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20171128

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा विद्यासागर सम्मानोपाधि से विभूषित

विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में सम्मानित हुए प्रो.शर्मा

विनत सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति और हिन्दी के प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए विनम्र प्रयासों के लिए मुझे विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। इस मौके पर डॉ अनिल जूनवाल की खबर -

विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और हिन्दी के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि उज्जैन में गंगाघाट स्थित मौनतीर्थ में आयोजित विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में कुलाधिपति संत श्री सुमनभामानस भूषण’, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ योगेन्द्रनाथ शर्माअरुण’[रूड़की ], प्रतिकुलपति डॉ अमरसिंह वधान एवं कुलसचिव डॉ देवेन्द्रनाथ साह के कर-कमलों से अर्पित की गई । इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें सम्मान-पत्र, स्मृति चिह्‌न, पदक एवं साहित्य अर्पित किए गए। सम्मान समारोह की विशिष्ट अतिथि नोटिंघम [यू के] की वरिष्ठ रचनाकर जय वर्मा, प्रो नवीचन्द्र लोहनी [मेरठ] एवं डॉ नीलिमा सैकिया [असम] थे। इस अधिवेशन में देश-विदेश के सैंकड़ों संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

     प्रो. शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध,लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं । उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का  हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश – विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में थाईलैंड में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि प्रमुख हैं।
      प्रो. शर्मा को विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल,  पूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो. टी.आर. थापक, पूर्व कुलपति प्रो. नागेश्वर राव,  कुलसचिव डॉ. बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ राकेश ढंड , इतिहासविद्‌ डॉ. श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो गीता नायक, डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ. अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव 'नवनीत', श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक 'उत्तम', श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ. राजेश रावल सुशील, डॉ. अनिल जूनवाल, डॉ. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', राजेन्द्र नागर 'निरंतर', अक्षय अमेरिया, डॉ. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी।
                                                                         
                                                               डॉ. अनिल जूनवाल
संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन

                                                             मोबा ॰ 9827273668 







नई विधा में प्रकाशित युगल बैरागी की रपट

20150819

जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती है लोक-संस्कृति

अक्षर वार्ता July 2015: सम्पादकीय
(आवरण: बंसीलाल परमार )
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादकीय विविध लोकभिव्यक्तियों के अध्ययन, अनुसन्धान और नवाचार को लेकर सजगता की दरकार करता है।..
लोक-साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा काल-प्रवाह में बाधित भले ही हो जाए, कभी सूखती नहीं है। लोक-कथा, गीत, गाथा, नाट्य, संगीत, चित्र सहित विविध लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। विकास के नए प्रतिमान एक जैसेपन को बढ़ाते हैं, इसके विपरीत लोक-साहित्य और संस्कृति एक जैसेपन और एकरसता के विरुद्ध हैं। मनुष्य की सजर्नात्मक सम्भावनाएँ साहित्य एवं विविध कला-माध्यमों में प्रतिबिम्बित होती आ रही हैं। इनमें शब्दमयी अभिव्यक्ति का माध्यम ‘साहित्य’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ‘शब्द’ ही मनुष्य की अनन्य पहचान है, जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। शब्दार्थ केन्द्रित अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से लोक द्वारा रचा गया साहित्य अपनी संवेदना और शिल्प में विशुद्धता और मौलिकता की आंच से युक्त होने के कारण अपना विशिष्ट प्रभाव रचता है, जो कथित आभिजात्य साहित्य द्वारा सम्भव नहीं है। लोक-साहित्य मानव समुदाय की विविधता और बहुलता को गहरी रागात्मकता के साथ प्रकट करता है, वहीं देश-काल की दूरी के परे समस्त मनुष्यों में अंतर्निहित समरसता और ऐक्य को प्रत्यक्ष करता है।
वस्तुतः लोक से परे कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। समस्त लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह लोक-संस्कृति से मुक्त कोई भी नहीं है। कोई स्वीकार करे, न करे, उसे पहचाने, न पहचाने,  सभी की अपनी कोई न कोई लोक-संस्कृति होती है। उसका प्रभाव कई बार इतना सूक्ष्म-तरल और अंतर्यामी होता है कि उसे देख-परख पाना बेहद मुश्किल होता है, किन्तु असंभव नहीं। लोक-जीवन में परम्परा और विकास न सिर्फ साथ-साथ अस्तित्वमान रहते हैं, वरन् एक दूसरे पर भी निर्भर करते हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति इन दोनों की अन्योन्यक्रिया का जैविक साक्ष्य देते हैं।
लोक-साहित्य सहित लोक की विविधमुखी अभिव्यक्तियों को आधार देती हुई लोक-संस्कृति का स्वरूप अत्यंत व्यापक और विपुलतासम्पन्न है। लोक-साहित्य और संस्कृति तमाम प्रकार के परिवर्तन और विकास के बावजूद अपने अंदर की कई चीजों को बचाये रखते हैं, कभी रूपांतरित करके तो कभी अंतर्लीन करके। सूक्ष्मता से विचार करें तो हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह और क्रियाओं के तादात्म्य को प्रत्यक्ष करता है। यही वह विचारणीय बिंदु है जो लोक-साहित्य, संस्कृति के साथ इतिहास और मानव-शास्त्र का जैविक सम्बन्ध रचता है।
भारत में लोक साहित्य और संस्कृति कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत, आदिम या पुरातन नहीं हैं। वे सतत वर्तमान हैं, जीवन का अविभाज्य अंग हैं। भारत के हृदय अंचल मालवा का लोक-साहित्य और विविध परम्पराएँ भी इन्हीं अर्थों में अपने भूगोल और पर्यावरण का अनिवार्य अंग हैं। मालवी लोक-संस्कृति की विलक्षणता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यह अंचल सहस्राब्दियों से शास्त्र, इतिहास और संस्कृति की अनूठी रंगस्थली रहा है। इनके साथ यहाँ की लोक-संस्कृति की अन्तःक्रिया निरंतर चलती चली आ रही है। यहाँ कभी शास्त्रों ने लोक परम्परा को आधार दिया है तो कभी लोकाचार ने शास्त्र का नियमन किया है, उसको व्यवहार्य बनाया है। यह बात देश के प्रायः अधिकांश भागों की लोक-संस्कृति में देखी-समझी जा सकती है।
लोक में व्याप्त व्रत-पर्व-उत्सवों को कई बार महज धार्मिक अनुष्ठान या रूढ़ि के रूप में देखा जाता है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये सभी पुराख्यान, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। उदाहरण के लिए मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व और उससे जुड़ा लोक-साहित्य सही अर्थों में भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति, परम्परा और लोक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम दृष्टांत है। फिर यह काल के अविराम प्रवाह से अनछुआ भी नहीं है। इसमें परिवर्तन और विकास की आहटें भी सुनी जा सकती हैं। संजा पर्व में हम देखते हैं कि उसमें चित्रित आकृतियों में शास्त्रोक्त स्वस्तिक (सात्या) और सप्तऋषि तो आते ही हैं, छाबड़ी (डलिया), घेवर, घट्टी जैसे लोक प्रतीकों का भी अंकन होता है। काल-प्रवाह में इससे सम्बद्ध लोक-साहित्य और भित्ति-चित्रों में नए-नए बिम्ब भी संपृक्त होते जा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मालवा सहित किसी भी क्षेत्र की लोक-संस्कृति को नितांत बौद्धिक विमर्श से हटकर यहाँ के लोकजीवन के साथ सहज और जैविक अन्तःक्रिया के रूप में देखा-समझा जाए। तभी अध्ययन, शोध और नवाचार में उसके निहितार्थ उजागर होंगे और फिर उसका जीवन और पर्यावरण-बोध हमारे आज और कल के लिए भी कारगर सिद्ध होगा।
वर्तमान में लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में नित-नूतन अनुसंधान की संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। मानव जीवन के इन सचल क्षेत्रों में शोध की अभिनव प्रविधियों को लेकर जागरूकता की दरकार है। तभी हम शोध में स्तरीयता, मौलिकता और गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। इस दिशा में आपके रचनात्मक योगदान और प्रतिक्रियाओं का ‘अक्षर वार्ता’ में स्वागत है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com     डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरूलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com



20141204

घर-आँगन से व्यापक लोक-जीवन तक जीवंत रहने दें लोक-संस्कृति को


अक्षर वार्ता : लोक-संस्कृति पर एकाग्र विशिष्ट अंक कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक विरासत के प्रति नई चेतना का आह्वान करता है। पेश है कुछ अंश ------ सम्पादकीय: किसी भी परम्पराशील राष्ट्र की सही पहचान लोक एवं जनजातीय भाषा और संस्कृति के बिना संभव नहीं है। इधर एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों, विशेष तौर पर भारत को ही देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ की संस्कृति और सभ्यता न जाने किस सुदूर अतीत से आती हुई परम्पराओं पर टिकी हुई है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति विविध लोक एवं जनजातीय संस्कृतियों का जैविक समुच्चय है, जिसके निर्माण में अज्ञात अतीत से सक्रिय विविध जनसमुदायों की सहभागी भूमिका चली आ रही है। सारे भारत की भाषा और बोलियाँ तथा उनसे जुड़ी संस्कृति एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले इस तरह से खड़ी हैं कि उन्हें एक-दूसरे से विलग किया जाना संभव नहीं है। इनके बीच मेल-मिलाप का सिलसिला पुरातन काल से चला आ रहा है। लोक और जनजातीय समुदायों से उनकी संस्कृति, परम्परा और कलारूपों का रिश्ता इतना नैसर्गिक और जीवन्त है कि उनके बीच विभाजक रेखा खींच पाना असंभव है। वस्तुतः लोक-संस्कृति परंपराबद्ध समूहों द्वारा स्थानीय रूप से अधिनियमित रोजमर्रा की जिंदगी के एकीकृत प्रभावपूर्ण घटकों को मूर्त करती है। एक दौर में लोक-संस्कृति की अवधारणा मुख्य रूप से अन्य समूहों से पृथक रहने वाले लघु, सजातीय और ग्राम्य समूहों में प्रचलित परंपराओं पर केंद्रित थी। किन्तु आज लोक-संस्कृति आधुनिक और ग्रामीण घटक - दोनों के एक गतिशील निरूपण के रूप में चिह्नित की जाती है। ऐतिहासिक रूप से यह मौखिक परंपरा के माध्यम से हस्तांतरित होती आ रही थी, वहीं अब तेजी से गतिशील कंप्यूटरसाधित संचार के माध्यम से विस्तार पा रही है। इसके जरिये समूहगत पहचान और समुदाय के विकास की दिशाएँ भी खुल रही हैं। लोक-संस्कृति बहुधा स्थानीयता की भावना के साथ गहराई से रंजित रही है। यहाँ तक कि जब किसी परदेशी द्वारा एक लोक-संस्कृति के तत्वों की नकल की जाती है या उसे अपने यहाँ स्थानांतरित करने की कोशिश की जाती है, तो वह अभी भी अपने सृजन के मूल स्थान के संपृक्तार्थों को मजबूती के साथ ले जाती है। वर्तमान दौर में लोक-संस्कृति के अनेक तत्त्व लोकप्रिय और आभिजात्य संस्कृति में अंतर्लीन होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में लोक-संस्कृति का अध्ययन-अनुसंधान नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। इस दिशा में अक्षर वार्ता अपने विनत प्रयासों के साथ उपस्थित है। हमारी समृद्ध लोक-संस्कृति से जुड़े शोध-अनुशीलन को प्रोत्साहन देने के लिए अक्षर वार्ता सन्नद्ध है, प्रस्तुत अंक में इसकी बानगी मालवा-निमाड़ अंचल से जुड़ी महत्त्वपूर्ण सामग्री से मिलेगी। भारत के हृदय अंचल मालवा-निमाड़ ने एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को ‘गागर में सागर’ की तरह आत्मसात किया हुआ है। यहाँ की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को यहाँ की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा-निमाड़ अंचल के निकटवर्ती अंचलों में मेवाड़, हाड़ौती, गुजरात, भीलांचल, महाराष्ट्र और बुन्देलखण्ड इन्द्रधनुष की तरह अपने-अपने रंग इस क्षेत्र में बिखेरते आ रहे हैं। इन सभी की मिठास और ऐश्वर्य को इस अंचल ने अपने अंदर समाया है, वहीं इन सभी को अपने जीवन रस से सींचा भी है। यहाँ की संस्कृति का भारतीय संस्कृति, जीवनशैली और परम्परा के साथ गहरा तादात्म्य रहा है। इसके प्रमाण वैदिक वाङ्मय से लेकर महाभारत और पुराणकाल तक सहज ही उपलब्ध हैं। लोक-भाषाएँ, साहित्य और विविध कलाभिव्यक्तियाँ वस्तुतः भारतीय संस्कृति के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में विविध समुदाय अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। वैसे तो दुनियाभर में छह हजार भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन भाषागत विविधता का आबादी की सघनता से कोई नाता दिखाई नहीं दे रहा है। संसार में हर साल कहीं न कहीं दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह संकट उन तमाम बोली-उपबोलियों के समक्ष गहराता जा रहा है, जिनके प्रयोक्ता या तो इन्हें पिछड़ेपन की निशानी मानकर इनसे दूर हो रहे हैं या कथित आधुनिकता की दौड़ में पराई भाषा की ओर उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजें और लोक-भाषाओं को उसके घर-आँगन से लेकर व्यापक लोक जीवन के बीच बहने-पनपने दें। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रेमियों, शोधकर्ताओं और लोक-संस्कृतिविदों के समेकित प्रयत्नों की दरकार है।------------ प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा (प्रधान संपादक) एवं डॉ मोहन बैरागी (संपादक) (आवरण-छायांकन: प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा) (ईमेल aksharwartajournal@gmail.com)

20140809

अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'अक्षरवार्ता' का विमोचन

 'अक्षरवार्ताका विमोचन - प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल, प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मासम्पादक डॉ. मोहन बैरागीसम्पादक डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा वं तिथि
अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'अक्षरवार्ताका विमोचन विदिशा में आयोजित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त समारोह में संपन्न हुआ।  साहित्य अकादेमी  मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल द्वारा आयोजित दो दिवसीय समारोह के उद्घाटन अवसर पर इस मासिक शोध-पत्रिका का विमोचन अकादेमी के निदेशक एवं वरिष्ठ विद्वान प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल एवं मंचासीन अतिथियों ने किया। पत्रिका का विमोचन प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, सम्पादक डॉ. मोहन बैरागी, सम्पादक मंडल सदस्य डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा ने करवाया। इस मौके पर विदिशा के शास. महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ. कमल चतुर्वेदी, साहित्यकार डॉ. शीलचंद्र पालीवाल, डॉ. वनिता वाजपेयी, जगदीश श्रीवास्तव (विदिशा), डॉ. तबस्सुम खान (भोपाल), युवा शोधकर्ता पराक्रमसिंह (उज्जैन) आदि सहित अनेक संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार उपस्थित थे।यह पत्रिका उज्जैन से प्रकाशित हो रही है। उज्जैन से प्रकाशित इस आई एस एस एन मान्य  अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में कला, मानविकी, समाजविज्ञान, जनसंचार, विज्ञान, वैचारिकी से जुड़े मौलिक शोध एवं विमर्शपूर्ण आलेखों का प्रकाशन किया जा रहा है। इस पत्रिका के अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल में देश-विदेश के अनेक विद्वानों, संस्कृतिकर्मियों और शोधकर्ताओं का सहयोग मिल रहा है। इनमें प्रमुख हैं- डॉ. सुरेशचन्द्र शुक्ल[नॉर्वे], श्री रामदेव धुरंधर [मॉरीशस], श्री शेर बहादुर सिंह [यूएसए], डॉ. स्नेह ठाकुर [कनाडा], डॉ. जय वर्मा [यू के], प्रो. टी.जी. प्रभाशंकर प्रेमी [कर्नाटक], प्रो. अब्दुल अलीम [उ प्र ], प्रो. आरसु [केरल], डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा [म प्र], डॉ. रवि शर्मा [दिल्ली], प्रो. राजश्री शर्मा [म प्र], डॉ. अलका धनपत [मॉरीशस] आदि। पत्रिका का आवरण कला मनीषी अक्षय आमेरिया ने सृजित किया है। यह पत्रिका देश-विदेश की विभिन्न अकादमिक संस्थाओं, संगठनों और शोधकर्ताओं के साथ ही  इंटरनेट पर भी उपलब्ध रहेगी।
 डॉ. मोहन बैरागी
सम्पादक 
अक्षरवार्ता ISSN 2349-7521
मोबा. 09424014366                                                                                   

20130324

श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकाल - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

श्लोक से लोक तक की आस्था के केन्द्र श्री महाकालेश्वर

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्‌।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वंदे महाकालमहासुरेशम्‌॥

सुपूज्य और दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित उज्जयिनी के महाकालेश्वर की महिमा अनुपम है। सज्जनों को मुक्ति प्रदान करने के लिए ही उन्होंने अवंतिका में अवतार धारण किया है। ऐसे महाकाल महादेव की उपासना न जाने किस सुदूर अतीत से अकालमृत्यु से बचने और मंगलमय जीवन के लिए की जा रही है। शिव काल से परे हैं, वे साक्षात्‌ कालस्वरूप हैं। उन्होंने स्वेच्छा से पुरुषरूप धारण किया है, वे त्रिगुणस्वरूप और प्रकृति रूप हैं। समस्त योगीजन समाधि अवस्था में अपने हृदयकमल के कोश में उनके ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं। ऐसे परमात्मारूप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से ही अनादि उज्जयिनी को पूरे ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा मिली है। पुरातन मान्यता के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में तीन लिंगों को सर्वोपरि स्थान मिला है – आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर और इस धरा पर महाकालेश्वर।

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम्‌।
भूलोके च महाकालोः लिंगत्रय नमोस्तुते॥


शिव की उपासना अनेक सहस्राब्दियों से चली आ रही है और शिवलिंग के रूप में उनका अर्चन संभवतः सबसे प्राचीन प्रतीकार्चन है। वैदिक वाङ्‌मय के रुद्र ही परवर्ती काल में शिव के रूप में लोक में बहुपूजित हुए, जो अघोर और फिर घोर से भी घोरतर रूप लिए थे। उज्जयिनी अति प्राचीनकाल से शैव धर्म से जुड़े दर्शन, पूजा पद्धति और कला परम्पराओं का मुख्य केंद्र है। शिवाराधना के विकास में इस क्षेत्र का विशिष्ट योगदान रहा है। शैव धर्म की चार धाराओं- शैव, कालानल, पाशुपत और कापालिक का संबंध न्यूनाधिक रूप से उज्जैन, औंकारेश्वर, मंदसौर सहित समूचे मालवांचल से रहा है। पुराणों से संकेत मिलता है कि उज्जयिनी पाशुपतों की पीठ स्थली रही है। शंकर दिग्विजय के अनुसार यहाँ कापालिक निवास करते थे। महाकालेश्वर यहाँ के अधिष्ठाता देवता है। इनका ज्योतिर्लिंग दक्षिणामूर्ति होने से तांत्रिक साधना का दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। उज्जैन के महाकाल वन का तांत्रिक परम्परा में विशिष्ट स्थान है। स्कंदपुराण के अवंती खंड के अनुसार साधना की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी पाँच स्थल - श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ और वन यहीं हैं-

श्मशानमूषरं क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पंचैकत्र न लभ्यंते महाकालवनाद्‌ ऋते।। 

प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जयिनी यदि नाभिदेश है तो भूलोक के प्रधान पूज्यदेव महाकाल हैं। सृष्टि का प्रारंभ उन्हीं से हुआ है-कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः। वस्तुतः भगवान्‌ महाकाल की प्रतिष्ठा और महिमा से जुड़े अनेक पौराणिक आख्यान मिलते हैं, जिनसे अवंती क्षेत्र में शैव धर्म की प्राचीनता के संकेत मिलते हैं। शिवपुराण के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल के प्रथम चरण में हिरण्याक्ष की विजययात्रा के दौरान उसके सेनापति दूषण ने अवंती पर आक्रमण किया था। उस समय उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। पुरोहितों ने इस संकट के निवारण के लिए भगवान्‌ शिव की पूजा की सलाह दी, तब राजा ने स्वयं शिवजी का चमत्कार एक ग्वाले की शिवभक्ति में प्रत्यक्ष देखा। ग्वाला जहाँ शिव की पूजा किया करता था। वहीं वैदिक अनुष्ठानपूर्वक शिव मंदिर की स्थापना करवाई गई। संभवतः वही भगवान महाकालेश्वर के देवालय की स्थापना का प्रथम दिन था। विभिन्न युगों की गणना के आधार पर यह समय आज से करीब ग्यारह हजार नौ सौ वर्ष पहले अनुमानित है। त्रेता युग में सम्राट भरत के मित्र चित्ररथ अवंती क्षेत्र के राजा थे। भरत की चौथी पीढ़ी के राजा रन्तिदेव ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया था। त्रेतायुग में अयोध्या में राजा हरिश्चंद्र हुए थे, उनसे कुछ ही समय बाद महेश्वर (माहिष्मती) में हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन जैसे प्रतापी सम्राट हुए, जो सहस्रबाहु के नाम से प्रख्यात हैं। उन्हीं के सौ पुत्रों में से एक आवंत या अवंती थे, जिनके नाम पर यह क्षेत्र अवंती कहलाया। त्रेतायुग में राम के पुत्र कुश स्वयं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए अवंतिका में आए थे।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने महाकालेश्वर का पूजन किया था। महाकालेश्वर की प्राचीनता को लेकर अनेक पौराणिक, साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं, जो शैव साधना की दृष्टि से इस स्थान की महिमाशाली स्थिति को रेखांकित करते हैं। महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, इसीलिए उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने से 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है। पुराणों का संकेत साफ है-'प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी।' मृत्युलोक के स्वामी महाकाल इस नगरी के तब से ही अधिष्ठाता हैं, जब सृष्टि का समारंभ हुआ था। उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल तो स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं- 'नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः... इत्येषा तैत्तिरीश्रुतिः।' महाकाल का उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण सहित अनेकानेक पुराण एवं प्राचीन ग्रंथों में सहज ही उपलब्ध है। भागवत में उल्लेख मिलता है कि श्रीकृष्ण, बलराम और मित्र सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण कर स्वघर लौटने के पूर्व गुरुवर के साथ जाकर महाकाल की भक्ति भावनापूर्वक पूजा की थी। उन्होंने एक सहस्र कमल शिव जी के सहस्रनाम के साथ अर्पित किए थे।

पुराणकाल में तो महाकालेश्वर की विशिष्ट महिमा थी ही, पुराणोत्तर दौर में प्रद्योत युग, मौर्य युग, शुंग, शक, विक्रमादित्य, सातवाहन, गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार, परमार, मुगल, मराठा आदि सभी युगों में वे बहुलोकपूजित रहे हैं। विभिन्न युगों में उज्जैन में विकसित कला परम्पराएँ भी शैव धर्म के विविधायामी रूपांतर का साक्ष्य देती आ रही हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की रत्नसभा के अनूठे रत्न महाकवि कालिदास (प्रथम शती ई. पू.) ने अपनी प्रिय नगरी उज्जयिनी और महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उनके समय में यह पुण्य नगरी अपार वैभव और सौंदर्य से मंडित थी। इसीलिए वे इसे स्वर्ग के कांतिमान खण्ड के रूप में वर्णित करते हैं- 'दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्‌'। कालिदास के पूर्व भी यह नगरी अवन्ती या मालव क्षेत्र की प्रमुख नगरी थी ही, इसे राजधानी होने का भी गौरव मिला हुआ था। यहाँ सम्राट का राजप्रसाद भी था, कालिदास ने जिसके महाकाल मंदिर से अधिक दूर न होने का केत किया है-'असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।' उज्जयिनी के राजभवन और हवेलियाँ भी दर्शनीय थे, जिनके आकर्षण में मेघदूत को बाँधने की कोशिश स्वयं कालिदास ने की है।

कालिदास के समय उज्जयिनी शैव मत का प्रमुख केन्द्र थी। महाकवि के समय से शताब्दियों पूर्व से ही इस नगरी में शैव साधना एवं शैव स्थलों की प्रतिष्ठा रही थी। इसके अनेक पौराणिक साहित्यिक, पुरातात्त्विक एवं मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं। महाकवि कालिदास ने भी शैव मत की प्रतिष्ठा की दृष्टि से उज्जयिनी की महिमा को विशेष तौर पर रेखांकित किया है। उनके काल में उज्जयिनी की पहचान महाकाल मंदिर और क्षिप्रा से जुड़ी हुई थी। लोकमानस में महाकाल की प्रतिष्ठा तीनों लोकों के स्वामी और चण्डी के पति के रूप में थी। उनका मंदिर घने वृक्षों से भरे-पूरे महाकाल वन के मध्य में था। वनवृक्षों की शाखाएँ बहुत ऊपर तक फैली हुई थीं। मंदिर का परिसर सुविस्तृत था, जिसके आँगन में सायंकाल को महाकाल के अर्चन एवं संध्या आरती के बाद नृत्यांगनाओं का नर्तन होता था। उन नर्तकियों के पैरों की चाल के साथ-साथ मेखलाएँ झनझनाती रहती थीं। उनके हाथों में रत्न जटित हत्थियों वाले चँवर रहते थे। नर्तन-पूजन के पश्चात्‌ वे मंदिर से बाहर निकलती थीं। मंदिर के अन्दर शिव-कथा पर आधारित प्रस्तर-शिल्प भी थे। महाकाल मंदिर में साँझ की पूजा विशेष महिमाशाली मानी जाती थी। उस समय नगाड़ों के गर्जन के साथ महाकालेश्वर की सुहावनी आरती होती थी। उधर महाकाल वन के वृक्षों पर साँझ की लालिमा छा जाती थी, जो श्रद्धालुओं को मोहित कर देती थी। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस प्रसंग को रेखांकित किया है -

महाकाल मंदिरेर माझे
तखन गंभीरमन्द्रे संध्यारति बाजे।

महाकाल की पूजा पद्धति का संकेत भी कालिदास साहित्य में प्राप्त होता है। रघुवंश तथा मेघदूत से ज्ञात होता है कि महाकाल के सुप्रसिद्ध मंदिर में पशुपति शिव की प्रतिमा रही। सन्ध्या के समय उस पर धूप आ जाने से ऐसा लगता है, मानो उसने गजचर्म पहन लिया हो। इससे स्पष्ट है कि मंदिर में महाकाल की प्रतिमा इस प्रकार प्रतिष्ठित थी कि उस पर संध्या का प्रकाश पड़ता था। या तो वह प्रतिमा बिना छत के देवायतन में प्रतिष्ठित थी अथवा पूर्व-पश्चिम में गर्भगृह ऐसा खुला था कि भीतर की प्रतिमा पर पूरी धूप आती रहती थी। मेघदूत का एक श्लोक तो स्पष्ट संकेत करता है कि महाकाल मंदिर में नृत्य करते शिवजी की अनेक भुजाओं वाली प्रमुख प्रतिमा थी जिसे भवानी भक्तिपूर्वक निहार रही हैं।

पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।
नृत्यारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेह्णवां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या॥

कालिदास नीललोहित से मुक्ति की कामना भी करते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड (अध्याय-2) में नीललोहित का स्वरूप दिया गया है। तदनुसार उसमें पाँच मुख, दस भुजा, पन्द्रह आँखें, साँप की यज्ञोपवीत, जटा, चन्द्र और सिंहचर्म का वस्त्र बताया गया है। यह रूप महाकाल पशुपति का नहीं है। नटराज शिव की उज्जैन से प्राप्त आठवीं शती की एक खण्डित प्रतिमा ग्वालियर में सुरक्षित है। किन्तु कालिदास से यह प्रतिमा सदियों बाद बनी। कालिदास के युग में महाकाल की प्रतिमा रही, यह बृहत्कथा के संस्करणों से भी पुष्ट होता है। उसमें एक व्यक्ति महाकाल प्रतिमा के घुटनों पर सिर टिकाकर रोता है। उसमें महाकाल के हाथों की भी चर्चा है। मेघदूत में शिवलिंग का संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु ज्योतिर्लिंग अवश्य रहा होगा। पौराणिक परम्परा इस बात की बार-बार पुष्टि करती है।

गुप्त और हर्षवर्धन युग (335-848 ई.) में भी उज्जयिनी शैव मत का एक प्रमुख केन्द्र रही। महाकवि वाण ने अपनी कादम्बरी में उल्लेख किया है कि यहाँ महाकाल स्वरूप में शिव की आराधना की जाती है। यहाँ शंकर के अनेक मंदिर थे तथा प्रमुख चौराहों पर भी शिवलिंग स्थापित थे। यहाँ पर आधिपत्य रखने वाले यशोवर्धन, हर्षवर्धन जैसे अनेक शासक शिव के उपासक थे। हर्षवर्धन किसी भी सैनिक अभियान के पूर्व नील-लोहित शिव की पूजा किया करता था। यहाँ शिव के साथ शक्ति की पूजा का भी समन्वय रहा है।गुप्त युग में महाकाल मंदिर अत्यंत प्रशस्त और भव्य था। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के अनेक मंदिर थे। मंदिरों पर स्वर्ण-कलश और श्वेत पताकाएँ सुशोभित होती थीं। उनकी भित्तियों पर देव, दानव, सिद्ध, गंधर्व आदि के चित्र बने थे। यहाँ शिव की कामदेव के रूप में भी पूजा की जाती थी।

महाकाल वन जहाँ देश - दुनिया के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है, वहीं एक दौर में यहाँ आक्रांताओं ने हमले भी किए। एक मान्यता के अनुसार 1235 ई. के आसपास आततायी शासकों ने मालवा पर हमले के दौरान उज्जैन को भी लूटा था। महाकाल मंदिर में भी लूट-खसोट की गई थी, जिसका उल्लेख अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है। परवर्ती काल में यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सद्‌भावना का केन्द्र भी बना। अनेक मुस्लिम शासकों ने महाकाल सहित उज्जैन के विभिन्न मंदिरों में पूजा-प्रबंध के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई। शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सहित एक दर्जन मुस्लिम शासकों की ऐसी सनदें मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शाही खजाने से महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों में पूजा आदि के लिए मदद की थी। देश के प्रमुख मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रदीप्त रहने वाला दीपक) लगाने की प्रथा रही है। उसका निर्वाह महाकाल मंदिर में आज भी हो रहा है। इस परम्परा के निमित्त 1061 हिजरी में सम्राट आलमगीर ने चार सेर घी रोजाना जलाने के लिए एक सनद के माध्यम से राशि स्वीकृत की थी, जो धार्मिक सहिष्णुता का नायाब उदाहरण है।

मराठाकाल में राणोजी शिंदे के दीवान रामचंद्र बाबा सुखटनकर (या शेणवी) ने उज्जयिनी में धार्मिक पुनर्जागरण किया। उन्होंने 1730 के आसपास महाकाल के वर्तमान मंदिर, रामघाट, पिशाचमुक्तेश्वर घाट आदि का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार पुराणोक्त चौरासी महादेव तथा अनेक शाक्त तथा शैव स्थलों के जीर्णोद्धार या नवीन प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य भी मराठाकाल में संभव हुआ। सिंधिया राज्य के संस्थापक महादजी ने महाकाल मंदिर और उसके पुजारी वर्ग का आस्थापूर्वक पोषण किया। भोज, ग्वालियर, होल्कर राज्य के राजवंशियों की ओर से महाकालेश्वर के पूजन आदि के लिए निरंतर सहायता प्राप्त होती रही थी।

वर्तमान महाकालेश्वर मंदिर एवं परिसर सुविस्तृत, विशाल और अलग-अलग युगों की कला संपदा को सहेजे हुए है। महाकाल के दक्षिण मूर्ति शिवलिंग की विस्तीर्ण रजत निर्मित जलाधारी अत्यंत कलामय और नागवेष्टित निर्मित हुई है। शिवजी के सम्मुख नंदी की पाषाणमूर्ति धातुपत्रवेष्टित विशाल प्रतिमा है। गर्भगृह में पश्चिम की ओर गणेश जी, उत्तर की ओर भगवती पार्वती और पूर्व में कार्तिकेय की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में निरंतर दो नंदादीप तेल एवं घी के प्रज्वलित रहते हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए पुरातन गलियारे के साथ ही अब विशाल सभागारयुक्त गलियारे बन गए हैं, जहाँ एक साथ सैकड़ों लोग दर्शन-आरती का आनंद ले सकते हैं महाकालेश्वर के ठीक ऊपरी भाग में ओंकारेश्वर की प्रतिमा है तथा सबसे ऊपरी तल पर नागचन्द्रेश्वर की। नागचंद्रेश्वर के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही होते हैं।

महाकालेश्वर परिसर में वृद्धकालेश्वर (जूना महाकाल), राम-जानकी, अवंतिका देवी, अनादिकल्पेश्वर, साक्षी गोपाल, स्वप्नेश्वर महादेव, सिद्धि विनायक, हनुमान, लक्ष्मी-नृसिंह आदि सहित अनेक लघु मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में विशाल कोटितीर्थ कुंड भी है, पुराणों में जिसकी बड़ी महिमा वर्णित है। कुंड के चहुँ ओर अनेक शिव मंदरियाँ हैं, जो इस स्थान के कला वैभव को बहुगुणित करती आ रही हैं। महाकाल मंदिर तथा आसपास के अन्य मंदिरों में परमारकालीन शिलालेख लगे हुए है जिनमें राजाभोज, उदयादित्य, नरवर्मन, निर्वाणनारायण, विज्जसिंह आदि राजाओं के भग्न शिलालेख प्राप्त हुए है। एक शिलालेख गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का भी है, जिसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ जिसकी स्मृति में यह अभिलेख मंदिर में लगवाया होगा। परमारकाल की अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ मंदिर क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं, जिनमें शेषशायी विष्णु, गरुडासीन विष्णु, उमा-महेश, कल्याण सुंदर, शिव-पार्वती, नवग्रह, अष्टदिक्‌पाल, पंचाग्नि तप करती पार्वती, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। पूर्व में यहाँ परमार राजाओं की प्रतिमाएँ भी लगी हुई थीं जिनमें से एक वर्तमान में विक्रम कीर्ति मंदिर स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।

महाकाल मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले शिव पर चिताभस्म का लेपन किया जाता है। यह पूजा महिम्नस्तोत्र के 'चिताभस्मालेपः' श्लोक के अनुरूप होती है। इस पूजा हेतु किसी विशिष्ट चिताभस्म की निरंतर प्रज्वलित रहने वाली अग्नि से योजना की जाती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः प्रातः आठ बजे, मध्याह्‌न में और सायंकाल के समय महाकाल की पूजा, शृंगार आदि किया जाता है। रात्रि में 10 बजे शयन आरती होती है। विभिन्न व्रत, पर्व और उत्सवों के समय महाकालेश्वर मंदिर का परिसर असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था की विशेष केन्द्र बन जाता है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के चार और भादौ मास के दो सोमवार पर निकलने वाली सवारियाँ देश-दुनिया के भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। इन सवारियों का मूल भाव यही है कि महाकाल राजाधिराज हैं और वे उज्जयिनी की मुखय सड़कों पर निकलकर प्रजा का हाल-चाल जानते हैं। इसी प्रकार की सवारियाँ कार्तिक मास में निकलती हैं। दशहरा पूजन के लिए महाकाल नए उज्जैन में पहुँचते हैं। महाशिवरात्रि, हरिहर मिलाप, रक्षाबंधन, वैशाख मास, नागपंचमी जैसे अनेक पर्वोत्सव भी इस मंदिर को विशेष आभा देते हैं। बारह वर्षों में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के समय लाखों श्रद्धालु महाकालेश्वर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं।

महाकाल कालगणना के अधिष्ठाता देव भी है। खगोलशास्त्रीय दृष्टि से उज्जयिनी का महत्त्व सुदूर अतीत से बना हुआ है। इसी स्थान से कर्क रेखा गुजरती है, जो भू-मध्य रेखा को काटती है। इसी दृष्टि से उज्जैन को पृथ्वी और कालगणना का केन्द्र माना गया है। क्षिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। यह स्थान महाकाल मंदिर से अधिक दूर नहीं है। स्पष्ट है कि महाकाल पृथ्वी के केन्द्र बिन्दु पर स्थित हैं और वे ही कालगणना के प्रमुख यंत्र 'शंकु यंत्र' के मूल स्थान हैं।

श्लोक से लोक तक सभी की आस्था का केन्द्र हैं महाकालेश्वर। लोक और लोकोत्तर सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्तगण अपनी-अपनी इच्छा उनके सम्मुख रखते हैं और उनकी पूर्ति के लिए मानवलोकेश्वर महाकाल का भंडार कभी रिक्त नहीं होता है।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
हिंदी विभागाध्यक्ष एवं 
कुलानुशासक
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

महाकाल लोक






महाकाल लोक : 
पुराणोक्त महाकाल वन क्षेत्र में  नवनिर्मित महाकाल लोक 900 मीटर से अधिक लंबा निर्माण है, जो पुरातन रुद्र सागर के चारों ओर फैला हुआ है। उज्जैन स्थित विश्वप्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के आसपास के क्षेत्र के पुनर्विकास की परियोजना के अंतर्गत रुद्र सागर को पुनर्जीवित किया गया है। महाकाल लोक में 108 स्तंभों का निर्माण किया गया है। वीथी में प्रवेश के लिए दो भव्य द्वार- नंदी द्वार और पिनाकी द्वार बनाए गए हैं। यह वीथी मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाती है तथा मार्ग में मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है। कभी पुराणों से लेकर महाकवि कालिदास ने मेघदूत में महाकाल वन की परिकल्पना को जिस सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया था,  शताब्दियों के बाद उसे साकार रूप दे दिया गया है। पहले चरण के निर्माण में लगभग 316 करोड़ रुपये की लागत आई है। यह पूरी योजना  856 करोड़ रुपये की है।






Shri Mahakaleshwar Jyotirling Ujjain श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन 



20130113

स्वामी विवेकानंद और भारत का सामाजिक परिवर्तन - डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा | Swami Vivekanand and Social Change of India- Prof. Shailendra Kumar Sharma

स्वामी विवेकानंद : सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

                           
  
      ‘‘कई सदियों से तुम नाना प्रकार के सुधार, आदर्श आदि की बातें कर रहे हो और जब काम करने का समय आता है तब तुम्हारा पता ही नहीं मिलता। अतः तुम्हारे आचरणों से सारा संसार क्रमशः हताश हो रहा है और समाज-सुधार का नाम तक समस्त संसार के उपहास की वस्तु हो गयी है। इसका कारण क्या है ? क्या तुम जानते नहीं हो ? तुम अच्छी तरह जानते हो। ज्ञान की कमी तो तुम में है ही नहीं। सब अनर्थों का मूल कारण यही है कि तुम दुर्बल हो, अत्यंत दुर्बल हो, तुम्हारा शरीर दुर्बल है, मन दुर्बल है और अपने आप पर आत्मश्रद्धा भी बिल्कुल नहीं है। मेरी इच्छा है-तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का आविर्भाव हो, तुममें से हर एक आदमी खड़ा होकर इशारे से संसार को हिला देने वाला प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हो, हर प्रकार से अनंत ईश्वरतुल्य हो। मैं तुम लोगों को ऐसा ही देखना चाहता हूँ।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड 5, पृ. 138-139)

                भारतीय पुनर्जागरण की सुदीर्घ परम्परा के अपूर्व संवाहक स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी 1863-4 जुलाई 1902) की ये पंक्तियाँ उनके सामाजिक परिवर्तन विषयक चिंतन और उसकी गहनता का सुन्दर निदर्शन कराती हैं। जब कभी भारतीय समाज जीवन को करवट लेने की जरूरत हुई, तब कोई-न-कोई परिवर्तनकामी व्यक्तित्व उठ खड़ा हुआ। ऐसे महनीय व्यक्तित्वों की असमाप्त शृंखला के मध्य स्वामी विवेकानंद अपने ढंग के अनन्य व्यक्तित्व ठहरते हैं। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को महज सतही तौर पर नहीं लिया था और न उसे इकहरा माना। वे किसी भी परिवर्तन को समग्रता में लेने के आग्रही थे। इसीलिए जब उनकी निगाहें अपने पूर्ववर्ती या समकालीन सुधारकों के कार्यों पर गईं, तब वे उन सुधारों की एकांगिता या अधूरेपन को लक्षित करने से नहीं चूके। उन्होंने अपने ढंग से सामाजिक पुनर्रचना का आह्वान किया और उसे साकार करने के लिए आजीवन सचेष्ट रहे। वे इस बात को भलीभाँति जानते थे कि मानवीय सभ्यता से जुड़े किसी भी अंग की निर्मित अचानक नहीं हुई है, उसके पीछे लम्बी प्रक्रिया रही है। जब कभी उसे बदलने की चेष्टा हो भी तो पहले गहराई से विचार हो, फिर हमारी दृष्टि मूल पर भी रहे। इसीलिए वे कहते हैं, ‘‘मैं मनुष्य जाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूँ कि कुछ नष्ट न करो। विनाशक सुधारक लोग संसार का कुछ भी उपकार नहीं कर सकते। किसी वस्तु को भी तोड़कर धूल में मत मिलाओ, वरन् उसका गठन करो। यदि हो सके तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो, मामला कहाँ तक जाता है। यदि सहायता न कर सको तो अनिष्ट मत करो।’’ स्पष्ट है स्वामी विवेकानंद विनाशक नहीं, रचनात्मक समाज सुधार के पक्षधर हैं, जो उन्हें अपने दौर के समाज सुधारकों से विलक्षण बनाता है।

स्वामी विवेकानंद को भारत की मूल शक्ति आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास था। उनकी यह आध्यात्मिकता कोई संकीर्ण अर्थ लिए आध्यात्मिकता नहीं है, वरन् उसमें धार्मिक अंध नियमों से मुक्ति की अभिलाषा है, संपूर्ण और सर्वव्यापी आत्मा का बोध है। वह नानात्व में अन्तर्निहित एकता का अधिष्ठान है। इसीलिए जब वे सामाजिक परिवर्तन का प्रादर्श प्रस्तुत करते हैं, तब उनकी दृष्टि आध्यात्मिक बोध पर भी टिकी रहती है। वे कहते हैं, ‘‘समस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन अपने भीतर काम करने वाली आध्यात्मिक शक्तियों के व्यक्त रूप होते हैं, और यदि ये बलशाली और सुव्यवस्थित हों, तो समाज अपने आपको इस तरह से ढाल लेता है।’’ उनका समाज सुधार ऊपरी नहीं है, वह अध्यात्म की सुदृढ़ भूमि पर टिका है, ‘‘तथाकथित समाज सुधार के विषय में हस्तक्षेप न करना, क्योंकि पहले आध्यात्मिक सुधार हुए बिना अन्य किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हो सकते।’’ इसी को वे आमूल सुधार मानते हैं। इसके अभाव में उनके पूर्ववर्ती सुधार आंदोलन अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके।

                स्वामी जी विभिन्न सुधार आंदोलनों के वर्गीय चरित्र को भी पहचानते थे। इसी वजह से जनसामान्य का उनसे दूरी का रिश्ता बना रहा और वे लोकव्यापी नहीं हो सके। वे कहते हैं, ‘‘गत शताब्दी में सुधार के लिए जो भी आंदोलन हुए हैं, उनमें से अधिकांश केवल ऊपरी दिखावा मात्र रहे हैं। उनमें से प्रत्येक ने केवल प्रथम दो वर्णों से ही संबंध रखा है, शेष दो से नहीं। विधवा-विवाह के प्रश्न से 70 प्रतिशत भारतीय स्त्रियों का कोई संबंध नहीं है। और देखो, मेरी बात पर ध्यान दो, इस प्रकार के सब आंदोलनों का संबंध भारत के केवल उच्च वर्णों से ही रहा है। जो जनसाधारण का तिरस्कार करके स्वयं शिक्षित हुए हैं।’’ जाहिर है स्वामी जी की दृष्टि उन तमाम सुधार आंदोलनों पर थी, जो बगैर लोक-शक्ति को जाग्रत किए चलाए गए और अंततः निष्फल सिद्ध हुए। वे समाज सुधार के लिए प्रथा कत्र्तव्य मानते हैं-लोगों को शिक्षित करना। यह कार्य जब तक अधूरा है, तब तक प्रतीक्षा ही करनी पड़ेगी।स्वामी विवेकानंद का यह विचार आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। किसी भी परिवर्तन को साकार करने के पहले वे चाहते हैं राष्ट्र को संगठित करने के प्रयास हो, ‘‘आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठाने दो एवं एक अखंड भारतीय राष्ट्र संगठित करो।’’ स्पष्ट है कि स्वामी जी का यह प्रादर्श आज भी सामाजिक परिवर्तन की सही दिशा तय कर सकता है।

                स्वामी जी मानव सभ्यता के विकास में किसी भी परिवर्तनेच्छा को आवश्यक मानते हैं। जब वे देखते हैं कि सुधारकगण लोगों को गहराई से जाने-समझे बगैर सुधार के लिए प्रवृत्त करना चाहते हैं, तब उन्हें वह परिवर्तन अधूरा और अप्रासंगिक लगता हैं। इसी तरह उन्हें ऐसा सुधार भी अपूर्ण लगता है, जो महज कुछ बातों पर ही टिका हो। वे चाहते हैं कि परिवर्तन आमूलचूल हो और जड़ से हो। इसीलिए जब उन्होंने देखा कि उनके अपने दौर में विधवा विवाह या स्त्री स्वातंत्र्य जैसी सीमित बातों को लेकर समाज सुधारक सक्रिय हैं, तब व उनसे कहते हैं, ‘‘जिसे आप समाज-सुधार कहते हैं, उससे सर्वसाधारण जनता भारत की कोटि-कोटि जनता का क्या हित होगा ? विधवा-विवाह, स्त्री स्वातंत्र्य आदि जिन सुधारों के लिए तुम चिल्ला रहे हो, उनकी भारत की बहुसंख्यक जनता को आवश्यकता ही नहीं है, उनमें विधवा-विवाह की प्रथा भी है और स्त्रियों को स्वतंत्रता भी प्राप्त है। इसीलिए वे इन बातों को सुधार ही नहीं मानते। वे कहते हैं, ‘‘मेरा तात्पर्य यह है कि ये सब दोष हममें श्रद्धा को अभाव से ही घुस आए हैं और दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। पर मैं यह चाहता हूँ कि रोग समूल नष्ट किया जाय। रोग के कारण जड़ से नष्ट किए जाएँ, रोग दबाया न जाय, नहीं तो वह फिर बढ़ जाएगा। सुधार अवश्य हो, कौन इतना गूढ़ है, जो यह नहीं मानता?’’ स्पष्ट है स्वामी जी सामाजिक सुधार को महत्त्वपूर्ण मानते हैं, किंतु उनका बल इस बात पर विशेष है कि वह महज दिखावा न हो, न अधूरा या एकांगी हो। सुधार सम्पूर्णता में होगा, तभी वह सार्थक और दीर्घजीवी होगा।

                स्वामी विवेकानंद भारत की सामाजिक जड़ता और अवनति के प्रमुख कारण के रूप में मौलिकता के अभाव से देखते हैं। वे मानते हैं कि नया करने की हमारी शक्ति नष्ट हो चुकी है। वे अपने युग पर निगाह डालते हुए कहते हैं, ‘‘अन्न बिना हाहाकार मच रहा है। पर दोष किसका है ? इसके प्रतिकार की तो कुछ भी चेष्टा नहीं होती, लोग केवल चिल्लाते रहते हैं। अपनी झोंपड़ी के बाहर निकलकर क्यों नहीं देखते कि दुनिया के दूसरे लोग किस प्रकार उन्नति कर रहे हैं। तब हृदय के ज्ञाननेत्र, खुलेंगे और आवश्यक कत्र्तव्य की ओर ध्यान आकृष्ट होगा।’’
स्वामीजी यद्यपि अध्यात्म के प्रति भारतीयों के स्वाभाविक रूझान को प्रमुख गुण मानते हैं। इसके बावजूद जब वे देखते हैं कि जीवन की उपेक्षा हो रही है, जाग्रति के बजाय हम सुषुप्ति में चले गए हैं, जो शास्त्र में नहीं है, वह कार्य करने के लिए प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं, तब स्वामीजी देव-असुर रूपक के बहाने पश्चिम की ओर निगाह डालने का संकेत होते हैं। उनके अनुसार देवता आस्तिक थे-उन्हें आत्मा में विश्वास था, ईश्वर और परलोक में विश्वास करते थे। असुरों का कहना था कि इस जीवन को महत्त्व दो, पृथ्वी का भोग करो, इस शरीर को सुखी रखो। इस समय हम इस बात पर विचार नहीं कर रहे हैं कि देवता अच्छे थे या असुर। पर पुराणों को पढ़ने से पता चलता है कि असुर ही अधिकतर मनुष्यों की तरह के थे, देवता तो अनेक अंशों में हीन थे। अब यदि कहा जाय कि हिंदू देवताओं की तथा पाश्चात्य देशवासी असुरों की संतान हैं तो प्राच्य और पाश्चात्य का अर्थ अच्छी तरह समझ में आ जाएगा।’’ स्वामीजी शरीर की शुद्धि, आहार, खाद्य पदार्थ, वस्त्र, जीवन-शैली आदि कई दृष्टियों से भारत और पश्चिम की तुलना करते हुए दोनों की अपनी-अपनी विशेषताओं-अवगुणों को प्रत्यक्ष करते हैं। उन्हें भारतीयों की तत्कालीन दुरावस्था का एक बड़ा कारण दरिद्रता दिखाई देता है। उनकी दृष्टि में ‘‘हम इसीलिए लोग इतो नष्टस्ततो भ्रष्टःहोते जा रहे हैं। जाति के जो गुण थे वे मिटते जा रहे हैं और पाश्चात्य देश से ही कुछ नहीं पा रहे हैं। चलने-फिरने, उठने-बैठने, सभी के लिए हमारा एक नियम था, वह नष्ट हो रहा है और हम लोग पाश्चात्य नियमों को अपनाने में भी असमर्थ हैं।’’ जाहिर है यह त्रिशंकु-सी स्थिति किसी न किसी रूप में आज भी बनी हुई है।ऐसे में स्वामी विवेकानंद का परिवर्तनकारी स्वर आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।

                भारत के सामाजिक परिवर्तन में समाज सुधारकों की भूमिका पर विचार करते हुए स्वामी विवेकानंद उनसे कई अपेक्षाएँ करते हैं, जिनके बगैर किसी भी परिवर्तन को सफल नहीं किया जा सकता है। उनकी दृष्टि में एक सुधारक में गहरी सहानुभूति होनी चाहिए, तभी वह गरीबी और अज्ञान में डूबे करोड़ों नर-नारियों की वेदना का अनुभव कर सकेगा। वे सुधारकों में सेवा-भावना अपरिहार्य मानते हैं, ‘‘यदि कोई भारत की जनता का जो समृद्धि की कृपा से वंचित तथा ऐश्वर्य से हीन है, जिनका विवेक नष्ट हो चुका है, जिसकी स्वप्रेरणा नष्ट हो चुकी है, जो पद दलित, भूखी, झगड़ालू और ईष्र्यालु है-उस जनता को हृदय से स्नेह करेगा तो यह देश पुनः उठ खड़ा होगा। भारत दोबारा तभी उठ सकेगा, जब सैकड़ों विशाल हृदय युवक-युवतियाँ सुखोपभोग की समस्त कामनाओं को तिलांजलि दे अपने करोड़ों देशवासियों के, जो धीरे-धीरे दरिद्रता और अज्ञान के गहन गत्र्त में गिरते जा रहे हैं, कल्याण के हेतु अपनी पूरी शक्तियाँ लगाने का संकल्प लेगा।’’ वे सुधारकों में ध्येय के प्रति पूर्ण समर्पण, श्रद्धा एवं वैराग्य भावना को भी आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में मुक्त वही है, जिसने अपना सब कुछ दूसरों के लिए त्याग दिया है। वे अतःकरण की शुद्धता को इस पथ के लिए बेहद जरूरी सिद्ध करते हैं, ‘‘आज आवश्यकता है चित्तशुद्धि की अंतःकरण की निर्मलता की। किंतु वह कैसे हो ? सबसे पहले उस विराट की पूजा करो जो हमारे चारों ओर विद्यमान है। उसकी पूजा करो। ये सब हमारे देवता हैं केवल मनुष्य ही नहीं, पशु भी हैं। इनमें भी सबसे पहले पूजा करो अपने देशवासियों की।’’ स्पष्ट है स्वामी जी किसी भी परिवर्तन के पहले उन लोगों से स्नेहभाव रखने की अपेक्षा करते हैं, जिनमें यह परिवर्तन लाना है।

                स्वामी विवेकानंद इस बात से भलीभाँति परिचित थे कि सामाजिक परिवर्तन बाहर से नहीं, अंदर से होता है। उसे लाने के लिए समाज को बाहर से नहीं, अंदर से सुदृढ़ करना जरूरी है। वे भारतीय समाज में व्याप्त सभी अनर्थों की जड़ में वर्गीय विषमता को देखते हैं, ‘‘भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दम्भ के बल से मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई हैं।’’ इस स्थिति को बदलने के लिए वे आमजन के मध्य विद्या के प्रसार को आवश्यक मानते है, जो नैतिक और बौद्धिक दोनों प्रकार की हो। साथ ही वे समाज के वंचित वर्ग को संगठित कर स्वयं के उद्धार के लिए तैयार करना भी जरूरी मानते हैं। तभी उनका सशक्तीकरण होगा, महज बाहरी दयापूर्ण सहायता से नहीं। वे कहते हैं, ‘‘हमारा संघ दीनहीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिए है और उनके लिए सब कुछ करने के बाद जब समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी आयेगी। उद्धरेदात्मनात्मानम् -अपनी आत्मा का अपने उद्योग से उद्धार करो।यह सब परिस्थितियों पर लागू होता है। हम उनकी सहायता इसलिए करते हैं, जिससे वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें।........धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिए जो थोड़ी-सी भलाई करते हैं, वह स्थायी नहीं होती और अंत में दोनों पक्षों को हानि पहुँचती है। किसान और श्रमिक समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसीलिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह है कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने में सहायता दें और कुछ नहीं। फिर किसानों और मजदूरों को अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड-7, पृ. 412) स्वामीजी, इसी प्रकार आजीवन समाज के वंचित वर्ग की आँखें खोलने का आह्वान करते रहे, बजाय इसके कि उनकी सहायता महज बाहरी ही बनी रहे।

वे वैचारिक परिवर्तन को किसी भी सामाजिक परिवर्तन के मूलाधार के लिए आवश्यक ठहराते हैं, ‘‘प्रत्येक जाति, प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। उनमें विचार उत्पन्न कर दो- उन्हें उसी एक सहायता की जरूरत है। इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ आप ही हो जाएगा। हमें केवल रासायनिक पदार्थों को इकट्ठा भर कर देना है,.........बँध जाना तो प्राकृतिक नियमों से ही साधित होगा। हमारा कत्र्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना, बाकी वे स्वयं कर लेंगे। भारत में बस यही करना है।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड-2, पृ. 369-370)

                स्वामी विवेकानंद क्रांति की नई छबि को गढ़ने वाले विचारक थे। वे समाजोद्धार को आत्मोद्धार से जोड़कर देखते हैं। यही उनकी क्रांति को एक नया आयाम देता है, ‘‘जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दें, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो।’’ (खंड-2, पृ. 321) स्वामीजी बदलाव के लिए मात्र कुछ विसंगतियों पर प्रहार कर परिवर्तन लाना नहीं चाहते हैं। वे कहते हैं,’’ मूर्तियाँ रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति-प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता।’’ इसके स्थान पर वे सर्वसाधारण को शिक्षित करने पर बल देते हैं। उनका कथन है, ‘‘रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकार धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान पर श्रद्धा रखा।’’ (खण्ड72, पृ. 321) जाहिर है विवेकानंद परिवर्तन की चिन्गारी अंदर से पैदा करने में विश्वासी हैं, बाहर से नहीं।

                स्वामीजी सामाजिक परिवर्तन की गति को तीव्र कर भारत में व्यापक बदलाव लाना चाहते हैं। इसमें वे शरीर, मस्तिष्क और आत्मा-तीनों की भूमिका पर विचार करते हैं, किंतु उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा आत्मापर ही है, जो उनकी क्रांति-दृष्टि को दृढ़ भारतीय जमीन देती है। यह विश्व में अन्यत्र संभव नहीं है। वे कहते हैं, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि शारीरिक शक्ति द्वारा अनेक महान कार्य सम्पन्न होते है और इसी प्रकार मस्तिष्क की अभिव्यक्ति भी अद्भुत हैं, जिससे विज्ञान के सहारे तरह-तरह के यंत्रों तथा मशीनों का निर्माण होता हैं, फिर भी जितना जबदरस्त प्रभाव आत्मा का विश्व पर पड़ता है, उतना किसी का नहीं। (खण्ड-5, पृ. 35) इस दृष्टि से वे विश्व को नेतृत्व देने के लिए भारतीय सामाजिक परिवर्तन को बेहद जरूरी मानते हैं, वहीं पश्चिम से भी आवश्यक तत्त्वों को ग्रहण करने पर बल देते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है, जब कभी आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है, तो उसका आरंभ प्राच्य से ही होता है। साथ ही साथ यह भी ठीक है कि जब कभी प्राच्य को मशीन बनाने के संबंध में सीखना हो तो पाश्चात्य के पास बैठकर सीखे। परंतु यदि पाश्चात्य ईश्वर, आत्मा तथा विश्व के रहस्य संबंधी बातों को जानना चाहे तो उसे प्राच्य के चरणों के समीप ही आना चाहिए। (खण्ड-7, पृ. 237) स्पष्ट है स्वामी विवेकानंद प्राच्य और पाश्चात्य उभय पक्षों के वैशिष्ट्य को जानकर उनके बीच आपसी सामंजस्य के बिंदु की तलाश करते हैं, जिसे जाने बगैर दोनों का परिवर्तन एकांगी रहेगा।

                स्वामीजी ने भारत के संपूर्ण परिवर्तन के लिए किसी एक वर्ग या समुदाय के परिवर्तन को पर्याप्त नहीं माना है। जब तक सभी इस दिशा में तत्पर नहीं होंगे, तब तक यह बदलाव अधूरा ही रहेगा। इसीलिए वे युवा, स्त्री, निर्धन, कामगार, किसान-सभी को जगाने के अभिलाषी हैं। वे सभी को विचारवान बनाना चाहते हैं, वहीं आचरण की शुद्धता पर भी बल देते हैं। स्त्री शिक्षा पर उन्होंने विशेष बल दिया, तभी वह स्वयं की भाग्यविधाता बन सकती है। वे कहते हैं, ‘‘हमें नारियों की ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए। और हमारी भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भाँति इसे करने की क्षमता रखती हैं। (खण्ड74, पृ. 267) वे युवाओं को भी सामाजिक बदलाव लाने के लिए तत्पर होने का संदेश देते हैं। इसके लिए वे युवाओं में आत्मविश्वास, वीरता, अभय, इच्छाशक्ति, आत्मनिर्भरता और हृदय का विस्तार चाहते हैं। वे मानते हैं कि युवाओं के माध्यम से देश को पुनरुत्थान हो सकता है। वे युवा जागरण के लिए कहते हैं, ‘‘उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबलि की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि, युवकों से ही हो सकेगी। युवा, आशिष्ठ, बलिष्ठ, मेधावी’, उन्हीं के लिए यह कार्य है।’’ (खण्ड-5, 212) वे युवाओं में आंतर और बाह्य दोनों प्रकार की शक्तियों का अधिष्ठान चाहते हैं, तभी वे सामाजिक परिवर्तन के क्रम में प्रभावकारी परिणाम ला सकते हैं।

                उन्होंने भारत के नव परिवर्तन का विराट बिंब रचा है, जो सदियों की जड़ता को त्याग कर ही आ सकता है, पहले वे खुद को निश्शेष करने का आह्वान इसी अर्थ में करते हैं-तुम लोग शून्य में विलीन हो जाओ और फिर एक नवीन भारत निकाल पड़े। निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर,  झोपडि़यों से। निकल पड़े बनियों की दुकानें से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाडि़यों, जंगलों पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है- उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता। सनातन दुःख उठाया, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति। ये लोग मुट्ठीभर सत्तू खाकर दुनिया उलट दे सकेंगे। आधी रोटी मिली तो तीनों लोक में इतना तेज न अटेगा ? ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त है और पाया है सदाचार, बल जो तीनों लोकों में नहीं है।’’ (खण्ड-8, पृ. 167) वर्तमान दौर में स्वामी विवेकानंद की यह आवाज सुनी जानी चाहिए, अन्यथा भारत की दुरावस्था की शृंखला असमाप्त बनी रहेगी।

 डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (म.प्र.) 456 010

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