अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान : नई सम्भावनाएं - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
वर्तमान दौर ज्ञान-विज्ञान की विविधमुखी प्रगति के साथ अंतर-अनुशासनिक अध्ययन और अनुसंधान के अभूतपूर्व प्रसार का दौर है। ज्ञान की रूढ़ सीमाओं के पार कुछ नया बनाने और उन्हें विस्तार देने का महत्त्वपूर्ण नजरिया है- अंतर-अनुशासनात्मकता। अंतरानुशासनिक विशेषण का प्रयोग मुख्य तौर पर शैक्षिक हलकों में किया जाता है, जहां दो या दो से अधिक अनुशासनों के शोधकर्ताओं द्वारा अपने दृष्टिकोणों का समन्वय किया जाता है तथा सामने आई समस्या के बेहतर रूप से अनुकूलित समाधान के लिए उन दृष्टिकोणों को संशोधित किया जाता है। इसी तरह यह पद्धति वहाँ भी प्रयुक्त होती है, जब समूह शिक्षण पाठ्यक्रम के मामले में छात्रों को कई पारंपरिक अनुशासनों के संदर्भ में किसी एक विषय को समझने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, भूमि के उपयोग के विषय को जब विभिन्न अनुशासनों, जैसे जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगोल, राजनीति विज्ञान आदि की दृष्टि से जांचा-परखा जाता है, तब वह हर बार अलग ढंग से सामने आ सकता है।
अंतरानुशासनिकता दो या अधिक अकादमिक अनुशासनों का किसी एक गतिविधि, जैसे शोध परियोजना, में संयोजन है। यह विषयों की सीमाओं को अतिक्रांत कर उनसे परे सोचते हुए कुछ नया रचने का उपक्रम है। यह नई उभरती जरूरतों और व्यवसायों के अनुरूप किसी अंतरानुशासनिक क्षेत्र से सम्बद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अकादमिक अनुशासनों या चिंतन के विभिन्न संप्रदायों की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ते हुए उसे एक संगठनात्मक इकाई में पर्यवसित करती है।
अंतरानुशासनिक अनुसंधान की पद्धति ज्ञान की बुनियादी समझ को विकसित करने या समस्याओं को हल करने के लिए विशेष कारगर रहती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान दो या दो से अधिक अध्ययन क्षेत्रों या विशेष ज्ञान के निकायों के माध्यम से शोध की एक ऐसी पद्धति है, जहां टीमों या व्यक्तियों द्वारा विविध सूचनाओं, डेटा, तकनीक, उपकरण, दृष्टिकोणों और अवधारणाओं को एकीकृत किया जाता है। अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन को लेकर डबल्यू नेवेल द्वारा संपादित ‘एडवांसिंग इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज़' पुस्तक में जे. क्लेन और डबल्यू. नेवेल (1998) द्वारा दी गई इसकी परिभाषा कुछ इस तरह है, जो व्यापक रूप से उद्धृत भी की जाती है- “किसी प्रश्न का उत्तर खोजने या किसी समस्या के समाधान, अथवा किसी ऐसे विषय को लक्ष्य बनाने की प्रक्रिया अंतरानुशासनात्मक अध्ययन है, जहाँ उस प्रश्न, समस्या या विषय के अत्यधिक व्यापक या जटिल होने के कारण है, किसी एकल अनुशासन या पेशे से उसका समुचित रूप में समाधान नहीं हो पाता है। इसके माध्यम से हम अनुशासनात्मक दृष्टिकोणों को ग्रहण करते हैं और फिर अपेक्षाकृत कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण की निर्मिति करते हुए गहरी अंतर्दृष्टि को समाहित करते हैं।“ (पृ. 393-4) जाहिर है यह अध्ययन पद्धति ज्ञान-विज्ञान की जटिलता और व्यापकता को अपेक्षया सुगम बनाने में विशेष तौर पर कारगर सिद्ध हो सकती है।
वैसे तो अंतरानुशासनिक अनुसंधान प्राचीन युग से होते आ रहे हैं, जिनके प्रमाण पूर्व और पाश्चात्य- उभयदेशीय संदर्भों में बिखरे पड़े हैं। किन्तु आधुनिक युग में अंतर-अनुशासनात्मक शोध की विविधमुखी प्रगति दिखाई दे रही है। इसके विकास के पीछे कई कारण आधार में रहे हैं। जैसे- समाज एवं प्रकृति की जटिलता, नित-नई सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकता, उन समस्याओं या प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा, जिसे किसी एक अनुशासन के अंतर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता है, नई तकनीक की सामर्थ्य और उससे प्राप्त सुविधाएं, विश्वयुद्धों के बाद सामाजिक कल्याण, आवास, जनसंख्या, अपराध आदि से जुड़े प्रश्नों और समस्याओं का हल निकालने के लिए आदि आदि।
एक अन्य स्तर पर अंतरानुशासनात्मकता को अत्यधिक विशेषज्ञता के हानिकारक प्रभावों के लिए एक ठोस उपाय के रूप में भी देखा जाता रहा है। कहीं पर अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन किसी विषय विशेषज्ञ के बिना है और कहीं पर एकाधिक क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। निश्चय ही दोनों स्थितियों में फर्क होगा।जहां कई अंतरानुशासनिकों द्वारा कार्य किया जाता है, वहाँ जरूरी है कि विषय के विशेषज्ञगण अपने-अपने विषयों के पार देखने और नया करने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित रखें। वे सभी ज्ञानमीमांसीय रूप से अपनी अत्यधिक विशेषज्ञता को समस्याओं के नए समाधान प्राप्त करने पर खुद को केन्द्रित करते हुए अंतःविषय सहयोग में प्रभावी भूमिका निभाएँ। तभी शोध के परिणामों को विभिन्न विषयों के ज्ञान को अद्यतन करने के लिए प्रत्यार्पित किया जा सकता है। इसीलिए अनुशासनिकों और अंतरानुशासनिकों- दोनों को एक दूसरे के पूरक संबंध में देखा जा सकता है।
वर्तमान में विविध ज्ञानानुशासनों और भाषा-साहित्य के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। सभी अध्ययन क्षेत्रों में अंतरानुशासनिक अनुसंधान सहित शोध की अद्यतन प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता उन्नयन के प्रादर्श को साकार कर पाने में समर्थ सिद्ध होंगे। इस दिशा में दृष्टि-सम्पन्न शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगा। 'अक्षर वार्ता' परिवार शोध की नित-नूतन दिशाओं में सक्रिय मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत करता है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा- प्रधान संपादक 0 डॉ मोहन बैरागी - संपादक
(सम्पादकीय April 2015 Editorial अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015)
अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015
आवरण:अरालिका शर्मा cover: Aralika Sharma
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक शोध की अधुनातन प्रवृत्तियों को लेकर सजगता की दरकार करता है....अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
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