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20200522

हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम – डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा

हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम – सम्पा. डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

मालवी कविता के प्रतिनिधि स्वर को सहेजती पुस्तक : भूमिका से 

समकालीन भारतीय कविता को लेकर प्रायः यह चिंतातुर स्वर सुनने में आता है कि कविता लोक सामान्य से दूर होती जा रही है। इसके पीछे एक प्रमुख कारण रहा है कि कथ्य, विचार और भाषा - सभी स्तरों पर कविता का लोक, लोक कविता या यूँ कहें समूची लोकधारा से परे होता जा रहा है। इस विलगाव के रहते कथित शिष्ट साहित्य में जटिलता और रूपवादी रुझान उभार पर हैं। देश के विभिन्न अंचलों की बोलियों में रची जा रहीं कविताएँ इस तरह के संकटों से प्रायः मुक्त रही हैं। अन्य आंचलिक बोलियों की तरह भारत के हृदय प्रदेश मालवा की सुगंध और मार्दव को समेटे मालवी की समकालीन कविता का यहाँ की भूमि, जन और संस्कृति से गहरा रिश्ता है, जो उसे वैशिष्ट्य देता है।

मालवी के स्तरीय काव्य मंचों की जो तस्वीरें मेरे मनोमस्तिष्क पर अंकित हैं, उसके सबसे आभामय चेहरों में एक हैं - श्री हरीश निगम (3 मई 1928)। मालव माटी से जुड़ी उनकी सरस अभिव्यक्तियाँ, कर्ण मधुर आवाज, लयपूर्ण गायकी और जीवन के सामान्य से सामान्य क्रियाकलापों और दृश्यों में कविता के कथ्य को खोज लेने की उनकी जन्मजात क्षमता - यह सब मुझे निरंतर आकृष्ट करते रहे हैं। प्रायः समस्त मालवी प्रेमियों की तरह मैं भी उनका श्रोता और दर्शक पहले रहा हूँ, पाठक बाद में। तब से लेकर अब तक लोक मन में उनकी गहरी प्रतिष्ठा को मैंने देखा - महसूस किया है। उनकी छवि लोक जीवन के अत्यंत समर्थ और भावुक हृदय कवि के रूप में लोकमानस में अंकित है। मालवी कविता के प्रमुख स्तम्भ श्री हरीश निगम की चर्चित काव्य कृतियाँ हैं - कुसुम कुंज (1958), हरियालो आंचल (1961 एवं 1980), हिरना सांवली (1982), अपरंच (2004) आदि। उन्होंने संस्कृत - हिंदी की अनेक कृतियों के मालवी रूपांतर किए, जिनमें प्रमुख हैं- भास का स्वप्नवासवदत्ता (सपना में रानी), शूद्रक का मृच्छकटिक (गारा की गाड़ी), तुलसी के रामचरितमानस का नाट्य रूपांतर लोकमानस राम आदि। लोक संस्कृति पर केंद्रित पत्रिका सांझी के संपादक के रूप में उन्होंने अनेक विशेषांक निकाले, जिनमें प्रमुख हैं - भर्तृहरि विशेषांक, तुलसी विशेषांक, लोक संस्कृति विशेषांक, लोक कथा विशेषांक, भेराजी विशेषांक, तुलसी पंचशती विशेषांक, सिंहस्थ विशेषांक आदि।
श्री निगम के काव्य का स्वाभाविक स्वर शृंगार और हास्य - व्यंग्य का रहा है, जिसमें उन्होंने मालवा के आंतरिक राग और उल्लास को काव्यमय निष्पत्ति दी है। उनका यह स्वर एक सजग कवि के रूप में समय-समय पर परिवर्तित - विस्तारित भी होता रहा। चीन या पाकिस्तान से युद्ध का दौर रहा हो या श्रम और निर्माण की नई तस्वीरें गढ़ने का वक्त, कविवर श्री निगम उत्कट चेतनाशीलता के साथ अपने युग का नमक अदा करते रहे। कवि और आस्वादक के बीच बढ़ती संवादहीनता के दौर में भी उन्होंने अपने लोकधर्मी काव्य के माध्यम से साहित्य के लोकमंगल विधान और कांतासम्मित उपदेश जैसे प्रयोजनों को सिद्ध कर दिखाया। 

श्री हरीश निगम लोक मन और लोक छवि के रचनाकार हैं। इसलिए उनके काव्य का वैशिष्ट्य सहज और सामान्य हो जाने में है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार सच्चा कवि वह है, जिसे लोक हृदय की पहचान हो। श्री निगम ऐसे ही कवि हैं, जिन्होंने लोक हृदय के अपार एवं अद्भुत सागर का अवगाहन किया है और उसकी अतल गहराइयों से शब्दार्थ एवं संवेदना रूपी रत्न लाकर साहित्य जगत् को सोपे हैं। कवि की चिंता लोक की चिंता है और कवि का सुख लोक का सुख। यही वजह है कि श्री निगम की कविता की परिव्याप्ति में लोक जीवन के हास – अश्रु, उल्लास - संघर्ष, प्रेम – विरह - सभी कुछ समाहित हैं, वही राष्ट्र जीवन की समस्याएँ भी अनछुई नहीं रही हैं। श्री निगम का मालवा के लोक जीवन से तादात्म्य संबंध है। इसी लोक जीवन से उन्होंने शब्दों का चयन किया है, बिंबों और प्रतीकों को आत्मसात किया है और उसी से छंद और लय प्राप्त किए हैं। उनकी कविताएं आधुनिक होने के बावजूद वाचिक परंपरा से गहरे जुड़ी हैं। 

प्रसिद्ध रचना हरियालो आँचल में मालवा की रंगत को उन्होंने कुछ इस तरह शब्दों में ढाला है: 
दिल्ली तो देखी ली रानी, म्हारे साते चाल वो।
भारत माता का हिरदा में जड्यो रतन सो मालवो।

मालवा सहित मध्यप्रदेश की लोक परम्पराएँ यहाँ पूरी धज के साथ उतरती हैं :
आल्हा - उदल, ताल, ठुमरी, नौटंकी और ब्रह्मानंद। 
गरबा, माच, राम की लीला हुइरिया हे स्वर्गीय आनंद। 
चंद्रसखी का भाव गीत में बाजे कितरा साज वो 
नानी बई का मामेरा में बाजे कितरा साज वो। 
रामदेव को ब्याव गवई रियो, भर्यो हुओ चौपाल वो 
भारत माता का हिरदा में जड्यो रतन सो मालवो।
  
इस कविता को पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास ने मालवा की जीवती - जागती झाँकी कहा है :  मेघदूत में जिस तरा हर जगे को वर्णन उना स्थान की खास विशेषता के अपने सामने लई दे है। उनी तरेज हरीश जी की कविता तीर्थ यात्रा में अपना साथ लई जावे हे  प्रत्येक स्थान का वर्णन सरस, मनोहारी और सजीव बनी गयो हे। फिर मालवी को अपनो मीठोपन  ऊ में दूध में शक्कर की तरे घुली मिली के और भी रसमय बनई दियो हे।  पूरी कविता मालव प्रदेश की जीवती जागती झांकी है।

उनकी एक प्रसिद्ध रचना है जिसमें उन्होंने ग्राम बाला के सौंदर्य और गतिमयता को ध्वनि - संगीत और प्रकृति के हृदयग्राही वातावरण के साथ एक रूप कर दिया है: 

गोरड़ी चले मन मोरड़ी चले
रुनक - झुनक बिछिया पे ताल है बजे,
सांवरा की बंसरी पर ख्याल है बजे।
दिवला से बात मिले, तरुवर से पात मिले,
छलिया को प्यार देख, आज है छले, गोरड़ी चले।

आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था आई और पुरानी परिपाटी समाप्त होने लगी। शोषण और दमन के प्रतीक ढहने लगे, तब उन्होंने जागीरदारी प्रथा पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी लिखी : 

जागीरदार की गयी जागीरी, गयो मूँछ को ताव
अब पड़ेगा मालूम ठाकर लूण, तेल, लकड़ी का भाव।
मोटा-मोटा पोत्या बाँधा, कम्मर में खूँसी तलवार,
छोरा-छोरी खाए जलेबियाँ, गिरवे है आखो घर बार। 

डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम


मालवी कवि श्री हरीश निगम इस देश के हरियाले आँचल अर्थात् मालवा के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने हरियालो आँचल नाम से एक सुदीर्घ कविता लिखी है, जो देश भर में बहुचर्चित - बहुप्रशंसित रही है। इस कृति में उन्होंने कालिदास के मेघदूत की शृंखला में नई प्रयोगधर्मिता के साथ मालवा की छवि को कल्पनाकुशल ढंग से अंकित किया है। यह छवि मात्र नैसर्गिक या सांस्कृतिक ही नहीं है, उसमें बहुत सारे आयाम अनायास ही समाहित हो गए हैं। इन सारे आयामों को कवि ने एक हरकारे (संदेशवाहक) के रूप में देशवासियों तक संप्रेषित करने के लिए समर्थ प्रयास किया। इसके अतिरिक्त अन्य गीत और कविताओं के माध्यम से भी उन्होंने स्वतंत्र भारत के संवर्धन, सुरक्षा, सद्भाव और सुसंगति के लिए भी जन - जन तक सरस संदेश पहुंचाए हैं, हरियाली आंचल के कर्मनिष्ठ हरकारा बनकर। उनके हरकारा रूप में कालिदास से लेकर कबीर तक और निराला से लेकर नवीन तक अनेक संदेशदाता कवियों की छवियों को महसूस किया जा सकता है।

भारत के लोक सांस्कृतिक परिदृश्य को देखें तो मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति की उत्कृष्टता पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास, डॉ श्याम परमार, डॉ चिंतामणि उपाध्याय, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ प्रह्लादचंद्र जोशी आदि के व्यापक प्रयत्नों से स्थापित तथ्य बन गई है। इधर मालवी की नई रचनाधर्मिता के मूल्यांकन - समीक्षण का अभाव सुधीजनों को खटकता रहा। इस दृष्टि से मालवी के प्रतिनिधि कवि श्री हरीश निगम के विविधायामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पुस्तक की योजना तैयार हुई, जो डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक हरियाले आंचल का हरकारा हरीश निगम के रूप में आपके सम्मुख है।

पुस्तक में पद्मभूषण सूर्यनारायण व्यास, पद्मभूषण डॉ शिवमंगलसिंह सुमन, श्री गोपालदास नीरज, सुल्तान मामा, डॉ चिंतामणि उपाध्याय, श्री बालकवि बैरागी, श्री मदनमोहन व्यास, डॉ शिव शर्मा, डॉ प्रभातकुमार भट्टाचार्य, श्री बटुक चतुर्वेदी, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ श्यामसुंदर निगम, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, डॉ शिवसहाय पाठक, आचार्य श्री निवास रथ, डॉ मोहन गुप्त आदि की टिप्पणियाँ और संस्मरण संकलित हैं।

सुधी साहित्यकार डॉ प्रहलादचंद्र जोशी, डॉ शिवकुमार मधुर, श्री नटवरलाल स्नेही, श्री राजशेखर व्यास, श्री रामरतन ज्वेल, श्री हरिनारायण व्यास, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, श्री मोहन सोनी, डॉ शिव चौरसिया, डॉ विष्णु भटनागर, श्री नरहरि पटेल, श्री चंद्रशेखर दुबे, श्री ललितनारायण उपाध्याय, प्रो हरीश प्रधान, अशोक वक्त, डॉ पूरन सहगल, डॉ विनय कुमार पाठक, डॉ भगीरथ बड़ोले, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, श्री बसंत निरगुणे,  श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय, डॉ जगदीशचंद्र शर्मा, डॉ हरीशकुमार सिंह, श्री वेद हिमांशु, डॉ रश्मिकांत व्यास, डॉ विलास गुप्ते, श्री झलक निगम, डॉ विवेक चौरसिया, श्रीमती उर्मिला निरखे, श्रीमती जयश्री भटनागर, डॉ राजी अशोक, श्रीमती मंजू निगम, श्री प्रदीप बैस, सीमा निगम आदि के आलेख, संस्मरण एवं टिप्पणियां इस पुस्तक में समाहित हैं। 

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम
संपादक : डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा
ऋषि मुनि प्रकाशन

20200520

पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय : कालमुखी तीर्थ के लोकोन्मुखी देवता -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Padmashri Pt. Ramnarayan Upadhyay : People oriented Deity of Kalmukhi Tirtha - Prof. Shailendra Kumar Sharma

कालमुखी तीर्थ के लोकोन्मुखी देवता : पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma  
 भारतीय लोक साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, संचयन और अनुशीलन की  परंपरा में पद्मश्री पंडित रामनारायण उपाध्याय (जन्म 20 मई 1918) का नाम अविस्मरणीय है। वे लोक मनीषी श्री रामनरेश त्रिपाठी, पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, विश्वनाथ काशीनाथ राजवड़े, श्रीधर व्यंकटेश केतकर, साने गुरुजी, डॉ सत्येंद्र, श्री देवेंद्र सत्यार्थी, डॉ  कृष्णदेव उपाध्याय,  डॉ श्याम परमार आदि की परंपरा के समर्थ संवाहक थे। लोक मनीषी पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष के समापन समारोह के अवसर को उनकी परम्परा के सार्थवाह श्री शिशिर उपाध्याय और परिवारजनों ने अविस्मरणीय बना दिया था। 20 मई 2018 को रामा दादा की जन्मस्थली कालमुखी, खंडवा में हुआ यादगार आयोजन आज भी चलचित्र की भाँति स्मृति पटल पर अंकित है, जिसमें देश के विभिन्न अंचलों के संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार और ग्रामवासी और परिवारजन बड़ी संख्या में जुटे थे। भाई शिशिर उपाध्याय, हेमन्त उपाध्याय और परिवारजनों ने पं उपाध्याय जी की कर्मभूमि साहित्य कुटीर के सामने एक गली के मुहाने पर खुला मंच बनाया था, जिसके तीनों ओर आबाल वृद्ध शाम ढलते ही जुटने लगे थे और देर रात तक लोक हृदय सम्राट पं उपाध्याय जी की यादों में डूबते - उतरते रहे। 

पण्डित उपाध्याय की जन्मशती की पूर्णाहुति के अवसर पर डॉ सुमन मनोहर चौरे ने रामा दादा की स्मृतियों में गोता लगाकर अनेक संस्मरण सुनाए। डॉ पूरन सहगल, प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ सुरेश कुशवाह, श्री शिशिर उपाध्याय ने दीपदीपन किया और दादा के संस्मरणों, व्यक्तित्व और कृतित्व के पृष्ठों को पलटा। अनेक लोक सर्जकों के संवाद और सम्मान का यह मौका अनूठा बन गया था। सभी लोग उस दिन दादा की कर्मस्थली कालमुखी को लोक तीर्थ के रूप में पा रहे थे, जिसका लोकोन्मुखी देवता आसमान में बिखरी चाँदनी के बीच मुस्कुरा रहा था।



दादा को लोक पर कार्य करने की प्रेरणा लोक में प्रचलित एक गणगौर गीत की दो पंक्तियों से मिली थी:
शुक्र को तारो रे ईश्वर ऊँगी रह्यो
तेकी मखsटीकी घड़ाओ।
शुक्र का तारा आसमान में चमक रहा है, उसकी मुझे बिंदी घड़वा दो।
विराट शृंगार की यह कल्पना उन्हें मुग्ध कर गई थी। फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। उन्होंने निमाड़ लोकांचल में बिखरे ऐसे ही अनेक मणि - माणिक्य जुटाए, जो आज भारतीय लोक विरासत पर गर्व का अवसर देते हैं।

पं उपाध्याय सही मायने में पृथ्वी पुत्र थे, ‘माता भूमि पुत्रोsहं पृथिव्याः’ को साकार करने वाले। उनके लिए लोक साहित्य कामधेनु की तरह है, वहाँ जिस कामना के वशीभूत होकर जाएँ, वह सहज प्राप्त हो जाता है। उनके लिए लोक गीत मनोभावनाओं का कोमल इतिहास है। जैसे हर व्यक्ति का खास व्यक्तित्व होता है उसी तरह हर लोक गीत का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है और वह अपने लिए विशिष्ट स्थान चाहता है।

वे भाषा की अमरता के उपासक हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा है कि एक - एक शब्द मार्कण्डेय की आयु लिए बैठा है। उपाध्याय जी उसे साक्षात् करते हैं। शब्द कोश तो बनाते ही हैं, वर्गीकृत रूप में शब्द भंडार भी सहेजते हैं। उनकी दृष्टि में जैसे हम लोग समूह में रहते हैं, वैसे ही शब्द भी समूह में रहते हैं, अंतर्क्रिया करते हैं। इस आधार पर उन्होंने शब्दों का वर्गीकरण कर अक्षय शब्द सम्पदा को सहेजा है।
निमाड़ और निमाड़ी को केंद्र में रखते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देश के लोक का प्रत्यक्षीकरण किया है। उनकी दृष्टि में लोक साहित्य, लोक मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का महाकाव्य है।

लोक संस्कृति के बदलते स्वरूप को लेकर भी उन्होंने विचार किया है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि लोक साहित्य में युग के अनुकूल अपने को ढालने और नए युग के मार्गदर्शन की क्षमता होती है। वे किसान से कहते हैं, तुम तो सजीव साहित्य के निर्माता हो। वे लोक की अजस्र शक्ति के विश्वासी थे, इसीलिए इन शक्ति स्रोतों की खोज में तल्लीन रहे, अपने लेखन के जरिये उसकी खोज का आह्वान करते रहे।

दादा ने लोक संस्कृति के अंतरप्रांतीय अध्ययन की राह खोली। रामा दादा ने पूरे देश के विभिन्न अंचलों के लोक साहित्य का अध्ययन किया एवं स्पष्ट किया कि बेटी की बिदाई का दर्द सभी लोक भाषाओं में एक सा है। उनकी विवेचनाओं में निमाड़ के साथ गुजरात, अवध, मिथिला, गढ़वाल - सब एक दूसरे से हिलेमिले दिखाई देते हैं। मालवा के साथ निमाड़ का रिश्ता बनाते हुए उन्होंने बहुत सुंदर रूपक रचा है, मालवी को यदि हम बाग - बगीचों में पली शकुंतला कहें तो निमाड़ी अरण्य वनों में से अपनी राह बनाने वाली सीता की तरह है। इसीलिए निमाड़ी में श्रम और संघर्ष प्रधान गीतों का प्राधान्य है। निमाड़ी जन की संघर्षशीलता को उन्होंने भीषण गर्मी के बीच मुस्कुराते पलाश के फूलों से तौला है। इसी चेतना को वे सब जगह देखते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रहार करती एक लोक लघुकथा को वे सुनाते हैं, जिस पर जितनी टिप्पणी की जाए, कम ही होगी। 

“न्हार न बकरी सी पूछ्यो
क्यों री बकरी मांस खायगा?
बकरी न कह्यो, म्हारो ज बची जाय तो भोत छे।“


उपाध्याय की दृष्टि में, सूरज सी रेत ज्यादा तपज, या फिर तू आदमी छै की तैसिलदार, या फिर गरीब का छोरा खs सरग पर बिगार और फिर उधई का वावल्ला मs भुजंग आदि, ये सब कहावतें निमाड़ के आम जन का भोगा हुआ यथार्थ ही तो हैं। उन्हें गांधी से जुड़े निमाड़ी लोक गीतों में निमाड़ वासियों की आशा के स्वर सुनाई देते हैं : 
ई खोटी पैसों नी खरी चांदी आयs।
ई हवा अन्धौळ नी गांधी आय।।

लोक भाषा, साहित्य एवं संस्कृति पर शोध के लिए प्रचुर सामग्री उन्होंने जुटाई थी, जो नए अनुसंधान कर्ताओं के लिए आज भी उपादेय है। शब्द भंडार, लोकोक्ति - मुहावरे, पहेली संचयन, लोक गीत और कथा संग्रह, हिंदी में प्रकाशित लोक साहित्य की सूची, मेलों की सूची, निमाड़ के तीर्थ, सन्त परम्परा, सन्तों के जन्म स्थान और  समाधियों की परिचयात्मक सूची - यह सब मिलकर शोध के लिए कई नवीन दिशाओं को खोलते हैं।

उन्होंने निमाड़ का जीवन रस संचित किया है। लोक विश्वास, लोक नाट्य, नृत्य, लोक अनुष्ठान, लोकाचार, क्या नहीं सहेजा उन्होंने। सहेज कर उसके मर्म को उद्घाटित भी किया है। उनकी रचनाओं में निमाड़ भरे पूरेपन के साथ धड़कता है। पं उपाध्याय ने हिंदी जगत् को निमाड़ी लोक साहित्य, संस्कृति और इतिहास से परिचित कराने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उनकी प्रमुख कृतियों में व्यंग्य, ललित निबन्ध, रूपक, रिपोर्ताज, लघु कथाएँ, संस्मरण आदि विधाओं में 30 से अधिक पुस्तकें शामिल हैं। हम तो बाबुल तेरे बाग की चिड़िया (लोक साहित्य), निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास , जब निमाड़ गाता है (लोक साहित्य), लोक साहित्य समग्र (लोक साहित्य), बक्शीशनामा, धुँधले काँच की दीवार, नाक का सवाल, मुस्कराती फाइलें, गँवईं मन और गाँव की याद, दूसरा सूरज आदि व्यंग्य संकलन हैं। जनम-जनम के फेरे (ललित निबन्ध), मृग के छौने (गद्य रूपक), जिनकी छाया भी सुखकर है तथा जिन्हें भूल न सका (संस्मरण), कथाओं की अंतर्कथा, चिट्ठी, मामूली आदमी आदि उल्लेखनीय हैं। 
रामा दादा एवं डॉ सुमन जी जैसे साहित्यकारों ने विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वाचनालय को अपना सद्साहित्य, प्राचीन ग्रंथ और अखबार देकर समृद्ध किया था। उनके साथ अंतरंग संवाद का अवसर मुझे गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के माध्यम से मिला था। जहाँ कहीं लोक का मन हास और अश्रु के साथ स्पंदित होगा, रामा दादा वही मौजूद रहेंगे।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन मध्यप्रदेश

20200518

कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

असमाप्त लिप्सा और दोहन से उपजे कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रो शर्मा का व्याख्यान : 

शोध धारा शोध पत्रिका, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान, उरई, उत्तर प्रदेश एवं भारतीय शिक्षण मंडल, कानपुर प्रान्त के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के समापन दिवस पर  व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। यह संगोष्ठी वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और भारत राष्ट्र : चुनौतियां संभावनाएं और भूमिका पर केंद्रित थी। 



संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि वर्तमान विश्व मनुष्य की असमाप्त लिप्सा और अविराम दोहन से उपजे संकट को झेल रहा है। अंध वैश्वीकरण, असीमित उपभोक्तावाद और अति वैयक्तिकता की कोख से उपजे कोविड - 19 संकट ने भारतीय मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली की प्रासंगिकता को पुनः नए सिरे से स्थापित कर दिया है। मनुष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। प्रकृति के साथ स्वाभाविक रिश्ता बनाते हुए अक्षय विकास के मार्ग पर चलकर ही इस संकट से उबरा जा सकता है। कोई भी महामारी तात्कालिक नहीं होती, उसके दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। इस दौर में उपजे बड़ी संख्या में विस्थापन, भूख, बेरोजगारी और बेघर होने के संकट को सांस्थानिक और सामुदायिक प्रयासों से निपटना होगा। अभूतपूर्व विभीषिका के बीच यह सुखद है कि हम भारतीय जीवन शैली, पारिवारिकता और सामुदायिक दृष्टि के अभिलाषी हो रहे हैं।

व्याख्यान सत्र के वक्तागण गोरखपुर के प्रो सच्चिदानंद शर्मा, पर्यावरण वेत्ता एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के वनस्पति विज्ञान विभाग के आचार्य डॉ अनिलकुमार द्विवेदी एवं डॉ संतोषकुमार राय, झांसी थे। 

प्रारम्भ में संगोष्ठी संयोजक डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने अतिथि परिचय एवं स्वागत भाषण दिया।

संचालन डॉ श्रवणकुमार त्रिपाठी ने किया। रिपोर्ट का वाचन डॉ नमो नारायण एवं डॉ अतुल प्रकाश बुधौलिया, उरई एवं आभार प्रदर्शन डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने किया। 



डॉ राजेश चन्द्र पांडेय
संपादक शोध पत्रिका शोध धारा एवं 
शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान
उरई, उत्तर प्रदेश

20200515

मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास - सम्पादक हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ हरीश प्रधान

मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास : सम्पा हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ हरीश प्रधान
Malav Sut Pt. Suryanarayan Vyas : Edited by Harish Nigam, Dr Shailendra kumar Sharma, Dr Harish Pradhan 

पं सूर्यनारायण व्यास के विलक्षण अवदान को सहेजती एक पुस्तक 

पुण्यश्लोक पं सूर्यनारायण व्यास ( 2 मार्च 1902 ई. - 22 जून 1976 ई.) विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे साथ कई रूपों - प्राच्यविद्या विद्, साहित्य मनीषी, इतिहासकार, सर्जक, पत्रकार, ज्योतिर्विद् और राष्ट्रीय आंदोलन के अनन्य स्तम्भ के रूप में सक्रिय रहे। महाकालेश्वर के समीपस्थ उनका निवास भारती भवन क्रांतिकारियों से लेकर संस्कृतिकर्मियों की गतिविधियों का केंद्र रहा। पं व्यास जी के विविधायामी अवदान पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास’ साहित्यकार श्री हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं डॉ हरीश प्रधान के सम्पादन में प्रकाशित हुई थी।



लोकमानस अकादमी एवं साँझी पत्रिका द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक के प्रथम खंड में पंडित सूर्यनारायण व्यास के व्यक्तित्व और विविधमुखी अवदान पर केंद्रित महत्वपूर्ण आलेखों का समावेश किया गया है। इस खंड के प्रमुख लेखक हैं -  कविवर डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, पुरातत्त्ववेत्ता श्री विष्णु श्रीधर वाकणकर, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, श्री परिपूर्णानंद वर्मा, आचार्य श्रीनिवास रथ, श्री बालकवि बैरागी, डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय, पंडित व्यास के सुपुत्र श्री राजशेखर व्यास, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ प्रहलादचंद्र जोशी, डॉ शिव चौरसिया, इब्बार रब्बी, श्री हरीश निगम, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, श्री मोहन सोनी, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, श्री परमात्मानंद पांडेय, श्री रमेश निर्मल, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ रश्मिकांत व्यास, श्री राजपाल आर्य, शिवनारायण उपाध्याय शिव, अभिमन्यु डिब्बेवाला, डॉ विवेक चौरसिया आदि। 

दूसरे खंड में पंडित व्यास की कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है। इनमें उनके चर्चित व्यंग्य आंखों देखी अपनी मौत, मूर्ति का मसला, अपनी आत्मकथा लिखना चाहता हूं - - - पर, कविता यह हिमशैल हमारा है आदि का समावेश किया गया है। इस खंड से स्पष्ट दिखाई देता है कि दशकों पहले हिंदी व्यंग्य को समर्थ बनाने में पं व्यास जी के प्रयत्न आज रंग ला रहे हैं। 

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास Book of Shailendra Kumar Sharma 



अनवरत यात्रा : सूर्योदय से सूर्यास्त तक के माध्यम से डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय एवं श्री राजशेखर व्यास ने पंडित व्यास जी की जीवन यात्रा के पड़ावों और उनके अवदान का रूपांकन किया है। श्री राजशेखर व्यास ने अपने लेख एक पत्र जिसने एक शहर बनाया के माध्यम से पंडित जी द्वारा स्थापित एवं संपादित मासिक पत्र विक्रम के अवदान की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है, जी हां, विक्रम नाम से सुशोभित यह मासिक पत्र उज्जैन से प्रकाशित हुआ था और न केवल प्रकाशित हुआ था, अपितु तत्कालीन मासिक सरस्वती, चांद, माधुरी, हंस, विश्वमित्र के स्तर से विक्रम का कोई भी अंक उन्नीस नहीं होता था। विक्रम के जन्म का श्रेय स्वर्गीय पांडेय बेचन शर्मा उग्र को दिया जाता है, जो 1942 में उज्जयिनी के भास्कर स्वर्गीय पंडित सूर्यनारायण व्यास के आवास भारती भवन में आकर ठहरे थे। उज्जैन उनको भा गया था। व्यास जी के एक मित्र सुपरिचित कन्हैयालाल चौरसिया का प्रेस था। चौरसिया जी प्रायः भारती भवन आते रहते थे। एक रोज अचानक पत्र की चर्चा चल पड़ी। वार्तालाप के दौरान चौरसिया जी उग्र जी से बहुत प्रभावित हुए और पत्र निकालने को राजी हो गए। व्यास जी संरक्षक बने, संपादक उग्र जी एवं संचालक चौरसिया जी बने और इस तरह अप्रैल 1942 को प्रथम अंक का प्रकाशन हुआ। इस लेख में श्री राजशेखर व्यास ने विक्रम में पं व्यास जी के सोलह पृष्ठीय संपादकीय की चर्चा की है, वहीं इस पत्र के संघर्षों, प्रेरणाओं और योगदान को बड़ी मार्मिकता से उद्घाटित किया है। 




प्रख्यात कवि डॉ शिवमंगल सिंह सुमन ने अपने लेख पुण्यश्लोक  प्रियदर्शी पंडित सूर्यनारायण व्यास  में पंडित व्यास की बहुमुखी प्रतिभा की चर्चा की है। उन्होंने ठीक ही लिखा है, जैसे जैसे समय बीत रहा है, लगता है कि व्यास जी के बिना उज्जयिनी की कल्पना नहीं की जा सकती। इस पुण्यतीर्थ के वे प्रबुद्ध प्रचेतस थे, रामझरोखे में बैठकर हरसिद्धि प्राप्ति में आने वालों का दर्शन करने वाले। मालव भूमि के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ऐसा एक प्रहरी सदियों बाद अवतरित हुआ था। आज का विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर और कालिदास स्मृति मंदिर के अप्रतिहत अनुष्ठान के प्रतीक हैं। कौन जान पाएगा कि  अवंती जनपद के स्वर्णिम अतीत को वर्तमान में ढालने के उसने क्या-क्या सपने संजोए थे।  प्रथम अखिल भारतीय कालिदास समारोह के ऐतिहासिक अधिवेशन का पुण्य पर्व आज भी प्रभात के सपने की स्मृति में सजीव बना हुआ है। पुष्यमित्र शुंग के बाद शायद ही ऐसी यज्ञ की वेदी इस भूमि में अवतरित हुई हो। अद्भुत दृश्य था, जब भारत का चक्रवर्ती सम्राट राष्ट्रपति राजेंद्रप्रसाद अपनी गरिमा के समस्त विधि - विधानों को भूलकर महर्षि व्यास की पीठ को नमन करने पहुंच गया था। 





पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर ने व्यास जी : अनेक मुखड़े - सभी उज्जवल निबन्ध के माध्यम से उनके जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला है। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी ने पंडित व्यास से जुड़े कुछ भीगे संस्मरण प्रस्तुत किए हैं। आचार्य श्रीनिवास रथ, डॉ बसंतीलाल बम,  डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ प्रह्लादचंद्र जोशी, श्री परिपूर्णानंद वर्मा, बालकवि बैरागी, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी आदि ने व्यास जी के बहुआयामी व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरणों को अपने आलेखों में प्रस्तुत किया है। मालवी कवि श्री हरीश निगम ने मालवी भाषा और साहित्य के उन्नायक के रूप में पंडित व्यास के योगदान की चर्चा की है। डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा ने पंडित व्यास के व्यंग्य विनोद लेखन के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला है।




पुस्तक के संपादक डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा ने मालवा की पत्रकारिता और विक्रम संपादक पंडित सूर्यनारायण व्यास  आलेख के माध्यम से  पंडित व्यास के  पत्रकारिता  कर्म  पर सविस्तार प्रकाश डाला है। डॉ शर्मा के अनुसार यद्यपि भारत में पत्रकारिता का आगमन पश्चिम की देन है, किंतु शीघ्र ही यह सैकड़ों वर्षों की निद्रा में सोये भारत की जाग्रति का माध्यम सिद्ध हुई। विश्वजनीन सूचना-संचार के इस विलक्षण माध्यम ने पिछली दो शताब्दियों में अद्भुत प्रगति की है। वहीं भारतीय परिदृश्य में देखें, तो हमारी जातीय चेतना के अभ्युदय, आधुनिक विश्व के साथ हमकदमी, स्वातंत्र्य की उपलब्धि और राजनैतिक-सामाजिक चेतना के प्रसार में हिन्दी पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। पत्रकारिता और साहित्य की परस्परावलंबी भूमिका और दोनों की समाज के प्रतिबिम्ब के रूप में स्वीकार्यता आधुनिक भारत का अभिलक्षण बन कर उभरी है, तो उसके पीछे जो स्पष्ट कारण नज़र आता है, वह है महनीय व्यक्तित्वों की साहित्य एवं पत्रकारिता के बीच स्वाभाविक चहलकदमी। ऐसे साहित्यिकों की सुदीर्घ परम्परा में विविधायामी कृतित्व के पर्याय पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास (1902 - 1976 ई.) का नाम अविस्मरणीय है, जिन्होंने देश के हृदय अंचल ‘मालवा’ की पुरातन और गौरवमयी नगरी उज्जैन से ‘विक्रम’ मासिक के सम्पादन-प्रकाशन के माध्यम से पत्रकारिता की ऊर्जा को समर्थ ढंग से रेखांकित किया। पं व्यास की पत्रकारिता की उपलब्धि अपने नगर, अंचल और राष्ट्र के पुनर्जागरण और सांस्कृतिक अभ्युदय से लेकर हिन्दी पत्रकारिता को नए तेवर, नई भाषा और नए औजारों से लैस करने में दिखाई देती है, जहाँ पहुँचकर राजनीति, साहित्य, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच की भेदक रेखाएँ समाप्त हो गईं। लगभग छह दशक पहले मालवा की हिन्दी पत्रकारिता के खास स्वभाव को गढ़ने से लेकर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आज उसकी अलग पहचान को निर्धारित करवाने में पं. व्यासजी और उनके ‘विक्रम’ की विशिष्ट भूमिका रही है।




डॉ शिव चौरसिया, शिवनारायण उपाध्याय शिव, अभिमन्यु डिब्बेवाला और मोहन सोनी ने अपनी कविताओं के माध्यम से पंडित व्यास जी को काव्यांजलि दी है। इस पुस्तक में श्री राजशेखर व्यास द्वारा उपलब्ध करवाए गए पं व्यास जी के अनेक दुर्लभ चित्र संजोए गए हैं। वस्तुतः व्यास जी की जन्मशती पर विविध प्रकल्पों के माध्यम से प्रसिद्ध लेखक और मीडिया विशेषज्ञ पं राजशेखर व्यास ने पितृ ऋण से अधिक राष्ट्र ऋण चुकाने का कार्य किया था। पण्डित व्यास जी के सम्बंध में ठीक ही कहा जाता है कि उनके जैसे वे ही थे। 




पुस्तक: मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास

सम्पादक: श्री हरीश निगम, डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा एवं डॉ. हरीश प्रधान
प्रकाशक: लोक मानस अकादेमी एवम् साँझी पत्रिका

20200512

स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. मोहन बैरागी

स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम - संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. मोहन बैरागी 

Stri Vimarsh : Parampra Aur Naveen Ayam - Prof. Shailendrakumar Sharma, Dr. Mohan Bairagi

संपादकीय :
स्त्री विमर्श महज एक बौद्धिक विमर्श नहीं है, यह व्यापक सामाजिक - सांस्कृतिक - वैचारिक परिवर्तन का माध्यम है। यह इस बात की ओर तीखा संकेत करता है कि यह दुनिया स्त्री के लिए शायद नहीं बनी है और अब स्त्री इसे फिर से बनाना चाहती है। पुरुषवर्चस्ववादी समाज के बीच विलम्ब से ही सही, स्त्री विमर्श को मुकम्मल जगह मिल गई है। समकालीन चैंतनिक परिदृश्य  में यह विमर्श एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बन गया है। साहित्य और संस्कृति के फलक पर इसकी व्याप्ति जहाँ विचारोत्तेजक रही, वहीं निरंतर जटिल होती सामाजिक - आर्थिक संरचना के बरअक्स इसके कई नए आयाम उभरे हैं।

यह तय बात है कि आज भारतीय समाज में सदियों पुरानी नारी स्थिति से पर्याप्त अंतर आ गया है, किन्तु यह भी सच है कि भारतीय समाज के वैचारिक दायरे में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आ सका है। नारी के उद्विकास को पुरुष वर्चस्ववादी समाज ने स्वीकारना भले ही शुरू कर दिया है, किंतु उसकी समस्याएँ कई नए रूप-रंगों में ढलकर सामने आ रही हैं।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक स्त्री विमर्श परम्परा और नवीन आयाम Book of Shailendra Kumar Sharma 

वैश्विक परिदृश्य में स्त्रियों के संघर्ष और सशक्तीकरण की दिशा में व्यापक प्रयास हुए हैं। इधर भारत में पुनर्जागरण के दौर में स्त्री अधिकारों के प्रति व्यापक सजगता प्रारंभ हुई, वहीं राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागिता के साथ समानांतर शैक्षिक और सांस्कृतिक बदलाव में स्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आधुनिक भारतीय परिप्रेक्ष्य में अनेक स्त्री रत्नों ने व्यापक प्रयास किए, जिनमें सावित्रीबाई फुले, रमाबाई आंबेडकर, एनीबेसेंट,  काशीबाई कानिटकर, भगिनी निवेदिता, भीकाजी कामा, कुमुदिनी मित्रा, लीलावती मित्रा, कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि उल्लेखनीय हैं।

स्त्री विमर्श : परम्परा और नवीन आयाम पुस्तक में स्त्री विमर्श के विविध सरोकारों पर अन्तरानुशासनिक दृष्टि से गम्भीर पड़ताल हुई है। नारी विमर्श को लेकर साहित्यिक, सांस्कृतिक, समाजवैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, दार्शनिक आदि अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। इस पुस्तक के माध्यम से यह पड़ताल भी सम्भव हुई है कि समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में नारी जीवन से जुड़ी विद्रूपताओं और विसंगतियों के विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर मुखरित हैं। विवेचना के केंद्र में कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोरा, नासिरा शर्मा, कमल कुमार, मेहरून्निसा परवेज, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता आदि का कथा साहित्य रहा है। स्त्री कविता में नारी के अंतर्बाह्य संघर्ष और परिवर्तनकारी प्रयत्नों की आहट को इस पुस्तक में महसूस किया जा सकता है। पुरुष रचनाधर्मिता के परिप्रेक्ष्य में नारी विमर्श के स्वर भी इस पुस्तक में मुखरित हुए हैं।

पुस्तक में यू.एस.ए. की विदुषी डॉ. अम्बा सारा कॉडवेल ने अपने विशेष आलेख 'Shakti and Shakta' के माध्यम से भारत में शक्ति पूजा की परम्परा एवं अनेक दर्शनों के आलोक में नारी विमर्श के विविध आयामों की गम्भीर पड़ताल की है। उन्होंने माना है कि भारत में शक्ति रूप में नारी के महत्त्व और उसके प्रभाव की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। यह संपूर्ण विश्व में अद्वितीय है। दक्षिण एशियाई धर्मों में देवी की उदात्त और सुंदर छबियों को जन्म मिला, जिन्हें दुनिया ने कभी नहीं देखा था। उन्हें हम अत्यधिक रहस्यात्मक और सशक्त कह सकते हैं। मिनिएचर पेंटिंग, मूर्ति शिल्प आदि अनेक माध्यमों से दुर्गा, काली, सीता, राधा आदि की महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। शैव और शाक्त दर्शनों के माध्यम से देवी आराधना के कई रूप प्रकट होते हैं, जहाँ स्त्री को विद्या, विजय, आनन्द और सृजन के स्रोत के रूप में महिमा मिली है।

पुस्तक में स्त्री विमर्श की परंपरा को नए आयामों में रूपांतरित होते हुए देखा जा सकता है। स्त्री विमर्श  पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ मुखर होने के बाद  अब व्यापक मनुष्यता की दिशा में गतिशील है। और यह स्त्रियों के लंबे संघर्ष से ही संभव हो सका है।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

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