आज क्यों ज्यादा याद आते हैं कबीर
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
मानवीय जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है- चहुँ ओर व्यापती असहजता। उसी के चलते कई तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं का प्रसार होता आ रहा है। भारत की अछोर कवि माला के अद्वितीय कवि कबीर इस संकट से भली - भांति परिचित थे, इसीलिए वे व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन में सहज होने की पुकार लगाते हैं। आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः का वैदिक सूक्त कबीर के यहां चरितार्थ हुआ है। वे भी ऋषियों की भाँति इस बात का संदेश देते हैं कि हमारे लिए सब ओर से कल्याणकारी विचार आएं।
मध्यकालीन अराजकता और सामंती परिवेश में असहजता का कोई प्रतिपक्ष रचता है तो वह कबीर ही है। कबीर का व्यक्तित्व और कर्तृत्व अत्यंत सहज है, किन्तु जब वे देखते हैं कि संसारी जीव सहजता के मार्ग से बहुत दूर चले आए हैं, तब वे क्रांति चेतना से संपृक्त हो आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं। आज के असहजता से भरे विश्व में उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ती जा रही है। वे सहजता के साथ सत्य और सदाचरण पर विशेष बल देते हैं :
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहावै सोइ॥
सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय सांच है, ताके हिरदय आप।।
भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति का बहुआयामी विस्तार भक्ति काल में हुआ, जो अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। देश के विविध क्षेत्रों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश भक्त कवि पहले की भक्तिपरक गीति परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी।
देशव्यापी भक्ति आंदोलन और भक्ति - दर्शन सर्वसमावेशी है। इसने 'सर्वे प्रपत्ति अधिकारिणः' के सूत्र को मैदानी तौर पर साकार करने में महती भूमिका निभाई है। सदियों से सामाजिक जकड़न, असमानता और पुरोहितवाद से मुक्ति की राह खोली। देश के सभी भागों के भक्तगण विविध वर्ग और जातियों से आए थे, किन्तु वे सभी एक सूत्र में बंधे थे और समूचे समाज को इसी का सन्देश देते रहे। फिर उनके लिए मन ही तीर्थ था और मन ही ईश्वर का वास स्थान।
मध्यकाल में दक्षिण भारत के आलवार संतों ने जिस भक्ति आंदोलन का प्रवर्तन किया था, उसके स्वर से स्वर मिलते हुए भक्तों और संतों ने भारत के सुदूर अंचलों तक विस्तार देने में महती भूमिका निभाई। दक्षिण से उत्तर भारत की ओर प्रवाहित भक्ति आंदोलन ने शेष भारत के विविध अंचलों पर गहरा प्रभाव डाला। यह प्रभाव भक्ति की लोक-व्याप्ति, सहज जीवन-दर्शन, सामाजिक समरसता के प्रसार, जनभाषाओं के विस्तार जैसे कई स्तरों पर दिखाई देता है। देश के विभिन्न स्थानों पर हुए भक्तों की महिमा की अनुगूँज उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सुनाई देती है। यहाँ तक कि उनके अनेक समकालीन और परवर्ती भक्तों ने ऐसे भक्तों को भक्ति के प्रादर्श के रूप में महिमान्वित किया। इन लोगों ने क्षेत्र, भाषा और वर्ग की दीवारों को समाप्त करने में अविस्मरणीय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र के अनेक भक्त-कवियों ने न केवल मराठी में भक्तिपरक काव्य की रचना की, हिंदी साहित्य को भी अपनी भक्ति-रचनाओं से समृद्ध किया। नामदेव तो एक तरह से उत्तरी भारत की संत-परम्परा के आदिकवि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र से चलकर सम्पूर्ण देश की यात्रा की और भक्ति का पथ प्रशस्त किया। इस परम्परा को स्वामी रामानन्द, कबीर, नानक, रैदास, सेन, पीपा, मीरा आदि ने आगे बढ़ाया। स्वामी रामानन्द के द्वादश भागवतों में प्रमुख- सन्त कबीर, सन्त रैदास, सन्त पीपाजी, सन्त सेनजी आदि गुरुभाई थे, जिनका दीर्घावधि तक साथ रहा। वे भी नामदेव की महिमा को मुक्त कंठ से गाते हैं। स्वयं सन्त कबीर वर्णन करते हैं:
सन्तन के सब भाई हरजी
जाती बरन कुल जानत नाहीं लोग के चतुराई
शबरी जात भिलीनी होती बेर तोर के लाई।
प्रीती जान वांका फल खात तीनरू लोक बढ़ाई।।
करमा कौन आचरण किनी हरि सो प्रीती लगाई।
छप्पन भोग की आरोगे पहिले खिचरी खाई।।
नामा पीपा और रोहिदास उन्होंने प्रीती लगाई।
सेन भक्त को संशय मेट्यो, आप भये हरि नाई।
सहस्र अठासी ऋषि मुनि होत, तबहु न संख बाजे।
कहत कबीर सुपचके आये संख्या भगत होय गाते॥
भक्तिकाल भारत के अंतर - ब्राह्य पुनर्जागरण का काल है, जहाँ एक साथ समूचे देश में वर्ग, सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र की हदबंदियों को तोड़कर पूरे समाज को समरस बनाने का महत् कार्य भक्तों-संतों ने किया था। भक्ति की लोक-गंगा को विशिष्ट गति और लय से बाँधते हुए उसका पाट चौड़ा करने का कार्य जिन रचनाकारों ने किया है, उनमें महाराष्ट्र सहित अनेक क्षेत्रों के भक्तों-संतों का अनुपम स्थान है। भक्ति कभी साधन रही है, किन्तु संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, कबीर, रैदास, गुरुनानक देव, रामदास, एकनाथ, तुकाराम, तुलसी, मीरा आदि के लिए यह सिद्धि का पर्याय रही है। वस्तुतः पंचम पुरुषार्थ के रूप में महिमान्वित भक्ति के सामने बड़े-बड़े दार्शनिक मतवाद विवश हो जाते हैं।
नाभादास ने अपने भक्तमाल के दो छप्पयों में कबीर के विषय में महत्त्वपूर्ण संकेत किए हैं। वे रामानन्द के जग मंगलकारी शिष्यों में कबीर की परिगणना कुछ इस तरह करते हैं:
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियौ।
अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि।
पीपा भामानन्द रैदास धना सेन सुरसरि की धरहरि।।
औरों शिष्य प्रशिष्य एक तैं एक उजागर।
जग मंगल आधार भक्ति दशधा के आगर।।
बहुत काल वपु धारिकै प्रणत जनत को पार दियौ। श्री रामानन्द रघुनाथ . . .
कबीर के साहित्य में उनके अपने समय की ही नहीं, काल प्रवाह में उभरती अनेक विसंगतियों से मुकाबले का रास्ता साफ नजर आता है। इसीलिए वे जितने अपने समय में प्रासंगिक थे, उससे कम आज नहीं होंगे। कबीर की पीड़ा में समूचे समाज की पीड़ा समाहित है, जिसके बिना कोई भी कवि बड़ा कवि नहीं बन सकता है:
सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।।
लोक की पीड़ा से त्रस्त कबीर ऐसे जीवन मूल्यों की तलाश का प्रयास करते हैं, जिनके द्वारा आदमी-आदमी को विभाजित करने वाली दीवारों को ध्वस्त किया जा सके। मानवनिर्मित वर्ण, जाति, धर्म, रंग, नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े हुई मानवीय एकता का पुनर्वास हो जा सके। प्रेम, सत्य, अहिंसा, विनय, करुणा, कृतज्ञता, समर्पण, आत्मगौरव जैसे उदात्त मूल्यों की पुनर्स्थापना हो, जिनकी आवश्यकता प्रत्येक देश और काल के समाज को बनी रहेगी। कबीर की दृष्टि में प्रेम की पीड़ा में ही सभी प्रकार के विलगाव और विभेद की औषधि है। विश्वव्यापी हिंसा, परस्पर भेद, अशांति, युद्ध के बीच कबीर इसीलिए बार बार याद आते हैं।
कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥
दृष्टि से ही सृष्टि बनती है, सृष्टि से दृष्टि नहीं बनती। कबीर की कविता इस बात का उदाहरण है। वैसे तो सामान्य परिस्थितियों में ही कबीर याद आते हैं, लेकिन विभीषिका के दौर में वे और अधिक याद आते हैं। वे लगातार ऐसे मूल्यों की खोज करते हैं जो अमानवीयता, असमानता और विभेद को नष्ट करें। जीवन दृष्टि के विकास में किसी कवि या संत का क्या महत्त्व होता है, यह कबीर के नजदीक आने से स्पष्ट होता है।
कबीर एक ओर विसंगतियों से भरे समाज के आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं, तो दूसरी ओर उसी समाज के प्रति स्नेह के रहते उसे नए रूप में ढालने का उपक्रम भी करते हैं। इस दृष्टि से कबीर के प्रतिपाद्य को दो भागों में देखा जा सकता है, पहला रचनात्मक और दूसरा आलोचनात्मक। रचनात्मक हिस्से में वे नीतिज्ञ हैं। इस रूप में वे मानव मात्र को सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, संतोष, उदारता जैसे गुणों को अंगीकार करने का मार्ग सुझाते हैं। आलोचनात्मक हिस्से में वे समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड, जातिप्रथा, मिथ्याडंबर, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का खंडन करते हैं। उन्होंने मानवीय सभ्यता से जुड़े प्रायः सभी क्षेत्रों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी बात निर्भीकता से कही। हिंदुओं और मुसलमानों को उनके पाखण्ड के लिए फटकार लगाई। साथ ही उन्हें सच्चे मानव धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे समस्त प्रकार की भ्रांतियों को निस्तेज करते हैं-
सेवैं सालिगराँम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़े काला कापड़ा, नाँव धरावैं सेत॥
जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेविया, यों जग चल्या निरास॥
तीरथ त सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि॥
कबीर दुनियाँ देहुरै, सीस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तूँ ताही सौ ल्यौ लाइ॥
भारतीय लोकतंत्र की स्थापना में कबीर प्रतिबिंबित हैं। भारतीय संविधान में कबीर सहित भारतीय मध्यकालीन संतों की आत्मा बसती है। हमारा संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधारों पर टिका हुआ है। यह तीनों परस्पर पूरक है, अंतरावलम्बी हैं। इनमें से कोई एक भी कमजोर होगा तो शेष दोनों भी कमजोर हो जाएंगे। पहले कबीर ने इन्हें आगे बढ़ाया, फिर महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर इन्हें आगे बढ़ाते हैं। कबीर का संघर्ष व्यर्थ नहीं गया है, उनके अपने समय में और परवर्ती समय पर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा है। वे आज ज्यादा याद आते हैं।
(यह आलेख भारतीय विचार मंच नागपुर एवं अक्षर वार्ता अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका द्वारा आयोजित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रस्तुत प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा के व्याख्यान पर आधारित है।)