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20200802

देवनागरी लिपि : विश्व सभ्यता को भारत की अनुपम देन : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

देवनागरी लिपि विश्व सभ्यता को भारत की अनुपम देन

देवनागरी लिपि तब से अब तक पुस्तक का  लोकार्पण एवं राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी संपन्न

भारत की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी विश्व लिपि देवनागरी : तब से अब तक पर एकाग्र थी। आयोजन के मुख्य अतिथि नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली के महामंत्री डॉ हरिसिंह पाल एवं मुख्य वक्ता समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी ने की। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि श्री संस्था के अध्यक्ष श्री  ब्रजकिशोर शर्मा, उज्जैन  और  साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई  थीं। इस अवसर पर संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी की नवीन पुस्तक देवनागरी लिपि : तब से अब तक का लोकार्पण अतिथियों द्वारा किया गया।




मुख्य अतिथि डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि भारतीय संविधान में देवनागरी लिपि को राजभाषा हिंदी की लिपि के रूप में स्वीकृति मिली हुई है। यह लिपि सदियों से भारत को एकजुट किए हुए है। शून्य का आविष्कार नागरी लिपि के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है। नागरी लिपि परिषद ने रूसी, इतालवी, इंडोनेशियाई, फ्रेंच आदि भाषाओं को देवनागरी लिपि के माध्यम से सीखने के लिए महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया है। श्री प्रभु चौधरी की पुस्तक में देवनागरी लिपि के विषय में उपयोगी जानकारी संजोयी गई है।



संगोष्ठी के मुख्य वक्ता के रूप में समालोचक एवं साहित्यकार प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने अपने व्याख्यान में कहा कि सिंधु घाटी की लिपि से लेकर ब्राह्मी लिपि और देवनागरी लिपि विश्व सभ्यता को भारत की महत्त्वपूर्ण देन हैं। वर्तमान में दुनिया में तीन हजार से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, जबकि लिपियां चार सौ हैं। देवनागरी लिपि इस देश की अनेक भाषा और बोलियों की स्वाभाविक लिपि बनी हुई है। दुनिया में प्रचलित अन्य लिपियों से देवनागरी की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह लिपि सबसे विलक्षण ही नहीं, पूर्णता के निकट है। लिपि के आविष्कारकों की आकांक्षा रही है कि किसी भी भाषा की विभिन्न ध्वनियों के साथ अक्षरों का सुमेल हो, उसमें कोई त्रुटि न हो इस दृष्टि से देवनागरी लिपि अधिक वैज्ञानिक और युक्तिसंगत है। देवनागरी में ध्वनियों के उच्चारण और लेखन के बीच एकरूपता है। आचार्य विनोबा भावे ने देवनागरी लिपि की इस शक्ति को पहचाना था और उन्होंने इसे जोड़ लिपि के रूप में देश की एकता और अखंडता को मजबूती देने का माध्यम बनाया।  



विशिष्ट अतिथि श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा कि भाषा प्रकृति का महत्त्वपूर्ण वरदान है। विभिन्न ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए मनुष्य को लिपि चिह्नों की आवश्यकता हुई। देवनागरी लिपि दुनिया की विभिन्न लिपियों से अधिक समृद्ध है। इसमें अधिकांश ध्वनियों को प्रस्तुत किया जा सकता है। श्री प्रभु चौधरी की नवीन पुस्तक में देवनागरी की कई विशेषताएं समाहित हैं।


विशिष्ट अतिथि श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुम्बई ने कहा कि वर्तमान में देवनागरी लिपि के प्रसार के लिए व्यापक प्रयासों की जरूरत है। लोकमान्य तिलक ने देवनागरी लिपि को देश को एक सूत्र में पिरोने का माध्यम माना था। 


कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी ने कहा कि हमें देवनागरी लिपि के प्रयोग को लेकर गौरव का भाव होना चाहिए। 


प्रारंभ में संगोष्ठी की प्रस्तावना रखते हुए संस्था के महासचिव डॉ. प्रभु चौधरी ने कहा कि देवनागरी लिपि को लेकर संस्था द्वारा निरंतर संगोष्ठी, कार्यशाला आदि के आयोजन किए जाएंगे।


आयोजन में श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली एवं शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने भी अपने विचार व्यक्त किए। 

इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में श्री मोहनलाल वर्मा, जयपुर, डॉ शम्भू पँवार, जयपुर, डॉ. शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ शोभा राणे, नासिक, डॉ कविता रायजादा, आगरा, तूलिका सेठ, गाजियाबाद, जी डी अग्रवाल, इंदौर, श्री अनिल ओझा, इंदौर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के साहित्यकारों, विद्वानों और प्रतिभागियों ने भाग लिया।

इस अवसर पर श्री प्रभु चौधरी को राष्ट्रीय हिंदी परिवार, इंदौर द्वारा अभिनन्दन पत्र अर्पित कर सम्मानित किया गया। सम्मान पत्र संस्था के अध्यक्ष श्री हरेराम वाजपेयी एवं सचिव श्री संतोष मोहंती  ने अर्पित किया।


संगोष्ठी की सूत्रधार राष्ट्रीय प्रवक्ता रागिनी शर्मा, इंदौर थीं। आभार प्रदर्शन साहित्यकार श्रीमती कृष्णा श्रीवास्तव, मुंबई ने किया। सरस्वती वंदना कवि श्री सुंदरलाल जोशी सूरज, नागदा ने की। स्वागत भाषण प्रदेशाध्यक्ष श्री दिनेश परमार, इंदौर ने दिया। 
























कार्यक्रम में डॉ. उर्वशी उपाध्याय, प्रयाग, डॉ. शैल चन्द्रा, रायपुर, डॉ हेमलता साहू, अम्बिकापुर, डॉ ज्योति सिंह, इंदौर, श्रीमती प्रभा बैरागी, उज्जैन, डॉ. संगीता पाल, कच्छ,  डॉ. सरिता शुक्ला, लखनऊ, प्रियंका द्विवेदी, प्रयाग, विनीता ओझा, रतलाम, पायल परदेशी, महू, जयंत जोशी, धार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, राम शर्मा परिंदा, मनावर, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ संजीव कुमारी, हिसार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, डॉ श्वेता पंड्या, विजय कुमार शर्मा, प्रियंका परस्ते,  कमल भूरिया, प्रवीण बाला, लता प्रसार, पटना, मधु वर्मा, श्रीमती दिव्या मेहरा, कोटा, सुश्री खुशबु सिंह, रायपुर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के साहित्यकार, प्रतिभागी और शोधकर्ता उपस्थित थे।


20200728

गोस्वामी तुलसीदास : वैश्विक परिप्रेक्ष्य में

तुलसी के मानस को विदेशों में बसे भारतीयों ने दिल से लगाया हुआ है
तुलसी जयंती पर नॉर्वेजियन भाषा में तुलसी के मानस के अंशों का अनुवाद बना ऐतिहासिक उपलब्धि
अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ विश्व फलक पर तुलसी की व्याप्ति और प्रभाव पर विमर्श 


भारत की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा तुलसी जयंती पर अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी गोस्वामी तुलसीदास : वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पर एकाग्र थी। आयोजन के प्रमुख अतिथि प्रख्यात प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे एवं मुख्य वक्ता समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता शिक्षाविद् श्री बृजकिशोर शर्मा ने की। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली एवं श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर थे। संगोष्ठी की प्रस्तावना संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की।



प्रमुख अतिथि ओस्लो, नॉर्वे के श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने कहा कि तुलसी के रामचरितमानस को विदेशों में बसे भारतीयों ने अपने दिल से लगाया हुआ है। भारतवंशी जहां भी गए हैं, वहाँ अपने साथ भाषा, संस्कार और शिष्टाचार के साथ तुलसी जैसे महान् भक्तों की वाणी को ले गए हैं। उन्होंने नॉर्वेजियन भाषा में तुलसी के रामचरितमानस के चुनिंदा अंशों का अनुवाद प्रस्तुत किया, जो संगोष्ठी की ऐतिहासिक उपलब्धि बना। स्वीडन, डेनमार्क, नॉर्वे जैसे देशों में प्रचलित स्केंडनेवियन भाषाओं के बीच पहला होने के कारण यह अनुवाद ऐतिहासिक महत्त्व का है। श्री शुक्ला ने नॉर्वे में बसे भारतवंशियों के जीवन पर तुलसी साहित्य के प्रभाव की भी चर्चा की।





संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में समालोचक एवं साहित्यकार प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने अपने व्याख्यान में वैश्विक संस्कृति पर तुलसी के मानस के प्रभाव और व्याप्ति पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि तुलसी की विश्व दृष्टि अत्यंत व्यापक है। उनका साहित्य विश्व संस्कृति को बहुत कुछ दे सकता है। दुनिया को पारिवारिक और सामुदायिक जीवन में परस्पर प्रेम, बन्धुत्व और समरसता की दृष्टि की आवश्यकता है, जो तुलसी साहित्य से सहज ही मिल सकती है। विश्व के अनेक देशों में तुलसी की कृतियों की अनुगूंज सुनाई देती है। उनकी रचनाएं देश विदेश के लोगों की जीवन दृष्टि के विकास में सहायक बनी हुई हैं। तुलसी का रामचरितमानस मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे अनेक देशों में बसे लगभग तीन करोड़ लोगों के बीच सांस्कृतिक धरोहर और प्रेरणा पुंज के रूप में जीवंत है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी, रूसी, फारसी आदि भाषाओं के बाद श्री सुरेश चंद शुक्ल द्वारा नॉर्वेजियन में किया जा रहा रामचरितमानस का अनुवाद नई सदी की उपलब्धि है। तुलसी काव्य में निहित सार्वभौमिक जीवन मूल्यों का प्रादर्श विश्व मानव को उनकी विलक्षण देन है। तुलसी का रामराज्य और जीवन दर्शन महात्मा गांधी के यहां स्वराज्य, सत्याग्रह, अहिंसा, असहयोग, आत्म त्याग के रूप में उतरे हैं, जो वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य हुए। गांधी जी ने तुलसी के साहित्य का प्रयोग व्यापक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए किया।




विशिष्ट अतिथि श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कृतियों के द्वारा राम के आदर्श को प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने जन भाषा के माध्यम से उदात्त जीवन मूल्यों को प्रसारित करने का अविस्मरणीय प्रयास किया। 




कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संस्था के अध्यक्ष श्री बृजकिशोर शर्मा ने कहा कि तुलसी का चिंतन अत्यंत व्यापक है। उनका साहित्य संवेदना और विचार का अथाह सागर है। उनकी रचनाएं शांति और सद्भाव का बोध कराती हैं। तुलसी सही अर्थों में महामानव थे। वे एक साथ परंपराशील और प्रगतिशील दोनों हैं।


प्रारंभ में संगोष्ठी की प्रस्तावना रखते हुए संस्था के महासचिव श्री प्रभु चौधरी ने कहा कि तुलसी का साहित्य सही अर्थों में वैश्विक है। उन्होंने जन जन के मध्य भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा की।


आयोजन में श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, एवं श्री सुंदर लाल जोशी, नागदा ने तुलसी के जीवन और व्यक्तित्व से जुड़ी कविताएं प्रस्तुत कीं। श्री हरिराम वाजपेयी की कविता तुलसी में की पंक्तियाँ थीं, तुलसी पर्याय है भावना और पवित्रता का। तुलसी पर्याय है अनेकता में एकता का। तुलसी ही भक्त है तुलसी ही भगवान है। राम में बसा है तुलसी तुलसी में राम है। 




कवि श्री सुंदर लाल जोशी की काव्य पंक्तियां थीं, पथ प्रदर्शक जन जन के, आत्माराम सपूत। चित्रकूट के घाट पर, मिला राम का दूत। तुलसी ने संसार को, दिया अनोखा ग्रंथ। पकड़े इसकी राह जो, मिले स्वर्ग का पंथ।

इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में श्री मोहनलाल वर्मा, जयपुर, डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, शम्भू पँवार, जयपुर, डॉ कविता रायजादा, आगरा, तूलिका सेठ, गाजियाबाद, जी डी अग्रवाल, इंदौर, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, श्री अनिल ओझा, इंदौर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के विद्वानों और प्रतिभागियों ने भाग लिया।


संगोष्ठी की सूत्रधार निरूपा उपाध्याय, देवास थीं। आभार प्रदर्शन साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने किया।


कार्यक्रम में डॉ. उर्वशी उपाध्याय, प्रयाग, डॉ. शैल चन्द्रा, रायपुर, डॉ हेमलता साहू, अम्बिकापुर, डॉ कृष्णा श्रीवास्तव, मुंबई, डॉ ज्योति सिंह, इंदौर, श्रीमती प्रभा बैरागी, उज्जैन, डॉ. संगीता पाल, कच्छ, डॉ. सरिता शुक्ला, लखनऊ, प्रियंका द्विवेदी, प्रयाग, विनीता ओझा, रतलाम, पायल परदेशी, महू, जयंत जोशी, धार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, राम शर्मा परिंदा, मनावर, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ संजीव कुमारी, हिसार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, डॉ श्वेता पंड्या, विजय कुमार शर्मा, प्रियंका परस्ते, कमल भूरिया, प्रवीण बाला, लता प्रसार, पटना, मधु वर्मा, श्रीमती दिव्या मेहरा, कोटा, डॉ. शिवा लोहारिया, जयपुर, सुश्री खुशबु सिंह, रायपुर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के साहित्यकार, प्रतिभागी और शोधकर्ता उपस्थित थे।

पाठानुसंधान के सरोकार और पांडुलिपि - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

पांडुलिपियाँ बहुत कुछ कहती हैं - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 
मनुष्य की अविराम जिज्ञासा और नितनूतन ज्ञान की पिपासा सदियों से अनुसंधान कार्य को गति देती आ रही है। प्राचीन दौर से जुड़ी सूचनाओं, ज्ञान, विचार और संवेदनाओं के शोध की दिशा में देश-दुनिया के निजी और संस्थागत संग्रहों में संचित - संरक्षित पांडुलिपियाँ अत्यंत उपयोगी रही हैं। 

पाण्डुलिपि उस दस्तावेज को कहते हैं जो एक व्यक्ति या अनेक लोगों द्वारा हाथ से लिखी गयी हो, जैसे हस्तलिखित ग्रंथ या पत्र या कोई अन्य पाठ। मुद्रित किया हुआ या किसी अन्य विधि से किसी दूसरे दस्तावेज से यांत्रिक अथवा वैद्युत रीति से नकल करके तैयार की गई सामग्री को पाण्डुलिपि नहीं कहा जा सकता है। 

पांडुलिपि का वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व हो सकता है और उसे कम से कम आधी सदी से पुरातन होना चाहिए। पांडुलिपियाँ मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं होतीं, बल्कि ये किसी सभ्यता में घटित परिवर्तनों की साक्षी भी होती हैं। प्राचीन सभ्यता का जीवंत इतिहास इनमें समाया होता है। ये प्राचीन दौर के मानव समुदायों के आस्था, विश्वास और व्यवस्थाओं की गवाह होती हैं और इन सबसे बढ़कर उस सभ्यता की विभिन्न परंपराओं और अनुभवों की मुखर प्रतिनिधि होती हैं।

Manuscript of Ramcharitmanas by Tulsidas
तुलसीदास कृत रामचरितमानस की चित्रित पांडुलिपि

भारत, मिस्र, ग्रीक, चीन सहित कई पुरातन सभ्यताओं का प्राचीन ज्ञान-परंपरा की समृद्धि की दृष्टि से दुनियाभर में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 50 लाख पांडुलिपियाँ हैं, जो सम्भवतः विश्व में सबसे बड़ी पांडुलिपियों की संख्या है। सब मिलाकर ये पांडुलिपियाँ ही भारत के इतिहास, संस्कृति, ज्ञान विज्ञान, साहित्य और जातीय स्मृतियों का जीवंत दस्तावेज हैं। ये पाण्डुलिपियाँ विभिन्न भाषाओं, लिपियों एवं विषयों की हैं। ये भारत के अन्दर और भारत के बाहर, सरकारी संस्थाओं, संग्रहालयों या निजी हाथों में हैं। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन - नमामि इन सबका पता लगाने, उन्हें सुरक्षित रखने, इनके दस्तावेजीकरण और उन्हें जनता के लिये सुलभ बनाने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है, जिससे हमारे अतीत को इसके वर्तमान एवं भविष्य से जोड़ा जा सके। भारत में उपलब्ध पांडुलिपियाँ मुख्य रूप से शारदा लिपि, देवनागरी, ग्रंथ लिपि, बंगला, ओड़िया, कैथी आदि में लिपिबद्ध हैं।

प्राचीन पांडुलिपियाँ मानव सभ्यता की अमूल्य निधि हैं। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा न होने के कारण पाठ सामग्री वाचिक परंपरा के माध्यम से संचरित होती थीं या शिलांकित अथवा हस्तलिखित रूप में संरक्षित होती थीं। हस्तलिखित ग्रंथों के कई संस्करण होते हैं, जो वाचन करने वालों के लिए कई प्रकार की समस्या उत्पन्न कर देते हैं। परिणामतः मूल पाठ का अन्वेषण अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

प्राचीन युग के दुर्लभ ग्रंथों और अभिलेखों के लिए पाठ-शोध की विशेष आवश्यकता होती है। पाठानुसंधान या पाठ-शोध ऐसी बौद्धिक और वैज्ञानिक विधि है, जिससे पाठ के संबंध में निर्णय देते हुए मूलपाठ का निर्धारण किया जाता है। कुछ लोग इसे साहित्यिक आलोचना का अंग भी मानते हैं। पाठ से तात्पर्य उस लेख से है, जो किसी भाषा में लिपिबद्ध हो, जिसका अर्थ ज्ञात हो या नहीं भी हो सकता है। किसी रचना के विभिन्न पाठों से युक्त प्रतिलिपियों के अध्ययन, अनुशीलन एवं निश्चित सिद्धांतों के अनुगमन द्वारा उस रचना के मूलपाठ तक पहुँचने की प्रक्रिया पाठ-शोध या पाठानुसंधान है। इसे पाठ-संपादन और पाठालोचन भी कहा जाता है। पाठ-शोध का मूल उद्देश्य पाठ का मूल लेखक कौन था, मात्र यह जानना ही नहीं है, वरन विशेष तौर पर यह जानना होता है कि रचना का मूलस्वरूप क्या था और उसका निहितार्थ क्या है।

किसी भी क्षेत्र में पाठ संशोधन के मुख्यतः दो स्रोत हो सकते हैं- मुख्य सामग्री और सहायक सामग्री। मुख्य सामग्री के अंतर्गत मूल लेखक के पाठ जैसे स्वहस्तलेख (पांडुलिपि), प्रथम प्रतिलिपि, प्रतिलिपि की अन्य प्रतियों को देखा जा सकता है। सहायक सामग्री के अंतर्गत भोजपत्र, ताड़पत्र, पत्थर, कागज़, सिक्के आदि आते हैं।

पाठानुसंधान की प्रक्रिया अत्यंत वैज्ञानिक और दुरूह प्रक्रिया है। इसके प्रमुख चरण हैं- सर्वप्रथम सामग्री संकलन और वंश-वृक्ष का निर्माण, इस वंश-वृक्ष निर्माण विधि को जर्मन भाषावैज्ञानिक कार्ल लाचमान ने प्रसिद्ध किया। तत्पश्चात साम्य और अंतर के आधार पर पाठ निर्धारण और प्रतिलिपियों के संबंध का निर्धारण, पाठ में भाषा और वर्तनी संबंधी आवश्यक सुधार तथा पाठ का सम्यक् विवेचन करते हुए मूल पाठ का निर्धारण।

वर्तमान में पाठ सम्पादन के क्षेत्र में नवीन विधियों का प्रयोग भी किया जा रहा है। जीवविज्ञान की विधि क्लैडिस्टिक्स का इस्तेमाल इस क्षेत्र में भी किया जा रहा है। इसमें एक विशेष कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की सहायता से पाठ शोध किया जाता है। इस विधि का इस्तेमाल इंगलैंड के प्रसिद्ध कवि ज्योफ्रे चॉसर की 14 वीं शताब्दी में लिखी गई कहानियों की पुस्तक कैंटरबरी टेल्स के पाठ सम्पादन के लिए किया गया। इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि ज्योफ्रे चॉसर की अंतिम और सर्वोतम रचना के रूप में प्रतिष्ठित कैंटरबरी टेल्स में दो गद्य रूप में तथा बाइस पद्य रूप में कहानियों का संग्रह है। इससे अंग्रेजी साहित्य में आधुनिक अर्थ में जीवन के यथार्थ चित्रण की परंपरा की शुरुआत होती है। कवि ने कहानियों की उद्भावना स्वयं न करके समस्त यूरोपीय साहित्य तथा जनसाधारण में प्रचलित आख्यायिकाओं को आधार बनाया है। इसीलिए इनमें विविधता है। इस कृति की चौरासी उपलब्ध पांडुलिपियों में से मूल पाठ को खोजना बेहद मुश्किल था, जिसके लिए जीवविज्ञान की विधि क्लैडिस्टिक्स का सार्थक इस्तेमाल किया गया।

जाहिर है कि पाठ सम्पादन का कार्य अत्यंत चुनौतियों से भरा हुआ है तथा इस दिशा में नितनवीन संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं।

अक्षर वार्ता : 
सम्पादकीय से
आप सभी सुधीजनों के आत्मीय सहकार- सहयोग से ‘अक्षर वार्ता’ मौलिक और गुणवततापूर्ण शोध के प्रसार एवं उन्नयन के साथ ही नवीन शोध दिशाओं के अन्वेषण में सन्नद्ध है। इसे और गतिशीलता देने के लिए आपके सक्रिय सहकार और सुझावों का सदैव स्वागत रहेगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ईमेल  shailendrasharma1966@gmail.com                                                         
डॉ मोहन बैरागी 
संपादक
ईमेल  aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी । संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)। प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, 
(May 2016)

20200727

अपने समय से संवाद कराती हैं सुपेकर की कविताएँ - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

सुपेकर की कविताओं से गुजरना अपने समय से संवाद - प्रो.  शैलेन्द्रकुमार शर्मा
काव्य संग्रह नक्कारखाने की उम्मीदें का ऑनलाइन विमोचन 

आधा दर्जन से ज्यादा पुस्तकों के रचयिता श्री सन्तोष सुपेकर की कविताओं से गुजरना, अपने समय से संवाद करने जैसा है। उनकी कविताएं विसंगतियों का खुलासा करने के साथ साथ कहीं सीधे, तो कहीं संकेतों के माध्यम से सन्देश देतीं हैं। इन कविताओं मे लक्षित में अलक्षित रह गए सन्दर्भ नए सन्दर्भों के साथ सामने आते हैं, जो पाठक को सोचने के लिए विवश करते हैं।

उक्त समीक्षकीय वक्तव्य विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक  ख्यात समालोचक, प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा सन्तोष सुपेकर के तीसरे काव्य संग्रह नक्कारखाने की उम्मीदें के ऑन लाइन विमोचन अवसर पर दिया गया। 




क्षितिज संस्था, इंदौर के फेसबुक वॉल पर आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सतीश राठी ने की। उन्होंने कहा कि सुपेकर की कविताएं पूर्वाग्रहविहीन कविताएं हैं। वे आसपास के वातावरण से अपनी रचनाओं के लिए सूत्रबिन्दु निकाल लेते हैं। ऐसे कठिन वक्त में लेखन करना नक्कारखाने में अपनी उम्मीदों को बुलंद करने जैसा है। सुपेकर की कविताओं में एक आग है जो व्यवस्था पर सीधे सीधे चोट करने में सक्षम है। 




इस अवसर पर कवि श्री सन्तोष सुपेकर ने अपनी काव्य चेतना में जीवन और जगत के प्रति दृष्टिकोण को संग्रह की दो प्रतिनिधि कविताओं का पाठ कर व्यक्त किया। 

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ समालोचक डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ने  कहा कि सन्तोष सुपेकर की कविताओं में लघुकथाओं का आचरण देखने को मिलता है। उन्होंने वैचारिक अनुभूति के घनत्व के माध्यम से अपने भोगे हुए समय को लिखा है। 

विशेष अतिथि वरिष्ठ कवि श्री ब्रजेश कानूनगो ने  शुभकामनाएं देते हुए कहा कि सुपेकर की कविताओं में समकालीन कविता की बजाए गद्य के औजारों का प्रयोग ज्यादा देखने को मिलता है। पुस्तक चर्चा करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार श्री दीपक गिरकर ने सुपेकर को एक संवेदनशील कवि बताया। उन्होंने कहा कि सुपेकर की रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा, निराशा, घुटन सार्थक रूप से अभिव्यक्त हुए हैं। इन रचनाओं में वह रवानी, वह भाव है जो दिल को छू लेता है। 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर वसुधा गाडगिल ने कहा कि इस संग्रह में  श्री सुपेकर की व्यंजना व संवेदना पाठकों को झंकृत कर देने में सफल हुई है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री राममूरत 'राही' ने बधाई देते हुए कहा कि 'नक्कारखाने की उम्मीदें' में एक से बढ़कर एक कविताएं हैं, जो वर्तमान परिदृश्य में एक कवि हृदय का सहज, सरल उदगार है।

कार्यक्रम का सफल संयोजन एवं संचालन वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती  अंतरा करवड़े ने किया और अंत मे आभार वरिष्ठ लेखक श्री दिलीप जैन ने माना।
Book Review | Nakkarkhane ki Ummiden| Santosh Supekar |   Shailendrakumar Sharma| पुस्तक समीक्षा | नक्कारखाने की उम्मीदें | सन्तोष सुपेकर की काव्य कृति |  शैलेंद्रकुमार शर्मा 
समीक्षा के लिए यूट्यूब लिंक : 

https://youtu.be/INlNQFzMQ7o


डॉक्टर संजय नागर
सचिव
सरल काव्यांजलि,उज्जैन
मोबाइल 982763771

20200725

प्रेमचंद और हमारे समय के सवाल : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand & Questions of our time - Prof. Shailendra Kumar Sharma

कथा सम्राट प्रेमचंद और हमारे समय के सवाल : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा |विशेष व्याख्यान | 
Special Lecture on Premchand aur Hamare Samay ke Sawal | Prof. Shailendra Kumar Sharma


गांधी और अंबेडकर की तरह आज प्रेमचंद भी जरूरी - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

प्रेमचंद जयंती के अवसर पर पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित प्रेमचंद जयंती उत्सव 2020 के अंतर्गत आनलाइन विशेष व्याख्यान शृंखला का आयोजन किया जा रहा है। इसी व्याख्यान शृंखला के अंतर्गत विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा शामिल हुए। उन्होंने 'प्रेमचंद और हमारे समय के सवाल' विषय पर अपने व्याख्यान दिया। 




प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि प्रेमचंद ने अपने समय में जो सवाल महिला, दलित एवं शोषित वर्ग की ओर से खड़े किए वह आज भी ज्यों के त्यों ही बने हुए हैं। उन्होंने बताया कि जो छलांग प्रेमचंद के लेखन द्वारा हिंदी कहानियों और उपन्यासों ने विश्व स्तर पर लगाई हैं वह यदि प्रेमचंद नहीं हुए होते तो कई दशक तक हम नहीं लगा पाते और प्रेमचंद ने बड़ी सहजता से ही यह कर दिया।

प्रेमचंद के समक्ष उस समय की चुनौती पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि प्रेमचंद को जहां अंदर रूढ़िग्रस्त समाज पर चोट पहुंचानी थी तो साथ ही साथ बाहर अंग्रेजी हुकूमत पर भी प्रहार करना था और प्रेमचंद इस चुनौती को स्वीकारते हुए अपने लेखन में पूरी तरह सफल भी हुए। प्रेमचंद के साहित्य के कालजयी होने के संदर्भ में उन्होंने कहा कि कृत्रिम बुद्धिमता (Artificial Intelligence) के इस युग में धन केंद्रित सभ्यता मनुष्य को भौतिक पदार्थ बना रही है, जिसे प्रेमचंद ने उस समय ही देखते हुए जो सवाल खड़े किए वह आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं। 

प्रो शर्मा ने विशेष तौर पर बताया कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य में न केवल स्वराज बल्कि सुराज की मांग की तथा प्रेमचंद की दृष्टि में चेहरे बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदलती, जबकि सबसे अधिक महत्व ही व्यवस्था में बदलाव का होता है। उन्होंने प्रेमचंद को बुद्ध, महावीर, गांधी, अंबेडकर, कबीर तथा तुलसीदास जैसे महान विचारकों के समकक्ष रखते हुए कहा कि प्रेमचंद आज भी समाज में उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 

इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से पचहत्तर से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया जिनमें चेन्नई, गुवाहाटी, समस्तीपुर, चंदौली, दिल्ली और विभाग के शोधार्थी एवं विद्यार्थी शामिल रहे। 

विभागाध्यक्ष डॉ. गुरमीत सिंह ने बताया कि हिंदी विभाग हर वर्ष प्रेमचंद जयंती उत्सव का आयोजन करता रहा है। इस वर्ष महामारी के कारण यह उत्सव ऑनलाइन माध्यम से आयोजित किया जा रहा है जिसमें एक पखवाड़े तक अनेक कार्यक्रमों को आयोजित किया जा रहा है। इसकी शुरुआत विशेष व्याख्यान शृंखला की पहली कड़ी के रूप में डॉ. हरीश नवल के व्याख्यान के साथ हुई थी। 





इसके अतिरिक्त 21 जुलाई को प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित कहानी वाचन शृंखला की भी शुरुआत की गई जिसमें अब तक चार कहानियां विभाग के फेसबुक पेज से प्रसारित की जा चुकी हैं तथा इस शृंखला को लेकर भी देशभर से खासा उत्साह देखने को मिला। कार्यक्रम में प्रो. नीरजा सूद, प्रो. नीरज जैन, प्रो. सत्यपाल सहगल, प्रो. पंकज श्रीवास्तव एवं डॉ. राजेश जायसवाल आदि अनेक शिक्षक भी शामिल रहे।







इस पखवाड़े में विशेष व्याख्यान शृंखला के अलावा लघुकथा लेखन प्रतियोगिता भी करवाई गई जिसमें प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि तक देश के तमाम हिस्सों से विद्यार्थियों ने 50 से अधिक लघुकथाएं भेजी हैं। 












पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग का वेब आयोजन |कार्यक्रम की वीडियो विभाग के फेसबुक पेज पर उपलब्ध है। वहां से सुन सकते हैं :

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