यूनाधिक रूप से उज्जैन, औंकारेश्वर, मंदसौर सहित समूचे मालवांचल से रहा है। पुराणों से संकेत मिलता है कि उज्जयिनी पाशुपतों की पीठ स्थली रही है। शंकर दिग्विजय के अनुसार यहाँ कापालिक निवास करते थे। महाकालेश्वर यहाँ के अधिष्ठाता देवता है। इनका ज्योतिर्लिंग दक्षिणामूर्ति होने से तांत्रिक साधना का दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। उज्जैन के महाकाल वन का तांत्रिक परम्परा में विशिष्ट स्थान है। स्कंदपुराण के अवंती खंड के अनुसार साधना की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी पाँच स्थल - श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ और वन यहीं हैं-

श्मशानमूषरं क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पंचैकत्र न लभ्यंते महाकालवनाद्‌ ऋते।। 

प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जयिनी यदि नाभिदेश है तो भूलोक के प्रधान पूज्यदेव महाकाल हैं। सृष्टि का प्रारंभ उन्हीं से हुआ है-कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः। वस्तुतः भगवान्‌ महाकाल की प्रतिष्ठा और महिमा से जुड़े अनेक पौराणिक आख्यान मिलते हैं, जिनसे अवंती क्षेत्र में शैव धर्म की प्राचीनता के संकेत मिलते हैं। शिवपुराण के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल के प्रथम चरण में हिरण्याक्ष की विजययात्रा के दौरान उसके सेनापति दूषण ने अवंती पर आक्रमण किया था। उस समय उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। पुरोहितों ने इस संकट के निवारण के लिए भगवान्‌ शिव की पूजा की सलाह दी, तब राजा ने स्वयं शिवजी का चमत्कार एक ग्वाले की शिवभक्ति में प्रत्यक्ष देखा। ग्वाला जहाँ शिव की पूजा किया करता था। वहीं वैदिक अनुष्ठानपूर्वक शिव मंदिर की स्थापना करवाई गई। संभवतः वही भगवान महाकालेश्वर के देवालय की स्थापना का प्रथम दिन था। विभिन्न युगों की गणना के आधार पर यह समय आज से करीब ग्यारह हजार नौ सौ वर्ष पहले अनुमानित है। त्रेता युग में सम्राट भरत के मित्र चित्ररथ अवंती क्षेत्र के राजा थे। भरत की चौथी पीढ़ी के राजा रन्तिदेव ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया था। त्रेतायुग में अयोध्या में राजा हरिश्चंद्र हुए थे, उनसे कुछ ही समय बाद महेश्वर (माहिष्मती) में हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन जैसे प्रतापी सम्राट हुए, जो सहस्रबाहु के नाम से प्रख्यात हैं। उन्हीं के सौ पुत्रों में से एक आवंत या अवंती थे, जिनके नाम पर यह क्षेत्र अवंती कहलाया। त्रेतायुग में राम के पुत्र कुश स्वयं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए अवंतिका में आए थे।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने महाकालेश्वर का पूजन किया था। महाकालेश्वर की प्राचीनता को लेकर अनेक पौराणिक, साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं, जो शैव साधना की दृष्टि से इस स्थान की महिमाशाली स्थिति को रेखांकित करते हैं। महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, इसीलिए उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने से 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है। पुराणों का संकेत साफ है-'प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी।' मृत्युलोक के स्वामी महाकाल इस नगरी के तब से ही अधिष्ठाता हैं, जब सृष्टि का समारंभ हुआ था। उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल तो स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं- 'नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः... इत्येषा तैत्तिरीश्रुतिः।' महाकाल का उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण सहित अनेकानेक पुराण एवं प्राचीन ग्रंथों में सहज ही उपलब्ध है। भागवत में उल्लेख मिलता है कि श्रीकृष्ण, बलराम और मित्र सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण कर स्वघर लौटने के पूर्व गुरुवर के साथ जाकर महाकाल की भक्ति भावनापूर्वक पूजा की थी। उन्होंने एक सहस्र कमल शिव जी के सहस्रनाम के साथ अर्पित किए थे।

पुराणकाल में तो महाकालेश्वर की विशिष्ट महिमा थी ही, पुराणोत्तर दौर में प्रद्योत युग, मौर्य युग, शुंग, शक, विक्रमादित्य, सातवाहन, गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार, परमार, मुगल, मराठा आदि सभी युगों में वे बहुलोकपूजित रहे हैं। विभिन्न युगों में उज्जैन में विकसित कला परम्पराएँ भी शैव धर्म के विविधायामी रूपांतर का साक्ष्य देती आ रही हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की रत्नसभा के अनूठे रत्न महाकवि कालिदास (प्रथम शती ई. पू.) ने अपनी प्रिय नगरी उज्जयिनी और महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उनके समय में यह पुण्य नगरी अपार वैभव और सौंदर्य से मंडित थी। इसीलिए वे इसे स्वर्ग के कांतिमान खण्ड के रूप में वर्णित करते हैं- 'दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्‌'। कालिदास के पूर्व भी यह नगरी अवन्ती या मालव क्षेत्र की प्रमुख नगरी थी ही, इसे राजधानी होने का भी गौरव मिला हुआ था। यहाँ सम्राट का राजप्रसाद भी था, कालिदास ने जिसके महाकाल मंदिर से अधिक दूर न होने का केत किया है-'असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।' उज्जयिनी के राजभवन और हवेलियाँ भी दर्शनीय थे, जिनके आकर्षण में मेघदूत को बाँधने की कोशिश स्वयं कालिदास ने की है।

कालिदास के समय उज्जयिनी शैव मत का प्रमुख केन्द्र थी। महाकवि के समय से शताब्दियों पूर्व से ही इस नगरी में शैव साधना एवं शैव स्थलों की प्रतिष्ठा रही थी। इसके अनेक पौराणिक साहित्यिक, पुरातात्त्विक एवं मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं। महाकवि कालिदास ने भी शैव मत की प्रतिष्ठा की दृष्टि से उज्जयिनी की महिमा को विशेष तौर पर रेखांकित किया है। उनके काल में उज्जयिनी की पहचान महाकाल मंदिर और क्षिप्रा से जुड़ी हुई थी। लोकमानस में महाकाल की प्रतिष्ठा तीनों लोकों के स्वामी और चण्डी के पति के रूप में थी। उनका मंदिर घने वृक्षों से भरे-पूरे महाकाल वन के मध्य में था। वनवृक्षों की शाखाएँ बहुत ऊपर तक फैली हुई थीं। मंदिर का परिसर सुविस्तृत था, जिसके आँगन में सायंकाल को महाकाल के अर्चन एवं संध्या आरती के बाद नृत्यांगनाओं का नर्तन होता था। उन नर्तकियों के पैरों की चाल के साथ-साथ मेखलाएँ झनझनाती रहती थीं। उनके हाथों में रत्न जटित हत्थियों वाले चँवर रहते थे। नर्तन-पूजन के पश्चात्‌ वे मंदिर से बाहर निकलती थीं। मंदिर के अन्दर शिव-कथा पर आधारित प्रस्तर-शिल्प भी थे। महाकाल मंदिर में साँझ की पूजा विशेष महिमाशाली मानी जाती थी। उस समय नगाड़ों के गर्जन के साथ महाकालेश्वर की सुहावनी आरती होती थी। उधर महाकाल वन के वृक्षों पर साँझ की लालिमा छा जाती थी, जो श्रद्धालुओं को मोहित कर देती थी। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस प्रसंग को रेखांकित किया है -

महाकाल मंदिरेर माझे
तखन गंभीरमन्द्रे संध्यारति बाजे।

महाकाल की पूजा पद्धति का संकेत भी कालिदास साहित्य में प्राप्त होता है। रघुवंश तथा मेघदूत से ज्ञात होता है कि महाकाल के सुप्रसिद्ध मंदिर में पशुपति शिव की प्रतिमा रही। सन्ध्या के समय उस पर धूप आ जाने से ऐसा लगता है, मानो उसने गजचर्म पहन लिया हो। इससे स्पष्ट है कि मंदिर में महाकाल की प्रतिमा इस प्रकार प्रतिष्ठित थी कि उस पर संध्या का प्रकाश पड़ता था। या तो वह प्रतिमा बिना छत के देवायतन में प्रतिष्ठित थी अथवा पूर्व-पश्चिम में गर्भगृह ऐसा खुला था कि भीतर की प्रतिमा पर पूरी धूप आती रहती थी। मेघदूत का एक श्लोक तो स्पष्ट संकेत करता है कि महाकाल मंदिर में नृत्य करते शिवजी की अनेक भुजाओं वाली प्रमुख प्रतिमा थी जिसे भवानी भक्तिपूर्वक निहार रही हैं।

पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।
नृत्यारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेह्णवां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या॥

कालिदास नीललोहित से मुक्ति की कामना भी करते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड (अध्याय-2) में नीललोहित का स्वरूप दिया गया है। तदनुसार उसमें पाँच मुख, दस भुजा, पन्द्रह आँखें, साँप की यज्ञोपवीत, जटा, चन्द्र और सिंहचर्म का वस्त्र बताया गया है। यह रूप महाकाल पशुपति का नहीं है। नटराज शिव की उज्जैन से प्राप्त आठवीं शती की एक खण्डित प्रतिमा ग्वालियर में सुरक्षित है। किन्तु कालिदास से यह प्रतिमा सदियों बाद बनी। कालिदास के युग में महाकाल की प्रतिमा रही, यह बृहत्कथा के संस्करणों से भी पुष्ट होता है। उसमें एक व्यक्ति महाकाल प्रतिमा के घुटनों पर सिर टिकाकर रोता है। उसमें महाकाल के हाथों की भी चर्चा है। मेघदूत में शिवलिंग का संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु ज्योतिर्लिंग अवश्य रहा होगा। पौराणिक परम्परा इस बात की बार-बार पुष्टि करती है।

गुप्त और हर्षवर्धन युग (335-848 ई.) में भी उज्जयिनी शैव मत का एक प्रमुख केन्द्र रही। महाकवि वाण ने अपनी कादम्बरी में उल्लेख किया है कि यहाँ महाकाल स्वरूप में शिव की आराधना की जाती है। यहाँ शंकर के अनेक मंदिर थे तथा प्रमुख चौराहों पर भी शिवलिंग स्थापित थे। यहाँ पर आधिपत्य रखने वाले यशोवर्धन, हर्षवर्धन जैसे अनेक शासक शिव के उपासक थे। हर्षवर्धन किसी भी सैनिक अभियान के पूर्व नील-लोहित शिव की पूजा किया करता था। यहाँ शिव के साथ शक्ति की पूजा का भी समन्वय रहा है।गुप्त युग में महाकाल मंदिर अत्यंत प्रशस्त और भव्य था। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के अनेक मंदिर थे। मंदिरों पर स्वर्ण-कलश और श्वेत पताकाएँ सुशोभित होती थीं। उनकी भित्तियों पर देव, दानव, सिद्ध, गंधर्व आदि के चित्र बने थे। यहाँ शिव की कामदेव के रूप में भी पूजा की जाती थी।

महाकाल वन जहाँ देश - दुनिया के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है, वहीं एक दौर में यहाँ आक्रांताओं ने हमले भी किए। एक मान्यता के अनुसार 1235 ई. के आसपास आततायी शासकों ने मालवा पर हमले के दौरान उज्जैन को भी लूटा था। महाकाल मंदिर में भी लूट-खसोट की गई थी, जिसका उल्लेख अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है। परवर्ती काल में यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सद्‌भावना का केन्द्र भी बना। अनेक मुस्लिम शासकों ने महाकाल सहित उज्जैन के विभिन्न मंदिरों में पूजा-प्रबंध के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई। शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सहित एक दर्जन मुस्लिम शासकों की ऐसी सनदें मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शाही खजाने से महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों में पूजा आदि के लिए मदद की थी। देश के प्रमुख मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रदीप्त रहने वाला दीपक) लगाने की प्रथा रही है। उसका निर्वाह महाकाल मंदिर में आज भी हो रहा है। इस परम्परा के निमित्त 1061 हिजरी में सम्राट आलमगीर ने चार सेर घी रोजाना जलाने के लिए एक सनद के माध्यम से राशि स्वीकृत की थी, जो धार्मिक सहिष्णुता का नायाब उदाहरण है।

मराठाकाल में राणोजी शिंदे के दीवान रामचंद्र बाबा सुखटनकर (या शेणवी) ने उज्जयिनी में धार्मिक पुनर्जागरण किया। उन्होंने 1730 के आसपास महाकाल के वर्तमान मंदिर, रामघाट, पिशाचमुक्तेश्वर घाट आदि का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार पुराणोक्त चौरासी महादेव तथा अनेक शाक्त तथा शैव स्थलों के जीर्णोद्धार या नवीन प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य भी मराठाकाल में संभव हुआ। सिंधिया राज्य के संस्थापक महादजी ने महाकाल मंदिर और उसके पुजारी वर्ग का आस्थापूर्वक पोषण किया। भोज, ग्वालियर, होल्कर राज्य के राजवंशियों की ओर से महाकालेश्वर के पूजन आदि के लिए निरंतर सहायता प्राप्त होती रही थी।

वर्तमान महाकालेश्वर मंदिर एवं परिसर सुविस्तृत, विशाल और अलग-अलग युगों की कला संपदा को सहेजे हुए है। महाकाल के दक्षिण मूर्ति शिवलिंग की विस्तीर्ण रजत निर्मित जलाधारी अत्यंत कलामय और नागवेष्टित निर्मित हुई है। शिवजी के सम्मुख नंदी की पाषाणमूर्ति धातुपत्रवेष्टित विशाल प्रतिमा है। गर्भगृह में पश्चिम की ओर गणेश जी, उत्तर की ओर भगवती पार्वती और पूर्व में कार्तिकेय की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में निरंतर दो नंदादीप तेल एवं घी के प्रज्वलित रहते हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए पुरातन गलियारे के साथ ही अब विशाल सभागारयुक्त गलियारे बन गए हैं, जहाँ एक साथ सैकड़ों लोग दर्शन-आरती का आनंद ले सकते हैं महाकालेश्वर के ठीक ऊपरी भाग में ओंकारेश्वर की प्रतिमा है तथा सबसे ऊपरी तल पर नागचन्द्रेश्वर की। नागचंद्रेश्वर के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही होते हैं।

महाकालेश्वर परिसर में वृद्धकालेश्वर (जूना महाकाल), राम-जानकी, अवंतिका देवी, अनादिकल्पेश्वर, साक्षी गोपाल, स्वप्नेश्वर महादेव, सिद्धि विनायक, हनुमान, लक्ष्मी-नृसिंह आदि सहित अनेक लघु मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में विशाल कोटितीर्थ कुंड भी है, पुराणों में जिसकी बड़ी महिमा वर्णित है। कुंड के चहुँ ओर अनेक शिव मंदरियाँ हैं, जो इस स्थान के कला वैभव को बहुगुणित करती आ रही हैं। महाकाल मंदिर तथा आसपास के अन्य मंदिरों में परमारकालीन शिलालेख लगे हुए है जिनमें राजाभोज, उदयादित्य, नरवर्मन, निर्वाणनारायण, विज्जसिंह आदि राजाओं के भग्न शिलालेख प्राप्त हुए है। एक शिलालेख गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का भी है, जिसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ जिसकी स्मृति में यह अभिलेख मंदिर में लगवाया होगा। परमारकाल की अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ मंदिर क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं, जिनमें शेषशायी विष्णु, गरुडासीन विष्णु, उमा-महेश, कल्याण सुंदर, शिव-पार्वती, नवग्रह, अष्टदिक्‌पाल, पंचाग्नि तप करती पार्वती, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। पूर्व में यहाँ परमार राजाओं की प्रतिमाएँ भी लगी हुई थीं जिनमें से एक वर्तमान में विक्रम कीर्ति मंदिर स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।

महाकाल मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले शिव पर चिताभस्म का लेपन किया जाता है। यह पूजा महिम्नस्तोत्र के 'चिताभस्मालेपः' श्लोक के अनुरूप होती है। इस पूजा हेतु किसी विशिष्ट चिताभस्म की निरंतर प्रज्वलित रहने वाली अग्नि से योजना की जाती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः प्रातः आठ बजे, मध्याह्‌न में और सायंकाल के समय महाकाल की पूजा, शृंगार आदि किया जाता है। रात्रि में 10 बजे शयन आरती होती है। विभिन्न व्रत, पर्व और उत्सवों के समय महाकालेश्वर मंदिर का परिसर असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था की विशेष केन्द्र बन जाता है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के चार और भादौ मास के दो सोमवार पर निकलने वाली सवारियाँ देश-दुनिया के भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। इन सवारियों का मूल भाव यही है कि महाकाल राजाधिराज हैं और वे उज्जयिनी की मुखय सड़कों पर निकलकर प्रजा का हाल-चाल जानते हैं। इसी प्रकार की सवारियाँ कार्तिक मास में निकलती हैं। दशहरा पूजन के लिए महाकाल नए उज्जैन में पहुँचते हैं। महाशिवरात्रि, हरिहर मिलाप, रक्षाबंधन, वैशाख मास, नागपंचमी जैसे अनेक पर्वोत्सव भी इस मंदिर को विशेष आभा देते हैं। बारह वर्षों में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के समय लाखों श्रद्धालु महाकालेश्वर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं।

महाकाल कालगणना के अधिष्ठाता देव भी है। खगोलशास्त्रीय दृष्टि से उज्जयिनी का महत्त्व सुदूर अतीत से बना हुआ है। इसी स्थान से कर्क रेखा गुजरती है, जो भू-मध्य रेखा को काटती है। इसी दृष्टि से उज्जैन को पृथ्वी और कालगणना का केन्द्र माना गया है। क्षिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। यह स्थान महाकाल मंदिर से अधिक दूर नहीं है। स्पष्ट है कि महाकाल पृथ्वी के केन्द्र बिन्दु पर स्थित हैं और वे ही कालगणना के प्रमुख यंत्र 'शंकु यंत्र' के मूल स्थान हैं।

श्लोक से लोक तक सभी की आस्था का केन्द्र हैं महाकालेश्वर। लोक और लोकोत्तर सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्तगण अपनी-अपनी इच्छा उनके सम्मुख रखते हैं और उनकी पूर्ति के लिए मानवलोकेश्वर महाकाल का भंडार कभी रिक्त नहीं होता है।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
हिंदी विभागाध्यक्ष एवं 
कुलानुशासक
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

महाकाल लोक






महाकाल लोक : 
पुराणोक्त महाकाल वन क्षेत्र में  नवनिर्मित महाकाल लोक 900 मीटर से अधिक लंबा निर्माण है, जो पुरातन रुद्र सागर के चारों ओर फैला हुआ है। उज्जैन स्थित विश्वप्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के आसपास के क्षेत्र के पुनर्विकास की परियोजना के अंतर्गत रुद्र सागर को पुनर्जीवित किया गया है। महाकाल लोक में 108 स्तंभों का निर्माण किया गया है। वीथी में प्रवेश के लिए दो भव्य द्वार- नंदी द्वार और पिनाकी द्वार बनाए गए हैं। यह वीथी मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाती है तथा मार्ग में मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है। कभी पुराणों से लेकर महाकवि कालिदास ने मेघदूत में महाकाल वन की परिकल्पना को जिस सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया था,  शताब्दियों के बाद उसे साकार रूप दे दिया गया है। पहले चरण के निर्माण में लगभग 316 करोड़ रुपये की लागत आई है। यह पूरी योजना  856 करोड़ रुपये की है।






Shri Mahakaleshwar Jyotirling Ujjain श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन 



20130313

नई सौंदर्य-दृष्टि से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है केदारनाथ सिंह ने

केदारनाथ सिंह: तात्कालिकता से परे की कविताएँ

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 


प्रख्यात कवि श्री केदारनाथ सिंह जी से काफी समय बाद उज्जैन में पिछले दिनों आयोजित 'प्रणति प्रभात' में हुई भेंट यादगार रही थी। वे वाराणसी में मेरे गुरुवर स्व. आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी और दिल्लीवासी समालोचक आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ बी.एच.यू. में एक ही कक्षा में साथ पढ़े थे। सप्तक काव्य के इस महनीय कवि ने एक नई सौंदर्य-दृष्टि से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है। उनकी कवितायें मुझे सदा से प्रभावित करती रही हैं । उनकी रचनाएँ किसी भी प्रकार के आंदोलन या धाराओं के साथ कुछ समय तक चलकर निश्शेष हो जाने वाली रचना नहीं हैं, यही उनकी सबसे बड़ी अर्थवत्ता भी है।
उनके कविता संग्रह ‘बाघ’ से एक रचना का आनंद लीजिये 'इस विशाल देश के'...
इस विशाल देश के

केदारनाथ सिंह

इस विशाल देश के
धुर उत्तर में
एक छोटा-सा खँडहर है
किसी प्राचीन नगर का जहाँ उसके वैभव के दिनों में
कभी-कभी आते थे बुद्ध कभी-कभी आ जाता था बाघ भी
दोनों अलग-अलग आते थे
अगर बुद्ध आते थे पूरब से तो बाघ क्या
कभी वह पश्चिम से आ जाता था
कभी किसी ऐसी गुमनाम दिशा से जिसका किसी को
आभास तक नहीं होता था
पर कभी-कभी दोनों का
हो जाता था सामना फिर बाघ आँख उठा
देखता था बुद्ध को
और बुद्ध सिर झुका
बढ़ जाते थे आगे
इस तरह चलता रहा।

केदार जी की 'बनारस' शीर्षक रचना अपने आप में अद्भुत है। उसका आस्वाद लीजिये...

बनारस
केदारनाथ सिंह

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे- ऊँचे स्तम्भ आग के स्तम्भ और पानी के स्तम्भ
धुऍं के खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!

श्री केदारनाथ सिंह जी के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा









केदारनाथ सिंह : जीवन परिचय और रचना संसार

जन्म : सात जुलाई 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में शिक्षा : बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1956 में हिंदी से एमए, 1964 में पीएचडी नौकरी : कई कॉलेजों में शिक्षण का काम किया। अंत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए प्रमुख कृतियां 
कविता संग्रह : अभी बिल्कुल नहीं, जमीन पक रही है, यहां से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, तालस्टाय और साइकिल 
आलोचना : कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार 
संपादन : ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)  सम्मान और पुरस्कार: ज्ञानपीठ पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान तीसरा सप्तक के लोकप्रिय कवि 1959 में प्रकाशित चर्चित कविता संग्रह तीसरा सप्तक के लोकप्रिय कवि केदारनाथ सिंह थे। अज्ञेय ने उनकी कविताओं को इसमें जगह दी थी और वह इसे चर्चा में आए थे। 

चंद्रकांत देवताले की कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता '

चन्द्रकान्त देवताले की चयनित कविताएँ
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 



साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले जी ने अपना अलग मुहावरा गढ़ा था।  श्री देवताले को उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ ' पर साहित्य अकादमी, दिल्ली का वर्ष 2012 का  साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि। उनकी प्रसिद्ध कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता ' देखिये।
  
माँ पर नहीं लिख सकता कविता 
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता

अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहां हर रोज चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं 
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!

- - - - 

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता/ चंद्रकांत देवताले  

तुम्हारी निश्चल आंखें 
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता 
ईथर की तरह होता है 
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें 
नुकीले पत्थरों -सी

दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो 
पहली कतार में मेरे लिए

मुझे माफ करना 
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था 
मेरी छाया के तले ही 
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी 
तुम्हारी 

अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो 
मैं खुश हूं सोचकर 

कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !

- - - - - - - - 
औरत / चन्द्रकान्त देवताले

वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंथ रही है?
गूंथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,

एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,

एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वस्त्र जागती
शताब्दियों से सोयी है,

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।

- - - - - - 

मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए/ चंद्रकांत देवताले 

मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को 
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम 
अपने देखने-भर के करिश्मे से 
कुछ तो है तुम्हारे भीतर 
जिससे अपने बियावान सन्नाटे को 
तुम सितार-सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में 

अपने असंभव आकाश में 
तुम आज़ाद चिड़िया की तरह खेल रही हो 
उसकी आवाज की परछाईं के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा 
आँखें खोल रहा हूँ गहरी धुँध में 

लगता है काल्पनिक खुशी का भी 
अंत हो चुका है 
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी 
तुम फूलों को नोंच रही हो 
मैं यहाँ दुख की सूखी आँखों पर 
पानी के छींटे मार रहा हूँ 

हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद 
जो भी हो 
उड़ रहा हूँ तुम्हारे खनकती आवाज के समुंदर  पर 
हंसध्वनि की तान की तरंगों के साथ 
जुगलबंदी कर रहे हैं 
मेरे फड़फड़ाते होंठ 
याद है न जितनी बार पैदा हुआ 
तुम्हें मैंने बैंजनी कमल कहकर ही पुकारा 
और अब भी अकेलेपन के पहाड़ से उतरकर 
मैं आऊंगी हमारी परछाईयों के ख़ुशबूदार 
गाते हुए दरख्त के पास 
मैं आता रहूँगा उजली रातों में 
चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा 
तुम्हारे लिए । 




 प्रो. चंद्रकांत देवताले के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


                                               डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
                                               आचार्य एवं कुलानुशासक
                                               विक्रम विश्वविद्यालय
                                                                                              उज्जैन (म.प्र.) 456 010

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