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20200720

कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा | प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा | Kabir Darshan evam Shikshak Shiksha | Prof. Shailendra Kumar Sharma
अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान



कबीर दर्शन एवं शिक्षक शिक्षा

 प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

शिक्षा व्यक्तित्व का समग्र रूपांतरण करती है। शिक्षक की रूपान्तरकारी भूमिका कबीर चिंतन में है। शिक्षा का सम्बन्ध केवल साक्षर बनाने से नहीं, बल्कि व्यक्ति को सर्वांगीण, आत्मनिर्भर, भावनात्मक एवं प्रज्ञाशील बनाने से है। कबीर इसी अर्थ में कोरे आखर ज्ञान के विरुद्ध हैं। 

शिक्षा का दायित्य है जीवन से जुड़े पहलुओं पर सवाल खड़े करना, तार्किक बनाना और जबाब तलाशना,  कबीर का दर्शन यह करता है। 

शिक्षक की जिम्मेदारी है कि वह सही - गलत का निर्णय लेने की क्षमता विकसित करे, कबीर लगातार यह करते हैं। आलोचक समाज और रचनात्मक समाज शिक्षा के जरिए बनता है, कबीर इस दिशा में निरन्तर गतिशील बने रहे। समतामूलक समाज का निर्माण शिक्षक शिक्षा और लोक शिक्षा दोनों का आदर्श है, कबीर अपनी वाणी के माध्यम से चिंतन के इसी स्तर पर ले जाते हैं। इसी तरह चारित्रिक विकास में शिक्षा की भूमिका देखना हो तो कबीर के दर्शन में देखी जा सकती है।


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पर्यावरण संरक्षण : भारतीय चिंतन और हरियाली अमावस्या - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

भारतीय चिंतन परम्परा में प्रकृति, भगवान के समतुल्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

हरियाली अमावस्या पर्व पर राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना की अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 

राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा हरियाली अमावस्या पर्व पर अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के अनेक विद्वानों, शोधकर्ताओं और प्रतिभागियों ने भाग लिया। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डॉ सुधांशु शुक्ला, पौलेंड, श्रीमती रमा शर्मा, जापान, डॉ कपिल कुमार, बेल्जियम थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं साहित्यकार प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। अध्यक्षता संस्था के अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने की। संगोष्ठी को डॉ कामराज सिंधु, कुरुक्षेत्र, श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली एवं संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने संबोधित किया। यह अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी पर्यावरण संरक्षण : भारतीय चिंतन और हरियाली अमावस्या पर एकाग्र थी।

संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डॉ सुधांशु शुक्ला, पौलेंड ने कहा कि संपूर्ण विश्व आज पर्यावरण को लेकर चिंतित है। भारत अनादि काल से नदियों, पर्वतों, पेड़ और पौधों को लेकर आस्था भाव रखता आ रहा है। भारतीय चिंतन में प्रकृति को भगवान के समतुल्य महत्त्व मिला है, जो हमें सब कुछ देती है। 


मुख्य वक्ता प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि प्रकृति के साथ आत्मीय रिश्ता, लगाव और पूजा भाव भारतीय संस्कृति और परंपरा का महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारे जल स्रोतों, प्राकृतिक वास स्थानों, बहुविध व्रत, पर्व, उत्सवों और लोक देवताओं के प्रति आस्था में प्रकृति के प्रति अनुराग सहस्राब्दियों से छलकता रहा है। प्रकृति पर्व हरियाली अमावस्या का हमारी परंपरा में विलक्षण स्थान है। सुदूर अतीत से चले आ रहे पर्यावरण चिंतन, वैज्ञानिक सोच, जातीय चेतना और वैश्विक दृष्टिकोण का संपुंजन हरियाली अमावस्या और इसी प्रकार के अन्य पर्वोत्सवों में दिखाई देता है। यह पर्व चराचर जगत के साथ मनुष्य के रिश्तों को व्यापक विश्व बोध के साथ जानने और क्रियान्वित करने का अवसर देता है। यह पर्व वन्य संस्कृति, गिरि संस्कृति, पशुपालन संस्कृति और कृषि संस्कृति के सातत्य और परस्परावलम्बन का पर्व है।


संगोष्ठी को संबोधित करते हुए श्रीमती रमा शर्मा, जापान ने कहा कि भारत में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अनेक उपाय किए जाते हैं। जहां घने वृक्ष होते हैं, उन स्थानों पर लोक आस्था के प्रतीक के रूप में देवालय बनवा दिए जाते हैं। हमारे यहां पीपल में देवताओं का वास माना गया है। 

डॉ कपिल कुमार, बेल्जियम ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय चिंतन में प्रकृति के प्रति गहरी आस्था का भाव रहा है। गुलामी के दौर में हम पर्यावरण विध्वंस में लग गए, जिसके गम्भीर दुष्परिणाम आज झेल रहे हैं। नस्लों को बचाने के लिए पर्यावरण का संरक्षण करना होगा। पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए सजगता लानी होगी। 


अध्यक्षीय उद्बोधन में शिक्षाविद् श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने कहा कि वर्तमान युग व्यापक पर्यावरणीय चिंताओं का युग है। इस दौर में पर्यावरण संरक्षण  के लिए साहित्यकारों, शिक्षकों और कलाकारों को समाज में संचेतना जगाने के लिए तत्पर होना होगा।



डॉ. कामराज सिंधु, कुरुक्षेत्र ने कहा कि वर्तमान युग में जल, भूमि, वनों का दोहन अनेक समस्याएं पैदा कर रहा है। इनसे पशु - पक्षियों, कीट - पतंगों का नाश हो रहा है। हमें शहरीकरण और अनियोजित विकास पर अंकुश लगाना होगा। 


प्रारंभ में श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की संकल्पना एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।   

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए संस्था के महासचिव  डॉ प्रभु चौधरी ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण के लिए सभी क्षेत्रों में सजगता जरूरी है। वर्षा काल में संस्था द्वारा स्थान - स्थान पर औषधीय और पर्यावरणीय महत्त्व के पौधे लगाए जाएंगे। 


आयोजन में श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, स्वर्णा जाधव, मुंबई ने पर्यावरणीय चिंताओं से जुड़ी कविताएं प्रस्तुत कीं।








इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ सुरेश चंद्र शुक्ल, ऑस्लो, नॉर्वे, डॉ विनोद तनेजा, अमृतसर, श्री मोहनलाल वर्मा, जयपुर, डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे,  शम्भू पँवार, जयपुर, डॉ कविता रायजादा, आगरा, तूलिका सेठ, गाजियाबाद, जी डी अग्रवाल, इंदौर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के विद्वानों और प्रतिभागियों ने भाग लिया।

संगोष्ठी की सूत्रधार डॉ संजीव कुमारी गुर्जर, हिसार थीं। आभार प्रदर्शन श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने किया। 









कार्यक्रम में डॉ.  उर्वशी उपाध्याय, प्रयाग, डॉ. शैल चन्द्रा, रायपुर, डॉ हेमलता साहू, अम्बिकापुर, डॉ. दर्शनसिंह रावत उदयपुर, डॉ कृष्णा श्रीवास्तव, मुंबई, श्रीमती प्रभा बैरागी, उज्जैन, श्री सुन्दरलाल जोशी ‘सूरज‘ नागदा, हेमलता शर्मा, आगर, श्रीमती रागिनी शर्मा, राऊ, डॉ. संगीता पाल, कच्छ,  डॉ. सरिता शुक्ला, लखनऊ, विनीता ओझा, रतलाम, पायल परदेशी, महू, जयंत जोशी धार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, राम शर्मा परिंदा, मनावर, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ प्रवीण जोशी, डॉ श्वेता पंड्या, कमल भूरिया,  प्रवीण बाला, लता प्रसार, पटना, मधु वर्मा, श्रीमती दिव्या मेहरा, कोटा, श्रीमती तरुणा पुंडीर, दिल्ली, डॉ. शिवा लोहारिया, जयपुर, सुश्री खुशबु सिंह, रायपुर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के साहित्यकार, प्रतिभागी और शोधकर्ता उपस्थित रहे। 

डॉ. प्रभु चौधरी
महासचिव
राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना
मो. 9893072718

20200711

पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर | संवाद |प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | दिलीप जोशी | केशव राय | Padmashree Dr V S Wakankar | Sansthan |Dilip Joshi |Shailendra Kumar Sh...





पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर : पुरातिहासविद्, लिपिशास्त्री और अन्वेषक | संवाद : दिलीप जोशी | प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा | केशव राय 
Padmashri Vishnu Shridhar Wakankar : The Great Archeologist, Historian & Paleographist | Conversation with Dilip Joshi & Prof. Shailendra Kumar Sharma by Shri Keshav Rai
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पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर : पुरातिहास के विलक्षण अन्वेषक
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 
पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर (उपाख्य : हरिभाऊ वाकणकर ; 4 मई 1919 – 3 अप्रैल 1988) किंवदंती पुरुष हैं। उन्होंने मालवा सहित भारत के पुरातत्त्व और इतिहास के अनेक अनछुए पहलुओं को उद्घाटित किया। 23 मार्च को उन्होंने भोपाल के समीप भीमबेटका के प्रागैतिहासिक शैलाश्रयों और चित्र शृंखला की खोज के साथ ही उनका गहन विश्लेषण किया। उनके द्वारा किए गए इस ऐतिहासिक कार्य के कारण आज भीमबेटका विश्व धरोहर के रूप में सुस्थापित है। अनुमान है कि यह चित्र शृंखला 175000 वर्ष पुरातन है। इन चित्रों का परीक्षण कार्बन-डेटिंग पद्धति से किया गया है, इसी के परिणामस्वरूप इन चित्रों के काल-खंड का ज्ञान होता है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि उस समय रायसेन जिले में स्थित भीम बैठका गुफाओं में मनुष्य रहता था और वे लोग चित्र, नृत्य, अभिनय आदि कलाओं के माध्यम से आत्माभिव्यक्ति करते थे। वैदिक सरस्वती नदी के साथ कायथा, दंगवाड़ा, मनोटी, इन्दरगढ़,  रूणिजा, नागदा आदि जैसे अनेक प्रागैतिहासिक स्थलों के अन्वेषण सहित भारतीय पुरातिहास की दिशा में उनके द्वारा किए गए कार्य मील का पत्थर सिद्ध हो गए हैं। उनके विलक्षण अवदान के लिए सन 1975 ई. में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था।

वाकणकर जी द्वारा अन्वेषित भीमबेटका में  600 शैलाश्रय हैं, जिनमें 275 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं। पूर्व पाषाण काल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा। यह बहुमूल्य धरोहर अब पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। यहाँ के शैल चित्रों के विषय सामूहिक नृत्य,  मानवाकृतियाँ, शिकार, पशु-पक्षी, युद्ध और प्राचीन मानव जीवन के दैनन्दिन क्रियाकलापों से जुड़े हैं। चित्रों में प्रयोग किये गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ, लाल और सफेद हैं और कहीं-कहीं पीला और हरा रंग भी प्रयोग हुआ है। भीमबेटका की विलक्षण शैलाश्रय शृंखला डॉ वाकणकर जी की अन्वेषण दृष्टि से दुनिया की निगाह में आई। 

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Shailendrakumar Sharma

20200708

सुरेश चंद्र शुक्ल कृत लॉकडाउन : कोरोना काल पर दुनिया का प्रथम काव्य संग्रह - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

सुरेश चंद्र शुक्ल कृत लॉकडाउन : कोरोना काल पर  दुनिया का प्रथम काव्य संग्रह - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 
नॉर्वेवासी वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' की कृति लॉकडाउन दुनिया की किसी भी भाषा में कोरोना काल पर केंद्रित प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह है, जिसमें इस अभूतपूर्व वैश्विक संकट के बीच व्यापक मानवीय चिंताओं, संघर्ष और सरोकारों को वाणी मिली है। 


श्री शुक्ल ने विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के दौर में मानवीय रिश्तों और संवेदनाओं को तहस-नहस होते हुए देखा है। इस अभूतपूर्व महामारी की रोकथाम के उपायों में लॉकडाउन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। लॉकडाउन ने इस महामारी के संक्रमण से तो मानव सभ्यता को बचाया है, लेकिन सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, सांस्कृतिक परिवेश पर गहरा असर भी छोड़ा है। इन्हीं की काव्यमयी अभिव्यक्तियों के साथ उनका नया कविता संग्रह लॉकडाउन आया है। 

शुक्ल जी ने लॉकडाउन, कोरोना के डर से, कोरेण्टाइन में, लॉकडाउन में मां आदि शीर्षक सहित अनेक कविताओं में इस अभूतपूर्व संकट से जुड़े कई पहलुओं की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। वे इस दौर में जहाँ दुनिया के तमाम हिस्सों में पलायन को विवश प्रवासी मजदूरों की पीड़ा और संघर्ष का आंखों देखा बयान प्रस्तुत करते हैं, वहीं गाँव -  घर की ओर लौटते श्रमिकों को आशा और उत्साह का संदेश भी देते हैं। 

संग्रह की प्रभावशाली कविताओं में एक लॉकडाउन 2 के माध्यम से कवि  सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’ ने कोविड - 19 से उपजे वैश्विक संकट के दौर में मानवीय त्रासदी के बीच सरकारों के संकट और पूंजीवाद के नृशंस चेहरे को दिखाया है – 

दुनिया में कोरोना:
अमेरिका में पचास हजार चढ़ गये 
कोरोना की सूली पर
दो मीटर की आपसी दूरी पड़ गयी कम
जनता और सरकार के बीच बढ़ी दूरी।
 × × × × 
भरे हुए सरकारी अनाज के गोदामों को
भूखी जनता का धैर्य चिढ़ा रहा।
जनता की भुखमरी पर कमा रहा कार्पोरेट जगत
सबसे ज्यादा अमीर की सूची में
नाम दर्ज करा रहा।
जैसे सरकार को अपनी
अंगुली में नचा रहा?

कविवर सुरेश चंद्र शुक्ल ने लॉक डाउन के वैश्विक संकट को लेकर जो कुछ अनुभव किया है, उन्हें सहज – तरल अंदाज में कविताओं में पिरोया है। वे जब यह देखते हैं कि देश आर्थिक गतिविधियों में रीढ़ की हड्डी बने हुए प्रवासी मजदूर लाठियाँ खाने को मजबूर हैं, तब उनकी आत्मा कराह उठती है। उनकी कविता ये प्रवासी मजदूर – 3 की चंद पंक्तियाँ देखिए : 

जीने के लिए कर रहे प्रदर्शन, 
ये प्रवासी मजदूर।
अहिंसक मजदूरों को गिरफ्तार किया 
उन भूखों पर लाठी भांजी 
गंभीर दफा में लगे मुकदमे,
क्यों तोड़ रहे अनुशासन
ये प्रवासी मजदूर?

यदि गाँधी बाबा होते तो 
लड़ते उनके मुकदमे।
और समझाते अनशन करके,
जनता का हो शासन?
तब समझाते बापू,
बड़े काम के, रीढ़ देश की 

ये प्रवासी मजदूर।

कोविड 19 के संक्रमण से उपजे संकट को वे मानवीय परीक्षा की घड़ी मानते हैं, जहाँ बेहद धैर्य की जरूरत है। फिर यह स्वयं को सिद्ध करने का मौका भी है। 'गाँवों को आदर्श बनाना है' शीर्षक कविता में रचनाकार का संकेत साफ है : 
लॉक डाउन 
एक संकट है,
उसे उम्मीद में 
बदलने का।
मजदूर अपने गाँव आये हैं,
उनसे कौशल विकास 
सीखना है।
श्रमिक बारात ले 
वापस आये हैं 
कारंटाइन में गाँव 
बना जनवासा,
बच्चों को कौशल 
सिखाओ तो,
कामगार हैं 
प्रगति के दुर्वासा। 

शुक्ल जी नार्वे में रहते हुए पिछले तीन से अधिक दशकों से प्रवासी भारतीयों के साथ संस्कृति कर्म, हिंदी भाषा और साहित्य के सम्प्रसार का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। डॉ. शुक्ल ने नार्वे में हिंदी प्रचार - प्रसार के लिए अनेक कार्य किये हैं, जिनमें से नार्वे के विद्यालयों तथा विश्वविद्यालय में हिंदी के पठन पाठन और पारस्परिक अनुवाद की व्यवस्था का श्रेय मुख्य रूप से डॉ.शुक्ल को जाता है। वे लगातार साहित्यिक - सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से भारतीयता के मानबिंदुओं को लेकर गम्भीर प्रयास करते आ रहे हैं। 

 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 
(लॉकडाउन काव्य संग्रह के प्राक्कथन से)


सुरेश चंद्र शुक्ल





















#लॉकडाउन कृति के लिए अनेक साधुवाद और स्वस्तिकामनाएँ Sharad Alok ji
धन्यवाद #अमर_उजाला, 7 जुलाई 2020



20200703

कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति – प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति – प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा





भारतीय इतिहास का मध्ययुग भक्ति आन्दोलन के देशव्यापी प्रसार की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखता है। वैदिककाल से लेकर मध्यकाल के पूर्व तक आते-आते पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में भारतीय मूल्य-चिंतन परम्परा का सम्यक् विकास हो चुका था, किंतु मध्य युग में भक्ति की परम पुरुषार्थ के रूप में अवतारणा क्रांतिकारी सिद्ध हुई। मोक्ष नहीं, प्रेम परम पुरुषार्थ है- प्रेमापुमर्थो महान् के उद्घोष ने लोक जीवन को गहरे प्रभावित किया। यहाँ आकर भक्त की महिमा बढ़ने लगी और शुष्क ज्ञान की जगह भक्ति ने ले ली। 






भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। हिन्दी एवं अन्य भाषाई प्रदेशों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश कृष्णभक्त कवि पहले की कृष्णपरक लोक गीत परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी। 


कृष्ण भक्ति काव्यधारा के उद्गम की दृष्टि से दक्षिण भारत के आळ्वार सन्तों के भक्ति काव्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भक्त कवियों का बहुत बड़ा योगदान लोकगीतों में अनुस्यूत भक्ति धारा को संस्कारित करने के साथ ही शास्त्रोक्त भक्ति को लोकव्याप्ति देने में है। अष्टछाप के कवियों में सम्मिलित सूरदास, नंददास, चतुर्भुजदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी और छीतस्वामी के साथ ही मीराँ, रसखान, नरसिंह मेहता, प्रेमानंद, चंद्रसखी, दयाराम आदि का योगदान अविस्मरणीय है। इनमें से अधिकांश कवियों ने शास्त्रीय वैष्णव भक्ति-शास्त्र से प्रेरणा अवश्य प्राप्त की, किन्तु वे लोक-धर्म और लोक-चेतना से अधिक सम्पृक्त थे। उनके चरित्र, वर्ण्य विषय, छन्द, भाषा, विचार-पद्धति आदि में शास्त्रीयता के बजाय लोक-चेतना प्रबल है। श्रीमद्भागवत महापुराण के लीलागान की पद्धति से प्रेरणा लेकर भी सूरदास, नंददास आदि का काव्य उसका अनुवाद नहीं है। इन कवियों ने उत्तर भारत के लोकधर्म से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है और अपनी मौलिक उद्भावनाएँ भी की हैं।

मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्यधारा और कला रूपों का प्रसार देश के विविध लोकांचलों में हुआ है। यह धारा जहाँ भी गई, वहाँ की स्थानीय रंगत से आप्लावित हो गई। फिर वह चाहे पश्चिम भारत में मालवा-राजस्थान हो या गुजरात-महाराष्ट्र अथवा पूर्व में उड़ीसा-बंगाल या सुदूर पूर्वोत्तर में असम हो या मणिपुर, उत्तर में हिमाचल-हरियाणा या ब्रजमंडल हो या दक्षिण में केरल-तमिलनाडु सभी की लोक-संस्कृति की सुवास कृष्ण भक्ति काव्य और कला रूपों में परिलक्षित होती है, वहीं कृष्ण भक्ति के प्रतिमानों ने भी विविध लोकांचलों को अपनी सुवास दे दी है। वस्तुतः कृष्ण भक्ति काव्य ने अपने ढंग से पूरे देश को सांस्कृतिक-भावात्मक ऐक्य के सूत्र में बाँधा है, जिसमें लोक-चेतना की अविस्मरणीय भूमिका देखी जा सकती है। लोक-जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जिसे कृष्णकाव्य और कला रूपों ने न छुआ हो या जिस पर इस धारा की अमिट छाप अंकित न हुई हो।

कृष्ण भक्ति काव्य में लोक-पर्व, व्रत और उत्सवों का जीवंत चित्रण हुआ है। इस काव्य में कृष्ण सच्चे लोकनायक के रूप में जीवन के समूचे राग-रंग, हर्ष-उल्लास में शिकरत करते नजर आते हैं। कृष्णभक्ति काव्य ने जहाँ लोक परम्परा से चले आ रहे पर्वोत्सवों को सहज-तरल अभिव्यक्ति दी है, वही किसी एक अंचल की लोक-परम्पराओं को अन्य अंचलों तक प्रसारित भी किया है। इस काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण देन यह भी है कि काल-प्रवाह में विस्मृत होतीं कई लोक-परम्पराएँ न सिर्फ इसमें जीवित हैं, वरन् उन्हें समय-समय पर पुनराविष्कृत करने की संभावनाएँ भी मूर्त होती रही हैं।


 – प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 
मध्य प्रदेश







(भक्ति काल : कृष्ण काव्य के विविध आयाम पर केंद्रित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन रूसी – भारतीय मैत्री संघ (दिशा), मास्को, रूस एवं बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना, बिहार द्वारा किया गया। इस अवसर पर प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा, प्रोफेसर अवनीश कुमार, डॉ सुमन केसरी, डॉक्टर दिनेश चंद्र झा के व्याख्यान की छबियाँ  समाहित हैं। संयोजन डॉ मोनिका देवी ने किया था।)


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