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20210614

स्वातंत्र्य योद्धा महाराणा प्रताप और उनका योगदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Freedom Warrior Maharana Pratap and His Contribution - Prof. Shailendra Kumar Sharma

पूरी दुनिया में पराक्रम और वीरता की अनूठी मिसाल हैं महाराणा प्रताप – प्रो. शर्मा 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ स्वातंत्र्य वीर महाराणा प्रताप और उनका योगदान पर मंथन एवं उद्घोष कवि सम्मेलन 


सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी एवं कवि सम्मेलन उद्घोष का आयोजन किया गया।  संगोष्ठी स्वातंत्र्य वीर महाराणा प्रताप और उनका योगदान पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। आयोजन की विशिष्ट अतिथि प्रवासी साहित्यकार डॉ अंजना संधीर, यूएसए, प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। अध्यक्षता साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने की। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने किया। अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन उद्घोष में देश दुनिया के अनेक रचनाकारों ने महाराणा प्रताप पर केंद्रित कविताएं सुनाईं।




मुख्य अतिथि श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि राणा प्रताप का नाम सुनकर रोम-रोम पुलकित हो जाता है। वे त्याग और बलिदान की प्रत्यक्ष मूर्ति थे। उनकी कथाओं से नई पीढ़ी में वीरता, राष्ट्रभक्ति और पराक्रम की प्रेरणा मिलती है। उन्होंने अपनी कविता सुनाई, जिसकी पंक्ति थी, आंखों में आंखें डाल कर, त्याग में अग्नि की वे मिसाल हैं।




विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने व्याख्यान देते हुए कहा कि पूरी दुनिया में महाराणा प्रताप पराक्रम और वीरता की अनूठी मिसाल हैं। वे राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक थे। स्वतंत्रता प्रेमी और स्वाभिमानी राणा प्रताप ने केवल मेवाड़ के लिए अकबर के विरुद्ध युद्ध नहीं छेड़ा, वरन सम्पूर्ण देशवासियों में स्वाभिमान और देशानुराग का भाव जगाने का कार्य किया। वे स्वदेशाभिमान और स्वतंत्रता के लिए तमाम सुख सुविधाओं को त्यागकर आजीवन संघर्षरत रहे। उन्होंने कभी अपमानजनक सन्धि, समझौते या पलायन का मार्ग नहीं चुना। नारी सम्मान और सामाजिक समरसता के लिए उन्होंने आजीवन कार्य किया। बड़ी संख्या में भील और गाडोलिया लुहार उनके संघर्ष के साथी थे। हल्दीघाटी की व्यूह रचना उनके सैन्य कौशल और साहस का साक्ष्य देती है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक मुकाबला करते रहे। अकबर की विशाल सेना उन्हें छू भी नहीं पाई। उनकी प्रतिज्ञा थी जब तक मैं शत्रुओं से अपनी पावन मातृभूमि को मुक्त नहीं करा लेता, तब तक न तो मैं महलों में रहूंगा ना शैया पर सोऊंगा और न सोने, चांदी अथवा किसी धातु के पात्र में भोजन करूंगा। उनका अश्व चेतक, तलवार और भाले को भी शक्ति और शौर्य का पर्याय माना जाता है।  





डॉ अंजना संधीर, यूएसए ने हल्दीघाटी पुकारती है और महाराणा प्रताप पर केंद्रित कविताएं सुनाईं। उनकी काव्य पंक्ति थी, पवन वेग से उड़ता था जिसका घोड़ा, इतिहास में छपा हुआ नाम बहुत थोड़ा। 




विशिष्ट अतिथि प्राचार्य डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि विगत अनेक शताब्दियों के शासकों के मध्य राणा प्रताप का स्थान अद्वितीय है। उन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में हार नहीं मानी और निरंतर आजादी के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने मुगलों द्वारा भेजे गए संधि के प्रस्तावों को ठुकरा दिया। उनका व्यक्तित्व शौर्य, धैर्य और पराक्रम की अनूठी मिसाल है।



अध्यक्षता करते हुए साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि राणा प्रताप महान स्वाभिमानी और वीर शिरोमणि थे। उनका योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने देशभक्तों पर केंद्रित अपनी कविता सुनाई, जिसकी पंक्तियाँ थी, रणबांकुरे भारत के रणबांकुरे, शत शत तुम्हें नमन। तुम्हारी बस  यही तमन्ना, तिरंगा चूमता रहे गगन।




संगोष्ठी की प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए संस्था के महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने कहा कि राणा प्रताप ने अपने देश और संस्कृति के लिए प्राण को न्यौछावर किया। उद्घोष के माध्यम से संस्था का उद्देश्य है कि देश को लेकर हम क्या कर सकते हैं, इस बात का संकल्प लें। मां पन्नाधाय के महान उत्सर्ग को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।


साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि महाराणा प्रताप का स्मरण आते ही मन में जोश उमड़ता है। उन्होंने अपनी काव्य पंक्ति सुनाईं, हारा नहीं कभी जो रण में वही तो राणा प्रताप है। उन्होंने कहा कि देश के शिक्षण संस्थानों में पाठ्यक्रमों के माध्यम से राणा प्रताप, शिवाजी जैसे महान सेनानियों पर केंद्रित सामग्री जोड़ी जानी चाहिए, जिनसे देशभक्ति की प्रेरणा मिलती है।



श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना, जयपुर ने कहा कि राणा प्रताप त्याग और पराक्रम की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने महाराणा प्रताप पर केंद्रित कविता सुनाई। जिसकी पंक्ति थी, वीर शिरोमणि अमर सपूत महाराणा प्रताप कहलाता था। प्रियंका सोनी, प्रयागराज ने मुक्तक प्रस्तुत किए। उनकी काव्य पंक्तियां थीं, हर दिल अजीज ही नहीं, अरमान बन गए। आप महाराणा राष्ट्र की पहचान बन गए।


डॉ शैल चंद्रा, धमतरी ने राणा प्रताप पर केंद्रित कविता सुनाई, जिसकी पंक्तियां थीं, हे महान राणा प्रताप तुम्हारा प्रताप प्रबल है तुम्हें शत-शत नमन है। हे भारत के वीरो तुम्हें शत-शत नमन, तुमने ही बचाया है देश का अमन।


डॉ रश्मि चौबे गाजियाबाद में शहीदों पर केंद्रित कविताएँ सुनाईं। उनकी पंक्ति थी, आज फिर याद शहीदों की आई है, जिनके दम पर वसुंधरा मुस्काई है। उनके मन में हिंदुस्तान है वही हमारे गौरव का गान है।


भुवनेश्वरी जायसवाल, भिलाई ने अपनी कविता महाराणा प्रताप सुनाई। उसकी पंक्तियां थीं, तज दें खुशियाँ कर्तव्य मार्ग में वीर ऐसे चाहिए, सुख स्वप्नों में डूबे तरुणों में रणवीर ऐसे चाहिए। प्राणों की आहुति दे दे, मस्तक दुष्ट का विदीर्ण करे, शत्रु का साहस भी हर ले अब तीर ऐसे चाहिए। चेतक सवार महाराणा से महावीर ऐसे चाहिए, देशप्रेम हेतु हर प्रेम निछावर युवा गंभीर ऐसे चाहिए।


डॉक्टर ममता झा, मुंबई ने पुनरावर्तन शीर्षक अपनी कविता सुनाई। उसकी पंक्तियां थीं, यह बाहर से भीतर जाने का योग है, प्रकृति का दिया ये कैसा संजोग है। परावलंबी से स्वावलंबी बनने का दौर है, वस्तु नहीं ,इंसान के मोल को समझने का दौर है। सब कुछ धारा रह जाएगा, आत्मसात करने का दौर है।


डॉ अपर्णा जोशी, इंदौर ने महाराणा प्रताप पर केंद्रित कविता सुनाई, जिसकी पंक्ति थी धन्य धरा वह वीर प्रसूता अद्भुत शोणित माटी है।


डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर की काव्य पंक्तियां थीं, नन्ना सा फूल हूं मेरे जीवन की यही परिभाषा। वीरों की गाथा बन जाऊं उनकी वेदी पर गिर जाऊँ।


श्रीमती अनीता मंदिलवार, छत्तीसगढ़ ने आल्हा छंद में राणा प्रताप पर केंद्रित कविता सुनाई।


नीतू पांचाल, नई दिल्ली की कविता थी क्या वह हमें भी याद हैं।


डॉक्टर मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर की राष्ट्रभक्ति पर केंद्रित कविता की पंक्ति थी, संघर्ष के मार्ग पर जो वीर चलता है, वही इस संसार पर राज करता है। 


आयोजन में अल्पा मेहता, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, नीतू पांचाल, नई दिल्ली आदि ने भी राणा प्रताप के पराक्रम और वीर रस प्रधान कविताएं सुनाईं।


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने की। स्वागत भाषण एवं स्वागत गीत डॉ रूली सिंह, मुंबई ने प्रस्तुत किया। 


आयोजन में डॉ शैल चंद्रा, धमतरी, श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना, जयपुर, रूली सिंह, मुंबई, अनीता मंदिलवार, पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, राजकुमार यादव, मुंबई, प्रियंका सोनी, प्रयागराज, श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, प्रतिभा मगर, पुणे, डॉ चेतना उपाध्याय, अजमेर, भुवनेश्वरी जायसवाल, भिलाई, योगेश द्विवेदी, रीवा, मंजू साहू, श्रीमती गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, अर्पणा जोशी, इंदौर, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


संगोष्ठी एवं कवि सम्मेलन का संचालन डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मुंबई ने किया।

























राणा प्रताप जयंती

20210611

सम्प्रेषण कौशल : प्रमुख आयाम और महत्ता - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Communication Skills: Key Dimensions and Importance - Prof. Shailendra Kumar Sharma

जीवन के सभी क्षेत्रों में जरूरी है सम्प्रेषण कौशल – प्रो. शर्मा 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ सम्प्रेषण कौशल : प्रमुख आयाम और महत्ता पर मंथन एवं श्रेष्ठ संचालन सम्मान अलंकरण 


सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी एवं श्रेष्ठ संचालन अलंकरण समारोह का आयोजन किया गया।  संगोष्ठी सम्प्रेषण कौशल : प्रमुख आयाम और महत्ता पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं साहित्यकार डॉ विनय कुमार पाठक, बिलासपुर थे। विशिष्ट वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। आयोजन की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार डॉ मीरासिंह, यूएसए, नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल, प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। अध्यक्षता साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने की। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ मनीषा सिंह, मुंबई ने किया। कार्यक्रम में श्रेष्ठ संचालनकर्ताओं को सम्मानित किया गया।





मुख्य अतिथि साहित्यकार डॉ विनय कुमार पाठक, बिलासपुर ने कहा कि सभा, संगोष्ठी आदि में संचालक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उसे हाशिए पर डालना उचित नहीं है। कोई बड़ा ज्ञानी हो, किंतु उसमें  सम्प्रेषणीयता न हो तो गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। संप्रेषण में अति नाटकीयता से भी बचना चाहिए। आजादी के आंदोलन में कई बड़े नेताओं ने हिंदी को अपनी सम्प्रेषणीयता का माध्यम बनाया था, उसका प्रभाव भी पड़ा।


विशिष्ट अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि सूचना, भाव और विचारों के आदान प्रदान के लिए श्रेष्ठ सम्प्रेषण क्षमता की जरूरत होती है। जीवन के सभी क्षेत्रों में सम्प्रेषण कौशल आवश्यक है। शिक्षा, सृजन, व्यवसाय, राजनीति, प्रशासन, समाजकर्म - सभी के लिए यह मेरुदंड के समान है। यह एक गतिशील, द्विपक्षीय और उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है, जिसे निरन्तर अभ्यास से साधा जा सकता है। संप्रेषणकर्ता को श्रोताओं की रुचि और पृष्ठभूमि की भिन्नता को जानना - समझना चाहिए, अन्यथा सम्प्रेषण में अवरोध उत्पन्न हो जाएगा। प्रभावपूर्ण सम्प्रेषण के लिए स्वयं की स्पष्ट अभिव्यक्ति के साथ अपने लक्ष्यों और जरूरतों को लेकर सजगता जरूरी है। बगैर किसी टकराहट के विचारों का विनिमय अच्छे सम्प्रेषण का गुण है। सम्प्रेषण के दौरान दोनों पक्षों की योग्यता समान होने पर यह प्रक्रिया आसान हो जाती है। 


मुख्य वक्ता डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि सामाजिक जीवन में संभाषण कला की आवश्यकता होती है। सामान्य वार्तालाप में भी इसका महत्व है। अच्छे संभाषण के लिए रोचकता और सरसता होना आवश्यक है। संदेशों के आदान प्रदान के दौरान निरंतर क्रिया प्रतिक्रिया होती है। संभाषण कर्ता को गुण और दोषों की पहचान होनी चाहिए। सम्भाषण एक प्रकार की शक्ति है। इसमें श्रेष्ठता को अपनाना जरूरी है। श्रेष्ठ संचालन के लिए विशिष्ट गुणों को व्यवहार में लाना आवश्यक है। व्यक्तित्व, भाषा, आवाज आदि के आधार पर संचालन कार्य बेहतर हो सकता है।




प्रवासी साहित्यकार डॉ मीरा सिंह, यूएसए ने कहा कि संप्रेषण एक महत्वपूर्ण कला है, जो प्रयासों से निरंतर निखार पर आती है। वाणी के माध्यम से दूसरों तक अपने विचारों को पहुंचाने के लिए सजगता आवश्यक है। सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में संप्रेषण कौशल बेहद जरूरी है। वर्तमान दौर में शिक्षक का दायित्व बहुत बढ़ गया है।



विशिष्ट अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि संभाषण एक विशिष्ट कला है। निरंतर अभ्यास करने से इसमें कुशलता प्राप्त की जा सकती है। किसी भी सभा या बैठक के संचालन के लिए पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता होती है।


उद्बोधन में वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि संप्रेषणकर्ता को प्रसन्न मुख होना चाहिए। श्रेष्ठ संचालक वह है जो निरभिमानी होकर अपने कार्य को अंजाम दे। किसी भी कार्यक्रम की सफलता के लिए संचालक की बहुत बड़ी भूमिका होती है। उसे अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए सजग और सतर्क रहना चाहिए। इस कला को सदैव  निखारने के प्रयास जरूरी 




संगोष्ठी की प्रस्तावना महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत करते हुए कहा कि राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना ने एक सौ से अधिक कार्यक्रम कोविड-19 के काल में सफलतापूर्वक संपन्न किए हैं। हम लोग शून्य से सौ तक आए हैं, यह उपलब्धि है। इस दौरान जिन संचालकों ने श्रेष्ठ संचालन किया, उन्हें सम्मानित किया जा रहा है। इससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी।


इस मौके पर कोविड 19 के दौर में आयोजित सौ से अधिक ऑनलाइन कार्यक्रमों में संचालन करने वाले श्रेष्ठ संचालनकर्ताओं को सम्मान पत्र अर्पित उन्हें सम्मानित किया गया। इनमें डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, श्रीमती लता जोशी, मुंबई, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, श्री भरत शेणकर, अहमदनगर, अपर्णा जोशी, इंदौर, सुंदरलाल जोशी सूरज, नागदा, डॉक्टर गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ रागिनी शर्मा इंदौर सम्मिलित थे।


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ रूली सिंह, मुंबई ने की। अतिथि परिचय डॉक्टर ममता झा, मुंबई ने दिया। स्वागत भाषण डॉ सुवर्णा जाधव, मुंबई ने दिया। 


संगोष्ठी में श्रीमती गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, लता जोशी, मुंबई, अनीता ठाकुर, अर्पणा जोशी, इंदौर, डॉ मनीषा सिंह, मुंबई, रीना सुरड़कर, डॉ सुनीता चौहान, मुंबई, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ मनीषा सिंह, मुंबई ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ सुनीता चौहान, मुंबई ने किया।











संप्रेषण कौशल


20210609

महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mahakavi Surdas: Perspectives on Indian Literature, Culture and Tradition - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेम की शक्ति और शाश्वतता के अनुपम गायक हैं महाकवि सूर – प्रो. शर्मा 


अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन 


सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी महाकवि सूरदास : भारतीय साहित्य, संस्कृति और परम्परा के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ऑस्लो, नॉर्वे थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। अध्यक्षता प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की। आयोजन के विशिष्ट अतिथि नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल, साहित्यकार डॉ शैल चंद्रा, धमतरी, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया।






मुख्य अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, नॉर्वे ने कहा कि सूर ने कृष्ण के जीवन से जुड़े सभी प्रसंगों को अपने काव्य में समाहित किया है। उन्होंने अत्यंत सहजग्राह्य और सरल भाषा में कृष्ण का वर्णन किया। उनका काव्य आत्मा तक उतर जाता है। वे वातावरण का सूक्ष्म चित्रण करने में प्रवीण थे। श्री शुक्ल ने सूर काव्य से प्रेरित रचना सुनाई, जिसकी पंक्तियां थीं चलो जमुना के तीरे, यशोदा मैया से कहत नंदलाल।




मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि सूर प्रेम की शक्ति और शाश्वतता के अनुपम गायक हैं। वे अविद्या से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। उन्होंने ईश्वर को प्रेम के वशीभूत माना है। हरि नाम को वे सर्वोपरि स्थान देते हैं। सूर बाल से प्रौढ़ मनोविज्ञान के कुशल चितेरे हैं। उन्होंने ब्रज की लोक सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़कर महत्वपूर्ण सृजन किया। लीला पद गान, रासलीला, ऋतु, पर्व एवं अन्य परंपराओं को सूर ने सरस काव्य के माध्यम से प्रतिष्ठा दी। कृषि और गौपालन संस्कृति का जीवंत चित्रण उनके काव्य को अद्वितीय बनाता है। उन्हें अपने समय और समाज की गहरी पकड़ थी। ग्राम्य और शहरी  जीवन का द्वंद्व उन्होंने सदियों पहले गोपिकाओं के माध्यम से संकेतित किया।



विशिष्ट अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि महाकवि सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं का जीवंत चित्रण किया है। वे बाल मनोविज्ञान और अभिरुचियों के विशेषज्ञ थे। उन्होंने वात्सल्य रस को प्रतिष्ठित किया। सूर काव्य में लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। सूर भक्ति में लीन थे, वही राजसत्ता की तुलना में उनके लिए सर्वोपरि थी। रासलीला का जीवंत वर्णन उन्होंने किया है। भारत की सनातन संस्कृति को उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से जीवंत रखा है।



डॉक्टर शैल चंद्रा, धमतरी ने कहा कि कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा में सूर का नाम अद्वितीय है। साहित्य का सृजन समाज से कटकर नहीं हो सकता। सूर ने माता यशोदा और पुत्र कृष्ण की मनो भावनाओं का सरस वर्णन किया है। सखी इन नैनन तें घन हारे पंक्ति को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि सूर का विरह वर्णन अत्यंत मार्मिक है। कृष्ण और गोपों के माध्यम से सूर ने सांस्कृतिक लोकतंत्र स्थापित किया।



कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि सूर का काव्य भक्ति का शृंगार है। वे उच्च कोटि के गायक थे। उन्हें दैवीय वरदान प्राप्त था। उनकी भक्ति भावना दैन्य और प्रेम से समन्वित है। प्रेम मूर्ति कृष्ण उनके आराध्य हैं। संपूर्ण सृष्टि में कृष्ण की ही छटा बिखरी है, इस बात का संकेत उनका काव्य करता है। उनके काव्य में विविध ऋतुओं और पर्वोत्सवों का सुंदर चित्रण हुआ है। उनके पद सरस और अर्थी हैं। युग जीवन की आत्मा का स्पंदन उनके काव्य में है।




साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि भारतीय भक्ति धारा में सूर का नाम सर्वोपरि है। सूर ने नारी के विविध रूपों का वर्णन अपने काव्य में किया। समाज जीवन के सभी पक्षों को उन्होंने छुआ है। नारी के स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर सूर ने प्रभावी चित्रण किया है। सूर काव्य में तत्कालीन समाज और संस्कृति का निरूपण मिलता है।


साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने प्रास्ताविक वक्तव्य देते हुए कहा कि सूरदास जी का ब्रज भाव आज संपूर्ण देश और दुनिया में विशेष पहचान रखता है। उन्होंने संस्था द्वारा कोविड-19 के दौर में एक सौ वेब संगोष्ठियाँ आयोजित करने पर बधाई दी। उन्होंने काव्य पँक्तियाँ प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज नवल इतिहास रच रहा राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना मंच। 


विशिष्ट अतिथि डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने कहा कि महाकवि सूरदास साहित्य जगत में सूर्य माने जाते हैं। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षित किया था। सूरदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से विविध भावों की अभिव्यक्ति की है। उनके काव्य में प्रकृति सौंदर्य के चित्रण के साथ श्रृंगार के मिलन और विरह दोनों पक्षों का सुंदर निरूपण हुआ है। उनका काव्य भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट है।


कोच्ची के शीजू ए ने भी संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त किए। 


संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने की। संस्था की गतिविधियों का परिचय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने दिया। स्वागत भाषण डॉ गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने दिया। 


संगोष्ठी में डॉ बालासाहेब तोरस्कर, मुंबई, श्रीमती गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे डॉ सुनीता गर्ग, पंचकूला, हरियाणा, डॉक्टर शैल चंद्रा, धमतरी, शीजू के, कोचीन, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, श्री जी डी अग्रवाल, इंदौर, लता जोशी, मुंबई आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।


राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया। आभार प्रदर्शन  डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने किया।











महाकवि सूरदास जयंती


20210606

भारतीय व्रत, पर्व और उत्सव : पर्यावरणीय और मूल्य चेतना के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Indian Fasts and Festivals: Perspective of Environmental and Value Consciousness - Prof. Shailendrakumar Sharma

पर्यावरण अनुकूल व्यवहार सच्ची ईश्वर आराधना है – प्रो. शर्मा 

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ भारतीय व्रत, पर्व और उत्सव : पर्यावरणीय और मूल्य चेतना के परिप्रेक्ष्य में पर मंथन 

सृजनधर्मियों की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी भारतीय व्रत, पर्व और उत्सव : पर्यावरणीय और मूल्य चेतना पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कला संकायाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। मुख्य वक्ता वरिष्ठ पर्यावरणविद् डॉ ओमप्रकाश जोशी, इंदौर थे। अध्यक्षता प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ऑस्लो, नॉर्वे ने की। आयोजन की विशिष्ट अतिथि डॉ अनुसूया अग्रवाल, महासमुंद, छत्तीसगढ़, योगाचार्य निशा जोशी, इंदौर, डॉ संजीव कुमारी गुर्जर, हिसार, डॉ ख्याति पुरोहित, अहमदाबाद, डॉ अरुणा राजेंद्र शुक्ला, डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, प्राचार्य डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे एवं राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी थे। संगोष्ठी का सूत्र संयोजन डॉ सुनीता चौहान, मुंबई ने किया।








मुख्य अतिथि  विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि भारत के लोक और जनजातीय समुदायों में प्रकृति के प्रति गहरा अनुराग और आस्था दिखाई देती है। वृक्षों के नाम के आधार पर गांव और गोत्रों का नामकरण किया जाता है। व्रत,   पर्वोत्सवों का रिश्ता गहरी पर्यावरणीय और मूल्य चेतना से है। उपासना के अनेक स्थलों पर पेड़ों को बहुतायत से देखा जा सकता है। मातृका के रूप में नदियाँ जनजातीय एवं लोक समुदाय में विशेष स्थान रखती हैं। हमारा पर्यावरण अनुकूल व्यवहार सच्ची ईश्वर आराधना है। व्रत का संबंध विशिष्ट आध्यात्मिक एवं मानसिक अवस्था से है, जिसके माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का कार्य सहज ही हो जाता है। ऋग्वेद में ईश्वर की परिकल्पना में मनुष्य और प्रकृति के समस्त उपादानों का समावेश किया गया है। सृष्टि की रचना के साथ ही पर्यावरण और प्राणियों का परस्पर पूरक संबंध माना गया है। भारत में परमेश्वर की उपासना स्वाभाविक कर्मों के माध्यम से करने पर बल दिया गया है। भारत की पर्यावरणीय दृष्टि दुनिया के तमाम देशों के लिए प्रेरणा का विषय है।

पूर्व प्राचार्य डॉ ओम प्रकाश जोशी, इंदौर ने कहा कि भारत कृषि प्रधान देश है। यहां कृषि कार्य, ऋतु परिवर्तन, जन्मोत्सव, सूर्य, चंद्र आदि से जुड़े अनेक पर्व मनाए जाते हैं। भारत में पर्यावरण के दोनों भागों - जीवित और अजीवित की पूजा की जाती है। वर्तमान दौर में हमारी जीवन शैली में बाजारवाद हावी होता जा रहा है। हम उपयोग से उपभोग की ओर जा रहे हैं। ऐसे में त्योहारों और पर्यावरण के बीच सामंजस्य रखना जरूरी है। उन्होंने अनेक पर्वों का उल्लेख करते हुए कहा कि इन सबका प्रकृति के साथ गहरा नाता है। 

अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री सुरेश चंद्र शुक्ला शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण के लिए नदी  एवं अन्य जल स्रोतों के समीप रहने वाले लोगों को व्यापक प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में पर्यावरण के अध्ययन को महत्त्व मिलना चाहिए। वर्तमान में कई देशों में पर्यावरण राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है। उन्होंने पर्यावरण से जुड़ी अपनी कविता प्रस्तुत की। जिसकी पंक्तियां थीं, जब  बसे  होंगे  ये  नगर, हरे- भरे  जंगल  होंगे। आरों ने काट गिराये होंगे, भारी भरकम वृक्ष, चीटियों से मसले गये होंगे नन्हे - नन्हे पौधे।

डॉ अनुसूया अग्रवाल, महासमुंद ने कहा कि पर्व और उत्सव हमारी सांस्कृतिक चेतना को आधार देते हैं। भारत की संस्कृति के निर्माण में पर्यावरण का महत्वपूर्ण योगदान है। सूर्य, चंद्र, वनस्पति, जल  सब मिलकर समन्वित जीवन को आधार देते हैं। अनेक समुदायों में वृक्षों को घर के वरिष्ठ जन के रूप में माना जाता है। प्रकृति के साथ हमारा आत्मीय रिश्ता बना रहे, यह जरूरी है।

डॉ ख्याति पुरोहित, अहमदाबाद ने कहा कि विश्व स्तर पर हमें पर्यावरण को लेकर पुनर्विचार करना होगा। भारत की संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है। प्राचीन काल से ऋषि मुनि इन बातों को जानते थे कि प्रकृति का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। भारत में सभी उपयोगी पौधों को विभिन्न देवी-देवताओं से जोड़ दिया गया है। 

योगाचार्य डॉक्टर निशा जोशी ने कहा कि पर्यावरण हमारे चारों ओर का आवरण है। मनुष्य के द्वारा निरंतर पर्यावरण का विध्वंस किया जा रहा है। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस प्रयास आवश्यक हैं। व्रत हमें आंतरिक शुचिता प्रदान करते हैं।

डॉ संजीव कुमारी गुर्जर, हिसार ने कहा कि पर्यावरण समस्त जीवित और निर्जीव वस्तुओं से बना है, लेकिन जीवित प्राणियों में मनुष्य पर्यावरण का निरंतर विध्वंस कर रहा है। उन्होंने सात आर के सूत्र को अंगीकार करने पर बल दिया। इनमें रीसायकल, रिड्यूस, रीयूज, रिड्यूस, रीथिंकिंग, रिपेयर, रीसायकल और रॉट महत्वपूर्ण हैं।

संस्था परिचय देते हुए साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि मानव के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए संस्था द्वारा महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है। मन और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए साहित्य की आवश्यकता है। धरती, आकाश, सागर, जल और वायु ये सभी प्रकृति के अनुपम उपहार हैं।

विशिष्ट अतिथि डॉक्टर मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने कहा कि भारत के व्रत पर्व और उत्सवों में वैज्ञानिकता अंतर्निहित है। लोक संस्कृति के साथ  इनका गहरा रिश्ता है। हमें मूल्य चेतना को पुनर्जीवित करना होगा। यह सब की जिम्मेदारी है।

डॉ अरुणा राजेंद्र शुक्ला ने कहा कि हमें प्रकृति की चेतावनी को समझना होगा। कोविड-19 के बाद हमने बहुत कुछ सीखा है। संपूर्ण विश्व में संरचनात्मक परिवर्तन लाना होगा। आपदा और महामारी से रक्षा के लिए प्रकृति को सम्मान देना जरूरी है। 



संगोष्ठी की प्रस्तावना डॉ पूर्णिमा कौशिक रायपुर ने प्रस्तुत की। कार्यक्रम के प्रारंभ में सरस्वती वंदना रूली सिंह, मुंबई ने की। अतिथि परिचय श्रीमती लता जोशी, मुंबई ने दिया। स्वागत भाषण डॉक्टर गरिमा गर्ग, पंचकूला, हरियाणा ने दिया।





संगोष्ठी में डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ विमल चंद्र जैन इंदौर, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ सुनीता चौहान, मुंबई श्री मोहनलाल वर्मा जयपुर, अदिति लांभाटे, भुवनेश्वरी जायसवाल, दिनकर बारापत्रे, शैलेश चतुर्वेदी, डॉ ज्योति वर्मा, श्री जी डी अग्रवाल, इंदौर, जयमाला देसाई, लता जोशी, मनीषा सिंह, मंजू श्रीवास्तव, मोहम्मद मुकीम, शिल्पा भट्ट, डॉक्टर शैल चंद्रा, छत्तीसगढ़, प्रवीण नायी, परमानंद शर्मा, नेहा राठौर, नरेश जोशी आदि सहित अनेक शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।

राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ सुनीता चौहान मुंबई ने किया। आभार प्रदर्शन  डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने किया।










 








विश्व पर्यावरण दिवस


हिंदी नाटक, निबन्ध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Hindi Drama, Essay and Other Prose genres and Malvi language - literature : Prof. Shailendra Kumar Sharma

हिंदी नाटक, निबन्ध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य : सम्पादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Shailendrakumar Sharma  


सुधी प्राध्यापकों के सहकार से मेरे द्वारा संपादित - प्रणीत ग्रंथ 'हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य रचनाएँ एवं मालवी भाषा-साहित्य' म प्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल से प्रकाशित हुआ है। हिंदी के प्रतिनिधि एकांकी, निबन्ध और अन्य गद्य विधाओं का समावेश किया गया। पुस्तक में विविध विधाओं और उनके प्रमुख लेखकों का परिचय दिया गया है। ग्रंथ में देश के हृदय मालवा की मर्म मधुर मालवी-निमाड़ी भाषा के साहित्य का अद्यतन इतिहास समाहित है। पुस्तक म प्र के भोपाल, इंदौर और उज्जैन स्थित विश्वविद्यालयों में  स्नातक स्तर पर निर्धारित रही है। 




इसी पुस्तक की भूमिका से..

मानव सभ्यता से जुड़ा कोई भी उपादान इतिहास से निरपेक्ष नहीं है। इस दृष्टि से भाषा और साहित्य का भी अपना इतिहास होता है। मूलतः साहित्य की सत्ता एक और अखंड सत्ता है। फिर भी अध्ययन सुविधा की दृष्टि से साहित्येतिहास को लेकर पर्याप्त मंथन होता आ रहा है। किसी भी क्षेत्र के साहित्य का लोकमानस और जीवन से घनिष्ठ संबंध होता है। जहाँ बिना सामाजिक संदर्भ के साहित्येतिहास लेखन संभव नहीं है, वही रचनाकार की सर्जनात्मक अनुभूतियों की उपेक्षा भी उचित नहीं कहीं जा सकती है। पुस्तक में मालवी-निमाड़ी  भाषा और साहित्य के इतिहास-लेखन में इन बातों को विशेषतः दृष्टिपथ में रखा गया है। साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा के साथ वातावरण के अंतःसंबंधों का भी समावेश किया गया है। साहित्येतिहास लेखन में कई नवीन तथ्यों और सामग्री का समावेश करने की दिशा में अनेक विद्वज्जनों, साहित्यानुरागियों और ग्रंथागारों का सहयोग मिला है। 


साहित्येतिहास लेखन एक अविराम प्रक्रिया है। इस पुस्तक में संचित मालवी साहित्य के इतिहास को उसी प्रक्रिया में एक विनम्र प्रयास कहा जा सकता है। लोकभाषा में रचित साहित्य के इतिहास लेखन की दिशा में हाल ही में गति आई है। ऐसे प्रयासों से बोली में रचे साहित्य पर पुनर्विचार और प्रसार की संभावनाएँ भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रही है। पिछले दशक में मध्यप्रदेश के हृदय अंचल मालवा की मर्म मधुर मालवी-निमाड़ी  और उसके साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की भूमिका बनी है। 


प्रस्तुत पुस्तक में संचित मालवी से संबंधित सामग्री के लिए मालवा के प्रमुख मनीषियों-वरिष्ठ कवि डाॅ. शिव चौरसिया, डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित (निदेशक,विक्रमादित्य शोध पीठ, उज्जैन), डाॅ. पूरन सहगल (मनासा), डाॅ. जगदीशचंद्र शर्मा ( विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन), मालवीमना साहित्यकार स्व. श्री झलक निगम एवं अर्धांगिनी प्रो. राजश्री शर्मा ने सत्परामर्श, युवा कवि डाॅ. राजेश रावल सुशील ने स्मरणीय सहकार दिया है, एतदर्थ आभार। 


प्रस्तुत पुस्तक में साहित्यरसिक और अध्येता हिंदी के साथ मालवी और निमाड़ी  साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं की झलक पा सकेंगे।


पुस्तक का नाम : हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य रचनाएँ एवं मालवी भाषा-साहित्य

प्रकाशक : म प्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल 

मूल्य : 100 ₹

पृष्ठ : 440


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