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20130410

नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल

नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल पर आलेख अपनी माटी पर पढ़ सकते हैं....
                साहित्य की सत्ता मूलतः अखण्ड और अविच्छेद्य सत्ता है। वह जीवन और जीवनेतर सब कुछ को अपने दायरे में समाहित कर लेता है। इसीलिए उसे किसी स्थिर सैद्धांतिकी की सीमा में बाँधना प्रायः असंभव रहा है। साहित्य को देखने के लिए नजरिये भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, जो हमारी जीवन-दृष्टि पर निर्भर करते हैं। एक ही कृति को देखने-पढ़ने की कई दृष्टियाँ हो सकती हैं। उनके बीच से रचना की समझ को विकसित करने के प्रयास लगभग साहित्य-सृजन की शुरूआत के साथ ही हो गए थे। आदिकवि वाल्मीकि जब क्रौंच युगल के बिछोह के शोक से अनायास श्लोक की रचना कर देते हैं, तब उन्हें स्वयं आश्चर्य होता है कि यह क्या रचा गया  इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते साहित्य से जुड़े क्या, क्यों और कैसे जैसे प्रश्न अब भी ताजा बने हुए लगते हैं, तो यह आकस्मिक नहीं हैं।
     आज का दौर भूमण्डलीकरण और उसे वैचारिक आधार देने वाले उत्तर आधुनिक विमर्श और मीडिया की विस्मयकारी प्रगति का दौर है। इस दौर में साहित्य और उसके मूल में निहित संवेदनाओं के छीजते जाने की चुनौती अपनी जगह है ही, साहित्य और सामाजिक कर्म के बीच का रिश्ता भी निस्तेज किया जा रहा है। ऐसे में साहित्य की ओर से प्रतिरोध बेहद जरूरी हो जाता है। इधर साहित्य में आ रहे बदलाव नित नए प्रतिमानों और उनसे उपजे विमर्शों के लिए आधार बन रहे हैं। वस्तुतः कोई भी प्रतिमान प्रतिमेय से ही निकलता है और उसी प्रतिमान से प्रतिमेय के मूल्यांकन का आधार बनता है। फिर एक प्रतिमेय से निःसृत प्रतिमान दूसरे नव-निर्मित प्रतिमेय पर लागू करने पर मुश्किलें आना सहज है। पिछले दशकों में शीतयुद्ध की राजनीति ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कलाजगत् पर सहज ही देखा जाने लगा। इसी प्रकार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की वर्चस्वशाली उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पक्षों पर अपना असर जमाया। इनसे साहित्य का अछूता रह पाना कैसी संभव था? उत्तर आधुनिकता, फिर उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी दौर में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श , सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसी विविध विमर्श धाराएँ विकसित हुईं। केन्द्र के परे जाकर परिधि को लेकर नवविमर्श की जद्दोजहद होने लगी। ऐसे समय में मनुष्य और साहित्य की फिर से बहाली पर भी बल दिया जाने लगा। पिछले दो-तीन दशकों में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य, संस्कृति और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत् को मथा है। हिन्दी साहित्य में हाल के दशकों में उभरे प्रमुख विमर्शों में स्त्री विमर्शदलित विमर्श,  आदिवासी विमर्श,  वैश्वीकरण, बहुसांस्कृतिकतावाद  आदि को देखा जा सकता है। ये विमर्श साहित्य को देखने की नई दृष्टि देते हैं, वहीं इनका जैविक रूपायन रचनाओं में भी हो रहा है।-प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 

http://www.apnimaati.com/2013/04/blog-post_6939.html

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