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20200424

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-शृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालो।



सुमन जी संग शैलेंद्रकुमार शर्मा 

बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

बसंती हवा

केदारनाथ अग्रवाल


हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

        सुनो बात मेरी -
        अनोखी हवा हूँ।
        बड़ी बावली हूँ,
        बड़ी मस्तमौला।
        नहीं कुछ फिकर है,
        बड़ी ही निडर हूँ।
        जिधर चाहती हूँ,
        उधर घूमती हूँ,
        मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

        जहाँ से चली मैं
        जहाँ को गई मैं -
        शहर, गाँव, बस्ती,
        नदी, रेत, निर्जन,
        हरे खेत, पोखर,
        झुलाती चली मैं।
        झुमाती चली मैं!
        हवा हूँ, हवा मै
        बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

        पहर दो पहर क्या,
        अनेकों पहर तक
        इसी में रही मैं!
        खड़ी देख अलसी
        लिए शीश कलसी,
        मुझे खूब सूझी -
        हिलाया-झुलाया
        गिरी पर न कलसी!
        इसी हार को पा,
        हिलाई न सरसों,
        झुलाई न सरसों,
        हवा हूँ, हवा मैं
        बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
- केदारनाथ अग्रवाल




20190703

Mero Man Lago Fakiri Mein | Mooralala Marwada | मेरो मन लागो फकीरी में | Shailendra Kumar Sharma : मुरालाल मारवाड़ा की मर्ममधुर गायकी और कच्छ के लोक संगीत के साथ कबीर की अमृतवाणी |

Mero Man Lago Fakiri Mein | Mooralala Marwada | मेरो मन लागो फकीरी में | Shailendra Kumar Sharma : मुरालाल मारवाड़ा की मर्ममधुर गायकी और कच्छ के लोक संगीत के साथ कबीर की अमृतवाणी |


मेरो मन लागो फकीरी में
जो सुख पाऊँ नाम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मेरो मन लागो फकीरी में
भला बुरा सब का सुन लीजे
कर गुजरान गरीबी में
मेरो मन लागो फ़कीरी में
प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मेरो मन लागो फ़कीरी में
हाथ में कुण्डी, बगल में सोंटा
चारों दिसि जागीरी में
मेरो मन लागो फ़कीरी में
आखिर यह तन ख़ाक मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मेरो मन लागो फ़कीरी में
कहत कबीर सुनो भाई साधो
साहिब मिले सबूरी में
मेरो मन लागो फ़कीर में

https://youtu.be/mgEGU4v6wb4


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अलगोजा धुन : राग भैरवी | अलगोजे की मधुरतापूर्ण धुन | परम्परागत लंगा संगीत | Algoza Dhun : Raga Bhairavi | Bhikhe Khan Langa Group

अलगोजा धुन : राग भैरवी | अलगोजे की मधुरतापूर्ण धुन | परम्परागत लंगा संगीत | Algoza Dhun : Raga Bhairavi | Bhikhe Khan Langa Group |
https://youtu.be/fSHIaXDRQm0



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