अग्निपथ : बच्चन जी की कालजयी कविता
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
अग्निपथ कविता का अर्थ आत्म शक्ति संपन्न मनुष्य का निर्माण करना है। हरिवंशराय बच्चन की चर्चा मधु काव्यों के लिए की जाती है, लेकिन उन्होंने कई रंगों की कविताएं लिखी हैं। इसी तरह की एक विलक्षण कविता है अग्निपथ, जो मनुष्य की अविराम संघर्ष चेतना और विजय यात्रा से रूबरू कराती है।
जब से मनुष्य ने इस धरती पर अपनी आंखें खोली है, तब से वह कर्तव्य पथ पर चलते हुए अनेक प्रकार की बाधाओं से टकराता आ रहा है। उसकी राह में जब तब फूल के साथ कांटे भी आते रहे हैं। प्रकृति भी आसरा देने के साथ कई बार उसके सामने चुनौतियां खड़ी करती रही है। मनुष्य की इस अपरिहार्य यात्रा में यदि वह सदैव आश्रयों का ही अवलंब लेता रहा तो वह कभी आत्मशक्ति नहीं जगा पाएगा। बच्चन जी इस कविता के माध्यम से मनुष्य को आत्मशक्ति और आत्माभिमान से संपन्न बनने का आह्वान करते हैं। वे पलायन नहीं, प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करते हैं। यह कविता हर युग, हर परिवेश, हर परिस्थिति में नया अर्थ देती है। सही अर्थों में यह एक कालजयी कविता है।
अग्निपथ के उद्गाता की जन्मशती स्मृति
अपने
ढंग के अलबेले कवि हरिवंशराय बच्चन की चर्चित कविता 'अग्निपथ' हर बार नया अर्थ देती है। 2007-2008 में एक साथ सात महान
रचनाकारों - महादेवी वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, नंददुलारे वाजपेयी, श्यामनारायण पांडे, जगन्नाथप्रसाद मिलिंद का शताब्दी वर्ष मनाने का सुअवसर मिला था। उसी मौके पर चित्रकार श्री
अक्षय आमेरिया द्वारा आकल्पित पोस्टर का विमोचन कवि - आलोचक अशोक वाजपेयी एवं
तत्कालीन कुलपति प्रो.रामराजेश मिश्र ने किया था। नीचे दिए गए चित्र में साथ
में (दाएँ से ) संयोजक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, लोक कलाकार कृष्णा वर्मा , पूर्व कुलसचिव डॉ. एम. के. राय, डॉ. राकेश ढंड । पोस्टर के साथ कविता का आनंद लीजिये.।।
वृक्ष हों भले खड़े,
हों
घने हों बड़े,
एक
पत्र छांह भी,
मांग
मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ
अग्निपथ अग्निपथ
तू न
थकेगा कभी,
तू न
रुकेगा कभी,
तू न
मुड़ेगा कभी,
कर
शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ
अग्निपथ अग्निपथ
यह
महान दृश्य है,
चल
रहा मनुष्य है,
अश्रु
श्वेत रक्त से,
लथपथ
लथपथ लथपथ,
अग्निपथ
अग्निपथ अग्निपथ
- - - - - - - - - - - - - - -
अमिताभ बच्चन की टिप्पणी के साथ उन्हीं की आवाज में अग्निपथ कविता सुनिए :
बच्चन जी की एक और लोकप्रिय रचना
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए! / हरिवंशराय बच्चन
मेरे वर्ण-वर्ण विशृंखल
चरण-चरण भरमाए,
गूंज-गूंज कर मिटने वाले
मैनें गीत बनाये;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठो पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैनें कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊं,
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
सुन्दर और असुन्दर जग में
मैनें क्या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूं अब किसकी रुकती है
आ मुझ पर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
दुख से जीवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घडियों में
भी तुमसे यह कहता
सुख की सांस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
हरिवंशराय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003)
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
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अमिताभ बच्चन की टिप्पणी के साथ उन्हीं की आवाज में अग्निपथ कविता सुनिए :
बच्चन जी की एक और लोकप्रिय रचना
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए! / हरिवंशराय बच्चन
मेरे वर्ण-वर्ण विशृंखल
चरण-चरण भरमाए,
गूंज-गूंज कर मिटने वाले
मैनें गीत बनाये;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठो पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैनें कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊं,
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
सुन्दर और असुन्दर जग में
मैनें क्या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूं अब किसकी रुकती है
आ मुझ पर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
दुख से जीवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घडियों में
भी तुमसे यह कहता
सुख की सांस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
हरिवंशराय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003)
साजन आए, सावन आया
हरिवंशराय बच्चन
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
हरिवंशराय बच्चन
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।