पेज

लोक संस्कृति लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लोक संस्कृति लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

20150819

जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती है लोक-संस्कृति

अक्षर वार्ता July 2015: सम्पादकीय
(आवरण: बंसीलाल परमार )
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादकीय विविध लोकभिव्यक्तियों के अध्ययन, अनुसन्धान और नवाचार को लेकर सजगता की दरकार करता है।..
लोक-साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा काल-प्रवाह में बाधित भले ही हो जाए, कभी सूखती नहीं है। लोक-कथा, गीत, गाथा, नाट्य, संगीत, चित्र सहित विविध लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। विकास के नए प्रतिमान एक जैसेपन को बढ़ाते हैं, इसके विपरीत लोक-साहित्य और संस्कृति एक जैसेपन और एकरसता के विरुद्ध हैं। मनुष्य की सजर्नात्मक सम्भावनाएँ साहित्य एवं विविध कला-माध्यमों में प्रतिबिम्बित होती आ रही हैं। इनमें शब्दमयी अभिव्यक्ति का माध्यम ‘साहित्य’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ‘शब्द’ ही मनुष्य की अनन्य पहचान है, जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। शब्दार्थ केन्द्रित अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से लोक द्वारा रचा गया साहित्य अपनी संवेदना और शिल्प में विशुद्धता और मौलिकता की आंच से युक्त होने के कारण अपना विशिष्ट प्रभाव रचता है, जो कथित आभिजात्य साहित्य द्वारा सम्भव नहीं है। लोक-साहित्य मानव समुदाय की विविधता और बहुलता को गहरी रागात्मकता के साथ प्रकट करता है, वहीं देश-काल की दूरी के परे समस्त मनुष्यों में अंतर्निहित समरसता और ऐक्य को प्रत्यक्ष करता है।
वस्तुतः लोक से परे कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। समस्त लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह लोक-संस्कृति से मुक्त कोई भी नहीं है। कोई स्वीकार करे, न करे, उसे पहचाने, न पहचाने,  सभी की अपनी कोई न कोई लोक-संस्कृति होती है। उसका प्रभाव कई बार इतना सूक्ष्म-तरल और अंतर्यामी होता है कि उसे देख-परख पाना बेहद मुश्किल होता है, किन्तु असंभव नहीं। लोक-जीवन में परम्परा और विकास न सिर्फ साथ-साथ अस्तित्वमान रहते हैं, वरन् एक दूसरे पर भी निर्भर करते हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति इन दोनों की अन्योन्यक्रिया का जैविक साक्ष्य देते हैं।
लोक-साहित्य सहित लोक की विविधमुखी अभिव्यक्तियों को आधार देती हुई लोक-संस्कृति का स्वरूप अत्यंत व्यापक और विपुलतासम्पन्न है। लोक-साहित्य और संस्कृति तमाम प्रकार के परिवर्तन और विकास के बावजूद अपने अंदर की कई चीजों को बचाये रखते हैं, कभी रूपांतरित करके तो कभी अंतर्लीन करके। सूक्ष्मता से विचार करें तो हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह और क्रियाओं के तादात्म्य को प्रत्यक्ष करता है। यही वह विचारणीय बिंदु है जो लोक-साहित्य, संस्कृति के साथ इतिहास और मानव-शास्त्र का जैविक सम्बन्ध रचता है।
भारत में लोक साहित्य और संस्कृति कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत, आदिम या पुरातन नहीं हैं। वे सतत वर्तमान हैं, जीवन का अविभाज्य अंग हैं। भारत के हृदय अंचल मालवा का लोक-साहित्य और विविध परम्पराएँ भी इन्हीं अर्थों में अपने भूगोल और पर्यावरण का अनिवार्य अंग हैं। मालवी लोक-संस्कृति की विलक्षणता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यह अंचल सहस्राब्दियों से शास्त्र, इतिहास और संस्कृति की अनूठी रंगस्थली रहा है। इनके साथ यहाँ की लोक-संस्कृति की अन्तःक्रिया निरंतर चलती चली आ रही है। यहाँ कभी शास्त्रों ने लोक परम्परा को आधार दिया है तो कभी लोकाचार ने शास्त्र का नियमन किया है, उसको व्यवहार्य बनाया है। यह बात देश के प्रायः अधिकांश भागों की लोक-संस्कृति में देखी-समझी जा सकती है।
लोक में व्याप्त व्रत-पर्व-उत्सवों को कई बार महज धार्मिक अनुष्ठान या रूढ़ि के रूप में देखा जाता है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये सभी पुराख्यान, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। उदाहरण के लिए मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व और उससे जुड़ा लोक-साहित्य सही अर्थों में भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति, परम्परा और लोक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम दृष्टांत है। फिर यह काल के अविराम प्रवाह से अनछुआ भी नहीं है। इसमें परिवर्तन और विकास की आहटें भी सुनी जा सकती हैं। संजा पर्व में हम देखते हैं कि उसमें चित्रित आकृतियों में शास्त्रोक्त स्वस्तिक (सात्या) और सप्तऋषि तो आते ही हैं, छाबड़ी (डलिया), घेवर, घट्टी जैसे लोक प्रतीकों का भी अंकन होता है। काल-प्रवाह में इससे सम्बद्ध लोक-साहित्य और भित्ति-चित्रों में नए-नए बिम्ब भी संपृक्त होते जा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मालवा सहित किसी भी क्षेत्र की लोक-संस्कृति को नितांत बौद्धिक विमर्श से हटकर यहाँ के लोकजीवन के साथ सहज और जैविक अन्तःक्रिया के रूप में देखा-समझा जाए। तभी अध्ययन, शोध और नवाचार में उसके निहितार्थ उजागर होंगे और फिर उसका जीवन और पर्यावरण-बोध हमारे आज और कल के लिए भी कारगर सिद्ध होगा।
वर्तमान में लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में नित-नूतन अनुसंधान की संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। मानव जीवन के इन सचल क्षेत्रों में शोध की अभिनव प्रविधियों को लेकर जागरूकता की दरकार है। तभी हम शोध में स्तरीयता, मौलिकता और गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। इस दिशा में आपके रचनात्मक योगदान और प्रतिक्रियाओं का ‘अक्षर वार्ता’ में स्वागत है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com     डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरूलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com



20150808

इतिहास और लोक-संस्कृति के अन्तः सम्बन्धों की तलाश

अक्षर वार्ता: june 2015 सम्पादकीय
भारत सहित दक्षिण-मध्य एशिया अपने ढंग का विलक्षण भूभाग है, जहां ज्ञान की वाचिक और लिखित- दोनों परम्पराओं का अद्वितीय समन्वय मिलता है। ‘लोके वेदे च’ सूत्र को चरितार्थ करते हुए ये दोनों एक-दूसरे के पूरक बने हुए हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से भारत की पहचान का उपक्रम उतना ही महत्त्वपूर्ण हो सकता है, जितना लिखित साहित्य की दृष्टि से। आज भारत सहित समूचे एशियाई इतिहास के पुनर्लेखन में लोक साहित्य और संस्कृति के वैज्ञानिक प्रयोग की जरूरत है। भारतीय दृष्टि मानती है कि परिवर्तनशील अतीत में से अपरिवर्तनीय तत्वों का अन्वेषण है- इतिहास। कोई भी अतीत मृत भूतकाल नहीं होता, वह एक सीमा तक वर्तमान में जीवित रहता है। इसी तरह का निरन्तर प्रवहमान अतीत है- लोक-संस्कृति।
नृतत्त्वशास्त्रीय इतिहास की निर्मिति में लोक-संस्कृति का विशेष योगदान रहता है। लोक-संस्कृति के उपादानों के प्रकाश में विभिन्न प्रजातियों के प्रारम्भिक से लेकर परवर्ती दौर तक की भाषा, पुरातत्व और भौतिक जीवन के अध्ययन की दिशा अत्यंत रोचक निष्कर्षों तक पहुँचा सकती है।
वस्तुतः हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह का तादात्म्य है। यही वह बिंदु है जो इतिहास और लोक-संस्कृति का अन्तः सम्बन्ध बनाता है। लोक-संस्कृतिवेत्ता टेफ्ट की मान्यता है कि सभी लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह सभी की अपनी लोक-संस्कृति होती है। लोक संस्कृति अत्यंत व्यापक है। इसके अंतर्गत लोगों की कहानियों, घटनाओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों, किंवदंतियों, कथा-गाथा, गीत, संगीत, नृत्य, चिकित्सा, आदि सबका समावेश है। साथ ही यह पूर्व-बसाहट के दिनों, उदाहरण के लिए आरंभिक आखेट, पशुपालन, कृषिकर्म आदि की कहानियों, मूलस्थान के देशों या अन्य क्षेत्रों से प्रत्यारोपित सांस्कृतिक जड़ों की कहानियों को भी समाहित करती है। लोक-संस्कृति से प्राप्त कई तथ्य प्रारंभिक पशुपालन, कृषिकर्म से लेकर घरों की बसाहट, ग्रामों, कस्बों और शहरों तक के विकास का लेखा प्रकट करते हैं। साथ ही सामाजिक संरचना और विविध समुदायों की अंतरक्रियाओं का संकेत भी इनसे प्राप्त होता है।
लोक-संस्कृति और साहित्य आम जन के इतिहास तक हमें ले जाते हैं, जहां आम जन की आशा-हताशा, सुख दुःख, जय-पराजय का रमणीय वृत्तांत होता है। यह आम आदमी की संवेदना का लेखा है। वस्तुतः लोक संवेदना के इतिहास की निर्मिति बिना लोक साहित्य के सम्भव नहीं है। ‘बंगालेर इतिहासेर’ (1966) में प्रो निहार रंजन रे लिखते हैं, जनता का इतिहास लोकविधाओं एवम् लोककर्म आदि से ही निर्मित किया जा सकता है।
यदि अतीत का लेखा-जोखा इतिहास है तो समकाल का लेखा-जोखा पत्रकारिता। इनसे हटकर साहित्य शाश्वत का इतिहास है। वह इनसे आगे ले जाता है। इसलिए लोक-साहित्य इतिहास के लिए उपयोगी है, किन्तु उसमें कितना यथार्थ और कितना कल्पना है, इसकी छानबीन बेहद जरूरी हो जाती है। लोक-साहित्य इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ने के साथ ही भिन्न दृष्टि से अतीत को देखने का नजरिया भी दे सकता है। वह इतिहास से प्राप्त चरित्रों और घटनाओं के मृत ढाँचे में अस्थि-मांस-मज्जा भरने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
ब्लादिमीर प्रोप ने थ्योरी एंड हिस्ट्री ऑफ़ फोकलोर (1984) में लिखा है, लोक-संस्कृति एक ऐतिहासिक परिघटना है और लोक-संस्कृति का विज्ञान एक ऐतिहासिक अनुशासन है। इस रूप में लोक सांस्कृतिक तत्वों पर गहन और वैज्ञानिक मन्थन आवश्यक हो जाता है। हमारे प्राचीन साहित्य, यथा- जातक कथा, दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, खुद्दक निकाय आदि में लोक संस्कृति और परम्परा के कई सूत्र बिखरे हुए हैं, वहीं इतिहास के कई सन्दर्भ उपलब्ध हैं। विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को लेकर भले ही इतिहास जगत् में विवाद रहा है किन्तु उनसे जुड़े कई तथ्य हमारी समृद्ध लोक परम्परा का अंग बने हुए हैं। यही स्थिति गोरखनाथ, भर्तृहरि, वररुचि, भोज आदि की है। अनुश्रुतियों और लोक-साहित्य में उपलब्ध इस प्रकार के चरित नायकों से जुड़े कई पक्षों की पड़ताल और इतिहास की कड़ियों से उनका समीकरण जरूरी है।
लोकव्यापी व्रत-पर्व-उत्सव महज धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति और लीक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम उदाहरण है। इसी तरह अनेकानेक लोक देवताओं से सम्बद्ध लोक-साहित्य और संस्कृति भी इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं।
आज इतिहास एवं लोक-संस्कृति के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। इन अध्ययन क्षेत्रों में शोध की नवीनतम प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगी। शोध की नवीन दिशाओं में क्रियाशील मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailrndrakumar Sharma
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता Akshar varta
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक संस्कृति और इतिहास के अंतः सम्बंधों को लेकर सजगता की दरकार करता है... अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com




20141204

घर-आँगन से व्यापक लोक-जीवन तक जीवंत रहने दें लोक-संस्कृति को


अक्षर वार्ता : लोक-संस्कृति पर एकाग्र विशिष्ट अंक कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक विरासत के प्रति नई चेतना का आह्वान करता है। पेश है कुछ अंश ------ सम्पादकीय: किसी भी परम्पराशील राष्ट्र की सही पहचान लोक एवं जनजातीय भाषा और संस्कृति के बिना संभव नहीं है। इधर एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों, विशेष तौर पर भारत को ही देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ की संस्कृति और सभ्यता न जाने किस सुदूर अतीत से आती हुई परम्पराओं पर टिकी हुई है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति विविध लोक एवं जनजातीय संस्कृतियों का जैविक समुच्चय है, जिसके निर्माण में अज्ञात अतीत से सक्रिय विविध जनसमुदायों की सहभागी भूमिका चली आ रही है। सारे भारत की भाषा और बोलियाँ तथा उनसे जुड़ी संस्कृति एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले इस तरह से खड़ी हैं कि उन्हें एक-दूसरे से विलग किया जाना संभव नहीं है। इनके बीच मेल-मिलाप का सिलसिला पुरातन काल से चला आ रहा है। लोक और जनजातीय समुदायों से उनकी संस्कृति, परम्परा और कलारूपों का रिश्ता इतना नैसर्गिक और जीवन्त है कि उनके बीच विभाजक रेखा खींच पाना असंभव है। वस्तुतः लोक-संस्कृति परंपराबद्ध समूहों द्वारा स्थानीय रूप से अधिनियमित रोजमर्रा की जिंदगी के एकीकृत प्रभावपूर्ण घटकों को मूर्त करती है। एक दौर में लोक-संस्कृति की अवधारणा मुख्य रूप से अन्य समूहों से पृथक रहने वाले लघु, सजातीय और ग्राम्य समूहों में प्रचलित परंपराओं पर केंद्रित थी। किन्तु आज लोक-संस्कृति आधुनिक और ग्रामीण घटक - दोनों के एक गतिशील निरूपण के रूप में चिह्नित की जाती है। ऐतिहासिक रूप से यह मौखिक परंपरा के माध्यम से हस्तांतरित होती आ रही थी, वहीं अब तेजी से गतिशील कंप्यूटरसाधित संचार के माध्यम से विस्तार पा रही है। इसके जरिये समूहगत पहचान और समुदाय के विकास की दिशाएँ भी खुल रही हैं। लोक-संस्कृति बहुधा स्थानीयता की भावना के साथ गहराई से रंजित रही है। यहाँ तक कि जब किसी परदेशी द्वारा एक लोक-संस्कृति के तत्वों की नकल की जाती है या उसे अपने यहाँ स्थानांतरित करने की कोशिश की जाती है, तो वह अभी भी अपने सृजन के मूल स्थान के संपृक्तार्थों को मजबूती के साथ ले जाती है। वर्तमान दौर में लोक-संस्कृति के अनेक तत्त्व लोकप्रिय और आभिजात्य संस्कृति में अंतर्लीन होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में लोक-संस्कृति का अध्ययन-अनुसंधान नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। इस दिशा में अक्षर वार्ता अपने विनत प्रयासों के साथ उपस्थित है। हमारी समृद्ध लोक-संस्कृति से जुड़े शोध-अनुशीलन को प्रोत्साहन देने के लिए अक्षर वार्ता सन्नद्ध है, प्रस्तुत अंक में इसकी बानगी मालवा-निमाड़ अंचल से जुड़ी महत्त्वपूर्ण सामग्री से मिलेगी। भारत के हृदय अंचल मालवा-निमाड़ ने एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को ‘गागर में सागर’ की तरह आत्मसात किया हुआ है। यहाँ की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को यहाँ की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा-निमाड़ अंचल के निकटवर्ती अंचलों में मेवाड़, हाड़ौती, गुजरात, भीलांचल, महाराष्ट्र और बुन्देलखण्ड इन्द्रधनुष की तरह अपने-अपने रंग इस क्षेत्र में बिखेरते आ रहे हैं। इन सभी की मिठास और ऐश्वर्य को इस अंचल ने अपने अंदर समाया है, वहीं इन सभी को अपने जीवन रस से सींचा भी है। यहाँ की संस्कृति का भारतीय संस्कृति, जीवनशैली और परम्परा के साथ गहरा तादात्म्य रहा है। इसके प्रमाण वैदिक वाङ्मय से लेकर महाभारत और पुराणकाल तक सहज ही उपलब्ध हैं। लोक-भाषाएँ, साहित्य और विविध कलाभिव्यक्तियाँ वस्तुतः भारतीय संस्कृति के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में विविध समुदाय अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। वैसे तो दुनियाभर में छह हजार भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन भाषागत विविधता का आबादी की सघनता से कोई नाता दिखाई नहीं दे रहा है। संसार में हर साल कहीं न कहीं दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह संकट उन तमाम बोली-उपबोलियों के समक्ष गहराता जा रहा है, जिनके प्रयोक्ता या तो इन्हें पिछड़ेपन की निशानी मानकर इनसे दूर हो रहे हैं या कथित आधुनिकता की दौड़ में पराई भाषा की ओर उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजें और लोक-भाषाओं को उसके घर-आँगन से लेकर व्यापक लोक जीवन के बीच बहने-पनपने दें। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रेमियों, शोधकर्ताओं और लोक-संस्कृतिविदों के समेकित प्रयत्नों की दरकार है।------------ प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा (प्रधान संपादक) एवं डॉ मोहन बैरागी (संपादक) (आवरण-छायांकन: प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा) (ईमेल aksharwartajournal@gmail.com)

20140527

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा खांपा रत्न सम्मानोपाधि से विभूषित





  

उज्जैन। विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ साहित्यिक साधना, हिन्दी एवं मालवी भाषा के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन एवं संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए हल्ला गुल्ला साहित्य मंच, रतलाम द्वारा खांपा रत्न सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि रतलाम में आयोजित 10 वें . भा. खांपा सम्मेलन अर्पित की गई । इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्‌न  एवं अंगवस्त्र अर्पित किए गए। उन्हें मुख्त अतिथि इप्का लैब के उपाध्यक्ष श्री दिनेश सियाल, समाजसेवी श्री दिनेश पाटीदार, संस्थापक व्यंग्यकार संजय जोशी सजग, संयोजक अलक्षेन्द्र व्यास, जुझारसिंह भाटी आदि ने सम्मानित किया। इस आयोजन में देश के सैंकड़ों साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

     प्रो. शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध,लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं । उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का  हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश – विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में थाईलैंड में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान, विद्यावाचस्पति आदि प्रमुख हैं।
      प्रो. शर्मा को खांपा रत्न सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल,  पूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो. टी.आर. थापक,  कुलसचिव डॉ. बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ राकेश ढंड , इतिहासविद्‌ डॉ. श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो गीता नायक, डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ. अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव 'नवनीत', श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक 'उत्तम', श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ. राजेश रावल सुशील, डॉ. अनिल जूनवाल, डॉ. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', राजेन्द्र नागर 'निरंतर', अक्षय अमेरिया, डॉ. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी।
                                                                         
                                                                       डॉ. अनिल जूनवाल
                                                             संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन






              

20130207

विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केन्द्र, उज्जैन



विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केन्द्र : एक परिचय

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन की हिन्दी अध्ययनशाला में नव स्थापित विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र में संग्रहकार्य,सर्वेक्षण एवं दस्तावेजीकरण जारी है। विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हिन्दी के बहुकोणीय रेखांकन के लिए 2007 ई.  में स्थापित इस संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र में विगत एक हजार से अधिक वर्षों के हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण पक्षों को प्रस्तुत करने के साथ ही साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक,देश-विदेश के विभिन्न भागों से प्रकाशित हिन्दी समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ, प्रकाशन सूचियॉं,अनुसंधान सूचनाएं एवं अन्य आधार सामग्री को सॅंजोया गया है।
        विक्रम विश्वविद्यालय,उज्जैन के विश्वहिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र के संस्थापक- समन्वयक प्रो.शैलेन्द्रकुमार शर्मा द्वारा परिकल्पित इस केंद्र में देशांतरीय हिन्दी साहित्य के साथ ही बसव समिति, बेंगलुरु,आंध्रप्रदेश हिन्दी अकादमी, हैदराबाद आदि संस्थाओं  द्वारा अर्पित साहित्य, स्त्री एवं दलित विमर्श , राजभाषा एवं प्रयोजनमूलक हिंदी से संबद्ध महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों को संग्रहीत किया गया है। प्रदर्शनकारी एवं रूपंकर कलाओं, संस्कृत साहित्य से संबद्ध सामग्री, बालसाहित्य, पर्यटन साहित्य,स्वाधीनता आंदोलन पर केंद्रित साहित्य भी यहां संजोया गया है। हिन्दी की साहित्यिक एवं लघु पत्रिकाओं के दुर्लभ अंकों के  साथ ही वर्तमान में प्रकाशित हो रहीं पाँच  सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं के अंक भी अवलोकनार्थ उपलब्ध हैं।   यहॉं स्थापित श्री गुरुनानक अध्ययन पीठ की दृष्टि से भारतीय भाषाओं में भक्ति साहित्य एवं गुरुनानक देव के साहित्य के साथ ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब महत्त्वपूर्ण पुस्तकें तथा पत्र- पत्रिकाएं संजोयी गई हैं।
       अपने ढंग के इस प्रथम विश्व हिन्दी संग्रहालय में हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों पर एकाग्र वृत्तचित्रों के साथ ही लोकभाषा में निबद्ध गाथा, कथा तथा गीतों की आडियो-वीडियो, सीडी संजोयी गयी हैं, जिनका समय-समय पर प्रदर्शन किया जाता है।यहॉं प्रमुख साहित्यकारों के चित्र,हस्तलेख, पत्र आदि के डिजिटलीकरण की दिशा में कार्य जारी है। संग्रहालय में विभिन्न संस्थाओं साहित्यकारों एवं साहित्यरसिकों द्वारा भी महत्त्वपूर्ण सामग्री अर्पित की जा रही है। विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र के लोक- संस्कृति प्रभाग में मालवी लोक-संस्कृति के  विविध पक्षों पर व्यापक कार्य जारी है। मालवी संस्कृति के समेकित रूपांकन एवं अभिलेखन की दिशा में विशेष प्रयास जारी हैं। यहॉं हिन्दी एवं मालवी के शीर्ष रचनाकारों के परिचयात्मक विवरण, कविता एवं चित्रों की दीर्घा संजोयी गयी है । चित्रावण, संजा, मांडणा, कठपुतली कला सहित मालवा क्षेत्र के विविध कलारूपों और भीली जनजातीय संस्कृति से सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण सामग्री को भी इस संग्रहालय में संजोया गया है।हिन्दी और उसकी क्षेत्रीय बोलियों विशेषतः मालवी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों से संबद्ध साहित्य, लेख एवं सूचनाओं का दस्तावेजीकरण इस केंद्र में किया जा रहा है।भारत की प्रमुख लोकभाषाओं यथा- मालवी, बुन्देली, हाड़ौती, मेवाडी, मारवाडी, भोजपुरी, हरियाणवी, कन्नौजी, कनपुरिया, अवधी,  ब्रजभाषा, निमाडी, भीली, भिलाली, बारेली, सहरिया, गोंडी जैसी बोलियों के अभिलेखन की दिशा में भी कार्य जारी है।
हाल के दशकों में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में एक साथ कई दिशाओं में शोध कार्य हुआ है, जिनमें हिन्दी भाषा-साहित्य एवं संस्कृति के विविध आयामों के साथ ही हिन्दी कम्प्यूटिंग,वेब पत्रकारिता, दृश्य जनसंचार-माध्यम,मशीनी अनुवाद, राजभाषा हिन्दी आदि के अधुनातन संदर्भ उल्लेखनीय हैं। यहॉं विश्वभाषा हिन्दी के साथ ही लोकभाषा मालवी के साहित्य एवं संस्कृति को लेकर महत्त्वपूर्ण काम  हुआ है और आज भी जारी हैं। यहॉं स्थापित मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केंद्र के अंतर्गत मालवी और उसकी उपबोलियों-सोंधवाड़ी, रजवाडी, दशोरी, उमठवाडी, निमाडी आदि पर महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। यहॉं स्थापित भारतीय लोक एवं जनजातीय संस्कृति केंद्र के अंतर्गत बुन्देली, हाडौती, मेवाडी, भोजपुरी, हरियाणवी, अवधी, ब्रजभाषा, निमाडी, भीली, बारेली, सहरिया, गोंडी आदि पर भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है। मालवी लोक-संस्कृति के विविध पक्षों, यथा-व्रत पर्व उत्सव पर केंद्रित लोक साहित्य, लोकदेवता, साहित्य, पर्यावरण, शृंगारपरक लोकगीत, हीड काव्य, माच परम्परा, संजा पर्व, चित्रावण, मांडणा, विरद बखाण, गाथा साहित्य, लोकोक्ति आदि पर भी महत्त्वपूर्ण अनुसंधान एवं अभिलेखन जारी है। हिन्दी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन हिन्दी के साथ ही भारत की विविध बोलियों के लोक-साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में कार्य के लिए कृत- संकल्पित है। इसदिशा में रचनात्मक सुझावों का सदैव स्वागत रहेगा। इस प्रथम विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र के समुचित विकास की दिशा में संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं। इस हेतु देश-विदेश की अकादमिक संस्थाओं, साहित्यकारों तथा विद्वानों से सहयोग का अनुरोध है।

प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
संस्थापक-समन्वयक
विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र
हिन्दी अध्ययनशाला                      
 विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

[म.प्र.] भारत


संग्रहालय का अवलोकन करते हुए अशोक वाजपेयी 
अशोक वाजपेयी को संग्रहालय का अवलोकन कराते हुए
डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


संग्रहालय का अवलोकन करते हुए अशोक चक्रधर 
अशोक चक्रधर को संग्रहालय का अवलोकन कराते हुए
डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 







सृजन संस्कार वर्ष 2007-08:
एक शताब्दी हिन्दी के सात स्वरों की
 के अवसर पर
जारी   पोस्टर
             

Featured Post | विशिष्ट पोस्ट

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : वैचारिक प्रवाह से जोड़ती सार्थक पुस्तक | Mahatma Gandhi : Vichar aur Navachar - Prof. Shailendra Kumar Sharma

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : पुस्तक समीक्षा   - अरविंद श्रीधर भारत के दो चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में  सबसे...

हिंदी विश्व की लोकप्रिय पोस्ट