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20201124

महाकवि कालिदास : वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समग्र दृष्टि - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

काल की सीमा से नहीं बंधते हैं महाकवि कालिदास 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महाकवि कालिदास की समग्र दृष्टि पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी संपन्न   


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में महाकवि कालिदास की समग्र दृष्टि पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ वक्ताओं और साहित्यकारों ने भाग लिया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति प्रो बालकृष्ण शर्मा थे। विशिष्ट वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, डॉ कौशल किशोर पांडेय, इंदौर, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्था अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा, उज्जैन ने की। यह संगोष्ठी अखिल भारतीय कालिदास समारोह की पूर्व पीठिका के रूप में आयोजित की गई थी।









संगोष्ठी को संबोधित करते हुए पूर्व कुलपति प्रो बालकृष्ण शर्मा ने कहा कि महाकवि कालिदास अद्वितीय महाकवि हैं। टीकाकारों और समीक्षकों ने महाकवि की प्रशंसा करते हुए उनके साहित्य की अपार संभावनाओं की ओर संकेत किया है। महाकवि कालिदास का काव्य श्रेष्ठ बुद्धि वाले लोगों द्वारा अनुभवगम्य है। इसलिए उसकी व्याख्या या आस्वाद कोई सामान्य व्यक्ति नहीं ले सकता। भगवान विष्णु का विराट स्वरूप हर कोई नहीं देख सकता, केवल उनकी कृपा से अर्जुन ही उसका साक्षात्कार कर सके थे। इसी प्रकार कालिदास अर्थ गाम्भीर्य के कवि हैं। उन्हें कोई सामान्य व्यक्ति ग्रहण नहीं कर सकता। कालिदास दिव्य कवि हैं, वे काल की सीमा से नहीं बंधते हैं। वे जितने अपने समय में प्रासंगिक थे, उससे अधिक आज प्रासंगिक हैं। कालिदास का संकेत है कि कोई शस्त्र या शक्ति का प्रयोग तभी किया जाए, जब निर्बलों की रक्षा करनी हो। वे संकेत देते हैं कि जब आप किसी से परिचय बनाते हैं और बिना परीक्षण के प्रगाढ़ सम्बन्ध बना लेते हैं, इस प्रकार के अज्ञात हृदय से मित्रता श्रेयस्कर नहीं होती। उनके काव्य में जनमंगल की भावना है। उन्होंने अपने नाटकों के भरतवाक्य में विश्व मंगल की कामना की है। हम दुर्गम स्थितियों से मुक्त हो जाएं और सभी लोग सभी स्थानों पर प्रसन्न हों, यह उदात्त भावना कालिदास की है।



विशिष्ट वक्ता लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि महाकवि कालिदास जीवन की समग्रता के कवि हैं। उनका साहित्य हमारी शाश्वत मूल्य दृष्टि, जातीय स्मृतियों, परंपराओं और इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं से साक्षात्कार का अवसर देता है। क्या व्यक्ति और परिवार जीवन, क्या समाज जीवन, क्या राष्ट्र जीवन और क्या विश्व जीवन -  महाकवि की दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं है। इसीलिए दार्शनिक एवं काव्यशास्त्री आचार्य आनंदवर्धन की निगाह जब कालिदास पर जाती है तो उन्हें प्रतीत होता है कि इस संसार में अब तक की जो विचित्र कवि परंपरा है, उसमें कालिदास जैसे दो या तीन या पांच कवियों की ही गणना की जा सकती है। रघुवंश में महाकवि ने रघुकुल के राजाओं की महिमा एवं उनके वैशिष्ट्य का वर्णन करने के बहाने केवल राजन्य वर्ग ही नहीं, प्राणिमात्र के लिए सार्वभौमिक प्रादर्शों को प्रस्तुत किया हैं। उन्होंने भारत के भूगोल और निसर्ग वैभव का मनोरम चित्र उकेरा है, जो उनकी व्यापक दृष्टि का परिचायक है। वे भूमि के साथ निवासी और संस्कृति के चितेरे हैं और इन तीनों के समुच्चय से ही राष्ट्र बनता है। कालिदास हिमालय से लेकर विंध्य और वहां से लेकर सागर पर्यंत अविच्छिन्न राष्ट्रीयता के संपोषक हैं। दिलीप, रघु, दशरथ और राम जैसे शासक उनके लिए आदर्श हैं, जो सदैव  प्रजाहित में  लीन रहते हैं और राष्ट्र को भय, अनाचार, आधि - व्याधि रहित बनाए रखते हैं। परोपकार, तप और त्याग में लीन चरित्रों के सरस अंकन से कालिदास की रचनाओं में सबका मन रम जाता है।




कार्यक्रम में प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नार्वे ने नॉर्वेजियन भाषा में कालिदास कृत मेघदूत के चुनिंदा का अंशों का अनुवाद प्रस्तुत किया। उनका यह अनुवाद स्कैंडिनेवियन भाषाओं के मध्य कालिदास साहित्य का प्रथम अनुवाद है।




विशिष्ट अतिथि संस्कृतविद डॉ कौशल किशोर पांडेय, इंदौर ने कहा कि कालिदास की दृष्टि में पार्वती और परमेश्वर दोनों परस्पर संपृक्त हैं। उनकी दृष्टि में गृहिणी सखी भी है। यह बात आज भी प्रासंगिक है। कालिदास संकेत करते हैं कि शरीर धर्म के लिए प्रथम साधन है।  यह बात कोरोना संकट के दौर में स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गई है। योगसाधना और गौ सेवा की उपादेयता को उन्होंने सदियों पहले प्रतिपादित किया था।                                                        


कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संस्था अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने कहा कि वर्तमान का चित्र सभी कविगण करते हैं, किंतु आगामी काल की स्थितियों को जो प्रत्यक्ष कर देता है, वह कालजयी कवि होता है। कालिदास इसी प्रकार के कालजयी कवि हैं। रवींद्रनाथ टैगोर, दिनकर आदि की कविताओं पर कालिदास का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। महाकवि कालिदास की कविता विराट वेदना को प्रत्यक्ष करती है। उनकी कविताओं को पढ़कर प्रत्येक व्यक्ति का मन नर्तन करने लग जाता है।






वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि महाकवि कालिदास का उज्जयिनी से गहरा संबंध है। उनके जैसा उपमा का कोई दूसरा कवि नहीं हुआ।





संस्था की कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुम्बई ने कहा कि कालिदास भारतीय संस्कृति के जनकवि हैं। उनके काव्य में उदात्त नैतिकता और मर्यादा का अंकन हुआ है। कालिदास का कहना है कि सद् कर्मों से मानव भी देवता हो सकता है, किंतु असद् कर्मों से देवता को भी धरती पर आना पड़ता है।


प्रारंभ में संगोष्ठी की पूर्व पीठिका शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने प्रस्तुत की।





संगोष्ठी की संकल्पना, संस्था की गतिविधियों का प्रतिवेदन एवं अतिथि परिचय राष्ट्रीय महासचिव श्री प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत किया। संस्था का परिचय डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर ने दिया।




सरस्वती वंदना साहित्यकार डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने की। स्वागत भाषण डॉ लता जोशी, मुंबई ने दिया।


कार्यक्रम में डॉक्टर मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉक्टर लता जोशी, मुंबई, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉ मनीषा सिंह, मुंबई, डॉक्टर ममता झा, मुंबई, डॉक्टर रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, प्रो बीएल आच्छा, चेन्नई, डॉक्टर संगीता पाल, कच्छ, डॉ समीर सैयद, डॉ ललिता घोड़के, डॉ अनिल काले, डॉ श्वेता पंड्या, उज्जैन, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ दर्शनसिंह रावत, जयपुर आदि सहित अनेक प्रतिभागी उपस्थित थे। 


कार्यक्रम का संचालन संस्था की डॉ मनीषा सिंह, मुंबई ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया।














 

































  


महाकवि कालिदास की समर्चना में अखिल भारतीय कालिदास समारोह का आयोजन प्रतिवर्ष देव प्रबोधिनी एकादशी से  किया जाता है।



20201121

दीपावली : आलोक के प्रति आस्था मनुष्य सभ्यता का प्रमुख अंग - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

आलोक के प्रति आस्था मनुष्य सभ्यता का प्रमुख अंग रही है – प्रो शर्मा 

लौकिक जीवन पर अलौकिक आभा का पर्व पर केंद्रित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी संपन्न   

देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी एवं काव्य पाठ का आयोजन किया गया, जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ वक्ताओं और साहित्यकारों ने भाग लिया। राष्ट्रीय संगोष्ठी लौकिक जीवन पर अलौकिक आभा का पर्व पर केंद्रित थी। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट वक्ता शिक्षाविद डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ पत्रकार श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली, वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, डॉ रश्मि चौबे, आगरा, डॉक्टर मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉक्टर लता जोशी, मुंबई, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, ने की। यह संगोष्ठी दीपोत्सव पर्व पर आयोजित की गई।




मुख्य अतिथि लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि अनादि काल से आलोक के प्रति आस्था मनुष्य सभ्यता का प्रमुख अंग रही है।


दीपावली लोक से लोकोत्तर को जोड़ने का अनूठा अवसर देती है। दीपावली त्रिविध तापों से ग्रस्त लौकिक जीवन पर अलौकिक आभा का पर्व है। दीपावली  के पाँच दिन अज्ञात अतीत से न जाने कितनी जातीय स्मृतियों, लोक एवं शास्त्र की परम्पराओं और सांस्कृतिक - सामाजिक मूल्यों को लेकर आते हैं और फिर हमारे आसपास से जुड़ी पारिवेशीय चेतना के साथ दोहराए जाते हैं। लक्ष्मी का स्थिर वास वहां माना गया है, जहां परस्पर प्रेम, शुभत्व, स्वच्छता और शुचिता होती है। इस पर्व के पीछे गहरी पर्यावरणीय दृष्टि रही है। लक्ष्मी का संबंध कृषि, वनस्पति, समुद्र एवं जल स्रोतों के साथ माना गया है। उनकी उपासना के लिए इन्हीं स्थानों से प्राप्त उपादानों को अर्पित किया जाता है। यह पर्व परंपरा के साथ आधुनिकता, पुराख्यान के साथ वैज्ञानिकता के समन्वय का पर्व है। दीपावली पर्व अनेक सदियों से सर्वधर्म सद्भाव और लोकोपकार के लिए समर्पित होने की प्रेरणा देता आ रहा है। सही अर्थों में यह समूचेपन का, मनुष्य जीवन के भरे-पूरेपन का उत्सव है।



विशिष्ट वक्ता वरिष्ठ शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि दीपावली पर्व भारतीय सभ्यता का सबसे अनूठा और परम पवित्र त्यौहार है। शास्त्र और लोक परंपरा में इस पर्व की विशेष महिमा मानी गई है, जिन पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।


विशिष्ट अतिथि साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि दीपोत्सव अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला पर्व है। अलौकिक आभा के माध्यम से जन समुदाय को सार्थक संदेश मिलते हैं। उन्होंने इस अवसर पर दीप गीत भी प्रस्तुत किया।

 




विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ पत्रकार श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कहा कि दीपावली पुरुषार्थ और बंधुत्व का पर्व है। ज्योति का यह पर्व सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।


कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुम्बई ने कहा कि दीपावली परस्पर स्नेह और सद्भाव का पर्व है। कोविड संकट के बावजूद लोगों ने दीपों के इस पर्व को नई आशा का संचार करते हुए मनाया।

 



दीपोत्सव से जुड़ी कविताएं डॉ रश्मि चौबे, आगरा, डॉक्टर मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉक्टर लता जोशी, मुंबई आदि ने प्रस्तुत कीं।


संस्था का परिचय, संगोष्ठी की संकल्पना एवं स्वागत भाषण राष्ट्रीय महासचिव श्री प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि दीपावली ज्योति का सांस्कृतिक पर्व है। इसका संबंध लक्ष्मी पूजन के साथ भगवान राम के अयोध्या आगमन से भी माना गया है। संस्था की गतिविधियों का प्रतिवेदन डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर ने प्रस्तुत किया।  




सरस्वती वंदना साहित्यकार श्री सुंदरलाल जोशी, नागदा ने की। अतिथि परिचय डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने दिया।


कार्यक्रम में डॉक्टर मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ रश्मि चौबे, आगरा, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉक्टर लता जोशी, मुंबई, राम शर्मा, मनावर, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉक्टर गरिमा गर्ग, मथेसुल जयश्री अर्जुन आदि सहित अनेक प्रतिभागी उपस्थित थे। 


कार्यक्रम का संचालन संस्था की डॉक्टर रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने किया। आभार प्रदर्शन राष्ट्रीय उप महासचिव डॉक्टर लता जोशी, मुंबई ने किया।


























दीपावली पर्व पर स्वस्तिकामनाएँ।


20201111

दीपावली : लौकिक जीवन पर अलौकिक आभा का पर्व - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

दीपावली के पाँच दिन : लोक के साथ लोकोत्तर को जोड़ने का पर्व

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

दीपावली उत्सव के पाँच दिन अज्ञात भूतकाल से न जाने कितनी जातीय स्मृतियों, लोक एवं शास्त्र की परम्पराओं और सांस्कृतिक - सामाजिक मूल्यों को लेकर आते हैं। फिर में सब हमारे आसपास से जुड़ी पयार्वरणीय चेतना के साथ दोहराए जाते हैं। ऋतु, अंचल और कृषि उत्पादों के रंग इस उत्सव को चटकीला बनाते हैं। इसकी उत्सवी आभा में चमके चेहरे अमीर-गरीब, छोटे-बड़े का भेद मिटा देते हैं। आखिर सब उल्लास और उमंग में क्यों  न डूबें, जब मौका महज धन-संपदा ही नहीं, इस जगत् की आधार और साक्षात् पराशक्ति लक्ष्मी के इस लोक में विचरण का हो और जो महल तथा झोंपड़ी के बीच अंतर नही करती। 

लक्ष्मी, जिनके बिना सृष्टि के पालनकर्ता  विष्णु भी श्रीहीन हो जाते हैं, इस दौरान स्वयं अपना बसेरा तलाशने के लिए निकलती हैं। दीपावली पर उनके स्वागत को आतुर श्रद्धालु लोकमानस न सिर्फ  इस उत्सव में रमता है, आगामी वर्ष भर सफल होने की तैयारी भी करता है। या यूँ कहें त्रिविध तापों से ग्रस्त लौकिक जीवन पर अलौकिकता की शीतल छाया का रम्य अनुभव पाता है।






धन तेरस से दिवाली तक : जब तीन दिनों में तीन पगों से नापा गया था ब्रह्माण्ड
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

दीपावली के उद्भव को लेकर कई पौराणिक एवं लोक मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता का सम्बन्ध देव और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के पौराणिक आख्यान से हैं, जिनके अनुसार इसी दिन समुद्र से लक्ष्मी का आविर्भाव हुआ था और उन्होंने विष्णु का वरण किया था। दीपावली के दो दिन पूर्व मनाए जाने वाले पर्व धनतेरस का संबंध इसी आधार पर विष्णु के एक अवतार धन्वन्तरि से जोड़ा जाता है, जो समुद्र से अर्जित चौदह रत्नों में एक अमृत-कुंभ लेकर प्रकट हुए थे। दूसरी मान्यता का संबंध राजा बलि और विष्णु के वामन अवतार की पौराणिक कथा से हैं। इसके अनुसार असुरराज बलि ने एक बार देवराज इन्द्र को परास्त कर तीनों लोकों में अपना साम्राज्य  स्थापित कर लिया था। विष्णु ने दानवीर बलि से वामन रूप में तीन पग भूमि माँगी और फिर विराट होकर तीनों लोकों को फिर से प्राप्त कर बलि को पाताल में भेज दिया। विष्णु ने दीपावली के दिन ही लक्ष्मी सहित सभी देवी-देवताओं को बंधन से मुक्त कराया था। इसीलिए लक्ष्मी के स्वागत के दीप घर-घर जलाए जाते हैं। 

एक अन्य  मान्यता है कि इस दिन विष्णु ने राजा बलि से प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटाया था। तब बलि ने विष्णु से वरदान माँगा था कि दीपावली के तीन दिनों में जो व्यक्ति दीपदान करेगा वह यम की यातना से मुक्त रहेगा और उसके घर लक्ष्मी सदा निवास करेगी। इसी के आधार पर देश के कई भागों में धनतेरस की रात्रि को यम को दीपदान की प्रथा प्रचलन में है। एक मान्यता यह भी है कि विष्णु ने धनतेरस, नरक चतुदर्शी (या रूपचौदस) और दीपावली इन तीनों दिनों में ही तीन लोकों को अपने तीन पगों से नापा था, उसी महत्त्वपूर्ण प्रसंग की स्मृति को समर्पित होते हैं ये दिन। कुछ क्षेत्रों में गोबर से राजा बलि की मूर्ति बनाकर पूजने के पीछे भी यही आख्यान है । 



रूप चौदस- रूप चतुर्दशी 

मालवा चित्रावण शैली में अखिलेश धूलजी बा की एक कृति 




मांडणे का रचाव

सदियों से मांडना मंगल प्रतीक रहा है। परम्परा के साथ नवाचार ने इस विधा को व्यापक धरातल दिया है। दीपपर्व के साथ साथ यह अब अनेक मांगलिक अवसरों पर बनाया जा रहा है। घर - आँगन से चलकर अब यह बड़ी तादाद में प्रमुख स्थानों और मार्गों की भित्तियों पर भी उकेरा जा रहा है।
 

मांडना अंकन : डॉ. अर्चना गर्गे Archna Garge 








मांडना अंकन : लोक कलाकार श्रीमती द्रौपदी देवी (मेरी पूज्य बुआ जी)





मांडना अंकन : नीतेश पांचाल 




Shailendrakumar Sharma
Mandana Art| मांडना कला 

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Mandana Art | परम्परागत मांडना कला | 
Traditional Art & Craft of India : Mandana, Fad Art, Kawad Art, Kathputali Art, Gavari
पारम्परिक कला और शिल्प रूप : मांडना, फड़, कावड़, कठपुतली, गवरी 

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Mandana Art| मांडना : मंगल प्रतीक| Music Sarita Mcharg | Sarita Borliya 

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संगीत, नृत्य, नाट्य, साहित्य, चित्रकला, लोक और जनजातीय संस्कृति पर एकाग्र वीडियोज् के लिए एक उपक्रम 


अंदर बाहर के अंधकार से मुक्ति का पर्व: दीपोत्सव के पाँच दिन - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 
पत्रिका, परिशिष्ट परिवार, समस्त संस्करण, 8 नवम्बर 2023, बुधवार 

















दीपावली उत्सव के पाँच दिन  - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 



अर्थ की देवी का क्या है अर्थ 
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा



आखिर अर्थ की देवी लक्ष्मी का अर्थ क्या है। लक्ष्मी जगत् के पालनकर्ता विष्णु की शक्ति हैं। उनका विष्णु के साथ अपृथक् संबंध माना गया है। लक्ष्मी शक्ति हैं तो विष्णु शक्तिमान्, लक्ष्मी धर्म हैं तो विष्णु उन्हें धारण करने वाले अर्थात् धर्मी। श्रीसूक्त, लक्ष्मीतन्त्र आदि में लक्ष्मी के तिरेपन नाम मिलते हैं, जिनमें श्री, देवी, ऋद्धि, ईश्वरी, माता, हेममालिनी, पद्मस्थिता, हिरण्यमयी आदि सम्मिलित हैं। आज अर्थ या धन की देवी की रूप में लोक में पूजित लक्ष्मी के शाब्दिक अर्थ अनेक और व्यापक हैं। वैदिक साहित्य में श्री और लक्ष्मी दोनों अलग-अलग शब्द हैं, कालांतर में दोनों का समन्वय हुआ। लक्ष्मी शब्द के मूल में ‘लक्ष्’ धातु है, जिसका अर्थ है- दर्शन और अंकन इसके आधार पर लक्ष्मी का अर्थ हुआ- सब प्राणियों को साक्षात् करने वाली, उनके शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे को देखने वाली। वे ईश्वर की सवर्सम्पद् हैं अन्य मतों से लक्ष्मी के मूल में ‘ला’ और ‘क्षिप्’ धातुएँ हैं, जिनसे लक्ष्मी शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। इनके आधार पर लक्ष्मी दान करने वाली देवी हैं। लक्ष्मी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में प्रकृति को प्रेरित करने वाली है। लक्ष्मी लक्षण के योग्य अर्थात् लक्ष्य पदार्थों की अवस्थामयी हैं। एक अन्य व्याख्या से वे प्रकृति, पुरुष, महत् आदि में स्थित होकर उन्हें प्रेरित करती हैं। वे जगत् निर्माण करती हैं, उसे जानती हैं और सबका मापन भी करती हैं। 

लक्ष्मी के एक प्रमुख नाम श्री के भी कई अर्थ हैं इन अर्थों में लक्ष्मी करुण वाणी को सुनने वाली, सज्जनों के पापों को नष्ट करने वाली तथा गुणों से विश्व को व्याप्त करने वाली हैं। वे हरि अर्थात् विष्णु का शरीर हैं। वे शरणागत के पापों को नष्ट करती हैं और सभी कामनाएँ पूरी करती हैं। ऊपरी तौर पर धन-संपदा की देवी लक्ष्मी वस्तुत: साक्षात् ब्रह्म की ही शक्ति हैं, यह जगत् उनका ही रूप माना गया है।








दीपावली: लोक के साथ लोकोत्तर को जोड़ने का पर्वोत्सव - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

दक्षिण एशिया उपमहाद्वीप अनादिकाल  से व्रत-पर्व-उत्सवों  की पारम्परिक भूमि रहा है । यहाँ के व्रत-पर्व-उत्सव  न जाने कितनी सभ्यताओं, संस्कृतियों और जातीय स्मृतियों को अपने अंदर समाए हुए हैं, जिनमें अलग-अलग अंचलों  की स्थानीय  गंध के साथ-साथ एकात्मता के अनोखे सूत्र उपस्थित हैं। अपने ढ़ंग के इस निराले उपमहाद्वीप का प्रतिनिधि और अनूठा त्यौहार है –दीपावली , जो एक साथ व्रत, पर्व  और उत्सव को अपने में समाहित किए हुए है। 

यह पर्व परम्परा के साथ वैज्ञानिकता,  प्राचीन के साथ आधुनिक, वेद के साथ पुराण-आख्यान, शास्त्र के साथ लोक, संस्कृति के साथ सभ्यता,  देवता के साथ मनुष्य  और जातीय  स्मृतियों के साथ सामाजिक गतिशीलता के अन्त: संवाद का पर्व है। यह लोक के साथ लोकोत्तर को जोड़ने का व्रत है और अनेक माध्यमों से छलकते उल्लास का उत्सव है। दीप पर्व से भारतीय  संस्कृति के विविध तत्वों का संवाद इतना सहज और जैविक है कि यह पता लगाना मुश्किल  लगता है कि किसकी, कहाँ और कितनी हिस्सेदारी है। सही अथों  में यह समूचेपन का, मनुष्य  के भरे-पूरेपन का उत्सव है।


- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
कुलानुशासक
पूर्व कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
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