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20201103

वाल्मीकि : इतिहास और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

आदि कवि वाल्मीकि ने सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा पर बल दिया है – प्रो शर्मा 

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ आदि कवि वाल्मीकि : इतिहास और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन   

ओस्लो के साहित्यकार श्री शुक्ल ने नॉर्वेजियन भाषा में पाठ किया  रामायण के अंशों का


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश -दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ वक्ताओं ने भाग लिया। यह संगोष्ठी आदि कवि वाल्मीकि : इतिहास और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल, डॉ राजेन्द्र साहिल, लुधियाना, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने की।







लेखक और आलोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि आदिकवि वाल्मीकि की रामायण में जातीय स्मृतियों, इतिहास, संस्कृति और मानवीय मूल्यों का जीवन्त रूपांकन हुआ है। वाल्मीकि ने रामकथा के माध्यम से सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा पर बल दिया है। उनकी दृष्टि में सत्य ही संसार में ईश्वर है और धर्म भी उस सत्य  के ही आश्रित है। उन्होंने एक ऐसे उदात्त चरित्र को महाकाव्य के केंद्र में रखा है, जो लोगों को परस्पर प्रेम, बन्धुत्व और समरसता में बांध सके। उनकी मूल्य दृष्टि बहुत गहरी है। वे परिवार, मित्र, समाज और राज धर्म - सभी का प्रादर्श रचते हैं। उनका सन्देश है कि समस्त देश और कालों के लोग सुखी हों। वाल्मीकि रामायण में वर्णित अनेक स्थानों से जुड़े पुरातात्विक प्रमाण, ऐतिहासिक साक्ष्य और लोक अनुश्रुतियाँ उपलब्ध हैं। उन पर समग्रता से अनुसन्धान की आवश्यकता है। 




कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि वाल्मीकि सही अर्थों में विश्व कवि हैं। उनकी रामायण के माध्यम से विश्व में संस्कृत को गौरव मिला। उनकी रामायण का अनुवाद दुनिया के विभिन्न भाषाओं मैं होना चाहिए। श्री शुक्ल ने वाल्मीकि रामायण के प्रारंभिक श्लोकों का प्रथम बार नॉर्वेजियन भाषा में अनुवाद कर उनका पाठ  किया। 






विशिष्ट अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि वाल्मीकि ने राम कथा के माध्यम से आसुरी वृत्तियों और अनाचार के दमन और उन पर विजय का शाश्वत संदेश दिया है। वाल्मीकि रामायण के आधार पर दुनिया के अनेक देशों में राम काव्य लिखे गए हैं।








विशिष्ट अतिथि डॉ राजेंद्र साहिल, लुधियाना ने कहा कि आदि कवि वाल्मीकि का पंजाब के साथ गहरा संबंध रहा है। पंजाब की पांच नदियों के किनारे वैदिक सभ्यता का विकास हुआ है। पंजाब भारतीय संस्कृति का उद्गम केंद्र है। अमृतसर के समीप स्थित रामतीर्थ में वाल्मीकि का आश्रम था। वहीं रहकर लव और कुश का पालन पोषण हुआ और वहीं रहकर उन्होंने विद्यार्जन किया था। वाल्मीकि की रामायण से प्रेरणा लेकर पंजाबी में अनेक रामायण एवं राम पर केंद्रित रचनाएं लिखी गईं। गुरु गोविंद सिंह जी ने रामावतार जैसे महत्वपूर्ण काव्य की रचना की। 





प्रारम्भ में आयोजन की संकल्पना एवं स्वागत भाषण संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने देते हुए वाल्मीकि के योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने संस्था के उद्देश्य और भावी गतिविधियों का परिचय दिया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि वाल्मीकि का व्यक्तित्व सार्वभौमिक है। गोस्वामी तुलसीदास ने वाल्मीकि के जीवन के अनेक प्रसंगों का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने श्री राम और वाल्मीकि की भेंट का मार्मिक चित्रण अपने मानस में किया है।


साहित्यकार डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि वाल्मीकि की रामायण भविष्य के लिए महत्वपूर्ण संदेश देती है। यह ग्रंथ श्रेष्ठ समाज के निर्माण में अनेक सदियों से विशिष्ट भूमिका निभा रहा है।



राष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ शहाबुउद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, डॉ भरत शेणकर,  अहमदनगर, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉक्टर समीर सैयद, अहमदनगर, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ लता जोशी, मुंबई, डॉ ज्योति मईवाल, उज्जैन, डॉ राधा दुबे, डॉ प्रियंका द्विवेदी, प्रयागराज, डॉ अमित शर्मा, ग्वालियर, डॉ महेंद्र रणदा, पंढरीनाथ देवले आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे। 


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ लता जोशी मुंबई ने की। 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का संचालन संस्था सचिव डॉ रागिनी शर्मा, इंदौर ने किया। आभार प्रदर्शन संस्था के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉ शहाबुउद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने किया। 








20201102

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ : संस्कृति एवं साहित्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने दी है भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को विशेष पहचान – प्रो शर्मा 

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश राज्यों की संस्कृति और साहित्य पर मंथन   

देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें विशेषज्ञ वक्ताओं ने भाग लिया। यह संगोष्ठी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों की संस्कृति और साहित्य पर केंद्रित थी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि संस्थाध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट वक्ता डॉ शैल चंद्रा, सिहावा नगरी, छत्तीसगढ़ थीं। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद् डॉ शहाबुद्दीन नियाज़ मोहम्मद शेख, पुणे, वरिष्ठ पत्रकार डॉ शंभू पवार,  राजस्थान,  डॉ आशीष नायक, रायपुर, वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। यह आयोजन दोनों राज्यों के स्थापना दिवस के अवसर पर संपन्न हुआ।







कार्यक्रम के मुख्य अतिथि संस्था के अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने कहा कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश राज्य अपनी विशिष्ट संस्कृति और सभ्यता के लिए विदेशों तक जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से इनकी विशेषताओं को प्रस्तुत किया।  




प्रमुख वक्ता लेखक एवं संस्कृतिविद प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश ने भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को विशेष पहचान दी है। प्रागैतिहासिक काल से ये दोनों ही राज्य मानवीय सभ्यता की विलक्षण रंग स्थली रहे हैं। भीमबेटका जैसे धरोहर शैलाश्रय और अनेक पुरास्थलों से ये राज्य दुनिया भर के पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करते हैं।  नर्मदा, महानदी और अन्य पुण्य सलिला नदियों के तट पर सुदूर अतीत से विविधवर्णी सभ्यताओं का जन्म और विकास होता आ रहा है। ग्राम, वन और पर्वतों पर बसे अनेक लोक और जनजातीय समुदायों की अपनी विशिष्ट बोली, बानी,  गीत, नृत्य, नाट्य, लोक विश्वास आदि के कारण ये राज्य दुनिया भर में अनुपम बन गए हैं। छत्तीसगढ़ मां का लोक में प्रचलित रूप इस क्षेत्र के लोगों की परिश्रमशीलता के साथ प्रकृति एवं संस्कृति की आपसदारी को जीवन्त करता है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की पुरा सम्पदा के अन्वेषण और संरक्षण के लिए व्यापक प्रयासों की आवश्यकता है। उन्होंने अपने व्याख्यान में राजिम, सिरपुर, फिंगेश्वर, चंपारण आदि प्रमुख पर्यटन स्थलों की विशेषताओं को उद्घाटित किया। चंपारण महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्राकट्य स्थल होने के कारण देश दुनिया में विख्यात है, जिन्होंने पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन किया था।






डॉक्टर शैल चंद्रा, सिहावा नगरी, छत्तीसगढ़ ने कहा कि छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विरासत में समृद्व है। राज्य का सबसे  प्रसिद्ध नृत्य नाटक पंडवानी है, जो  महाकाव्य महाभारत का संगीतमय वर्णन है। छत्तीसगढ़ भगवान राम की कर्मभूमि है। इसे दक्षिण कोशल कहा जाता है। यहां ऐसे भी प्रमाण मिले हैं, जिनसे यह प्रतीत होता है कि श्री राम जी की माता छत्तीसगढ़ की थीं। बलौदाबाजार जिले में स्थित तुरतुरिया में  महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है। ऐसा माना जाता है वह लव कुश की जन्म स्थली है प्राचीन कला, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से छत्तीसगढ़ अत्यंत सम्पन्न है। यहां के जनमानस में अतिथि देवो भव की भावना रची बसी है। यहां के लोग शांत और भोले भाले हैं। तभी तो कहा जाता है, छतीसगढ़िया सबले बढ़िया। यहां के लोग छत्तीसगढ़ को महतारी का दर्जा देते हैं। 





डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने अपने व्याख्यान में कहा कि मध्य प्रदेश भारत का एक ऐसा राज्य है, जिसकी सीमाएं उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान इन पांच राज्यों से मिलती है। पर्यटन की दृष्टि से यह राज्य अपनी महत्ता रखता है। छत्तीसगढ़ भारत का ऐसा 26 वाँ राज्य है, जो पहले मध्यप्रदेश के अंतर्गत था। इस राज्य को  महतारी अर्थात मां का दर्जा दिया गया है। यह राज्य दक्षिण कोशल कहलाता था, जो छत्तीस गढ़ों अपने में समाहित रखने कारण छत्तीसगढ़ बन गया है। वैदिक और पौराणिक काल से विभिन्न संस्कृतियों का केंद्र छत्तीसगढ़ रहा है। इस राज्य ने शीघ्र गति से अपनी प्रगति साधी है।




वरिष्ठ पत्रकार डॉ शम्भू पंवार, पिड़ावा, राजस्थान ने कहा कि मध्य प्रदेश राज्य के हिस्से को अलग करके 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का गठन किया गया था। छत्तीसगढ़ राज्य का इतिहास बहुत ही गौरवशाली है। छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विरासत में समृद्ध है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति पूरे भारत में अपना विशेष महत्व रखती है। यहां के लोक गीत व नृत्य बेमिसाल हैं।  छत्तीसगढ़ के लोक गीतों में पंडवानी, जसगीत, भरथरी, लोकगाथा, बांस गीत, करमा, ददरिया, डंडा, फाग आदि बहुत ही लोकप्रिय है। लयबद्ध लोक संगीत,नृत्य, नाटक को देख कर आनंद की अनुभूति होती है। छत्तीसगढ़ धान की उपज की दृष्टि से दुनिया का दूसरा प्रमुख राज्य है। यहां धान की 23 हजार किस्में हैं।  इतनी देश में किसी भी राज्य में नहीं है। दुनिया भर में केवल फिलीपींस ऐसा देश है,  जिसमें धान की 26 हजार किस्में है। छत्तीसगढ़ की धान की किस्में औषधीय गुणों से भरपूर है। कुछ किस्में खुशबू के लिए जानी जाती है, तो कुछ मधुमेह रोगियों के लिए लाभप्रद है।


डॉ आशीष नायक रायपुर ने राष्ट्र के विकास में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की भूमिका पर प्रकाश डाला।




राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना की छत्तीसगढ़ प्रदेश सचिव श्रीमती पूर्णिमा कौशिक ने छत्तीसगढ़ का राज्य गीत प्रस्तुत किया। इस गीत की पंक्तियां थीं, अरपा पैरी के धार, अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार।इन्द्राबती ह पखारय तोर पईयां, महूं पांवे परंव तोर भुँइया। जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया।

छत्तीसगढ़ राज्य गीत 

अरपा पइरी के धार महानदी हे अपार,
इन्द्राबती ह पखारय तोर पइँया।
महूँ पाँव परँव तोर भुइँया,
जय हो जय हो छत्तिसगढ़ मइया॥
सोहय बिन्दिया सही घाते डोंगरी, पहार
चन्दा सुरूज बने तोर नयना,
सोनहा धाने के संग, लुगरा के हरियर रंग
तोर बोली जइसे सुघर मइना।
अँचरा तोरे डोलावय पुरवइया।।

(महूँ पाँव परँव तोर भुइँया, जय हो जय हो छत्तिसगढ़ मइया।।)

रइगढ़ हाबय सुघर तोरे मँउरे मुकुट
सरगुजा (अऊ) बेलासपुर हे बहियाँ,
रइपुर कनिहा सही घाते सुग्घर फभय
दुरुग, बस्तर सोहय पयजनियाँ,
नाँदगाँवे नवा करधनियाँ

(महूँ पाँव परँव तोर भुइँया, जय हो जय हो छत्तिसगढ़ मइया।।)


संस्था एवं आयोजन की संकल्पना का परिचय संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने देते हुए छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के  विशेषताओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने संस्था के उद्देश्य और भावी गतिविधियों पर भी प्रकाश डाला।



                              

डॉ सीमा निगम, रायपुर ने अतिथि के प्रति स्वागत उद्गार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं अर्पित की। 




राष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ भरत शेणकर,  अहमदनगर, डॉ लता  जोशी, मुंबई, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ मुक्ता कौशिक, डॉ रिया तिवारी, डॉ सीमा निगम, श्री जितेंद्र रत्नाकर, रायपुर, डॉक्टर समीर सैयद, अहमदनगर, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ हंसमुख, रायपुर, डॉ अमित शर्मा, ग्वालियर आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे। 




संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना श्रीमती पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने की। संस्था का प्रतिवेदन डॉ रिया तिवारी, रायपुर ने प्रस्तुत किया।


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का संचालन संस्था की महासचिव डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर ने किया। आभार प्रदर्शन संस्था कि डॉक्टर स्वाति श्रीवास्तव ने किया।


































20201030

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ | प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews | Prof. Shailendra Kumar Sharma

मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी - आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।  


उनके उपन्यास और कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। 


मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती हैं। उनकी कहानियों में आधुनिक जीवन का कोई-न-कोई विशिष्ट पहलू उजागर हुआ है। राकेश मुख्यतः आधुनिक शहरी जीवन के कथाकार हैं, लेकिन उनकी संवेदना का दायरा मध्यवर्ग तक ही सीमित नहीं है। निम्नवर्ग भी पूरी जीवन्तता के साथ उनकी कहानियों में मौजूद है। इनके कथा-चरित्रों का अकेलापन सामाजिक संदर्भो की उपज है। वे अपनी जीवनगत जद्दोजहद में स्वतंत्र होकर भी सुखी नहीं हो पाते, लेकिन जीवन से पलायन उन्हें स्वीकार नहीं। वे जीवन-संघर्ष की निरंतरता में विश्वास रखते हैं। पात्रों की इस संघर्षशीलता में ही लेखक की रचनात्मक संवेदना आश्चर्यजनक रूप से मुखर हो उठती है। हम अनायास ही प्रसंगानुकूल कथा-शिल्प का स्पर्श अनुभव करने लगते हैं, जो अपनी व्यंगात्मक सांकेतिकता और भावाकुल नाटकीयता से हमें प्रभावित करता है। इसके साथ ही लेखक की भाषा भी जैसे बोलने लगती है और अपने कथा-परिवेश को उसकी समग्रता में धारण कर हमारे भीतर उतर जाती है।

कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है। जीविकोपार्जन के लिये वे अध्यापन कार्य से संपृक्त रहे। वे कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक भी रहे। 'अषाढ़ का एक दिन' और 'आधे अधूरे' के रचनाकार के नाते 'संगीत नाटक अकादमी' से पुरस्कृत सम्मानित किए गए। उनका निधन जनवरी 1972 को नयी दिल्ली में हुआ।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं :

उपन्यास : अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल।
कहानी संग्रह : क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस
तथा अन्य कहानियाँ।
नाटक : आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, पैर तले की ज़मीन

शाकुंतल, मृच्छकटिक (अनूदित नाटक)

अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक, रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक (एकांकी)

बक़लम खुद, परिवेश (निबन्ध)

आखिरी चट्टान तक (यात्रावृत्त)

एकत्र (अप्रकाशित-असंकलित रचनाएँ)

बिना हाड़-मांस के आदमी (बालोपयोगी कहानी-संग्रह)

 मोहन राकेश रचनावली (13 खंड)।



आधे अधूरे - मोहन राकेश सम्पूर्ण के लिए लिंक

Adhe Adhure - Mohan Rakesh  


Adhe Adhure


आधे अधूरे समीक्षा - मोहन राकेश नोट्स पीडीएफ के लिए लिंक 

Adhe Adhure - Mohan Rakesh Notes PDF 

आधे अधूरे - मोहन राकेश समीक्षा पीडीएफ | Adhe Adhure - Mohan Rakesh Review PDF


आधे अधूरे समीक्षा

आधे अधूरे मोहन राकेश का एक चर्चित नाटक है। मोहन राकेश वैसे तो कथा, उपन्यास, संस्मरण के क्षेत्र में भी महारत रखते थे। किंतु, नाटकों के लिए ही ज्यादा याद किये जाते हैं। आधुनिक युग में मराठी, बांग्ला, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनेक चर्चित नाटककार हुए हैं। हिंदी में नाटककार कहते ही ज़हन में पहला नाम मोहन राकेश का ही उभरता है। मोहन राकेश ने इस नाटक के माध्यम से चार दीवार और छत से पूर्ण होनेवाले घर के भीतर की अपूर्णता व्यक्त की है। मनुष्य के मन का अधूरापन ही समस्त विसंगतियों की जड़ है।

आधे अधूरे : मनुष्य के आधे अधूरेपन की त्रासदी 

मोहन राकेश जी का यह नाटक अपने पहले मंचन (1969) से ही चर्चित रहा है। तब से अब तक अलग-अलग निर्देशकों और कलाकारों द्वारा इसका सैकडों बार मंचन हो चुका है और आज भी यह उतना ही प्रशंसित है। निर्देशकों के अनुसार यह रंगमंचीय दृष्टि से तो उपयुक्त है ही, इसका कथानक भी समकालीन जीवन की विडम्बना को सार्थक ढंग से व्यक्त करता है, जो बदलते परिवेश में भी प्रासंगिक है। दरअसल नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश या उसके कुछ समकालीन जिस 'आधुनिक भावबोध'  की बात कर रहे थे, वह 'विकास' की विषमता या नगरीकरण की विषमता के कारण, कुछ क्षेत्रों में अभी 'हाल' की घटना लगती है। भौगोलिक विषमता और 'विकास' के पहुंच की सीमा के कारण यदि तब यह सब लोगों की 'हकीकत' नहीं थी तो आज भी कई हिस्से इससे अछूते हो सकते हैं। बहरहाल लेखक यह चिंता नही करता कि उसकी रचना में व्यक्त 'सच' सबका 'सच' हो।




आधे–अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव–खंड को मूर्त करता है। इसके लिए हिंदी के जीवंत मुहावरे को पकड़ने की सार्थक, प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन, उनका क्रम, उनका संयोजन सबकुछ ऐसा है, जो बहुत संपूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यही शक्ति और उच्चारित ध्वनि–समूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य–रचना बंद और खुले, दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाए रख सकी। 


यह नाटक, एक स्तर पर स्त्री–पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज“ है, दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य–रचना मानवीय संतोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिंदगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् चरित्र निभाए जाने की दिलचस्प रंगयुक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में कहें तो आधे–अधूरे समकालीन जिन्दगी का पहला सार्थक हिंदी नाटक है । इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।





मोहन राकेश कहानी से नाटक की तरफ आये थे, मगर उनकी संवेदना और भावबोध का क्षेत्र लगभग वही रहा, महानगरीय जीवन के अलगाव, अजनबियत, एकाकीपन,,अतृप्त आकांक्षा आदि जो औद्योगीकरण के फलस्वरूप 'ग्रामीण जीवन' से 'नगरीय जीवन' मे संक्रमण से तीव्रता से प्रकट हुए थे। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि यह आजादी के बाद के महानगरीय जीवन के लक्षण हैं।


आधे अधूरे के कथानक के केन्द्र में एक मध्यमवर्गीय परिवार है, जिसमें पति-पत्नी के अलावा उनके दो बेटियां और एक बेटा है। अन्य पात्रों में तीन और पुरुष हैं। नाटक की सम्पूर्ण घटनाएं एक कमरे में घटित होती हैं, हालाकि संवाद से सम्पूर्ण परिवेश और उसका द्वंद्व उभर आता है। इस नाटक की 'केंद्रीय' चिंता क्या है?एक  'सामान्य' पाठक जब नाटक के आखिर तक (क्लाइमेक्स) पहुंचता है, तो उसे महसूस होता है; और लेखक भी इशारा (संवाद से) कर देता है कि दुनिया मे 'पूर्ण' कोई नही है; सब 'आधे-अधूरे' हैं। पूर्णता की तलाश बेमानी है। मनुष्य की महत्वाकांक्षा असीम है जो दुनिया के यथार्थ से हरदम मेल नही खाती, यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब आर्थिक सक्षमता पर्याप्त न हो। आदमी जो भी है, अपने खूबियों और कमियों के साथ है। सम्बन्धों का निर्वहन इस स्वीकार बोध के साथ ही सम्भव है,अन्यथा जीवन घसीटते गुजरता है। अवश्य अन्य परिस्थितियां नकारात्मक हो तो इसकी तीव्रता को बढ़ा देती हैं।


नाटक की केंद्रीय चरित्र सावित्री पढ़ी-लिखी, महत्वाकांक्षी, कामकाजी महिला है। वह जीवन को भरपूर जीना चाहती है, मगर ऐसा हो नही पा रहा है। इसका एक कारण, जो बहुत हद तक सही भी है, खराब आर्थिक स्थिति है। उसके अकेली नौकरी से पूरा घर चल रहा है। पति व्यवसाय में असफल होकर 'निकम्मा' हो गया है। बेटा पढ़ाई में असफल तो है ही कामचोर भी है; उस पर भी वह उसके लिए लगातार 'प्रयास' करती है। बड़ी बेटी 'लव मैरिज' कर भी सुखी नही है। छोटी बेटी की 'जरूरतें' पूरी नही हो पा रही हैं। ऐसे में उसका (सावित्री) खीझना, असहज महसूस करना स्वाभाविक भी लगता है। मानो उसकी अपनी जिंदगी खो सी गयी है। इससे उसके अंदर एक अतृप्ति का भाव पैदा होता है; और वह इसके 'तृप्ति' के चाह में कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है; मगर उसको 'तृप्ति' मिलती नही। वह द्वंद्व में जीती है। उसका एक मन घर से जुड़ता है तो दूसरा मन घर से दूर होना चाहता है। मगर समस्या यह भी है कि वह 'अतृप्त' तब भी थी जब सब कुछ ठीक ठाक था; आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पति का व्यवसाय भी चल रहा था। तब उसे शिकायत थी कि पति(महेन्द्रनाथ) के माता-पिता उसे (महेन्द्रनाथ) को अपनी जिंदगी नही जीने दे रहें है; उसे अपने गिरफ्त में रखना चाहते हैं। फिर कुछ समय बाद यह शिकायत महेन्द्रनाथ के दोस्तों पर प्रतिस्थापित हो गया कि वे उसको 'बर्बाद' कर रहे हैं। यानी समस्या की जड़ कहीं और है।


समस्या ख़ुद सावित्री के अंदर है, जिसे जुनेजा अच्छी तरह से उद्घाटित करता है। वह पुरुष में जिस 'पूर्णता' की कामना करती है; दरअसल जीवन मे वैसा होता ही नहीं। वह एक आदमी में 'सब कुछ' चाहती है; और न पाकर उसका उपहास करती है। उसकी 'कमजोरी' पर कभी खीझती है; कभी व्यंग्य करती है। मगर वह कभी एक पल के लिये नही सोच पाती कि समस्या की जड़ वह खुद है। शुरुआत में दर्शक की सहानुभूति उसके पक्ष में जाती है; वह वैवाहिक जीवन में पति से प्रताड़ित भी हुई है, आज वह पूरे घर के खर्च का निर्वहन कर रही है। लेकिन जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ता है;एक दूसरा सच भी स्पष्ट होने लगता है, जिसका सार जुनेजा के इस वक्तव्य में है, "असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करती कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली.उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा-कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें इन  किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती।


नाटक के अन्य पात्र देखा जाय तो इस 'केंद्रीय संवेदना' की सघनता को बढ़ाते हैं। सावित्री का पति महेन्द्रनाथ एक बेरोजगार व्यक्ति है; लगभग उपेक्षित; कोई उसकी परवाह नही करता। सावित्री की नज़र में एक 'रीढ़हीन' व्यक्ति, जो अपना निर्णय नहीं ले सकता। लेकिन किसी समय वह घर का 'प्रमुख' भी था; व्यवसाय में असफलता ने उसे बेरोजगार कर दिया है। हालांकि इस असफलता में घर मे किये गए उसके 'अनाप-शनाप' खर्च भी कारण रहा है, लेकिन इसकी किसी को परवाह नही. अवश्य महेन्द्रनाथ की अपनी मानवीय कमजोरियां हैं, लेकिन सावित्री की बार-बार उलाहना और व्यंग्य ने उसे कहीं अधिक कमजोर बना दिया है और हीनताबोध से ग्रसित हो गया है। वह एक तरह से प्रताड़ित और डरा हुआ है, इसलिए वह किसी पुरुष के घर आने पर कोई न कोई बहाना बनाकर बाहर चला जाता है, उस पर भी विडम्बना यह आरोप की उसमे किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं।


बड़ी बेटी बिन्नी मनोज से प्रेम विवाह करती है, जो वस्तुतः उसकी माँ सावित्री का 'प्रेमी' था। वह भी लगभग उसी द्वंद्व से ग्रसित। दोनों एक- दूसरे को समझ नही पा रहे। सब कुछ ठीक होकर भी कुछ ठीक नही है। कहीं कुछ गड़बड़ है; मगर गड़बड़ क्या है? वह कहती भी है "वजह सिर्फ हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है" या फिर " वह कहता है कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नही रहने देती।" छोटी लड़की किन्नी भी भी अपने उम्र  से कुछ अधिक बर्ताव करती है। किसी के प्रति उसके अंदर सम्मान दिखाई नही देता। बेटा अशोक भी अपनी कोई जवाबदारी नही समझता। सावित्री के 'क्रियाकलापों' से वह असन्तुष्ट जरूर है, मगर खुद अपना 'विचलन' उसे दिखाई नही देता। सभी किसी न किसी 'मनोग्रंथि' से ग्रसित लगते हैं।


कुल मिलाकर पूरे घर के वातावरण में  अस्वाभाविकता, अलगाव, असंतुष्टि, व्याप्त है। कोई किसी को जानकर भी जानता नहीं। यह त्रासदी क्या एक विशिष्ट परिवार भर का है?दरअसल यह द्वंद्व पूरे मध्यमवर्ग का है, जहां बहुत सी आशाएँ, जरूरतें, सपने पूरे न होने पर घनीभूत होकर इस द्वंद्व और भी बढ़ा देते हैं। अभाव के आँच में सम्बन्धों के डोर टूटने लगते हैं। मगर अभाव ही इसका एकमात्र कारण नही है। हम सब इस बात को न स्वीकार पाने के लिए अभिशप्त हैं कि 'पूरा' कोई नहीं है सब 'आधे-अधूरे' हैं।



20201025

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा आलोचना भूषण सम्मान से अलंकृत

 

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा आलोचना भूषण सम्मान से अलंकृत



प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग 
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय,
उज्जैन [म.प्र.] 456 010





















विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को आलोचना के क्षेत्र में किए गए अविस्मरणीय योगदान के लिए राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास [भारत] एवं यू॰ एस॰ एम॰ पत्रिका द्वारा अखिल भारतीय स्तर के आलोचना भूषण सम्मान से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मान संस्था द्वारा हिन्दी भवन , गाजियाबाद में आयोजित बीसवें अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अंतर्गत राष्ट्रस्तरीय नामित सम्मान अलंकरण समारोह में पूर्व केन्द्रीय मंत्री , भारत सरकार एवं राज्यपाल, तमिलनाडु और असम डॉ॰ भीष्मनारायण सिंह एवं पूर्व सांसद डॉ॰ रत्नाकर पांडे के कर-कमलों से अर्पित किया गया। इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें सम्मान-पत्र, स्मृति चिह्‌न, पुस्तकें एवं उत्तरीय अर्पित किए गए। इस महत्त्वपूर्ण समारोह में पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं शिक्षाविद डॉ॰ सरोजिनी महिषी, वरिष्ठ नृतत्वशास्त्री पद्मश्री डॉ॰ श्यामसिंह शशि, लोकसभा टी॰ वी॰ के वरिष्ठ अधिकारी डॉ॰ ज्ञानेन्द्र पांडे ,संस्था के संयोजक श्री उमाशंकर मिश्र आदि सहित पंद्रह से अधिक राज्यों के भारतीय भाषा प्रेमी एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

प्रो. शर्मा विगत ढाई दशकों से आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध एवं लेखन में निरंतर सक्रिय है। देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनके आठ सौ से अधिक समीक्षाएँ एवं आलेख प्रकाशित हुए हैं। 

उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित तीस से अधिक ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं-शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास, हरियाले आँचल का हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। 

प्रो. शर्मा को देशभर की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, अखिल भारतीय राजभाषा सम्मान,शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि प्रमुख हैं।







शक्ति उपासना : प्रतीकार्थ और चिंतन - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

सृष्टि का कोई भी कण अछूता नहीं है शक्ति से – प्रो शर्मा 

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ शक्ति आराधना के प्रतीकार्थ और चिंतन पर गहन मंथन   


प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के विद्वान वक्ताओं ने भाग लिया। यह संगोष्ठी शक्ति उपासना : प्रतीकार्थ और चिंतन पर केंद्रित थी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद् डॉ जी डी अग्रवाल, इंदौर, प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री शरद चन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, डॉ अनिता मांदिलवार, डॉ अशोक सिंह, मुंबई, शिवा लोहारिया, जयपुर एवं महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शिक्षाविद डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर ने की।




लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि भारतीय चिंतन परंपरा और लोक व्यवहार में शक्ति के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण विचार उपलब्ध हैं। शक्ति से सृष्टि का कोई भी कण अछूता नहीं है। कारण वस्तु में कार्य के उत्पादन में उपयोगी अपृथक् धर्म विशेष होता है, उसे शक्ति के रूप में मान्यता मिली है। शक्ति आराधना के विशिष्ट दार्शनिक आधार हैं। अधिकांश भारतीय दर्शनों में  सृष्टि के मूल तत्त्वों के बीच शक्ति की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई है। कार्यों की अनंतता के कारण शक्ति की भी अनंतता मानी गई है। शाक्त दर्शन और लोक मान्यता के अनुसार शक्ति सर्वव्यापक और सर्वोपरि है। मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति बिना शक्ति की कृपा से संभव नहीं है। भारत में सदियों से नगर, ग्राम, दुर्ग, वन, पर्वत, द्वार आदि सभी प्रमुख स्थानों पर देवी उपासना के साक्ष्य मिलते हैं। वस्तुतः शक्ति एक ही है, किंतु उपासकों के दृष्टि भेद से शक्ति के नाम और रूपों में भेद पाया जाता है। 





मुख्य अतिथि श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि भारतीय संस्कृति में नारी का सम्मान उसके विशिष्ट गुण और संस्कारों के कारण होता आ रहा है। मातृ शक्ति के त्याग, तपस्या और साधना से ही यह संपूर्ण सृष्टि संचालित है। शक्ति आराधना का विशिष्ट आध्यात्मिक महत्त्व है।




विशिष्ट अतिथि डॉ प्रभु चौधरी ने कहा कि नवरात्रि शक्ति आराधना का अद्वितीय पर्व है। शक्ति साधना के अनेक आयाम हैं, जिनमें व्रत, उपवास, अनुष्ठान, यज्ञ आदि का विशेष महत्व है। गायत्री आदि वैदिक मंत्रों के जाप से इष्ट फल की सिद्धि होती है।




अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉक्टर भरत शेणकर, अहमदनगर ने कहा कि शक्ति आराधना की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इसमें परिवेश और  युगानुकूल परिवर्तन होता रहा है।




विशिष्ट अतिथि प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, डॉ अशोक सिंह, मुंबई, डॉक्टर शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ अनिता मांदिलवार एवं डॉ सुनीता चौहान, मुंबई ने देवी आख्यान और उपासना से जुड़े विभिन्न प्रसंगों और उनके मर्म की चर्चा की।


विशिष्ट अतिथि डॉ जी डी अग्रवाल, इंदौर ने मधुर स्वर में आई रे आई दुर्गा महारानी शेर पर होकर सवार गीत की प्रस्तुति की।



अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ आशीष नायक, रायपुर डॉक्टर समीर सैयद, अहमदनगर, डॉ सुवर्णा जाधव, मुंबई,  डॉक्टर कामिनी बल्लाल,  रश्मि चौबे, आगरा, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ लता जोशी, मुंबई, डॉ श्वेता पंड्या आदि सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे। 




प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ रश्मि चौबे ने की। संस्था का परिचय एवं प्रतिवेदन डॉ लता जोशी, मुंबई ने प्रस्तुत किया।  


आयोजन की संकल्पना एवं स्वागत भाषण डॉ प्रभु चौधरी की ने दिया।


राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का संचालन डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने किया। आभार प्रदर्शन संस्था के शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने किया। 











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