मालवी लोकोक्ति और मुहावरे : सदियों के अनुभव और ज्ञान की अक्षय निधि
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
भारत की बहुविध परम्पराओं की गहरी जड़ें लोक संस्कृति में मौजूद हैं। लोक-संस्कृति अतीत की भूली हुई कड़ी या आदिम न होकर सतत वर्तमान है, आज भी हमारे जीवन का अविभाज्य अंग है। लोक-चेतना की यह धारा अविच्छिन्न रूप से सतत प्रवहमान है। वैसे तो परिवर्तन इस जगत् का शाश्वत नियम है, इससे लोक-संस्कृति कैसे अनछुई रह सकती है? उसमें भी पुनराविष्कार और संशोधन का क्रम निरंतर चलता आया है, किंतु उसकी मूल चेतना में सहजता, पारदर्शिता और तरलता सदैव बने रहे हैं। वह समय-समय पर बाहर से आगत तत्त्वों से भी अंतर्क्रिया करती आ रही है। ऐसा करते हुए वह स्वयं को और अधिक व्यापक बनाती चलती है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, चाहे वह भाषा हो या साहित्य, विविध कला रूप, आचार-विचार हो या रीति-रिवाज, वस्त्रभूषा हो या खानपान के तरीके, इनमें से कुछ भी लोक परम्परा से विच्छिन्न नहीं है। भारत की लोक और जनजातीय संस्कृति में गहरी संवेदना और ऊर्जा व्याप्त है। उनसे दूरी के दुष्परिणाम आधुनिक समाज के विभिन्न घटकों पर दिखाई दे रहे हैं। इसके अभाव में संस्कृति की नैसर्गिकता खो रही है।
लोक वस्तुतः जीवन्त और ठोस आधार पर गतिशील जन समुदाय का बोधक है। पाश्चात्य लोक तत्त्व विवेचकों ने प्रायः लोक को अविकसित या आदिम या रूढ़िग्रस्त जनसमूह के रूप में देखा है, किन्तु भारतीय संदर्भ में देखें तो ‘लोके वेदे च’ सूत्र का संकेत साफ है कि वेद या शास्त्र के समानांतर, किन्तु पूरक रूप में एक लोकधारा भी यहाँ सतत प्रवाहमान रही है, जो वेद से किसी भी आधार पर हीन नहीं है। इन दोनों धाराओं को समन्वय से ही भारत की पहचान बनी है।
मालवा लोक-साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस अनेक सदियों से कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति, मुहावरे आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये बहुवर्णी लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। हाल के दशकों में मालवी लोक साहित्य और संस्कृति के विविध पहलुओं पर अनेक शोध, संकलन और प्रकाशन हुए हैं। इसी तरह नए मीडिया पर भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध हो रही है।
यह अत्यंत सुखद है कि मालवीमना रचनाकार और मनस्वी हेमलता शर्मा भोली बेन ने मालवा की समृद्ध लोक संपदा के संकलन - संपादन के साथ उसके गहन शोध में पहलकदमी की। वे लेखन, दृश्य श्रव्य माध्यम, ब्लॉग, यूट्यूब चैनल, सोश्यल मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से मालवी भाषा, साहित्य और संस्कृति की सेवा, संरक्षण और संवर्धन में जुटी हैं। उन्होंने हाल ही में मालवा क्षेत्र में प्रचलित लगभग एक हजार लोकोक्तियों और मुहावरों का संचयन किया है। पूर्व में मालवी लोकोक्ति और मुहावरों के कुछ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और कुछ शोधकर्ताओं ने इनका विविध दृष्टियों से अनुशीलन भी किया है। हेमलता शर्मा का यह प्रयास इस दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने अनेक बुजुर्गों और परिवारजनों से मिलकर बड़े परिश्रमपूर्वक इन लोकोक्ति और मुहावरों को जुटाया है और उनके अर्थ एवं प्रयोग भी प्रस्तुत किए हैं।
लोकाक्ति या कहावत सुंदर रीति से कही गई उक्ति या कथन है, जिसकी लोक व्याप्ति कन्ठानुकंठ होती है। ये यूं ही नहीं गढ़ ली जातीं, बल्कि इनके पीछे अनेक सदियों का अनुभव और ज्ञान सन्निहित है। लोकोक्ति के पीछे कोई विशेष प्रसंग, कहानी या घटना होती है, उससे निकली बात बाद में लोगों की जु़बां पर चढ़ जाती हैं। घर - आँगन, खेत - खलिहान, चौपाल - चौबारे, पर्व - त्यौहार, मेले और बैठक लोकोक्तियों को अनायास आकार दे देते हैं और फिर ये वाचिक परम्परा का आधार पाकर काल और देश के दायरे से मुक्त हो जाती हैं। कई बार ये अन्य बोली और भाषा में सहज ही रूप परिवर्तन कर प्रचलित होने लगती हैं। लोकोक्तियाँ दिखने मेँ छोटी लगती हैँ, परन्तु उनमेँ गम्भीर विचार और भाव रहते हैं। लोकोक्तियोँ के प्रयोग से आम कथन से लेकर साहित्यिक रचना मेँ भाव एवं विचारगत विशेषता आ जाती है। मालवी लोकोक्तियों में जीवन का मर्म और अनुभव का सार देखने को मिलता है। इनके माध्यम से हम मालवा अंचल में वास करने वाले समुदायों की जीवन शैली का सम्यक् अध्ययन कर सकते हैं। इनमें लोक मानस के आस्था - विश्वास, लोक मान्यताएँ, रीति-रिवाज, खान - पान, रहन - सहन, स्वास्थ्य, लोक पर्व - उत्सव, लोक दर्शन सहित संस्कृति के विविध आयाम स्पष्ट छलकते हैं। मालवा क्षेत्र में प्रचलित कुछ रंजक लोकोक्तियाँ देखिए –
बोलता का बुरा भी बिकी जावे ने बिना बोलता कि जुवार भी नी बिके।
माल खाय माटी को ने गीत गाय बीरा का
शक्कर गरे तो हगरा भेरा वइ जा ने खाल गरे तो कोई नी
माल का मालिक सगला, खाल को कोई नी
जिको मांडवो बिगड़े उको ब्याव बिगड़े
आली लाकडी नमे ने सूख्यां पाछे टूटे
गरीब की जोरू आखा गाम की भाभी।
लोक जीवन में मुहावरों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः मुहावरा अरबी भाषा का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'अभ्यास'। इनके प्रयोग से भाषा रोचक, रसपूर्ण एवं प्रभावी बन जाती है। इनके मूल रूप मेँ कभी परिवर्तन नहीँ होता अर्थात् इनमेँ से किसी भी शब्द का पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त नहीँ किया जा सकता। इसके क्रिया पद मेँ काल, पुरुष, वचन आदि के अनुरूप परिवर्तन अवश्य होता है। मुहावरा अपूर्ण वाक्य होता है। वाक्य प्रयोग करते समय यह वाक्य का अभिन्न अंग बन जाता है। इसीलिए इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता है। दूसरी ओर लोकोक्तियाँ पूर्ण वाक्य के रूप में होती हैं और किसी बात की पुष्टि करते हुए इनका स्वतंत्र रूप से प्रयोग किया जा सकता है। मालवा में बहुप्रचलित कुछ मुहावरे देखिए, जिनकी अपनी खास भंगिमा है :
गेले आणों, गेले जाणो
काम ती काम राखणो
दूसरा की पंचायती नी करनी
नाना मोटा को कण कयदो राखणो
चारी आड़ी का हापटा नी भरणा
मुंडा हामें को काम पेला करणो
सोची हमजी ने पग रखणो
फाटा में पग नी फसाणो
रोज ढांकी ने खाणो
जतरो पचे वतरो खाणो
हुणनी सबकी ने करनी मन की
दाँत काड़ी ने हामे आणो
वगर काम के नी बोलणो
बीच-बीच में लाड़ा की भुवा नी वणनो
दूसरा की मजाक नी उड़ानी
वस्तुतः भाषा और बोलियाँ मनुष्य होने की पहचान हैं। वे मनुष्य के आन्तरिक और बाह्य जीवन को जोड़ती हैं। इस संसार को समझने और अभिव्यक्त करने के लिए माध्यम का काम करती हैं। मातृभाषा बच्चे अपने आप सीख लेते हैं, यद्यपि उसके साहित्यिक पक्ष का ज्ञान उन्हें अधिकतर औपचारिक शिक्षा के जरिए होता है। वर्तमान में अंग्रे़ज़ी हमारी शिक्षा - व्यवस्था में प्रमुख भाषा बनती जा रही है। अंग्रेज़ी का ज्ञान शिक्षित होने का पर्याय बनता जा रहा है। ऐसे में भारतीय भाषाओं और बोलियों की उपेक्षा हो रही है और उन्हें हीन भाव से देखा जा रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि अंग्रेज़ी जानने वाला व्यक्ति भी अज्ञानी हो सकता है। इधर लोक बोली का प्रयोक्ता भी ज्ञान और अनुभव सम्पन्न हो सकता है, किंतु कई बार उन्हें अनदेखा किया जाता है। अंग्रेजी पर अतिनिर्भरता के कारण आज हमारा देश सभी क्षेत्रों में नकलचियों का देश बनकर रह गया है। महर्षि अरविन्द अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति के आधार में कहते हैं, प्राचीन भारत में जीवन के प्रत्येक पक्ष पर गंभीर सृजनात्मक कार्य हुआ था जो आज भी हमारे लिए आदर्श है। अंग्रेजी पर अनावश्यक निर्भरता के कारण हम अपनी भाषाओं में संचित ज्ञान संपदा से दूर हो रहे हैं। एक बार जे. कृष्णमूर्ति ने हताशा के स्वर में पूछा था, "इस देश की सृजनशीलता को क्या हो गया है।" प्राचीन काल में जब संसार के अधिकांश देशों का अस्तित्व भी नहीं था, न विकास का कोई मॉडल विद्यमान था, हमारे पूर्वजों ने अपनी भाषा संस्कृत और उसके स्थानीय रूपों के माध्यम से मानव जीवन के गहनतम रहस्यों को खोज लिया था, जो आज भी हमारे ही नहीं, समूची मानव जाति के लिए मार्गदर्शक हैं। एक विदेशी भाषा के अनुपातहीन महत्त्व से हमारी अपनी भाषाओं की उपेक्षा की हुई है और परिणामस्वरूप भारतीय मेधा का विकास अवरुद्ध हो गया है।
मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी सहित विविध भाषाएँ और बोलियाँ सदियों से हमारे घर – आँगन में संवेदना, ज्ञान, संस्कृति और परम्पराओं की संवाहिका बनी हुई हैं। हिंदी की विविध बोलियाँ सदियों से हिंदी की सहज संगिनी और आधार रही हैं और आगे भी रहेंगी। इन्हें इसी रूप में जीवन्त बने रहना चाहिए, न कि राष्ट्रभाषा हिन्दी की विरोधिनी के रूप में उन्हें खड़े करना चाहिए। फिर इन बोलियों के कई स्थानीय रूप भी हैं, उनमें से किसे मानक भाषा का दर्जा दिया जाएगा, यह तय करना भी चुनौतीपूर्ण होगा। किसी भी एक बोली के अलग होने से निकटवर्ती बोलियाँ भी कमजोर होंगी और हिन्दी भी। पड़ोसी बोलियों के मध्य रिश्तों में कटुता आएगी और हिन्दी का तो इससे बहुत अधिक अहित होगा। भारतीय भाषाओं और बोलियों के ऐक्य बन्धन को अधिक मजबूती के साथ निरन्तर बने रहना चाहिए, इसी में सबका हित है।
वर्तमान में मालवी लोक संपदा के संरक्षण – संवर्द्धन की दिशा में व्यापक प्रयत्नों की दरकार है। हेमलता शर्मा ने विविध रूपों में मालवी की सेवा का दृढ़ संकल्प लिया है, जिसके एक पुष्प के रूप में अपणो मालवो के अंतर्गत मालवी कहावतों और मुहावरों का संग्रह प्रकाश में आया है। विश्वास है लोक भाषा के प्रेमी इसका अंतर्मन से स्वागत करेंगे और अपने जीवन में इस लोक संपदा के भाषिक प्रयोगों के लिए सदैव तत्पर रहेंगे।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन मध्यप्रदेश