चन्द्रकान्त देवताले की चयनित कविताएँ
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले जी ने अपना अलग मुहावरा गढ़ा था। श्री देवताले को उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ ' पर साहित्य अकादमी, दिल्ली का वर्ष 2012 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि। उनकी प्रसिद्ध कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता ' देखिये।
माँ पर नहीं लिख सकता कविता
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहां हर रोज चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!
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प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता/ चंद्रकांत देवताले
तुम्हारी निश्चल आंखें
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों -सी
दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो
पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ करना
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी
तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं खुश हूं सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !
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औरत / चन्द्रकान्त देवताले
वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंथ रही है?
गूंथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,
एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,
एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,
एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वस्त्र जागती
शताब्दियों से सोयी है,
एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।
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मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए/ चंद्रकांत देवताले
मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने-भर के करिश्मे से
कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियावान सन्नाटे को
तुम सितार-सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में
अपने असंभव आकाश में
तुम आज़ाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाईं के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा
आँखें खोल रहा हूँ गहरी धुँध में
लगता है काल्पनिक खुशी का भी
अंत हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद
जो भी हो
उड़ रहा हूँ तुम्हारे खनकती आवाज के समुंदर पर
हंसध्वनि की तान की तरंगों के साथ
जुगलबंदी कर रहे हैं
मेरे फड़फड़ाते होंठ
याद है न जितनी बार पैदा हुआ
तुम्हें मैंने बैंजनी कमल कहकर ही पुकारा
और अब भी अकेलेपन के पहाड़ से उतरकर
मैं आऊंगी हमारी परछाईयों के ख़ुशबूदार
गाते हुए दरख्त के पास
मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए ।
प्रो. चंद्रकांत देवताले के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन (म.प्र.) 456 010
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