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20200522

हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम – डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा

हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम – सम्पा. डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

मालवी कविता के प्रतिनिधि स्वर को सहेजती पुस्तक : भूमिका से 

समकालीन भारतीय कविता को लेकर प्रायः यह चिंतातुर स्वर सुनने में आता है कि कविता लोक सामान्य से दूर होती जा रही है। इसके पीछे एक प्रमुख कारण रहा है कि कथ्य, विचार और भाषा - सभी स्तरों पर कविता का लोक, लोक कविता या यूँ कहें समूची लोकधारा से परे होता जा रहा है। इस विलगाव के रहते कथित शिष्ट साहित्य में जटिलता और रूपवादी रुझान उभार पर हैं। देश के विभिन्न अंचलों की बोलियों में रची जा रहीं कविताएँ इस तरह के संकटों से प्रायः मुक्त रही हैं। अन्य आंचलिक बोलियों की तरह भारत के हृदय प्रदेश मालवा की सुगंध और मार्दव को समेटे मालवी की समकालीन कविता का यहाँ की भूमि, जन और संस्कृति से गहरा रिश्ता है, जो उसे वैशिष्ट्य देता है।

मालवी के स्तरीय काव्य मंचों की जो तस्वीरें मेरे मनोमस्तिष्क पर अंकित हैं, उसके सबसे आभामय चेहरों में एक हैं - श्री हरीश निगम (3 मई 1928)। मालव माटी से जुड़ी उनकी सरस अभिव्यक्तियाँ, कर्ण मधुर आवाज, लयपूर्ण गायकी और जीवन के सामान्य से सामान्य क्रियाकलापों और दृश्यों में कविता के कथ्य को खोज लेने की उनकी जन्मजात क्षमता - यह सब मुझे निरंतर आकृष्ट करते रहे हैं। प्रायः समस्त मालवी प्रेमियों की तरह मैं भी उनका श्रोता और दर्शक पहले रहा हूँ, पाठक बाद में। तब से लेकर अब तक लोक मन में उनकी गहरी प्रतिष्ठा को मैंने देखा - महसूस किया है। उनकी छवि लोक जीवन के अत्यंत समर्थ और भावुक हृदय कवि के रूप में लोकमानस में अंकित है। मालवी कविता के प्रमुख स्तम्भ श्री हरीश निगम की चर्चित काव्य कृतियाँ हैं - कुसुम कुंज (1958), हरियालो आंचल (1961 एवं 1980), हिरना सांवली (1982), अपरंच (2004) आदि। उन्होंने संस्कृत - हिंदी की अनेक कृतियों के मालवी रूपांतर किए, जिनमें प्रमुख हैं- भास का स्वप्नवासवदत्ता (सपना में रानी), शूद्रक का मृच्छकटिक (गारा की गाड़ी), तुलसी के रामचरितमानस का नाट्य रूपांतर लोकमानस राम आदि। लोक संस्कृति पर केंद्रित पत्रिका सांझी के संपादक के रूप में उन्होंने अनेक विशेषांक निकाले, जिनमें प्रमुख हैं - भर्तृहरि विशेषांक, तुलसी विशेषांक, लोक संस्कृति विशेषांक, लोक कथा विशेषांक, भेराजी विशेषांक, तुलसी पंचशती विशेषांक, सिंहस्थ विशेषांक आदि।
श्री निगम के काव्य का स्वाभाविक स्वर शृंगार और हास्य - व्यंग्य का रहा है, जिसमें उन्होंने मालवा के आंतरिक राग और उल्लास को काव्यमय निष्पत्ति दी है। उनका यह स्वर एक सजग कवि के रूप में समय-समय पर परिवर्तित - विस्तारित भी होता रहा। चीन या पाकिस्तान से युद्ध का दौर रहा हो या श्रम और निर्माण की नई तस्वीरें गढ़ने का वक्त, कविवर श्री निगम उत्कट चेतनाशीलता के साथ अपने युग का नमक अदा करते रहे। कवि और आस्वादक के बीच बढ़ती संवादहीनता के दौर में भी उन्होंने अपने लोकधर्मी काव्य के माध्यम से साहित्य के लोकमंगल विधान और कांतासम्मित उपदेश जैसे प्रयोजनों को सिद्ध कर दिखाया। 

श्री हरीश निगम लोक मन और लोक छवि के रचनाकार हैं। इसलिए उनके काव्य का वैशिष्ट्य सहज और सामान्य हो जाने में है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार सच्चा कवि वह है, जिसे लोक हृदय की पहचान हो। श्री निगम ऐसे ही कवि हैं, जिन्होंने लोक हृदय के अपार एवं अद्भुत सागर का अवगाहन किया है और उसकी अतल गहराइयों से शब्दार्थ एवं संवेदना रूपी रत्न लाकर साहित्य जगत् को सोपे हैं। कवि की चिंता लोक की चिंता है और कवि का सुख लोक का सुख। यही वजह है कि श्री निगम की कविता की परिव्याप्ति में लोक जीवन के हास – अश्रु, उल्लास - संघर्ष, प्रेम – विरह - सभी कुछ समाहित हैं, वही राष्ट्र जीवन की समस्याएँ भी अनछुई नहीं रही हैं। श्री निगम का मालवा के लोक जीवन से तादात्म्य संबंध है। इसी लोक जीवन से उन्होंने शब्दों का चयन किया है, बिंबों और प्रतीकों को आत्मसात किया है और उसी से छंद और लय प्राप्त किए हैं। उनकी कविताएं आधुनिक होने के बावजूद वाचिक परंपरा से गहरे जुड़ी हैं। 

प्रसिद्ध रचना हरियालो आँचल में मालवा की रंगत को उन्होंने कुछ इस तरह शब्दों में ढाला है: 
दिल्ली तो देखी ली रानी, म्हारे साते चाल वो।
भारत माता का हिरदा में जड्यो रतन सो मालवो।

मालवा सहित मध्यप्रदेश की लोक परम्पराएँ यहाँ पूरी धज के साथ उतरती हैं :
आल्हा - उदल, ताल, ठुमरी, नौटंकी और ब्रह्मानंद। 
गरबा, माच, राम की लीला हुइरिया हे स्वर्गीय आनंद। 
चंद्रसखी का भाव गीत में बाजे कितरा साज वो 
नानी बई का मामेरा में बाजे कितरा साज वो। 
रामदेव को ब्याव गवई रियो, भर्यो हुओ चौपाल वो 
भारत माता का हिरदा में जड्यो रतन सो मालवो।
  
इस कविता को पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास ने मालवा की जीवती - जागती झाँकी कहा है :  मेघदूत में जिस तरा हर जगे को वर्णन उना स्थान की खास विशेषता के अपने सामने लई दे है। उनी तरेज हरीश जी की कविता तीर्थ यात्रा में अपना साथ लई जावे हे  प्रत्येक स्थान का वर्णन सरस, मनोहारी और सजीव बनी गयो हे। फिर मालवी को अपनो मीठोपन  ऊ में दूध में शक्कर की तरे घुली मिली के और भी रसमय बनई दियो हे।  पूरी कविता मालव प्रदेश की जीवती जागती झांकी है।

उनकी एक प्रसिद्ध रचना है जिसमें उन्होंने ग्राम बाला के सौंदर्य और गतिमयता को ध्वनि - संगीत और प्रकृति के हृदयग्राही वातावरण के साथ एक रूप कर दिया है: 

गोरड़ी चले मन मोरड़ी चले
रुनक - झुनक बिछिया पे ताल है बजे,
सांवरा की बंसरी पर ख्याल है बजे।
दिवला से बात मिले, तरुवर से पात मिले,
छलिया को प्यार देख, आज है छले, गोरड़ी चले।

आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था आई और पुरानी परिपाटी समाप्त होने लगी। शोषण और दमन के प्रतीक ढहने लगे, तब उन्होंने जागीरदारी प्रथा पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी लिखी : 

जागीरदार की गयी जागीरी, गयो मूँछ को ताव
अब पड़ेगा मालूम ठाकर लूण, तेल, लकड़ी का भाव।
मोटा-मोटा पोत्या बाँधा, कम्मर में खूँसी तलवार,
छोरा-छोरी खाए जलेबियाँ, गिरवे है आखो घर बार। 

डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम


मालवी कवि श्री हरीश निगम इस देश के हरियाले आँचल अर्थात् मालवा के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने हरियालो आँचल नाम से एक सुदीर्घ कविता लिखी है, जो देश भर में बहुचर्चित - बहुप्रशंसित रही है। इस कृति में उन्होंने कालिदास के मेघदूत की शृंखला में नई प्रयोगधर्मिता के साथ मालवा की छवि को कल्पनाकुशल ढंग से अंकित किया है। यह छवि मात्र नैसर्गिक या सांस्कृतिक ही नहीं है, उसमें बहुत सारे आयाम अनायास ही समाहित हो गए हैं। इन सारे आयामों को कवि ने एक हरकारे (संदेशवाहक) के रूप में देशवासियों तक संप्रेषित करने के लिए समर्थ प्रयास किया। इसके अतिरिक्त अन्य गीत और कविताओं के माध्यम से भी उन्होंने स्वतंत्र भारत के संवर्धन, सुरक्षा, सद्भाव और सुसंगति के लिए भी जन - जन तक सरस संदेश पहुंचाए हैं, हरियाली आंचल के कर्मनिष्ठ हरकारा बनकर। उनके हरकारा रूप में कालिदास से लेकर कबीर तक और निराला से लेकर नवीन तक अनेक संदेशदाता कवियों की छवियों को महसूस किया जा सकता है।

भारत के लोक सांस्कृतिक परिदृश्य को देखें तो मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति की उत्कृष्टता पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास, डॉ श्याम परमार, डॉ चिंतामणि उपाध्याय, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ प्रह्लादचंद्र जोशी आदि के व्यापक प्रयत्नों से स्थापित तथ्य बन गई है। इधर मालवी की नई रचनाधर्मिता के मूल्यांकन - समीक्षण का अभाव सुधीजनों को खटकता रहा। इस दृष्टि से मालवी के प्रतिनिधि कवि श्री हरीश निगम के विविधायामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पुस्तक की योजना तैयार हुई, जो डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक हरियाले आंचल का हरकारा हरीश निगम के रूप में आपके सम्मुख है।

पुस्तक में पद्मभूषण सूर्यनारायण व्यास, पद्मभूषण डॉ शिवमंगलसिंह सुमन, श्री गोपालदास नीरज, सुल्तान मामा, डॉ चिंतामणि उपाध्याय, श्री बालकवि बैरागी, श्री मदनमोहन व्यास, डॉ शिव शर्मा, डॉ प्रभातकुमार भट्टाचार्य, श्री बटुक चतुर्वेदी, प्रो कलानिधि चंचल, डॉ बसंतीलाल बम, डॉ श्यामसुंदर निगम, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, डॉ शिवसहाय पाठक, आचार्य श्री निवास रथ, डॉ मोहन गुप्त आदि की टिप्पणियाँ और संस्मरण संकलित हैं।

सुधी साहित्यकार डॉ प्रहलादचंद्र जोशी, डॉ शिवकुमार मधुर, श्री नटवरलाल स्नेही, श्री राजशेखर व्यास, श्री रामरतन ज्वेल, श्री हरिनारायण व्यास, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, श्री मोहन सोनी, डॉ शिव चौरसिया, डॉ विष्णु भटनागर, श्री नरहरि पटेल, श्री चंद्रशेखर दुबे, श्री ललितनारायण उपाध्याय, प्रो हरीश प्रधान, अशोक वक्त, डॉ पूरन सहगल, डॉ विनय कुमार पाठक, डॉ भगीरथ बड़ोले, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, श्री बसंत निरगुणे,  श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय, डॉ जगदीशचंद्र शर्मा, डॉ हरीशकुमार सिंह, श्री वेद हिमांशु, डॉ रश्मिकांत व्यास, डॉ विलास गुप्ते, श्री झलक निगम, डॉ विवेक चौरसिया, श्रीमती उर्मिला निरखे, श्रीमती जयश्री भटनागर, डॉ राजी अशोक, श्रीमती मंजू निगम, श्री प्रदीप बैस, सीमा निगम आदि के आलेख, संस्मरण एवं टिप्पणियां इस पुस्तक में समाहित हैं। 

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
हरियाले आँचल का हरकारा हरीश निगम
संपादक : डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा
ऋषि मुनि प्रकाशन

20200518

कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

असमाप्त लिप्सा और दोहन से उपजे कोविड संकट से मुक्ति की राह है भारत - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में प्रो शर्मा का व्याख्यान : 

शोध धारा शोध पत्रिका, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान, उरई, उत्तर प्रदेश एवं भारतीय शिक्षण मंडल, कानपुर प्रान्त के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के समापन दिवस पर  व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। यह संगोष्ठी वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और भारत राष्ट्र : चुनौतियां संभावनाएं और भूमिका पर केंद्रित थी। 



संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि वर्तमान विश्व मनुष्य की असमाप्त लिप्सा और अविराम दोहन से उपजे संकट को झेल रहा है। अंध वैश्वीकरण, असीमित उपभोक्तावाद और अति वैयक्तिकता की कोख से उपजे कोविड - 19 संकट ने भारतीय मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली की प्रासंगिकता को पुनः नए सिरे से स्थापित कर दिया है। मनुष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। प्रकृति के साथ स्वाभाविक रिश्ता बनाते हुए अक्षय विकास के मार्ग पर चलकर ही इस संकट से उबरा जा सकता है। कोई भी महामारी तात्कालिक नहीं होती, उसके दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। इस दौर में उपजे बड़ी संख्या में विस्थापन, भूख, बेरोजगारी और बेघर होने के संकट को सांस्थानिक और सामुदायिक प्रयासों से निपटना होगा। अभूतपूर्व विभीषिका के बीच यह सुखद है कि हम भारतीय जीवन शैली, पारिवारिकता और सामुदायिक दृष्टि के अभिलाषी हो रहे हैं।

व्याख्यान सत्र के वक्तागण गोरखपुर के प्रो सच्चिदानंद शर्मा, पर्यावरण वेत्ता एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के वनस्पति विज्ञान विभाग के आचार्य डॉ अनिलकुमार द्विवेदी एवं डॉ संतोषकुमार राय, झांसी थे। 

प्रारम्भ में संगोष्ठी संयोजक डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने अतिथि परिचय एवं स्वागत भाषण दिया।

संचालन डॉ श्रवणकुमार त्रिपाठी ने किया। रिपोर्ट का वाचन डॉ नमो नारायण एवं डॉ अतुल प्रकाश बुधौलिया, उरई एवं आभार प्रदर्शन डॉ राजेश चन्द्र पांडेय ने किया। 



डॉ राजेश चन्द्र पांडेय
संपादक शोध पत्रिका शोध धारा एवं 
शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान
उरई, उत्तर प्रदेश

20200512

स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. मोहन बैरागी

स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम - संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. मोहन बैरागी 

Stri Vimarsh : Parampra Aur Naveen Ayam - Prof. Shailendrakumar Sharma, Dr. Mohan Bairagi

संपादकीय :
स्त्री विमर्श महज एक बौद्धिक विमर्श नहीं है, यह व्यापक सामाजिक - सांस्कृतिक - वैचारिक परिवर्तन का माध्यम है। यह इस बात की ओर तीखा संकेत करता है कि यह दुनिया स्त्री के लिए शायद नहीं बनी है और अब स्त्री इसे फिर से बनाना चाहती है। पुरुषवर्चस्ववादी समाज के बीच विलम्ब से ही सही, स्त्री विमर्श को मुकम्मल जगह मिल गई है। समकालीन चैंतनिक परिदृश्य  में यह विमर्श एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बन गया है। साहित्य और संस्कृति के फलक पर इसकी व्याप्ति जहाँ विचारोत्तेजक रही, वहीं निरंतर जटिल होती सामाजिक - आर्थिक संरचना के बरअक्स इसके कई नए आयाम उभरे हैं।

यह तय बात है कि आज भारतीय समाज में सदियों पुरानी नारी स्थिति से पर्याप्त अंतर आ गया है, किन्तु यह भी सच है कि भारतीय समाज के वैचारिक दायरे में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आ सका है। नारी के उद्विकास को पुरुष वर्चस्ववादी समाज ने स्वीकारना भले ही शुरू कर दिया है, किंतु उसकी समस्याएँ कई नए रूप-रंगों में ढलकर सामने आ रही हैं।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक स्त्री विमर्श परम्परा और नवीन आयाम Book of Shailendra Kumar Sharma 

वैश्विक परिदृश्य में स्त्रियों के संघर्ष और सशक्तीकरण की दिशा में व्यापक प्रयास हुए हैं। इधर भारत में पुनर्जागरण के दौर में स्त्री अधिकारों के प्रति व्यापक सजगता प्रारंभ हुई, वहीं राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागिता के साथ समानांतर शैक्षिक और सांस्कृतिक बदलाव में स्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आधुनिक भारतीय परिप्रेक्ष्य में अनेक स्त्री रत्नों ने व्यापक प्रयास किए, जिनमें सावित्रीबाई फुले, रमाबाई आंबेडकर, एनीबेसेंट,  काशीबाई कानिटकर, भगिनी निवेदिता, भीकाजी कामा, कुमुदिनी मित्रा, लीलावती मित्रा, कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि उल्लेखनीय हैं।

स्त्री विमर्श : परम्परा और नवीन आयाम पुस्तक में स्त्री विमर्श के विविध सरोकारों पर अन्तरानुशासनिक दृष्टि से गम्भीर पड़ताल हुई है। नारी विमर्श को लेकर साहित्यिक, सांस्कृतिक, समाजवैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, दार्शनिक आदि अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। इस पुस्तक के माध्यम से यह पड़ताल भी सम्भव हुई है कि समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में नारी जीवन से जुड़ी विद्रूपताओं और विसंगतियों के विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर मुखरित हैं। विवेचना के केंद्र में कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोरा, नासिरा शर्मा, कमल कुमार, मेहरून्निसा परवेज, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता आदि का कथा साहित्य रहा है। स्त्री कविता में नारी के अंतर्बाह्य संघर्ष और परिवर्तनकारी प्रयत्नों की आहट को इस पुस्तक में महसूस किया जा सकता है। पुरुष रचनाधर्मिता के परिप्रेक्ष्य में नारी विमर्श के स्वर भी इस पुस्तक में मुखरित हुए हैं।

पुस्तक में यू.एस.ए. की विदुषी डॉ. अम्बा सारा कॉडवेल ने अपने विशेष आलेख 'Shakti and Shakta' के माध्यम से भारत में शक्ति पूजा की परम्परा एवं अनेक दर्शनों के आलोक में नारी विमर्श के विविध आयामों की गम्भीर पड़ताल की है। उन्होंने माना है कि भारत में शक्ति रूप में नारी के महत्त्व और उसके प्रभाव की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। यह संपूर्ण विश्व में अद्वितीय है। दक्षिण एशियाई धर्मों में देवी की उदात्त और सुंदर छबियों को जन्म मिला, जिन्हें दुनिया ने कभी नहीं देखा था। उन्हें हम अत्यधिक रहस्यात्मक और सशक्त कह सकते हैं। मिनिएचर पेंटिंग, मूर्ति शिल्प आदि अनेक माध्यमों से दुर्गा, काली, सीता, राधा आदि की महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। शैव और शाक्त दर्शनों के माध्यम से देवी आराधना के कई रूप प्रकट होते हैं, जहाँ स्त्री को विद्या, विजय, आनन्द और सृजन के स्रोत के रूप में महिमा मिली है।

पुस्तक में स्त्री विमर्श की परंपरा को नए आयामों में रूपांतरित होते हुए देखा जा सकता है। स्त्री विमर्श  पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ मुखर होने के बाद  अब व्यापक मनुष्यता की दिशा में गतिशील है। और यह स्त्रियों के लंबे संघर्ष से ही संभव हो सका है।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

20200510

मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Malvi Language and Literature : Prof. Shailendra Kumar Sharma

मालवी भाषा और साहित्य : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

Malvi Bhasha Aur Sahitya:
Prof. Shailendrakumar Sharma

पुस्तक समीक्षा: डॉ श्वेता पंड्या

Book Review : Dr. Shweta Pandya 

मालवी भाषा एवं साहित्य के इतिहास की नई दिशा 

लोक भाषा, लोक साहित्य और संस्कृति का मानव सभ्यता के विकास में अप्रतिम योगदान रहा है। भाषा मानव समुदाय में परस्पर सम्पर्क और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। इसी प्रकार क्षेत्र-विशेष की भाषा एवं बोलियों का अपना महत्त्व होता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़े विशाल वाङ्मय में मालवा प्रदेश, अपनी मालवी भाषा, साहित्य और संस्कृति के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यहाँ की भाषा एवं लोक-संस्कृति ने  अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव डालते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। मालवी भाषा और साहित्य के विशिष्ट विद्वानों में डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। प्रो. शर्मा हिन्दी आलोचना के आधुनिक परिदृश्य के विशिष्ट समीक्षकों में से एक हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं के साथ-साथ मालवी भाषा, लोक एवं शिष्ट साहित्य और संस्कृति की परम्परा को आलोचित - विवेचित करने का महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक प्रयास किया है। उनकी साहित्य-समीक्षा में सुस्पष्ट व्यावहारिक विश्लेषण भी दृष्टिगोचर होता है, जो निश्चित रूप से  सार्थक साहित्य दृष्टि के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

मालवी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवी भाषा और साहित्य का अप्रतिम स्थान है। इस पुस्तक के मुख्य सम्पादक एवं लेखक डॉ.  शैलेन्द्रकुमार शर्मा हैं। उनके साथ सम्पादन सहयोग डॉ. दिलीपकुमार चौहान एवं डॉ. अजय गौतम ने किया है। इसका प्रकाशन मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल द्वारा किया गया है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवी भाषा और साहित्य Book of Shailendra Kumar Sharma

इस पुस्तक की शताधिक पृष्ठीय सुविस्तृत भूमिका में डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा मालवी भाषा और साहित्य के प्रत्येक पहलू पर विस्तृत विवेचन किया गया है।  प्रथम भाग के अन्तर्गत मालवी भाषा की प्रमुख विशेषताओं, भेद – प्रभेद, मालवी साहित्य के इतिहास, प्रमुख धाराओं और साहित्यकारों के अवदान पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय भाग के अन्तर्गत मालवी के प्रख्यात कवियों के वैशिष्ट्य निरूपण के साथ उनकी प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है।

कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली - भाषा, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं एवं प्रत्येक वर्ष लगभग दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह समस्या मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों के साथ भी है। इनके प्रयोक्ताओं की कमी होती जा रही है। इस समस्या के निराकरण हेतु इस पुस्तक की रचना की गई है अर्थात् हमारी भाषा एवं साहित्य-संस्कृति से पाठक और शिक्षार्थी लाभान्वित हों, वे उससे परिचित हों, इसी उद्देश्य से लेखक डॉ शर्मा ने इस पुस्तक का सृजन किया है।

पुस्तक का विषय मालवी भाषा और साहित्य अपने आप में पर्याप्त गुरु गम्भीर है। डॉ शर्मा ने विषय-विवेचन की दृष्टि से प्रथम खण्ड को इन शीर्षकों में विभाजित किया है - मालवा और मालवी, मालवी: उद्भव और विकास, मालवी और उसकी उपबोलियाँ, निमाड़ और निमाड़ी, मालवी साहित्य का इतिहास, नाट्य साहित्य, गद्य साहित्य, निमाड़ी साहित्य की विकास यात्रा इत्यादि। विवेचन के ये शीर्षक विवेच्य विषय की व्यापकता का आभास देते हैं।

मालवी भाषा, साहित्य और उसका इतिहास के अन्तर्गत सर्वप्रथम मालवा और मालवी को लेकर विवेचन किया है। यहाँ डॉ शर्मा ने मालवा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘माल’ शब्द से बताई है। मालवा के परिचय को जनश्रुति के अनुसार कबीर के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया है -

‘देश मालवा गहन, गम्भीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर।’

मालवा क्षेत्र के विस्तार को लोक में चर्चित उक्ति के माध्यम से नदियों के प्रवाह क्षेत्र के आधार पर निरूपित किया गया है :
 इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान।
 दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

इसका विस्तार मध्यप्रदेश और राजस्थान के लगभग बाईस जिलों में बताया गया है। साथ ही मालवी भाषा एवं इसकी सहोदरा निमाड़ी भाषा का प्रयोग करने वाले सभी जिलों, जैसे-वर्तमान में मालवी भाषा का प्रयोग, मध्यप्रदेश के उज्जैन सम्भाग के नीमच, मन्दसौर, रतलाम, उज्जैन, देवास, आगर एवं शाजापुर जिलों; भोपाल संभाग के सीहोर, राजगढ़, भोपाल, रायसेन और विदिशा जिलों; इंदौर संभाग के धार, इंदौर, हरदा, झाबुआ, अलीराजपुर जिले ; ग्वालियर संभाग के गुना जिले, राजस्थान के झालावाड़, प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा एवं चित्तौड़गढ़ आदि जिलों के सीमावर्ती क्षेत्रों में होता है। इनके अलावा कुछ जिलों में मालवी के साथ बुंदेली, निमाड़ी एवं जनजातीय बोलियों के मिश्रित रूप प्रचलित हैं। मालवी की सहोदरा निमाड़ी भाषा का प्रयोग बड़वानी, खरगोन, खण्डवा, हरदा और बुरहानपुर जिलों में उल्लेखित किया गया है। मालवा-निमाड़ क्षेत्र को मानचित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। निमाड़ शब्द की व्युत्पत्ति, भाषा एवं संस्कृति की दृष्टि से मालवी और निमाड़ी का अन्तः सम्बन्ध भी बताया है। विभिन्न कालों में परिस्थितियों में परिवर्तन के बावजूद मालवा के लोकजीवन और लोकमानस में मालवीपन की अक्षुण्णता को जीवन्त बताते हुए मालवी भाषा को अपने आप में एक विलक्षण भाषा के रूप में स्थापित किया है। प्रो शर्मा ने मालवी लोक-संस्कृति, लोक-परम्पराएँ, मालवा क्षेत्र में विविध ज्ञान और कला रूपों के विकास, लोक-साहित्य इत्यादि के आधार पर इसका महत्त्व एवं मालवी लोक भाषा और संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन में किए गए प्रयत्नों की विवेचना की है। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के ‘माच’ का विशिष्ट स्थान प्रतिपादित बताते हुए इसके वैशिष्ट्य और परम्परा के साथ ही मालवी साहित्य की परम्परा को समृद्ध करने वाले साहित्यकारों का उल्लेख किया गया है।

 प्रो शर्मा ने मालवी: उद्भव और विकास शीर्षक के अन्तर्गत वर्तमान मालवी का उद्भव क्रमशः आवन्ती एवं पैशाची प्राकृत तथा आवन्ती एवं पैशाची अपभ्रंश के मिश्रित रूप से बताया है। मालवी भाषा का उद्भव 700 ई. के आसपास से माना  है। मालवी का क्रम विकास तालिका के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। विभिन्न युगों में अन्य भाषाओं का मालवी भाषा पर प्रभाव तथा हिन्दी भाषा से इसकी समृद्धि का निरूपण किया गया है। मालवी और उसकी उपबोलियाँ शीर्षक के अन्तर्गत केन्द्रीय या आदर्श मालवी, सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी या दशपुरी, उमठवाड़ी, भीली सभी उपबोलियों के रूप का परिचय देते हुए इनकी व्याकरणिक विशेषताओं का भी उदाहरण सहित विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

निमाड़ और निमाड़ी शीर्षक के अंतर्गत निमाड़ क्षेत्र के नामकरण को लेकर विभिन्न मान्यताओं को उद्धृत किया है। इस क्षेत्र का विस्तार- खण्डवा, बुरहानपुर, खरगोन, बड़वानी और हरदा जिलों में बताया है। यहाँ पर विभिन्न शासकों के आधिपत्य का भी वर्णन किया है। निमाड़ी भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ और विशेष रूप से मालवी एवं निमाड़ के पुरुषवाची, क्रिया रूप आदि की तुलना तीनों कालों में तालिका द्वारा स्पष्ट की है।

मालवी साहित्य का इतिहास शीर्षक के अन्तर्गत मालवी साहित्य के इतिहास को तीन भागों प्राचीनकाल (700 ई. से 1350 ई.), मध्यकाल (1351 ई. से 1850 ई.) एवं आधुनिक काल (1851 ई. से निरन्तर) में विभाजित किया है। प्राचीन युगीन मालवी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों में सिद्ध, नाथ एवं जैन काव्यधारा का लोकव्यापी विस्तार स्पष्टतः परिलक्षित किया गया है, जैसे- मुनि देवसेन के दर्शनसार, महाकवि स्वयंभू के स्वयंभूछन्द, महाकवि धनपाल के पाइअलच्छी इत्यादि ग्रन्थों में मालवी भाषा से साम्य रखते हुए दोहों तथा डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित द्वारा किए गए इन दोहों के मालवी रूपान्तर भी प्रस्तुत किए हैं।
प्रो शर्मा के अनुसार मालवी का मध्ययुगीन काव्य भक्ति एवं दर्शन के सूत्रों से आप्लावित था। इस दौर में निर्गुण-सगुण भक्तिधारा का प्रवाह तथा उत्तर मध्यकाल में शृंगारपरक काव्यधारा का प्रवाह बताया है। इस युग में मालवी में भक्ति काव्य की धारा प्रबल रूप लेती हुई दर्शाई गई है,  जिसका महत्त्व भारतीय चिन्तनधारा के परिप्रेक्ष्य के साथ जुड़ने तथा उसे लोक-व्याप्ति और विस्तार देने में भी परिलक्षित किया गया है। साथ ही यहाँ के सन्तों पर अनेक तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों, नाथपंथियों, निर्गुण भक्त कवियों तथा मत-मतान्तरों का प्रभाव बताया है। इसी युग में निर्गुणोपासक के रूप में संत कवि पीपाजी, सगुण भक्ति काव्यधारा को समृद्ध करने में चन्द्रसखी और शृंगारपरक काव्य सृजन के लिए रानी रूपमती के अप्रतिम योगदान को उदाहरण सहित विस्तार से उद्घाटित किया है।

आधुनिक काल में श्री नारायण व्यास ने मालवी में रामायण की रचना की थी। पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास ने स्वयं मालवी में लेखन किया और इसकी प्रगति के लिए निरंतर सक्रिय रहे। पन्नालाल शर्मा ‘नायाब’ ने मालवी में एकांकी एवं कविताएं रचीं। मालवी कवि एवं गीतकारों में प्रमुख रूप से आनन्दराव दुबे, पूनमचन्द सोनी, गिरवरसिंह भँवर, नरेन्द्रसिंह तोमर, हरीश निगम, मदनमोहन व्यास, बालकवि बैरागी, नरहरि पटेल, सुल्तान मामा, पुखराज पांडे, मोहन सोनी, डॉ शिव चौरसिया, जगन्नाथ विश्व, झलक निगम, नरेंद्र श्रीवास्तव नवनीत, मनोहरलाल कांठेड़, परमानन्द शर्मा अमन, हास्य-व्यंग्यपरक काव्यधारा में भावसार बा, प्रकृतिपरक खण्डकाव्य के रचनाकार डॉ. राजेश रावल ‘सुशील’, मालवी में रेडियो नाटक और सामयिक लेख लिखने वाले वरिष्ठ कवि सतीश श्रोत्रिय, मालवी गीत-गज़ल के साथ-साथ मुक्त छंद और हाइकू में भी सिद्धहस्त बंसीधर बंधु, अशोक आनन, डॉ देवेंद्र जोशी आदि,  मालवी हाइकू के आरम्भकर्ता सतीश दुबे एवं इसे समृद्ध करने वाले रचनाकारों में ललिता रावल और रामप्रसाद सहज इत्यादि मालवी के प्रख्यात कवियों एवं साहित्यकारों की रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की है, जिनसे इन रचनाकारों का मालवी भाषा को विशिष्ट अवदान ज्ञात होता है। उपर्युक्त साहित्यकारों के अतिरिक्त शताधिक मालवी रचनाकारों, मालवा क्षेत्र में रहकर शोध करने वाले अध्येताओं एवं गद्यकारों का भी उल्लेख समीक्षक डॉ शर्मा ने किया है।

नाट्य-साहित्य शीर्षक के अन्तर्गत मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक-नाट्य ‘माच’ को माना है। यह लोक-नाट्य, लोकरंजन और लोकमंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। इसकी उत्सभूमि उज्जैन एवं इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान लेखक ने प्रतिपादित किया है। माच के प्रवर्तक गुरु गोपाल जी हैं। इनके द्वारा प्रणीत लोकप्रिय खेलों में गोपीचन्द, प्रहलाद चरित्र और हीर-रांझा का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त माच परम्परा को आगे बढ़ाने वाले गुरुओं के नाम के साथ ही इनके द्वारा निर्मित माच के नाम भी उद्धृत किए गए हैं, जैसे- गुरु बालमुकुन्द जी- गेंन्दापरी, राजा हरिश्चन्द्र, रामलीला, ढोला मारूनी, राजा भरथरी आदि; गुरु रामकिशन जी- मधुमालती, पुष्पसेन, विक्रमादित्य, सिंहासन बत्तीसी, गोपीचन्द आदि; श्री सिद्धेश्वर सेन- राजा रिसालू, प्रणवीर तेजाजी, राजा भरथरी, सत्यवादी हरिश्चन्द्र इत्यादि। इस प्रकार लोक-नाट्य ‘माच’ का विस्तृत विवेचन किया गया है।

गद्य-साहित्य शीर्षक के अन्तर्गत आधुनिक युग में मालवी गद्य के पुरोधा के रूप में पन्नालाल नायाब का नाम विशेष रूप से एकांकी विधा में अविस्मरणीय योगदान के लिए उद्घाटित किया है। पुस्तक में मालवी के कई गद्यकारों द्वारा कहानी, लघुकथा, निबन्ध, उपन्यास इत्यादि विधाओं के विकास में विशिष्ट भूमिका निभाने का उल्लेख मिलता है। मालवी में आधुनिक कथा-साहित्य के  विकास पर विस्तार से चर्चा करते हुए मालवी गद्य को श्रीनिवास जोशी के अद्वितीय अवदान को प्रतिपादित किया है। पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास के मालवी काव्य एवं गद्य तथा श्रीनिवास जोशी की कथा परम्परा को आगे बढ़ाने वाले साहित्यकारों में चन्द्रशेखर दुबे, ललिता रावल, डॉ. पूरन सहगल, डॉ. तेजसिंह गौड़, विश्वनाथ पोल, अरविन्द नीमा ‘जय’, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, रचनानन्दिनी सक्सेना, सतीश श्रोत्रिय, राधेश्याम परमार ‘बन्धु’ इत्यादि का उल्लेख किया है। इन रचनाकारों ने  उपन्यास, कहानी, कविता, लघुकथा, व्यंग्य, प्रहसन, निबन्ध, समीक्षा आदि विधाओं में सक्रिय भूमिका निभाई है। साथ ही मालवी भाषा में लेख, टिप्पणी, अनुवाद तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख उपलब्ध होने का उल्लेख किया है। मालवी भाषा, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में योगदान देने वाले एवं मालवी में वैचारिक और समीक्षात्मक निबन्ध की प्रगति में योगदान देने वाले सुधी विद्वानों के नाम भी उल्लेखित किए हैं।

निमाड़ी साहित्य शीर्षक को लेकर निमाड़ी भाषा के शुरूआती रचनाकारों में सन्त लालनाथ गीर (1400 ई. के आसपास), सन्त जगन्नाथ गीर (1440 ई. के आसपास), सन्त ब्रह्मगीर (1470 ई. के आसपास) एवं सन्त मनरंगगीर (सन् 1500 ई. के आसपास), सन्त कवि सिंगाजी इत्यादि की रचनाओं से उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवियों का उल्लेख किया है। आधुनिक युग में निमाड़ी लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास से परिचित करवाने के लिए पं. रामनारायण उपाध्याय के योगदान का विशेष रूप से उल्लेख किया है। निमाड़ी कविता, निमाड़ी अनुवाद, व्यंग्यात्मक कविता, गीत, निमाड़ी-हिन्दी शब्दकोश, निमाड़ी व्याकरण एवं निमाड़ी में पद्यानुवाद करने वाले सभी विद्वानों के योगदान पर प्रकाश डाला गया है।

स्वातंत्र्योत्तर दौर में निमाड़ी साहित्य को अनेक कवि, गद्यकार और शोधकर्ताओं ने समृद्ध किया है, उनमें गौरीशंकर शर्मा गौरीश, प्रभाकर दुबे, बाबूलाल सेन, जगदीश विद्यार्थी, ललितनारायण उपाध्याय, गेंदालाल जोशी ‘अनूप’, वसन्त निरगुणे, डॉ. श्रीराम परिहार, शिशिर उपाध्याय, जगदीश जोशीला, कुंवर उदयसिंह अनुज, सदाशिव कौतुक, हेमन्त उपाध्याय, प्रमोद त्रिवेदी पुष्प इत्यादि का विभिन्न विधाओं में योगदान बताते हुए अनेक समकालीन निमाड़ी कवियों के नाम उल्लेखित किए हैं। अन्त में स्वयं का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक के द्वितीय भाग में संत पीपा, संत सिंगाजी, आनन्दराव दुबे, मदनमोहन व्यास, मोहन सोनी, बालकवि बैरागी, भावसार बा, नरहरि पटेल, शिव चौरसिया एवं श्रीनिवास जोशी आदि रचनाकारों के अवदान एवं उनकी चयनित रचनाओं का समावेश किया गया है।

प्रस्तुत पुस्तक में मालवी भाषा, साहित्य एवं इतिहास का जैसा बहुआयामी, विशद, गम्भीर और वस्तुनिष्ठ विवेचन दिखाई देता है, वैसा मालवी साहित्य विषयक किसी अन्य पुस्तक में  उपलब्ध नहीं है। मालवी भाषा और साहित्य के विविध पक्षों पर चर्चा करते हुए एवं स्थान-स्थान पर प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग करते हुए  डॉ. शर्मा अपने मौलिक एवं गम्भीर चिन्तन का परिचय देते हैं। डॉ. शर्मा की अतिसूक्ष्म विश्लेषण पद्धति ने इसे मालवी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में स्थापित कर दिया है।

दो भागों में विभक्त यह पुस्तक मालवी  साहित्य से सम्बद्ध समस्त पक्षों का न सिर्फ अन्वेषण करती है, वरन् तर्कपूर्ण ढंग से उसका समग्र भी मूर्त कर देती है। मालवी भाषा और साहित्य विषय के विवेचन हेतु लेखक द्वारा अपेक्षित सभी शीर्षकों पर विस्तार से चर्चा की गई है।  लेखक मालवी भाषा और साहित्य के सभी पक्षों पर महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए विषय के साथ न्याय करने में  पूर्णतः सफल रहे हैं।

लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने पुस्तक को सरल एवं सरस स्वरूप प्रदान करने की दृष्टि से परिनिष्ठित खड़ी बोली एवं मुहावरों, दोहों एवं कहावतों में मालवी भाषा का भी प्रयोग किया है तथा स्थान स्थान पर वर्णनात्मक, विवरणात्मक एवं विश्लेषणात्मक शैली का प्रयोग करते हुए अपनी पुस्तक को सरस एवं आकर्षण स्वरूप में उपस्थित कर दिया है।

इस पुस्तक की मुख्य उपलब्धि मालवी भाषा को अपने आप में एक विलक्षण भाषा के रूप में स्थापित करना है। पुस्तक के अन्त में मूल्यवान सन्दर्भ ग्रन्थ सूची दी गई है, जो पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए दिशा-निर्देश का कार्य करेगी। इसमें मालवी भाषा और उसके साहित्य के विभिन्न आयामों को लेकर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जो इस क्षेत्र के सभी पक्षों को उजागर करता है। मालवी भाषा के प्रख्यात रचनाकारों के अवदान और उनके उत्कृष्ट काव्य को इस पुस्तक के माध्यम से आस्वाद कर पाना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

पुस्तक का नाम : मालवी भाषा और साहित्य
लेखक एवं सम्पादक : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी,
              भोपाल
मालवी भाषा और साहित्य : शैलेंद्रकुमार शर्मा

20200430

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / सम्पादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

BOOK ON INDIAN FOLK DRAMA ‘MACH’ BY Prof. Shailendrakumar Sharma 

पुस्तक समीक्षा / BOOK REVIEW
लोक कलाओं का त्रिवेणी संगम: मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएँ  - डा. पूरन सहगल
लोक नाट्य विधा, लोक की जीवन शैली की अभिन्न अंग है। इसी के माध्यम से लोक अपने मनोभावों को व्यक्त करता है। इसी के माध्यम से वह सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों की ओर लोक का ध्यान आकर्षित करता है तथा इसी के माध्यम से ही वह अपने मन-मस्तिष्क की थकान भी उतारता है। नाट्य विधा की ही एक सशक्त लोक विधा ‘माच’ है। मालवा, मेवाड़ और हाड़ौती अंचल में माच का ठाठ एक जैसा ही रहा है। माच और उसके खेल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उसके उद्भव के समय थे। लोक की रूझान का यह आज भी चहेता है। लोक-नाट्य माच की परंपरा युग की स्थितियों-परिस्थितियों के कारण थोड़ी सी रुकी अवश्य है, झुकी नहीं है।

माच धारदार तेवर, इसका फड़कता हुआ अभिनय, इसकी ऊँची तरंगों वाली तानें, इसके साज़ और साजिंदों की जीवंतता, इसके अभिनीत नाट्य प्रसंग, इसकी अनूठी नाट्य-शैली और इसका सामाजिक सरोकार कभी भी अप्रासंगिक नहीं हुए और न होंगे।  जब भी कहीं सूचना मिलती है कि माच का खेल होने वाला है, लोग दूर-दूर से पहुँच जाते है, उसी उमंग और उत्साह के साथ। यह उमंग ठीक वैसी ही होती है जैसे कोई आत्मीयजन बहुत दिनों बाद गाँव लौटा हो।

नाट्य समीक्षक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने माच की इस महत्ता को समझा और अद्भुत रूप से रचनाएँ एकत्रा कर एक ग्रंथ हमारे हाथों में सौंप दिया। एक ही विषय पर समग्र दृष्टिकोणों से रचनाएँ लिखवाना बहुत कठिन होता है। इससे भी कठिन होता है समयावधि में रचनाएँ लिखवाकर प्राप्त कर लेना और सबसे कठिन होता है विषय के प्रामाणिक विद्वानों को खोज निकालना। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने यह कठिन कार्य किया और उसकी सफलता के प्रमाण स्वरूप हाल ही में प्रकाशित ग्रंथ ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ हमारे सामने है। इस ग्रंथ के संकलन एवं संपादन में जितना श्रेय संपादक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, सहयोगी संपादक डा. जगदीशचन्द्र शर्मा और प्रबन्ध संपादक श्री हफीज़ खान को है, उतना ही इसके रचनाकारों का भी है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ Book of Shailendra Kumar Sharma


मैं इस पुस्तक को अपने लिए विशिष्ट पुरस्कार मानता हूँ। माच पर लिखने के लिए मैं वर्षों से सोचता रहा। मैं डा. शिवकुमार मधुर से थोड़ा आगे दो पाँवटे इस पथ पर रखना चाहता था। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने मेरा सपना साकार कर दिया। हाथ लगते ही मैंने यह पुस्तक अपनी एक यात्रा के दौरान पढ़ी। ऐसा लगा मानो डा. शैलेन्द्र जी ने अनायास ही एक शोध-प्रबंध पूरा कर दिया हो। सामूहिक भागीदारी से एक सम्पूर्ण शोध-प्रबंध लिखने का यह एक सफल प्रयोग है।

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा के इस संपादन की अन्य विशेषताओं के अलावा सबसे बड़ी विशेषता है, लोक-नाट्य की सभी समकालीन विधाओं पर चर्चा करवाते हुए लोकनाट्य माच के समस्त पहलुओं - प्रसंगों पर सार्थक एवं शोधपरक चर्चा करवा लेना। इसमें उन्होंने समग्र मालवा-निमाड़ और मेवाड़ को तो शामिल किया ही है, हाड़ौती (राजस्थान) को भी प्रतिनिधित्व दिया है। इस प्रकार डा. शर्मा ने तीन क्षेत्रों की लोक-संस्कृति का एक त्रिवेणी संगम तो स्थापित किया ही है, लोकनाट्य, लोक चित्रावण एवं लोक-नृत्यों पर शोधपरक लेख शामिल कर दोहरा त्रिवेणी तीर्थ स्थापित करते हुए लोक-संस्कृति को सहज भाव से सशक्त, समर्थ एवं संवेदित कर इसकी अनश्चेतना को पूर्णतः उमंगित और आलोडि़त कर दिया है।

मेवाड़ के देवीलाल सामर और डा. महेन्द्र भानावत तथा निमाड़ वसंत निरगुणे जिन्होंने लोक-नाट्य को भली-भाँति जाना, समझा और खेला है तथा संवार कर उसे ऊँचाइयों का मुकाम दिया है। इस संग्रह को उनके लेखन का मार्गदर्शन मिलना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मेवाड़ से यात्रा शुरूकर पूरे अरावली को लाँघते हुए जावद, सिंगोली, रतनगढ़, नीमच, मनासा, मंदसौर, मल्हारगढ़, भानपुरा होते हुए तथा बीच में अनेक पड़ावों पर माच के ठाठ को सहेजते हुए डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा भोपाल, शाजापुर से वापिस उज्जैन लौटे हैं। मालवा की एक वृत्ताकार यात्रा कर डाॅ. शर्मा ने जिस मनोयोग और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इससे उन्होंने अपने शोधार्थियों को तो प्रेरित किया ही है, अपनी सुविचारित कार्य योजना और प्रबुद्ध वर्ग केे सहयोग को भी सार्थक कर दिया है।

माच के विषय बल्कि लोक-नाट्यों के विषय में डा. शिव चौरसिया की चिंता कितनी सटीक है कि ‘‘आधुनिक युग में विज्ञान द्वारा उपलब्ध करवाए अनेक अति आधुनिक साधनों के कारण लोकनाट्य में सामाजिक रुचि कम हुई है।’’ - (मालवी लोक-नाट्य माच) इसके अलावा लोक नाट्यों के प्रति उपेक्षा का कारण समय की बेतहाशा भागम-भाग भी है। किसी के भी पास इतना समय नहीं है कि वह लोकमंच के सामने बैठकर थोड़ा-सा मनोरंजन कर ले। वह तो इतना तेज भाग रहा है कि उसे अपने जीवन या पारिवारिक सरोकारों तक का भी भान नहीं है।

इस सचाई के बावजूद माच केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है। उसमें लोक-संस्कृति के विविध रंगों का आभास हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस बात की पुष्टि माच-रंग के मर्मज्ञ विद्वान डा. शिवकुमार ‘मधुर’ ने अपने लेख ‘माच में प्रतिबिंबत लोक संस्कृति के विविध रंग’ में बहुत ही अदब से कही है।

लोक की अन्तश्चेतना, अन्तःअनुभूत और अन्तःआलोड़न की कहानी का क्रमबद्ध इतिहास लोक-संस्कृति में समाहित है। माच-साहित्य उसी लोक-संस्कृति का एक हिस्सा है। इसलिए उसमें लोक-संस्कृति की धड़कनें विद्यमान हैं। मालवा की लोक-संस्कृति का अंकन माच की रचनाओं में प्रयासजन्य न होकर सहज भाव से हुआ है। वैसे तो समग्र लोक-साहित्य का सृजन ही लोक आराधना का प्रतिफल है। माच में विशेष भाव विहवलता, विविधता और विचित्राता निहित रहती है। वह सबसे अलग है। स्वयं डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने अपने लेख ‘सामाजिक समरसता में माच की भूमिका’ में यह स्वीकारा है कि सामाजिक समरसता, धार्मिक सहिष्णुता, लोक मंगल की कामना, समतामूलक समाज की अवधारणा तथा सामाजिक न्याय की स्थापना के साथ-साथ सामाजिक रूढि़यों पर करारी चोट करने की क्षमतावान अभिव्यक्ति जितनी माच के खेलों में निहित है, उतनी अन्य किसी भी विधा में नहीं है।

डा. जगदीशचन्द्र शर्मा का आलेख ‘माच: प्रेरणा और उद्भव’ डा. श्यामसुंदर निगम का लेख ‘मालवा का लोक नाट्य माचः  एक दृष्टि’ या नरहरि पटेल का लेख ‘मालवी माच पर चिंतन’, अशोक वक्त का लेख ‘माच उर्फ शबे मालवा में थिरकती संस्कृति’ झलक निगम का ‘ढोलक तान फड़क के’ जैसे लेख माच की परंपरा और उसके महत्त्व को स्थापित करने के लिए महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों की तरह सहेजने योग्य हैं।

डा. प्यारेलाल श्रीमाल ‘सरस पंडित’ का महत्त्वपूर्ण गवेषणात्मक आलेख ‘प्रभावी लोक नाट्य माच और उसका संगीत’, डा. धर्मनारायण शर्मा का लेख’ संस्कृति एवं धार्मिक समन्वय के क्षेत्रा में ‘तुर्रा-किलंगी सम्प्रदायों का योगदान’, डा. पूरन सहगल का आलेख’ दशपुर मालवांचल में माच की परपंरा’, श्री ललित शर्मा का लेख ‘झालावाड़ की माच परंपरा’ जैसे आलेख माच के सामाजिक सरोकारों को तो प्रमाणित करते ही हैं, माच के सांस्कृतिक अवदानों की भी पुष्टि करते हैं।

तीन आलेख माच की लोक शैली, और प्रदर्शन शैली तथा माच के दर्शन संबंधी इस संग्रह में हैं, यदि ये न होते तो इनके बिना बात अधूरी रह जाती। सिद्धदेश्वर सेन का लेख ‘मालवा की माच परंपरा और कलाकार’, डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘माच का दर्शन’ और स्वयं डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का लेख ‘लोक नाट्य माच: प्रदर्शन शैली और शिल्प’ जैसे लेखों में कई पूर्वाग्रहों और विसंगतियों पर विराम चिह्न लगाने का सटीक एवं सशक्त प्रयास किया गया है।

डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘मालवा की चित्राकलाः शैलचित्रों से चित्रावण तक’, बसंत निरगुणे का लेख ‘मालवा-निमाड़ एवं अन्य अंचलों में पारंपरिक लोकचित्रा’, डा. लक्ष्मीनारायण भावसार का लेख ‘मालवा में चित्रावण विधा’ के साथ-साथ डा. आलोक भावसार का लेख ‘मालवा की लोक संस्कृति और लोक विधाएँ ’ एवं कृष्णा वर्मा का लेख ‘मालवा की लोक कला मांडना और संजा’ एवं डा. विवेक चैरसिया का लेख, ‘धन है मनक जमारो’ सब मिल-जुलकर मालवा की लोक चित्राशैली, चित्रावण, भित्ति चित्रा, पट्टचित्रा तथा लोक माँडनों में निहित सांस्कृतिक तथा कला परंपरा पर ऐसे शोधपरक आलेख हैं, जिनके मार्ग निर्देशन में कई शोध गोखड़े उद्घाटित होते हैं।

मालवा के लोक नृत्यों पर डा. पूरन सहगल का लेख ‘मालवा में प्रदर्शनकारी कलाओं का ठाठ’ आदिवासी एवं नृत्य संस्कृति पर सहज चर्चा करने का एक प्रयत्न तो है ही यह लोक नृत्यों पर शोध की प्रेरणा का स्रोत भी है। मालवा के लोकनृत्यों और नृत्याभिनयों पर हमें लोक नृत्य विशेषज्ञा डा. विजया खड़ीकर से कुछ आगे सोचने की दृष्टि प्रदान करता है।

श्री राजेन्द्र चावड़ा का लेख ‘माच और काबुकी, रमाकांत चौरडि़या का लेख ‘मालवी हीड़ लोक काव्य’ तथा  डा. धर्मेन्द्र वर्मा का लेख ‘मालवा की लुप्त होती लोक विधा ‘बेकड़ली’ ने हमारा ध्यान लुप्त होती जा रही इन महत्त्वपूर्ण लोक कलाओं की ओर आकृष्ट किया है। ये तीनों लेख हमें अपनी विलुप्त होती जा रही लोक कलाओं और विधाओं की रक्षा-सुरक्षा के प्रति पूरी जिम्मेदारी से चेतमान करते हैं।

इसी प्रकार आदिवासी लोक कलाओं तथा लोक नाट्यों पर एक-दो लेख इस संग्रह में यदि होते तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात होती। बसंत निरगुणे ने अपने आलेख में आदिवासी लोक चित्रावण पर चर्चा की है। इसमें भी यदि वे आदिवासी आनुष्ठानिक चित्रावण ‘पिथौरा’ व लोक देवता (नायक) ‘राय पिथौरा’ पर भी कुछ लिखते तो अधिक उपयुक्त होता । आदिवासी संस्कृति एवं उनके लोक नाट्यों पर उन्हें पूर्णतः विशेषज्ञता प्राप्त है। इसका लाभ वे इस संग्रह को दे सके होते तो संग्रह की सम्पन्नता एवं समग्रता परिपुष्ट हो जाती। पंकज आचार्य ने ‘‘बाल माच प्रदर्शन और लोक-संस्कृति संरक्षण की कोशिशें’’ लेख में बाल अभिनय और बाल नृत्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया हैं, किन्तु वे ‘फूंदी फटाका’ बालनृत्य का घूमर क्यों भूल गए वे ही जानें।

आज जरूरत इस बात की है कि लोक नाट्य की अन्य लोक विधाओं से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मालवा की सीमावर्ती लोक सांस्कृतिक परंपराओं को दृष्टि में रखकर समग्र अनुशीलन हो। ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ में इन सब शोधपरक संभावनाओं के सूत्रा उपलब्ध हैं। माच का वर्तमान परिदृश्य में युगानुरूप कितना और किस प्रकार उपयोग हो सकता है, उसे विखंडित होते हुए पारिवारिक संदर्भों, विचलित होते हुए सामाजिक मानकों और भ्रष्ट होते हुए राजनैतिक विभ्रमों से जोड़ते हुए नवीन दृष्टि प्रदान करना होगी। स्वच्छंद होती हुई सभ्यता के अश्व को संयमित करने के लिए उसके हाथों में संस्कृति का चाबुक थमाना होगा। अभी भी माच के संदर्भ में विशद सर्वेक्षण होना शेष है ठीक वैसा ही सर्वेक्षण जैसा नीमच के सुरेन्द्र शक्तावत ने अपने लेख ‘नीमच की माच परंपरा’ के अन्तर्गत किया है। इतना श्रम और इतनी लगन हम सबको करना होगी, तब जाकर डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का यह प्रयास सुफलित हो पाएगा। इतने महत्त्वपूर्ण शोधपरक कार्य के लिए एवं सुव्यवस्थित सम्पादन के लिए वे बधाई के  हकदार तो हैं ही।


पुस्तक का नाम - मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएँ
सम्पादक - डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक - अंकुर मंच, उज्जैन
प्रथम संस्करण 2008 ई., मूल्य 100/-रु., पृ. 208 (सचित्र)


20200426

हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा | Hindi Fiction - Prof. Shailendra Kumar Sharma

हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

पुस्तक चर्चा 

हिंदी कथा साहित्य की भूमिका और संपादकीय के अंश :
किस्से - कहानियों, कथा - गाथाओं के प्रति मनुष्य की रुचि सहस्राब्दियों पूर्व से रही है, लेकिन उपन्यास या नॉवेल और कहानी या शार्ट स्टोरी के रूप में इनका विकास पिछली दो सदियों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। हिंदी में नए रूप में कहानी एवं उपन्यास  विधा का आविर्भाव बीसवीं शताब्दी में हुआ है। वैसे संस्कृत का कथा - साहित्य अखिल विश्व के कथा - साहित्य का जन्मदाता माना जाता है। लोक एवं जनजातीय साहित्य में कथा – वार्ता की सुदीर्घ परम्परा रही है। इधर आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य का विकास संस्कृत - कथा - साहित्य अथवा लोक एवं जनजातीय कथाओं की समृद्ध परम्परा से न होकर, पाश्चात्य कथा साहित्य, विशेषतया अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव रूप में हुआ है।  कहानी कथा - साहित्य का एक अन्यतम भेद और उपन्यास से अधिक लोकप्रिय साहित्य रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना - सुनना मानव का स्वभाव बन गया। सभी प्रकार के समुदायों में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में तो कहानियों की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा रही है। वेद - उपनिषदों में वर्णित यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, सनत्कुमार-नारद, गंगावतरण, नहुष, ययाति, नल-दमयन्ती जैसे आख्यान नए दौर की कहानी के पुरातन रूप हैं।


आधुनिक सभ्यता में उपन्यास और कहानी ने अपनी खास जगह बना ली है। इसके मुख्य कारण हैं, व्यापक लोक चेतना का उदय, प्रजातंत्र के प्रति गहरा रुझान,  जीवन के साथ साहित्य की प्रखर अंतर्क्रिया और युग - परिवेश से गहन संपृक्ति। भारतीय संदर्भ में भी उपन्यास और कहानी की विकास यात्रा इन्हीं कारकों की उपस्थिति को प्रत्यक्ष करती है।

निरंतर बदलते यथार्थ, नवीन संवेदनाओं और परिवेशगत बदलाव को हिन्दी के अनेक कथाकारों ने नित नूतन कलेवर और कथा शिल्प के माध्यम से प्रत्यक्ष किया है। गाँव – नगर और महानगर से लेकर भूमंडलीकरण और बाजारवाद तक व्यापक आयामों को समाहित करते हुए हिन्दी कथा साहित्य का पाट निरंतर चौड़ा हो रहा है। हाल के दशकों में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के बीच हाशिये के समुदायों की चिंता का स्वर कथाकारों के व्यापक सरोकारों को प्रत्यक्ष कर रहा है।   
   
इस पुस्तक में हिंदी कहानी की विकास यात्रा, विविधविध धाराओं और प्रमुख रचनाकारों की पड़ताल के साथ  प्रतिनिधि कहानियों का समावेश किया गया है। इनमें जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, उषा प्रियंवदा, भीष्म साहनी और अमरकांत उल्लेखनीय हैं। इनके साथ ही अमृतलाल नागर, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, मालती जोशी एवं चित्रा मुद्गल के अवदान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। हाल ही में प्रकाशित इस पुस्तक में इक्कीसवीं सदी के कथा साहित्य में आए नए मोड़ों की पड़ताल भी की गई है।


प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
पुस्तक : हिंदी कथा साहित्य
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
प्रकाशन वर्ष 2020 ई.

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक हिंदी कथा साहित्य Book of Shailendra Kumar Sharma



हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा - Bekhabaron ki khabar - बेखबरों की खबर  - https://bkknews.page/article/hindee-katha-saahity-sampaadak-pro-shailendr-kumaar-sharma/zS7Wu0.html

20200424

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य / प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य /संपादक : प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा

पुस्तक चर्चा 

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य : विकास और संवेदनाएँ शीर्षक भूमिका और संपादकीय के अंश :
साहित्य सृजन मानवीय सभ्यता के विकास का महत्त्वपूर्ण सोपान है। मनुष्यता का प्रादर्श सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान युग तक के साहित्य का केंद्र रहा है। हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य देश - देशांतर में फैले भारतीय जन की संवेदनाओं, जीवन दृष्टि और विचारों का जैविक सुमेल है। इस यात्रा में नित्य नूतन जुड़ता चला आ रहा है। जो रचनाकार अपने समय और समाज के साथ मानवीय सरोकारों की जितनी गहरी समझ रखता है, वह उतना ही अपने युग में और बाद में भी प्रासंगिक होता है। हिंदी के प्राचीन एवं मध्यकालीन कवियों की रचनाएँ इस कसौटी पर तो खरी सिद्ध होती ही हैं, उससे आगे जाकर सार्वभौमिक - सार्वकालिक संवेदना और मूल्यों की प्रतिष्ठा में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारतीय साहित्य के विकास में हिंदी के प्राचीन एवं मध्यकालीन कवियों का अप्रतिम योगदान रहा है। इन कवियों में से अनेक ने विश्व ख्याति ही अर्जित नहीं की, आज भी देश - देशांतर में बसे भारतीय उनसे प्रेरणा पाथेय पाते हैं। इस पुस्तक में प्राचीन एवं मध्यकालीन कविता की यात्रा,  विविधविध प्रवृत्तियों, रचनाकारों के कृतित्व, प्रतिनिधि रचना - संचयन और संवेदना के विकास में उनकी भूमिका पर पर्याप्त मंथन किया गया है।
हिंदी साहित्य अपने आविर्भाव काल से लेकर अब तक अनेक सोपानों से होकर गुजरा है और व्यापक प्रेम, करुणा, भक्ति, परदु:खकातरता और वीर भावना उसे गति देते आ रहे हैं। हिंदी के प्राचीन और मध्यकालीन काव्य का परिशीलन इस दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों की ओर ले जाता है।
पुस्तक में कबीर, सूर, तुलसी, जायसी और बिहारी की चयनित रचनाओं और योगदान के समावेश के साथ ही अमीर खुसरो, विद्यापति, मीरा, केशव, भूषण, पद्माकर और घनानंद के साहित्यिक अवदान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा 2019 ई के उत्तरार्ध में प्रकाशित इस  पुस्तक की अल्प अवधि में ही दो आवृत्तियाँ हो चुकी हैं।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

पुस्तक : प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
प्रकाशन वर्ष 2019 ई.

प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य / संपादक : प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा - Bekhabaron ki khabar - बेखबरों की खबर - https://bkknews.page/article/praacheen-evan-madhyakaaleen-kaavy-sampaadak-pro-shailendr-kumaar-sharma/m43p3X.html



शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य Book of Shailendra Kumar Sharma 

20180125

जीवनानुभवों की संक्षिप्त - सुगठित, किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है लघुकथा : प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा | Interview with Prof. Shailendra Kumar Sharma

समालोचक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा से सन्तोष सुपेकर का साक्षात्कार


प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendrakumar Sharma
(समीक्षक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डा शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र एवं भारतीय भक्ति साहित्य केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। तीन दशकों से आलोचना, निबंध-लेखन, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय प्रो शर्मा ने पैंतीस से अधिक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन किया है। शोध स्तरीय पत्रिकाओं और ग्रन्थों में आपके 300 से अधिक शोध एवं समीक्षा निबंधों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 800 से अधिक कला एवं रंगकर्म समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा जाने-माने समीक्षक एवं लघुकथा के अध्येता हैं। सम्प्रति विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिन्दी विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष  के रूप में कार्यरत हैं।  प्रस्तुत है, वरिष्ठ लघुकथाकार और कवि संतोष सुपेकर द्वारा लघुकथा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनसे की गई बातचीत।) 

संतोष सुपेकर : सहस्रों वर्ष लम्बी लघुकथा परम्परा में इस विधा की शर्तें कमोबेश तय हो चुकने के बावजूद, डॉ. गोपाल राय द्वारा लिखित ‘हिन्दी कहानी का इतिहास’ में लघुकथा को कथा-साहित्य के नौ पदों में से एक स्वीकारने जैसी उपलब्धि के बाद भी एक विधा के रूप में लघुकथा को स्थान देने या न देने के प्रश्न क्यों उठते रहते हैं?


शैलेंद्रकुमार शर्मा :  लघुकथा एक स्वतंत्र और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हमारे वृहत् जीवनानुभवों की संक्षिप्त, सुगठित किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति का नाम लघुकथा है। यह वर्णन या विवरण के बजाय संश्लेषण में विश्वास करने वाली साहित्यिक विधा है, जिसकी परिणति प्रायः विस्फोटक होती है। बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते इस विधा ने नए-नए अनुभव क्षेत्रों और अभिव्यक्तिगत आयामों को छूते हुए अपनी विलक्षण पहचान बना ली है। शैलीगत परिमार्जन के बाद लघुकथा का स्वरूप अब और अधिक स्पष्ट और सुसंयत होता जा रहा है। ऐसे दौर में लघुकथाकारों का दायित्व भी बढ़ा है। उन्हें लघुकथा परम्परा में आए बदलावों को लक्षित कर अपनी पहचान बनानी होगी। इसके साथ सम्पादकों का भी दायित्व बनता है कि वे उन्हीं लघुकथाओं को स्थान दें, जो इसकी परम्परा को समृद्ध करती हैं। अन्यथा कमजोर लघुकथाओं के लेखन/प्रकाशन से यह प्रश्न बारम्बार उभरता रहेगा कि इसे स्वतंत्र विधा माना जाये या नहीं? कभी बिहारी के दोहों  के लिए कहा गया था, ‘‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर।’’ यह बात आज की लघुकथाओं पर खरी उतर रही है। इसे शुभ संकेत माना जा सकता है।



सन्तोष सुपेकर Santosh Supekar
संतोष सुपेकर : ‘लघुकथा’ शब्द का नामकरण कब और कैसे हुआ? बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखी गईं लघुकथाएँ क्या ‘लघुकथा’ नाम से ही प्रकाशित होती थीं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  दृष्टांत, नीति या बोध कथा के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से होता आ रहा है। मूलतः दृष्टांतों के रूप में लघुकथाएँ विकसित हुईं। इस प्रकार के दृष्टांत नैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। नैतिकतापरक लघुकथाओं में हम पंचतंत्र, हितोपदेश, महाभारत, बाइबिल, जातक, ईसप आदि की कथाओं को रख सकते हैं। इसी प्रकार धार्मिक दृष्टांतों के रूप में भी देश-विदेश में लघुकथाओं के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। इधर आधुनिक युग में ‘लघुकथा’ नामकरण काफी बिलंब से हुआ है, किन्तु यह तय बात है कि इस नए अवतार में लघुकथा ने शताब्दियों की यात्रा दशकों में तय कर ली है।

‘लघुकथा’ शब्द मूल रूप में अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ का सीधा अनुवाद है, किन्तु इसके तौल का एक और शब्द ‘कहानी’ हिन्दी में रूढ़ हो चुका है। इधर कहानी और लघुकथा- दोनों अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। लघुकथा को कहानी का सार या संक्षिप्त रूप मानना उचित नहीं होगा। लघुकथा बनावट और बुनावट में कहानी से अपना स्वतंत्र अस्तित्व और महत्व रखती है। 

आधुनिक काल में हिन्दी लघुकथा की शुरूआत सन् 1900 के आसपास मानी जा सकती है। माखनलाल चतुर्वेदी की ‘बिल्ली और बुखार’ को पहली लघुकथा माना जा सकता है। इस शृंखला में माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ते चले गए। सप्रे जी के विशिष्ट अवदान को दृष्टिगत रखते हुए उनके जन्मदिवस पर 19 जून को लघुकथा दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रेमचंद ने अपने सृजन के उत्कर्ष काल में कई लघुकथाएँ लिखीं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो सखियाँ, जादू आदि। प्रसाद की गुदड़ी के लाल, अघोरी का मोह, करुणा की विजय, प्रलय, प्रतिमा, दुखिया, कलावती की शिक्षा आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण हैं। बंगला साहित्य में भी टैगोर, बनफूल ने महत्वपूर्ण लघुकथाएँ रचीं हैं। हिन्दी में सुदर्शन, रावी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, रांगेय राघव आदि ने मार्मिक लघुकथाएँ लिखीं। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए - उपेन्द्रनाथ अश्क,  रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकान्त वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. सतीश दुबे, सतीश राठी, जगदीश कश्यप, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. कृष्ण कमलेश, चित्रा मुद्गल, मालती जोशी, कमल गुप्त, विक्रम सोनी, भगीरथ, युगल, रमेश बतरा, डॉ. श्यामसुंदर व्यास, पारस दासोत, विक्रम सोनी, मुकेश शर्मा, सूर्यकांत नागर, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, मधुदीप गुप्ता, सुरेश शर्मा, माधव नागदा, डॉ योगेंद्रनाथ शुक्ल, योगराज प्रभाकर, सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’, अरविंद नीमा, मीरा जैन, कांता राय, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, राजेन्द्र देवधरे दर्पण आदि। युवा लघुकथाकारों के जुड़ने से यह सिलसिला आज भी जारी है। 

हाल के दौर में सुधी कथाकार मधुदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनके संयोजन-सम्पादन में लघुकथा के सृजन-आलोचन की अविराम शृंखला पड़ाव और पड़ताल अनेक खण्डों में और प्रमुख लघुकथाकारों के प्रतिनिधि संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इसमें मुझे भी एक समीक्षक के रूप में सहभागी  बनने का अवसर मिला है। 

सुधी लघुकथाकार और सम्पादक श्री सतीश राठी विगत कई दशकों से क्षितिज के माध्यम से लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। 

शुरुआती दौर में लघुकथा जैसी स्वतंत्र संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा ‘कहानी’ से बिलगाव बताने के लिए प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने ‘लघुकथा’ के अतिरिक्त नई संज्ञाएं या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे मिनी कहानी, मिनीकथा, कथिका, अणुकथा, कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि; लेकिन ये संज्ञाएँ पानी के बुलबुले के समान बहुत कम समय में निस्तेज हो गईं।

संतोष सुपेकर : आपने कहीं कहा है कि अतिशय स्पष्टीकरण लघुकथा की मारक क्षमता को कम करता है। अपने इस कथन के संदर्भ में लघुकथा के आकार पर प्रकाश डालें। यह भी बताएँ कि क्या रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक को सोचने के लिए छोड़ दिया जाए, अलिखित?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही मितकथन लघुकथा की अपनी मौलिक पहचान है। अतिशय स्पष्टीकरण या वर्णन के लिए लघुकथा में अवकाश नहीं है। आकार की दृष्टि से लघुकथा को शब्द या पृष्ठों की गणना में बाँधना संभव नहीं है। अनुभूति की सघनता, शब्दों की मितव्ययता, सुगठित बनावट और लघुता-इसे विलक्षण बनाती है। वैसे तो लघुकथा के लिए कोई सुनिश्चित फार्मूला बनाना इसके साथ अन्याय होगा, फिर भी यह तय बात है कि रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक के लिए छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा।

संतोष सुपेकर : ऐसा कहा गया है कि लघुकथा का शीर्षक तो दूर पहाड़ी पर बने मंदिर के समान होना चाहिए। इस संदर्भ में लघुकथा में शीर्षक की भूमिका पर अपने विचार बताएँ। 

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा के शीर्षक की अपनी विलक्षण भूमिका होती है। कहीं यह उसके मूल मर्म को संप्रेषित करता है, तो कहीं उसके संदेश को। कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा के कथ्य का विस्तार करता है। इसका शीर्षक देना अपने आप में चुनौती भरा काम है। इसमें सर्जक से अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा होती है।

संतोष सुपेकर : एक कथ्य, जो लघुकथा में माध्यम बनता है, कहानी में अपना प्रभाव खो देता है, आप क्या कहना चाहेंगे?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही किसी भी विधा या रूप का रचाव कथ्य की जरूरतों पर निर्भर करता है। इसलिए जो कथ्य लघुकथा के अनुरूप होता है, वह कहानी या किसी भी दूसरी विधा में जाकर अपना प्रभाव खो देगा।

संतोष सुपेकर : प्रेमचंद के अनुसार अतियथार्थवाद निराशा को जन्म देता है। आज की लघुकथाओं में छाया अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश कर रहा है?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  आज की लघुकथाएँ हमारे वैविध्यपूर्ण जीवनानुभवों को मूर्त कर रही हैं। आज का पाठक सभी प्रकार की लघुकथाओं से गुजरते हुए अपनी संवेदनाओं का विकास करता है। केवल निराश होने जैसी कोई बात नहीं है। 

संतोष सुपेकर : डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार लघुकथा एक लेखकहीन विधा है। क्या लघुकथाकार को हमेशा रचना में अनुपस्थित ही होना चाहिए? 

शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथा को लेखकहीन विधा कहना उचित नहीं है। एक ही कथ्य को लघुकथा में दर्ज करने का हर लेखक का अपना ढंग होता है। श्रेष्ठ लघुकथाओं में लेखक की उपस्थिति सहज ही महसूस की जा सकती है।

संतोष सुपेकर : फ्लैश/कौंध रचनाओं (चौंकाने वाली) को कुछ विद्वान अगंभीर लघुकथा लेखन मानते हैं, जबकि कुछ इसके पक्ष में हैं। हरिशंकर परसाईं ने एक साक्षात्कार में कहा था कि लघुकथा में चरम बिंदु का महत्व होना ही चाहिए, आपकी राय?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  चौंकाने वाली लघुकथाएँ भी समकालीन लघुकथा लेखन को एक खास पहचान देती हैं। इन्हें अगंभीर लेखन मानना उचित नहीं है। लघुकथा में चरम या समापन बिन्दु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इससे लघुकथा का निहितार्थ असरदार ढंग से पाठक तक पहुँचता है।

संतोष सुपेकर : लघुकथा में क्या पद्यात्मक पंक्तियों की गुंजाइश है? ऐसी आवश्यकता महसूस हो तो लेखक क्या करे?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  लेखकीय आवश्यकता के अनुरूप या अन्य प्रकार के प्रयोगों के लिए लघुकथा में पर्याप्त गुंजाइश है। ये सारे प्रयोग अंततः लघुकथा की सम्प्रेषणीयता में साधन ही बन सकते हैं, यही इनकी सार्थकता है।

संतोष सुपेकर : लघुकथा को और सशक्त होने के लिए क्या आवश्यक मानते हैं- संकलनों का प्रकाशन, समीक्षा गोष्ठियों, लघुकथा सम्मेलनों का आयोजन, रचनात्मक आन्दोलन या कुछ और?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  वर्तमान दौर में लघुकथाएँ बड़े पैमाने पर लिखी जा रही हैं। कुछ रचनाकार इसे बेहद आसान रास्ते के रूप में चुन रहे हैं। इसीलिए कई ऐसी रचनाएँ भी आ रही हैं, जिन्हें लघुकथा कहना उचित नहीं लगता है। वे महज हास-परिहासनुमा संवाद या किस्सों से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इसलिए जरूरी है कि लघुकथा सृजन की कार्यशालाएँ समय-समय पर आयोजित हों, जहाँ इस विधा से जुड़े वरिष्ठ सर्जक और विद्वान भी जुटें। श्रेष्ठ रचनात्मकता के लिए महज आंदोलनधर्मिता से कुछ नहीं  हो सकता है। इसके लिए गंभीर प्रयास जरूरी हैं। लघुकथा कार्यशाला, परिसंवाद, समीक्षा गोष्ठी, सम्मेलन और प्रकाशन-इन सभी की सार्थक भूमिका हो तो बात बने।

संतोष सुपेकर : कथ्य चयन, कथ्य विकास तथा भाषा-शैली क्या कहानी की तुलना में लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की माँग करते हैं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  कथ्य चयन, उसका विकास और अभिव्यक्ति के उपादान-सभी दृष्टियों से लघुकथा क्षणों में बँटे जीवन के कोमल और खुरदरे यथार्थ की निर्लेप और संक्षिप्त अभिव्यक्ति होती है। इसलिए थोड़े में बहुत कहने की जिम्मेदारी एक लघुकथाकार की होती है। कहानीकार इससे मुक्त हो सकता है, लघुकथाकार नहीं।

संतोष सुपेकर : श्रेष्ठ विधा वही है जो कागज पर खत्म होने के बाद पाठक के मस्तिष्क में प्रारम्भ हो और उसे सोचने के लिए विवश करे। इस कथन के मद्देनजर विषयवस्तु का दोहराव क्या लघुकथा के विकास में बाधक बन रहा है?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही लघुकथा के सामने एक बड़ी चुनौती उसके दीर्घकालीन और सघन प्रभाव से जुड़ी हुई है। लघुकथाकारों को अपने अनुभव क्षेत्र को विस्तार देते हुए सृजनरत रहना चाहिए अन्यथा विषयवस्तु का दोहराव लघुकथा के विकास में बाधक बना रहेगा।

संतोष सुपेकर : हिंदी लघुकथा के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा का भविष्य अधिक उज्ज्वल है। समय के अभाव और जनसंचार माध्यमों के अकल्पनीय विस्तार के बीच लघुकथा के लिए पर्याप्त स्पेस अब भी बना हुआ है। इस स्पेस को पहचानकर लघुकथाकार उसका बेहतर उपयोग करेंगे, ऐसी आशा व्यर्थ न होगी। 

संतोष सुपेकर : प्रतीकात्मक लघुकथाओं पर अपने विचार बताएँ?

शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथाओं में प्रतीकों की विशिष्ट भूमिका होती है। सार्थक प्रतीक-प्रयोग से रचनाकार अपनी रचना को देशकाल के कैनवास पर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य दे सकता है।


-प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
-संतोष सुपेकर, 31, सुदामा नगर, उज्जैन (म.प्र.)

(यह विशेष साक्षात्कार लघुकथाकार श्री उमेश महादोषी के संपादन में प्रकाशित अविराम साहित्यिकी के लघुकथा विशेषांक के लिए लिया गया था, जिसके अतिथि संपादक सुधी साहित्यकार श्री बलराम अग्रवाल थे।)

20171221

चंद्रकांत देवताले: जीवन की साधारणता के असाधारण कवि

        जीवन की साधारणता के असाधारण कवि 


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले अब हमारे बीच नहीं रहे, सहसा विश्वास नहीं होता। नई कविता के फार्मूलाबद्ध होने के बाद उन्होंने अपना अलग काव्य मुहावरा गढ़ा था। पिछली सदी के महानतम कवि मुक्तिबोध पर उन्होंने न केवल महत्त्वपूर्ण शोध किया था, वरन उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि पर खड़े होकर तेजी से बदलते समय और समाज की पड़ताल भी गहरी रचनात्मकता के साथ की। उनकी कविताएँ जहाँ माँ, पिता, औरत, पेड़, बारिश और आसपास के आम इंसान को बड़ी सहजता, किन्तु नए अंदाज से दिखाती हैं तो भयावह होती सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को तीखेपन के साथ उजागर भी करती हैं। मेहनतकश जनता और निम्न वर्ग सदैव उनके दृष्टिपथ में रहे, जिनके असमाप्त अहसान को वे आपाद मस्तक स्वीकार करते हैं। उन्होंने लिखा है, 

‘जो नहीं होते धरती पर

अन्न उगाने, पत्थर तोड़ने वाले अपने

तो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी।‘ 

Chandrkant Dewtale by Prabhu Joshi व्यक्ति चित्र: श्री प्रभु जोशी 

संवेदनविहीन व्यवस्था और प्रजातन्त्र की विद्रूपताओं के बीच असमाप्त संघर्ष के साथ जीवन यापन करते आम आदमी की पीड़ा उनमें पैबस्त थी। इसीलिए वे प्रेम और ताप को बचाए रखने की चिंता करते रहे,

‘ अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर

खून की जाँच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।‘ 

उनकी कविताओं में एक खास किस्म की बेचैनी नजर आती है, जो अमानवीय होते समय और समाज के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया देती है, 

‘पर कौन खींचकर लाएगा

उस निर्धनतम आदमी का फोटू  

सातों समुन्दरों के कंकडों के बीच से

सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़

यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था।‘

उनकी कविताओं में वैसी ही सादगी, आत्मीयता और आम आदमी के प्रति निष्ठा नज़र आती है, जैसी उनके स्वभाव में थी। साधारणता को उन्होंने अपने जीवन और कविता में सदा बरकरार रखा, जो उनकी असाधारण पहचान का निर्धारक बन गया। वे लिखते हैं, 

‘यदि मेरी कविता साधारण है

तो साधारण लोगों के लिए भी

इसमें बुरा क्या मैं कौन खास

गर्वोक्ति करने जैसा कुछ भी तो नहीं मेरे पास।‘

गम्भीरता को उन्होंने कभी नहीं ओढ़ा। कोई व्यक्ति एक बार भी उनसे मिलता तो उन्हें भूल नहीं सकता था। प्रायः फोन पर वे बड़े गम्भीर अंदाज में अपने समानधर्मा साहित्यकारों से बात की शुरूआत करते, फिर कुछ ऐसी चुटकी लेते कि हँसी का झरना फूट पड़ता था। उज्जैन के साथ उनका एक बार जो सम्बन्ध बना, वह अटूट बना रहा। उनकी कविताओं में उज्जैन और मालवा के अनेक बिम्ब नई भंगिमा के साथ उतरे हैं। राजस्व कॉलोनी स्थित उनका आवास तरह तरह के पेड़ - पौधों के बीच पक्षियों और श्वानों का बसेरा था, जहाँ वे मूक प्राणियों की सेवा में जुटे रहते थे।
देवताले जी का यह कहना उनके काव्य रसिकों के लिए पता नहीं अब कैसे चरितार्थ हो सकेगा,
 ‘मैं आता रहूँगा उजली रातों में
 चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए।‘

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

(देवताले जी का व्यक्ति  चित्र: श्री प्रभु जोशी, विख्यात चित्रकार और साहित्यकार)







(चित्र: प्रो चंद्रकांत देवताले के साथ उज्जैन प्रवास पर आए प्रो टी वी कट्टीमनी एवं प्रो जितेंद्र श्रीवास्तव संग प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की अंतरंग मुलाकातें)


प्रो चन्द्रकान्त देवताले

आधुनिक हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर श्रीचंद्रकांत देवताले का जन्म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पीएच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से की थी। देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन से संबद्ध रहे। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर(1973), दीवारों पर ख़ून से (1975); लकड़बग्घा हँस रहा है (1970), रोशनी के मैदान की तरफ़ (1982), भूखण्ड तप रहा है (1982), आग हर चीज में बताई गई थी (1987), पत्थर की बैंच (1996) आदि। वे उज्जैन के शासकीय कालिदास कन्या महाविद्यालय के प्राचार्य एवं प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन के निदेशक भी रहे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वे उज्जैन में साहित्य साधना कर रहे थे। उनका निधन 14 अगस्त 2017 को दिल्ली में लंबे उपचार के बाद हुआ। 

देवताले जी को उनकी रचनाओं के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें प्रमुख हैं- कविता समय सम्मान -2011, पहल सम्मान -2002, भवभूति अलंकरण -2003, शिखर सम्मान -1986, माखन लाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान आदि। उन्हें कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए वर्ष 2012 में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। उनकी कविताओं के अनुवाद प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में और कई विदेशी भाषाओं में हुए हैं। 

देवताले जी की कविता में समय और सन्दर्भ के साथ ताल्लुकात रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। उनकी कविता में समय के सरोकार हैं, समाज के सरोकार हैं, आधुनिकता के आगामी वर्षों की सभी सर्जनात्मक प्रवृत्तियां उनमें हैं। उत्तर आधुनिकता को भारतीय साहित्यिक सिद्धांत के रूप में न मानने वालों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि देवताले जी की कविता में समकालीन समय की सभी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से आप उत्तरआधुनिकता को मानें या न मानें, ये कविताएँ आधुनिक जागरण के परवर्ती विकास के रूप में रूपायित सामाजिक सांस्कृतिक आयामों को अभिहित करने वाली हैं। देवताले की कविता की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में हैं। उसमें मानव जीवन अपनी विविधता और विडंबनाओं के साथ उपस्थित हुआ है। कवि में जहाँ व्यवस्था की कुरूपता के खिलाफ गुस्सा है, वहीं मानवीय प्रेम-भाव भी है। वह अपनी बात सीधे और मारक ढंग से कहते हैं। कविता की भाषा में अत्यंत पारदर्शिता और एक विरल संगीतात्मकता दिखाई देती है।

20171128

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा विद्यासागर सम्मानोपाधि से विभूषित

विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में सम्मानित हुए प्रो.शर्मा

विनत सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति और हिन्दी के प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए विनम्र प्रयासों के लिए मुझे विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। इस मौके पर डॉ अनिल जूनवाल की खबर -

विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और हिन्दी के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि उज्जैन में गंगाघाट स्थित मौनतीर्थ में आयोजित विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में कुलाधिपति संत श्री सुमनभामानस भूषण’, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ योगेन्द्रनाथ शर्माअरुण’[रूड़की ], प्रतिकुलपति डॉ अमरसिंह वधान एवं कुलसचिव डॉ देवेन्द्रनाथ साह के कर-कमलों से अर्पित की गई । इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें सम्मान-पत्र, स्मृति चिह्‌न, पदक एवं साहित्य अर्पित किए गए। सम्मान समारोह की विशिष्ट अतिथि नोटिंघम [यू के] की वरिष्ठ रचनाकर जय वर्मा, प्रो नवीचन्द्र लोहनी [मेरठ] एवं डॉ नीलिमा सैकिया [असम] थे। इस अधिवेशन में देश-विदेश के सैंकड़ों संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

     प्रो. शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध,लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं । उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का  हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश – विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में थाईलैंड में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि प्रमुख हैं।
      प्रो. शर्मा को विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल,  पूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो. टी.आर. थापक, पूर्व कुलपति प्रो. नागेश्वर राव,  कुलसचिव डॉ. बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ राकेश ढंड , इतिहासविद्‌ डॉ. श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो गीता नायक, डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ. अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव 'नवनीत', श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक 'उत्तम', श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ. राजेश रावल सुशील, डॉ. अनिल जूनवाल, डॉ. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', राजेन्द्र नागर 'निरंतर', अक्षय अमेरिया, डॉ. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी।
                                                                         
                                                               डॉ. अनिल जूनवाल
संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन

                                                             मोबा ॰ 9827273668 







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