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20210609

महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mahakavi Surdas: Perspectives on Indian Literature, Culture and Tradition - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेम की शक्ति और शाश्वतता के अनुपम गायक हैं महाकवि सूर – प्रो. शर्मा 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन 


सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ऑस्लो, नॉर्वे थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। अध्यक्षता प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। आयोजन के विशिष्ट अतिथि नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल, साहित्यकार डॉ शैल चंद्रा, धमतरी, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया।






मुख्य अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, नॉर्वे ने कहा कि सूर ने कृष्ण के जीवन से जुड़े सभी प्रसंगों को अपने काव्य में समाहित किया है। उन्होंने अत्यंत सहजग्राह्य और सरल भाषा में कृष्ण का वर्णन किया। उनका काव्य आत्मा तक उतर जाता है। वे वातावरण का सूक्ष्म चित्रण करने में प्रवीण थे। श्री शुक्ल ने सूर काव्य से प्रेरित रचना सुनाई, जिसकी पंक्तियां थीं चलो जमुना के तीरे, यशोदा मैया से कहत नंदलाल।




मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि सूर प्रेम की शक्ति और शाश्वतता के अनुपम गायक हैं। वे अविद्या से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। उन्होंने ईश्वर को प्रेम के वशीभूत माना है। हरि नाम को वे सर्वोपरि स्थान देते हैं। सूर बाल से प्रौढ़ मनोविज्ञान के कुशल चितेरे हैं। उन्होंने ब्रज की लोक सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़कर महत्वपूर्ण सृजन किया। लीला पद गान, रासलीला, ऋतु, पर्व एवं अन्य परंपराओं को सूर ने सरस काव्य के माध्यम से प्रतिष्ठा दी। कृषि और गौपालन संस्कृति का जीवंत चित्रण उनके काव्य को अद्वितीय बनाता है। उन्हें अपने समय और समाज की गहरी पकड़ थी। ग्राम्य और शहरी  जीवन का द्वंद्व उन्होंने सदियों पहले गोपिकाओं के माध्यम से संकेतित किया।



विशिष्ट अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि महाकवि सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं का जीवंत चित्रण किया है। वे बाल मनोविज्ञान और अभिरुचियों के विशेषज्ञ थे। उन्होंने वात्सल्य रस को प्रतिष्ठित किया। सूर काव्य में लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। सूर भक्ति में लीन थे, वही राजसत्ता की तुलना में उनके लिए सर्वोपरि थी। रासलीला का जीवंत वर्णन उन्होंने किया है। भारत की सनातन संस्कृति को उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से जीवंत रखा है।



डॉक्टर शैल चंद्रा, धमतरी ने कहा कि कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा में सूर का नाम अद्वितीय है। साहित्य का सृजन समाज से कटकर नहीं हो सकता। सूर ने माता यशोदा और पुत्र कृष्ण की मनो भावनाओं का सरस वर्णन किया है। सखी इन नैनन तें घन हारे पंक्ति को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि सूर का विरह वर्णन अत्यंत मार्मिक है। कृष्ण और गोपों के माध्यम से सूर ने सांस्कृतिक लोकतंत्र स्थापित किया।



कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि सूर का काव्य भक्ति का शृंगार है। वे उच्च कोटि के गायक थे। उन्हें दैवीय वरदान प्राप्त था। उनकी भक्ति भावना दैन्य और प्रेम से समन्वित है। प्रेम मूर्ति कृष्ण उनके आराध्य हैं। संपूर्ण सृष्टि में कृष्ण की ही छटा बिखरी है, इस बात का संकेत उनका काव्य करता है। उनके काव्य में विविध ऋतुओं और पर्वोत्सवों का सुंदर चित्रण हुआ है। उनके पद सरस और अर्थी हैं। युग जीवन की आत्मा का स्पंदन उनके काव्य में है।




साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि भारतीय भक्ति धारा में सूर का नाम सर्वोपरि है। सूर ने नारी के विविध रूपों का वर्णन अपने काव्य में किया। समाज जीवन के सभी पक्षों को उन्होंने छुआ है। नारी के स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर सूर ने प्रभावी चित्रण किया है। सूर काव्य में तत्कालीन समाज और संस्कृति का निरूपण मिलता है।


साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने प्रास्ताविक वक्तव्य देते हुए कहा कि सूरदास जी का ब्रज भाव आज संपूर्ण देश और दुनिया में विशेष पहचान रखता है। उन्होंने संस्था द्वारा कोविड-19 के दौर में एक सौ वेब संगोष्ठियाँ आयोजित करने पर बधाई दी। उन्होंने काव्य पँक्तियाँ प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज नवल इतिहास रच रहा राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना मंच। 


विशिष्ट अतिथि डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने कहा कि महाकवि सूरदास साहित्य जगत में सूर्य माने जाते हैं। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षित किया था। सूरदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से विविध भावों की अभिव्यक्ति की है। उनके काव्य में प्रकृति सौंदर्य के चित्रण के साथ श्रृंगार के मिलन और विरह दोनों पक्षों का सुंदर निरूपण हुआ है। उनका काव्य भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट है।


कोच्ची के शीजू ए ने भी संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त किए। 


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने की। संस्था की गतिविधियों का परिचय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने दिया। स्वागत भाषण डॉ गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने दिया। 


संगोष्ठी में डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मुंबई, श्रीमती गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉक्टर शैल चंद्रा, धमतरी, शीजू के, कोचीन, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, श्री जी डी अग्रवाल, इंदौर, लता जोशी, मुंबई आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया। आभार प्रदर्शन  डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने किया।











महाकवि सूरदास जयंती


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