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20200703

कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति – प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति – प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा





भारतीय इतिहास का मध्ययुग भक्ति आन्दोलन के देशव्यापी प्रसार की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखता है। वैदिककाल से लेकर मध्यकाल के पूर्व तक आते-आते पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में भारतीय मूल्य-चिंतन परम्परा का सम्यक् विकास हो चुका था, किंतु मध्य युग में भक्ति की परम पुरुषार्थ के रूप में अवतारणा क्रांतिकारी सिद्ध हुई। मोक्ष नहीं, प्रेम परम पुरुषार्थ है- प्रेमापुमर्थो महान् के उद्घोष ने लोक जीवन को गहरे प्रभावित किया। यहाँ आकर भक्त की महिमा बढ़ने लगी और शुष्क ज्ञान की जगह भक्ति ने ले ली। 






भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। हिन्दी एवं अन्य भाषाई प्रदेशों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश कृष्णभक्त कवि पहले की कृष्णपरक लोक गीत परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी। 


कृष्ण भक्ति काव्यधारा के उद्गम की दृष्टि से दक्षिण भारत के आळ्वार सन्तों के भक्ति काव्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भक्त कवियों का बहुत बड़ा योगदान लोकगीतों में अनुस्यूत भक्ति धारा को संस्कारित करने के साथ ही शास्त्रोक्त भक्ति को लोकव्याप्ति देने में है। अष्टछाप के कवियों में सम्मिलित सूरदास, नंददास, चतुर्भुजदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी और छीतस्वामी के साथ ही मीराँ, रसखान, नरसिंह मेहता, प्रेमानंद, चंद्रसखी, दयाराम आदि का योगदान अविस्मरणीय है। इनमें से अधिकांश कवियों ने शास्त्रीय वैष्णव भक्ति-शास्त्र से प्रेरणा अवश्य प्राप्त की, किन्तु वे लोक-धर्म और लोक-चेतना से अधिक सम्पृक्त थे। उनके चरित्र, वर्ण्य विषय, छन्द, भाषा, विचार-पद्धति आदि में शास्त्रीयता के बजाय लोक-चेतना प्रबल है। श्रीमद्भागवत महापुराण के लीलागान की पद्धति से प्रेरणा लेकर भी सूरदास, नंददास आदि का काव्य उसका अनुवाद नहीं है। इन कवियों ने उत्तर भारत के लोकधर्म से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है और अपनी मौलिक उद्भावनाएँ भी की हैं।

मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्यधारा और कला रूपों का प्रसार देश के विविध लोकांचलों में हुआ है। यह धारा जहाँ भी गई, वहाँ की स्थानीय रंगत से आप्लावित हो गई। फिर वह चाहे पश्चिम भारत में मालवा-राजस्थान हो या गुजरात-महाराष्ट्र अथवा पूर्व में उड़ीसा-बंगाल या सुदूर पूर्वोत्तर में असम हो या मणिपुर, उत्तर में हिमाचल-हरियाणा या ब्रजमंडल हो या दक्षिण में केरल-तमिलनाडु सभी की लोक-संस्कृति की सुवास कृष्ण भक्ति काव्य और कला रूपों में परिलक्षित होती है, वहीं कृष्ण भक्ति के प्रतिमानों ने भी विविध लोकांचलों को अपनी सुवास दे दी है। वस्तुतः कृष्ण भक्ति काव्य ने अपने ढंग से पूरे देश को सांस्कृतिक-भावात्मक ऐक्य के सूत्र में बाँधा है, जिसमें लोक-चेतना की अविस्मरणीय भूमिका देखी जा सकती है। लोक-जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जिसे कृष्णकाव्य और कला रूपों ने न छुआ हो या जिस पर इस धारा की अमिट छाप अंकित न हुई हो।

कृष्ण भक्ति काव्य में लोक-पर्व, व्रत और उत्सवों का जीवंत चित्रण हुआ है। इस काव्य में कृष्ण सच्चे लोकनायक के रूप में जीवन के समूचे राग-रंग, हर्ष-उल्लास में शिकरत करते नजर आते हैं। कृष्णभक्ति काव्य ने जहाँ लोक परम्परा से चले आ रहे पर्वोत्सवों को सहज-तरल अभिव्यक्ति दी है, वही किसी एक अंचल की लोक-परम्पराओं को अन्य अंचलों तक प्रसारित भी किया है। इस काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण देन यह भी है कि काल-प्रवाह में विस्मृत होतीं कई लोक-परम्पराएँ न सिर्फ इसमें जीवित हैं, वरन् उन्हें समय-समय पर पुनराविष्कृत करने की संभावनाएँ भी मूर्त होती रही हैं।


 – प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 
मध्य प्रदेश







(भक्ति काल : कृष्ण काव्य के विविध आयाम पर केंद्रित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन रूसी – भारतीय मैत्री संघ (दिशा), मास्को, रूस एवं बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना, बिहार द्वारा किया गया। इस अवसर पर प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा, प्रोफेसर अवनीश कुमार, डॉ सुमन केसरी, डॉक्टर दिनेश चंद्र झा के व्याख्यान की छबियाँ  समाहित हैं। संयोजन डॉ मोनिका देवी ने किया था।)


भारतीय भक्ति आंदोलन और गुरु जंभेश्वर जी - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

भारतीय भक्ति आंदोलन और गुरु जंभेश्वर जी - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 

सहस्राब्दियों से चली आ रही भारतीय संत परम्परा के विलक्षण रत्न गुरु जम्भेश्वर जी (संवत् 1508 - संवत् 1593) भारत ही नहीं, वैश्विक परिदृश्य में अपनी अनूठी पहचान रखते हैं। भारतीय भक्ति आंदोलन में उनका योगदान अद्वितीय है। उनकी वाणी न केवल सदियों से वसुधैवकुटुंबकम् की संवाहिका बनी हुई है, उसमें प्रत्येक युगानुरूप प्रासंगिकता देखी जा सकती है। गुरु जम्भेश्वर जी ने जीवन और अध्यात्म साधना के बीच के अन्तरावलम्बन को पाट दिया था और भक्ति को व्यापक जीवन मूल्यों के साथ चरितार्थ करने की राह दिखाई। कतिपय विद्वानों ने भक्ति को बाहर से आगत कहा है, आलवार  सन्तों से लेकर जंभेश्वर जी की वाणी भक्ति की अपनी जमीन से साक्षात् कराती है।


गुरु जंभेश्वर जी


हम स्वर्ग और अपना नरक खुद बनाते हैं। कोई अलौकिक तत्व नहीं है जो इसका निर्धारक हो। अँधेरे और राक्षसी वृत्ति के साथ चलना सरल है, उनसे टकराना जटिल है। दूसरी ओर प्रकाश और अच्छाई के साथ चलना कठिन है, लेकिन वास्तविक आनन्द प्रकाश और देवत्व में ही है। जंभेश्वर जी की वाणी इसी बात को व्यापक परिप्रेक्ष्य में जीवंत करती है। वे सही अर्थों में महान युगदृष्टा थे। उन्होंने अपने समय में निर्भीकतापूर्वक समाज-सुधार का जो प्रयास किया, वह अद्वितीय है। वर्तमान युग के तथाकथित समाज सुधारक भी ऐसा साहस नहीं दिखा सकते जो जम्भेश्वर जी ने धार्मिक उन्माद से ग्रस्त तत्कालीन युग में दिखाया था। एक सच्चे युग-पुरुष की भांति उन्होंने तमाम प्रकार के परस्पर विद्वेष, अंध मान्यताओं, रूढ़ियों, अनीति-अनाचारों एवं दोषों पर प्रबल प्रहार करते हुए समाज को सही दिशा-निर्देश  किया।


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

उन्होंने चराचर जगत में एक ही तत्त्व का सामरस्य देखा था। इसी के आधार पर गुरु जम्भेश्वर जी ने पारस्परिक प्रेम और सद्भाव,  पर्यावरण संरक्षण, विश्व शांति, सार्वभौमिक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा, सामाजिक जागरूकता, प्राचीन ज्ञान परम्परा की वैज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या जैसे अनेक पक्षों को गहरी संवेदना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी वाणी और मैदानी प्रयासों से साकार किया। उनका प्रसिद्ध सबद है : 
जा दिन तेरे होम न जाप न तप न किरिया, जाण के भागी कपिला गाई।
कूड़तणों जे करतब कीयो, नातैं  लाव न सायों। 
भूला प्राणी आल बखाणी, न जंप्यो सुर रायों। 
छंदे कहाँ तो बहुता भावै, खरतर को पतियायों। 
हिव की बेला हिव न जाग्यो, शंक रह्यो कंदरायों। 
ठाढ़ी बेला ठार न जाग्यो ताती बेला तायों। 
बिम्बे बेलां विष्णु ने जंप्यो, ताछै का चीन्हों कछु कमायों। 
अति आलसी भोला वै भूला, न चीन्हो सुररायों। 
पारब्रह्म की सुध न जाणीं, तो नागे जोग न पायो।
परशुराम के अर्थ न मूवा, ताकी निश्चै सरी न कायो।

उनका संकेत साफ है कि मनुष्य ने अपने कर्तव्य कर्मों को विस्मृत कर कामधेनु को दूर कर दिया है। वह अपने मूल रूप को न पहचान कर सदाचार से दूर बना रहता है। जब कभी सद्विचार मिले भी तो शंकित बना रहता है। समय बीतता रहता है, किंतु भरम में डूबा रहता है।  नासमझी में सही समय पर भक्ति के प्रवाह में न डूबकर अपना अहित ही करता है। परम सत्ता से परे केवल बाह्याचारों से कुछ मिलता नहीं है, वे तो भ्रम ही पैदा करते हैं। इसलिए परशुराम के अर्थ को पहचानना होगा, जिन्होंने समाज को सद्मार्ग पर ले जाने के लिए दृढ़ संकल्प लिया था और निभाया भी।

यह एक स्थापित तथ्य है कि गुरु जम्भेश्वर जी द्वारा प्रस्तुत वाणी और कार्य अभिनव होने के साथ ही जन मंगल का विधान करने वाले सिद्ध हुए हैं। वे मनुष्य मात्र की मुक्ति की राह दिखाते हुए कहते हैं कि ‘हिन्दू होय कै हरि क्यों न जंप्यो, कांय दहदिश दिल पसरायो’, तब उनके समक्ष जगत का  वास्तविक रूप है, जिसे जाने बिना लोग इन्द्रिय सुख में डूबे रहते हैं। इसी तरह जब वे कहते हैं कि ‘सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी बन रायो’ तब उनके सामने वनस्पतियों के संरक्षण – संवर्द्धन का प्रादर्श बना हुआ है, जिसे जाने – समझे बगैर पर्यावरणीय संकटों से जूझ रही दुनिया का उद्धार सम्भव नहीं है। 


फेसबुक पर व्याख्यान का प्रसारण देखा जा सकता है: 
 - प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक  
विक्रम विश्वविद्यालय 
उज्जैन मध्य प्रदेश











(मुंबई विश्वविद्यालय, मुम्बई और जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर द्वारा आयोजित मध्यकालीन काव्य का पुनर्पाठ और जांभाणी साहित्य पर एकाग्र दो दिवसीय  अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान की छबियाँ और व्याख्यान सार दिया गया है। आयोजकों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं)

20200603

अभिनवगुप्त पादाचार्य एवं रस और व्यंजना चिंतन - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Abhinavagupta and the Thought of Rasa and Vynjana - Prof. Shailendra Kumar Sharma

अभिनवगुप्त पादाचार्य एवं रस और व्यंजना चिंतन  - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

Abhinavagupta and the Thought of Rasa and Vynjana 
- Prof. Shailendrakumar Sharma 
भारत की सुदीर्घ ज्ञान परम्परा के विलक्षण     व्यक्तित्व आचार्य अभिनव गुप्तपाद   (960 - 1020 ई.) विविधायामी कृतित्त्व के पर्याय हैं। वे एक साथ गम्भीर दार्शनिक, रहस्यवादी, सौंदर्यशास्त्री, संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, पाण्डुलिपिज्ञ, वेदान्तज्ञ और तर्कविद् थे। उनके बहुज्ञ व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव भारतीय आचार्यों पर पड़ा। अपने जीवन में उन्होंने पैंतीस से अधिक ग्रन्थों का लेखन किया, जिनमें से सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध तंत्रालोक है, जो कौल और त्रिक के सभी दार्शनिक और व्यावहारिक पहलुओं पर केंद्रित एक विश्वकोशीय ग्रंथ है और उसे आज हम कश्मीरी शैव दर्शन के रूप में जानते हैं। अभिनवगुप्त अद्वैत आगम और प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें अनेक  चिन्तनों का समाहार है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तंत्रालोक में महायोगी गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ का उल्लेख किया है, जिनकी समाधि पुरातन नगरी उज्जैन में गढ़कालिका मंदिर और भर्तृहरि गुफा के मध्य स्थित है। वे इस ग्रन्थ में मच्छंद विभु (मीननाथ) को नमन करते हैं, इससे सिद्ध होता है कि उन्होंने नाथ पंथी साधना को आत्मसात किया था। 



कश्मीरी शैव दर्शन के स्तम्भों में एक अभिनवगुप्त ने काव्यशास्त्रीय चिंतन को दर्शन की आधार भूमि पर उत्कर्ष पर पहुँचाया। शब्दशक्ति, ध्वनि और रस चिंतन को उन्होंने व्यापक फलक दिया था। आचार्य आनंदवर्धन (नवीं शताब्दी) के ग्रंथ ध्वन्यालोक  की लोचन टीका के माध्यम से उन्होंने शब्द शक्ति और ध्वनि विमर्श में  महत्त्वपूर्ण  योगदान दिया। संस्कृत साहित्यशास्त्र की परंपरा में व्यंजना की स्थापना का जो प्रथम प्रयास आचार्य आनंदवर्धन ने किया था, उसे अभिनव गुप्त की गहन विवेचना से व्यापक आधार मिला। अभिनवगुप्त ने अभिधा,  लक्षणा आदि को व्यापार और शक्ति दोनों कहा है। साहित्याचार्यों ने सामान्य रूप से शक्ति, व्यापार और वृत्ति को समानार्थक माना है। आचार्य अभिनवगुप्त अभिधा व्यापार और व्यंजना व्यापार को ही शब्द का धर्म कहकर अभिधा की महत्ता भी मान्य करते हैं। उनके अनुसार काव्य में जब शब्द के ये दोनों व्यापार संश्लिष्ट रूप में क्रियाशील होते हैं, तब उनके पौर्वापर्य क्रम का पता भी नहीं चलता और वे रस आदि की प्रतीति में परिणत हो जाते हैं। यह रस आदि की प्रतीति ही काव्य में शब्द प्रयोग का  साध्य भी है।

अभिनवगुप्त ने व्यंजना विरोधियों के मतों का साधार निराकरण कर अभिधा, लक्षणा और तात्पर्य से भिन्न चौथे व्यापार के रूप में व्यंजना को स्थापित किया। उनकी दृष्टि में इस व्यापार को ध्वनन, द्योतन, प्रत्यायन, अवगमन आदि शब्दों द्वारा निरूपित किया जा सकता है।




मूल सिद्धांतकारों से टीकाकार का महत्त्व कम नहीं है, यह बात कश्मीरवासी अभिनवगुप्त पादाचार्य के महत्त्वपूर्ण टीका ग्रंथों से सिद्ध होती है। उन्होंने आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक की लोचन टीका और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की अभिनव भारती टीका का प्रणयन किया, जो भारतीय काव्यशास्त्र की महनीय उपलब्धि हैं। ध्वन्यालोक की टीका की कुछ पाण्डुलिपियों का नाम 'सहृदयालोकलोचनम्' और  'काव्यालोकलोचनम्' भी मिलता है। ‘ध्वन्यालोक’ पर ‘चंद्रिका’ टीका उपलब्ध थी, तब प्रश्न उठा कि ‘लोचन’ के लेखन की क्या आवश्यकता? आचार्य अभिनव गुप्त ने इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दिया:  

किं लोचनं विनाऽऽलोको भाति चन्द्रिकयोऽपि हि।
तेनाभिनवगुप्तोऽत्र लोचनोन्मीलनं व्यघात्। 

‘क्या लोचन नहीं है, तब तक चंद्रिका से ही यह लोक चमक सकता है? जाहिर है जब तक लोचन - नेत्र नहीं हैं, तब तक चंद्रिका के चमकने की प्रतीति हो ही नहीं सकती। इसीलिए अभिनवगुप्त ने लोचन का उन्मीलन किया। 

साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में अभिनव गुप्तपाद का दूसरा अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान है, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर उनकी टीका अभिनवभारती। यदि यह टीका उपलब्ध न होती तो नाट्यशास्त्र के मर्म को समझना मुश्किल होता। रस निष्पत्ति की  व्याख्या अभिव्यक्तिवाद  इसी  टीका ग्रंथ  का अवदान है। वस्तुतः भारत में रसजन्य आनंद को सर्वोपरि महत्ता मिली है। यह रसानन्द योगियों के ब्रह्मानन्द के समान माना गया है। सौंदर्यानुभूति एक प्रकार की आनंदमयी चेतना है। इससे परम आह्लाद की अनुभूति होती है। यह सुख-दुख के सीमित दायरे के ऊपर की अवस्था है। सौंदर्य की अनुभूति, प्रक्रिया में ऐंद्रिय होकर भी, अपनी चरम परिणति में चिन्मय बन जाती है। नाट्य के आस्वाद के दौरान रसानुभूति के क्षणों में मनुष्य का सत्त्वप्रेरित मानस रसनिष्ठ आनंद का अनुभव करता है। आनंद के व्यापक स्वरूप में सौंदर्यानुभूति अंतर्निहित है। नाट्य का सौंदर्य साधारणीकरण में है, जिसे हमारे यहाँ विशेष महत्त्व मिला है। अभिनवगुप्त ने अपने गुरु भट्ट तौत द्वारा प्रस्तुत साधारणीकरण की अवधारणा को नया मोड़ दिया, जो उनकी महत्त्वपूर्ण देन है। 

आचार्य अभिनव गुप्त की अभिनवभारती टीका के अत:साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने नाट्यशास्त्र की अनेक हस्तलिखित प्रतियों का अत्यंत श्रमसाध्य अध्ययन किया था और उन्हें एकाधिक पाठांतर भी उपलब्ध हुए थे। इस अनुपम कृति से नाट्यशास्त्र की महत्ता सुरक्षित रह सकी है। उन्होंने अत्यंत स्पष्टता तथा विद्वत्ता के साथ आचार्य भरतमुनि के विचारों को प्रतिपादित किया है। टीका के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि अभिनवगुप्त के रूप में अभिनव भरत ही अवतरित हो गए हैं। इन दोनों टीका ग्रंथों की महिमा किसी भी मौलिक ग्रंथ से कम नहीं है। उनके द्वारा की गई एक और टीका की चर्चा मिलती है, काव्यकौतुकविवरण। काव्यकौतुक अभिनव के गुरु भट्टतौत की अनुपलब्ध प्रख्यात कृति है, जिस पर इनके विवरण का उल्लेख मिलता है, किंतु यह उपलब्ध नहीं है। 

वे अभिनव या नवीनतम तो हैं ही, गुप्तपाद यानि गोपन गति वाले भी हैं, विविध विषयों में उनकी विलक्षण गति को जान पाना आसान नहीं है। अभिनवगुप्त का समय दसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध - ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध था। उनके अविस्मरणीय अवदान को सविनय नमन। (#अभिनवगुप्त_जयंती : 2 जून 2020) 


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (मध्यप्रदेश)


20200529

सन्त कबीर : आज के संदर्भ में - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sant Kabir : In Today's Context

आज क्यों ज्यादा याद आते हैं कबीर

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

मानवीय जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है- चहुँ ओर व्यापती असहजता। उसी के चलते कई तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं का प्रसार होता आ रहा है। भारत की अछोर कवि माला के अद्वितीय कवि कबीर इस संकट से भली - भांति परिचित थे, इसीलिए वे व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन में सहज होने की पुकार लगाते हैं। आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः का वैदिक सूक्त कबीर के यहां चरितार्थ हुआ है। वे भी ऋषियों की भाँति इस बात का संदेश देते हैं कि हमारे लिए सब ओर से कल्याणकारी विचार आएं।

मध्यकालीन अराजकता और सामंती परिवेश में असहजता का कोई प्रतिपक्ष रचता है तो वह कबीर ही है। कबीर का व्यक्तित्व और कर्तृत्व अत्यंत सहज है, किन्तु जब वे देखते हैं कि संसारी जीव सहजता के मार्ग से बहुत दूर चले आए हैं, तब वे क्रांति चेतना से संपृक्त हो आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं। आज के असहजता से भरे विश्व में उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ती जा रही है। वे सहजता के साथ सत्य और सदाचरण पर विशेष बल देते हैं : 

सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहावै सोइ॥  

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय सांच है, ताके हिरदय आप।।


भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति का बहुआयामी विस्तार भक्ति काल में हुआ, जो अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। देश के विविध क्षेत्रों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश भक्त कवि पहले की भक्तिपरक गीति परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी। 

देशव्यापी भक्ति आंदोलन और भक्ति - दर्शन सर्वसमावेशी है। इसने 'सर्वे प्रपत्ति अधिकारिणः' के सूत्र को मैदानी तौर पर साकार करने में महती भूमिका निभाई है। सदियों से सामाजिक जकड़न, असमानता और पुरोहितवाद से मुक्ति की राह खोली। देश के सभी भागों के भक्तगण विविध वर्ग और जातियों से आए थे, किन्तु वे सभी एक सूत्र में बंधे थे और समूचे समाज को इसी का सन्देश देते रहे। फिर उनके लिए मन ही तीर्थ था और मन ही ईश्वर का वास स्थान।

मध्यकाल में दक्षिण भारत के आलवार संतों ने जिस भक्ति आंदोलन का प्रवर्तन किया था, उसके स्वर से स्वर मिलते हुए भक्तों और संतों ने भारत के सुदूर अंचलों तक विस्तार देने में महती भूमिका निभाई। दक्षिण से उत्तर भारत की ओर प्रवाहित भक्ति आंदोलन ने शेष भारत के विविध अंचलों पर गहरा प्रभाव डाला। यह प्रभाव भक्ति की लोक-व्याप्ति, सहज जीवन-दर्शन, सामाजिक समरसता के प्रसार, जनभाषाओं के विस्तार जैसे कई स्तरों पर दिखाई देता है। देश के विभिन्न स्थानों पर हुए भक्तों की महिमा की अनुगूँज उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सुनाई देती है। यहाँ तक कि उनके अनेक समकालीन और परवर्ती भक्तों ने ऐसे भक्तों को भक्ति के प्रादर्श के रूप में महिमान्वित किया। इन लोगों ने क्षेत्र, भाषा और वर्ग की दीवारों को समाप्त करने में अविस्मरणीय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र के अनेक भक्त-कवियों ने न केवल मराठी में भक्तिपरक काव्य की रचना की, हिंदी साहित्य को भी अपनी भक्ति-रचनाओं से समृद्ध किया। नामदेव तो एक तरह से उत्तरी भारत की संत-परम्परा के आदिकवि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र से चलकर सम्पूर्ण देश की यात्रा की और भक्ति का पथ प्रशस्त किया। इस परम्परा को स्वामी रामानन्द, कबीर, नानक, रैदास, सेन, पीपा, मीरा आदि ने आगे बढ़ाया। स्वामी रामानन्द के द्वादश भागवतों में प्रमुख- सन्त कबीर, सन्त रैदास, सन्त पीपाजी, सन्त सेनजी आदि गुरुभाई थे, जिनका दीर्घावधि तक साथ रहा। वे भी नामदेव की महिमा को मुक्त कंठ से गाते हैं। स्वयं सन्त कबीर वर्णन करते हैं:

सन्तन के सब भाई हरजी
जाती बरन कुल जानत नाहीं लोग के चतुराई
शबरी जात भिलीनी होती बेर तोर के लाई।
प्रीती जान वांका फल खात तीनरू लोक बढ़ाई।।
करमा कौन आचरण किनी हरि सो प्रीती लगाई।
छप्पन भोग की आरोगे पहिले खिचरी खाई।।
नामा पीपा और रोहिदास उन्होंने प्रीती लगाई।
सेन भक्त को संशय मेट्यो, आप भये हरि नाई।
 सहस्र अठासी ऋषि मुनि होत, तबहु न संख बाजे। 
 कहत कबीर सुपचके आये संख्या भगत होय गाते॥  

भक्तिकाल भारत के अंतर - ब्राह्य पुनर्जागरण का काल है, जहाँ एक साथ समूचे देश में वर्ग, सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र की हदबंदियों को तोड़कर पूरे समाज को समरस बनाने का महत् कार्य भक्तों-संतों ने किया था।  भक्ति की लोक-गंगा को विशिष्ट गति और लय से बाँधते हुए उसका पाट चौड़ा करने का कार्य जिन रचनाकारों ने किया है, उनमें महाराष्ट्र सहित अनेक क्षेत्रों के भक्तों-संतों का अनुपम स्थान है। भक्ति कभी साधन रही है, किन्तु संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, कबीर, रैदास, गुरुनानक देव, रामदास, एकनाथ, तुकाराम, तुलसी, मीरा आदि के लिए यह सिद्धि का पर्याय रही है। वस्तुतः पंचम पुरुषार्थ के रूप में महिमान्वित भक्ति के सामने बड़े-बड़े दार्शनिक मतवाद विवश हो जाते हैं। 

नाभादास ने अपने भक्तमाल के दो छप्पयों में कबीर के विषय में महत्त्वपूर्ण संकेत किए हैं। वे रामानन्द के जग मंगलकारी शिष्यों में कबीर की परिगणना कुछ इस तरह करते हैं:
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियौ।
अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि।
पीपा भामानन्द रैदास धना सेन सुरसरि की धरहरि।।
औरों शिष्य प्रशिष्य एक तैं एक उजागर।
जग मंगल आधार भक्ति दशधा के आगर।।
बहुत काल वपु धारिकै प्रणत जनत को पार दियौ। श्री रामानन्द रघुनाथ . . .  



कबीर के साहित्य में उनके अपने समय की ही नहीं, काल प्रवाह में उभरती अनेक विसंगतियों से मुकाबले का रास्ता साफ नजर आता है।  इसीलिए वे जितने अपने समय में प्रासंगिक थे, उससे कम आज नहीं होंगे। कबीर की पीड़ा में समूचे समाज की पीड़ा समाहित है, जिसके बिना कोई भी कवि बड़ा कवि नहीं बन सकता है:

सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।। 

लोक की पीड़ा से त्रस्त कबीर ऐसे जीवन मूल्यों की तलाश का प्रयास करते हैं, जिनके द्वारा आदमी-आदमी को विभाजित करने वाली दीवारों को ध्वस्त किया जा सके। मानवनिर्मित वर्ण, जाति, धर्म, रंग, नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े हुई मानवीय एकता का पुनर्वास हो जा सके। प्रेम, सत्य, अहिंसा, विनय, करुणा, कृतज्ञता, समर्पण, आत्मगौरव जैसे उदात्त मूल्यों की पुनर्स्थापना हो, जिनकी आवश्यकता प्रत्येक देश और काल के समाज को बनी रहेगी। कबीर की दृष्टि में प्रेम की पीड़ा में ही सभी प्रकार के विलगाव और विभेद की औषधि है। विश्वव्यापी हिंसा, परस्पर भेद, अशांति, युद्ध के बीच कबीर इसीलिए बार बार याद आते हैं। 
कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥






दृष्टि से ही सृष्टि बनती है, सृष्टि से दृष्टि नहीं बनती। कबीर की कविता इस बात का उदाहरण है। वैसे तो सामान्य परिस्थितियों में ही कबीर याद आते हैं, लेकिन विभीषिका के दौर में वे और अधिक याद आते हैं। वे लगातार ऐसे मूल्यों की खोज करते हैं जो अमानवीयता,  असमानता और विभेद को नष्ट करें। जीवन दृष्टि के विकास में किसी कवि या संत का क्या महत्त्व होता है, यह कबीर के नजदीक आने से स्पष्ट होता है।

कबीर एक ओर विसंगतियों से भरे समाज के आमूलचूल परिवर्तन के लिए तत्परता दिखाते हैं, तो दूसरी ओर उसी समाज के प्रति स्नेह के रहते उसे नए रूप में ढालने का उपक्रम भी करते हैं। इस दृष्टि से कबीर के प्रतिपाद्य को दो भागों में देखा जा सकता है, पहला रचनात्मक और दूसरा आलोचनात्मक। रचनात्मक हिस्से में वे नीतिज्ञ हैं। इस रूप में वे मानव मात्र को सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, दया, क्षमा, संतोष, उदारता जैसे गुणों को अंगीकार करने का मार्ग सुझाते हैं। आलोचनात्मक हिस्से में वे समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड, जातिप्रथा, मिथ्याडंबर, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का खंडन करते हैं। उन्होंने मानवीय सभ्यता से जुड़े प्रायः सभी क्षेत्रों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी बात निर्भीकता से कही। हिंदुओं और मुसलमानों को उनके पाखण्ड के लिए फटकार लगाई। साथ ही उन्हें सच्चे मानव धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे समस्त प्रकार की भ्रांतियों को निस्तेज करते हैं-

सेवैं सालिगराँम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़े काला कापड़ा, नाँव धरावैं सेत॥

जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेविया, यों जग चल्या निरास॥

तीरथ त सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि॥

कबीर दुनियाँ देहुरै, सीस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तूँ ताही सौ ल्यौ लाइ॥

भारतीय लोकतंत्र की स्थापना में कबीर प्रतिबिंबित हैं। भारतीय संविधान में कबीर सहित भारतीय मध्यकालीन संतों की आत्मा बसती है। हमारा संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधारों पर टिका हुआ है। यह तीनों परस्पर पूरक है, अंतरावलम्बी हैं। इनमें से कोई एक भी कमजोर होगा तो शेष दोनों भी कमजोर हो जाएंगे। पहले कबीर ने इन्हें आगे बढ़ाया, फिर महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर इन्हें आगे बढ़ाते हैं। कबीर का संघर्ष व्यर्थ नहीं गया है, उनके अपने समय में और परवर्ती समय पर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा है। वे आज ज्यादा याद आते हैं।

(यह आलेख भारतीय विचार मंच नागपुर एवं अक्षर वार्ता अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका द्वारा आयोजित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रस्तुत प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा के व्याख्यान पर आधारित है।)

20200525

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Book Review by Shailendra Kumar Sharma

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sanskrit Natya – Mimansa – Padmashri Dr. Keshavrao Musalgaonkar | Book Review by Shailendrakumar Sharma  

नाट्य के विविध आयामों की मीमांसा का सार्थक उद्यम :

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विश्व वाङ्मय और कला परम्पराओं को भारत का अमूल्य योगदान है। यह ग्रंथ केवल नाट्य पर ही केंद्रित नहीं है, वरन समस्त कलाओं, यथा नृत्य, संगीत, शिल्प, विविधविध ललित कलाओं के लिए मूलाधार है। भरतमुनि स्वयं ग्रंथारम्भ में इस बात की ओर संकेत करते हैं :
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृष्यते॥ (नाट्यशास्त्र, 1-116)
अर्थात् कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग, कोई कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में दिखाई न देता हो।
  
नाट्यशास्त्र से प्रसूत ज्ञानधारा को आत्मसात करते हुए संस्कृत नाट्य के विविध अंगों के मंथन का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है, पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगांवकर द्वारा प्रणीत बृहद् ग्रन्थ  - संस्कृत नाट्य मीमांसा। इस ग्रंथ में लेखक ने एक मीमांसक की दृष्टि से भारतीय नाट्यशास्त्र की मूलभूत विशेषताओं को आकलित और व्याख्यायित करने का सार्थक उपक्रम किया है।
पुस्तक के लेखक पं केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर भारतीय विद्या के विशिष्ट समाराधक के रूप में जाने जाते हैं। उनके इस ग्रंथ का प्रधान उद्देश्य है कि भारतीय नाट्य कला के मूल तत्त्व पाठकों के समक्ष उभरकर आ सकें। इस दृष्टि से उन्होंने पाश्चात्य नाट्य कला के साथ भारतीय नाट्य कला के साम्य एवं वैषम्य को प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया है। ग्रंथ का शीर्षक साभिप्राय है। मीमांसा का तात्पर्य है-  पूजितविचारवचनो हि मीमांसा शब्द: अर्थात् वेदार्थ विचार। भारतीय दर्शन परंपरा में मीमांसा दर्शन का महत्त्व वेदों के अध्ययन के उपरांत निश्चायक अर्थ की प्राप्ति कराने में है। इस दृष्टि से संस्कृत नाट्य मीमांसा ग्रंथ भरत द्वारा प्रस्तुत पंचम वेद नाट्यशास्त्र का विचार प्रस्तुत करने में सन्नद्ध है। लेखक की दृष्टि में,  “प्रत्येक दर्शन परम प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिए एक विशिष्ट मार्ग का अवलंबन करता है।  ‘दर्शन’ शब्द में जो दृश् धातु है, उसका अर्थ ज्ञान सामान्य होता है।  ‘दृश्यते  अनुसंधीयते  पदार्थानां  मूलतत्त्वमनेन इति दर्शनम्  अर्थात् पदार्थों के मूल तत्त्व का अनुसंधान जिसके द्वारा किया जाए, वही (मीमांसा) दर्शन है। संस्कृत नाट्य मीमांसा से भी मेरा यही तात्पर्य है। उसी दार्शनिक प्रक्रिया का अवलंबन कर भारतीय नाट्य का मूल तत्त्व - परम तत्त्व को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।“ इस उद्देश्य की सिद्धि में ग्रंथ समर्थ रहा है।



ग्रन्थ का प्रथम अध्याय विषय प्रवेश के रूप में है। लेखक ने मनोयोगपूर्वक नाट्य कला और नाट्यशास्त्र, संस्कृति एवं कला का स्वरूप - विमर्श किया है।  ग्रंथकार की दृष्टि में नाट्य - क्रिया एक कला है और नाट्यशास्त्र एक कला का शास्त्र है। कला नाट्याभिनय को सर्वांग सुंदर बनाने में सहयोग देती है। वस्तुतः नाट्यकला रस के उन्मीलन की प्रधान सहायिका है। इसके अभाव में नाट्य अथवा काव्य अपनी यथार्थता सिद्ध नहीं कर सकता। कला शून्य अभिनय में शब्दांकित नाट्य वस्तु केवल वार्ता मात्र रह जाती है। या यों कहिए कि रसोद्रेकशक्ति के अभाव में वह अकाव्य होने से त्याज्य होती है। इसीलिए आचार्य भामह ने ऐसी वार्ता मात्र को  अकाव्य माना है।“ लेखक की दृष्टि में नाटक में अभिनय की प्राणरूपा कला का वही स्थान है जो काव्य के लालित्य में कैशिकी का है।

लेखक ने संस्कृति और कला के विषय में पर्याप्त मीमांसा की है। वे शैवागमों के आलोक में कला को महामाया के चिन्मय विलास और उसकी सम्मूर्तन शक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं। कला शब्द की उत्पत्ति कल् धातु से मानी गई है, जिसका तात्पर्य है सुंदर-मधुर-कोमल या सुख प्रदान करने वाला। कं आनंदं लाति इति कला - यह अर्थ भी देखने में आता है। लेखक के अनुसार भरत के पूर्व कला शब्द का अर्थ ललित कला में प्रयुक्त नहीं हुआ है। कला के वर्तमान अर्थ का द्योतक शब्द भरत से पूर्व शिल्प शब्द था। लेखक ने भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि से कला की परिभाषाओं पर पर्याप्त विचार किया है। साथ ही कला का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। लेखक की दृष्टि में कला का आधारभूत सिद्धांत है - सामंजस्य -अनेकता में एकता की स्थापना। अन्तर्वृत्तियों का समन्वय करने के कारण यह प्रक्रिया अपने आप में सुखद होती है - इसे ही कला - सृजन या सौंदर्य की सृष्टि का आनंद कहते हैं।

ग्रंथकार ने दूसरे अध्याय में दृश्य काव्य के महत्त्व, संस्कृत नाटकों की सुदीर्घ परंपरा, नाट्य उद्गम, नाट्यवेद एवं किंवदंतियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। तृतीय अध्याय भरतमुनि और उनके नाट्यशास्त्र पर केंद्रित है। इस अध्याय में लेखक ने नाट्यशास्त्र के रचनाकाल, नाट्य वेद के अंग, भरत के पूर्ववर्ती आचार्यों और उत्तरवर्ती नाट्य ग्रंथों की चर्चा की है। यह अध्याय नाट्यशास्त्र की अंतर्वस्तु पर मंथन करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।  लेखक ने भारतीय आचार्यों की दृष्टि से अनुकरण सिद्धांत, अभिनय मीमांसा, प्रेक्षागृह, मत्तवारणी, जर्जर, नाट्यशास्त्र के लक्ष्यीभूत प्रेक्षक, नाटक एवं लोक जीवन आदि का गम्भीरता से निरूपण किया है। इस अध्याय में नाट्यधर्मी और लोकधर्मी रूढ़ियाँ एवं उनके अंतर्संबंध, नाट्य के विविध अलंकार  एवं उद्देश्यों की पड़ताल की गई है। 

ग्रंथ का एक अध्याय दशरूपक विधान पर एकाग्र है। इसके अंतर्गत नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी एवं प्रहसन का निरूपण किया गया है। यहीं पर उपरूपक के भेदों की चर्चा की गई है।
पुस्तक के पंचम अध्याय में नाट्य कथा के प्रमुख आधारों की चर्चा की गई है। इसके अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, बृहत्कथा, इतिहास, लोक कथा आदि का निरूपण किया गया है। डॉ मुसलगांवकर ने नाट्य रूढ़ियों, संविधानक रचना, कथावस्तु के भेद, मुख, प्रतिमुख आदि संधियों, विविधविध अर्थ प्रकृतियों, अवस्थाओं आदि का निरूपण किया है।

षष्ठ अध्याय में लेखक ने नाट्य के पात्रों की चर्चा की है। इसके अंतर्गत नायक, प्रति नायक, पीठमर्द एवं सहायक पात्रों में विदूषक, विट, चेट, मंत्री आदि का निरूपण किया गया है। नायिका और उनकी सहायिकाओं की चर्चा भी इस अध्याय में की गई है। लेखक ने विविध वृत्तियों और भरत वाक्य का स्वरूप विमर्श भी किया है।
सप्तम अध्याय नाट्य रस पर केंद्रित है। इसमें लेखक ने अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद का पर्याप्त विश्लेषण किया है। रस उन्मीलन के संबंध में विभिन्न मतों की चर्चा ग्रंथकार ने की है। इनमें लोल्लट  का उत्पत्तिवाद, शंकुक का अनुमितिवाद, भट्टनायक का भुक्तिवाद और अभिनवगुप्त का व्यक्तिवाद समाहित हैं।

अष्टम अध्याय संकलनत्रय पर केंद्रित है। इसमें स्थल-काल और कार्य के नियम का निरूपण लेखक ने किया है। संस्कृत नाट्य और ग्रीक नाटक की तुलना तथा संस्कृत नाट्य साहित्य में दुःखान्त नाटकों के अभाव की चर्चा पर्याप्त महत्त्व की है।

संस्कृत नाटकों की साज-सज्जा का निरूपण नवें अध्याय में किया गया है। लेखक ने द्वादश काव्य योनियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, जो इस प्रकार हैं- श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, प्रमाण विद्या, समय विद्या, राज्यसिद्धांतत्रयी  (अर्थशास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र), लोक विरचना एवं प्रकीर्णक। ग्रंथ का दसवां अध्याय संस्कृत नाटकों के अपकर्ष और उसके कारणों पर केंद्रित है।  

पुस्तक में डॉक्टर मुसलगांवकर ने भारतीय नाट्यशास्त्र की दृष्टि से नाट्य ग्रथन की रूढ़ियों पर भी पर्याप्त मंथन किया है। इसके अंतर्गत नांदी, पूर्वरंग, प्रस्तावना, नाट्य वस्तु एवं कृतिकार का परिचय, कुछ दृश्यों का निषेध, सूत्रधार - नटी का प्रयोग, भरत वाक्य आदि बातें संस्कृत नाटकों में समान रूप से दिखाई देती हैं। संस्कृत के नाटककारों ने नाट्यशास्त्र द्वारा प्रस्तुत सिद्धांतों और नियमों को बड़ी ही सावधानी से अपने नाटकों में प्रयुक्त किया है। परिणामतः परवर्ती आचार्यों ने अपने लक्षण ग्रंथों में उन्हें पर्याप्त उद्धृत किया है। परिशिष्ट के अंतर्गत पर्याप्त रेखाचित्र दिए गए हैं। एक परिशिष्ट संस्कृत नाट्य की विशिष्टताओं पर केंद्रित है

संस्कृत नाट्य परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है। इसीलिए नाट्य के विविधविध पक्षों को लेकर व्यापक मंथन सम्भव हो सका है। यह ग्रन्थ नाट्य के सभी महत्त्वपूर्ण आयामों को समेटता है। इस दृष्टि से ग्रन्थ को अपने विषय क्षेत्र की एक उपलब्धि कहा जा सकता है। नाटक के जिज्ञासुओं, आस्वादकों और विद्यार्थियों के साथ समकालीन भारतीय रंगमंच के प्रयोगकर्ताओं को इस ग्रंथ का लाभ लेना चाहिए।

पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगांवकर

1928 में ग्वालियर में जन्मे ग्रंथकार डॉ मुसलगांवकर ने अपने पिता और गुरु पं महामहोपाध्याय सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और मीमांसा तथा पं महामहोपाध्याय हरि रामचन्द्र शास्त्री दिवेकर से काव्यशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वे विगत लगभग छह दशकों से लेखनरत हैं। 

मीमांसकों की परंपरा के संवाहक पं मुसलगांवकर जी ने अब तक तीस से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। संस्कृत नाट्य मीमांसा - दो खण्डों में, रस मीमांसा, नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, कालिदास मीमांसा, आधुनिक संस्कृत काव्य परम्परा, संस्कृत महाकाव्य की परंपरा जैसे गम्भीर ग्रंथों से आपने संस्कृत वाङ्मय को समृद्ध किया है। इसके साथ ही अनेकानेक टीकाओं और विवेचनात्मक ग्रन्थों से जिज्ञासुजनों और शोधकर्ताओं की राह को सुगम बनाया है। इनमें प्रमुख हैं - शिशुपालवधमहाकाव्यम्, हर्षचरितम्, दशरूपकम्, नैषधीयचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, रघुवंशम् आदि। उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान डॉ वी वी मिराशी कृत ग्रंथ भवभूति का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनके द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका का लाभ अनेक विद्यार्थी ले रहे हैं। डॉ मुसलगांवकर अब भी लेखन कार्य में जुटे हुए हैं। उनके द्वारा योगसूत्र पर सविवेचन भाष्य पूर्णता पर है, जिसके 2000 से अधिक पृष्ठ वे हाथ से लिख चुके हैं। इसका प्रकाशन चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी से होगा। शास्त्रीजी के ग्रन्थ दुनियाभर के ग्रंथालयों में उपलब्ध हैं। उनके सुपुत्र डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर स्वयं अनेक ग्रन्थों के प्रणयनकर्ता और मीमांसक हैं।

डॉ. मुसलगांवकर जी को संस्कृत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक सम्मान और उपाधियों से विभूषित किया गया है। उन्हें वर्ष 2018 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया। उन्हें अब तक प्राप्त पुरस्कारों में प्रमुख हैं: संस्कृत के क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार, राष्ट्रीय कालिदास सम्मान, राजशेखर सम्मान, विद्वत्भूषण सम्मान, काशी, उप्र सरकार का विश्वभारती सम्मान आदि। डॉ. मुसलगांवकर बतौर शिक्षक अनेक दशकों तक स्कूली शिक्षा से जुड़े रहे, मगर उनका विपुल लेखन आज कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। उन्हें संस्कृत के क्षेत्र में नवीन व्याख्या शैली के लिए जाना जाता है। 

संस्कृत नाट्य – मीमांसा
पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर
परिमल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली


- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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