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20200525

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Book Review by Shailendra Kumar Sharma

संस्कृत नाट्य - मीमांसा – पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर / समीक्षा : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sanskrit Natya – Mimansa – Padmashri Dr. Keshavrao Musalgaonkar | Book Review by Shailendrakumar Sharma  

नाट्य के विविध आयामों की मीमांसा का सार्थक उद्यम :

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विश्व वाङ्मय और कला परम्पराओं को भारत का अमूल्य योगदान है। यह ग्रंथ केवल नाट्य पर ही केंद्रित नहीं है, वरन समस्त कलाओं, यथा नृत्य, संगीत, शिल्प, विविधविध ललित कलाओं के लिए मूलाधार है। भरतमुनि स्वयं ग्रंथारम्भ में इस बात की ओर संकेत करते हैं :
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृष्यते॥ (नाट्यशास्त्र, 1-116)
अर्थात् कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग, कोई कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में दिखाई न देता हो।
  
नाट्यशास्त्र से प्रसूत ज्ञानधारा को आत्मसात करते हुए संस्कृत नाट्य के विविध अंगों के मंथन का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है, पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगांवकर द्वारा प्रणीत बृहद् ग्रन्थ  - संस्कृत नाट्य मीमांसा। इस ग्रंथ में लेखक ने एक मीमांसक की दृष्टि से भारतीय नाट्यशास्त्र की मूलभूत विशेषताओं को आकलित और व्याख्यायित करने का सार्थक उपक्रम किया है।
पुस्तक के लेखक पं केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर भारतीय विद्या के विशिष्ट समाराधक के रूप में जाने जाते हैं। उनके इस ग्रंथ का प्रधान उद्देश्य है कि भारतीय नाट्य कला के मूल तत्त्व पाठकों के समक्ष उभरकर आ सकें। इस दृष्टि से उन्होंने पाश्चात्य नाट्य कला के साथ भारतीय नाट्य कला के साम्य एवं वैषम्य को प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया है। ग्रंथ का शीर्षक साभिप्राय है। मीमांसा का तात्पर्य है-  पूजितविचारवचनो हि मीमांसा शब्द: अर्थात् वेदार्थ विचार। भारतीय दर्शन परंपरा में मीमांसा दर्शन का महत्त्व वेदों के अध्ययन के उपरांत निश्चायक अर्थ की प्राप्ति कराने में है। इस दृष्टि से संस्कृत नाट्य मीमांसा ग्रंथ भरत द्वारा प्रस्तुत पंचम वेद नाट्यशास्त्र का विचार प्रस्तुत करने में सन्नद्ध है। लेखक की दृष्टि में,  “प्रत्येक दर्शन परम प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिए एक विशिष्ट मार्ग का अवलंबन करता है।  ‘दर्शन’ शब्द में जो दृश् धातु है, उसका अर्थ ज्ञान सामान्य होता है।  ‘दृश्यते  अनुसंधीयते  पदार्थानां  मूलतत्त्वमनेन इति दर्शनम्  अर्थात् पदार्थों के मूल तत्त्व का अनुसंधान जिसके द्वारा किया जाए, वही (मीमांसा) दर्शन है। संस्कृत नाट्य मीमांसा से भी मेरा यही तात्पर्य है। उसी दार्शनिक प्रक्रिया का अवलंबन कर भारतीय नाट्य का मूल तत्त्व - परम तत्त्व को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।“ इस उद्देश्य की सिद्धि में ग्रंथ समर्थ रहा है।



ग्रन्थ का प्रथम अध्याय विषय प्रवेश के रूप में है। लेखक ने मनोयोगपूर्वक नाट्य कला और नाट्यशास्त्र, संस्कृति एवं कला का स्वरूप - विमर्श किया है।  ग्रंथकार की दृष्टि में नाट्य - क्रिया एक कला है और नाट्यशास्त्र एक कला का शास्त्र है। कला नाट्याभिनय को सर्वांग सुंदर बनाने में सहयोग देती है। वस्तुतः नाट्यकला रस के उन्मीलन की प्रधान सहायिका है। इसके अभाव में नाट्य अथवा काव्य अपनी यथार्थता सिद्ध नहीं कर सकता। कला शून्य अभिनय में शब्दांकित नाट्य वस्तु केवल वार्ता मात्र रह जाती है। या यों कहिए कि रसोद्रेकशक्ति के अभाव में वह अकाव्य होने से त्याज्य होती है। इसीलिए आचार्य भामह ने ऐसी वार्ता मात्र को  अकाव्य माना है।“ लेखक की दृष्टि में नाटक में अभिनय की प्राणरूपा कला का वही स्थान है जो काव्य के लालित्य में कैशिकी का है।

लेखक ने संस्कृति और कला के विषय में पर्याप्त मीमांसा की है। वे शैवागमों के आलोक में कला को महामाया के चिन्मय विलास और उसकी सम्मूर्तन शक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं। कला शब्द की उत्पत्ति कल् धातु से मानी गई है, जिसका तात्पर्य है सुंदर-मधुर-कोमल या सुख प्रदान करने वाला। कं आनंदं लाति इति कला - यह अर्थ भी देखने में आता है। लेखक के अनुसार भरत के पूर्व कला शब्द का अर्थ ललित कला में प्रयुक्त नहीं हुआ है। कला के वर्तमान अर्थ का द्योतक शब्द भरत से पूर्व शिल्प शब्द था। लेखक ने भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि से कला की परिभाषाओं पर पर्याप्त विचार किया है। साथ ही कला का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। लेखक की दृष्टि में कला का आधारभूत सिद्धांत है - सामंजस्य -अनेकता में एकता की स्थापना। अन्तर्वृत्तियों का समन्वय करने के कारण यह प्रक्रिया अपने आप में सुखद होती है - इसे ही कला - सृजन या सौंदर्य की सृष्टि का आनंद कहते हैं।

ग्रंथकार ने दूसरे अध्याय में दृश्य काव्य के महत्त्व, संस्कृत नाटकों की सुदीर्घ परंपरा, नाट्य उद्गम, नाट्यवेद एवं किंवदंतियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। तृतीय अध्याय भरतमुनि और उनके नाट्यशास्त्र पर केंद्रित है। इस अध्याय में लेखक ने नाट्यशास्त्र के रचनाकाल, नाट्य वेद के अंग, भरत के पूर्ववर्ती आचार्यों और उत्तरवर्ती नाट्य ग्रंथों की चर्चा की है। यह अध्याय नाट्यशास्त्र की अंतर्वस्तु पर मंथन करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।  लेखक ने भारतीय आचार्यों की दृष्टि से अनुकरण सिद्धांत, अभिनय मीमांसा, प्रेक्षागृह, मत्तवारणी, जर्जर, नाट्यशास्त्र के लक्ष्यीभूत प्रेक्षक, नाटक एवं लोक जीवन आदि का गम्भीरता से निरूपण किया है। इस अध्याय में नाट्यधर्मी और लोकधर्मी रूढ़ियाँ एवं उनके अंतर्संबंध, नाट्य के विविध अलंकार  एवं उद्देश्यों की पड़ताल की गई है। 

ग्रंथ का एक अध्याय दशरूपक विधान पर एकाग्र है। इसके अंतर्गत नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी एवं प्रहसन का निरूपण किया गया है। यहीं पर उपरूपक के भेदों की चर्चा की गई है।
पुस्तक के पंचम अध्याय में नाट्य कथा के प्रमुख आधारों की चर्चा की गई है। इसके अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, बृहत्कथा, इतिहास, लोक कथा आदि का निरूपण किया गया है। डॉ मुसलगांवकर ने नाट्य रूढ़ियों, संविधानक रचना, कथावस्तु के भेद, मुख, प्रतिमुख आदि संधियों, विविधविध अर्थ प्रकृतियों, अवस्थाओं आदि का निरूपण किया है।

षष्ठ अध्याय में लेखक ने नाट्य के पात्रों की चर्चा की है। इसके अंतर्गत नायक, प्रति नायक, पीठमर्द एवं सहायक पात्रों में विदूषक, विट, चेट, मंत्री आदि का निरूपण किया गया है। नायिका और उनकी सहायिकाओं की चर्चा भी इस अध्याय में की गई है। लेखक ने विविध वृत्तियों और भरत वाक्य का स्वरूप विमर्श भी किया है।
सप्तम अध्याय नाट्य रस पर केंद्रित है। इसमें लेखक ने अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद का पर्याप्त विश्लेषण किया है। रस उन्मीलन के संबंध में विभिन्न मतों की चर्चा ग्रंथकार ने की है। इनमें लोल्लट  का उत्पत्तिवाद, शंकुक का अनुमितिवाद, भट्टनायक का भुक्तिवाद और अभिनवगुप्त का व्यक्तिवाद समाहित हैं।

अष्टम अध्याय संकलनत्रय पर केंद्रित है। इसमें स्थल-काल और कार्य के नियम का निरूपण लेखक ने किया है। संस्कृत नाट्य और ग्रीक नाटक की तुलना तथा संस्कृत नाट्य साहित्य में दुःखान्त नाटकों के अभाव की चर्चा पर्याप्त महत्त्व की है।

संस्कृत नाटकों की साज-सज्जा का निरूपण नवें अध्याय में किया गया है। लेखक ने द्वादश काव्य योनियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, जो इस प्रकार हैं- श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, प्रमाण विद्या, समय विद्या, राज्यसिद्धांतत्रयी  (अर्थशास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र), लोक विरचना एवं प्रकीर्णक। ग्रंथ का दसवां अध्याय संस्कृत नाटकों के अपकर्ष और उसके कारणों पर केंद्रित है।  

पुस्तक में डॉक्टर मुसलगांवकर ने भारतीय नाट्यशास्त्र की दृष्टि से नाट्य ग्रथन की रूढ़ियों पर भी पर्याप्त मंथन किया है। इसके अंतर्गत नांदी, पूर्वरंग, प्रस्तावना, नाट्य वस्तु एवं कृतिकार का परिचय, कुछ दृश्यों का निषेध, सूत्रधार - नटी का प्रयोग, भरत वाक्य आदि बातें संस्कृत नाटकों में समान रूप से दिखाई देती हैं। संस्कृत के नाटककारों ने नाट्यशास्त्र द्वारा प्रस्तुत सिद्धांतों और नियमों को बड़ी ही सावधानी से अपने नाटकों में प्रयुक्त किया है। परिणामतः परवर्ती आचार्यों ने अपने लक्षण ग्रंथों में उन्हें पर्याप्त उद्धृत किया है। परिशिष्ट के अंतर्गत पर्याप्त रेखाचित्र दिए गए हैं। एक परिशिष्ट संस्कृत नाट्य की विशिष्टताओं पर केंद्रित है

संस्कृत नाट्य परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है। इसीलिए नाट्य के विविधविध पक्षों को लेकर व्यापक मंथन सम्भव हो सका है। यह ग्रन्थ नाट्य के सभी महत्त्वपूर्ण आयामों को समेटता है। इस दृष्टि से ग्रन्थ को अपने विषय क्षेत्र की एक उपलब्धि कहा जा सकता है। नाटक के जिज्ञासुओं, आस्वादकों और विद्यार्थियों के साथ समकालीन भारतीय रंगमंच के प्रयोगकर्ताओं को इस ग्रंथ का लाभ लेना चाहिए।

पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगांवकर

1928 में ग्वालियर में जन्मे ग्रंथकार डॉ मुसलगांवकर ने अपने पिता और गुरु पं महामहोपाध्याय सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और मीमांसा तथा पं महामहोपाध्याय हरि रामचन्द्र शास्त्री दिवेकर से काव्यशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वे विगत लगभग छह दशकों से लेखनरत हैं। 

मीमांसकों की परंपरा के संवाहक पं मुसलगांवकर जी ने अब तक तीस से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। संस्कृत नाट्य मीमांसा - दो खण्डों में, रस मीमांसा, नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, कालिदास मीमांसा, आधुनिक संस्कृत काव्य परम्परा, संस्कृत महाकाव्य की परंपरा जैसे गम्भीर ग्रंथों से आपने संस्कृत वाङ्मय को समृद्ध किया है। इसके साथ ही अनेकानेक टीकाओं और विवेचनात्मक ग्रन्थों से जिज्ञासुजनों और शोधकर्ताओं की राह को सुगम बनाया है। इनमें प्रमुख हैं - शिशुपालवधमहाकाव्यम्, हर्षचरितम्, दशरूपकम्, नैषधीयचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, रघुवंशम् आदि। उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान डॉ वी वी मिराशी कृत ग्रंथ भवभूति का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनके द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका का लाभ अनेक विद्यार्थी ले रहे हैं। डॉ मुसलगांवकर अब भी लेखन कार्य में जुटे हुए हैं। उनके द्वारा योगसूत्र पर सविवेचन भाष्य पूर्णता पर है, जिसके 2000 से अधिक पृष्ठ वे हाथ से लिख चुके हैं। इसका प्रकाशन चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी से होगा। शास्त्रीजी के ग्रन्थ दुनियाभर के ग्रंथालयों में उपलब्ध हैं। उनके सुपुत्र डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर स्वयं अनेक ग्रन्थों के प्रणयनकर्ता और मीमांसक हैं।

डॉ. मुसलगांवकर जी को संस्कृत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक सम्मान और उपाधियों से विभूषित किया गया है। उन्हें वर्ष 2018 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया। उन्हें अब तक प्राप्त पुरस्कारों में प्रमुख हैं: संस्कृत के क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार, राष्ट्रीय कालिदास सम्मान, राजशेखर सम्मान, विद्वत्भूषण सम्मान, काशी, उप्र सरकार का विश्वभारती सम्मान आदि। डॉ. मुसलगांवकर बतौर शिक्षक अनेक दशकों तक स्कूली शिक्षा से जुड़े रहे, मगर उनका विपुल लेखन आज कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। उन्हें संस्कृत के क्षेत्र में नवीन व्याख्या शैली के लिए जाना जाता है। 

संस्कृत नाट्य – मीमांसा
पद्मश्री डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर
परिमल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली


- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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